window.location = "http://www.yoururl.com"; Culture during Gupta Period | गुप्तयुगीन संस्कृति

Culture during Gupta Period | गुप्तयुगीन संस्कृति


Introduction (विषय प्रवेश) :

गुप्त सम्राटों का शासनकाल प्राचीन भारतीय इतिहास के सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है। वस्तुतः इस समय सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई थी और भारतीय संस्कृति के विकास को पूर्णता प्राप्त हुई थी। गुप्त युग की इसी चहुॅंमुखी प्रगति को देखते हुए ही विद्वानों ने गुप्त काल को हिन्दू संस्कृति के ‘स्वर्ण युग‘ अथवा ‘क्लासिकल युग‘ की संज्ञा से विभूषित किया है। गुप्त युग को बहुत से इतिहासकार भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग मानते हैं। स्वर्ण-युग ऐसे युग को कहा जाता है जिस युग में सवर्तोन्मुखी प्रगति हो, सामाजिक जीवन में उच्चतर आदर्शों की स्थापना हो, आर्थिक जीवन समृद्ध हो और कला, साहित्य विज्ञान आदि श्रेष्ठता के चर्मोत्कर्ष पर पहुँचे । यह कहा जा सकता है गुप्त युग इस कसौटी पर खरा उतरता है।

बहुत से इतिहासकार गुप्त युग को स्वर्ण-युग स्वीकार नहीं करते। उनका मानना हैं कि यह एक मिथिकीय कल्पना है। वे गुप्त कालीन सामाजिक व आर्थिक जीवन के नकारात्मक पहलुओं की ओर ध्यान आकर्षित कराते हैं। रोमिला थापर मानती हैं कि गुप्त युग के स्वर्ण-युग होने सम्बन्धी धारणा वास्तविकता पर आधारित प्रतीत नहीं होती है। कम से कम जहाँ तक जनसाधारण के सामाजिक-आर्थिक जीवन का प्रश्न है, गुप्त युग को स्वर्ण-युग नहीं माना जा सकता। एक आपत्ति यह भी उठाई जा सकती है कि यदि हम इस युग को स्वर्ण युग मान भी लें तो यह सम्पूर्ण भारत के परिप्रेक्ष्य से सत्य नहीं है। दक्षिण भारत में तो चोल-साम्राज्य के युग को स्वर्ण-युग कहना होगा। यह वह समय है जब उत्तर-भारत में राजनीतिक अस्थिरता थी और सांस्कृतिक स्थिति पराभवोन्मुख थी।

कुछ इतिहासकार स्वर्ण-युग’ को औपनिवेशिक युग (अंग्रेजी राज) की कल्पना मानते हैं। उस समय भारतीयों ने गुप्त युग की स्वर्ण-युग के रूप में कल्पना की थी। इसे अंगेजों द्वारा भारतीयों को पिछड़ा और असभ्य कहे जाने के प्रत्युत्तर के रूप में देखा जा सकता है। अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव उत्पन्न करने के लिये भारतीयों ने गुप्त युग को स्वर्णयुग की संज्ञा दी थी।
किन्तु इस बात से इनकार कर पाना कठिन है कि गुप्त युग भारतीय सभ्यता और संस्कृति के चर्मोत्कर्ष का काल था। के०एम० मुंशी ने गुप्त युग का अत्यन्त विशद् निरूपण करते हुए लिखा है कि- यह साम्राज्य केवल विजयों और प्रशासनिक निपुणता पर आधारित नहीं था, इसकी महानता इसके समग्र दृष्टिकोण में निहित है। इसकी शक्ति उतनी ही फौजी ताकत पर आधारित थी, जितनी भीतरी व्यवस्था और आर्थिक प्राचुर्य पर, पर इसकी जीवनी शक्ति का रस प्राचीन परम्परा और जातीय स्मृति की जड़ों से खींचा जाता था, जिसे उन्होंने कायम रखा, पुर्नव्याख्या की और उसे भरपूर बनाया। मध्य देश और मगध में क्षत्रियवंश समूहों का उदय और राज्य के प्रति उनकी अटल स्वामी भक्ति साम्राज्यिक प्रासाद का इस्पाती ढाँचा था। साम्राज्य की भव्यता शासकों के व्यक्तित्व में लिपटी कोई अलग चीज नहीं थी। जनता अपनी परम्परागत जीवन-पद्धति में कुछ उदात्त और भव्य पाकर उसे अपने शासकों की महानता में प्रतिबिम्बित देखती थी।
“गुप्त सम्राट आर्चयजनक राष्ट्रीय लहर के प्रतीक बन गये। भारत के इस स्वर्ण-युग में जीवन जितना सुखी और हमारी संस्कृति जितनी रचनात्मक थी, उतनी और कभी नहीं।“

गुप्तयुगीन प्रशासन-

विशाल गुप्त साम्राज्य की शासन-व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। मौर्य शासकों के विपरित गुप्त राजवंश के शासक दैवीय उत्पति में विश्वास करते थे तथा ‘महाराजाधिराज‘, ‘एकराट‘, ‘परमेश्वर‘, ‘परमभट्टारक‘ जैसी उपाधियॉ घारण करते थे। सम्राट प्रशासन का मुख्य स्रोत था और उसके अधिकार और शक्तियॉ असीमित थी। वह कार्यपालिका का सर्वोच्च अधिकारी, न्याय का प्रधान न्यायाधीश और सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था। इस काल में राजाओं की तुलना कुबेर, वरूण, इन्द्र आदि से की गई है। राजा की उपाधि से पता चलता है कि गुप्त शासकों ने अपने साम्राज्य के भीतर छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया। साम्राज्य का अधिकतर भाग सामन्तों के अधीन था। रामशरण शर्मा के अनुसार गुप्तों की प्रशासनीक व्यवस्था प्राक्-सामन्ती व्यवस्था थी और राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था।

केन्द्रीय प्रशासन-

प्रशासन के संचालन के लिए सम्राट मंत्रिमण्डल का गठन करता था जिसमें अमात्य, सचिव एवं मंत्री होते थे। नौकरशाही ‘अमात्य‘ के नाम से जाना जाता था। गुप्तकालीन अभिलेखों में अनेक केन्द्रीय पदाधिकारियों के नाम मिलते है। इनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित है –
प्रतिहार एवं महाप्रतिहार- ये राजकीय दरबार के प्रमुख पदाधिकारी होते थे जो प्रशासन में भाग नही लेते थे। जो लोग सम्राट से मिलना चाहते थे उन्हे उचित समय देना इनका प्रमुख कार्य था। प्रतिहार अन्तःपुर का रक्षक और महाप्रतिहार राजमहल के रक्षकों का प्रधान होता था।
महासेनापति या महाबलाधिकृत- यह सेना का सर्वोच्च अधिकारी होता था।
महासंधिविग्रहिक- युद्ध और शान्ति की घोषणा करने वाला अधिकारी महासंधिविग्रहिक के नाम से जाना जाता था।

दण्डपाशिक- यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी होता था।
विनयस्थितीस्थापक- धर्म सम्बन्धी मामलों को देखने वाला प्रधान अधिकारी विनयस्थितीस्थापक कहलाता था जो सार्वजनिक मन्दिरों की देखरेख करता था और लोगों के नैतिक आचरण पर नजर रखता था।
कुमारामात्य- यह गुप्त केन्द्रीय प्रशासन में उच्च पदाधिकारियों का एक विशिष्ट वर्ग होता था जिसकी तुलना आज के भारतीय प्रशासनीक सेवा के अधिकारियों से की जा सकती है।
यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि गुप्त काल में समस्त राजकर्मचारियों को नकद वेतन मिलता था।

प्रान्तीय शासन –

प्रशासनीक सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य कई प्रान्तों में बॅटा हुआ था जिसे ‘भुक्ति‘ कहा जाता था। इसे देश या अवनी भी कहा जाता था। भुक्ति के शासक को ‘उपरिक‘ कहा जाता था जिसकी नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी तथा वह सम्राट के प्रति ही उत्तरदायी होता था। उपरिक के पद पर सामान्यतया राजकुमार अथवा राजकुल से सम्बद्ध व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी परन्तु कभी-कभी योग्य व्यक्तियों को भी यह पद प्रदान किया जाता था। सीमान्त प्रदेशों का शासक ‘गोप्ता‘ कहलाते थे जिसकी नियुक्ति भी सम्राट काफी सेच-विचार के बाद करता था। गुप्त साम्राज्य के अधीन प्रमुख प्रान्तों की सूची इस प्रकार है –

प्रमुख प्रान्त :

  1. पुण्ड्रवर्धन – उत्तरी बंगाल
  2. तीरभुक्ति – तिरहुत
  3. वर्द्धमान – बंगाल
  4. पश्चिम मालवा – अवन्ति
  5. पूर्वी मालवा – एरण
  6. मगध – पाटलीपुत्र
  7. कौशाम्बी – कौशाम्बी
  8. श्रीनगर – काश्मीर
  9. सौराष्ट्र – गुजरात

चन्द्रगुप्त द्वितीय का छोटा पुत्र गोविन्दगुप्त तीरभुक्ति का तथा कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र घटोत्कचगुप्त पूर्वी मालवा का उपरिक या राज्यपाल था। कुमारगुप्त प्रथम के समय में पुण्ड्रवर्धन प्रान्त का उपरिक चिरादत्त था। स्कन्दगुप्त के शासनकाल में पर्णदत्त सौराष्ट्र का राज्यपाल था। इन राज्यपालों अथवा उपरिकों की नियुक्ति सामान्यतया पॉच वर्षो के लिए की जाती थी।

स्थानीय स्वशासन –

भुक्ति का विभाजन अनेक जनपदों में किया गया था जिसे ‘विषय‘ कहा गया है और जिसका प्रधान अधिकारी ‘विषयपति‘ होता था जो विषय परिषद की सहायता से शासन करता था। विषय परिषद में नगर श्रेष्ठि, सार्थवाह, प्रथम कुलिक, और प्रथम कायस्थ सदस्य होते थे। विषयपति की नियुक्ति सामान्यतया सम्बन्धित प्रान्त के उपरिक अर्थात राज्यपाल के द्वारा की जाती थी परन्तु कभी-कभी स्वयं सम्राट भी इनकी नियुक्ति करता था। विषयपति का अपना कार्यालय होता था और यहॉ के अभिलेखों को सुरक्षित रखने वाले अधिकारी को ‘पुस्तपाल‘ कहा जाता था।
नगर श्रेष्ठि- नगर के महाजनों का प्रमुख
सार्थवाह- व्यवसायियों के प्रधान को सार्थवाह कहा जाता था
प्रथम कायस्थ- मुख्य लेखक
प्रथम कुलिक- प्रधान शिल्पी

विषय का विभाजन ‘वीथि‘ में हुआ था और ‘वीथि‘ से छोटी ईकाई ‘पेठ‘ होती थी। पेठ अनेक गॉवों के समूह को कहा जाता था। ग्राम सभा द्वारा गॉवों का शासन संचालित होता था। दामोदरपुर ताम्रपत्र से ग्राम सभा के कुछ अधिकारियों जैसे महत्तर, अष्टकुलाधिकारी, कुटम्बी, तमवारिक आदि का उल्लेख मिलता है जो गॉव का प्रबन्ध देखता था। ग्रामसभा सरकार के सभी कार्य जैसे – गॉवों की सुरक्षा की व्यवस्था करना, निर्माण-कार्य करना, राजस्व एकत्रित करना आदि किया करती थी।

गुप्तकाल में नगरपालिकाएॅ अस्तित्व में थी और प्रमुख नगरों का प्रबन्ध नगरपालिकाएॅ चलाती थी। ‘पुरपाल‘ नगर का प्रमुख अधिकारी होता था जो कुमारामात्य की श्रेणी का अधिकारी होता था। जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि गिरनार नगर का पुरपाल चक्रपालित था जिसने सुदर्शन झील के बीच बॉध का पुनर्निमाण करवाया था।

न्याय प्रशासन –

गुप्तकालीन अभिलेखों में यद्यपि न्याय विभाग का उल्लेख नहीं मिलता परन्तु समकालीन स्मृति ग्रन्थों से पता चलता है कि गुप्त युग में न्याय व्यवस्था अत्यन्त विकसित अवस्था में थी। सम्राट साम्राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। वह सभी प्रकार के मामलों की सुनवाई का अन्तिम न्यायालय था। सम्राट के अतिरिक्त एक मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य अनेक न्यायाधीश होते थे जो साम्राज्य के विभिन्न भागों में स्थित अनेक न्यायालायों में न्याय-सम्बन्धी कार्यो को देखते थे। नारद एवं वृहस्पति स्मृतियॉ समकालीन विकसित न्याय व्यवस्था पर पूरा प्रकाश डालती है। गुप्तों के काल में ही पहली बार दीवानी और फौजदारी कानूनों के बीच भेद स्पष्ट हुआ और इसकी विशद् व्याख्या की गयी। व्यापारियों और व्यवसायियों के अपने अलग न्यायालय होते थे जो अपने सदस्यों के विवादों का निपटारा करते थे। स्मृति ग्रन्थों में ‘पूग‘ और ‘कुल‘ नामक संस्थाओं का भी उल्लेख हुआ है। ‘पूग‘ नगर में रहने वाली विभिन्न जातियों की समिति होती थी जबकि ‘कुल‘ समान परिवार के सदस्यों की समिति होती थी। इन सभी को राज्य की ओर से मान्यता मिली हुई थी। ग्रामों में ग्राम पंचायते ही न्याय देने का कार्य किया करती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में न्यायधीशों को ‘महादण्डनायक‘, ‘दण्डनायक‘ आदि नामों से सम्बोधित किया गया है।
फाह्यान के विवरण से पता चलता है कि गुप्तकाल में दण्ड विधान अत्यन्त कम कठोर था। मृत्युदण्ड का कोई प्राविधान नही था और न ही शारीरिक यातनाएॅ दी जाती थी। अपराधों में सामान्यतया आर्थिक जुर्माने लगाये जाते थे। बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का दाहिना हाथ काट लिया जाता था। स्पष्ट है कि गुप्त शासकों ने प्राचीन दण्ड विधान को उदार और कम कठोर बनाने का प्रयास किया।

आर्थिक व्यवस्था-

गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण पहलू है- ‘भू-व्यवस्था का सामन्तीकरण‘। इस काल में मन्दिरों और ब्राह्मणों को जो भूमि दान में दी जाती थी उसे ‘अग्रहार‘ कहा जाता था। इस प्रकार की भूमि सभी प्रकार के करों से मुक्त होती थी। रामशरण शर्मा इसे ‘भारत में सामन्तवाद‘ के उदय का एक प्रमुख कारण मानते है। बुद्धगुप्त के पहाडपुर ताम्रपत्र अभिलेख में कहा गया है कि भूमिदान करने से सम्राट को आर्थिक और आध्यात्मिक गुण प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट होता है कि सम्राट भू-स्वामी है। गुप्तकालीन भूमि को निम्न श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है –
वास्तु- निवास योग्य भूमि।
चरागाह भूमि- पशुओं के चारा के योग्य भूमि।
खिल- भूमि जो जोतने योग्य नहीं होती थी।
अप्रहत- जंगली भूमि जिसमें कभी भी जुताई नहीं होती थी।
अमरसिंह ने अमरकोष में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख किया है- 1. उर्वरा, 2. ऊसर, 3. मरु. 4. अप्रहत, 5. सद्बल, 6. पंकिल, 7. जल प्रायमनुषम, 8. कच्छ, 9. शर्करा, 10. शर्कावती 11. नदीमातृक 12. देवमातृक
गुप्तकालीन अभिलेखों के आधार पर निम्नलिखित भू-घृतियां देखने को मिलती हैं
नीविधम – सदा के लिए भूमि अनुदान
अक्षयनीवि – भू-राजस्व का स्थायी दान। इसके अनुसार किसान उस भूमि से प्राप्त आय का उपभोग कर सकता था, किंतु वह भूमि किसी और को नहीं दे सकता था।
अप्रद धर्म – प्राप्तकर्ता को संपत्ति के सभी अधिकार प्राप्त थे परंतु उसे प्रशासकीय अधिकार प्राप्त नहीं थे। वह इसे दूसरे को अनुदान में नहीं दे सकता था।
भूमिछिद्रन्याय – कृषि के अयोग्य भूमि। इसमें जो व्यक्ति सर्वप्रथम बंजर भूमि पर खेती प्रारंभ करेगा वही इसका भू-स्वामी होगा।

गुप्तकाल में राज्य की आय के प्रमुख स्रोत भूमि कर थे। गुप्त अभिलेखों में भूमिकर को ‘उद्रंग‘ या ‘भाग‘ कहा गया है जो सामान्यतया उपज का छठा भाग होता था। ’भोग’ ग्रामीणों द्वारा राजा को दी जाने वाली फल, फूल, लकड़ी आदि की नियमित आपूर्ति थी। ’ व्यूहलर ने ’उद्रंग कर’ को भूमि कर बताया है पर आर0 एस0 शर्मा इसे सीमा कर मानते हैं। ’उपरिकर’ एक प्रकार का भूमिकर था जिसे उपरिक वसूलता था। ’हलदंडकार’ हल रखने वाले प्रत्येक कृषक द्वारा दिया जाने वाला कर था। राजकीय सेवा के लिए बेगार (विष्ट) भी लिया जाता था। भू-राजस्व नकद (हिरण्य) तथा मेय (अन्न) दोनो रूप में लिया जाता है। कुल्यावाप, द्रोण तथा पाटक भूमि-माप का ईकाईयां थीं। स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख में राज्य द्वारा प्रोत्साहित सिंचाई के कार्यों का उल्लेख मिलता है। ’रहट’ और ’घटीयंत्र’ का प्रयोग सिंचाई के लिए किया जाता था। आकार के अनुसार तालाबों को वापी, तड़ग तथा दीर्घुल कहा जाता था। ’महाक्षपटलिक’ और ’कारणिक’ कृषि से जुड़े कार्यो को देखते थे। भूमिकर संग्रह करने के लिए ‘ध्रुवाधिकरण‘ तथा भूमि आलेखों को सुरक्षित करने के लिए ‘महाक्षपटलिक‘ और करणिक जिम्मेदार होते थे। ‘न्यायाधिकरण‘ नामक पदाधिकारी भूमि सम्बन्धी विवादों का निपटारा करते थे। वाराहमिहिर तथा अमरसिंह ने चावल, गेह, जौ, मसूर, दाल, गन्ना तथा तिलहन जैसी फसलों का उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त व्यापारिक वस्तुओं आदि पर भी कर लगते थे जो राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत होता था। सीमा बिक्री की वस्तुओं आदि पर जो कर लगते थे उसे ‘शुल्क‘ कहा जाता था। इस काल में बंगाल मलमल के लिए, कलिंग धान के लिए, मालवा ईख के लिए, गुजरात सूती वस्त्र के लिए तथा कश्मीर केसर के लिए प्रसिद्ध था।

गुप्तकाल में वेतन की अदायगी सामान्तया भूमि अनुदान के रूप में की जाती थी। ‘अग्रहार‘ भूमि ब्राह्मणों को दान में ही दी जाती थी जो करमुक्त होती थी और राजा के प्रसादपर्यनत इस भूमि पर उनका अधिकार बना रहता था। दूसरे प्रकार का भूमि अनुदान राजा अपने अधिकारी को उनके सेवा के बदले उपहार स्वरूप देते थे। गुप्त सम्राटों द्वारा दिये गये भूमि अनुदान में भूमि पर राजस्व के समान अधिकार के साथ-साथ गृहीता को प्राप्त भूमि पर आंतरिक सुरक्षा और प्रशासनिक दायित्व को भी निभाना होता था। गुप्तकाल में अनुदान में प्राप्त भूमि के ग्रहीता को सामंत कहा गया। धीरे-धीरे सामंत भूमि का वास्तविक शासक बन गया। सामंत सम्राट को उपहार, भेंट तथा युद्ध के समय सैन्य सहायता देता था। इसका सर्वाधिक दुष्परिणाम यह हुआ कि राजा अब अधिकाधिक सामंत पर निर्भर रहने लगा। किसानों और शिल्पियों की स्थिति बदतर हुई। कृषि अर्धदास या बंधुआ मजदूरों का उदय हुआ। सिक्कों के प्रचलन में कमी आई तथा औद्योगिक एवं व्यापारिक नगरों का पतन हुआ।
स्कंदगुप्त के इंदौर अनुदान में ग्रहीता को भूमि पर खेती करने अथवा करवाने का अधिकार दिया गया था। इससे अनुदान प्राप्तकर्ता को काश्तकार रखने का अवसर प्राप्त हो गया। यह उपसामंतीकरण का पहला अभिलेखीय उदाहरण है। गुप्तकाल में वस्त्र निर्माण शिल्प प्रगति की ओर अग्रसर था। श्रेणियां व्यावसायिक उद्यम एवं निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी। ये सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती थी। अपने आंतरिक मामले में श्रेणियां पूर्ण स्वतंत्र होती थीं। श्रेणी के प्रधान को ’ज्येष्ठक’ कहा जाता था। ज्येष्ठक का पद आनुवंशिक होता था। मंदसौर अभिलेख में रेशम बुनकरों की श्रेणी द्वारा विशाल सूर्य मंदिर के मरम्मत करवाने का उल्लेख है। व्यापारिक समिति को ’निगम‘ तथा इसके मुखिया को ’श्रेष्ठ’ कहा जाता था। व्यापारिक काफिले का नेतृत्व करने वाले को ’सार्थवाह’ कहा जाता था। गुप्तकाल में व्यापार एवं वाणिज्य में शिथिलता आई। आंतरिक व्यापार के साथ-साथ विदेशी व्यापार भी पतन की ओर अग्रसर था। निरंतर हूणों के आक्रमण तथा रोमन जनता द्वारा चीनियों से रेशम उत्पादन की तकनीक सीख लेने के कारण भारत के साथ रोमन व्यापार को धक्का लगा। पूर्वी तट पर स्थित बंदरगाह ताम्रलिप्ति, घंटशाला एवं कदूरा से गुप्त सम्राट दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार करते थे। पश्चिमी तट पर स्थित बंदरगाह भडौंच, कैबे, सोपारा, कल्याण आदि से पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार संपन्न होता था। चीन से भारत का व्यापार अनुमानतः वस्तु विनिमय प्रणाली पर आधारित था।
गुप्त शासकों ने सर्वाधिक स्वर्ण के सिक्के जारी किये। सोने के सिक्कों को ’दीनार’ कहा गया है। फाह्यान के अनुसार विनिमय का साधन ’कौड़ी’ था। गुप्तकाल के अंतिम चरण में गंगा के मैदानी क्षेत्र में स्थित नगर कुम्रहार, पाटलिपुत्र, सोनपुर आदि नगरों का पतन हुआ।

सामाजिक स्थिति –

गुप्तकालीन समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभाजित था और ब्राह्मण को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। ब्राह्मणों ने अन्य व्यवसायों को भी अपनाना शरू कर दिया था। मृच्छकटिकम् नामक नाटक से यह प्रमाणित होता है कि चारुदत नामक ब्राह्मण वाणिज्य का कार्य करता था। याज्ञवल्कय ने शूद्रों को व्यापारी, कारीगर एवं कृषक होने की अनुमति प्रदान की है। इस काल के समाज में अम्बष्ठ (बाह्मण पुरुष तथा वैश्य स्त्री से उत्पन्न), पराशव (ब्राह्मण पुरुष एवं शूद्र स्त्री) तथा उग्र (क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री या वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री से उत्पन्न) जैसे मिश्रित जातियों का उल्लेख मिलता है।
फाह्यान ने समाज में अस्पृश्य जाति के होने का उल्लेख किया है। स्मृतियों में ’अन्त्यज’ व ’चांडाल’ नाम की एक अस्पृश्य जाति का उल्लेख मिलता है। गुप्तकाल में कायस्थ का उल्लेख मिलता है जो लेखकीय, गणना तथा आय-व्यय का हिसाब रखता था। याज्ञवल्क्य स्मृति में कायस्थों का प्रथम उल्लेख तथा जाति के रूप में इसका पहला उल्लेख ओशनम् स्मृति से मिलता है। गुप्तकालीन समाज में स्त्रियों का स्थान गौण था। स्त्रियां व्यक्तिगत संपत्ति समझी जाती थीं। बाल-विवाह का प्रचलन था तथा पर्दाप्रथा केवल उच्च वर्ग में प्रचलित था। समाज में विधवाओं की दशा अच्छी नही थी। कन्याओं का विवाह सामान्यतः 12-13 वर्ष में कर दिया जाता था। सती प्रथा का भी प्रचलन था। सती प्रथा का प्रथम उल्लेख 510 ई. के एरण अभिलेख से मिलता है। गुप्तकाल में वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों को ’गणिका’ कहा जाता था। ‘कुट्टिनी’ वृद्ध-वेश्याओं को कहा जाता था। याज्ञवल्क्य एवं वृहस्पति ने स्त्री को पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी माना जबकि कात्यायन ने स्त्री को सिर्फ अचल संपत्ति की स्वामिनी माना है। गुप्तकाल में नारद स्मृति ग्रन्थ ने 15 प्रकार के दासों और दासों की स्थिति दयनीय होने का उल्लेख किया है।

गुप्तकालीन कला और स्थापत्य –

गुप्त राजवंश के शासकों के अधीन कला की विविध विधाओं स्थापात्यकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला का अभूतपूर्व विकास हुआ। वस्तुतः मंदिर निर्माण की शुरुआत गुप्तकाल में ही हुई। चबूतरे पर मंदिर निर्माण होता था जिसके चारों ओर चढने के लिए सीढ़ियां बनाई जाती थी। मंदिर का बाह्य भाग और स्तम्भ अलंकृत बनाये जाते थे जबकि भीतरी भाग सादा होता था। मंदिरों की छतें प्रायः सपाट और चपटी बनाई जाती थीं। मंदिर छोटी-छोटी ईंटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। भीतर गॉंव का मंदिर ईंटों से ही निर्मित है। गुप्तकालीन मंदिरों में सर्वोत्कृष्ट उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले में स्थित देवगढ़ का दशावतार मंदिर है जो पंचायतन श्रेणी का मंदिर है। उत्तर भारत का यह पहला मंदिर है जिसमें शिखर का निर्माण किया गया। इसमें भगवान विष्णु को नाग शैय्या में लेटे हुए दिखाया गया है। महाभारत और रामायण के कई मनोहारी दृश्यों का अंकन भी इसमें प्राप्त होता है। सारनाथ के धामेख स्तूप का निर्माण गुप्तकाल में किया गया। इसका निर्माण धरातल पर ईंटों द्वारा किया गया है।
सॉची के महास्तूप के दक्षिण-पूर्व की ओर बने सॉची का मन्दिर गुप्तकाल का प्रारंभिक मन्दिर है जिसका आकार छोटा है, छत सपाट है और गर्भगृह चौकोर है। मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले में अवस्थित तिगवां का मन्दिर इस काल का एक अन्य महत्वपूर्ण मन्दिर है जिसमें सिंह की मूर्तियॉ बनाई गयी है। इसके प्रवेश द्वार के पार्श्वो पर गंगा और यमुना की आकृतियॉ उनके वाहनों के साथ उत्कीर्ण है। मध्यप्रदेश के सागर जिले में एरण का प्रसिद्ध विष्णु मन्दिर इस काल का एक अन्य महत्वपूर्ण मन्दिर है। नचना-कुठार का पार्वती मन्दिर और भूमरा का शिव मन्दिर भी इस काल के स्थापत्यकला का एक बेहतरीन उदाहरण माना जा सकता है। मन्दिरों के अतिरिक्त दो बौद्ध स्तूपों – सारनाथ का धमेख स्तूप और राजगृह का ‘जरासंघ की बैठक‘ का निर्माण गुप्त सम्राटों के काल में ही हुआ माना जाता है।
गुप्तकालीन मूर्तियों में अधिकतर मूर्तियॉं देवी, देवता, बुद्ध और तीर्थंकर की है। गुप्तकालीन धातु मूर्तिकला में नालंदा तथा सुल्तानगंज की बुद्ध की मूर्ति उल्लेखनीय है। गुप्तकाल की मूर्तियों में कुषाणकालीन नग्नता एवं कामुकता का पूर्णतः लोप हो गया था। गुप्त काल की तीन बुद्ध मूर्तियॉ उल्लेखनीय है – 1. सारनाथ की बुद्ध मूर्ति, 2. मथुरा की बुद्ध मूर्ति और 3. सुल्तानगंज की बुद्ध मूर्ति, जो इस समय बरमिंघम संग्रहालय में सुरक्षित है। गुप्त राजवंश के अधिकांश शासक वैष्णव धर्म के अनुयायी थे, अतः इस काल में भगवान विष्णु की अनेक मूर्तियॉ बनाई गयी। विष्णु के अतिरिक्त इस काल की बनी शैव मूर्तियॉ भी प्राप्त होती है।

गुप्तकाल में चित्रकला के क्षेत्र में भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस काल की चित्रकला के अवशेष अजन्ता तथा बाघ गुफाओं से प्राप्त होते है। अजन्ता गुफा की चित्रकारी को सर्वप्रथम 1919 में सर जेम्स अलेक्जेण्डर ने देखा। अजन्ता की गुफायें बौद्ध धर्म के महायान शाखा से संबंधित है। कुल 29 गुफाओं में वर्तमान में केवल 6 ही शेष है जिसमें गुफा संख्या 16 तथा 17 को गुप्तकालीन माना जाता है। अजन्ता में फ्रेस्को तथा टेम्पेरा दोनो ही विधियों से चित्र बनाये गये है। फ्रेस्कों विधि में गीले प्लास्टर पर चित्र बनाये जाते थे जबकि टेम्पेरा विधि में सूखे प्लास्टर पर चित्र बनाये जाते थे तथा रंग के साथ अण्डे की सफेदी एवं चूना मिलाया जाता था।

अजन्ता के गुफा चित्र बौद्ध धर्म से सम्बन्धित है। बुद्ध के जीवन की विविध घटनाओं और जातक कथाओं के दृश्यों का अंकन बहुतायत में किया गया है। अजन्ता के गुफा संख्या 16 में ’मरणासन्न राजकुमारी’ का चित्र सर्वाधिक सुन्दर, आकर्षक और प्रशंसनीय है। यह पति के विरह में मरती हुई राजकुमारी का चित्र है जिसके चारो ओर परिवारजन शोकाकुल अवस्था में खडे है। इतिहासकारों ने इसकी पहचान बुद्ध के सौतेले भाई नन्द की पत्नी सुन्दरी के रूप में किया है। इसी गुफा में बुद्ध के महाभिनिष्क्रमण का चित्रांकन है जिसमें वे अपनी पत्नी, पुत्र और परिचायिकाओं को छोडकर जाते हुए दिखाये गये है। इस चित्र में उनकी वैराग्य भावना दर्शनीय है। गुफा संख्या 17 के चित्र जिसे ‘चित्रशाला‘ कहा गया है, इसमें बुद्ध के जन्म, जीवन, महाभिनिष्क्रमण एवं महापरिनिर्वाण की घटनाओं से संबंधित चित्र उकेरे गये है। समस्त चित्रों में ‘माता और शिशु‘ नामक चित्र अत्यनत आकर्षक है जिसमें संभवतः बुद्ध की पत्नी अपने पुत्र को उन्हे समर्पित कर रही है। इस गुफा के एक अन्य चित्र में कोई सम्राट एक सुनहले हंस से बातें करता हुआ चित्रित किया गया है। निवेदिता के विचार में इस चित्र से बढकर विश्व में कोई दूसरा चित्र नही हो सकता है। इसी गुफा में आकाश में विचरण करते हुए गन्धर्वराज को अप्सराओं तथा परिचारकों के साथ चित्रित किया गया है। 17वी गुफा में जातक कथाओं से सम्बन्धित चित्र सबसे अधिक है।
अजन्ता की भॉति बाघ पहाडी की गुफाओं से प्राप्त चित्र भी सुन्दर और आकर्षक है। बाघ की गुफाएॅ ग्वालियर के समीप विन्ध्यपर्वत को काटकर बनाई गयी थी। 1818 ई0 में डेजरफील्ड ने इन गुफाओं को खोजा, जहॉ से 9 गुफाएॅ मिली है जिनमें से चौथी-पॉचवी गुफाओं के भित्ती चित्र सबसे अधिक सुरक्षित अवस्था में है। इन चित्रों में एक संगीतमय नृत्य के अभिनय का दृश्य अत्यन्त आकर्षक है जिसमें स्त्रियों और पुरूषों को अलंकृत वेश-भूषा में बाजों के साथ स्वछन्दतापूर्वक नृत्य करते हुए दिखाया गया है। वस्तुतः बाघ गुफा के चित्र आम जन-जीवन से सम्बन्धित है। इस प्रकार कला और स्थापत्य के क्षेत्र में गुप्त काल की उपलब्घियॉ वस्तुतः अतुलनीय और बेजोड है।

साहित्य, विज्ञान और तकनीकी विकास –

गुप्त राजवंश के शासकों के काल में साहित्य, तकनीक और विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। गुप्त साम्राज्य की स्थापना के साथ ही संस्कृत भाषा की उन्नति को बल मिला और यह भाषा राजभाषा के पद पर आसीन हुई। गुप्त शासक स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रेमी थे इसलिए उन्होने योग्य और प्रतिभावान विद्वानों और लेखकों को राज्याश्रय प्रदान किया। गुप्तयुगीन कवियों में तीन नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है – हरिषेण, वीरसेनशाब और वत्सभट्टि। हरिषेण सम्राट समुद्रगुप्त का सेनापति और विदेश सचिव था और उसकी सुप्रसिद्ध कृति ‘प्रयाग-प्रशस्ति‘ है जिसे विशुद्ध संस्कृत में लिखा गया है। वीरसेनशाब चन्द्रगुप्त द्वितीय का युद्ध सचिव था जिसकी रचना उदयगिरि गुहालेख है। वत्सभट्टि कुमारगुप्त प्रथम का दरबारी कवि था और वह संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था। ‘मन्दसोर-प्रशस्ति‘ उसकी प्रसिद्ध रचना है। हॉलाकि महाकवि कालीदास की समय-काल को लेकर अभी विवाद है लेकिन फिर भी अधिकांश इतिहासकार उन्हे चन्द्रगुप्त द्वितीय के समकालीन मानते है। कालीदास को ‘‘भारत का शेक्सपीयर‘‘ कहा जाता है। भारतीय इतिहास में सात ग्रन्थों की रचना का श्रेय कालीदास को दिया जाता है –
रघुवंश – यह 19 सर्गो का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य है जिसमें राम के पूर्वजों का वर्णन, उनका गुणगान तथा उनके वंशजों का चित्रण किया गया है।
कुमारसंभव- इसमें 17 सर्ग है और यह भी महाकाव्य की श्रेणी में ही शामिल है। इसमें प्रकृति-चित्रण तथा कार्तिकेय जन्म की कथा वर्णित है।
मेघदूत- यह एक प्रकार का खण्डकाव्य है जिसमें विरह की वेदना को उत्कृष्ठ तरीके से दर्शाया गया है। इसमें विरही यक्ष एवं उसकी प्रियतमा का वियोग वर्णन है।
ऋतुसंहार- इसमें छः ऋतुओं का मनोहारी वर्णन किया गया है।
मालविकाग्निमित्र- यह पॉच अंको का नाटक है जिसमें मालविका और राजकुमार अग्निमित्र की प्रणय कथा वर्णित है।
विक्रमोर्वंशीय- इसे भी नाटक की श्रेणी में रखा गया है जिसमें उर्वशी और पुरुरवा की प्रणय कथा वर्णित है।
अभिज्ञान शाकुन्तलम- यह संस्कृत साहित्य का सर्वश्रेष्ठ नाटक है जिसके सात अंकों में हस्तिनापुर के राजा दुष्यन्त तथा शकुन्तला के प्रणय, वियोग और पुनर्मिलन की कथा वर्णित है। इस नाटक को विश्व में अत्यधिक प्रसिद्धि मिली है और इसका अनुवाद कई भाषाओं में भी हो चुका है। जर्मन साहित्यकार गैटे ने इसकी काफी प्रशंसा की है और लिखा है कि – ‘‘यदि तुम यौवन बसन्त का पुष्प सौरभ तथा इसके अन्त के फलों को देखना चाहते हो, यदि वह सबकुछ देखना चाहते हो जिसके द्वारा आत्मा आकर्षित, मुग्ध और तृप्त होती है, यदि स्वर्ग और पृथ्वी को एक नाम के अन्तर्गत देखना चाहते हो तो मै तुम्हे शकुन्तला पढने को कहूॅगा……. ।‘‘

कालीदास के अतिरिक्त इस काल की अन्य साहित्यिक विभूतियों में भारवि, शूद्रक और विशाखदत्त का नाम महत्वपूर्ण है। भारवि ने 18 सर्गो का ‘किरातार्जुगीन‘ महाकाव्य लिखा है। शूद्रक ने ‘मृच्छकटिक‘ नाटक लिखा जिसमें कुल 10 अंक है। इसमें चारूदत्त नामक एक निर्धन ब्राह्मण तथा वसन्तसेना नामक वेश्या की प्रणय कथा वर्णित हैविशाखदत्त इस काल के अतिप्रसिद्ध नाटककार हुए जिन्होने मुद्राराक्षस एवं देवीचन्द्रगुप्तम नामक नाटक ग्रन्थों की रचना की। ये दोनों ग्रन्थे राजनीतिक घटनाओं से परिपूर्ण है। कुछ इतिहासकार वासवदत्ता के रचयिता सुबन्धु को भी गुप्तकालीन मानते है। इस काल के धार्मिक ग्रन्थों में याज्ञवल्क्य, नारद, कात्यायन, वृहस्पति आदि स्मृतिग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है। गुप्तकाल में ही पुराणों के वर्तमान रुप का संकलन हुआ तथा रामायण और महाभारत को अन्तिम रुप दिया गयाबंगाल के विद्वान चन्द्रगोमिन् ने ‘चन्द्रव्याकरण‘ नामक संस्कृत व्याकरण ग्रन्थ की रचना की तथा अमरसिंह ने ‘अमरकोश‘ लिखा। विष्णुशर्मा ने ‘पंचतंत्र‘ नामक प्रसिद्ध कथा-संग्रह लिखा जिसमें लोकप्रिय और मनोहर कहानियों का संग्रह है। कामान्दक का नीतिसार तथा वात्स्यायन का ‘कामसूत्र‘ इसी काल की रचनाएॅ है।

गुप्तकाल में विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास हुआ। इस काल के प्रसिद्ध नक्षत्र ज्ञाता और गणितज्ञ आर्यभट्ट ने ‘आर्यभट्टीयम्‘ नामक पुस्तक के माध्यम से गणित के विविध नियमों का प्रतिपादन किया तथा सर्वप्रथम यह खोज की कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते हुए सूर्य के चारो ओर चक्कर लगाती है। इसी के फलास्वरुप सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण होते है। आर्यभट्ट ने ही दशमलव प्रणाली का विकास किया। ब्रह्मगुप्त इस काल के एक और महान गणितज्ञ थे। प्रख्यात ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर इस युग के एक और महान विभूति थे। उनकी सर्वप्रमुख रचना ‘वृहज्जातक‘ है जिसमें विभिन्न ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिती पर विचार किया गया है। वराहमिहिर की अन्य रचनाओं में पन्चसिद्धान्तिका, वृहद्संहिता, लघुजातक आदि प्रमुख है। पंचसिद्धान्तिका में उस समय भारत में प्रचलित ज्योतिष के सिद्धान्तों का विवरण मिलता है। वराहमिहिर की वृहद्संहिता खगोलशास्त्र, वनस्पति विज्ञान और प्राकृतिक इतिहास का विश्वकोश है। धनवन्तरि चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजदरबार के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य थे। चिकित्सा के क्षेत्र में वाग्भट्ट का आयुर्वेद पर लिखा ‘भाष्यंग हृदय‘ नामक रचना उल्लेखनीय है। चन्द्रगुप्त द्वितीय का मेहरौली लौह स्तम्भलेख गुप्तकालीन धातुविज्ञान के समुन्नत होने का ज्वलन्त उदाहरण है जिसमें 1500 वर्ष बीतने के वावजूद किसी प्रकार की जंग नही लगने पाई है।

गुप्त काल : भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल –

उपरोक्त विवरणों से स्पष्ट है कि गुप्त शासकों का शासन-काल प्राचीन भारतीय इतिहास के उस युग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें भारत ने चहुंमुखी प्रगति की है और विभिन्न इतिहासकारों ने इस युग को ‘स्वर्ण-युग‘ की संज्ञा से विभूषित किया है। निश्चय ही यह काल अपने प्रतापी राजाओं और अपनी सर्वोत्कृष्ट सांस्कृतिक विकास के कारण भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण के समान प्रकाशित है। भारतीय संस्कृति के विकास की धारा गुप्तकाल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुॅच गयी। संक्षेप में, निम्न कारणों से हम इस काल को ‘‘भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल‘ कह सकते है –
राजनीतिक एकता – गुप्त युग में आर्यावर्त ने राजनीतिक एकता के साक्षात्कार किये। मौर्य-साम्राज्य के पतन के पश्चात् पहली बार इतने व्यापक रूप से राजनीतिक एकता स्थापित की गयी। अपने उत्कर्ष काल में गुप्त-साम्राज्य उत्तर में हिमाल्य से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल से पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था। यह भाग गुप्त राजाओं के प्रत्यक्ष शासन में था जबकि सुदूर दक्षिण तक उनका यश फैला हुआ था तथा दक्षिणापथ के शासक उनकी राजनीतिक प्रभुसत्ता स्वीकार करते थे। गुप्त सम्राट सम्पूर्ण देश में एकछत्र शासन स्थापित करना चाहते थे। अपने पराक्रम एवं वीरता के बल पर उन्होंने प्रायः समस्त भारतवर्ष को एकता के सूत्र में आबद्ध कर दिया था। गुप्त युग में देश की बहुत कुछ भौतिक तथा नैतिक उन्नति अन्ततोगत्वा उसकी सुदृढ़ राजनीतिक परिस्थितियों का ही फल थी।
पराक्रमी और यशस्वी सम्राटों का उदय- गुप्त युग में अनेक महान् एवं यशस्वी सम्राटों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी विजयों द्वारा एकछत्र शासन की स्थापना की। चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त आदि इस काल के योग्य तथा प्रतापी सम्राट थे। समुद्रगुप्त का आदर्श सम्पूर्ण पृथ्वी को बाँधना (धरिणबन्ध) था। उसने न केवल आर्यावर्त के अनेक राजाओं का उन्मूलन किया, अपितु सुदूर दक्षिण तक अपनी विजय वैजन्ती फहराई। शक-कुषाण आदि शक्तियों ने भी उसे अपना सम्राट स्वीकार किया। उसका उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय उसी के समान वीर योद्धा था। उसका भी आदर्श समस्त पृथ्वी को जीतना था। उसने गुजरात और काठियावाड के शकों का उनमूलन किया तथा उसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्रतट भी सुवासित हो रहे थे। स्कन्दगुप्त अपने वंश का अन्तिम प्रतापी राजा था। उसने हूण जैसी बर्बर एवं भयानक जाति को परास्त कर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। हूणो के साथ उसने इतना घनघोर युद्ध किया कि उसकी वीरता के प्रताप से पृथ्वी कम्पित हो उठी। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्तकाल महान सम्राटों का काल रहा। इतने वीर एवं यशस्वी शासक प्राचीन भारतीय इतिहास के किसी अन्य युग मे दिखाई नहीं देते।
शान्ति और सुव्यवस्था का काल – प्रतिभावान गुप्त नरेशो ने जिस शासन-व्यवस्था का निर्माण किया वह न केवल प्राचीन अपितु आधुनिक युग के लिये भी आदर्श कही जा सकती है। यह शासन-व्यवस्था प्रत्येक दृष्टि से उदार एवं लोकोपकारी थी। सम्पूर्ण गुप्त साम्राज्य में भौतिक एवं नैतिक समृद्धि का वातावरण व्याप्त था, शान्ति एवं व्यवस्था का राज था जहाँ आवागमन पूर्णतया सुरक्षित था। फाहियान जैसे चीनी यात्री ने भी गुप्त-शासन काल में व्याप्त शान्ति और सुव्यवस्था की उच्च शब्दो में प्रशंसा की है। गुप्त नरेशों ने प्राचीन भारतीय दण्ड व्यवस्था के कड़े नियमो को उदार तथा मृदुल बना दिया और मृत्युदण्ड को पूर्णतया समाप्त कर दिया। स्कन्दगुप्तकालीन जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि उस समय कोई भी व्यक्ति दुःखी, दरिद्र व्यसनी, लोभी अथवा पीड़ित नहीं था। लगता है कि इसी युग की शान्ति एवं सुव्यवस्था का चित्रण करते हुए कालिदास लिखते हैं कि ’उपवनों में सोती हुई मंदिरामत्त सुन्दरियों के वस्त्रों को वायु तक स्पर्श नहीं कर सकता था तो भला उनके आभूषणो ’को चुराने का साहस किस में था?’ सम्राट निरन्तर अपनी प्रजा के जन-जीवन को सुखी एवं सुविधापूर्ण बनाने के लिये प्रयासरत रहते थे। ऐसी उत्कृष्ट शासन-व्यवस्था प्राचीन इतिहास के अन्य किसी युग में नहीं दिखाई देती।
आर्थिक समृद्धि का काल- आर्थिक दृष्टि से भी गुप्त सम्राटों का शासनकाल समृद्धि का. काल रहा। लोगों की जीविका का प्रमुख स्रोत कृषि-कर्म ही था अतः इस युग के सम्राटों ने कृषि की उन्नति पर ध्यान दिया। प्रायः सभी प्रकार के अन्नों एवं फलों का उत्पादन होता था और सिंचाई की उत्तम व्यवस्था की गयी थी। कालिदास के विवरण से पता चलता है कि इस समय धान एवं ईख की खेती प्रचुरता होती थी। कृषि के साथ ही साथ व्यापार और व्यवसाय भी उन्नति पर थे। “राज्य में अनेक व्यापारिक श्रेणियाँ तथा निगम होते थे। पाटलिपुत्र, उज्जयिनी, दशपुर, भड़ौच आदि इस काल के प्रसिद्ध व्यापारिक नगर तथा ताम्रलिप्ति प्रमुख बन्दरगाह था। स्थल तथा जल दोनों ही मार्गो से व्यापार होता था। इस समय भारत का व्यापार अरब, फारस, मिस्र, दक्षिणी-पूर्वी एशिया से होता था। वाह्य देशों में भारतीय वस्तुओं की बडी मॉग थी। जलीय व्यापार के लिये इस समय बडे-बडे जहाजी बेड़ों का निर्माण किया गया था। जावा के बोरोबुदुर स्तूप के ऊपर जहाज के कई चित्र अंकित मिलते है। सुप्रसिद्ध कलाविद् आनन्द कुमारस्वामी के शब्दों में- गुप्तकाल ही भारतीय पोत निर्माण कला का महानतम युग था जबकि जावा, सुमात्रा, पेगु, कम्बोडिया आदि में भारतीयों ने उपनिवेश स्थापित किये तथा चीन, अरब और फारस के साथ उनका व्यापारिक सम्बन्ध था। स्पष्ट रुप से हम कह सकते है कि गुप्तकाल भारत की आर्थिक सम्पन्नता का काल रहा।
धार्मिक सहिष्णुता का काल- गुप्त सम्राटों का शासन-काल वैष्णव धर्म की उन्नति के लिये प्रख्यात है। गुप्त सम्राट ’परमभागवत’ की उपाधि ग्रहण करते थे परन्तु अन्य धर्मों के प्रति वे पर्णरूपेण उदार एवं सहिष्णु बने रहे। उन्होंने न तो अपने धर्म को बलात् किसी के ऊपर लादने का प्रयास किया और न ही अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति किसी प्रकार का अत्याचार अथवा दुर्व्यवहार किया। वास्तव में यदि देखा जाय तो यह काल धार्मिक सहिष्णुता का काल रहा जिसमें ब्राह्मण, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न मतानुयायी परस्पर प्रेम एवं सौहार्दपूर्वक निवास करते थे। गुप्त सम्राटों ने बिना किसी भेद-भाव के उच्च प्रशासनिक पदों पर विभिन्न धर्मानुयायियों की नियुक्तियाँ भी की थी। चन्द्रगुप्त द्वितीय का परराष्ट्र मन्त्री वीरसेन शैव था जबकि आम्रकाईव नामक बौद्ध व्यक्ति उसकी सेना का एक उच्च पदाधिकारी था। साँची लेख से पता चलता है कि उसने काकनादबोट नामक महाविहार को एक ग्राम तथा 25 दीनारें दान में दिया था। कुमारगुप्त प्रथम के समय में बौद्ध बुद्धमित्र ने बुद्ध की एक मूर्ति की स्थापना करवायी थी तथा स्कन्दगुप्त के समय में मद्र नामक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थङ्करों की पाषाण प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था। मथुरा में गुप्तकाल की अनेक जैन प्रतिमायें प्राप्त होती हैं। चीनी यात्री फाहियान के विवरण से गुप्तकाल में बौद्ध धर्म की उन्नत दशा का बोध होता है। वह अपने समकालीन सम्राट की धार्मिक सहिष्णुता की प्रशंसा करता है। इस प्रकार गुप्तयुग में सभी धर्मों को समान रूप से विकास का अवसर मिला तथा किसी भी प्रकार का साम्प्रदायिक भेद-भाव नहीं था। सभी शान्ति एवं सुख-पूर्वक निवास करते थे। हिन्दू मन्दिर के पास ही बौद्ध मठ थे तथा बुद्ध प्रतिमा के समीप जैनों की मूर्तियाँ थीं। गुप्त सम्राटों के विशाल हृदय तथा उदार चित्त में वैष्णव, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के लिये समान श्रद्धा विद्यमान थी। उन्होने ब्राह्मणेतर सम्प्रदायों के विकास के लिये राजकोष से आर्थिक सहायता भी प्रदान की। धार्मिक सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की प्रधान विशेषता रही है तथा इसका सही प्रतिबिम्ब हमें गुप्त काल में ही दिखाई देता है।
साहित्य, कला और विज्ञान की प्रगति- गुप्तकालीन शान्ति एवं सुव्यवस्था के वातावरण में साहित्य, विज्ञान और कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। संस्कृत राजभाषा के पद पर आसीन हुई तथा संस्कृत साहित्य का अभूतपूर्व विकास हुआ। गुप्त सम्राट स्वयं संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे जिन्होंने अपनी राजसभा में उच्चकोटि के विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। महान् कवि और नाटककार कालिदास तथा संस्कृत के प्रसिद्ध कोशकार अमरसिंह इसी युग की विभूति है जिसकी रचनायें संस्कृत साहित्य में सर्वथा बेजोड़ है। भारतीय षड्दर्शनों में से अधिकांश का पूर्ण विकास इसी युग में हुआ तथा प्रसिद्ध दार्शनिक वसुबन्धु इसी काल में पैदा हुए थे। गुप्तकाल ने ही आर्यभट्ट और वाराहमिहिर जैसे प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषाचार्य उत्पन्न किये जिसकी रचनाएॅ आज भी प्राचीन विश्व के विज्ञान को भारत की भारत की महानतम देन स्वीकार की जाती है। सर्वप्रथम आर्यभट्ट ने ही यह खोज की थी कि पृथ्वी अपनी धुरी पर परिक्रमा करती है तथा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है।

साहित्य तथा विज्ञान के समान कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में भी इस काल में उल्लेखनीय प्रगति हुई और कला के विविध पक्षों- स्थापत्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि का सम्यक् विकास हुआ। इस युग की कला में आध्यात्मिकता, शालीनता और भारतीयता दिखाई देती है। भूमरा तथा नचना के शिव-पार्वती मन्दिर, मथुरा की बुद्ध एवं विष्णु मूर्तियाँ तथा अजन्ता की चित्रकारियाँ कला के इतिहास में अपनी समकक्षता नहीं रखती। अजन्ता को गुफाओं के कुछ चित्र तो इतने सजीव, करुणोत्पादक तथा हृदय को द्रवीभूत करने वाले हैं कि न केवल भारतीय अपितु विदेशी कलामर्मज्ञ भी उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते है। इस काल की मूर्तिकला और चित्रकला ने वह मानदण्ड प्रस्तुत किया जो आने वाले युगों के लिये समान रूप से आदर्श प्रस्तुत करते रहे और वे अब भी भारतीय कला की सर्वोत्कृष्ट रचना माने जाते है।

भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार – गुप्त-काल भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिये भी प्रसिद्ध है। यद्यपि गुप्त युग के पहले से ही उत्साही भारतीयो ने मध्य तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों मे अपने उपनिवेश स्थापित कर लिये थे तथापि इन उपनिवेशो में हिन्दू-संस्कृति का प्रचार-प्रसार विशेषतया गुप्त युग में ही हुआ। कम्बोज, मलाया, चम्पा, जावा, सुमात्रा, बाली, बोर्नियो, बर्मा आदि इस समय के प्रमुख हिन्दू राज्य थे। मध्य एशिया में खोतान तथा कूचा हिन्दू संस्कृति के प्रमुख केन्द्र थे। कालिदास को इन द्वीपों का ज्ञान था। इन द्वीपो के शासक अपने को भारतीयो के वंशज मानते थे। प्रयाग प्रशस्ति में ’सर्वद्वीपवासिभिः‘ का जो उल्लेख हुआ है उसका तात्पर्य दक्षिणी-पूर्वी एशिया के द्वीपों से ही है। हम कह सकते हैं कि इन द्वीपों के शासको ने समद्रगुप्त को अपना सावभौम सम्राट मान लिया होगा। गुप्तकाल में अनेक भारतीय धर्म-प्रचारक चीन गये और फाहियान नामक प्रसिद्ध चीनी यात्री भारत की यात्रा पर आया। इसके अतिरिक्त कोरिया, जापान तथा पूर्व में फिलीपीन द्वीप समूह तक भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ जिसके फलस्वरूप ’बृहत्तर भारत’ का जन्म हुआ जो गुप्तकाल को गौरवान्वित करता है।

मूल्यांकन –

इस विवेचना से स्पष्ट है कि सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में गुप्त राजवंशों के शासको के काल में अभूतपूर्व प्रगति हुई। अतः हम कह सकते है कि इस काल का भारतीय इतिहास में अद्वितीय स्थान है तथा इसकी समकक्षता कोई अन्य काल नही कर सकता है। गुप्तों के पूर्व यद्यपि मौर्य शासको का साम्राज्य था तथापि उस काल में भी संस्कृति की वह चहमुखी प्रगति हमें देखने का नही मिलती है। आर्थिक, धार्मिक, तकनीकी, साहित्यिक व कला-कौशल के क्षेत्रों में इस समय देश उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया तथा उन परम्पराओं का निर्माण हुआ जो आगामी शताब्दियों के लिये आदर्शस्वरूप बनी रही। अतः गुप्तकाल को प्राचीन इतिहास में ’स्वर्ण-युग’ की संज्ञा से विभूषित करना सर्वथा उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत होता है।

इस प्रसंग में उल्लेखनीय है कि आधुनिक युग के कुछ सामाजिक-आर्थिक इतिहासकार, जिनमें आर0 एस0 शर्मा और रोमिला थापर का नाम उल्लेखनीय हैं, गुप्तकाल को स्वर्ण-युग कहना उचित नहीं मानते। इन विद्वानों के अनुसार स्वर्णकाल की अवधारणा वस्तुतः एक ’यूटोपिया’ (Utopia) अर्थात् कोरा आदर्श है जिसका अस्तित्व सुदूर अतीत में ही सम्भव है। गुप्तकाल में उच्चवर्ग तथा निम्न वर्ग के जीवन स्तर में भारी विषमता थी। इन इतिहासकारों के अनुसार ’स्वर्णयुग’ के लिये सम्पूर्ण समाज में बेहतर सुविधायें अपेक्षित है तथा कृषक और स्वामी दोनों को आर्थिक स्वतन्त्रता एवं सम्पन्नता प्राप्त होनी चाहिये। इस दृष्टि से हम भारत अथवा विश्व इतिहास के किसी भी काल को स्वर्ण-काल नहीं कह सकते। किन्तु हमें यह कहने में कोई संकोच नही है कि उपर्युक्त विद्वान् स्वर्णकाल को उसके शाब्दिक अर्थ में ग्रहण करते हैं। जब हम गुप्त काल को प्राचीन इतिहास का स्वर्णयुग कहते हैं तो हमारा अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि वहाँ चारों ओर सोना बरसता था अथवा सब कुछ दूध का धोया हुआ था अपितु हमारा अभिप्राय मात्र यह है कि प्राचीन भारतीय इतिहास में हिन्दू संस्कृति के विविध पक्षों का जो विकास हुआ वह गुप्त काल में अन्य कालों की तुलना में कहीं अधिक था। यहाँ तक कि कला, साहित्य, दर्शन, विज्ञान आदि कुछ क्षेत्रों में तो यह विकास आगागी पीढ़ियों के लिये मानदण्ड बन गया। अतः इस दृष्टि से यदि गुप्त काल को स्वर्ण युग अर्थात् चरमोत्कर्ष का काल माना जाय तो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। जहाँ तक आर्थिक पक्ष का प्रश्न है, यहॉ भी यह काल पतन का काल नहीं कहा जा सकता। पांचवीं शती के मध्य से हमें गुप्तों के स्वर्ण सिक्कों में मिलावट मिलने लगती है। इसके पूर्व के सिक्के विशुद्ध स्वर्ण के हैं। गुप्त राजाओं के पास भारी मात्रा में सोना था जिसका उपयोग उन्होंने साम्राज्य को समुन्नत बनाने के लिये किया। आर्थिक जीवन का प्रत्येक पक्ष इस समय उतना ही विकसित हुआ जितना कि सभ्यता का अन्य पक्ष। गुप्त साम्राज्य का आर्थिक पतन वस्तुतः स्कन्दगुप्त के शासन से प्रारम्भ हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से चरमोत्कर्ष का काल रहा, और यही प्राचीन इतिहास का स्वर्ण युग है।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

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