window.location = "http://www.yoururl.com"; Harshvardhana and His Empire | हर्षवर्धन और उसका साम्राज्य

Harshvardhana and His Empire | हर्षवर्धन और उसका साम्राज्य


Introduction (विषय प्रवेश)-

इतिहास अपना एक चक्र पूरा कर वही आ गया जहाँ मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद की स्थिति थी। गुप्तों के साम्राज्य के धराशायी हो जाने के बाद भारतवर्ष में पुनः विघटन ओर विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्तियाँ बलवती हो गई। स्कन्द गुप्त के निधन के उपरान्त शीघ्र ही प्रान्तीय राज्य अपनी स्वतंत्रता जयघोष करने लगे। गुप्त-साम्राज्य के ध्वंसावशेष पर जिन राज्यों और राजवंशों का अभ्युदय हुआ, उनमें मुख्य थे- 1. वल्लभी के मैत्रक, 2. मगध के उत्तरकालीन गुप्त तथा 3. कन्नौज के मौखरी। ये राज्य परस्पर संघर्षरत थे और साथ ही अपने से दुर्बल राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहते थे। विभिन्न राज्यों के पारस्परिक विद्वेष और संघर्ष तथा केन्द्र में शक्तिशाली शासक के अभाव का लाभ उठा कर इसी समय भारत पर हूणों ने भी अपने आक्रमण प्रारम्भ कर दिए। हूण एशिया के रहने वाले बर्बर लोग थे जिन्होंने चौथी एवं पाँचवीं शताब्दियों में एक प्रकार से सारे विश्व को आतंकित कर रखा था। उनकी क्रूरता, निर्दयता, रक्तपात और हिंसा की कथाएँ आज भी रोगटे खड़ी कर देने वाली हैं। सम्राट् स्कन्दगुप्त ने 455 तथा 467 ई. के मध्य में हूणों को बुरी तरह पराजित कर दिया था। इससे कुछ समय के लिए हूणों के आक्रमण से भारतीय जनता को मुक्ति मिल गई थी। किन्तु कालान्तर में वे पुनः सशक्त होकर अपनी आक्रामक नीति को मूर्त रूप देने लगे। ऐसे समय थानेश्वर में एक ऐसे राजवंश का उत्कर्ष हुआ जिसने भारतीय सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने वाले हूणों से देश की रक्षा के प्रत्युत, एक बार पुनः भारत को राजनैतिक एकता के सूत्र में बाँधने में सफलता प्राप्त की। थानेश्वर का यह राजवंश वर्धन वंश के नाम से सुविख्यात है। सम्राट् हर्ष वर्धन वंश का सबसे प्रतापी सम्राट् था।

अध्ययन के स्रोत-

वर्धन वंश के विषय में हमें प्रचुर ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इस अध्ययन सामग्री को हम मुख्यतया निम्नलिखित रूप में रख सकते हैं-
साहित्यिक सामग्री- जहाँ तक साहित्यिक सामग्री का प्रश्न है, इस दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी रचना हर्ष चरित है। हर्षचरित सम्राट् हर्षवर्द्धन के राजकवि बाणभट्ट की रचना है। संस्कृत साहित्य की यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें न केवल सम्राट् हर्ष का राजनैतिक जीवन प्रत्युत तत्कालीन सामाजिक तथा आर्थिक जीवन का भी उल्लेख है। यद्यपि बाण ने अपने आश्रयदाता का यशोगान एक प्रशस्तिकार के रूप में किया है। तथापि इसमें पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। बाणभट्ट की अन्य महत्त्वपूर्ण रचना कादम्बरी है। कादम्बरी से भी तत्कालीन भारत के सामाजिक-धार्मिक जीवन के विषय में अच्छी जानकारी मिलती है। इसके अतिरिक्त दंडिन के दशकुमार चरित, कामन्दक के नीतिसार तथा कात्यायन एवं देवाला की स्मृतियाँ तथा नारद-स्मृति की टीका से हर्ष के विषय में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है।
हर्ष न केवल विद्वानों का आश्रयदाता था। प्रत्युत वह स्वतः भी उच्च कोटि का विद्वान् तथा लेखक था। रत्नावली, नागानन्द तथा प्रियदर्शिक उसकी सुप्रसिद्ध रचनाएँ हैं। हर्ष और हर्ष कालीन भारत के विषय में इन रचनाओं से सहायता मिलती है।
पुरातात्विक साक्ष्य – उपरोक्त साहित्यिक साध्यों के अतिरिक्त कतिपय पुरातात्विक साध्यों से भी हमें हर्ष के विषय में जानकारी मिलती है। पुरातात्विक साध्यों में अभिलेख, मुद्राएँ और स्मारक हैं। जहाँ तक, अभिलेखों का प्रश्न है, मधुबन अभिलेख, बसखेडा अभिलेख तथा ऐहोल अभिलेख मुख्य हैं। बसखेडा अभिलेख से हर्षकालीन शासन के अनेक प्रदेशों तथा पदाधिकारियों के नाम ज्ञात होते है। राज्यवर्द्धन द्वारा मालवा के शासक देवगुप्त पर विजय तथा गौडनरेश शशांक द्वारा उसकी हत्या की जानकारी भी इस लेख में मिलती है। मधुबन लेख से हर्ष द्वारा श्रावस्ती भुक्ति के सोमकुण्डा नामक ग्राम को दान में देने की जानकारी मिलती है। ऐहोल का अभिलेख यूॅ तो चालुक्या नरेश पुलकेशिन द्वितीय का है लेकिन इसमें हर्ष और पुलकेशिन द्वितीय के बीच होने वाले युद्धों का वर्णन मिलता है। इस लेख की रचना पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि रविकीर्ति ने की थी। इन पुरातात्विक साक्ष्यों के अतिरिक्त हर्षकालीन मुद्राएँ भी हर्ष के विषय में जानकारी प्रदान करती हैं। इन मुद्राओं में एक स्वर्ण मुद्रा है जिसके अग्रभाग पर परम-महारक महाराजाधिराज परमेश्वर श्री महाराज हर्षदेव उत्कीर्ण है और पृष्ठ पर नंदी पर आसीन शिव और पार्वती का चित्र है।
विदेशी विवरण – विदेशी विवरणों में प्रसिद्ध चीनी यात्री व्ह्ेनसांग और इत्सिंग का विवरण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। व्हे्ासांग हर्षवर्द्धन के समय में ही भारत की यात्रा पर आया तथा उसने यहॉ सोलह वर्षो तक निवास किया। उसका यात्रा-विवरण ‘सी-यू-की‘ नाम से प्रसिद्ध है जो तात्कालीन राजनीति तथा संस्कृति पर विस्तृत प्रकाश डालता है। इत्सिंग नामक एक अन्य चीनी यात्री का विवरण भी हर्षकालीन भारत के इतिहास के अध्ययन के लिए उपयोगी है जिसका अंग्रेजी अनुवाद जापानी बौद्ध विद्वान तक्कुसु ने ‘ए रेकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रेलिजन‘ नाम से प्रस्तुत किया है। उपर्युक्त सामग्री के माध्यम से सम्राट् हर्ष और हर्षकालीन भारत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

प्रारंभिक इतिहास –

दिल्ली और पंजाब के भू-भाग पर बसा हुआ श्रीकण्ठ जनपद के अधीन थानेश्वर नामक एक प्रदेश था जहॉ छठी शताब्दी ई0 के प्रारंभ में पुष्यभूति नामक राजा ने प्रसिद्ध वर्द्धन राजवंश की स्थापना की। बसखेडा अभिलेख से इस वंश के निम्नलिखित राजाओं के नाम प्राप्त होते है –

  1. नरबर्द्धन, 2. राज्यवर्द्धन, 3. आदित्यवर्द्धन और 4. प्रभाकरवर्द्धन

    थानेश्वर के वर्द्धनों का क्रमबद्ध इतिहास प्रभाकरवर्द्धन के समय से मिलने लगता है। वस्तुतः वह इस वंश की स्वतन्त्रता का जन्मदाता था। वह एक शक्तिशाली राजा था और उसके दो पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय व हर्षवर्द्धन और एक पुत्री राज्यश्री थी। राज्यश्री का विवाह कन्नौज के मौखरी राजा ग्रहवर्मा से हुआ था। मौखरियों के साथ सम्बन्ध-स्थापन से वर्धन राजवंश की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। कारण स्पष्ट है, वर्धन राजवंश जिसे थानेश्वर का राजवंश भी कहा जाता है, पहले मौखरियों के सामन्त थे, बाद में उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी। प्रभाकर वर्धन के पौरुष और पराक्रम का परिचय उस युग के ऐतिहासिक साक्ष्यों से मिल जाता है। उदाहरण के लिए बाणभट्ट ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना हर्षचरित में लिखा है कि वह हूण रूपी हिरण के लिए सिंह, सिन्धु राजाओं के लिए तप्त ज्वर, गुर्जर नरेशों की निद्रा भंग करने वाला, गंधार स्वामी के लिए पित्तरोग एवं मालवा की भाग्य-लक्ष्मी के लिए कुल्हाड़ी था। इस प्रकार प्रभाकर वर्धन ने तत्कालीन भारत के राजनैतिक मानचित्र में अपना स्थान बना लिया था।

    प्रभाकर वर्धन अपनी शक्ति-विस्तार और संगठन के लिए जब प्रयास कर रहा था, उसी समय (लगभग 604 ई. में) हूणों ने साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर आक्रमण कर दिया। प्रभाकर वर्धन ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राज्यवर्धन द्वितीय को हूणों का दमन करने के लिए भेजा। इधर प्रभाकर वर्धन अस्वस्थ हो गया और उसकी मृत्यु हो गई। जिस समय प्रभाकर वर्धन मृत्यु शैय्या पर पड़ा हुआ था, उसने राज्यवर्धन को बुलाने के लिए राजदूत भेजे। इसी बीच मालवा नरेश देवगुप्त ने महाराज ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और ग्रहवर्मन की पत्नी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया। अतएव मालवा नरेश को दण्डित करने तथा अपनी बहन को मुक्त कराने की दृष्टि से राज्यवर्धन एक विशाल सेना के साथ मालव नरेश की ओर चल पड़ा। उसने बड़ी आसानी से मालवा-नरेश को पराजित कर दिया। वाण के कथनानुसार गौड़-नरेश ने धोखा देकर राज्यवर्धन की हत्या कर दी। डॉ. रमेशचन्द्र मजूमदार, डॉ. आर.डी. बनर्जी तथा कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार मालवा नरेश के मित्र गौड़ाधिपति शशांक ने राज्यवर्धन की युद्ध में पराजित होने के उपरान्त ही उसकी हत्या की थी। व्ह्ेनसांग के अनुसार, शशांक और उसके मंत्रियों ने राज्यवर्धन को सम्मेलन में बुलाया और उनकी हत्या कर दी। इस प्रकार किन परिस्थितियों में किस प्रकार राज्यवर्धन की हत्या की गई, यह प्रश्न विवादास्पद है।

    हर्षवर्द्धन ( 606 ई0 – 647 ई0)-

    राज्यवर्धन की हत्या से क्षुब्ध और बहन राज्यश्री की मुक्ति के लिए प्रतिबद्ध हर्ष ने अपने सेनापति और मंत्रियों के परामर्श से राज्य-सिंहासन ग्रहण किया। इतिहासकारों के अनुसार हर्ष के सिंहासनारोहण की तिथि 606 ई0 है। उस समय हर्षवर्द्धन की आयु मात्र 16 साल थी। राज्यारोहण के समय हर्ष के सम्मुख दो तात्कालीक समस्याएॅ थी – (1) शशांक को मारकर अपने बडे भाई की हत्या का बदला लेना और (2) राज्यश्री को कन्नौज के कारागार से मुक्त कराना।
    हर्ष ने सर्वप्रथम गौड़ नरेश शशांक को दंडित करने का संकल्प लिया। उसने कहा कि- यदि मैंने कुछ दिनों के अन्तर्गत ही पृथ्वी को गौड़विहीन न कर दिया तो मैं पतंग की भाँति प्रज्ज्वलित अग्नि में प्रविष्ट होकर अपने प्राणों की आहूति दे दूंगा। वह शशांक पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हो गया। मार्ग में उसे सूचना मिली कि कन्नौज पर किसी ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है और राज्यश्री को बंदी गृह से मुक्त कर लिया है और वह विन्ध्य पर्वत के जंगलों की ओर चली गई है। पिता और भ्राता की मृत्यु से, पहले से ही शोकाकुल हर्ष और भी क्षुब्ध होकर राज्यश्री को ढूंढने के लिए निकल पड़ा। सौभाग्यवश राज्य-श्री उसे मिल गयी। उस समय वह चीता बनाकर अपने को चिताग्नि में समर्पित करने के लिए तैयार कर रही थी। बहुत समझाने-बुझाने के उपरांत वह राज्यश्री को साथ लेकर शिविर लौट आया।
    हर्षचरित का विवरण इसी स्थान पर समाप्त हो जाता है जिसके कारण आगे की घटनाओं के बारे में हमें जानकारी नही मिल पाती है। ‘आर्यमंजूश्रीमूलकल्प‘ में उल्लिखित एक श्लोक से इस सन्दर्भ में कुछ जानकारियॉ मिलती है जिसके अनुसार हर्ष ने शशांक को पराजित किया और उसे बंदीगृह में डाल दिया। परन्तु यह विवरण कितना सही है, कुछ कह पाना मुश्किल है। ऐसा प्रतीत होता है कि शशांक ने बिना युद्ध किये ही कन्नौज खाली कर दिया जिसके परिणामस्वरूप राज्यश्री को ही वहॉ की शासिका बनाया गया जिसने अपने भाई हर्षवर्द्धन की देखरेख में शासन का संचालन करना स्वीकार किया। कालान्तर में हर्ष ने अपनी राजधानी थानेश्वर से कन्न्नौज स्थानांतरित कर लिया ताकि वह राज्यश्री को प्रशासनीक कार्यो में पूरी तरह से सहायता कर सके। एक प्रकार से हर्षवर्द्धन ने मौखरि राज्य की शक्ति और साधनों का पूरा-पूरा उपयोग किया।

    युद्ध और विजयें –

    व्हे्नसांग के विवरणों से पता चलता है कि इसके बाद भी हर्ष एक बडी सेना के साथ लगातार छः वर्षो तक युद्ध करता रहा। सर्वप्रथम उसने पूर्व की ओर प्रस्थान किया और जिन शक्तियों ने उसकी अधीनता नही मानी थी उनको अपने अधीन किया। इसके बाद भी वह तबतक युद्ध करता रहा जबतक कि ‘पंच-भारत‘ अर्थात पंजाब, कान्यकुब्ज, बंगाल, बिहार और उडीसा का वह स्वामी नही बन गया। इसके बाद उसने युद्ध विजय रोक दी और आगामी तीस वर्षो तक उसने शान्तिपूर्वक राज्य किया।
    बलभी का युद्ध – आधुनिक गुजरात राज्य में अवस्थित बलभी का तात्कालीन शासक धु्रवसेन द्वितीय था जिसके राज्य पर हर्षवर्द्धन ने आक्रमण कर दिया। युद्ध क्षेत्र में ध्रुवसेन पराजित हुआ और उसने भडौच के शासक दद्द द्वितीय के दरबार में शरण ली। कालान्तर में गुर्जर नरेश दद्द ने हर्ष से उसका राज्य वापस दिला दिया। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि गुर्जर नरेश दद्द पुलकेशिन द्वितीय का सामन्त था जिसकी पुष्टि उसके ऐहोल अभिलेख से होती है। कालान्तर में यही घटना हर्ष और पुलकेशिन द्वितीय के बीच युद्ध का कारण बनी। ऐसा प्रतीत होता है कि नर्मदा नदी के दक्षिण में चालुक्यों का शक्तिशाली राज्य था जो कभी भी उत्तर भारत पर आक्रमण कर सकता था। अतः उसने बलभी नरेश को जीत लेने के बाद भी न केवल उसका राज्य उसे वापस कर दिया अपितु उसने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया और इस प्रकार उसने अपनी पश्चिमी सीमा को सुरक्षित कर लिया। इस कार्य से बलभी नरेश चालुक्यों के विस्तार के मार्ग में बहुत बडी बाधा हो गया। यह हर्षवर्द्धन की महान कूटनीतिक सफलता थी।
    सिन्ध के साथ युद्ध – बलभी के युद्ध के बाद हर्ष ने सिन्ध पर भी आक्रमण कर दिया। हर्षचरित से पता चलता है कि हर्ष ने सिन्ध के राजा को युद्ध में मर्दित करके उसकी राजलक्ष्मी को छीन लिया। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि सिन्ध देश का राजा युद्ध में पराजित तो हुआ परन्तु उसका राज्य नही छीना जा सका। यहॉ हषवर्द्धन ने धर्मविजयी शासक की नीति का अनुसरण किया जो समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ की नीति से मिलती-जुलती है। ऐसा माना जा सकता है कि हर्ष ने उससे भेट अथवा उपहार आदि लेकर उसका राज्य उसे वापस कर दिया।
    पुलकेशिन द्वितीय के साथ युद्ध- हर्ष की विजयों के फलस्वरूप उसके राज्य की पश्चिमी सीमा नर्मदा नदी तक पहुॅच गई। दूसरी तरफ चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय भी उत्तर की ओर अपने राज्य का विस्तार चाहता था। ऐसी स्थिती में दोनों के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया। इसके परिणामस्वरुप हर्ष और पुलकेशिन द्वितीय के बीच नर्मदा नदी के तट पर युद्ध हुआ जिसमें हर्षवर्द्धन की भीषण पराजय हुई। इस युद्ध के विषय में हमें पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख तथा व्हे्नसांग के विवरणों से भी मिलता है।
    यद्यपि कुछ इतिहासकार इस युद्ध में हर्ष की पराजय की बात स्वीकार नही करते है क्योंकि उनकी दृष्टि में रविकीर्ति का विवरण एकांगी है जबकि व्हे्नसांग के विवरण से यही निष्कर्ष निकलता है कि हर्ष पुलकेशिन को अपने अधीन नही कर सका। दूसरी तरफ सुधाकर चटोपाध्याय का मत है कि तात्कालीन भारत के इन दो महान राजाओं के बीच होने वाला यह अकेला अथवा अन्तिम युद्ध नही था। उनके संघर्ष बाद में भी जारी रहे तथा 643 ई0 में हर्ष का कोगोद पर आक्रमण पुलकेशिन के विरुद्ध एक मोर्चेबन्दी थी जिसे जीतकर हर्ष ने अपनी पुरानी पराजय का बदला ले लिया और पुलकेशिन के कुछ प्रदेशों पर अधिकार कर लिया। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि इस युद्ध की तिथि को लेकर भी इतिहासकारों में काफी विवाद है और सामान्यतया हम इस युद्ध की तिथि 630 से 634 ई0 के बीच मान सकते है।
    नेपाल के विरुद्ध अभियान – हर्षचरित के विवरणों से पता चलता है कि हर्षवर्द्धन ने हिमाच्छादित पर्वतों के दुर्गम प्रदेश से कर प्राप्त किया था। इतिहासकार बूलर जैसे कुछ विद्वानों ने इसी के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि उसने नेपाल की विजय की थी। राधाकुमुद मुखर्जी का भी मानना है कि नेपाल में हर्ष संवत् का प्रचलन था जो वहॉ उसके आधिपत्य का सूचक है। हॉलांकि ऐसा मानना ठीक नही है। ऐसा प्रतीत होता है कि हर्ष ने हिमालय की तराई में स्थित किसी प्रदेश को जीता हो। अतः इस सम्बन्ध में हम निश्चित रुप से कुछ भी नही कह सकते है।
    काश्मीर और कामरुप विजय- राधाकुमुद मुखर्जी ने ‘जीवनी‘ के आधार पर यह बताया है कि काश्मीर पर हर्ष का अधिकार था। जीवनी से यह पता चलता है कि हर्ष ने यह सुना कि काश्मीर में भगवान बुद्ध का एक दॉंत है अतः वह स्वयं काश्मीर आया और वहॉ के राजा से दॉत के दर्शन और पूजा हेतु आज्ञा मॉगी। हॉलांकि बौद्ध संघ ने इसकी अनुमति नही दी लेकिन काश्मीर नरेश ने स्वयं मध्यस्थता करके दॉत को हर्ष के सम्मुख कर दिया। पुनः बल प्रयोग करके हर्ष दॉत को अपने साथ उठा ले गया। परन्तु इस कथन से हम हर्ष की काश्मीर विजय का निष्कर्ष नही निकाल सकते। चूॅकि काश्मीर का राजा भी बौद्ध मतानुयायी था अतः संभव है कि वह हर्ष के प्रभाव क्षेत्र में रहा हो।
    हर्ष के समकालीन कामरुप का राजा भास्करवर्मा ने हर्ष के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित किया था। हर्ष के जीवन काल तक वह उसका सहायक और मित्र बना रहा। ‘जीवनी‘ के विवरणों से पता चलता है कि वह हर्ष की शक्ति से भयभीत था।

    साम्राज्य विस्तार- 

    इस प्रकार हम यह कह सकते है कि हर्षवर्द्धन के साम्राज्य में तीन प्रकार के राज्य थे – प्रत्यक्ष शासित राज्य, अर्द्धसवतंत्र राज्य तथा मित्र राज्य। व्हेनसांग के विवरणों में जिन राज्यों की राजनीतिक स्थिती का उल्लेख नही है वह प्रथम श्रेणी के राज्य थे। दूसरी श्रेणी में बलभी, मालवा, सिन्ध आदि राज्यों को शामिल किया जा सकता है जबकि तृतीय श्रेणी में काश्मीर और कामरुप के राज्य सम्मिलित थे। हर्ष का प्रभाव क्षेत्र उसके प्रत्यक्ष शासन से अधिक विस्तृत था। दूसरे देशों के साथ भी उसने मैत्री सम्बन्ध स्थापित किये। 641 ई0 में उसने चीनी राजा के दरबार में अपना एक दूत भेजा था जिसके प्रत्युत्तर में चीनी राजा ने भी अपना एक राजदूत भारत भेजा। अन्ततः हर्ष की अनेक विजय प्राप्ति और विशाल साम्राज्य स्थापित करने के कारण उसे उत्तर भारत का अन्तिम महान हिन्दू सम्राट कहा जाता है। हर्षवर्धन ने पूरे उत्तर भारत पर 606 से 647 ईस्वी तक शासन किया।

    हर्षवर्द्धन का शासन प्रबन्ध –

    एक विजेता और साम्राज्य निर्माता होने के साथ साथ हर्षवर्द्धन एक कुशल प्रशासक भी था। यहॉ यह सूच्य है कि उसने शासन के क्षेत्र में किसी नवीन प्रणाली को जन्म नही दिया अपितु गुप्त शासन प्रणाली को ही कुछ परिवर्तनों के साथ अपना लिया। राजा के दैवीय सिद्धांत का प्रचलन था, लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं कि राजा निरंकुश होता था। वस्तुतः राजा के अनेक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व होते थे, जिन्हें पूरा करना पड़ता था। हर्ष को एक प्रशासक एवं प्रजापालक राजा के रूप में स्मरण किया जाता है। नागानंद में उल्लेख आया है की हर्ष का आदर्श प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न देखना था। केन्द्रीय शासन का जो नियंत्रण मौर्य युग में दिखाई देता है वह हर्ष युग में नहीं दिखाई देता। ह्वेनसांग के विवरण में हर्ष की छवि एक प्रजापालक राजा की उभरती है। वहीं राजहित, कादम्बरी और हर्षचरित में उसे प्रजा का रक्षक कहा गया है। राजा को राजकीय कार्यों में सहायता देने के लिए एक मंत्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी थी। मंत्रियों की सलाह काफी महत्व रखती थी। राजा प्रशासनिक व्यवस्था की धुरी होता था। वह अंतिम न्यायधीश और मुख्य सेनापति था। हर्ष के प्रशासन में अवंति, युद्ध और शांति का अधिकारी था। हर्ष की प्रशासनिक व्यवस्था गुप्तकालीन व्यवस्था पर आधारित थी। बहुत से प्रशासनिक पद गुप्तकालीन थे, जैसे संधिविग्रहिक अपटलाधिकृत सेनापति आदि। राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए ग्राम, विषय, भुक्ति और राष्ट्र में विभाजित था। मुक्ति का तात्पर्य प्रांत से था, विषय जिले के समान था। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। महासामंत, महाराज, दौस्साधनिक, प्रभावर, कुमारामात्य, उपरिक आदि प्रांतीय अधिकारी थे। पुलिस विभाग का भी गठन किया गया था। चौरोद्धरजिक, दण्डपाशिक आदि पुलिस विभाग के कर्मचारी थे। हर्ष काल के अधिकारीयों को वेतन के रूप में जागीरें (भूमि) दी जाती थीं। राज्य के विरुद्ध षड्यंत्र करने पर आजीवन कैद की सजा दी जाती थी। इसके आलावा अंग-भंग, देश निकाला, आर्थिक दण्ड भी लगाया जाता था। हर्ष ने अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिए एक संगठित सेना का गठन किया था। सेना में पैदल, अश्वारोही, रक्षारोही और हरिन्तआरोही होते थे।

    आर्थिक स्थिती –

    गुप्तकाल के बाद भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है। यह परिवर्तन सामंतवाद का उदय है। सामंत व्यवस्था का उदय अधिकारियों, मंदिरों, ब्राह्मणों आदि को उनकी सेवाओं के बदले भूक्षेत्र प्रदान करने से हुआ। आरंभ में यह व्यवस्था ब्राह्मणों और मंदिरों तक सीमित थी। मन्दिरों को दान में दी गयी भूमि को ‘देवदेय‘ कहा जाता था। इस युग में अर्थव्यवस्था का आधार कृषि थी, किन्तु अधिक उत्पादन के प्रति लोगों में उत्साह नहीं था क्योंकि अतिरिक्त उत्पादन का अधिक भाग जमींदार या सामंत ले लेते थे। मिताक्षरा के अनुसार भूमिदान का अधिकार सिर्फ राजा को था न कि सेवा के बदले संपत्ति प्राप्त करने वाले को। राजा द्वारा प्रदत्त भूमि अनुदानों को आज्ञापत्र कहा जाता था।
  2.  वास्तव में हषवर्द्धन की विजये इतनी संदिग्ध है कि उनके आधार पर उसकी साम्राज्य सीमा का निर्धारण करना एक जटिल समस्या है। कुछ विद्वान हर्ष का चित्रण उत्तर भारत के एक चक्रवर्ती सम्राट के रुप में करते है जिसके साम्राज्य में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में कामरुप से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक विशाल भूखण्ड शामिल था। वास्तव में हर्ष के पैतृक राज्य में पंजाब, दिल्ली और राजपूताना के कुछ क्षेत्र पहले से ही सम्मिलित थे। ग्रहवर्मा की मृत्यु के बाद कन्नौज के मौखरि राज्य उसके नियंत्रण में आ गया जिसके अन्तर्गत समस्त उत्तर प्रदेश और बिहार का कुछ भाग सम्मिलित था। मगध पर उसके अधिकार की पुष्टि चीनी स्रोत से भी हो जाती है जहॉ उसे मगध नरेश कहा गया है। शशांक की मृत्यु के बाद हर्ष ने बंगाल तथा उडीसा पर अधिकार कर लिया था। इस प्रकार पूर्व में असम तक का भाग हर्ष के अधीन था और पश्चिमोत्तर में सिन्ध का राज्य उसके प्रभाव क्षेत्र में था। पश्चिम में यमुना और नर्मदा के बीच का सभी भाग हर्ष के साम्राज्य में शामिल हो चुका था और उत्तर में हर्ष का साम्राज्य नेपाल की सीमा तक फेला हुआ था।

कर व्यवस्था :

  1. भाग – उपज का हिस्सा
  2. भोग – उपकर (फल, फूल, लकड़ी आदि)
  3. हिरण्य – नकद के रूप में वसूल किया जाने वाला कर
  4. प्रत्यय – चुंगी कर
  5. नियमित राजस्व
  6. प्रस्थ – अधिकारियों का हिस्सा
  7. उद्रंग – स्थायी कृषकों पर लगने वाला कर
  8. उपरिकर – अस्थायी कृषकों पर लगने वाला कर

अग्नि पुराण के अनुसार कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए सिंचाई के साधनों की व्यवस्था का उत्तरदायित्व राजा का होता था। वह भूमि, जो जोतने वालों के स्वामित्व में रहती थी, कौटुम्ब क्षेत्र कहलाती थी। हर्ष की आय का प्रधान स्रोत भाग था, जो एक प्रकार का भूमिकर था और कृषि उपज का 1/6 भाग था। इस काल में व्यापार का ह््रास दिखाई देता है, जिसके अनेक कारण थे। इस समय व्यापार के प्रमुख केंद्र बंगाल, मालवा, गुजरात और कलिंग थे। बंगाल मलमल के लिए, मगध एवं कलिंग धान के लिए, मालवा गन्ने के लिए और गुजरात सूती वस्त्र के लिए प्रसिद्ध था। ताम्रलिप्ति, देपल और भड़ौच इस काल के प्रमुख बंदरगाह थे। इस काल में वस्त्र उद्योग उत्कृष्ट था। पौधों के रेशों से बना कपडा दुकूल’ कहलाता था। बाणभट्ट ने हर्षचरित में रेशम से बने अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया है, जैसे-नाल, तुंज, अंशुक और चीनांशुक। इस काल में सिक्कों का उपयोग कम हो गया था। इसके कारण विदेशी व्यापार का ह््रास होना निश्चित था। रोमन साम्राज्य से रेशम का व्यापार बंद हो गया था। साधारण लेन-देन और स्थानीय व्यापार कौड़ियों के माध्यम से होता था।

साहित्य का विकास-

भारत के अन्य अनेक साहित्य-प्रेमी राजाओं की भाँति हर्ष भी महान विद्याप्रेमी एवं विद्वानों का आश्रयदाता था। महाकवि वाण के अनुसार “ वैदग्ध्य को विद्वानों का उपकरण मानने वाले राम्राट हर्ष स्वयं साहित्यिक गोष्ठियों में व्यक्तिगत काव्यामृत की वर्षा करते रहते थे।’ चीनी यात्री इत्तिंग ने भी हर्ष की साहित्य-प्रियता का उल्लेख किया है। उसकी साहित्यिक गोष्ठी का सर्वश्रेष्ठ रत्न महाकवि बाण था, जिसने हर्षचरित एवं कादम्बरी की रचना कर अमरत्व प्राप्त किया है। उसके दरबारी कवियों में मयूर एवं मातंग दिवाकर नाम लिये जाते है। इनके अतिरिक्त दरबार में और भी अनेक कवि अवश्य ही रहे होगे। विधा और विद्वानों के प्रति हर्ष के प्रेम और सम्मान का भाव इस बात से भी प्रकट है कि वह राजकीय भूमि की उपज का चौथाई भाग विद्वानों को समादृत करने में व्यतीत किया करता था। विद्या के क्षेत्र में उसकी उदार दानशीलता का ज्वलंत उदाहरण नालन्दा विश्वविद्यालय है, जहाँ न केवल निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी, परन् वहाँ के समस्त निवासियों के लिए निःशुल्क भोजन, वस्त्र, आवास एवं चिकित्सा आदि की भी व्यवस्था थी। युआन-च्चांग के अनुसार देश के राजा ने उस विश्वविद्यालय के निमित्त सौ गाँवों का राजस्व दान में दे रखा था। यहाँ देश के राजा से तात्पर्य सम्राट हर्ष से है।
कवि एवं नाटककार के रूप में भी हर्ष को संस्कृत साहित्यकारों में ऊँचा स्थान प्राप्त है। ’प्रियदर्शिका’, ’रत्नावली’ एवं ’नागानन्द’ नामक तीन नाटकों के प्रणेता के रूप में हर्षवर्द्धन विशेष रूप से विख्यात है। इनमें नागानन्द नामक नाटक उसके जीवन के अन्तिम वर्षों की रचना जान पड़ती है। हर्ष को संस्कृत के दो और छोटे काव्यों का रचयिता बतलाया जाता है। ये दोनों ही काव्य बौद्ध धर्म सम्बन्धी है। इनमें से एक का नाम ’सुप्रभातस्तोत्र’ है जिसमें चौबीस श्लोकों में भगवान बुद्ध की स्तुति की गई है। दूसरा लघु काव्य ’अष्टमहा श्रीचैत्यसंस्कतस्तोत्र’ है जिसमें पॉंच ललित श्लोकों में आठ महान् बौद्ध चैत्यों का स्तुतिगान हुआ है। यह मूल सस्कृत ग्रन्थ चीनी लिपि में अब तक सुरक्षित है।

मूल्यांकन-

हर्ष की गणना भारत के उन महान् सम्राटों में की जाती है जिन्होंने अपने शासनकाल में भारतीय जन-जीवन के प्रत्येक पहलू को प्रभावित कर दीर्घकालीन इतिहास पर अपनी अमिट छाप डाली है। अति विषम परास्थितियों में सोलह वर्षीय युवक राजकमार हर्ष ने इस भीषण प्रतिज्ञा के साथ राज्य की बागडोर संभाली थी कि “यदि कछ ही दिनों के भीतर…..समस्त उद्धत राजाओं के पैरों को बेड़ियों की झनकार से पूर्ण करके पृथ्वी को गौड़ों से रहित न कर दूं, तो मैं घी से धधकती हई आग में पतंगे की भाँति अपने पातकी शरीर को जलाकर भस्म कर दूंगा।’ तत्पश्चात् उसने यह घोषणा प्रसारित की कि पूर्व से उदयाचल तक, दक्षिण में त्रिकूट पर्वत तक, पश्चिम में अस्ताचल तक तथा उत्तर में गन्धमादन पर्वत तक समस्त देशों के राजा कर-दान या शस्त्र-ग्रहण के लिए तैयार हो जाये। इस प्रकार उसने दिग्विजयी सम्राट बनने की प्रबल अभिलाषा के साथ थानेश्वर का राजपद स्वीकार किया था, परन्तु तत्काल उसे अपने भाई की मृत्यु का बदला चुकाना, बहन का उद्धार करना तथा कन्नौज राज्य की रक्षा करना था। उसने विद्युत् गति से इन तीनों समस्याओं को सुलझाया और इस प्रकार उसने तात्कालीन भारतीय राजनीति में हडकम्प मचा दी। हर्ष ने अपने पूरे शासनकाल में जनहितकारी कार्यो में विशेष रुचि ली और प्रजा के भौतिक और सांस्कृतिक विकास में हाथ बटाया। हर्ष ने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को संरक्षण प्रदान किया। 643 ई0 में उसने कन्नौज तथा प्रयाग में दो विशाल सभाओं का आयोजन किया। कन्नौज सभा का मुख्य उद्देश्य बौद्ध धर्म को विकसित करना था जिसकी अध्यक्षता व्हे्नसांग ने की थी। 23 दिनो तक चलने वाली इस सभा में राजा के बराबर बुद्ध की सोने की एक सौ फुट उॅचे स्तम्भ पर रखी गई। हर्ष प्रत्येक पॉचवे वर्ष में प्रयाग महामोक्ष परिषद् का आयोजन करता था। उसमें शक्ति और शौर्य के साथ-साथ धर्म-निष्ठा, दान और परोपकार का मधुर समन्वय था और यही उसकी महानता के मुख्य स्तम्भ थे। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत की राजनीति को एक सूत्र में पिरोने का हर्ष ने सफल प्रयास किया लेकिन यह देश का दुर्भाग्य था कि इस राजनीतिक एकता को बनाए रखने वाला उसका कोई उत्तराधिकारी नही रहा। फलतः उसकी मृत्यु के साथ ही देश की राजनीतिक एकता बिखर गयी और राजनीतिक चेतना पुनः अन्तर्मुखी होकर दीर्धकाल के लिए लुप्त हो गयी।

परिशिष्ट :

व्हेनसांग (Xuanzang)-

हर्षवर्द्धन के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना चीनी यात्री व्हे्नसांग (युवानच्वांग) के भारत आगमन की है। हुएनसांग बचपन में गंभीर मनोवृत्ति का था और उसे धार्मिक पुस्तकें बड़ी प्रिय थीं। 622 ईस्वी में बीस वर्ष की अवस्था में वह प्रसिद्ध भिक्षु बन गया। यहाँ से वह चीन के विभिन्न स्थानों में बौद्ध सन्तों तथा विद्वानों के पास गया तथा धर्म के गूढ़ प्रश्नों पर उसने वार्तालाप किया। उसने अनुभव किया कि चीन में बौद्ध धर्म का पूर्ण अध्ययन संभव नहीं था। उसकी उत्कृष्ट अभिलाषा महात्मा बुद्ध के चरण-चिहों द्वारा पवित्र किये गये स्थानों को देखने तथा पवित्र बौद्ध ग्रन्थों का उनके मूल भाषा में अध्ययन करने की थी जो उन दिनों भारत में सुलभ थे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये 629 ईस्वी में उसने तांग शासकों की राजधानी चंगन से भारतवर्ष के लिये प्रस्थान किया। उत्तरी मध्यएशिया के मार्ग का अनुकरण करता हुआ वह ताशकन्द, समरकन्द, काबुल तथा पेशावर के मार्ग से भारत आया। हिन्दकुश की पहाड़ियों को पार करने के पश्चात् सवप्रथम वह भारतीय राज्य कपिशा पहुँचा। भारत तक पहुंचने में उसे लगभग एक वर्ष का समय लगा। यहाँ से गन्धार, कश्मीर, जालंघर, कुलूट तथा मथुरा होता हुआ वह थानेश्वर पहँचा। थानेश्वर में कुछ दिनों तक रुक कर जयगुप्त नामक बौद्ध विद्वान् से उसने शिक्षा ग्रहण की। थानेश्वर से मतिपुर, अहिच्छत्र एवं साकाश्य होते हए 636 ईस्वी के मध्य उसने हर्ष की राजधानी कन्नौज में प्रवेश किया। कन्नौज से व्हे्नसांग ने अयोध्या, प्रयाग, कौशाम्बी, कपिलवस्तु, कुशीनगर, वाराणसी, वैशाली. पाटलिपुत्र आदि स्थानों का भी भ्रमण किया। पाटलिपुत्र में प्रसिद्ध विहारों एवं स्तूपों के उसने दर्शन किये थे। पाटलिपुत्र से चलकर वह बोधगया पहुंचा जहाँ उसने बोधिवृक्ष की पूजा की। 637 ईस्वी में व्हे्नसांग नालन्दा विश्वविद्यालय गया। यहाँ के कुलपति आचार्य शीलभद्र थे। नालन्दा में लगभग डेढ़ वर्षों तक निवास कर उसने योगशास्त्र का अध्ययन किया। इसके बाद वह बंगाल, उड़ीसा, धान्यकटक (कृष्णानदी के तट पर) होता हुआ पल्लवों की राजधानी काञ्ची गया। काञ्ची से वह आगे नहीं जा सका तथा उत्तर की ओर लौट पड़ा। यहाँ से चलकर वह पुलकेशिन् द्वितीय के राज्य में गया। महाराष्ट्र से वह भड़ौच (गुजर-राज्य), मालवा तथा बलभी गया। बलभी के शासक प्रवसेन को वह हर्ष का दामाद कहता है। तत्पश्चात सौराष्ट्र, माहेश्वरपुर आदि नगरों से होकर वह सिन्ध पहुंचा। वह लिखता सिन्ध देश का राजा शूद्र था तथा बौद्ध धर्म में उसकी आस्था थी। सिन्ध के बाद व्हे्नसांग मूलस्थानपुर पहुंचा जहाँ उसने प्रसिद्ध सूर्य-मन्दिर देखे। अपनी यात्रा के दूसरे दौर में व्हे्नसांग पुनः नालन्दा आया जहाँ उसने व्याख्यान दिये अब उसकी. ख्याति चारों ओर फैल गयी थी।
व्हे्नसांग की ख्याति को सुनकर कामरूप के शासक भास्करवर्मा ने उसे आमंत्रित किया। कामरूप जाते हुए उसने हर्ष को बंगाल के कजंगल नामक स्थान में सैनिक शिविर डालकर पड़ा हुआ देखा। कामरूप में उसका खूब अतिथि-सत्कार हुआ। वहाँ से हर्ष के आग्रह पर वह पुनः उसकी राजधानी वापस लौट आया।
व्हे्नसांग ने कन्नौज की धर्मसभा तथा प्रयाग के छठे महामोक्षपरिषद् में भाग लिया। इन दोनों समारोहों का उसने अत्यन्त रोचक वर्णन किया गया है। प्रयाग में ही उसने हर्ष से विदाई ली। वापसी में भी उसने मध्य एशिया के ही मार्ग का अनुसरण किया। प्रयाग से चलकर वह जालंधर पहुँचा जहाँ करीब एक माह तक रहा। यहाँ से नये रक्षक-दल के साथ नमक के पहाड़ी दर्रे तथा सिन्ध नदी को कठिनाई से पार करता हुआ पामीर और खोतान के मार्ग से होता हुआ वह 645 ईस्वी तक विभिन्न बौद्ध ग्रन्थों के चीनी भाषा के अनुवाद में व्यस्त रहा। इसके चार वर्षों बाद 665 ईस्वी के लगभग व्हे्नसांग की मृत्यु हो गयी।
व्हे्नसांग ने अपनी यात्रा विवरण के ऊपर एक ग्रन्थ लिखा जिसे ’सि-यू-की’ कहा जाता है। उसके एक सहयोगी बी-ली ने ’हुएनसांग की जीवनी’ (Life of Hiuen TSang) नामक एक ग्रन्थ की रचना की है।
हर्षकालीन भारत की राजनैतिक और सांस्कृतिक दशा के अध्ययन के लिये हुएनसांग के विवरण से पर्याप्त सामग्री प्राप्त हो जाती है। उसने हर्ष की राजधानी कन्नौज का वर्णन किया है। उसके अनुसार यह नगर तीन मील लम्बा तथा डेढ़ मील चौड़ा था। यहाँ के लोग सभ्य, समृद्ध एवं नैतिक दृष्टि से उन्नत थे। व्हे्नसांग हर्ष के शासन की प्रशंसा करता है। वह लिखता है कि हर्ष का शासन उदार था। वह व्यक्तिगत रूप से शासन की विविध समस्याओं में रुचि लेता था। प्रजा सुखी एवं समृद्ध थी। बहुत कम कर लगते थे। बेगार नहीं लिया जाता था, दण्डविधान साधारण था। सामाजिक नैतिकता एवं सदाचार के विरुद्ध आचरण करने वालों को कड़ी सजा दी जाती थी। आवागमन के मार्ग पूर्णतया सुरक्षित नहीं थे। वह कई बार चोर-डाकुओं के चंगुल में फंस चुका था। फिर भी लोग नैतिक दृष्टि से उन्नत थे। वे पारलौकिक जीवन के दुःखों से डरते थे और इस कारण पाप बहुत कम होते थे। व्हे्नसांग हर्ष के परिश्रम और दानशीलता की प्रशंसा करता है। हुएनसांग के विवरण से पता चलता है कि हर्षकालीन समाज में चार वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अतिरिक्त कई जातियाँ एवं उपजातियॉ थी। वह अनेक मिश्रित जातियों का भी उल्लेख करता है। उसके अनुसार भंगी, नट, जल्लाद आदि अछूत समझे जाते थे। वे गाँवों और नगरों के बाहर रहा करते थे। उनके मकानों पर पहचान-चिह्न लगे हुए थे।
उसका कहना है कि वैश्यों के हाथों में देश की अर्थशक्ति थी। वैश्यों में अहिंसा का विशेष प्रचार था और वे मांसाहार नहीं करते थे। ऐसा लगता है कि उस समय तक शूद्रों को भी कुछ राजनीतिक शक्ति मिल गयी थी। व्हे्नसांग के अनुसार सिन्ध का राजा शूद्र था। व्हे्नसांग लिखता है कि भारतीय अधिकतर सफेद वस्त्र धारण करते थे। समाज में अन्तर्जातीय विवाह होते थे। लोग मांसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। व्हे्नसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में अनेक धर्म एवं सम्प्रदाय प्रचलित थे। शिव, सूर्य, विष्णु, दुर्गा आदि देवी-देवताओं की उपासना का व्यापक प्रचलन था। वह हमें बताता है कि गंगा जल को लोग ’पुण्यजल’ समझते थे। लोगों की ऐसी धारणा थी कि जो लोग इस नदी के जल में डूब कर मर जाते है उनका स्वर्ग में सुखपूर्वक जन्म होता है। अतः अनेक लोग प्रतिवर्ष प्रयाग के संगम के जल में डूबकर मरने के लिये आते थे। व्हे्नसांग कन्नौज तथा प्रयाग के छठे समारोहों में सम्मिलित हुआ था। कन्नौज की धर्मसभा का तो वह अध्यक्ष था जिसका उद्देश्य महायान बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का प्रचार करना था। प्रयाग समारोह में हर्ष की उदारता एवं दानशीलता का वह उच्च शब्दों में वर्णन करता है।
व्हे्नसांग ने नालन्दा विश्वविद्यालय में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी। वह यहाँ के ज्ञान-विज्ञान तथा अध्ययन के उच्च स्तर की प्रशंसा करता है। वह हमें बताता है कि यह एक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति का विश्वविद्यालय था जहाँ प्रवेश के लिये बड़ी कठिन परीक्षा देनी पड़ती थी। इस परीक्षा में दस में से केवल तीन या चार विद्यार्थी बड़ी कठिनाई से उत्तीर्ण हो पाते थे।
इस प्रकार हुएनसांग के विवरण से हर्षकालीन समाज एवं संस्कृति का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अपने ग्रन्थ में उसने अनेक स्थानों के नाम दिये हैं जिससे सातवीं शताब्दी ईस्वी के भारतीय भूगोल को समझने में भी सहायता मिलती है। व्हे्नसांग का विवरण निःसन्देह 7वीं शताब्दी के भारतीय समाज व संस्कृति को समझने के लिए बड़ा ही उपयोगी है।

इत्सिंग (I-tsing)-

व्हे्नसांग के समान इत्सिग भी चीनी बौद्ध यात्री था जो हर्षवर्द्धन के शासनकाल के बाद भारत की यात्रा पर आया। 671 या 672 ईसवीबके आसपास वह अपने 37 बौद्ध सहयोगियो के साथ बौद्ध धर्म के अवशेषों को देखने की इच्छा से उसने पाश्चात्य विश्व का भ्रमण करने का निश्चय किया। बाद में उसके साथियों ने उसका साथ छोड़ दिया अतः वह अकेले ही भारत की यात्रा पर चल पड़ा। वह दक्षिण के समुद्री मार्ग से मार्ग से होकर भारत आया। सुमात्रा तथा लंका होते हुए वह ताम्रलिप्ति पहुॅचा जहाँ तीन वर्षों तक रहकर उसने संस्कृत का अध्ययन किया। यहाँ से उसने विभिन्न स्थानों की यात्रा की और अपनी यात्रा समाप्त कर 693-94 ईस्वी के लगभग सुमात्रा होता हुआ वह चीन वापस लौट गया। वह अपने साथ सुत्त, विनय एवं अभिधम्म ग्रन्थों की लगभग 400 प्रतियाँ ले गया। 700-712 ईस्वी के मध्य उसने लगभग 56 ग्रन्थों का चीनी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया।
इत्सिग का मूलग्रन्थ चीनी भाषा में लिखा गया। उसका अनुवाद अंग्रेजी भाषा में प्रसिद्ध जापानी तक्कुसु (ज्ांनेन) ने ’ए रेकार्ड ऑफ द बुद्धिस्ट रेलिजन’ नाम से प्रस्तत किया। इसके अध्ययन से हम सातवीं सदी के उत्तरी भारत के समाज एवं संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते हैं। अपने यात्रा विवरण के प्रारम्भ में इत्सिग चीन से भारत तथा उसके पडोसी देशों की यात्रा पर आने वाले 56 बौद्ध यात्रियों का विवरण देता है। सुमात्रा का वर्णन करते हुये वह हमें बताता है कि इसके किनारे पर एक समृद्ध व्यापारिक प्रतिष्ठान तथा धार्मिक विहार था। यहाँ से व्यापारी माल लेकर कैन्टन को जाते थे। वह मार्ग की कठिनाइयों का भी वर्णन करता है। वह भारतीयों की धार्मिक परम्पराओं का भी वर्णन करता है। उसके अनुसार मगध में प्रत्येक सम्प्रदाय उन्नत दशा में था। नालन्दा का वर्णन करते हुये इत्सिग लिखता है कि इसके पूर्व की ओर 40 स्टेज पर गंगा नदी के किनारे श्रीगुप्त नामक राजा द्वारा चीनी यात्रियों के लिये बनवाया गया मन्दिर स्थित था। वह नालन्दा तथा विक्रमशिला के विश्वविद्यालयों का भी वर्णन करता है तथा हर्ष की दानशीलता एवं विद्या-प्रेम की प्रशंसा करता है। इत्सिंग के विवरण से भी हम हर्षकालीन भारतीय धर्म एवं समाज के विषय में कुछ ज्ञान प्राप्त करते है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

  1. के0 एम0 पणिक्कर, श्रीहर्ष ऑफ कन्नौज, फारगाटेन बुक्स, पृ0सं0- 22, 23
  2. मजूमदार, जर्नल ऑफ द बिहार एण्ड उडीसा रिसर्च सोसायटी, 1923, पृ0सं0- 312, 313
  3. रामशंकर त्रिपाठी, हिस्ट्री ऑफ कन्नौज, मोतीलाल बनारसी दास पब्लिशर्स, 1989 पृ0सं0- 114.19
  4. के0 सी0 श्रीवास्तव, प्राचीन भारत का इतिहास और संस्कृति, युनाइटेड बुक डिपो, पृ0सं0- 540.45
  5. सिंह एवं चन्द, प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, स्टूडेण्ट फ्रेण्ड्स, इलाहाबाद, पृ0सं0-401-03

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