Introduction (विषय-प्रवेश )
शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री ’जगत गोसाई’ के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसके बचपन का नाम ख़ुर्रम था और बचपन से ही वह चतुर और कुशाग्र बुद्धि का था जिसके कारण वह अपने पितामह अकबर का सर्वप्रिय प्रपौत्र बन गया। अकबर ने उसकी शिक्षा-दीक्षा स्वयं अपनी देखरेख में करानी आरंभ कर दी और शीध्र ही शाहजहॉ युद्धकला और सैन्य संचालन में निपुण हो गया। 1610 ई0 में उसका विवाह मुजफ्फर हुसैन सफव्बी की पुत्री से सम्पन्न कर दिया गया। 1612 ई0 में जब वह 20 वर्ष का हुआ, उसका विवाह आसफ खॉ की पुत्री अर्जुमन्द बानो बेगम के साथ सम्पन्न हुआ जो कालान्तर में ‘मुमताज महल‘ के नाम से प्रसिद्ध हुई। जहॉगीर के शासनकाल में शाहजहॉ को अनेक युद्धों का संचालन करना पडा और मेवाड विजय उसकी विजय कीर्ति का ही इतिहास है। जहॉगीर के शासनकाल में दक्षिण अभियान की सफलता भी शाहजहॉ के प्रयासों का ही परिणाम था। इस प्रकार प्रारंभ में नूरजहॉ गुट के सदस्य के रुप में शाहजहॉ ने अत्यधिक ख्याति प्राप्त किया। लेकिन कालान्तर में नूरजहॉ द्वारा शाहजहॉ को सत्ता से बेदखल करने के लिए रचे गये षडयंत्रों से तंग आकर उसने विद्रोह कर दिया। कालान्तर में वह अपने पिता की शरण में आने के लिए बाध्य हुआ और उसे क्षमा कर दिया गया।
जहॉगीर के देहान्त के पश्चात सत्ता संधर्ष में शाहजहॉ की ओर से आसफ खॉ ने शहरयार को युद्ध में परास्त कर उसे बन्दी बना लिया और उसकी ऑखे निकाल ली गई। इस प्रकार 1628 ई0 में उसने आसफ खॉ की सहायता से राजगद्दी पर आधिपत्य स्थापित करने में सफलता पाई और वह सम्राट घोषित किया गया। नूरजहॉ को पेन्शन देकर शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत करने हेतु उसे लाहौर भेज दिया गया जहॉ 1645 ई0 में उसकी मृत्यु हो गयी।
खानजहॉ लोदी का विद्रोह, (1628-31 ई0)-
शाहजहॉ को अपने शासनकाल में अनेक विद्रोहों का सामना करना पडा जिनमें सबसे पहला विद्रोह खानजहॉ लोदी का था। पीर खान उर्फ खानजहॉं लोदी मुगलों का एक सक्षम और सम्मानित अफगान कुलीन था। जहाँगीर के शासन के अंतिम दिनों में, वह दक्कन का गवर्नर था। जब शाहजहाँ ने जहाँगीर के खिलाफ विद्रोह किया, तो वह उदासीन रहा था और उसने शाहजहाँ की मदद करने से भी इनकार कर दिया था। वास्तव में प्रारंभिक चरण में उसे दक्षिण में परवेज का सलाहकार नियुक्त करके भेजा गया था और जहॉगीर की मृत्यु के बाद उसने शहरयार का पक्ष लिया था। यहां तक कि उसने दक्कन के राज्यों से दोस्ती करने की कोशिश की और बालाघाट को तीन लाख रुपये में अहमदनगर को बेच दिया। संभवतः, वह अपने लिए एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहता था। जहांगीर की मृत्यु के तुरंत बाद जब शाहजहॉ सम्राट बना और उसने महाबत खॉ को ‘खान-ए-खाना‘ की उपाधि प्रदान की तो खानजहॉ लोदी परेशान हो गया था। शाहजहाँ ने उसे अहमदनगर से बालाघाट को पुनः प्राप्त करने का आदेश दिया। खानजहॉ ने इसके लिए प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा जिसके कारण शाहजहाँ असंतुष्ट हुआ और उसने खानजहॉ लोदी को मालवा के गवर्नर पद पर स्थानांतरित कर दिया और महाबत खान को दक्कन का गवर्नर नियुक्त कर दिया।
इसी समय जुझार सिंह बुंदेला के विद्रोह ने खानजहाँ से शाहजहाँ का ध्यान हटा लिया और खानजहॉ लोदी को उस विद्रोह को दबाने में शाही सेना की मदद करने के लिए कहा गया। इस विद्रोह के बाद, शाहजहाँ ने 1629 ई0 में खान जहॉं को अदालत का दौरा करने का आदेश दिया। उसने उस अदालत में भाग लिया जहाँ वह उस सम्मान को प्राप्त करने में विफल रहा जो उसे जहाँगीर के शासनकाल के दौरान प्राप्त हुआ था। उसने अपने जीवन के लिए खतरा महसूस किया और उसी वर्ष डेक्कन की ओर भाग गया। परिणामस्वरुप शाही सेना ने उसका पीछा किया और चंबल नदी के पास हुए एक युद्ध में वह हार गया। हालांकि, वह अपने कई रिश्तेदारों, महिलाओं और उसके पीछे हरम की महिलाओं को छोड़कर अहमदनगर पहुंचने में सफल रहा। अहमदनगर के शासक मुर्तजा निजाम शाह ने उनका स्वागत किया, उसे एक जागीर से सम्मानित किया और उन्हें उस क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने की जिम्मेदारी सौंपी जो अहमदनगर से मुगलों द्वारा छीन लिया गया था।
दक्कन में खानजहाँ की उपस्थिति ने मुगलों के लिए समस्याएँ खड़ी कर दीं और शाहजहाँ ख़ानजहॉ लोदी के विद्रोह को दबाने के उद्देश्य से स्वयं वहाँ पहुँचा। शाहजहाँ ने खानजहॉ पर तीन तरफ से हमला किया और उसे सुरक्षा के लिए वहॉ से भागने के लिए मजबूर कर दिया। वह दौलताबाद की ओर भाग गया और गोलकुंडा के शासक से मदद लेने की कोशिश की जो उसे नहीं मिला। मुगलों की उपस्थिति और स्वयं सम्राट के आगमन के कारण निज़ाम शाह भी इस युद्ध में तटस्थ हो गया इसलिए खानजहॉ को दक्कन छोड़ने के लिए मजबूर होना पडा। खानजहॉ नर्बदा नदी को पार कर उत्तर भारत की ओर भागने में सफल रहा। यहॉ उसने जुझार सिंह के पुत्र बिक्रमजीत पर हमला किया, जिसने उनके कई समर्थकों को मार डाला। खान जहान ने अपनी आखिरी लड़ाई उत्तर प्रदेश के आधुनिक बांदा जिले के सिहांडा में लड़ी और इस संघर्ष में माधोसिंह ने उसे मार डाला। उसका सिर काटकर शाहजहाँ के पास भेज दिया गया। इस प्रकार 1631 ई0 में खानजहाँ का विद्रोह उसकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हुआ।
बुन्देलखण्ड का विद्रोह, 1628-29 ई0–
शाहजहॉ के शासनकाल का दूसरा विद्रोह वीरसिंह बुन्देला के पुत्र जुझरसिंह का था। सूच्य है कि वीरसिंह बुन्देला ने अकबर के विद्रोही पुत्र जहॉगीर के इशारे पर अबुल फजल का कत्ल कर दिया था। अपनी जाति की वीरता और अपने पिता पर भूतपूर्व सम्राट द्वारा की गयी कृपाओं के कारण जूझरसिंह को मुगल सरदारों में उच्च पद व प्रतिष्ठा प्राप्त थी। शाहजहॉ के राज्याभिषेक के उपरान्त जूझरसिंह ने अपने राज्य के शासन का भार अपने पुत्र विक्रमाजीत सिंह पर सौंप कर वह सम्राट की सेवा में आगरा चला गया। उसकी अनुपस्थिती में विक्रमाजीत सिंह ने अपने निर्दयतापूर्ण व्यवहार तथा अत्यधिक मालगुजारी एकत्रित करके अपनी प्रजा की सहानुभूति खो दी। जब यह खबर शाहजहाँ तक पहुँची, तो उसने पिछले संग्रहों की जाँच के आदेश दिए। इससे जुझर सिंह घबरा गया और मुगल दरबार से भागकर बुंदेलखंड चला गया।
शाहजहाँ ने मुग़ल सेना को 1628 ई0 में बुंदेलखंड पर अलग-अलग दिशाओं से आक्रमण करने का आदेश दिया और स्वयं ऑपरेशनों की निगरानी के लिए ग्वालियर पहुँच गया। जुझर सिंह को सम्राट के खिलाफ लड़ने की निरर्थकता का एहसास हुआ और उसने 1629 ई0 में आत्मसमर्पण कर दिया। उसने एक हजार स्वर्ण मोहरों, पंद्रह लाख रुपये, चालीस हाथियों और अपने जागीर का एक हिस्सा सम्राट को भेंट किया। शाहजहाँ ने उसे क्षमा कर दिया और उसे दक्कन के अभियान में भेज दिया। इस प्रकार जुझर सिंह ने सम्राट की पांच साल तक निष्ठापूर्वक सेवा की और दक्कन के युद्धों में भाग लिया।
1634 ई0 में वह अपनी राजधानी ओरछा लौट आया। 1635 ई0 में उसने गोंडवाना पर विजय प्राप्त की और उसके शासक प्रेम नारायण की हत्या कर दी। यह बादशाह की नजर में एक अपराध था क्योंकि मुगल सम्राट ने अपने जागीरदार शासकों के बीच लड़ाई की अनुमति नहीं दी थी। प्रेम नारायण के पुत्र ने भी सम्राट से न्याय की अपील की। शाहजहाँ ने जुझर सिंह को आदेश दिया कि या तो वह दस लाख रुपये का भुगतान करे और गोंडवाना को उसे सौंप दे या अपने जागीर के हिस्से को सौंप दे जो गोंडवाना के बराबर हो सकता है। जुझर सिंह ने इनमें से किसी भी शर्त को मानने से इनकार कर दिया। शाहजहाँ ने तब औरंगजेब को बुंदेलखंड पर आक्रमण करने के लिए भेजा। जुझर सिंह और उनके बेटे बिक्रमजीत ने राजधानी ओरछा को त्याग दिया और चौरागढ़ में आश्रय पाया और आखिरकार दक्कन की ओर बढ़े। ओरछा पर औरंगजेब ने अधिकार कर लिया और उसने हिंदू-मंदिरों को नष्ट कर उसके स्थानों पर मस्जिदों को खड़ा कर दिया। जुझर सिंह और बिक्रमजीत दोनो को गोंडों ने जंगल में मार डाला और उनके सिर शाहजहाँ के सामने पेश किए गए। जुझर सिंह के दो पुत्रों और उनके एक पौत्र को इस्लाम में परिवर्तित कर दिया गया।
युद्ध के दौरान जिन बुंदेला महिलाओं को पकड़ा गया था, उन्हें या तो मुगुल-हरम पर ले जाया गया या मुगुल रईसों के बीच वितरित किया गया। बुंदेलखंड को जुझर सिंह के रिश्तेदारों में से एक देवी सिंह को सौंप दिया गया था, जो युद्ध के दौरान मुगलों के साथ थे। इस प्रकार, 1635 ई0 में बुंदेलखंड के विद्रोह का क्रूरतापूर्वक दमन तो कर दिया गया लेकिन बुन्देलों ने देवीसिंह को अपना राजा मानने से इन्कार कर दिया। महोबा के चम्पतराय और उसके पुत्र छत्रसाल ने कई वर्षो तक बुंदेलखंड को मुगलों के हाथों से मुक्त करने के प्रयास किए गए और अपनी स्वतंत्रता का युद्ध जारी रखा।
शाहजहॉ की दक्षिण नीति –
शाहजहां के समय अधिक सशक्त और आक्रामक दक्षिण नीति देखने को मिलती है। उसने दक्षिण भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के दृढ़ प्रयास किये। वह स्वंय अच्छा सेनापति था तथा दक्षिण भारत की स्थिति व राजनीति का उसे अच्छा अनुभव था। खानजहॉ के विद्रोह के बाद उसने दक्षिणी सूबे का कार्यभार सॅभालने के लिए आजम खॉ को नियुक्त किया। पद सॅभालते ही आजमखॉ ने अहमदनगर के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया।
1626 में मलिक अम्बर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र फतह खॉ राज्य का वजीर बना। वह अयोग्य, स्वार्थी और धूर्त था। उसने मुर्तजानिजाम शाह‘ द्वितीय की हत्या करवा दी। वह अपने स्वामी अथवा निजाम शाही वंश के प्रति वफादर नहीं था। उसने 10 वर्षीय शाहजादें ‘हुसैन शाह‘ को गद्दी पर बिठाया परन्तु उसके प्रति भी वह वफादर न रहा। उसने शाहजहां से भारी रिश्वत लेकर ‘दौलताबाद‘ पतन करवा दिया। इसका अर्थ था- अहमदनगर की समाप्ति। हुसैन शाह को ग्वालियर के किले में बन्द कर दिया गया और बदले में फतह खां को उच्च पद और वेतन का पुरस्कार मिला। अहमदनगर राज्य को मुगल साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
गोलकुंडा के शासक अब्दुल्ला कुतुबशाह के अल्पायु होने तथा सरदारों की आपसी कलह के कारण इस समय गोलकुंडा की हालत दुर्बल हो रही थी। शाहजहां ने जब मुगलों की अधीनता स्वीकारने हेतु दबाव देते हुए पत्र भेजा तो 1636 में गोलकुंडा ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करते हुए सन्धि कर ली। सन्धि की शर्तो के मुताबिक सिक्कों पर शाहजहॉ का नाम रखना तय हुआ और यह भी तय हुआ कि खुतबा शाहजहॉ के नाम से पढा जाएगा। सुल्तान ने लगभग 6 लाख रुपये वार्षिक कर देना स्वीकार किया। उसने पिछला बकाया कर भी भुगतान करने का आश्वासन दिया और यह भी आश्वासन दिया कि यदि बीजापुर ने मुगलों पर हमला किया तो गोलकुण्डा बीजापुर के विरुद्ध मुगलों की सहायता करेगा।
बीजापुर में इस समय मुहम्मद आदिल शाह सुल्तान था। शाहजहॉ के काल में 1631 में मुगलों का आक्रमण विफल रहा था लेकिन पुनः 1636 में मुगलों ने बीजापुर पर आक्रमण किया और इस बार बीजापुर के शासक ने नई सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिये जिसकी शर्ते शाहजहॉ ने स्वयं बनाई थी। बीजापुर ने मुगलों की अधीनता को स्वीकार करते हुए प्रतिवर्ष 20 लाख रुपये देना स्वीकार कर लिया। इस सन्धि की अनुसार परेण्डा और कोंकण बीजापुर के अधिकार में सौंप दिये गये। इस प्रकार बीजापुर के शासकों ने इस सन्धि की धाराओं का पालन 1656 ई0 तक किया।
पुर्तगालियों का दमन-
अकबर के शासनकाल के उत्तरार्द्ध में और जहांगीर के शासन काल में पुर्तगालियों को अनेक सुविधाएं प्रदान की गई थी और वे बंगाल में हुगली नदी के तट पर स्थयी रूप से बस गये थे। इस दौरान उनका व्यापार काफी बढ गया था और मुगल शासकों द्वारा प्रदान की गई सुविधाओं का अब वे दुरुपयोग करने लगे थे। वे भारतीय जनता के साथ अच्छा व्यवहार नही करते थें एंव उन्हें बलात् ईसाई बना देते थे। वे बूढ़ों का अपहरण तथा गांवो में लूटपाट भी किया करते थे। एक समय ऐसा भी आया जब शाहजहॉ की पत्नी मुमताज बेगम के लिए लाई गयी दो दासी कन्याओं की नावों को पुर्तगालियों ने अपने नियंत्रण में ले लिया। अतः उन्हें दंडित करने के उद्देश्य से 1631 ई0 में शाहजहां ने बंगाल के गवर्नर कासिम खां को आदेश दिया कि वह पुर्तगलियों का दमन करे। अतः कासिम खां ने जल तथा थल दोनों मार्गो से पुर्तगालियों पर आक्रमण कर दिया और पॉच सप्ताह तक पुर्तगाली बस्तियों का घेरा डाले रखा। तीन महीने तक दोनों पक्षो में भयंकर युद्ध हुआ। अंत में पूर्तगाली पराजित हुए और बाध्य होकर उन्हें आत्म-समर्पण करना पड़ा। इस युद्ध में पुर्तगालियो की अपार क्षति हुई और लगभग 10000 पुर्तगाली सैनिक इस युद्ध में मारे गए एवं 440 बंदी बनाए गए। शाहजहां ने पुर्तगालियों को आदेश दिया कि या तो वे इस्लाम धर्म स्वीकार कर लें या फिर आजीवन कारावास का दंड। इस प्रकार पुर्तगालियों पर शाहजहॉ ने नियंत्रण स्थापित करने में सफलता अर्जित की।
शाहजहॉ की मध्य एशियाई नीति-
शाहजहां ने अपने पूर्वजों की तरह मध्य एशिया में ट्रान्सआक्सियाना पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहा। 1645 में शाहहजॉ ने बल्ख तथा बदख्शों को राजनीतिक संदेश भेजे पर जब इसका कोई असर नहीं हुआ तो शाहजहां ने मुराद के नेतुत्व में एक विशाल सेना मध्य एशिया पर आधिपत्य के लिए भेजी। 1646 ई0 में मुराद ने बल्ख पर अधिकार कर लिया। मुराद यहां रहना नहीं चाहता था इसलिए वह शीध्र ही वापस भारत आ गया। अब औरगंजेब को बल्ख भेजा गया। उसने अनेक कठिनाईयों का सामना करने के पश्चात् बल्ख में प्रवेश किया। औरंगजेब का वहां अब्दुल अजीज की उज्बेग सेना के साथ भंयकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगलों की अपार क्षति हुई, मजबूरन औरंगजेब को पीछे हटना पड़ा। वह बहुत ही मुश्किल से काबुल पहुचॉ। इस युद्ध में हुई मुगलों की हानि के विषय में जदूनाथ सरकार ने लिखा है, ‘‘देश की समृद्धि से शाहजहां का सिर फिर गया। हिन्दूकुश पर्वत के आगे एक अपरिचित स्थान में भारतीय सेनाओं को ले जाना गलत था। इसमें असफलता मिलनी निश्चित थी। शुत्र प्रदेश की 1 इंच भूमि भी मुगल साम्राज्य में न मिलाई जा सकी और न ही बल्ख का राजवंश ही बदला जा सका। इस तरह शाहजहॉ अपनी मध्य एशिया की नीति में पूर्णतः असफल रहा।
मुमताज महल का जीवन –
शाहजहॉ की पत्नी मुमताज महल का जन्म 1594 ई0 में हुआ था। इसका मूल नाम अर्जुमन्दबानो बेगम था जो नूरजहॉ के भाई आसफखॉ की पुत्री थी। शाहजहॉ की उम्र जब 16 वर्ष की थी तभी अर्जुमन्दबानों बेगम के साथ उसकी सगाई निश्चित हो गयी और अप्रैल 1612 ई0 में इन दोनो का विवाह सम्पन्न हुआ। इनका विवाह अत्यन्त सफल विवाह सिद्ध हुआ। मुमताज महल ने शाहजहॉ के जीवन में सुख और दुख दोनों में पूर्णरुप से एक पतिव्रता पत्नी की भॉति भाग लिया और उस समय जबकि खुर्रम अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करता हुआ दक्षिण से उडीसा, बंगाल और विहार भागा फिर रहा था तब मुमताज परछाई की भॉति उसके साथ रही। मुमताज को कुल 14 बच्चे हुए और वह मृत्युपर्यनत अपने पति की प्रिय बनी रही। वह शाहजहॉ की सबसे पसंदीदा पत्नी थी और उसको ‘मलिका-ए-जमानी‘ की उपाधि प्राप्त थी।
मुमताज महल सुशिक्षित और सुयोग्य गृहिणी के साथ-साथ अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न और सुहृदया भी थी। उसकी दासी सतीउन्निसा खानम उसकी विशेष सलाहकार तथा मानवीय कार्यो में उसकी परामर्शदात्री थी। मुमताज महल धार्मिक अन्धविश्वास और रुढिवादिता के रंग में रंगी हुई इस्लाम धर्म की कट्टर उपासिका थी। इतिहासकारों का मानना है कि शाहजहॉ की अन्य धर्मो के प्रति कट्टरता का एक बहुत बडा कारण मुमताज की धर्मान्धता ही थी। 1631 ई0 में प्रसव पीडा के समय बुरहानपुर में जबकि शाहजहॉ दक्षिण विजय में व्यस्त था, उसकी मृत्यु हो गयी। उसके शव को आगरा में लाकर दफना दिया गया और उसकी कब्र पर विश्वप्रसिद्ध स्मारक ताजमहल का निर्माण हुआ।
उत्तराधिकार के लिए संघर्ष –
सितम्बर 1657 ई0 में शाहजहॉ बीमार पडा और शीध्र ही उसके मरने की अफवाहे फैलने लगी। अपना अन्त समय निकट महसूस कर शाहजहॉ ने अपनी वसीयत लेखनी प्रारंभ करा दी जिसके अनुसार उसके साम्राज्य का भार उसके ज्येष्ठ पुत्र दारा को सौपा गया। दारा के अतिरिक्त शाहजहॉ के तीन और पुत्र थे- शुजा, औरंगजेब और मुरादबख्श। ये सभी युवा थे और विभिन्न प्रान्तों के शासक थे। पिता की बीमारी के समय दारा दिल्ली और पंजाब का, शुजा बंगाल का, औरंगजेब दक्षिण का तथा मुरादबख्श गुजरात का शासक था। उल्लेखनीय है कि एक ही माता से जन्म लेने के वावजूद इनके आपसी सम्बन्ध सौहार्दपूर्ण नही थे और सभी की नजरें दिल्ली के राजसिंहासन पर टिकी थी। दारा के धार्मिक विचार बडे उदार थे और वह हिन्दूओं व राजपूतों के सरदारों का प्रिय था। शुजा का झुकाव शिया धर्म की ओर था जबकि औरंगजेब कट्टर सुन्नी मतावलम्बी था और वह गैर-मुसलमानों से नफरत करता था। मुराद की अपनी स्वयं की विशेषता थी, वह स्वयं सुन्नी होने के वावजूद धार्मिक कट्टरता का पोषक नही था। एक प्रकार से धर्म के प्रति वह उदासीन था।
पिता की बीमारी का समाचार पाते ही शुजा, औरंगजेब और मुरादबख्श ने दारा के विरुद्ध युद्ध की तैयारी प्रारंभ कर दी। सर्वप्रथम मुराद ने गुजरात में अपने आप को सम्राट घोषित करते हुए अपने नाम के सिक्के ढलवाये। शुजा ने अपनी विशाल सेना के साथ दारा के विरुद्ध आगरे पर धावा बोल दिया। यहॉ दोनो ने औरंगजेब से सहयोग के लिए पत्र. व्यवहार किया और औरंगजेब ने चतुरता से अपने दोनों भाईयों पर यह प्रकट नही होने दिया कि वह अन्य सभी भाईयों को मारकर स्वयं शासक बनना चाहता है। एक प्रकार से औरंगजेब ने इन दोनो भाइयों का अपने हित में प्रयोग किया और अपनी बहन रोशनआरा से आगरा के शाही दरबार की स्थितियों और तैयारियों का हाल लेता रहा। इन सब कार्यो में गुप्त रुप से मीर जुमला औरंगजेब का दाहिना हाथ बना हुआ था और सैनिकों को अपने पक्ष में करने में लगा था।
औरंगजेब ने मुराद से पत्र व्यवहार कर यह समझौता कर लिया कि दोनो भाई मिलकर दारा की शक्ति को नष्ट करे और तत्पश्चात साम्राज्य को आपस में बॉट ले। यह भी तय हुआ कि लूट के माल में मुराद को एक तिहाई और औरंगजेब को दो तिहाई माल मिले। एक तरफ ये दोनो भाई सम्मिलित हमले की तैयारियॉ कर रहे थे तो दूसरी तरफ शुजा अपने राजमहल में राज्यारोहण की रस्म पूरी कर आगरे की ओर बढता हुआ 1658 ई0 में बनारस पहुॅचा। दारा की योजना यह थी कि पहले मुराद और शुजा को दबाया जाय और तब औरंगजेब से टक्कर ली जाय। अतः शुजा का सामना करने के लिए उसने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह और आमेर के राजा जयसिंह को भेजा। 24 फरवरी 1658 ई0 को बनारस के समीप बहादुरपुर नामक स्थान पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ जिसमें शुजा पराजित हुआ और वह बंगाल की ओर भाग गया।
इस बीच औरंगजेब ने अपनी रणनीति के तहत् दारा का ध्यान बटॉने के लिए ईरान के शाह अफगानिस्तान पर हमला करने को प्रोत्साहित किया और स्वयं औरंगाबाद से कूच करते हुए दीपालपुर पहुॅचकर मुराद की सेना के साथ आ मिला। इस प्रकार यह सम्मिलित सेना धरमट की ओर चल पडी। दक्षिण की ओर से इस हमले का समाचार पाते ही दारा ने महाराजा जसवन्त सिंह और कासिम खॉ के नेतृत्व में मुगल सेना औरंगजेब और मुराद का सामना करने के लिए भेजा। यहॉ औरंगजेब ने जसवन्त सिंह को यह सूचना भिजवायी कि उसका आगमन केवल पिता के दर्शनार्थ है लेकिन जसवन्त सिंह अपनी सेना के साथ आगे बढना जारी रखा और बाद में उसे ज्ञात हुआ कि वह अकेला नही है बल्कि मुराद भी उसके साथ है। इस प्रकार 25 अप्रैल 1658 ई0 को धरमट में दोनो सेनाओं के बीच युद्ध हुआ जिसमें औरंगजेब और मुराद की संयुक्त सेना को विजय प्राप्त हुई। पराजय के पश्चात शाही सेना के कई अफसर औरंगजेब से जा मिले।
इस प्रकार धरमट के विजय से औरंगजेब का सिक्का जम गया और इस विजय की स्मृति में उसने धरमट के पास ही फतहाबाद नामक नगर बसाया। तत्पश्चात ग्वालियर के रास्ते आगरा पहुॅचने के लिए अपनी सेना के साथ चल पडा। शीध्र ही आगरा से 8 मील दूर सामूगढ में औरंगजेब और उसकी सेना की उपस्थिति से दारा के होश उड गये और वह आनन-फानन में एक सेना के साथ अपने छोटे पुत्र शिकोह के नेतृत्व में सामूगढ की ओर चल पडा। औरंगजेब ने अपनी कूटनीति से दारा की सैन्य शक्ति को क्षीण करते हुए बहुत से मुसलमान अफसरों को अपनी ओर मिला लिया। 8 जून 1658 ई0 को औरंगजेब और दारा की सेनाओं के मध्य युद्ध प्रारंभ हुआ और एक लम्बे और घमासान युद्ध के बाद अन्ततः दारा को हार का सामना करना पडा। दारा हताश होकर युद्धभूमि से भाग गया और दिल्ली की ओर उसने प्रस्थान किया।
विजयी औरंगजेब ने विजय का सेहरा अपने भाई मुराद के सर बॉधा और अब दोनो भाई आगरा आये। यहॉ अधिकांश सरदार और दरबारी विजयी राजकुमारों के पक्ष में जा मिले। शाहजहॉ ने औरंगजेब को मिलने के लिए बुलाया लेकिन औरंगजेब ने अपने अविश्वासी स्वभाव के कारण पिता से मिलने से मना कर दिया और किले की ओर सैनिक चौकियॉ बैठा दी। प्राणों को संकट में समझकर शाहजहॉ ने दुर्ग का फाटक बन्द कर दिया। औरंगजेब ने दुर्ग की प्राचीरों को तोडने का भरसक प्रयत्न किया लेकिन सफलता नही मिलने पर औरंगजेब ने यमुना से दुर्ग की जलप्राप्ति रोक दी। अन्ततः जहॉआरा की मध्यस्थता से बाप और बेटे के मिलने का प्रबन्ध किया गया जिसमें शाहजहॉ ने साम्राज्य को चारों भाइयों में बॉटने का प्रस्ताव रखा। लेकिन औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहॉ को बन्दी बनाकर जेल में डाल दिया और उससे बादशाह के समस्त अधिकार छीन लिये। आगरा पर अधिकार कर लेने के बाद 13 जून 1658 ई0 को औरंगजेब दाराशिकोह का पीछा करने के लिए दिल्ली की ओर चल पडा।
दिल्ली के मार्ग में ही औरंगजेब और मुराद के बीच सम्बन्धों में कटुता बढ गयी। औरंगजेब ने मुरादबख्श को घोडे तथा 20 लाख रुपया भेजकर उसे मथुरा में भोज पर आमंत्रित किया। मथुरा के निकट रुपनगर में जब मुराद औरंगजेब के साथ भोजन कर रहा था तो औरंगजेब ने उसे नशे की हालत में बन्दी बना लिया और उसके सैनिकों के बीच धन बॉटकर उसने उन सैनिकों को भी अपनी ओर मिला लिया। कालान्तर में औरंगजेब ने दीवानअली नकी की हत्या के आरोप में 4 दिसम्बर 1661 ई0 को उसे फॉसी पर लटका दिया। औरंगजेब जब दाराशिकोह का पीछा करते हुए पंजाब की ओर बढा तो शाहशुजा आगरा पर अधिकार करने के लिए खजवा नामक स्थान पर सैनिक तैयारियॉ करने लगा। सूचना पाकर औरंगजेब ने 5 फरवरी 1659 ई0 को इलाहाबाद के निकट खजवा में शाहशुजा को पराजित किया। मीरजुमला ने भागते हुए शाहशुजा का अराकान तक पीछा किया और अराकानियों ने शुजा की परिवार सहित हत्या कर दी।
उधर दारा दिल्ली से लाहौर होता हुआ गुजरात पहुॅचा। जसवन्त सिंह जो अब औरंगजेब के साथ मिल गया था, दारा शिकोंह का सहायता देने के वादा करके अजमेर की ओर बढने के लिए बुलाया किन्तु राजपूत नायक अपने वादों से मुकर गया। फलस्वरुप दाराशिकोह को औरंगजेब के साथ देवराई की घाटी में 12-14 अप्रैल 1659 ई0 के मघ्य तीन दिनों तक युद्ध करना पडा। इस युद्ध में दारा पराजित हुआ और उसे भागकर अपनी रक्षा करनी पडी। दारा ने अपने परिवार सहित दादर के अफगान जीवन खॉ के यहॉ शरण लिया लेकिन अविश्वासी जीवन खॉ ने इन सभी को औरंगजेब के हवाले कर दिया। दारा और उसके परिवार को बन्दी बनाकर दिल्ली लाया गया और न्यायधीशों के एक कोर्ट ने काफिर होने का आरोप लगाकर उसे मृत्युदण्ड दे दिया। दारा के सिर को काटकर उसके शव को दिल्ली की सडकों पर घुमाया गया और अन्त में हुमायूॅ के मकबरे में उसे दफना दिया गया। दारा के पुत्र सुलेमान शिकोह गढवाल से बन्दी बनाकर दिल्ली भेजा गया। उसे ग्वालियर के किले में रखा गया जहॉ धीरे-धीरे उसे विष देकर मार दिया गया। इस प्रकार उत्तराधिकार के संघर्ष में अपने सभी प्रतिद्वन्दियों का नामोंनिशान मिटाकर वह पूर्णरुपेण मुगल सम्राट बना।
शाहजहॉ का व्यक्तित्व और विश्लेषण –
आगरा दुर्ग में लगभग 8 वर्ष तक शाहजहॉ ने बन्दी जीवन व्यतीत किया। यद्यवि उसको सुख की सभी सामग्री उपलब्ध थी और उसकी प्रिय पुत्री जहॉआरा हमेशा उसकी सेवा में लगी रहती थी लेकिन फिर भी उसपर सशंक दृष्टि रखी जाती थी। अन्ततः फरवरी 1666 ई0 को 74 वर्ष की अवस्था में उसका देहान्त हो गया। कहा जाता है कि अपने अन्तिम क्षण तक वह ताजमहल की ओर अपलक नेत्रों से ताकता रहा। बादशाह की अर्थी साधारण नौकरों और हिजडों द्वारा ले जायी गयी शाहजहॉ के मृत शरीर को उसकी पत्नी मुमताज महल की कब्र ताजमहल के समीप ही दफना दिया गया।
शाहजहॉ के चरित्र और व्यक्तित्व के विषय में इतिहासकारों में भिन्न-भिन्न मत है। समकालीन इतिहासकारों और यात्रियों के द्वारा शाहजहाँ के शासनकाल के ऐश्वर्य और समृद्धि का जो चित्र अंकित किया गया है, वह वस्तुतः भ्रामक है. साम्राज्य का धन-वैभव का प्रतीक बड़े-बड़े स्मारकों का निर्माण या कला-कौशल को प्रश्रय देना, मानकर इतिहासकारों ने शाहजहाँ के शासनकाल को स्वर्णयुग (Golden era of Mughal Empire) कहा है। विन्सेण्ट स्मिथ के अनुसार उसके शासनकाल को मध्यकालीन भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल कहना भ्रमपूर्ण है क्योंकि शाहजहॉ मनुष्य और शासक दोनो ही रुप में असफल रहा। शाहजहॉ के व्यक्तित्व और चरित्र के दो पक्ष है। वह आंशिक रुप से उदार और प्रगतिशील था जबकि कुछ बातों में वह अपने पुत्र औरंगजेब से साम्य रखता था। उसके काल में स्थापत्यकला का अभूतपूर्व विस्तार हुआ। ‘गंगाधर‘ और ‘गंगालहरी‘ के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पंडित शाहजहॉ के राजकवि थे। सर जदुनाथ सरकार के अनुसार शाहजहॉ ठाठबाट का शौकीन और आमोद-प्रमोद शासक होते हुए भी परिश्रमी सम्राट था तो भी उसके राज्यकाल में मुगल वंश की अवनति का बीजारोपण हुआ।
आर्थिक क्षेत्र में यह काल अत्यधिक समृध्दि का काल रहा। उसने अपने शासनकाल में भू-राजस्व एक तिहाई के स्थान पर आधा अर्थात 50 प्रतिशत कर दिया जिससे राज्य की आय बढकर 4 करोड तक पहुॅच गइ्र्र। कृषि में उन्नति तथा लगान में वृद्धि से राज्य की आमदनी बढ़ी। समुन्नत विदेश व्यापार से सोने एवं एवं चांदी का बाहुल्य साम्राज्य में हुआ और इसका प्रयोग साम्राज्य के गौरव में वृद्धि के लिए किया गया। अनेक विशाल एवं सुन्दर भवनों का निर्माण हुआ जिनसे विदेशी यात्री बर्नियर, पीटर मुंडी आदि अत्यधिक प्रभावित हुए। मुगल साम्राज्य के वैभव की इन यात्रियों ने अत्यधिक प्रशंसा की है। कुछ अंशों में उन्ही के विवरण शाहजहां के शासनकाल को स्वर्णयुग के रूप में प्रस्तुत करने में सहायक रहे हैं।
शाहजहॉ के आलोचक इन तथ्यों के स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार जिस शासनकाल का आरंभ तथा अंत दोनों ही उत्तराधिकार के संघर्ष से हुआ हो, उसे सुख एवं शांति का काल मानना निरर्थक है। इतना ही नहीं, शाहजहॉ पहला मुगल शासक है जो जीवनकाल में ही गद्दी से वंचित करके कैदी बना लिया गया। अतः यह काल राजनैतिक उपद्रवों का काल है जो आगे चलकर मुगल साम्राज्य के लिए घातक सिध्द हुआ। विशेषकर 1657 के उत्तराधिकार के संघर्ष ने मुगल साम्राज्य की राजनैतिक, सैनिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था को गंभीर क्षति पहुंचाई।
इस काल में कई बार अकाल पड़े और फसलें नष्ट हुईं। राज्य की आय में वृध्दि भी किसानों पर कर के बोझ को बढ़ाने से ही संभव हुई। विदेश व्यापार से प्राप्त धन का अपव्यय व्यर्थ सैनिक अभियानों और भवन निर्माण पर हुआ। जागीरों के प्रबंधन में संकट की स्थिति उत्पन्न हुई। शाहजहॉ की आर्थिक नीति इतनी दोषपूर्ण थी कि उसके संपन्न राज्य के उत्तराधिकारी औरंगजेब को आर्थिक संकटों का सामना करना पड़ा। सही मायनों में कला और उसमें भी स्थापत्यकला की दृष्टि से ही शाहजहॉ का राज्यकाल मध्यकालीन भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग माना जा सकता है।
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मध्यकालीन भारत