window.location = "http://www.yoururl.com"; Later Gupta Emperor and Downfall of Gupta Empire | परवर्ती गुप्त शासक और गुप्त साम्राज्य का पतन

Later Gupta Emperor and Downfall of Gupta Empire | परवर्ती गुप्त शासक और गुप्त साम्राज्य का पतन


Introduction. (विषय-प्रवेश) :

दो शताब्दियों के निरन्तर उत्थान के पश्चात् शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य इस वंश के अन्तिम महान् शासक स्कन्दगुप्त की 467 ईस्वी में मृत्यु के पश्चात् पतन की दिशा में तेजी से उन्मुख हुआ। यद्यपि स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किसी न किसी रूप में 550 ईस्वी तक मगध पर अधिकार रख सकने में सफलता प्राप्त की, परन्तु इसके पश्चात् भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण युग का दावेदार गुप्त साम्राज्य सदा के लिये तिरोहित हो गया। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों का क्रम निर्धारित करना एक चुनौती है फिर भी इनके नाम इस प्रकार वर्णित किये जा सकते है –

पुरूगुप्त (467-476 ई0)यह स्कन्दगुप्त का सौतेला भाई और कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र था। चूॅकि स्कन्दगुप्त को कोई सन्तान नही थी अतः उसकी मृत्यु के बाद गुप्त साम्राज्य की बागडोर पुरूगुप्त के हाथों में आई। भितरी मुद्रालेख में उसकी माता का नाम महादेवी अनन्तदेवी तथा पत्नी का नाम चन्द्रदेवी मिलता है। यह भी उल्लेखनीय है कि वृद्धावस्था में राजा बनने के कारण उसका शासनकाल अत्यन्त अल्पकालीन रहा। इसी के काल से गुप्त साम्राज्य की अवनति प्रारम्भ हो गयी। विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि पुरूगुप्त बौद्ध मतावलम्बी था।

कुमारगुप्त द्वितीय – पुरूगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त द्वितीय हुआ। यह निश्चित रूप से कह सकना मुश्किल है कि यह पुरूगुप्त का पुत्र था या स्कन्दगुप्त का। सारनाथ से 473 ई0 का एक लेख मिलता है जो बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है जिसमें ‘‘भूमि रक्षति कुमारगुप्ते….‘‘ उत्कीर्ण मिलता है। उल्लेखनीय है कि यहॉ कुमारगुप्त को ‘महाराज‘ भी नही कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह स्वतन्त्र शासक न होकर पुरूगुप्त का ‘गोप्ता‘ था जो सारनाथ में उसके प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था।

बुधगुप्त – कुमारगुप्त द्वितीय के पश्चात बुधगुप्त शासक बना। यद्यपि प्रारम्भ में इतिहासकारों का मानना था कि वह कुमारगुप्त का पुत्र था किन्तु नालन्दा से मिली उसकी एक मुहर से अब यह सिद्ध हो गया है कि वह पुरूगुप्त का पुत्र था। उसकी माता का नाम चन्द्रदेवी था। 477 ई0 का उसका सारनाथ से एक लेख मिला है जिसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि उसने 477 ई0 में अपना शासन प्रारम्भ किया। बुद्धगुप्तकालीन शिलालेख मध्यप्रदेश के एरण से लेकर दामोदरपुर तथा पहाडपुर (बंगाल) से भी प्राप्त हुए है जिनमें गुप्त संवत् की तिथियॉ दी गई है।

ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धगुप्त एक शक्तिशाली शासक था और उसके द्वारा नियुक्त प्रान्तीय शासक बंगाल से लेकर मालवा तक शासन कर रहे थे। स्वर्ण मुद्राओं पर उसकी उपाधि ‘श्रीविक्रम‘ मिलती है। इसकी रजत मुद्राओं पर ‘राजा बुद्धगुप्त पृथ्वी को जीतने के बाद स्वर्ग की विजय करता है‘ मुद्रालेख मिलता है। बुद्धगुप्त के शासनकाल में अधीनस्थ राज्यों के साम्राज्य से अलग होने के कारण गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। काठियावाड प्रायद्वीप में बल्लभी के मैत्रक तथा बुन्देलखण्ड के परिव्राजक शासको ने सर्वोच्च सत्ता के रूप में गुप्त शासक का अस्पष्ट उल्लेख किया है जिससे उनके द्वारा गुप्त अधीनता का अस्वीकार करने का संकेत मिलता है। बुद्धगुप्त के सिक्कों से भी गुप्त साम्राज्य के पतन की प्रक्रिया का संकेत मिलता है। उसकी स्वर्ण मुद्राएॅ अत्यन्त कम है जिससे यह अनुमान लगता है कि उसके समय में गुप्त साम्राज्य काफी दुर्बल हो गया था।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि वह बौद्ध मतावलम्बी था और उसने नालन्दा महाविहार को धन दान में दिए थे।

नरसिंहगुप्त ‘बालादित्य‘- बुद्धगुप्त की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई नरसिंहगुप्त शासक बना। नरसिंहगुप्त ने अपने नाम के साथ ‘बालादित्य‘ की उपाधि धारण की थी। उसके सिक्कों पर एक ओर उसका चित्र है और ‘नर‘ लिखा हुआ है तो दूसरी तरफ पुरोभाग पर धनुष-बाण लिए राजा, गरूड ध्वज की आकृति तथा ‘जयति नरसिंहगुप्तः‘ मुद्रालेख अंकित है। उसकी सबसे बडी सफलता हूणों को पराजित करना था। उसके शासनकाल में हूण नरेश मिहिरकुल ने आक्रमण किया लेकिन युद्ध में मिहिरकुल को पराजित कर उसने उसे बन्दी बना लिया और उसे अपनी राजधानी लाया। पुनः राजमाता के कहने पर उसने उसे मुक्त कर दिया। यद्यपि राजनीतिक दृष्टिकोण से उसका यह कार्य अत्यन्त मूर्खतापूर्ण कहा जाएगा। व्हे्नसांग ने जिस ‘बालादित्य‘ का उल्लेख किया है संभवतः वह नरसिंहगुप्त बालादित्य ही है।

नरसिंहगुप्त भी बौद्ध मतावलम्बी था। उसने बौद्ध विद्वान वसुवन्धु की शिष्यता ग्रहण की थी और उसने अपने राज्य को स्तूपों और बौद्ध विहारों से सुसज्जित करवाया था। यद्यपि नालन्दा मुद्रालेख में नरसिंहगुप्त को ‘परमभागवत‘ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि बौद्ध धर्म ग्रहण कर लेने के बाद भी अपने पूर्वजों की भॉंति उसने ‘परमभागवत‘ की उपाधि धारण की थी।

भानुगुप्त – भानुगुप्त का एक प्रस्तर-स्तम्भ लेख एरण से प्राप्त हुआ है जो 510 ई0 का है जिसमें उसे बीर और महान राजा कहा गया है। इसी लेख में उसके किसी गोपराज नामक सेनापति का उल्लेख मिलता है जो हूणों के विरूद्ध लडता हुआ मारा गया तथा उसकी पत्नी अग्नि में सती हो गयी। यह सती प्रथा के उल्लेख का सबसे प्राचीनतम प्रमाण है। हेमचन्द्र रायचौधरी का मानना है कि बुद्धगुप्त के बाद मालवा के क्षेत्र में जो हूण सत्ता स्थापित हुई उसी का अन्त करने के लिए भानुगुप्त ने युद्ध किया और हूणों का आधिपत्य समाप्त किया किन्तु इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी कहना कठिन है। सुधाकर चटोपाध्याय का मानना है कि भानुगुप्त स्वतन्त्र शासक न होकर गुप्तों के अधीन कोई स्थानीय शासक था क्योकि उसे केवल ‘राजा‘ कहा गया है। संभव है कि उसने भी हूणों के साथ युद्ध में अपने प्राण खो दिए हो।

कुमारगुप्त तृतीय – नरसिंहगुप्त के बाद उसका पुत्र कुमारगुप्त तृतीय मगध साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा। भितरी और नालन्दा से प्राप्त मुद्रालेखों में उसकी माता का नाम महादेवी मित्रदेवी मिलता है। उसने सोने के सिक्कों को प्रचलित किया और ‘क्रमादित्य‘ की उपाधि धारण की। उसकी स्वर्ण मुद्राओं में मिलावट की अधिक मात्रा से लगता है कि इसके शासनकाल में गुप्त साम्राज्य तीव्र गति से पतन की ओर अग्रसर हुआ।
विष्णुगुप्त – कुमारगुप्त तृतीय के बाद उसका पुत्र विष्णुगुप्त अंतिम गुप्त शासक सिद्ध हुआ जिसका उल्लेख नालन्दा से प्राप्त एक लेख से मिलता है। मुद्राओं पर उसकी उपाधि ‘चन्द्रादित्य‘ मिलती है। विष्णुगुप्त अयोग्य और दुर्बल शासक था अतः तोरमाण के नेतृत्व में हूणों ने ग्वालियर तथा मालवा के एक बडे भू-भाग पर अधिकार कर लिया। विष्णुगुप्त ने संभवतः 550 ई0 तक शासन किया और इसके पश्चात गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

गुप्त साम्राज्य के पतन के कारण-

चौथी तथा पाँचवीं शती ई० में गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के सतत परिश्रम तथा कार्यकुशलता द्वारा गुप्त साम्राज्य उन्नति की चरम सीमा पर पहुँच गया। स्कन्दगुप्त इस गुप्त साम्राज्य के गौरव काल का वस्तुतः अन्तिम सम्राट था। परन्तु उनके उत्तराधिकारी इतने दुर्बल निकले कि वे इस विशाल साम्राज्य को बचाने में असफल रहे। अयोग्य उत्तराधिकारियों के अतिरिक्त पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से भारत की राजनीतिक स्थिति तेजी से परिवर्तित हो रही थी जिसका प्रभाव भी साम्राज्य के अस्तित्व पर पड़ा। सचमुच उस समय अनेक स्थानीय राजाओं का उदय हुआ जिनके चलते गुप्त साम्राज्य का पतन प्रारम्भ हो गया। यह विचारणीय है कि विशाल गुप्त साम्राज्य का पतन कोई आकस्मिक घटना नहीं थी और गुप्त साम्राज्य का पतन भी क्रमिक था। इसकी पृष्ठभूमि में कमजोर उत्तराधिकारी, राजदरबार में फूट, प्रान्तपतियों की स्वतंत्रता, नये राजवंशों का उदय, आर्थिक कमजोरियाँ एवं विदेशी आक्रमण मुख्य थे।

गुप्त साम्राज्य के पतन को दो श्रेणीयों में वर्णित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वे कारण गिनाये जा सकते हैं जो किसी भी राज्य, वंश या साम्राज्य के पतन में समान रूप से विद्यमान रहते थे। स्वाभाविक कारणों में सम्राटों की अयोग्यता, सामन्त तथा प्रान्तीय शासकों की स्वेच्छाचारिता, आन्तरिक कलह, विद्रोह सुदृढ़ सीमान्त नीति का अभाव आदि प्रमुख हैं। दूसरी श्रेणी में वे कारण रखे जा सकते हैं जो केवल गुप्तों से ही सम्बन्धित थे। इन कारणों में हूणों का आक्रमण, बौद्ध नीति का अनुसरण तथा कूटनीति का परित्याग, उत्तराधिकार सम्बन्धी युद्ध आदि का नाम लिया जा सकता है। गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों का वर्णन तथा विवेचन निम्नलिखित है

योग्य सम्राटों का अभाव – गुप्तों के उत्कर्ष काल के सम्राट शूरवीर तथा प्रतापी थे। सम्राट समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का लोहा समस्त भारत के शासक मानते थे। कुमारगुप्त तथा स्कन्दगुप्त ने साम्राज्य को स्थायित्व दिया। इन सम्राटों की मुद्राओं पर अंकित चित्र आज भी उनकी योग्यता का जीता जागता प्रमाण हैं। इस प्रतापी सम्राट परम्परा में, स्कन्दगुप्त के पश्चात् के सम्राटों में न तो वीरता थी और न ही योग्यता। ह्वेनसांग के अनुसार बालादित्य द्वारा कहे गये ये शब्द कि “मैंने सुना है कि चोर आ रहे हैं और मैं उन (सेनाओं) से युद्ध नहीं कर सकता, यदि मेरे मन्त्री मुझे सलाह दें तो मैं कीचड़ में छिप जाऊँ’ इस बात का प्रमाण यह है कि अन्तिम गुप्त नरेशों ने कायरता का भी परिचय दिया। बालादित्य के समीकरण के विवाद में न पड़कर हम इन शब्दों का यह तो अर्थ निकाल ही सकते हैं कि स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी शासकों में सैनिक बल तथा साहस नहीं था। इस अयोग्यता का परिणाम यह हुआ की केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता एवं शक्तिक्षीणता शत्रुओं पर अभिव्यक्त हो गई और उन्होंने इसका लाभ उठाया। इस दुर्बलता का एक अन्य परिणाम यह भी हआ कि राजकीय पदाधिकारी अपनी स्वार्थपूर्ति करने में लगे रहे तथा प्रजाहित के प्रति उदासीन हो गए। फलतः प्रजा में भी असन्तोष फैल गया जो गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बना।

सामन्त तथा प्रान्तीय शासकों की स्वेच्छाचारिता- गुप्त शासन प्रणाली का संचालन राजनीति विज्ञान के अनुसार किया जाता था। सारा साम्राज्य भुक्ति (प्रान्तों) तथा विषयों (प्रदेशों) में विभाजित था। प्रान्तों तथा प्रदेशों में सम्राट के प्रतिनिधियों को विस्तृत शासकीय अधिकारी प्राप्त थे। सामन्तों को सेना रखने का अधिकार था तथा वे अपने अधिकार क्षेत्र की जनता से कर भी वसूल कर सकते थे। जब तक केन्द्र में सम्राट शक्तिशाली तथा जागरूक रहा, तब तक ये प्रतिनिधि कठोर नियन्त्रण में कार्य करते रहे, परन्त स्कन्दगुप्त के पश्चात् नरेशों की दुर्बलता से भिज्ञ होने पर ये प्रतिनिधि स्वेच्छाचारी होने लगे। मध्यप्रदेश के परिव्राजक तथा उच्चकल्प के राजाओं के लेखों से पता चलता है कि गुप्त सामन्त तथा प्रतिनिधि गुप्त सत्ता का परित्याग करके ’महाराजा’ के विरुद आचरण करने लगे। गुनधर के ताम्रपत्र में वैन्यगुप्त के सामन्त विजय-सेन को ’महाराज महासामन्त विजयसेन’ कहा गया है। पश्चिम में वल्लभी, मालवा, उत्तर में थानेश्वर, कन्नौज तथा पूर्वी भारत में गौड सामन्तों ने पूर्ण सत्ता धारण कर ली। इन सामन्तों ने अपने विस्तार तथा महत्व में अभिवृद्धि करने के लिए गुप्त साम्राज्य पर गहरा आघात किया।

आन्तरिक कलह तथा संघर्ष – इतिहासकारों का मत है कि गुप्तवंश के पतन का कारण उनमें उत्तराधिकार सम्बन्धी नियमों की अनिश्चितता भी थी। कुमारगुप्त के उपरान्त स्कन्दगुप्त तथा पुरुगुप्त के उत्तराधिकार सम्बन्धी विवाद की वास्तविकता चाहे जो भी हो परन्तु इतना तो निश्चित है कि स्कन्दगुप्त के बाद की वंशावली में अनेक अन्तर्विरोध हैं। अतः गुप्तवंशावली की अनिश्चितता तथा अल्पकालीन शासन अवधि आदि यह प्रमाणित करते हैं कि इस समय गुप्तवंश में आन्तरिक कलह थी तथा उसमें पारस्परिक संघर्ष हुए होंगे। इस कारण गुप्त साम्राज्य की पतन-प्रक्रिया तीव्र हो गयी होगी।

सदृढ़ नीति का परित्याग- राजनैतिक प्रभाव को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए शासक का नीतिनिपुण होना परमावश्यक है। उत्कर्ष और प्रारंभिक काल के गुप्त सम्राटों ने इस ओर समुचित ध्यान दिया। चन्द्रगुप्त प्रथम के वैवाहिक तथा मैत्री सम्बन्ध, समुद्रगुप्त द्वारा विजित प्रदेशों के प्रति अपनायी गयी विविध नीतियाँ, चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा नाग, वाकाटक तथा कुन्तल नरेशों से स्थापित किये गये सम्बन्धों द्वारा गुप्त साम्राज्य ने विस्तार तथा प्रभाव में स्थायित्व प्राप्त किया, परन्तु स्कन्दगुप्त के पश्चात् इस नीति का पूर्णतः परित्याग कर दिया गया तथा गुप्त शासकों ने अपने-अपने प्राचीन हितचिन्तकों तथा मित्रों से द्वेष तथा शत्रुता मोल ले ली।

आर्थिक संकट – किसी साम्राज्य का स्थायित्व उसकी आर्थिक क्षमता पर निर्भर होता है। यह तो सर्वविदित है कि युद्धों द्वारा धनहानि होती हैं। गुप्त सम्राट प्रबल साम्राज्यवादी थे अतः उन्हें निरन्तर युद्ध करने पड़े। साम्राज्य तो विशाल हो गया परन्तु उसको स्थायी रखने तथा रक्षा करने के कारण राजकीय कोष पर बहुत दबाव पड़ा। बाद में जब सामुद्रिक तथा स्थल व्यापारिक मार्गों की हानि हुई तो गुप्त साम्राज्य की आर्थिक- दशा डांवाडोल होने लगी। स्कन्दगुप्त के शासनकाल में ही स्वर्ण मुद्राओं की धातु विशुद्ध स्वर्ण की न रह गयी। यह संकेत प्रमाणित करता है कि गुप्तों के पतन में उनकी असन्तोषजनक आर्थिक दशा का भी योगदान था।

हूणों का आक्रमण – राजनीति में प्रायः ऐसा होता है कि जब कोई राज्य शक्तिहीन हो जाता है अथवा शासक वर्ग निष्क्रिय हो जाता है तो अनेक विदेशी तत्व ऐसी परिस्थिति का लाभ उठाकर अपनी स्वार्थ पूर्ति करने लगते हैं। गुप्त साम्राज्य पर हूणों का आक्रमण इस विचार के विपरीत हुआ। स्कन्दगुप्त के समय में ही – जबकि गुप्त शक्ति अपने उच्चतम शिखर पर थी – हूणों ने प्रबल आक्रमण करके इस वंश की राज्यलक्ष्मी को विचलित कर दिया। यद्यपि हूणों की पराजय हुई परन्तु उन्हें गुप्त साम्राज्य की शक्ति का आभास मिल गया। डा. वासुदेव उपाध्याय के अनुसार “यद्यपि प्रथमतः हूणों ने आक्रमण करके भूल की तथा वीर-प्रतापी स्कन्दगुप्त के सम्मुख उन्हें पराजित होना पड़ा, परन्तु विजयलक्ष्मी गुप्तों के हाथों में जाने पर भी उन्होंने साहस नहीं त्यागा। हूणों के आक्रमणों का स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारी सफल प्रतिरोध नहीं कर पाये और गुप्तों को जन तथा धन की हानि होती रही। इसका प्रभाव केवल युद्धक्षेत्र में नहीं वरन राजकोष पर भी पड़ा। हूणराज मिहिरकुल ने नरसिंहगुप्त बालादित्य को पराजित करके उत्तरी भारत पर अपना अधिकार जमा लिया। ग्वालियर अभिलेख से आभास मिलता है कि मध्य भारत पर भी मिहिरकुल का प्रभाव था। इस प्रकार हूणों द्वारा गुप्त साम्राज्य की सीमायें संकुचित हो गईं।

अन्य आक्रमण- स्कन्दगुप्त के समय पुष्यमित्रों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण करके गुप्त साम्राज्य को विचलित किया। स्वंय स्कन्दगुप्त को एक रात पृथ्वी पर सोना पड़ा। यद्यपि पुष्यमित्र पराजित हुए, परन्तु उनके आक्रमण द्वारा गुप्त साम्राज्य को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा होगा। वाकाटकों से भी स्कन्दगुप्त के सम्बन्ध बिगड़ चुके थे। कहा जाता है कि वाकाटकों ने पुष्यमित्रों तथा मालवा के सामन्त को स्कन्दगुप्त के विरुद्ध सहायता दी थी। यह भी अनुमान लगाया जाता है कि वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन ने कुछ समय के लिये मालवा पर अधिकार भी कर लिया था।
गुप्तों  के अवनतिकाल में यथा 532 ई० के लगभग मध्य भारत में यशोधर्मा ने गुप्त साम्राज्य के अनेक प्रदेश हस्तगत कर लिये थे। इस कारण गुप्त साम्राज्य की सीमायें और भी संकुचित हो गई तथा वह मगध एवं उत्तरी बंगाल तक ही सीमित रह गया। इस प्रकार यत्रोधर्मा का उदय गुप्त साम्राज्य की अवनति का एक प्रमुख कारण था।

बौद्धनीति का अनुसरण – प्रतापी गुप्त सम्राट वैष्णव धर्मानुयायी थे तथा उन्होंने अपने मान्य धर्मानुसार देश में सांस्कृतिक एकता की प्रतिस्थापना की थी। इसके विपरीत स्कन्दगुप्त के पश्चात् के अनेक गुप्त नरेश बौद्धधर्म से प्रभावित होने लगे। बौद्धधर्म के अहिंसावादी दृष्टिकोण के अनुरूप उन्होंने सैनिक सक्रियता तथा शस्त्र प्रयोग की उपेक्षा की होगी। शस्त्र एवं कूटनीति के आधार पर निर्मित गुप्त साम्राज्य के अन्तिम नरेशों द्वारा बुद्धनीति का अनुसरण किये जाने के फलस्वरूप इस वंश की पतन प्रक्रिया का तीव्र होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी।

कूटनीति का परित्याग – उत्कर्ष काल के गुप्त नरेशों ने अनेक विदेशी तथा भारतीय शक्तियों के साथ कूटनीतिक सम्बन्धों की स्थापना की थी। चन्द्रगुप्त प्रथम तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अनेक वैवाहिक सम्बन्धों तथा समुद्रगुप्त ने मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों द्वारा अनेक तटस्थ तथा शत्रु राज्यों को मित्र बना लिया था। कुमारगुप्त प्रथम तथा स्कन्दगुप्त ने भी इन सम्बन्धों की मर्यादा रखी परन्तु परवर्ती गुप्त नरेशों की अदूरदर्शी नीति के परिणामस्वरूप अनेक मित्र उनके द्वेषी बन गये। डा. वासुदेव उपाध्याय के अनुसार “अपने पूर्वजों के सम्बन्धों को तो स्थायी रखना दूर की बात थी बाद के तो गुप्त नरेशों ने उनसे शत्रुता ही मोल ले ली।“ इसका परिणाम यह हुआ कि जब गुप्त वंश पर संकट आया ता पूर्वकाल के हितैषियों तथा मित्रों से कोई सहायता नहीं मिली।

उत्तराधिकार सम्बन्धी संघर्ष- गुप्त वंश में उत्तराधिकार सम्बन्धी नियम निश्चित नहीं थे। चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त को बहुमत द्वारा उत्तराधिकारी घोषित करना, चन्द्रगुप्त द्वारा रामगुप्त की हत्या किया जाना आदि घटनाएं यह प्रमाणित करता है कि गुप्तवंश में इस प्रश्न पर अनेकों बार संघर्ष हुए होंगे। ऐसी परिस्थिति में गुटबन्दी तथा षड्यन्त्र रचना की संभावना बनी रहती थी। प्रतीत होता है कि उत्तराधिकार सम्बन्धी विवादों तथा दलबन्दी के कारण गुप्त साम्राज्य को काफी क्षति उठानी पड़ी होगी।

नवीन शक्तियों का उदय – इस समय तक भारतवर्ष में अनेक नयी-नयी शक्तियों का उदय हो रहा था। थानेश्वर में बर्द्धन वंश, कन्नौज में मौखरि वंश, कामरूप में वर्मन तथा मालवा में यशोवर्मन का उदय हुआ। इनमें यशोवर्मन गुप्त वंश के लिए सबसे घातक साबित हुआ। उसने गुप्त साम्राज्य का अधिकांश भाग जीत लिया। इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी यशोवर्मन के पूर्वी भारत के अभियान को गुप्त-साम्राज्य के पतन का तात्कालीक कारण मानते है।

यदि गुप्त साम्राज्य के पतन की दार्शनिक दृष्टिकोण से विवेचना की जाये, तो कहा जा सकता है कि उत्थान एवं पतन अवश्यम्भावी है। किसी लेखक ने ठीक ही लिखा है कि साम्राज्य सदैव ही उच्चतम शिखर पर स्थित नहीं रह सकता। जिस प्रकार जन्म के पश्चात मृत्यु होती है, ठीक उसी तरह उत्थान के बाद पतन होता है। गुप्त साम्राज्य इस सत्य का अपवाद कैसे हो सकता था? ऐतिहासिक दृष्टिकोण से गुप्त साम्राज्य के पतन के अनेक कारणों का विवेचन करते हुये कहा जा सकता है कि उक्त कारणों में से ऐसे अनेक कारण थे जिनका निराकरण किया जा सकता था। इसके समर्थन में अनेक तर्क, प्रस्तुत किये जा सकते हैं। उदाहरण लिये यदि केन्द्रीय सत्ता सबल तथा सक्षम रही होती, कूटनीति का प्रचुर प्रयोग किया जाता तथा शासक वर्ग स्वार्थपरक नीति को त्याग कर देश और समाज का भला चाहते तो इस पतन की प्रक्रिया पर नियन्त्रण पाया जा सकता था। परन्तु ये सभी तर्क इतिहास के परिणाम हैं – निरर्थक नहीं। इतिहास तो एक स्वाभाविक गति से चलता है। जो कुछ नियति ने निश्चित किया था वही हुआ और भारतीय इतिहास का वह गौरवशाली युग, छठी शताब्दी ई० के मध्य में समाप्त हो गया।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची –

  1. आर0सी0 मजूमदार, एन्सिएण्ट इण्डिया पृ0सं0- 245-46
  2. आर0 एस0 शर्मा, इण्डियन फ्यूडलिज्म, पृ0सं0- 2, 11
  3. राधाकुमुद मुकर्जी, द गुप्त इम्पायर, पृ0सं0- 121-22
  4. सुधाकर चटोपाध्याय, अर्ली हिस्ट्री ऑफ नार्थ इण्डिया, पृ0सं0- 175
  5. के0सी0 श्रीवास्तव, प्राचीन भारत का इतिहास व संस्कृति, पृ0सं0- 454-456

1 Comments

  1. जब मेरे जीवन में अँधेरा था। जब मैं हार गई तो आपने मुझे आगे बढ़ने की दिशा और शक्ति दी।

    मेरी शक्ति के स्तंभ, सत्यनिष्ठा और चरित्र के प्रतीक होने के लिए मैं आपके प्रति अपना आभार और सम्मान व्यक्त करती हूँ 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

    ReplyDelete
Previous Post Next Post