window.location = "http://www.yoururl.com"; Jahangir and His times | जहांगीर और उसका शासनकाल

Jahangir and His times | जहांगीर और उसका शासनकाल

Introduction (विषय-प्रवेश)

जहॉगीर का जन्म 30 अगस्त 1569 ई0 को अकबर की पत्नी जोधाबाई उर्फ मरियम उज्जमानी के गर्भ से हुआ था जो जयपुर राजधराने की राजकुमारी थी। प्रसिद्ध सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर को पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई थी अतः अकबर ने इस पुत्र का नाम मुहम्मद सलीम रखा। मुराद और दानियाल उनके छोटे भाई थे। मुराद और दानियाल पिता के जीवन में शराब पीने की वजह से मर चुके थे। बाल्यवस्था में शहजादा सलीम का पालन-पोषण बेहतर ढंग से हुआ और उसके लिए उचित अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था की गई। अपने नजदीकी विद्वतमण्डली में जिस एक पुरुष के व्यक्तित्व ने उसके मस्तिष्क पर अमिट छाप लगायी, वह था – अब्दुर्रहीम खानखाना। 15 वर्ष की आयु में ही जहांगीर का प्रथम विवाह 1585 ई0 में मानबाई से हुआ जो आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री व मान सिंह की बहन थी। खुसरों इसी दाम्पत्य की देन था। मानबाई ने 1604 ई0 में अपने पुत्र के पितृ भक्ति विहिन व्यवहार से आत्महत्या कर ली थी। मानबाई के जीवनकाल में ही सलीम ने अन्य रमणियों से विवाह कर लिया था। इसके बाद उनका दूसरा विवाह मारवाड़ के मोटा राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाई से हुआ। जगत गोसाई ने एक पुत्र को जन्म दिया था जिसका नाम शहजादा खुर्रम रखा गया जो आगे चलकर शाहजहॉ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जहॉगीर का तीसरा विवाह 1611 ई0 में फारस के मिर्जा गियासबेग की पुत्री मेहरुन्निसा से हुआ जो आगे चलकर नूर-ए-महल और तत्पश्चात नूर-ए-जहॉ के नाम से जानी गई।
प्रारंभिक चरण से ही सलीम के असंयमित चरित्र उवं मद्य तथा भोगों के व्यसन में पड जाने से अकबर को बडा असन्तोष हुआ और पिता और पुत्र के बीच का भेदभाव उत्तरोतर प्रगति ही करता गया क्योंकि अपने पिता की मृत्यु के पूर्व ही उसके वैभव और राजसत्ता का अधिकार लेना चाहता था। इसी क्रम में 1599 ई0 में शहजादा सलीम ने अकबर की सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और यह विद्रोह लगभग 1604 ई0 तक चला। यद्यपि सलीम के इस कृत्य को लेकर अकबर के द्वारा उसे कठोर दण्ड मिलना चाहिए था परन्तु ऐसा नही हो सका। इसी बीच अकबर के देहान्त के पश्चात अकबर की इच्छानुसार उसे मुगल साम्राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया गया और आगरा के किले में 3 नवम्बर 1605 ई0 को जहॉगीर का राज्याभिषेक हुआ। जहांगीर को न्याय की जंजीर के लिए भी याद किया जाता है। निम्न प्रसिद्ध उद्घोषणाओं में उसने अपनी नीति घोषित की –

  • गैर ज़रूरी करों को समाप्त कर दिया गया, इसमें मीर, बहरी तथा तमगा प्रमुख थे।
  • सुरक्षा व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण।
  • लावारिस सम्पति को राजकोष में जमा करना। इसका उपयोग जन कल्याणकारी कार्यों के लिए किये जाने की व्यवस्था थी।
  • मादक पदार्थों पर प्रतिबन्ध।
  • अपराधियों के नाक-कान काटने की सजा पर प्रतिबन्ध।
  • उच्च अधिकारियों द्वारा किसान की ज़मीन जब्त करने पर रोक।
  • अस्पतालों की स्थापना।

खुसरो का विद्रोह, 1606 ई0 –

मुगल साम्राज्य के राजगद्दी पर आसीन होते ही जहॉगीर को अपने पुत्र खुसरों का विद्रोह झेलना पडा। खुसरो ने आगरा के हसन बेग और लाहौर के दीवान अब्दुल रहीम की मदद से विद्रोह किया था। जहॉगीर ने शान्ति उपकरणों द्वारा अपने पुत्र को अनुकूल लाने का भरसक प्रयास किया लेकिन जब सारे प्रयास विफल हो गये तो खुसरो और जहॉगीर के बीच भेरवाल नामक स्थान पर युद्ध हुआ, जिसमें खुसरो को पराजय का सामना करना पडा और उसने सिक्खों के पॉचवे गुरू अर्जुन देव के यहॉ जाकर शरण ली। सम्राट की दृष्टि में एक राजद्रोही को अवलम्ब देने के कारण गुरु अर्जुन देव अपराधी थे। ऐसा माना जाता है कि जहॉगीर ने गुरू अर्जुन देव पर इस अपराध हेतु दो लाख रूपये का दण्ड निर्धारित किया जिसे अर्जुन देव ने देने से मना कर दिया परिणामस्वरूप उन्हे मृत्युदण्ड दिया गया। गुरू अर्जुन देव का मृत्युदण्ड दिये जाने से सिक्खों और मुगलों के बीच भेदभाव उत्पन्न हो गये जिसके परिणामस्वरूप कालान्तर में सिक्खों के विद्रोह की आग धधक उठी।
खुसरों के आगरे से भागने के एक सप्ताह के अन्दर ही जहॉगीर ने पूरा उपद्रव शान्त कर लिया और शीध्र ही शहजादे खुसरों को बन्दी बना लिया गया। 1 मई 1607 ई0 को हथकडी पहने खुसरों को बन्दीरुप में दरबार में बैठे हुए सम्राट जहॉगीर के सम्मुख पेश किया गया। उसे बन्दीगृह में भेज दिया जाता है लेकिन एक वर्ष के बाद फिर खुसरो उस कैद से निकल जाता है और फिर से वह 1607 ई0 में जहाँगीर की हत्या की रणनीति बनाता है, इस बात से जहाँगीर काफी दुखी होता है और इस बार वह कठोर दंड देते हुए खुसरो की दोनों आखें निकलवा लेता है, और इस प्रकार उसे अँधा करके कैद में डाल दिया जाता है और वह कैद में ही लंबे समय तक रहता है। बाद में शाहजहाँ (खुर्रम) को ऐसा लगता है कि खुसरो उसका बड़ा भाई है, और जब जहाँगीर की मृत्यु होगी तब खुसरो राजा बनने की चेष्टा करेगा, इसलिए शाहजहाँ (खुर्रम) कुछ कैदियों की ही सहायता लेता है और कैद में ही गला घोंट कर उसकी हत्या करवा देता है और इस प्रकार 1621 में शाहजहाँ (खुर्रम) के कहने पर कैद में खुसरो की हत्या कर दी जाती है।

नूरजहॉ –

मई 1611 ई0 में जहॉगीर ने मेहरुन्निसा नामक विधवा से विवाह किया और उसे ‘नूरमहल‘ की उपाधि दी जो बाद में नूरजहॉ में परिवर्तित कर दी गई। नूरजहॉ गियासबेग नामक एक फारसी की पुत्री थी जो कि अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ था। उसे एतमातुद्दौला की उपाधि दी गयी थी। प्रारंभ से ही मेहरून्निसा अपनी अनुपम सौन्दर्य एवं अद्वितीय स्त्री सुलभ गुणों के कारण युवराज सलीम की हृदयेश्वरी बनने की महत्वाकांक्षा पाले बैठी थी और सलीम भी उससे विवाह करना चाहता था लेकिन अकबर की सहमति न होने के कारण मेहरून्निसा का विवाह फारस से आये हुए एक साहसी युवक शेर अफगन से कर दी गई जो अकबर की सेना में नौकर था। जब जहॉगीर के हाथों में सत्ता आई तो उसने शेर अफगन की हत्या करवाने और मेहरून्निसा पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न किया। एक षडयन्तत्र में शेर अफगन की हत्या हो गयी और जहॉगीर ने उसकी विधवा और उसकी पुत्री लाडली बेगम को दरबार में बुला लिया। मेहरून्निसा को उसने अकबर की विधवा सलीमा बेगम की सेविका के पद पर नियुक्त किया और कालान्तर में मई 1611 ई0 में उसने मेहरून्निसा से विवाह कर लिया।
इस विवाह के समय नूरजहॉ की उम्र मात्र 34 वर्ष जबकि जहॉगीर की आयु 42 वर्ष के आसपास थी। नूरजहॉ में एक तीक्ष मेधा तथा समस्याओं के रहस्य को क्षण भर में समझ सकने की विशेष क्षमता थी। नूरजहॉ का प्रभाव और प्रभुत्व असीम था और इसी का फायदा उठाते हुए न केवल उसने सभी राजकीय मामलों में हाथ बॅटाना प्रारंभ किया अपितु सम्पूर्ण सत्ता भी अपने हाथों में लेने के लिए उद्योगशील होने लगी। जैसे-जैसे जहॉगीर अपनी आयु और व्यसन से अभिभूत होता गया वैसे वैसे नूरजहॉ ने अपनी राजनीतिक पकड मजबूत बनाना प्रारंभ कर दिया और कुछ समय बाद प्रजा को शाही झरोखे में से दर्शन के साथ-साथ स्पष्ट रुप से राज्य संचालन का कार्य करने लगी। शाही आदेशों और सिक्कों पर सम्राट के साथ-साथ उसके नाम भी अंकित होते थे। अपने विवाह के कुछ ही वर्षो के अन्दर नूरजहॉ ने अपना एक गुट संगठित कर लिया और राज्य की बागडोर पूरी तरह से अपने हाथों में ले लिया। इस दल का नाम ‘नूरजहॉ गुट‘ था जिसमें वह स्वयं, उसके माता-पिता व भाई, उसकी भतीजी का पति शहजादा खुर्रम सम्मिलित थे। उसकी माता अस्मत बेगम उसकी प्रधान परामर्शदात्री थी जिसने गुलाब से इत्र बनाने की विधि की खोज की थी। उसने अपने गुट को और भी मजबूत बना लिया जब उसके भाई आसफ खॉ की पुत्री अर्जुमन्दबानो बेगम के साथ खुर्रम अर्थात शाहजहॉ का विवाह हुआ।
नूरजहॉ का अपने पति पर अच्छा प्रभाव था क्योंकि वह अपने पति की पूरी देखभाल करती थी। यह नूरजहॉ के प्रभाव का ही फल था कि जहॉगीर के दैनिक मद्यपान की मात्रा दिनो-दिन कम होती गयी और वह अति सुरापान के घातक प्रभावों से बच सका। यही कारण है कि जहॉगीर को राजसत्ता अपनी प्रेयसी के हाथों सौपना अप्रिय नही लगा। लेकिन राजनीतिक और शासन सम्बन्धी मामलों में उसके प्रभाव ने अत्यन्त घातक परिणाम पैदा किये। अपने गुट के प्रभाव और सत्ता के विरोध में खडे उन सभी व्यक्तियों को उसने बाहर निकाल फेंका। इस काल में उसने शहजादा खुर्रम को अवलम्ब देकर गौरव और समृद्धि के सर्वोत्कृष्ट स्तर पर पहुॅचा दिया लेकिन जब नूरजहॉ ने अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह शहरयार से साथ कर दिया तो वह अपने जामाता का पक्ष लेने लगी। धीरे-धीरे उसने खुर्रम को धूल में मिला दिया तथा आत्मरक्षा हेतु उसे विद्रोह करने पर विवश कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि उच्च अधिकारियों को स्वामिभक्तिपूर्ण सेवाओं के प्रति उदासीन बना दिया और राज्य में मतभेद की खाई और गहरी होती चली गई। नूरजहॉ की नीति का ही यह प्रभाव था कि महावत खॉ को भी विद्रोह का झण्डा खडा करना पडा।

मेवाड के साथ युद्ध और शान्ति समझौता –

अपने पूरे जीवनकाल में अकबर मेवाड को पूर्णतः विजित नही कर सका था और 1597 ई0 अपनी मृत्यु से पूर्व ही राणाप्रताप ने अपने खोये हुए राज्य का अधिकांश भाग फिर से प्राप्त कर लिया था। राणाप्रताप के बाद उसका पुत्र अमर सिंह मेवाड का उत्तराधिकारी बना जिसने अपनी पिता की नीति को जारी रखा। अपनी साम्राज्यवादी नीति को जारी रखते हुए मुगल सम्राट जहॉगीर ने 1605 ई0 में अपने द्वितीय पुत्र परवेज के नेतृत्व में राणा अमरसिंह को पराजित करने के लिए एक विशाल सेना भेजी। देवार के दर्रे में हुए घमासान युद्ध में अमरसिंह ने बडी वीरता से अपने प्रदेश की रक्षा करने में सफलता पाई। खुसरो के विद्रोह के कारण मुगल सेना देवार से आगे नही बढ पाई। पुनः 1608 ई0 में जहॉगीर ने महावत खॉ के नेतृत्व में राणा अमरसिंह को पराजित करने के लिए एक सेना भेजी। यद्यपि महावत खॉ ने काफी पराक्रम दिखाया परन्तु उसे कोई विशेष सफलता नही मिली और शीध्र ही उसे वापस बुला लिया गया। 1613 ई0 में मिर्जा अजीज कोका अपनी सेना के साथ अजमेर पहॅुचा और शहजादा खुर्रम को मेवाड आक्रमण की बागडोर सौंपी गई। लेकिन शहजादा खुर्रम और मिर्जा अजीज कोका के मध्य मतभेद उत्पन्न हो जाने के कारण यह अभियान भी असफल रहा। मिर्जा अजीज कोका को वापस बुला लिया गया और अब शहजादा खुर्रम पर इस अभियान का पूर्ण उत्तरदायित्व था। खुर्रम के आक्रमण ने राणा के प्रदेश में आतंक फैला दिया और चारो तरफ से राणा की मोर्चबन्दी कर दी गई। राजपूतों को कड़ी मेहनत से दबाया गया, उनकी ज़मीनों को नष्ट कर दिया गया, उनकी आपूर्ति रोक दी गई और राणा को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भागने के लिए मजबूर किया गया। राणा के साथी इस विषम परिस्थिती में उसे छोडकर जाने लगे। राजपूत सरदारों और स्वयं अमरसिंह के पुत्र करणसिंह ने परिस्थितियों को समझते हुए शान्ति स्थापना का परामर्श दिया और अन्ततः राणा अमरसिंह ने सन्धिवार्ता का प्रस्ताव किया जिसे जहॉगीर की सहमति से शहजादा खुर्रम ने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार राणा अमरसिंह और सम्राट के मध्य 1615 ई0 में सन्धि स्थापित हुई जिसकी प्रमुख शर्ते निम्नलिखित थी –

  1. राणा अमरसिंह ने सम्राट जहॉगीर की अधीनता स्वीकार कर ली।
  2. सम्राट जहॉगीर ने राणा अमरसिंह को चित्तौड समेत वह सारा प्रदेश लौटा दिया जो अकबर के समय में मुगलों के आधिपत्य में आ गया था।
  3. चित्तौड के दुर्ग को सुरक्षित करना अथवा मरम्मत करना निषिद्ध घोषित कर दिया गया।
  4. राणा अमरसिंह को सम्राट के दरबार में उपस्थित होने के लिए बाध्य नही किया गया।
  5. यह निश्चित हुआ कि युवराज करण सिंह अपनी सेना के साथ मुगल सम्राट की सेवा में उपस्थित होंगे।
  6. अन्य राजपूत शासकों की भॉंति राणा अमरसिंह को मुगलों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए बाध्य नही किया गया।

मुगल वंश के साथ-साथ मेवाड के इतिहास में इस सन्धि का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इससे पूर्व किसी सिसौदिया राजपूत वंश के किसी भी शासक ने मुगल शासकों की प्रत्यक्ष रुप से अधीनता स्वीकार नही की थी। इन सन्धि ने दो राजसत्ताओं के बीच की एक चिरस्थायी शत्रुता का अन्त कर दिया। निश्चित रुप से जहॉगीर और उसके पुत्र खुर्रम को इसका श्रेय प्राप्त है कि उन्होने अत्यन्त उदार शर्तो के साथ एक ऐसे युद्ध को समाप्त कर दिया जो लगभग 75 वर्षो तक अकबर के पूर्वजो तथा सिसौदिया वंश के बीच होता रहा था। यह भी कम महत्वपूर्ण नही है कि सम्राट जहॉगीर ने मेवाड के प्रति उदार नीति अपना कर और उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करके एक कुशल राजनीतिज्ञ होने का परिचय दिया जिसका लाभ दोनों पक्षों का मिला। मेवाड के राणा तबतक मुगल साम्राज्य के प्रति वफादार बने रहे जबतक कि औरंगजेब की अविवेकपूर्ण नीति ने राणा राजसिंह को स्पष्ट विद्रोह करने के लिए विवश न कर दिया।
यद्यपि कुछ इतिहासकारों ने राणा अमरसिंह पर यह आरोप लगाया है कि उसने अपने वंशानुगत दुश्मन के समक्ष अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया। लेकिन ऐसा कहना शायद इसलिए अनुचित है क्योंकि मेवाड जैसी एक छोटी सी रियासत एक विशाल और साधन सम्पन्न मुगल साम्राज्य से आखिर कब तक यु़द्ध को जीवित रखता। उसे कभी न कभी तो झुकना ही पडता। मुगलों के खिलाफ राजपूतों की किसी भी सफलता का कोई मौका नहीं था। सबसे अच्छा परिणाम जो वे प्राप्त कर सकते थे, वह उनके सम्मान की रक्षा थी लेकिन इसके लिए वे लंबे समय से बहुत भारी कीमत चुका रहे थे। मुग़ल सम्राट द्वारा किसी अन्य राजपूत राजकुमार को इस तरह सम्मानित नहीं किया गया था। 1615 ई0 की इस सन्धि ने मेवाड को शान्ति, सम्मान और गौरव प्रदान किया था और उसकी अन्तर्देशीय स्वतंत्रता में कोई अन्तर नही आया था। राणा अमरसिंह ने नाममात्र के लिए मुगल सत्ता को स्वीकार किया था। इस प्रकार एक संकटग्रस्त प्रदेश के लिए इतनी अपेक्षित शान्तिसंग्रह के इस सुवर्ण अवसर को राणा अमरसिंह यदि उपयोग में न लाते तो यह अविवेकपूर्ण कार्य होता।

दक्षिण राज्यों के प्रति नीति –

दक्षिण भारत में जहॉगीर ने अपने पिता द्वारा आरंभ किये गये कार्यो को पूरा करने का प्रयत्न किया। अकबर के समय में पूरा खानदेश और अहमदनगर के कुछ भागों को विजित कर मुगल साम्राज्य में विलिन कर लिया गया था। जहॉगीर के लिए अहमदनगर के शेष भाग जीतने और बीजापुर तथा गोलकुण्डा नामक दो स्वतंत्र राज्यों को परास्त करने का काम शेष था। 1608 ई0 से ही इस दिशा में प्रयास प्रारंभ हो गये लेकिन इस दिशा में मुगल सेना को कोई खास सफलता नही मिली। इस समय अहमदनगर का वजीर मलिक अम्बर था जिसने अपने राज्य को बेहतर ढंग से सुसंगठित करते हुए दक्षिण में मुगल सेनापतियों के आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर अहमदनगर के पूर्वी क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया था। जहॉगीर ने 1616 ई0 में शहजादा खुर्रम को दक्षिण का अध्यक्ष बनाकर एक विशाल सेना के साथ अहमदनगर के लिए रवाना किया। शीध्र ही खुर्रम अपनी सेना के साथ बुरहानपुर पहुॅच गया जिससे भयभीत होकर मलिक अम्बर ने उसकी सारी शर्ते स्वीकार कर ली। मुगलों से छीने गये समस्त प्रदेश और अहमदनगर का किला भी मुगलों को दे दिया गया। 16 लाख रुपये मूल्य की सम्पति लेकर बादशाह आदिलशाह स्वयं शहजादा खुर्रम के समक्ष उपस्थित हुआ और इस प्रकार जहॉगीर ने सन्धि की शर्ते स्वीकार कर ली और 1617 ई0 में सन्धि सम्पन्न हो गयी। दक्षिण अभियान की इसी सफलता से उत्साहित होकर जहॉगीर ने शहजादा खुर्रम को ‘‘शाहजहॉ‘‘ की उपाधि से विभूषित किया।
1617 ई0 में हुई इस सन्धि का पालन मलिक अम्बर ज्यादा दिन तक नही कर सका और 1620 ई0 तक आते-आते उसने पुनः मुगलों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। पुनः शाहजहॉ को मलिक अम्बर को दण्डित करने के लिए भेजा गया। शाहजहॉ के दक्षिण आने की खबर सुनते ही मलिक अम्बर ने अधीनता स्वीकार कर ली और इस प्रकार अहमदनगर में दूसरी बार शान्ति स्थापित हो सकी। अहमदनगर के साथ-साथ इस बार गोलकुण्डा और बीजापुर की रियासतों ने भी सम्राट को अत्यधिक धन भेंट किये। इस घटना से शाहजहॉ की और गौरव वृद्धि हुई। उधर नूरजहॉ का रूख शाहजहॉ के प्रति बदलता जा रहा था अतः वह शीध्रताशीध्र उत्तर भारत पहुॅचना चाहता था।
1622 ई0 में शहजादा खुर्रम के विद्रोह के कारण अहमदनगर पुनः मुगलों के नियंत्रण से बाहर हो गया। खुर्रम के विद्रोह का दमन करने के लिए जहॉगीर ने महाबत खॉ को अहमदनगर भेजा जिसने मलिक अम्बर पर दबाव डालकर शाहजहॉ को अहमदनगर से निष्काषित करवाया और बालाघाट पर पुनः मुगलों का नियंत्रण हो सका। 1626 ई0 में मलिक अम्बर की मृत्यु हो गई। उल्लेखनीय है कि मलिक अम्बर ने दक्षिण में टोडरमल की भू-राजस्व प्रणाली को ही लागू किया और ठेके पर जमीन देने की पुरानी प्रथा को समाप्त कर दिया।
इस प्रकार, दक्षिण अभियान 1621 ई0 में समाप्त हो गया क्योकि जहाँगीर शाहजहाँ और महाबत खान के विद्रोह के कारण दक्षिण राज्यों की ओर अधिक ध्यान नहीं दे सका।

कान्धार की पराजय, 1622 ई0

मुग़ल साम्राज्य को जहाँगीर के शासनकाल में एक गंभीर नुकसान हुआ और वह फारस से कान्धार हार गया। जहांगीर के शासनकाल की शुरुआत से ही फारस का शासक शाह अब्बास, कंधार को जीतना चाहता था। उसने कंधार पर हमला करने के लिए कंधार के आसपास के इलाकों में कुछ आमिरों को उकसाया और उन्होंने 1606 ई0 में उस समय घेरेबंदी की जब राजकुमार खुसरो ने जहांगीर के खिलाफ विद्रोह किया था। मुगलों के गवर्नर शाह बेग खान ने इस विद्रोह का निर्दयता से सामना किया और जब 1607 ई0 की शुरुआत में दिल्ली से मदद पहुंची, तो फारस के लोग पीछे हट गए। शाह अब्बास ने जहाँगीर के प्रति खेद व्यक्त किया और उसके मूर्खतापूर्ण कार्यों के लिए उसने रईसों को दोषी ठहराया और उनसे दोस्ती का हाथ बढ़ाया। इसके बाद उसने कूटनीतिक रूप से अपने राजदूतों को क्रमशः 1611 ई0, 1615 ई0, और 1620 ई0 में जहाँगीर के दरबार में मित्रता के महँगे प्रस्ताव और संदेश भेजे जिसने जहाँगीर को कंधार की रक्षा के प्रति थोड़ा लापरवाह बना दिया। 1621 ई0 में फारस ने कंधार पर हमला किया और 1622 ई0 की शुरुआत में इस पर विजय प्राप्त की। मुग़ल मदद शाहजहाँ के विद्रोह के कारण कंधार की रक्षा के लिए पहुँचने में विफल रही। इस प्रकार, मुग़ल साम्राज्य के मोर्चे पर एक मूल्यवान किला जहाँगीर के शासनकाल के दौरान खो गया।

शाहजहॉ का विद्रोह –

नूरजहॉ का गुट जो 1612 ई0 से ही शासन की एकछत्र बागडोर सॅभाले हुए था, 1622 ई0 तक आते-आते कमजोर पडने लगा। मद्यपान और अफीम के प्रति व्यसन के कारण जहॉगीर ने अपना शरीर जीर्ण बना लिया था। इससे नूरजहॉ की चिन्ताएॅ बढने लगी क्योकि उसका समस्त जीवन महत्वाकांक्षा की सिद्धि और प्रभुत्व के वातावरण में ही व्यतीत हुआ था। अब उसे लगने लगा कि उसकी पति की मृत्यु के बाद शासन सत्ता से उसका प्रभुत्व समाप्त हो जाएगा। वह शाहजहॉ की योग्यता और महत्वाकांक्षा से भली-भॉति परिचित थी। इसलिए उसने जहॉगीर के कनिष्ठतम पुत्र शहरयार को अपनाना प्रारंभ कर दिया जिससे खुर्रम सशंकित रहने लगा। दूसरी तरफ नूरजहॉ उदार शिया सम्प्रदाय की थी और शहजादा निरन्तर सुन्नी सम्प्रदाय का अनुयायी होता जा रहा था। शहरयार को राज्यारुढ करने की योजना के तहत नूरजहॉ ने अपनी कन्या लाडली बेगम का विवाह 1620 ई0 में उसके साथ कर दिया और उसे महत्वपूर्ण मनसबदार के पद पर प्रतिष्ठित किया। नूरजहॉ ने शाहजहॉ के विरुद्ध जहॉगीर से कान भरने भी शुरु कर दिये और इस प्रकार जहॉगीर और शाहजहॉ के मध्य मनमुटाव बढने लगा। इसी समय शाहजहॉ की कुछ जागीरे शहरयार को हस्तांतरित कर दी गई और महावत खॉ को काबुल से बुलाकर शाहजहॉ के ससुर आसफ खॉ के स्थान पर सेना का प्रमुख बना दिया गया। इन विषम परिस्थितियों में राजसत्ता अपने हाथ से निकलते देखकर 1622 ई0 में शाहजहॉ ने मुगल साम्राज्य के विरुद्ध विद्रोह कर दिया।
शाहजहॉ माण्डू से दक्षिणी सेना के कुछ स्वामीभक्तों के साथ फतेहपुर सिकरी की ओर बढा। लेकिन मुख्य दरवाजे के बन्द होने के कारण उसने आगरा पर धावा बोल दिया लेकिन शाही सैनिकों के साथ मुठभेड में उसे पराजय का सामना करना पडा और उसे वापस माण्डू जाना पडा। महाबत खॉ के आगमन पर उसके कई सैनिक महावत खॉ से आ मिले अतः उसे असीरगढ भागने के लिए बाध्य होना पडा। शाही सेना के लगातार पीछा करने के कारण शाहजहॉ को बुरहानपुर और मछलीपट्टम भाग कर जान बचाना पडा। डडीसा, बंगाल और बिहार की खाक छानता हुआ वह पुनः अहमदनगर पहुॅचा लेकिन किसी तरफ से कोई सहायता न पाकर अन्ततः शाहजहॉ के लिए अपने पिता से क्षमा मॉगने के अलावा कोई और विकल्प नही बचा। बिना कोई शर्त रखे उसने सम्राट से क्षमा याचना की और अन्ततः उसे क्षमा प्रदान की गयी और वह बालाघाट का शासक नियुक्त कर दिया गया। वास्तव में इस समय नूरजहॉ महाबतखॉ के व्यवहार और उसकी प्रगतिशील शक्ति और सम्मान के कारण बहुत शंकित थी अतः उसने शाहजहॉ के सन्धि प्रस्ताव को ठुकराना उचित नही समझा और इस प्रकार शाहजहॉ को माफ कर दिया गया। इस प्रकार शाहजहॉ का यह तीन वर्षीय विद्रोह अप्रैल 1626 ई0 में समाप्त हुआ।

महावत खॉ का विद्रोह, 1626 ई0

जहॉगीर के शासनकाल की एक अन्य महत्वपूर्ण घटना महावत खॉ का विद्रोह है। यह सर्वविदित है कि शाहजहॉ के विद्रोह के अवसर पर महावत खॉ की मान-मर्यादा में अत्यधिक वृद्धि हो गयी थी। लेकिन नूरजहॉ जैसे व्यक्तित्व के लिए यह कदापि संभव नही था कि वह महाबत खॉ जैसे दुर्जेय व्यक्ति का अस्तित्व स्थिर रहने दे। महाबत खॉ का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि वह किसी का अधीनस्थ होना सहन नही कर सकता था। वह स्वयं महत्वाकांक्षी था और जहॉगीर के अलावा किसी अन्य का आदेश नही प्राप्त करना चाहता था। जबसे मुगल सत्ता पर नूरजहॉ का प्रभाव बढ रहा था तभी से वह ईष्यालु हो गया था क्योंकि विवाह से पूर्व नूरजहॉ उसकी दृष्टि में एक सामान्य सी रमणी थी। शहरयार जिसको वह राज्यारुढ करना चाहती थी उसकी दृष्टि में एक नितान्त निकम्मा पुरुष था। नूरजहॉ यह भी जानती थी कि महाबत खॉ राजवंश का अनन्य भक्त है और उसका स्वामित्व स्वीकार करने को वह कदापि तैयार नही है। इन परिस्थितियों में नूरजहॉ ने शीध्र ही महाबत खॉ के विध्वंस का संकल्प कर लिया। ज्योंहि शाहजहॉ ने शर्तरहित आधिपत्य स्वीकार कर लिया उसने महाबत खॉ का स्थान परिवर्तित कर उसे बंगाल भेज दिया और उसपर राजद्रोह का अवज्ञा का अपराध आरोपित कर दिया। महाबत खान को खजाने का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने और शाहजहाँ के विद्रोह की अवधि के दौरान उन सभी हाथियों को आत्मसमर्पण करने के लिए कहा गया, जिन्हें बंगाल और बिहार में उनके द्वारा कब्जा कर लिया गया था। महाबत खॉ नूरजहॉ की चाल को समझते हुए उसने सम्राट के समक्ष अपना पक्ष रखने का निर्णय लिया। अपने राजपूत सहयोगियों के साथ सम्राट से मिलने हेतु लगभग अपने 5000 सैनिकों के साथ उसने काबुल की ओर प्रस्थान किया लेकिन इस सेना को लेकर शाही सैनिकों में हडकम्प मच गया। उसे शीध्र ही राजदरबार में उपस्थित होने का आदेश दिया गया और वहॉ पहुॅचते ही उसके हाथ उसकी गर्दन से बॉध दिये गये और उसे बन्दी बना लिया गया। इस कृत्य से क्रोधित होकर महाबत खॉ ने सम्राट को बन्दी बना लेने का निश्चय किया।
दूसरे दिन जहॉगीर के शिविर में महाबत खॉ पहुॅचा और नतमष्तक होते हुए उसने कहा कि वह सम्राट से दण्डित होने के लिए उपस्थित हुआ है। उसने निवेदन किया कि सम्राट को अपने रिश्तेदारों की दुष्ट परिषद से बचाने के लिए उसे इस तरह से कार्य करने के लिए मजबूर किया गया था। लेकिन इसी दौरान उसके वार्तालाप से रूष्ट होकर जहॉगीर ने उसका वध करने का प्रयास किया। अन्ततः महाबत खॉ ने सम्राट को अपने शिविर में ले जाकर बन्दी बना लिया।
जब नूरजहाँ को यह खबर मिली, तो उसने सम्राट की व्यक्तिगत सुरक्षा की उपेक्षा के लिए आसफ़ खान को दोषी ठहराया और जहाँगीर की इच्छा के विरुद्ध, नदी पार करने की कोशिश की और महाबत खान पर हमला किया लेकिन उसकी कोशिश नाकाम रही। शाही सेना का केवल एक हिस्सा नदी पार कर सकता था और वह भी महाबत खान के राजपूतों द्वारा पराजित होने के लिए मजबूर हो गया था। आसफ खान भाग गया जबकि नूरजहाँ ने आत्मसमर्पण कर दिया और जहाँगीर के साथ रहने के लिए आ गई। बाद में, आसफ खान को भी आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस प्रकार, बादशाह, बेगम नूरजहाँ और आसफ खान महाबत खान के संरक्षण में आ गए।
महाबत खान के पास और कोई योजना नहीं थी और परिस्थितियों के बल पर उसने सब कुछ किया था। महाबत खान कोई राजनयिक नहीं था जबकि नूरजहाँ काफी चालाक थी। बहुत जल्द, उन्होंने परिस्थितियों को नियंत्रण से बाहर कर दिया। जब शाही दल काबुल में डेरा डाले हुए था, शाही सैनिकों और महाबत खान के राजपूत सैनिकों के बीच झगड़ा हुआ था। महाबत खान शाही सैनिकों के विरोध को दबाने में सफल रहा लेकिन उसने अपने स्वयं के कई सैनिकों को खो दिया और सामान्य रूप से सैनिकों के बीच उसकी लोकप्रियता भी। रोहतासगढ़ के किले के पास काबुल से लौटते समय, महाबत खान को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ा कि सम्राट व्यक्तिगत रूप से सैनिकों की सुबह की परेड का निरीक्षण करेंगे। जहाँगीर ने निरीक्षण के समय सेना की कमान संभाली और महाबत खान को शिविर छोड़ने का आदेश दिया। महाबत खान जो नूरजहाँ और जहाँगीर के खेल को समझने में असफल रहे थे और अपने सैनिकों को शाही सैनिकों से दूर रखा था, उनके पास बादशाह की आज्ञा मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। अगर उसने उस समय सम्राट से लड़ने का फैसला किया होता, तो यह एक खुले विद्रोह की भॉति होती, जिसके लिए उसे न तो तैयार किया गया और न ही इसे सफल बनाने के लिए शक्ति के साथ छोड़ा गया। इसलिए, महाबत खान, थाटा की ओर भाग गया। वह आसफ खान के बेटों और दानीयाल को बंधक बनाकर अपने साथ ले गया, हालांकि जैसे ही उन्हें लगा कि वह वापस लौट आया है। महाबत खान तब शाहजहाँ के रैंकों में शामिल हो गए, जिन्होंने अपने शिविर में उनका स्वागत किया।
इस प्रकार, महाबत खान के विद्रोह समाप्त हो गया। वास्तव में, यह सही अर्थों में विद्रोह नहीं था। वह सम्राट और बेगम नूरजहाँ दोनों का सम्मान करता था, जबकि वे उसके कैदी थे। जहाँगीर के व्यक्ति और अधिकार के खिलाफ कुछ भी करने के लिए महाबत खान तैयार नहीं था। उस स्थिति में, उनकी वस्तु को केवल कूटनीतिक कौशल द्वारा ही परोसा जा सकता था, जिसकी उनके पास पूरी तरह से कमी थी। नूरजहाँ, जो कूटनीति के खेल में अधिक निपुण थी, इसलिए उसके विरुद्ध सफल हुई।

जहॉगीर का व्यक्तित्व और मूल्यांकन –

महाबत खॉ के चंगुल से आजाद होने के बाद जहॉगीर का स्वास्थ्य लगातार खराब होता गया और अन्ततः 7 अप्रैल 1627 ई0 को लगभग 58 वर्ष की आयु में उसका देहान्त हो गया। रावी नदी के तट पर लाहौर के समीप स्थित शहादरा के रमणीय उपवन में उसकी समाधि बनाकर उसे चिरनिद्रा की अवस्था में छोड दिया गया।
जहॉ जक जहॉगीर के चरित्र और व्यक्तित्व का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचार मिलते है। युरोपीय लेखकों के अनुसार जहॉगीर चंचल प्रकृति का शासक था जिसकी सुरा, सुन्दरी और सौन्दर्य में अनुरक्तता थी जबकि इसके विपरित कुछ भारतीय इतिहासकारों के अनुसार वह एक न्यायप्रिय और कुलीन शासक था। कुछ भी हो एक शासक के रुप में वह अपने पिता की तरह ही सभी धर्मो के प्रति सहिष्णु था और वह भी अकबर की तरह हिन्दू धर्म से खासा प्रभावित था। इसी वजह से वह भी मन्दिरों और पुरोहितों को दान दिया करता था। यहॉ तक कि जहॉगीर ने पहली बार 1612 ई0 में रक्षा बंधन का त्यौहार भी मनाया था। फिर भी उसने इस्लाम के भाग्य निर्माण में अपने पिता से ज्यादा भाग लिया और इस धर्म को प्रतिष्ठित रखने की चेष्टा की। अपने राज्यकाल के 15वें वर्ष में उसने राजौरी के हिन्दुओं को दण्डित करने का आदेश दिया था क्योंकि वे मुसलमान कन्याओं से विवाह कर उन्हे हिन्दू धर्म का अनुयायी बना लेते थे। अजमेर में उसने बाराह मन्दिर में बाराह अवतार को नष्ट करने का आदेश दिया और मूर्तियों को तालाब में फिकवा दिया। सिक्ख धर्मगुरु अर्जुनदेव से उसका मनमुटाव इसलिए हो गया क्योंकि उन्होने विद्रोही राजकुमार खुसरों को अपना मनोवांछित फल पाने का शुभाशीष दिया था। लेकिन फिर भी यह कहा जा सकता है कि ये सभी कार्य क्षणिक मनोवृति के वशीभूत होकर सम्पादित किया था।
उसके शासनकाल में हिन्दू उच्च पदों पर सुशोभित थे। उसने यह भी घाषित किया था कि कोई व्यक्ति हिन्दू विधवा को बिना राजाज्ञा प्राप्त किये सती होने के लिए बाध्य न करे। वह स्वयं फारसी और तुर्की भाषा का अच्छा ज्ञाता था। जहॉगीर ने फारसी भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी जिसे ‘तुजुक-ए-जहॉगीरी‘ के नाम से जाना जाता है। साथ ही जहॉगीर ने ब्रजभाषा के प्रसिद्ध कवि सूरदास को अपने दरबार में आश्रय दिया था जिन्होने ‘सूरसागर‘ की रचना की थी। उसके आश्रय में मुगल चित्रकला अपने चरमोत्कर्ष पर पहुॅच गई। अपने शासनकाल में जहॉगीर ने तम्बाकू के सेवन पर प्रतिबन्ध भी लगाया था। जहॉगीर के शासनकाल में इंग्लैण्ड के शासक जेम्स प्रथम ने 1608 ई0 में विलियम हाकिन्स को भारत भेजा था। इसके अतिरिक्त 1612 ई0 में पाल कैनिंग व विलियम एडवर्ड और 1615 ई0 में सर टामस रो आदि विदेशी राजदूत भारत आये थे जिसके कारण अंग्रेजों को कई व्यापारिक सुविधाएॅ प्राप्त हुई थी।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अन्य शासकों की भॉति उसमें भी गुण और दोष थे परन्तु यह भी निर्विवाद सत्य है कि वह एक सफल और उदार शासक था जिसे अपनी प्रजा के कल्याण का सदैव ख्याल रहता था।

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