window.location = "http://www.yoururl.com"; Kumaragupta 1st | कुमारगुप्त प्रथम

Kumaragupta 1st | कुमारगुप्त प्रथम


Introduction (विषय-प्रवेश) –

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के पश्चात कुमारगुप्त प्रथम 415 ई0 में गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी बना। वह चन्द्रगुप्त की पत्नी ध्रुवदेवी से उत्पन्न उसका बडा पुत्र था। कुमारगुप्त ने लगभग 40 वर्षो तक शासक रहने के वावजूद भी उसके शासनकाल में कोई सैन्य या विजय अभियान नही चलाया गया। तथापि उसके शासनकाल का महत्व इस बात में है कि उसने अपने पिता से जिस विशाल साम्राज्य को उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, उसे अक्षुण्ण बनाये रखा तथा अपने विशाल साम्राज्य में शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने में सफल रहा। उसके सुव्यवस्थित शासन का विवरण प्रस्तुत करते हुए मन्दसोर अभिलेख में कहा गया है कि – ‘‘कुमारगुप्त एक ऐसी पृथ्वी पर शासन करता था जो चारों समुद्रों से घिरी हुई थी, सुमेरू तथा कैलाश पर्वत जिनके वृहद पैर के समान थे, सुन्दर वाटिकाओं में खिले फूल जिसकी हॅसी के समान थे।‘‘
अभिलेखों तथा सिक्कों पर उत्कीर्ण तिथियों से कुमारगुप्त प्रथम के शासन की अवधि निर्धारित करने में मदद मिलती है। उसके शासन-काल की प्रथम तिथि गुप्त संवत् 96 अर्थात 415 ईस्वी है जो हमें बिलसद अभिलेख से ज्ञात होती है । इससे निष्कर्ष निकलता है कि वह 415 ईस्वी में गद्दी पर बैठा था । जबकि उसकी अन्तिम तिथि गुप्त संवत् 136 अर्थात 455 ईस्वी है जो हमें चाँदी के सिक्कों से ज्ञात होती है। उसके उत्तराधिकारी स्कन्दगुप्त के शासन-काल की प्रथम तिथि भी यही है जो उसके जूनागढ़ अभिलेख में अंकित है। अतः इस तिथि तक कुमारगुप्त का शासन अवश्य ही समाप्त हो गया होगा। इस प्रकार ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुमारगुप्त प्रथम ने 415 से 455 ईस्वी अर्थात् कुल 40 वर्षों तक शासन किया।

इतिहास के स्रोत –

कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल का इतिहास जानने का कई पुरातात्विक स्रोत उपलब्ध है। इनमें से कुछ अभिलेख और सिक्के सबसे महत्वपूर्ण है। कुमारगुप्त प्रथम के अब तक कुल अट्ठारह अभिलेख प्राप्त हुये हैं और इतने अधिक अभिलेख किसी भी अन्य गुप्त शासक के नहीं मिलते। इन अभिलेखों में से कुछ अभिलेखों का विवरण निम्न है।
बिलसद अभिलेख- यह कुमारगुप्त के शासन-काल का प्रथम अभिलेख है जिस पर गुप्त संवत् 96 अर्थात 415 ईस्वी की तिथि अंकित है। बिलसद उत्तर प्रदेश के एटा जिले में स्थित है। इसमें कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तों की वंशावली प्राप्त होती है।

गढ़वा के दो शिलालेख- इलाहाबाद जिले में स्थित गढ़वा से कुमारगुप्त के दो शिलालेख मिले हैं जिन पर गुप्त संवत् 98 अर्थात 417 ईस्वी की तिथि उत्कीर्ण है । इनमें किसी दानगृह को 10 और 12 दीनारें दिये जाने का वर्णन है ।

मन्दसोर-अभिलेख- मन्दसोर प्राचीन मालवा में स्थित था जिसका एक नाम दशपुर भी मिलता है। यहाँ से प्राप्त कुमारगुप्त के लेख में विक्रम संवत् 529 (473 ईस्वी) की तिथि दी गयी है। यह लेख प्रशस्ति के रूप में है जिसकी रचना वत्सभट्टि ने की थी जो संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान था। इस लेख में कुमारगुप्त के राज्यपाल बन्धुवर्मा का उल्लेख मिलता है जो वहाँ शासन करता था। इसमें सूर्यमन्दिर के निर्माण का भी उल्लेख है ।
करमदण्डा अभिलेख- करमदण्डा उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में स्थित है। इस लेख में गुप्त संवत् 117 अर्थात 436 ईस्वी की तिथि अंकित है। यह शिव प्रतिमा के अधोभाग में उत्कीर्ण है। इस प्रतिमा की स्थापना कुमारगुप्त के मन्त्री (कुमारामात्य) पृथ्वीसेन ने की थी।
मथुरा का लेख- यह एक मूर्ति के अधोभाग में उत्कीर्ण है जिस पर गुप्त संवत् 135 अर्थात 454 ईस्वी की तिथि अंकित है। मूर्ति का ऊपरी हिस्सा टूट गया है परन्तु लेख के पास धर्म-चक्र उत्कीर्ण होने से ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि यह कोई बौद्ध प्रतिमा रही होगी।
साँची अभिलेख- साँची से प्राप्त कुमारगुप्त का लेख गुप्त संवत् 131 अर्थात 450 ईस्वी का है जिसमें हरिस्वामिनी द्वारा साँची के आर्यसंघ को धन दान में दिये जाने का उल्लेख है।
तुमैन अभिलेख- तुमैन मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 116 अर्थात 435 ईस्वी का लेख मिलता है जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को ‘शरद्-कालीन सूर्य की भाँति’ बताया गया है।

इसके अतिरिक्त बंगाल के तीन स्थानों –धनदेह, दामोदरपुर तथा वैग्राम से कुमारगुप्तकालीन ताम्रपत्र प्राप्त होते हैं। धनदैह आधुनिक बंगलादेश के राजशाही-जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 113 अर्थात 432 ईस्वी का ताम्रपत्र मिला है जो कुमारगुप्त के समय का है। इसमें कुमारगुप्त को ‘परमभट्टारक, महाराजाधिराज, परमदैवत’ कहा गया है। दामोदरपुर भी बंगलादेश के दीनाजपुर जिले में स्थित है। यहाँ से गुप्त संवत् 124 तथा 129 अर्थात 443 तथा 448 ईस्वी के कुमारगुप्त के दो लेख मिलते हैं जिनसे उसकी शासन-व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है। इन लेखों में कुमारगुप्त के अनेक पदाधिकारियों के नाम भी दिये गये हैं। वैग्राम बंगलादेश के बोगरा जिले में स्थित है जहाँ से गुप्त संवत् 128 अर्थात 447 ईस्वी का कुमारगुप्त का लेख मिला है। यह गोविन्दस्वामिन् के मन्दिर के निर्वाह के लिये भूमिदान में दिये जाने का वर्णन करता है।

मुद्रायें –

अभिलेखों के अतिरिक्त पश्चिमी भारत के विशाल भू-भाग से कुमारगुप्त की स्वर्ण, रजत तथा ताम्र मुद्रायें प्राप्त होती हैं। उसने कई नवीन प्रकार की स्वर्णमुद्राएँ प्रचलित करवाई थीं। एक प्रकार की मुद्रा के मुख पर मयूर को खिलाते हुये राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय की आकृति उत्कीर्ण है। मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसी के काल में हुआ । इन मुद्राओं पर गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण की गयी है। ये मुद्रायें विविध प्रकार की है- अश्वमेध प्रकार, व्याध्रनिहन्ता प्रकार, अश्वारोही प्रकार, धनुर्धारी प्रकार, गजारोही प्रकार, कार्तिकेय प्रकार आदि। मुद्राओं पर उसकी उपाधियाँ महेन्द्रादित्य, श्रीमहेन्द्र, महेन्द्रसिंह, अश्वमेधमहेन्द्र आदि उत्कीर्ण मिलती हैं।

कुमारगुप्त प्रथम के सैनिक अभियान –

दुर्भाग्यवश कुमारगुप्त की किसी भी सैनिक उपलब्धि की सूचना हमें लेखों अथवा सिक्कों से नहीं मिलती। उसके कुछ सिक्कों के ऊपर ‘व्याघ्रबलपराक्रमः’ अर्थात ‘व्याघ्र के समान बल एवं पराक्रम वाला’ की उपाधि अंकित मिलती है। हेमचन्द्र रायचौधरी ने इस आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि कुमारगुप्त प्रथम अपने पितामह (समुद्रगुप्त) के समान दक्षिणी अभियान पर गया तथा नर्मदा नदी को पार कर व्याघ्र वाले जंगली क्षेत्रों को अपने अधीन करने का प्रयास किया। महाराष्ट्र के सतारा जिले से उसकी 1395 मुद्रायें मिलती हैं। उसकी तेरह मुद्रायें एलिचपुर (बरार) से मिलती हैं। किन्तु मात्र सिक्कों के आधार पर ही हमारे लिए उसकी विजय का निष्कर्ष निकालना कठिन है। राधामुकुन्द मुकर्जी ने इसी प्रकार खंग-निहन्ता प्रकार के सिक्कों, जिनमें कुमारगुप्त को गैंडा मारते हुए दिखाया गया है, के आधार पर उसकी असम विजय का निष्कर्ष निकाला है क्योंकि गैंडा असम में ही पाये जाते हैं किन्तु इस मत की भी पुष्टि किसी और स्रोत से नही हो सकी है।

पुष्यमित्र जाति का आक्रमण –

कुमारगुप्त प्रथम के अभिलेखों से पता चलता है कि उसके शासन के प्रारंभिक वर्ष नितांत शान्तिपूर्ण रहे और वह व्यवस्थित ढंग से शासन करता रहा। उसके शासन के अन्तिम दिनों में “पुष्यमित्र” नामक जाति ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुमारगुप्त के पुत्र स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में इस आक्रमण का उल्लेख मिलता है। पुष्यमित्रों की सैनिक शक्ति और संपत्ति बहुत अधिक थी। इस आक्रमण से गुप्तवंश की राजलक्ष्मी विचलित हो उठीं तथा स्कंदगुप्त को पूरी रात पृथ्वी पर ही जागकर बितानी पड़ी थी। दुर्भाग्यवश हमें इस आक्रमण का स्पष्ट विवरण कहीं और नहीं मिलता। विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि प्राचीन भारत में पुष्यमित्र नामक जाति थी। वायुपुराण तथा जैन कल्पसूत्र में इस जाति का उल्लेख मिलता है। वे नर्मदा नदी के मुहाने के समीप मेकल में शासन करते थे। वस्तुस्थिति कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि आक्रमणकारी बुरी तरह परास्त हुये और उन्हें सफलता नहीं प्राप्त हो सकी परन्तु इस विजय की सूचना मिलने के पहले ही वृद्ध सम्राट कुमारगुप्त दिवंगत हो चुका था।
कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था। अश्वमेध प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर यज्ञयूप में बँधे हुये घोड़े की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर ‘श्रीअश्वमेधमहेन्दः’ मुद्रालेख अंकित है परन्तु अपनी किस महत्वपूर्ण उपलब्धि के उपलक्ष्य में कुमारगुप्त प्रथम ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया, यह हमें ज्ञात नहीं है।

कुमारगुप्त प्रथम की धार्मिक नीति-

कुमारगुप्त प्रथम अपने पिता चन्द्रगुप्त द्वितीय के ही समान एक वैष्णव धर्मानुयायी था। गढ़वा के लेख में उसे ‘परमभागवत’ कहा गया है।’ परन्तु यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि वह अन्य धर्मों के प्रति पूर्णरूपेण सहिष्णु व उदार था।
उसके विविध लेख इस बात के साक्षी हैं कि उसने अपने शासन काल में बुद्ध, शिव, सूर्य आदि देवताओं की उपासना में किसी प्रकार का विध्न नहीं पड़ने दिया, बल्कि इसके लिए पर्याप्त सहायता एवं प्रोत्साहन दिया था। मनकुँवर अभिलेख से पता चलता है कि उसके शासन काल में बुद्धमित्र नामक एक बौद्ध ने महात्मा बुद्ध की मूर्ति की स्थापना की थी। करमदण्डा लेख से पता चलता है कि उसका राज्यपाल पृथिवीषेण शैव मतानुयायी था। मन्दसोर लेख के अनुसार पश्चिमी मालवा में उसके राज्यपाल बंधुवर्मा ने सूर्य-मन्दिर का निर्माण करवाया था। निश्चित रूप से इन विवरणों से कुमारगुप्त प्रथम की धार्मिक सहिष्णुता प्रकट होती है। उसी के शासन काल में नालंदा के बौद्ध महाविहार की स्थापना की गयी है। हुएनसांग के विवरण से भी पता चलता है कि इसका संस्थापक ‘शक्रादित्य’ था। इससे तात्पर्य कुमारगुप्त प्रथम से ही है जिसकी एक उपाधि ‘महेन्द्रादित्य’ थी। ये दोनों शब्द समानार्थी हैं। वह एक उदार शासक था जिसने अनेक संस्थाओं को दान दिया।

मूल्यांकन –

उपर्युक्त विवरणों से स्पष्ट हो जाता है कि कुमारगुप्त प्रथम का शासन शान्ति और सुव्यवस्था का काल था। उसके समय में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर था। समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जिस विशाल साम्राज्य का निर्माण किया उसे कुमारगुप्त ने संगठित एवं सुशासित बनाये रखा। यद्यपि उसने कोई विजय नहीं की तथापि गुप्तों की सैनिक शक्ति क्षीण भी नहीं होने दिया। यह इसी बात से सिद्ध हो जाता है कि उसके शासन के अन्तिम दिनों में गुप्त सेना ने पुष्यमित्रों को बुरी तरह परास्त किया। यह बात कुमारगुप्त के लिये कम गौरव की नहीं है कि उसने इतना विशाल साम्राज्य, जो उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत था, को पूर्णतया सुरक्षित बनाये रखा। वह अपने पिता की ही भाँति वीर और यशस्वी शासक था। मुद्राओं पर अंकित लेख उसकी शक्ति एवं वैभव की सूचना देते हैं। निःसन्देह उसके शासन-काल में गुप्त-साम्राज्य की गरिमा सुरक्षित रही तथा कुमारगुप्त ने शान्ति एवं सुखपूर्वक शासनसत्ता का उपभोग किया।

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