विषय-प्रवेश (Introduction) :
प्राचीन भारत के इतिहास में स्कन्दगुप्त की गणना एक साहसी और वीर योद्धा के रूप में की जाती है। कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् गुप्त शासन की बागडोर उसके सुयोग्य पुत्र स्कन्दगुप्त के हाथों में आई। जूनागढ अभिलेख से यह पता चलता है कि स्कन्दगुप्त ने 455 ईस्वी से 467 ईस्वी अर्थात् कुल 12 वर्षों तक राज्य किया। अपने बारह वर्षो के शासनकाल में स्कन्दगुप्त ने न केवल गुप्त साम्राज्य पर आये सबसे बडे संकट, हूणों के आक्रमण को विफल करने में सफलता पाई अपितु कई लोकोपकारी कार्यो को सम्पादित कर जनता के बीच लोकप्रियता भी हासिल करने में सफल रहा। वास्तव में स्कन्दगुप्त का शासन काल राजनीतिक घटनाओं की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।
इतिहास के स्रोत –
स्कन्दगुप्त के शासनकाल का इतिहास जानने के प्रमुख स्रोतों में पुरातात्विक स्रोत ही महत्वपूर्ण है। स्कन्दगुप्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण सौराष्ट्र (गुजरात) के जूनागढ़ से प्राप्त हुआ है जिसमें उसके शासन-काल की प्रथम तिथि गुप्त संवत 136 अर्थात 455 ईस्वी उत्कीर्ण मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों को परास्त कर सौराष्ट्र प्रान्त में पर्णदत्त को अपना राज्यपाल (गोप्ता) नियुक्त किया था। इस लेख में उसके सुव्यवस्थित शासन एवं गिरनार के पुरपति चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बाँध के पुनर्निर्माण का विवरण सुरक्षित है। बिहार के पटना समीप स्थित बिहार नामक स्थान से बिना तिथि का लेख मिलता है जिसमें स्कन्दगुप्त के समय तक गुप्त राजाओं के नाम तथा कुछ पदाधिकारियों के नाम प्राप्त होते हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में सैदपुर तहसील में भितरी नामक स्थान से प्राप्त लेख में पुष्यमित्रों और हूणों के साथ स्कन्दगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है। स्कन्दगुप्त के जीवन की अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं के अध्ययन के लिये यह अभिलेख अनिवार्य है ।
अभिलेखों के अतिरिक्त स्कन्दगुप्त के कुछ स्वर्ण एवं रजत सिक्के भी मिलते हैं। स्वर्ण सिक्कों के मुख भाग पर धनुष-बाण लिये हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर पद्मासन में विराजमान लक्ष्मी के साथ-साथ ‘श्रीस्कन्दगुप्त’ उत्कीर्ण है। कुछ सिक्कों के ऊपर गरुड़ध्वज तथा उसकी उपाधि ‘क्रमादित्य’ भी अंकित है। रजत सिक्के उसके पूर्वजों जैसे ही हैं। इनके मुख भाग पर वक्ष तक राजा का चित्र तथा पृष्ठ भाग पर गरुड़, नन्दी अथवा वेदी बनी हुई है। इनके ऊपर स्कन्दगुप्त की उपाधियाँ ‘परमभागवत’ तथा ‘क्रमादित्य’ उत्कीर्ण मिलती हैं।
उत्तराधिकार सम्बन्धी विवाद –
रमेशचन्द्र मजूमदार जैसे कुछ विद्वानों की धारणा है कि कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र पुरुगुप्त गुप्तवंश का राजा बना तथा स्कन्दगुप्त ने उसकी हत्या कर राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया। अपने मत के समर्थन में आर0 सी0 मजूमदार ने कई महत्वपूर्ण तर्क्र पेश किये है। मजूमदार का मानना है कि स्कन्दगुप्त के लेखों में उसकी माता का नाम कहीं नही मिलता है। मजूमदार जूनागढ अभिलेख का भी हवाला देते हुये कहते है कि ‘‘सभी राजकुमारों को परित्याग कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया‘‘ इससे भी यह निष्कर्ष निकलता है कि स्कन्दगुप्त शासन का वैध उत्तराधिकारी नहीं था और स्कन्दगुप्त ने युद्ध द्वारा राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया था।
लेकिन उपर्युक्त तर्को की समीक्षा की जाय तो प्रतीत होता है कि इसमें कोई बल नही है। स्कन्दगुप्त की माता का उसके अभिलेखों में उल्लेख न मिलने से तथा उसके महादेवी न होने से हम ऐसा निष्कर्ष कदापि नहीं निकाल सकते कि वह राज्य का वैधानिक उत्तराधिकारी नहीं था। प्राचीन भारतीय इतिहास में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जहाँ शासकों की मातायें प्रधान महिषी थीं लेकिन न तो उनके नाम के पूर्व ‘महादेवी’ का प्रयोग मिलता है ओर न ही उनका उल्लेख उनके पुत्रों के लेखों में हुआ है। जैसे चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रधान महिषी कुबेरनागा के नाम के पूर्व महादेवी का प्रयोग नहीं मिलता। इसी प्रकार हर्ष के लेखों में भी उसकी माता यशोमती का उल्लेख नहीं मिलता। परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता कि हर्ष शासन का वैधानिक उत्तराधिकारी नहीं था। आर्यमंजुश्रीमूलकल्प में भी उल्लेख मिलता है कि स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त के बाद गद्दी पर बैठा था। वास्तविकता जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक वर्ष नितान्त अशान्तपूर्ण रहे परन्तु सौभाग्य से तलवार के धनी स्कन्दगुप्त में वे सभी गुण विद्यमान थे जो तत्कालीन परिस्थितियों निपटने के लिये आवश्यक होते है।
अपनी वीरता एवं पराक्रम के बल पर उसने कठिनाइयों के बीच से अपना मार्ग प्रशस्त किया। अपने पिता के ही काल में वह पुष्यमित्रों को परास्त कर अपनी वीरता का परिचय दे चुका था। राजा होने पर उसके समक्ष एक दूसरी विपत्ति आई जो पहली की अपेक्षा अधिक भयावह थी। यह हूणों का प्रथम भारतीय आक्रमण था जिसने गुप्त साम्राज्य की जड़ों को हिला दिया।
हूणों का आक्रमण –
स्कन्दगुप्त के शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना हूणों का आक्रमण है। हूण, मध्य एशिया में निवास करने वाली एक बर्बर जाति थी। जनसंख्या की वृद्धि एवं प्रसार की आकांक्षा से वे अपना मूल निवास-स्थान छोड़कर नये प्रदेशों की खोज में निकल पड़े। आगे चलकर उनकी दो शाखायें हो गयीं, पश्चिमी शाखा तथा पूर्वी शाखा। पश्चिमी शाखा के हूण आगे बढ़ते हुये रोम पहुँचे जिनकी ध्वंसात्मक कृतियों से शक्तिशाली रोम-साम्राज्य को गहरा धक्का लगा जबकि पूर्वी शाखा के हूण क्रमशः आगे बढ़ते हुये आक्सस नदी-घाटी में बस गये। इसी शाखा ने भारत पर अनेक आक्रमण किये।
हूणों का प्रथम आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय में हुआ। यू0 एन0 राय के अनुसार इसका नेता खुशनेवाज था जिसने ईरान के शशानी शासकों को दबाने के बाद भारत पर आक्रमण किया होगा। इतिहासकारों का मानना है कि यह युद्ध बड़ा भयंकर था। इसकी भयंकरता का संकेत भितरी स्तम्भलेख में हुआ है जिसके अनुसार- ‘हूणों के साथ युद्ध-क्षेत्र में उतरने पर उसकी भुजाओं के प्रताप से पृथ्वी कांप गयी तथा भीषण आवर्त (बवण्डर) उठ खड़ा हुआ।’ दुर्भाग्यवश इस युद्ध का विस्तृत विवरण हमें प्राप्त नहीं होता।
तथापि इतना स्पष्ट है कि स्कन्दगुप्त द्वारा हूण बुरी तरह परास्त किये गये तथा देश से बाहर खदेड़ दिये गये। इसका प्रमाण हमें स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है जिसमें हूणों को ‘म्लेच्छ’ कहा गया है। इसके अनुसार पराजित होने पर वे अपने देशों में स्कन्दगुप्त की कीर्ति का गान करने लगे। म्लेच्छ-देश से तात्पर्य गन्धार से लगता है जहाँ पराजित होने के बाद हूण नरेश ने शरण ली होगी।
कुछ अन्य साक्ष्यों से भी इस विजय का संकेत परोक्ष रूप से हो जाता है। चन्द्रगोमिन् ने अपने व्याकरण में एक सूत्र लिखा है- ‘गुप्तों ने हूणों को जीता’। यहाँ तात्पर्य स्कन्दगुप्त की हूण-विजय से ही है। सोमदेव के कथासरित्सागर में उल्लेख मिलता है कि उज्जयिनी के राजा महेन्द्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य ने म्लेच्छों को जीता था। यहाँ भी स्कन्दगुप्त की ओर ही संकेत है जो कुमारगुप्त ‘महेन्द्रादित्य’ का पुत्र था। म्लेच्छों से तात्पर्य हूणों से ही है।
यह निश्चित रूप से ज्ञात नहीं है कि स्कन्दगुप्त का हूणों के साथ युद्ध किस स्थान पर हुआ था। भितरी लेख में जिस स्थान पर हूण-युद्ध का वर्णन है उसके बाद ‘श्रोत्रेषु गांगध्वनिः’ अर्थात् दोनों कानों में गंगा की ध्वनि सुनाई पड़ती थी, उल्लिखित मिलता है। इस आधार पर बी0 पी0 सिन्हा की धारणा है कि यह युद्ध गंगा की घाटी में लड़ा गया था। उनके अनुसार स्कन्दगुप्त की ‘प्रारम्भिक कठिनाइयों का लाभ उठाते हुए हूण गंगा नदी के उत्तरी किनारे तक जा पहुँचे थे।’ जगन्नाथ ने ‘गांगध्वनिः’ के स्थान पर ‘सांर्गध्वनिः’ पाठ बताया है तथा डी0 सी0 सरकार ने भी इसका समर्थन किया है।
आर0 पी0 त्रिपाठी ने कल्हण की राजतरंगिणी से उदाहरण देकर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि ‘गांगध्वनिः’ शब्द का प्रयोग लेख में युद्ध की भयंकरता को इंगित करने के लिये किया गया है। राजतरंगिणी में एक युद्ध के प्रसंग में एक स्थान पर विवरण मिलता है कि- ‘विशाल लकड़ी के लट्ठों की गाँठों के टूटने से उत्पन्न चटचट का रव ऐसा लगता था मानो पृथ्वी के ऊपर ताप से खौलती हुई गंगा की ध्वनि हो।’ इसी प्रकार की परिस्थिति में भितरी के लेखक ने भी ‘गांगध्वनि’ का प्रयोग किया है। ऐसा लगता है कि कवि ने यहाँ गांगध्वनि की समता बाणों की रगड़ से उत्पन्न भीषण ध्वनि से की है। यह एक भयंकर स्थिति को सूचित करने का आलंकारिक प्रयोग है तथा सम्भवतः गंगा से तात्पर्य आकाश गंगा से है, न कि पृथ्वी की गंगा से। बाणों के प्रयोग से आकाश का स्पष्ट संकेत मिलता है।
इस प्रकार ‘गांगध्वनि’ को आधार मानकर यह निष्कर्ष निकालना कि स्कन्दगुप्त तथा हूणों के बीच युद्ध गंगा की घाटी में हुआ था, तर्कसंगत नहीं प्रतीत होता है। अत्रेयी विश्वास के अनुसार यह मानना अधिक उचित प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त ने हूणों के साथ युद्ध अपने साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर किया होगा।
उपेन्द्र ठाकुर का विचार है कि हूण-युद्ध या तो सतलज नदी के तट पर या पश्चिमी भारत के मैदानों में लड़ा गया था। जूनागढ़ लेख हमें बताता है कि स्कन्दगुप्त इसी प्रदेश की रक्षा के लिये सर्वाधिक चिन्तित था। तदनुसार ‘इस प्रदेश का शासक नियुक्त करने के लिये स्कन्दगुप्त ने कई दिन तथा रात तक विचार करने के उपरान्त इसकी रक्षा का भार पर्णदत्त को सौंपा था। जिस प्रकार देवता वरुण को पश्चिमी दिशा का स्वामी नियुक्त कर निश्चिन्त हो गये थे उसी प्रकार वह पर्णदत्त को पश्चिमी दिशा का रक्षक नियुक्त करके आश्वस्त हो गया था।
इस प्रकार स्कन्दगुप्त तथा हूणों के बीच हुए युद्ध का स्थान निश्चित रूप से निर्धारित कर सकना कठिन है। विभिन्न मत-मतान्तरों को देखते हुए पश्चिमी भारत के किसी भाग को ही युद्ध-स्थल मानना अधिक तर्कसंगत लगता है। युद्ध-स्थल कहीं भी रहा हो, स्कन्दगुप्त ने उन्हें पराजित कर अपने साम्राज्य से बाहर खदेड़ दिया। वे गन्धार तथा अफगानिस्तान में बस गये जहां हूण ईरान के शशानी राजाओं के साथ संघर्ष में उलझ गये। 484 ईस्वी में शशानी नरेश फिरोज की मृत्यु के बाद ही हूण भारत की ओर उन्मुख हो सके। हूणों को पराजित करना तथा उन्हें देश से बाहर भगा देना निश्चित रूप से एक महान् सफलता थी जिसने गुप्त साम्राज्य को एक भीषण संकट से बचा लिया। भारत के ऊपर हूणों के परवर्ती आक्रमणों तथा अन्य देशों में उनकी ध्वंसात्मक कृतियों को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि स्कन्दगुप्त द्वारा उनका सफल प्रतिरोध उस युग की महानतम उपलब्धियों में से था।
इस वीर कृत्य ने उसे समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के समान ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण करने का अधिकार दे दिया। स्कन्दगुप्त ने हूणों को 460 ईस्वी के पूर्व ही पराजित किया होगा क्योंकि इस तिथि के कहौम लेख से पता लगता है कि उसके राज्य में शान्ति थी। इसके बाद के इन्दौर तथा गढ़वा लेखों से भी उसके साम्राज्य की शान्ति और समृद्धि सूचित होती है। अतः स्पष्ट है कि हूणों का आक्रमण उसके शासन के प्रारम्भिक वर्षों में ही हुआ होगा।
स्कन्दगुप्त का विजयें (Victories of Skandagupta) –
जूनागढ़ अभिलेख में कहा गया है कि स्कन्दगुप्त की ‘गरुड़ध्वजांकित राजाज्ञा नागरूपी उन राजाओं का मर्दन करने वाली थी जो मान और दर्प से अपने फन उठाये रहते थे।’ इस आधार पर फ्लीट ने निष्कर्ष निकाला है कि स्कन्दगुप्त ने नागवंशी राजाओं को पराजित किया था। परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते। सम्भव है इस कथन का संकेत पुष्यमित्रों तथा हूणों के लिये ही हो। ऐसा प्रतीत होता है कि स्कन्दगुप्त की प्रारम्भिक उलझनों का लाभ उठाकर दक्षिण से वाकाटकों ने भी उसके राज्यों पर आक्रमण किया तथा कुछ समय के लिये मालवा पर अधिकार कर लिया।
वाकाटक नरेश नरेन्द्रसेन को बालाघाट लेख में कोशल, मेकल तथा मालवा का शासक बताया गया है। किन्तु स्कन्दगुप्त ने शीघ्र इस प्रदेश के ऊपर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया तथा जीवनपर्यन्त उसका शासक बना रहा। वाकाटक उसे कोई क्षति नहीं पहुँचा सके ।
स्कन्दगुप्त का साम्राज्य विस्तार (Empire Expansion of Skandagupt)-
पुष्यमित्रों तथा हूणों के विरुद्ध सफलताओं के अतिरिक्त स्कन्दगुप्त की अन्य किसी उपलब्धि के विषय में हमें ज्ञात नहीं। उसके अभिलेखों और सिक्कों के व्यापक प्रसार से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने अपने पिता एवं पितामह के साम्राज्य को पूर्णतया अक्षुण्ण बनाये रखा। जूनागढ़ लेख सौराष्ट्र प्रान्त पर उसके अधिकार की पुष्टि करता है। उसकी विविध प्रकार की रजत मुद्राओं से पता चलता है कि साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर उसका शासन था। गरुड़ प्रकार के सिक्के पश्चिमी भारत, वेदी प्रकार के सिक्के मध्य भारत तथा नन्दी प्रकार के सिक्के काठियावाड़ में प्रचलित करवाने के निमित्त उत्कीर्ण करवाये गये थे।
इस प्रकार सम्पूर्ण उत्तर भारत पर उसका आधिपत्य था। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक के विस्तृत भूभाग पर शासन करने वाला वह अन्तिम महान् गुप्त सम्राट था।
शासन-प्रबन्धः
स्कन्दगुप्त न केवल एक वीर योद्धा था, अपितु वह एक कुशल शासक भी था। अभिलेखों से उसकी शासन-व्यवस्था के विषय में कुछ महत्वपूर्ण बातें ज्ञात होती हैं। उसका विशाल साम्राज्य प्रान्तों में विभाजित था और प्रान्त को देश, अवनी अथवा विषय कहा गया है। प्रान्त पर शासन करने वाले राज्यपाल को ‘गोप्ता’ कहा गया है। पर्णदत्त सुराष्ट्र प्रान्त का राज्यपाल था। वह स्कन्दगुप्त के पदाधिकारियों में सर्वाधिक योग्य था और उसकी नियुक्ति स्कन्दगुप्त ने खूब सोच-विचार कर की थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि सौराष्ट्र के ऊपर हूणों के आक्रमण का डर था। इसी कारण स्कन्दगुप्त ने अपने सबसे योग्य तथा विश्वासपात्र अधिकारी को वहां का राज्यपाल नियुक्त किया था। सर्वनाग अन्तर्वेदी (गंगा-यमुना के बीच का दोआब) का शासक था। कौशाम्बी में उसका राज्यपाल था जिसका उल्लेख वहाँ से प्राप्त एक प्रस्तर मूर्ति में मिलता है। प्रमुख नगरों का शासन चलाने के लिये नगरप्रमुख नियुक्त किये जाते थे। सौराष्ट्र की राजधानी गिरनार का प्रशासक चक्रपालित था जो पर्णदत्त का पुत्र था। स्कन्दगुप्त का शासन बड़ा उदार था जिसमें प्रजा पूर्णरूपेण सुखी एवं समृद्ध थी और किसी को कोई कष्ट नहीं था। तभी तो जूनागढ़ अभिलेख का कथन है कि- ‘जिस समय वह शासन कर रहा था, उसकी प्रजा में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो धर्मच्युत् हो अथवा दुःखी, दरिद्र, आपत्तिग्रस्त, लोभी या दण्डनीय होने के कारण अत्यन्त सताया गया हो।’
लोकोपकारिता के कार्यः
स्कन्दगुप्त एक अत्यन्त लोकोपकारी शासक था जिसे अपने प्रजा के सुख-दुःख की निरन्तर चिन्ता बनी रहती थी। वह दीन-दुखियों के प्रति दयावान था। प्रान्तों में उसके राज्यपाल भी लोकोपकारी कार्यों में सदा संलग्न रहते थे। जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है कि स्कन्दगुप्त के शासन-काल में भारी वर्षा के कारण ऐतिहासिक सुदर्शन झील का बाँध टूट गया और क्षण भर के लिये वह रमणीय झील सम्पूर्ण लोक के लिये दुदर्शन यानी भयावह आकृति वाली बन गयी। इससे प्रजा को महान कष्ट होने लगा। इस कष्ट के निवारणार्थ सौराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने, जो गिरनार नगर का नगरपति था, दो माह के भीतर ही अतुल धन का व्यय करके पत्थरों की जड़ाई द्वारा उस झील के बाँध का पुनर्निर्माण करवा दिया।
लेख के अनुसार यह बाँध सौ हाथ लम्बा तथा अरसठ हाथ चौड़ा था। इससे प्रजा ने सुख की सांस ली तथा स्वभाव से ही सुदर्शन झील शाश्वत रूप में स्थिर हो गयी। यहाँ उल्लेखनीय है कि सुदर्शन झील का निर्माण प्रथम मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त के सौराष्ट्र प्रान्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने पश्चिमी भारत में सिचाई की सुविधा के लिये करवाया था। अशोक के राष्ट्रीय यवन जातीय तुषास्प ने उस झील पर बाँध का निर्माण करवाया था। यह बाँध प्रथम बार शकमहाक्षत्रप रुद्रदामन (130-150 ईस्वी) के समय टूट गया जिसका पुनर्निर्माण उसने अतुल धन व्यय करके अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में करवाया था।
स्कन्दगुप्त का धार्मिक नीति (Religious Policy of Skandagupta)-
अपने पूर्वजों की भाँति स्कन्दगुप्त भी एक धर्मनिष्ठ वैष्णव था तथा उसकी उपाधि “परमभागवत” की थी। उसने भितरी में भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करवायी थी। गिरनार में चक्रपालित ने भी सुदर्शन झील के तट पर विष्णु की मूर्ति स्थापित करवाई थी परन्तु स्कन्दगुप्त धार्मिक मामलों में पूर्णरूपेण उदार एवं सहिष्णु था। उसने अपने साम्राज्य में अन्य धर्मों को विकसित होने का भी अवसर प्रदान किया। उसकी प्रजा के प्रति दृष्टिकोण भी उसी के समान उदार था। इन्दौर के लेख में सूर्य-पूजा का उल्लेख मिलता है। कहौम लेख से पता चलता है कि मद नामक एक व्यक्ति ने पाँच जैन तीर्थकंरों की पाषाण-प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था। यद्यपि वह एक जैन था तथापि ब्राह्मणों, श्रमणों एवं गुरुओं का सम्मान करता था। इस प्रकार स्कन्दगुप्त का शासन धार्मिक सहिष्णुता एवं उदारता का काल रहा।
स्कन्दगुप्त का मूल्यांकन (Evaluation of Sakandagupta)-
स्कन्दगुप्त एक महान् विजेता एवं कुशल प्रशासक था जो अपने समय के सर्वथा उपयुक्त सिद्ध हुआ। अपनी वीरता एवं पराक्रम के बल पर उसने अपने वंश की विचलित राजलक्ष्मी को पुनः प्रतिष्ठित कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्रों में वह सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान था, तभी तो जूनागढ़ अभिलेख में वर्णन मिलता है कि- ‘सभी राजकुमारों को छोड़कर लक्ष्मी ने स्वयं उसका वरण किया।’ वीरता के गुण उसमें बचपन से ही कूट-कूट कर भरे हुये थे। राजकुमार के रूप में ही उसने पुष्यमित्र जैसी भयंकर शत्रु जाति को पराजित किया था तथा राजा होने पर हूणों के गर्व को चूर्ण कर उन्हें देश के बाहर भगा दिया। यदि स्कन्दगुप्त जैसे पराक्रम का व्यक्ति गुप्त साम्राज्य की गद्दी पर आसीन नहीं होता तो वह हूणों द्वारा पूर्णतया छिन्न-भिन्न कर दिया जाता। हूणों द्वारा इस देश के विनाश को लगभग आधी शताब्दी तक रोक कर उसने महान् सेवा की और अपने इस वीर कृत्य के कारण वह ‘देश-रक्षक’ के रूप में जाना गया। यदि चन्द्रगुप्त मौर्य ने यूनानियों की दासता से देश को मुक्त किया तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विदेशी शकों की शक्ति का विनाश किया तो स्कन्दगुप्त ने अहंकारी हूणों के गर्व को चूर्ण कर दिया।
निःसन्देह वह गुप्तवंश का एकमात्र वीर (गुप्तवंशैक वीरः) था जिसका चरित्र निर्मल तथा उज्जवल था। उसकी प्रजा उससे इतनी अधिक उपकृत थी कि- ‘उसकी अमल कीर्ति का गान बालक से लेकर प्रौढ़ तक प्रसन्नतापूर्वक सभी दिशाओं में किया करते थे।’ उसका शासन उदारता, दया एवं बुद्धिमत्ता से भरा हुआ था जिसमें भौतिक एवं सांस्कृतिक उन्नति अबाध गति से होती रही। बौद्ध ग्रन्थ आर्यमंजुश्रीमूलकल्प के लेखक ने भी स्कन्दगुप्त को ‘श्रेष्ठ, बुद्धिमान तथा धर्मवत्सल’ शासक कहा है। उसकी मृत्यु के समय तक गुप्त-साम्राज्य की सीमायें पूर्णतया सुरक्षित रहीं।
इस प्रकार स्कन्दगुप्त एक महान् विजेता, मुक्तिदाता, अपने वंश की प्रतिष्ठा का पुनर्स्थापक तथा अन्ततोगत्वा एक प्रजावत्सल सम्राट था। वस्तुतः वह गुप्त वंश के महानतम राजाओं की श्रृंखला में अन्तिम कड़ी था। उसकी मृत्यु के साथ ही गुप्त-साम्राज्य विघटन एवं विभाजन की दिशा में निरन्तर अग्रसर होता गया।
Thank u sir🙏🙏
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