Introduction (विषय-प्रवेश )
भारत के इतिहास में सम्राट औरंगजेब का नाम प्रमुख रुप से लिया जाता है। इतिहासकारों ने उसे एक कट्टर सुन्नी मुसलमान की संज्ञा प्रदान की है। समकालीन इतिहासकार खाफी खाॅ ने लिखा है कि –‘‘अपने इतिहास में मुगलों ने पहली बार एक कट्टर मुसलमान को बादशाह के रुप में देखा। एक ऐसा मुसलमान जो अपना दमन उतना ही करता था जितना कि अपनी प्रजा का और एक ऐसा बादशाह जो अपने धर्म के लिए अपने राजसिंहासन को भी छोडने के लिए तत्पर था।‘‘
युवा शहजादा के रुप में औरंगजेब ने एक योग्य सेनापति तथा कुशल शासन प्रबन्धक होने का परिचय दिया। उसने एक लम्बे समय तक भी शासन किया जिससे उसकी शक्ति, दृढता तथा योग्यता का लाभ साम्राज्य को प्राप्त हो सकता था परन्तु फिर भी औरंगजेब असफल हुआ। उसके समय के अन्तिम दिनों में मुगल साम्राज्य पतन की ओर अग्रसर हो गया था। इस प्रकार वह एक कुशल शासक तो था परन्तु उसकी असफलता भी अभूतपूर्व थी।
औरंगजेब का जन्म 3 अक्टूबर 1618 ई0 को उज्जैन के निकट दोहद में हुआ था। बाल्यावस्था से ही वह प्रखर बुद्धि तथा परिश्रमी विद्यार्थी था। उसे धार्मिक विषयों के अध्ययन में विशेष रूचि थी लेकिन साथ ही साथ उसे सैनिक शिक्षा का भी उचित ज्ञान कराया गया और शीध्र ही वह एक कुशल सैनिक बन गया। बहुत वर्षो तक उसने दक्षिण के सूबेदार की भूमिका का निर्वहन किया और इस प्रकार अपने कार्यो के कारण वह एक कुशल सैनिक, प्रबन्धक तथा कूटनीतिज्ञ माना जाने लगा। 18 मई 1637 ई0 को फारस राजघराने के शाहनवाज की पुत्री दिलरास बानो बेगम से औरंगजेब का विवाह सम्पन्न हुआ।
अपने राज्यपाल काल में उसने उच्चकोटि की प्रबन्ध शक्ति तथा कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया लेकिन इसके साथ ही साथ वह अपने दल का शक्तिशाली संगठन करके अपने पिता का राजसिंहासन प्राप्त करने की चेष्टा में भी लगा रहा। कट्टर सुन्नी होने के कारण वह हिन्दूओं विशेषकर राजपूतों को नापसन्द करता था और धार्मिक असहिष्णुता की नीति का पालन करके उसने खुलेआम राजपूतों को अपमानित भी किया। बीजापुर और गोलकुण्डा के अभियानों में उसे सफलता मिलने वाली थी तभी उसे उसके पिता शाहजहॉ के बीमार होने की सूचना मिली और फिर किस प्रकार राजसिंहासन प्राप्त करने के लिए उसने अपने भाईयों के साथ उत्तराधिकार का युद्ध लडा और किस प्रकार सफल हुआ, इसका विवरण पिछले अध्याय में किया जा चुका है।
आगरा दुर्ग को विजित कर तथा अपने पिता को बन्दी बनाने के बाद 31 जुलाई 1658 ई0 को हडबडी में औरंगजेब का राज्याभिषेक हुआ। चूॅकि उसे दारा का पीछा करके शुजा के साथ फेसला करना बाकी था इसलिए उसने उत्सव और जश्न स्थगित कर दिये। सभी प्रतिद्वन्दियों का सफाया करने के बाद 15 मई 1659 ई0 को सम्राट औरंगजेब ने एक शानदार जुलूस के साथ दिल्ली में प्रवेश किया और शाहजहॉ के भव्य महल में धूमधाम के साथ उसका राज्याभिषेक संस्कार ज्योतिषियों द्वारा बताये हुये समय पर हुआ और उसने मयूर सिंहासन पर आसन ग्रहण किया। इस अवसर पर दिल खोल कर उसने धन खर्च किया और राज्य में कई दिनों तक खुशिया मनाई गयी।
प्रारंभिक कार्य : धार्मिक असहिष्णुता –
मुगल साम्राज्य की राजसिंहासन पर विराजमान होते ही औरंगजेब ने शासन प्रबन्ध को बेहतर करने के लिए कुछ आवश्यक कदम उठाये। सबसे पहले सम्राट ने देश में व्यवस्था स्थापित की और राज्यपालों और उच्च अफसरों को नियंत्रण में लाकर देश में शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। अत्यन्त कट्टर सुन्नी मुसलमान होने के नाते औरंगजेब ने राज्य में इस्लामी सिद्धान्तों पर आधारित कानून बनाये। कुरान में बताए गये निर्देशों को कठोरतापूर्वक लागू करने के लिए और राज्य को इस्लामी ढॉचे में बदलने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य किये –
- सिक्कों पर कलमा खुदवाना बन्द कर दिया, क्योंकि वह हिन्दुओं के स्पर्श से अपवित्र हो जाता था। इसका कारण यह भी था कि कहीं हाथ से हाथ में जाते हुए कोई सिक्का किसी के पैर के नीचे न आ जाए या दूसरे तरीके से अपवित्र न हो जाय।
- अकबर द्वारा मनाया जाने वाला ’नौरोज’ उत्सव भी प्रतिबन्धित कर दिया गया जिसे ईरान के सफवी बादशाह मनाते थे और जो एक पारसी प्रथा माना जाता था।
- दरबार में गाना-बजाना, नृत्य आदि बन्द कर दिए गए तथा संगीत के प्रसार पर भी निषेध लगा दिया गया। दरबार से सभी संगीतज्ञ निकाल दिए गए। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत पर फारसी में सबसे अधिक पुस्तके औरंगजेब के शासनकाल में ही लिखी गई तथा स्वयं औरंगजेब एक कुशल वीणावादक था। इस तरह विरोध करने वाले संगीतकारों के सामने औरंगजेब की यह चुटकी कि संगीत के जिस जनाजे वे लेकर जा रहे है उसे इतना गहरा दफन करें कि ‘‘उसकी गूॅज फिर उठने न पाये‘‘ बस एक क्रुद्ध टिप्पणी थी।
- तुलादान की प्रथा बन्द कर दी गई।
- बादशाह की आज्ञाओं का पालन ठीक प्रकार से हो रहा है अथवा नहीं, यह देखने के लिए मुहतसिब नियुक्त किये गए। ये कुरान में वर्जित ठहराए गए कार्यों को होने से रोकते थे।
- सम्पूर्ण साम्राज्य में मादक वस्तुओं, विशेषकर भाँग आदि के उत्पादन एवं सेवन पर रोक लगा दी गई।
- झरोखा दर्शन की प्रथा बन्द कर दी गई क्योंकि वह इसे अंधविश्वासी और इस्लाम के खिलाफ मानता था।
- पुरानी मस्जिदों की मरम्मत करवाई गई।
- स्त्रियों को मजारों और पीरों की पूजा करने से रोका गया।
- अभी तक जो अनेक कर लगाए जाते थे, जिसे ‘अबबाब‘ कहा जाता था, उन्हें बन्द कर दिया गया और कुरान सम्मत केवल चार कर ही रहने दिए गए।
- वेश्यागमन को अवैध घोषित कर दिया गया।
औरंगज़ेब की धार्मिक नीति-
भारतवर्ष के मुस्लिम शासकों में मुगल सम्राट औरंगजेब एक कट्टर व हिन्दू विरोधी शासक माना जाता है। उसके शासनकाल में उसकी धार्मिक नीति के परिणामस्वरूप अनेक विद्रोह हुए और पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई। औरंगजेब ने अकबर द्वारा प्रारंभ की गई धार्मिक सहिष्णुता नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। इस सम्बन्ध में इतिहासकार डबलू0 ए0 स्मिथ ने लिखा है कि -‘‘अकबर ने जो शक्तिशाली राज्य कायम किया था उसे औरंगजेब ने अपनी नीतियों द्वारा समाप्त कर दिया जिससे मुगलवंश का पतन हो गया।‘‘
समकालीन इतिहासकार खाफी खॉ ने अपनी पुस्तक ‘‘मुन्तखब-उल-लुबाब‘‘ में लिखा है कि -‘‘ औरंगजेब ने समय की आवश्यकताओं के अनुरूप तथा राजनीतिक कारणों से धार्मिक क्षेत्र में अपनी नीति निर्धारित की थी।‘‘
एक बात स्पष्ट है कि चाहे राजनीतिक आवश्यकता रही हो अथवा समय की मॉग, औरंगजेब की नीति एक सोची-समझी नीति थी जिसका प्रभाव निश्चित रुप से हिन्दूओं पर पडा। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि उसकी नीति के क्रियान्वयन में उसके कर्मचारियों ने आवश्यकता से ज्यादा उत्साह दिखाया और इतिहासकारों ने वर्णन के समय उसे और बढा दिया। औरंगजेब की धार्मिक नीति प्रारंभिक काल से ही असहिष्णुता और कट्टरता की थी जिसके कारण वह अपनी बहुसंख्यक प्रजा का विश्वास प्राप्त नही कर सका। औरंगजेब की धार्मिक नीति के प्रमुख अंग निम्नलिखित थे –
हिन्दू विरोधी नीति –
औरंगजेब ने इस नीति के अन्तर्गत हिन्दूओं पर विभिन्न तरह से दबाव डालकर अथवा उन्हे प्रोत्साहन देकर इस्लाम धर्म स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित किया। औरंगजेब ने इस्लाम को पुनः राजधर्म घोषित कर दिया और इस्लाम के प्रचार के लिए राज्य की ओर से प्रचारकों को सभी सुविधाएॅ प्रदान की गई। उसने कुफ्र अर्थात बहुदेववाद को समाप्त करके भारत में जिहाद अर्थात धर्मयुद्ध करके, जो उसके विचार में काफिरों अर्थात दारुल-हर्ब का देश था, वहॉ के लोगों को इस्लाम धर्म में दीक्षित करना तथा राज्य का शासनतंत्र कुरान के आदेश के अनुसार करके भारत को इस्लाम का देश अर्थात दारुल-इस्लाम में परिवर्तित करना अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बना लिया था। समस्त गैर-मुस्लिम रीति-रिवाजों पर प्रतिबन्ध लगाकर उसने इस्लामी कानून को फिर से लागू कर दिया। इस्लाम का प्रचार करने और काफिरों को नीचा दिखाने के लिए 12 अप्रैल 1669 ई0 की राजाज्ञा द्वारा गैर-मुसलमानों से लिया जाने वाला जजिया कर न केवल पुनः लगा दिया गया अपितु इसे अत्यन्त कठोरतापूर्वक वसूल किया जाने लगा। जजिया की जॉच और वसूली के लिए समस्त गैर-मुस्लिम जनता को तीन श्रेणियों में बॉटा गया जिनमें प्रथम श्रेणी वाले को 48 दिरहम, द्वितीय श्रेणी वाले को 24 दिरहम तथा तृतीय श्रेणी वाले को 12 दिरहम वार्षिक जजिया कर देना होता था। इस सन्दर्भ में मनूची का विवरण उल्लेखनीय है जिसमें वह कहता है कि अनेक हिन्दू जो कर देने की अवस्था में नही होते थे, वसूली करने वालों द्वारा अपमानित न होने तथा करमुक्त होने के लालच में मुसलमान हो जाते थे।
औरंगजेब ने हिन्दूओं के उपर तीर्थयात्रा कर पुनः लगा दिया गया। प्रत्येक हिन्दू को प्रयाग में गंगा-स्नान के लिए 6 रुप्ये 4 आने तीर्थयात्रा कर के रुप में देने पडते थे। सम्राट ने मुसलमान व्यापारियों से चुंगी की वसूली बन्द कर दी परन्तु हिन्दू व्यापारियों से 5 प्रतिशत चुंगी की वसूली होती रही। मुसलमानों से कम तथा हिन्दूओं से अधिक लगभग दोगुना भू-राजस्व कर वसूल किया गया। 1670 ई0 के राजाज्ञा द्वारा जहॉ तक संभव हुआ प्रान्तों में हिन्दूओं को लगान अधिकारियों के पदों से हटाया गया और राजकीय सेवा में उन्हे उच्च पद देना बन्द कर दिया गया। 1688 ई0 में उसने धार्मिक मेलों और त्यौहारों के मनाये जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इसी वर्ष उसने राजपूतों के अलावा अन्य हिन्दूओं का पालकियों, हाथियों या अच्छे घोडों पर सवारी करना तथा अपने साथ कोई हथियार रखना अपराध घोषित कर दिया।
औरंगजेब ने हिन्दूओं को करों में छूट का प्रलोभन देकर अर्थात करों से मुक्त कर दिया और उन्हे नौकरी का भी प्रलोभन दिया जो इस्लाम धर्म अपनाने को तैयार हो जाते थे। उसने अपराधियों को क्षमा करने की नीति भी अपनायी और जहॉ कहीं भी हिन्दूओं ने विरोधी रुख अख्तियार किया तो औरंगजेब ने उनके साथ वहॉ अत्यन्त कठोरता से उनका दमन किया। इस प्रकार औरंगजेब ने हिन्दूओं को हर प्रकार से क्लेश पहुॅचाकर मुसलमान हो जाने के लिए बाध्य किया। कभी कभी तो वह जबरदस्ती भी लोगों को मुसलमान बना लेता था।
औरंगजेब की मन्दिर विषयक नीति –
औरंगजेब की मन्दिर विषयक नीति के तीन प्रमुख अंग थे –
- उसने नये मन्दिरों के निर्माण पर रोक लगा दी।
- उसने पुराने मन्दिरों की मरम्मत पर रोक लगा दी।
- उसने कही-कहीं मन्दिरों को विनष्ट करने की आज्ञा भी प्रदान की।
दक्कन के गवर्नर के रूप में उसने अहमदाबाद के महत्वपूर्ण चिंतामणि मंदिर सहित कई मंदिरों को ध्वस्त कर दिया था और इनके ध्वंसावशेषों पर मस्जिदों का निर्माण कराया गया था। भारत के सम्राट बनने के बाद इस आदेश का सख्ती से पालन किया गया और अपने शासनकाल के पहले वर्ष में, उसने उड़ीसा के राज्यपाल को प्रांत के सभी मंदिरों को ध्वस्त करने के आदेश जारी किए। अपने शासन के बारहवें वर्ष में, उसने अपने साम्राज्य के भीतर सभी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध मंदिरों के विध्वंस का आदेश दिया। मन्दिरों की मरम्मत पर प्रतिबन्ध लगाने के बाद अपने प्रान्त के राज्यपालों को काफिरों के मन्दिरों तथा पाठशालाओं को, धार्मिक तथा पवित्र स्थानों को तोड-फोड डालने तथा उनके धार्मिक तथा विद्या के प्रचार को रोकने का कठोर आदेश जारी किया। इस आदेश के फलस्वरुप मुहतसिब लोगों को अपनी सीमा के हर भाग में जाकर समस्त हिन्दू मन्दिरों को नष्ट-भ्रष्ट करना पडा। भारतीय संस्कृति को विनष्ट करते हुए हिन्दूओं के अनेक पाठशालाओं को भी ध्वस्त कर दिया गया जिससे हिन्दूओं की शैक्षणिक प्रगति रुक गई। इस आदेश के बाद भारतवर्ष में हजारों की संख्या में मन्दिरों को तोड दिया गया। मन्दिर तोडने के लिए नियुक्त किये गये सरकारी कर्मचारियों की इतनी संख्या थी कि उनको आदेश देने तथा उनकी देखभाल के लिए एक दारोगा तक की नियुक्ति करनी पडी थी। इसी नीति के तहत् विश्वप्रसिद्ध बनारस के विश्वनाथ मन्दिर, मथुरा के केशवदास मन्दिर तथा पाटन के सोमनाथ के पवित्र मन्दिरों को गिरा दिया गया। हद तो तब हो गयी जब मुगलों के मित्र जयपुर जैसे मित्र हिन्दू राज्यों के मन्दिरों को भी नही छोडा गया। अकेले मेवाड़ में, कहा जाता है कि उसने 240 मंदिरों को ध्वस्त कर दिया। कभी-कभी तो मूर्तियों को तोडने के साथ-साथ अनियंत्रित भ्रष्टता का कार्य भी सम्पन्न हुआ, जैसे देवालयों में गौओं का वध करना, मूर्तियों को पैरों तले रौंदना आदि। देश के सभी प्रान्तों से दिल्ली और आगरा में गाडियॉ भर-भरकर मूर्तिया लाई गई और उन्हे दिल्ली, आगरा और अन्य नगरों की जामा मस्जिदों की सीढियों के नीचे भरवा दिया गया।
मन्दिर सम्बन्धी नीति के मामले में ऐसा प्रतीत होता है कि औरंगजेब औपचारिक रुप से शरीयत के दायरे में रहा हो पर इसमें शक शायद की है कि इस बारे में उसके पूरे रुख ने उसके पूर्वजों की व्यापक सहिष्णुता की नीति को धक्का पहुॅचाया। इसके कारण यह विचार प्रचलित हो गया कि किसी भी बहाने मन्दिरों के विनाश को बादशाह स्वागत ही करेगा। हालॉकि औरंगजेब द्वारा हिन्दू मन्दिरों और मठों को दान दिये जाने के बहुत से उदाहरण भी मिलते है लेकिन कुल मिलाकर हिन्दू मन्दिरों के प्रति औरंगजेब की नीति से पैदा माहौल में हिन्दूओं में असन्तोष का पनपना लाजिमी था। स्पष्ट है कि औरंगजेब के शासनकाल में साम्राज्य इस्लाम के प्रचार हेतु बलवान संस्था बन गई थी और राज-धन और शक्ति इस्लाम के प्रचार के काम में लगाया जा रहा था। अकबर ने 16वी ंशताब्दी में धार्मिक सहिष्णुता की जिस नीति को अपनाया था, औरंगजेब ने 17वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में उसका पूर्णतः त्याग कर दिया।
औरंगजेब की धार्मिक नीति के परिणाम –
औरंगजेब की धार्मिक नीति मुगल साम्राज्य के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुई। इसी काल में अनेक स्थानों पर बार-बार हिन्दूओं के विद्रोह हुए और अकबर ने जिस कुशलता से राजपूतों का सहयोग प्राप्त करके मुगल साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान किया था, औरंगजेब उसके महत्व को नहीं समझ सका। उसकी धार्मिक नीति ने राजपूतों को शंकालु बना दिया जिससे न केवल मुगल साम्राज्य को कुशल सेनापति तथा प्रशासकों से वंचित होना पडा अपितु औरंगजेब को राजपूतों के प्रबल विरोध का भी सामना करना पडा। स्पष्ट है कि उसकी धार्मिक कट्टरता की नीति ने न केवल औरंगजेब को नुकसान पहुॅचाया बल्कि मुगल वंश के लिए भी यह घातक साबित हुआ।
औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीतियों के भयंकर दुष्परिणाम सामने आये –
- उसकी नीति ने मुगल साम्राज्य की एकता, शक्ति, शान्ति और समृद्धि को बिनष्ट कर दिया।
- उसकी धार्मिक कट्टरता की नीति के फलस्वरुप मुगल वंश का पतन प्रारंभ हो गया।
- इस नीति के परिणामस्वरुप मुगल साम्राज्य में जाटों, सिक्खों, सतनामियों आदि के विद्रोह तथा बुन्देलखण्ड, दोआब आदि स्थानों पर समय-समय पर उपद्रव हुये।
- राजपूतों का विरोध तथा मराठों के संघर्ष का एक प्रमुख कारण औरंगजेब की कट्टर धार्मिक नीति ही थी।
- इस नीति के फलस्वरुप राज्य की आर्थिक और सैनिक शक्ति नष्ट होती चली गई।
- इस नीति के कारण प्रजा का धन, सम्मान तथा सुरक्षा खतरे में पड गयी।
- औरंगजेब की इस नीति से उसके समय में न तो शक्ति का स्थायी विस्तार हुआ, न राज्य में समृद्धि आई और न ही कलाओं और साहित्य के क्षेत्र में कोई प्रगति हुई।
- समस्त बहुसंख्यक जनता उसके विरुद्ध विद्रोह कर बैठी।
स्पष्ट है औरंगजेब की इस नीति से राज्यों में जाटों, सिक्खों तथा सतनामियों के भयंकर विद्रोह हुये जिसे दबाने में औरंगजेब को अपार धन-जन की हानि उठानी पडी। इसी नीति के परिणामस्वरूप मराठों के साथ एक परम्परागत शत्रुता विकसित हुई जो औरंगजेब की मृत्यु तक चलती रही। औरंगजेब की शिवाजी के प्रति नीति के सम्बन्ध में इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने अपनी पुस्तक ‘‘हिस्ट्री आफ औरंगजेब‘‘ में लिखा है कि – ‘‘शिवाजी के प्रति औरंगजेब की नीति ने एक ऐसी शक्ति की नींव डाली जो मुगल साम्राज्य का प्रबल प्रतिद्वन्दी बना और कालान्तर में औरंगजेब तथा मुगल साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बना।
अतः लेनपूल के शब्दों में कहा जा सकता है कि – ‘‘यदि औरंगजेब ने अपनी क्रियाशील शक्ति और अदुभूत योग्यता को अपने विनाश के रुप में प्राप्त हुए गौरवपूर्ण साम्राज्य का विनाश करने वाले कार्यो में व्यय न किया होता तो वह सरलता से सिंहासन का आभूषण बन गया होता और वह इसी बात से सन्तुष्ट था कि तात्कालीन रूढिवादी मुसलमान उसे जिन्दा पीर समझते है……..उसका गौरव मात्र उसके लिए था……… उसके विशाल साम्राज्य के लिए उसका निष्ठावान धार्मिक उत्साह एक अभिशाप सिद्ध हुआ।‘‘
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