रामगुप्त की ऐतिहासिकता :
प्रारंभ में इतिहासकारों का विचार था कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त साम्राज्य की राजगद्दी पर चन्द्रगुप्त बैठा परन्तु आधुनिक शोधों के आधार पर विद्वानों ने यह स्वीकार कर लिया है कि समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त के बीच रामगुप्त नामक व्यक्ति ने थोडे समय के लिए शासन किया था। रामगुप्त के इतिहास का पुनर्निमाण करने वाले इतिहासकार राखाल दास बनर्जी थे जिन्होने 1924 ई0 में इस सम्बन्ध में अपने विचार प्रस्तुत किये। विभिन्न इतिहासकारों के दृष्टिकोण का अवलोकन करने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त के दो पुत्र थे- रामगुप्त और चन्द्रगुप्त। रामगुप्त ज्येष्ठ होने के कारण समुद्रगुप्त की मृत्यु के बाद राजगद्दी पर बैठा। इतिहासकारों ने उसे निर्बल और कमजोर शासक माना है। उसके शासनकाल में शकों ने गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया। रामगुप्त पराजित हुआ तथा उसे एक अपमानजनक सन्धि करने के लिए बाध्य किया गया। सन्धि की शर्तो के अनुसार उसे अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकराज को भेंट में देना था। रामगुप्त के छोटे भाई को यह शर्त अपने कुल की मर्यादा के विपरित लगी अतः उसने स्वयं ध्रुवदेवी के वेष में शकराज के शिविर में भेजे जाने का प्रस्ताव किया गया। उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया और छद्मवेष में जाकर उसने शकराज की हत्या कर दी। इस कार्य से उसकी लोकप्रियता काफी बढ गई और अपनी लोकप्रियता का लाभ उठाते हुए उसने अपने बडे भाई रामगुप्त की हत्या कर दी और उसकी पत्नी ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया और गुप्तवंश का राजा बन बैठा।
सर्वप्रथम इस घटना का उल्लेख विशाखदत्त के ‘देवीचन्द्रगुप्तम्‘ नाटक में हुआ है। भोज ने अपने ग्रन्थ ‘श्रृंगारप्रकाश‘ में भी इस घटना का उल्लेख किया है। 11वी शताब्दी की अरबी भाषा की पुस्तक ‘मुजमल-उत-तवारीख‘ में भी इस घटना का उल्लेख मिलता है। अब धीरे-धीरे भारत के विभिन्न क्षेत्रों से कुछ ऐसी मुद्रायें भी प्रकाश में आने लगी है जिससे रामगुप्त की ऐतिहासिकता को बल मिलता है। भिलसा के प्रमुख मुद्राशास्त्री परमेश्वरी लाल गुप्त को छः ऐसे सिक्के मिले है जिनमें से एक पर राजा का नाम ‘रामगुप्त‘ तथा शेष पर उसके नाम के कुछ अक्षर लिखे है। इस प्रकार समस्त उपलब्ध संसाधनों की समीक्षा करने के उपरान्त हम यह कह सकते है कि रामगुप्त की ऐतिहासिकता में संन्देह करना उचित नही है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ :
समुद्रगुप्त के बाद उसकी प्रधान महिषी दत्तदेवी से उत्पन पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त राजवंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं शक्तिशाली शासक बना। गुप्तवंशी लेखों में उसे तत्परिगृहीत’ अर्थात् उसके (समुद्राप्त) द्वारा चुना गया, कहा गया है। कुछ विद्वान इस आधार पर प्रतिपादित करते है कि स्वयं समुद्रगुप्त ने ही चन्द्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत किया था। यह मत रामगुप्त की ऐतिहासिकता का पूर्णतया निषेध करता है। किन्तु हम देख चुके है कि रामगुप्त के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसी स्थिति में यही निष्कर्ष निकालना तर्कसंगत लगता है कि तत्परिगृहीत’ पद का प्रयोग मात्र निष्ठा प्रदर्शित करने के लिये किया गया है।
विभिन्नअभिलेखीय स्रोतों के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने 375 ईस्वी से 415 ईस्वी के लगभग अर्थात कुल 40 वर्षों तक शासन किया। इस दीर्घकालीन शासन में गुप्तवंश ने राजनीतिक एवं सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से अभूतपूर्व प्रगति किया तथा उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा। विक्रमांक, विक्रमादित्य, परमभागवत आदि उसकी सुप्रसिद्ध उपाधियों थी। इनसे जहाँ एक ओर उसका अतुल पराक्रम सूचित होता है, वहीं दूसरी ओर धर्मनिष्ठ वैष्णव होना भी सिद्ध होता है। वस्तुतः उसका शासन काल गुप्त इतिहास के सर्वाधिक गौरवशाली युग का प्रतिनिधित्व करता है।
वैवाहिक सम्बन्ध-
गुप्त राजवंश की वैदेशिक नीति में वैवाहिक सम्बन्धों का महत्वपूर्ण हाथ रहा है। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर सार्वभौम पद प्राप्त किया था तथा समुद्रगुप्त ने भी शक-कुषाणों से कन्याओं का उपहार पाया था। अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी, जो अपने पिता के ही समान एक कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी सम्राट था, सर्वप्रथम वैवाहिक सम्बन्धो द्वारा अपनी आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ किया। इस उद्देश्य से उसने अपने समय के तीन प्रमुख राजवंशों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया –
(1) नागवंश- नाग लोग प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से थे। प्रयाग प्रशस्ति में कई नाग राजवंशों का उल्लेख मिलता है जो मथुरा, अहिच्छत्र, पद्मावती आदि में शासन करते थे। यद्यपि समुद्रगुप्त ने कई नाग राजाओ को जीता था तथापि अब भी उनकी शक्ति काफी मजबूत थी। उनका सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त ने नाग राजकुमारी कुबेरनागा के साथ अपना विवाह किया। उससे एक कन्या प्रभावतीगुप्ता उत्पन्न हुई। पूना ताम्रपत्र में उसने अपनी माता को ’नागकुलसंभूता’ अर्थात नागकुल में उत्पन्न कहा है। नागवंश में वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त ने उसका समर्थन प्राप्त कर लिया तथा यह गुप्तो की नवस्थापित चक्रवर्ती स्थिति के सुदृढ़ीकरण में बड़ा ही उपयोगी सिद्ध हुआ।
यू० एन० राय का अनुमान है कि यह वैवाहिक सम्बन्ध वस्तुतः समुद्रगुप्त के काल में ही स्थापित हुआ होगा तथा प्रभावती गुप्ता का जन्म भी उसी के समय में हुआ होगा। चन्द्रगुप्त के राज्यारोहण के समय प्रभावती गुप्ता वयस्क हो चुकी थी। तभी तो उसने वाकाटकों का सहयोग लेने के लिये अपने राज्यारोहण के उपरान्त उसका विवाह रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया था। यह मत अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है।
(2) वाकाटक वंश- आधुनिक महाराष्ट्र प्रान्त में शासन करने वाले वाकाटकों की गणना दक्षिण की प्रतिष्ठित शक्तियों में की जाती थी। गुजरात और काठियावाड़ के शक शासकों को पराजित करने के लिये वाकाटको का सहयोग चन्द्रगुप्त के लिए अत्यन्त आवश्यक था। जैसा कि इतिहासकार स्मिथ का मानना है कि ’वाकाटक महाराज एक ऐसी महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति में था कि वह उत्तर भारत से शको के गुजरात तथा सौराष्ट्र के राज्य पर आक्रमण करने वाले किसी भी शासक को बहुत बड़ा लाभ अथवा हानि पहुँचा सकता था।“ वाकाटको का सहयोग प्राप्त करने के लिये चन्द्रगुप्त ने अपनी पुत्री प्रभातवती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय के साथ कर दिया। यद्यपि विवाह के कुछ ही समय बाद रुद्रसेन की मृत्यु हो गयी तथा प्रभावतीगुप्ता वाकाटक राज्य संरक्षिका बनी क्योकि उसके दोनों पुत्र (दिवाकरसेन तथा दामोदरसेन) अवयस्क थे। उसके समय में वाकाटक लोग पूरी तरह चन्द्रगुप्त के प्रभाव में आ गये। उसी के शासन-काल में चन्द्रगुप्त ने गुजरात और काठियावाड़ की विजय की तथा प्रभावती गुप्ता ने अपने पिता को हरसंभव सहायता प्रदान किया। वाकाटकों तथा गुप्तों की सम्मिलित शक्ति ने शकों का उन्मूलन कर डाला।
(3) कदम्ब राजवंश- कदम्ब राजवंश के लोग कुन्तल (कर्नाटक) में शासन करते थे। तालगुण्ड अभिलेख से पता चलता है कि इस वंश के शासक काकुत्सवर्मन् ने अपनी एक पुत्री का विवाह किसी गुप्त राजकुमार से किया था। वह चन्द्रगुप्त द्वितीय का समकालीन राजा था। अनुमान किया जाता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ था। भोज के ‘श्रृंगारप्रकाश‘ तथा क्षेमेन्द्रकृत ’औचित्यविचारचर्चा’ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना दूत बनाकर कुन्तल नरेश के दरबार में भेजा था। कालिदास ने वापस आकर अपने सम्राट को सूचित किया था कि कुन्तल नरेश ने अपने शासन का भार चन्द्रगुप्त के उपर ही डालकर भोग-विलास में लिप्त है। इस वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त की ख्याति सुदूर दक्षिण में भी फैल गयी।
युद्ध और विजयें –
वैवाहिक सम्बन्धों द्वारा अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के पश्चात् चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपना विजय अभियान प्रारम्भ किया जिसका उद्देश्य उदयगिरि गुहाभिलेख के शब्दों में ’सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना’ (कृत्स्नपृथ्वीजय) था। वह अपने पिता समुद्रगुप्त के ही समान एक कुशल योद्धा था। अपनी विजय की प्रक्रिया में उसने पश्चिमी भारत के शकों की शक्ति का उन्मूलन किया। शक उन दिनों गुजरात और काठियावाड़ में शासन करते थे। यद्यपि उन्होंने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी तथापि उनका उन्मूलन नही किया जा सका था और वे अब भी काफी शक्तिशाली थे। हम देख चुके है कि रामगुप्त के समय में किस प्रकार शको ने सामाज्य के लिये संकट खड़ा कर दिया था और चन्द्रगुप्त ने उनके शासक की हत्या कर अपने साम्राज्य की रक्षा की थी। राजा होने के बाद चन्द्रगुप्त ने उन्हें पूर्णतया उन्मूलित करने के लिये एक व्यापक सैनिक अभियान किया।
पूर्वी मालवा के क्षेत्र से चन्द्रगुप्त द्वितीय के तीन अभिलेख मिलते है जिनसे परोक्ष रूप से शक-विजय की सूचना मिलती है। प्रथम अभिलेख भिलसा के समीप उदयगिरि पहाड़ी से मिला है और यह उसके सान्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन का है। इससे ज्ञात होता है कि वह ’सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतने की इच्छा से राजा के साथ इस स्थान पर आया था। दूसरा अभिलेख भी उदयगिरि से ही मिलता है और यह उसके सामन्त ’सनकानीक महाराज’ का है। तीसरा सांची का लेख है जिसमें उसके आम्रकाईव नामक सैनिक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो सैकड़ों यद्धो का विजेता था। इन तीनो अभिलेखों के सम्मिलित साक्ष्य से यह प्रकट होता है कि चन्द्रगुप्त पूर्वी मालवा में अपने सामन्तों एवं उच्च सैनिक अधिकारियों के साथ अभियान पर गया था। इस अभियान का उद्देश्य निश्चय ही पूर्वी मालवा के ठीक पश्चिम में स्थित शक-राज्य को जीतना था। चन्द्रगुप्त का शक प्रतिद्वन्द्वी रुद्रसिंह तृतीय था। वह मार डाला गया तथा उसका गुजरात और काठियावाड़ का राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिया गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय की यह एक महान उपलब्धि थी।यहाँ से रुद्रसिंह तृतीय के कुछ चाँदी के सिक्के ऐसे मिलते है जो चन्द्रगुप्त द्वारा पुनअर्ंकित कराये गये है। इन सिक्को के प्रमाण से भी शक-राज्य पर उसका आधिपत्य सचित होता है। चन्द्रगुप्त के व्याघ्रशैली के सिक्के भी गुजरात और काठियावाड़ की विजय के प्रमाण है क्योंकि भारत के इसी भाग में सिंह अधिक पाये जाते थे। यह शक-विजय सम्भवतः पाँचवीं शती के प्रथम दशक में की गयी थी। इसके साथ ही तीन शताब्दियों से भी अधिक समय के शासन के पश्चात् पश्चिमी क्षत्रपों के वंश का अन्त हुआ तथा पश्चिमी भारत से विदेशी आधिपत्य की समाप्ति हुई। इस विजय ने चन्द्रगुप्त की ख्याति को चतुर्दिक फैला दिया। भारतीय अनुश्रुतियाँ उसे ’शकारि’ के रूप में स्मरण करती है तथा इसी विजय की चर्चा अनेक साहित्यिक ग्रन्थो मे हई है जिनका उल्लेख हम रामगुप्त के सन्दर्भ में कर चुके हैं। सम्भवतः अपनी इसी उपलब्धि के बाद उसने ’विक्रमादित्य’ की उपाधि ग्रहण की थी। शक राज्य के गुप्त साम्राज्य में मिल जाने से उसका विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक हो गया।
आर्थिक दृष्टि से भी इस विजय ने गुप्त साम्राज्य की समृद्धि में योगदान दिया। इसके परिणामस्वरूप पश्चिमी समुद्रतट के प्रसिद्ध बन्दरगाह भृगुकच्छ (भड़ौच) के ऊपर उसका नियन्त्रण हो गया। इसके माध्यम से पाश्चात्य विश्व के साथ साम्राज्य का व्यापार-वाणिज्य घनिष्ठ रूप से होने लगा जो देश की आर्थिक प्रगति में सहायक बना।
मेहरौली स्तम्भ लेख-
दिल्ली में मेहरौली नामक स्थान से यह लौह स्तम्भ प्राप्त हुआ है जो कुतुबमीनार के समीप वर्तमान समय में अवस्थित है। इसमें ’चन्द्र’ नामक किसी राजा की उपलब्धियों का वर्णन तीन श्लोको के अन्तर्गत किया गया है जिसका सारांश इस प्रकार है- ‘’जिसने बंगाल के युद्ध-क्षेत्र में मिलकर आये हुये अपने शत्रुओ के एक संघ को पराजित किया था, जिसकी भुजाओं पर तलवार द्वारा उसका यश लिखा गया था, जिसने सिन्धु नदी के सातों मुखों को पार कर युद्ध में बाहिकों को जीत था, जिसके प्रताप के सौरभ से दक्षिण का समुद्रतट अब भी सुवासित हो रहा था।‘‘
अभिलेख के अनुसार जिस समय यह लिखा गया वह राजा मर चुका था. किन्तु उसकी कीर्ति इस पृथ्वी पर फैली हुई थी। उसने अपने बाहुबल से अपना राज्य प्राप्त किया था तथा चिरकाल तक शासन किया। भगवान विष्णु के प्रति महती श्रद्धा के कारण विष्णुपद नामक पर्वत पर उसने विष्णुध्वज की स्थापना की थी।
उपर्यक्त लेख में कोई तिथि अंकित नहीं है। न तो राजा का पूरा नाम मिलता है और न ही कोई वंशावली दी गई है। इसी कारण इस राजा के समीकरण के प्रश्न पर विद्वानों में गहरा मतभेद रहा है। प्राचीन भारतीय इतिहास में चन्द्रगप्त मौर्य से लेकर चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य तक चन्द्र नामधारी जितने भी शासक हुये है उन सबके साथ मेहरौली लेख के चन्द्र का समीकरण स्थापित करने का इतिहासकारों ने अलग-अलग प्रयास किया है। लेकिन ये सभी समीकरण किसी न किसी दृष्टि से दोषपूर्ण प्रतीत होते है। इस सन्दर्भ में उपलब्ध सभी प्रमाणों का अवलोकन करने के बाद मेहरौली लेख के चन्द्र का समीकरण चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ के साथ करना सर्वाधिक समीचीन एवं तर्कसंगत प्रतीत होता है।
मेहरौली लेख के आधार पर हम चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की निम्नलिखित उपलब्धियों की ओर प्रकाश डाल सकते है –
- बंगाल के युद्धक्षेत्र में उसने शत्रुओं के एक संघ को पराजित किया था।
- दक्षिण भारत में उसकी ख्याति फेली हुई थी।
- सिन्धु के सातों मुखों को पार कर उसने बाहिकों को जीता था।
वह भगवान विष्णु का परम भक्त था।
यदि उपर्युक्त विशेषताओ को हम चन्द्रगुप्त द्वितीय के पक्ष में लागू करें तो वे सर्वथा तर्कसंगत प्रतीत होती है। समुद्रगप्त के प्रयाग अभिलेख से पता चलता है कि उसने चन्द्रवर्मा को हराकर बंगाल का पश्चिमी भाग, जहाँ बाँकुड़ा जिला स्थित है, जीत लिया था। कुमारगुप्त प्रथम के लेखों से भी पता चलता है कि उत्तरी बंगाल पर भी उसका अधिकार था और यहाँ पुण्ड्रवर्धन गुप्तो का एक प्रान्त (भुक्ति) था। हमें यह भी पता है कि स्वयं कुमारगुप्त प्रथम ने कोई विजय नहीं की थी। ऐसी स्थिति में यही मानना तर्कसंगत प्रतीत होता है कि उत्तरी बंगाल का क्षेत्र चन्द्रगुप्त ने ही जीतकर गुप्त साम्राज्य में मिलाया था। समुद्रगुप्त के समय गुप्तों की पूर्वी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमाओं पर पांच राज्य थे- समतट, डवाक, कामरूप, कर्तपुर तथा नेपाल। इन्होने उसकी अधीनता मान ली थी। लगता है रामगुप्त के निर्बल शासन में ये राज्य पुनः स्वतन्त्र हो गये थे और उन्होंने अपना एक संघ बना लिया था। इसी संघ को बंगाल के किसी युद्ध-क्षेत्र में परास्त कर चन्द्रगुप्त ने उत्तरी बंगाल को जीत लिया और इसी घटना का उल्लेख काव्यात्मक ढंग से मेहरीली लेख में किया गया है। सम्भवतया यह विजय उसके राज्य-काल के अन्त में की गयी थी और यही कारण है कि इसकी पुष्टि किसी अभिलेख अथवा सिक्के से नहीं हो पाती।
जहाँ तक ’वाहिक’ शब्द का प्रश्न है, यहाँ इसका तात्पर्य बैक्ट्रिया देश से कदापि नही है। भण्डारकर ने रामायण और महाभारत से प्रमाण प्रस्तुत करते हुये यह सिद्ध कर दिया है कि प्राचीन काल में पंजाब की व्यास नदी के आस-पास का क्षेत्र भी ’वाहिक’ नाम से प्रसिद्ध था। रामायण के अनुसार वशिष्ठ ने भरत को बुलाने के लिये कैकय देश को जो दूत-मण्डल भेजा था वह ’बाहिक’ प्रदेश के बीच से होकर गया था। स्पष्ट है कि यहाँ पंजाब की व्यास नदी के समीपवर्ती क्षेत्र को ही ‘बाहिक‘ कहा गया है। महाभारत में इस क्षेत्र को ’वाहीक’ कहा गया है। टालमी ने भी इसे ’बाहीक’ कहा है जिसका अर्थ है ’पाँच नदियों की भूमि।’ इसका प्रमुख कारण यह था कि यहाँ पर कुषाणों का निवास था जो पहले बल्ख पर शासन कर चुके थे तथा फिर पंजाब में आकर बस गये थे। अतः कुषाणों को भी ‘बाहिक‘ कहा जाने लगा था। मेहरौली लेख में ‘बाहिक‘ का तात्पर्य ‘परवर्ती कुषाणों‘ से है जो गुप्तों के समय में पंजाब में निवास करते थे। रामगुप्त के शासनकाल में अन्य शक्तियों के तरह कुषाणों ने भी अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। चन्द्रगुप्त ने शकों का उन्मूलन करने के बाद पंजाब में जाकर कुषाणों को भी परास्त किया और इसी को ‘‘बाहिक-विजय‘‘ की संज्ञा दी गई है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय की ख्याति दक्षिण भारत में भी पर्याप्त रूप से फैली हुई थी। दक्षिण के वाकाटक एवं कदम्ब राजवंश में अपना वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर उसने उन्हें अपने प्रभाव-क्षेत्र में कर लिया था। उसकी पुत्री प्रभावती गुप्ता के शासन-काल मे तो वाकाटक लोग पूर्णतया गुप्त शासकों के प्रभाव में आ गये थे। भोज के ग्रन्थ ’श्रृगारप्रकाश’ से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने कालिदास को अपना राजदूत बनाकर कुन्तलनरेश काकत्मवर्मा के दरबार में भेजा था। कालिदास ने लौटकर यह सूचना दी कि कुन्तल नरेश अपना राज्य-भार आपके (चन्द्रगुप्त) ऊपर सौपकर मुक्त होकर भोग-विलास मे निमग्न हैं।“ क्षेमेन्द्र ने कालिदास द्वारा विरचित एक श्लोक का उद्धरण दिया है जिससे लगता है कि कुन्तल प्रदेश का शासन वस्तुतः चन्द्रगुप्त ही चलाता था। इस विवरण से इतना तो स्पष्ट ही है कि दक्षिण के कुन्तलप्रदेश पर चन्द्रगुप्त का प्रभाव था। ऐसा प्रतीत होता है कि इन्ही प्रभावो को प्यान में रखकर मेहरौली लेख के रचयिता ने काव्यात्मक ढंग से यह लिखा है कि ’चन्द्र के प्रताप के सौरभ से दक्षिण के समुद्र-तट आज भी सुवासित हो रहे है।‘‘
मेहरौली लेख की अन्य विशेषताये भी चन्द्रगुप्त के पक्ष में सही लगती है। इसके अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल द्वारा अपना राज्य प्राप्त किया, उसने चिरकाल तक शासन किया और वह भगवान विष्णु का महान् भक्त था। हम देख चुके है कि रामगुप्त के समय में किस प्रकार गुप्त-साम्राज्य संकटग्रस्त हो गया था। यदि चन्द्रगुप्त ने शकपति की हत्या नहीं की होती तो गुप्त राज्य शको के अधिकार में चला जाता। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल से ही अपना राज्य प्राप्त किया था। उसने लगभग 40 वर्षों (375-415 ईस्वी) तक शासन किया और इस प्रकार उसका शासन चिरकालीन रहा। वह विष्णु का अनन्य भक्त था जिसकी सर्वप्रिय उपाधि ’परमभागवत’ की थी।
इस प्रकार मेहरौली लेख के चन्द्र की सभी विशेषताये चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्यक्तित्व एवं चरित्र में देखी जा सकती है। लेख की लिपि भी गुप्तकालीन है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी मृत्यु के बाद कुमारगुप्त प्रथम ने पिता की स्मृति मे इस लेख को उत्कीर्ण करवाया था। लिपि की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही इसमे चन्द्रगुप्त के नाम का केवल प्रथमार्ध ’चन्द्र ही प्रयुक्त किया गया है। उसकी कुछ मुद्राओं पर भी केवल ’चन्द्र’ नाम ही प्राप्त है। अतः मेहरौली लेख को चन्द्रगुप्त द्वितीय का मानने में अब संदेह का कोई स्थान नहीं रह जाता।
अश्वमेध यज्ञ-
वाराणसी के दक्षिण-पूर्व में स्थित नगवाँ नामक ग्राम से प्राप्त एक पाषाण निर्मित अश्व पर ’चन्द्रंगु’ अंकित है। जे0 रत्नाकर ने इसकी पहचान चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ की है तथा बताया है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ किया था जिसके प्रतीक स्वरूप यह अश्व निर्मित किया गया। परन्तु इस मत का समर्थन किसी अन्य साक्ष्य से नहीं होता। अतः इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते।
शासन प्रबंध - चन्द्रगुप्त द्वितीय न केवल एक महान विजेता ही था, बल्कि वह एक योग्य एवं कुशल शासक भी था। गुप्त प्रशासन का निर्माण उसी ने किया। उसका 40 वर्षों का दीर्घकालीन शासन शान्ति, सुव्यवस्था एवं समृद्धि का काल रहा। उसे अनेक योग्य. तथा अनुभवी मन्त्रियों की सेवायें प्राप्त थीं। उसका प्रधान सचिव वीरसेन ’शैव’ मतावलम्बी था जिसका उल्लेख उदयगिरि गुहाभिलेख में मिलता है। सनकानीक महाराज पूर्वी मालवा प्रदेश का राज्यपाल रहा होगा। उदयगिरि के लेख में वह अपने को चन्द्रगुप्त का ’पादानुध्यात’ कहता है। आम्रकाईव उसका प्रधान सेनापति था। सांची के लेख में उसके नाम का उल्लेख मिलता है जहाँ उसे अनेक युद्धो मे यश प्राप्त करने वाला कहा गया है। करमदण्डा लेख से ज्ञात होता है कि शिखरस्वामी उसका एक मन्त्री था। चन्द्रगुप्त द्वितीय का एक पुत्र गोविन्दगुप्त ’तीरभुक्ति’ प्रदेश का राज्यपाल था। बसाढ़ मुद्रालेख में इस प्रान्त का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त अन्य निपुण प्रशासनिक अधिकारी एवं कर्मचारी भी थे। लेखों तथा मुद्राओं से कुछ पदाधिकारियों के नाम इस प्रकार मिलते है –
- उपरिक- यह प्रान्त का राज्यपाल होता था।
- कुमारामात्य- यह विशिष्ट प्रकार के प्रशासनिक अधिकारियों का नाम था। इसकी तुलना हम आधुनिक प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों से कर सकते है।
- बलाधिकृत- यह सेना का सर्वोच्च पदाधिकारी था। उसका कार्यालय ’बलाधिकरण’ कहा गया है।
- रणभाण्डागाराधिकृत- सैनिक साज-सामानों को सुरक्षित रखने वाले प्रधान अधिकारी को ’रणभाण्डागाराधिकृत’ कहा जाता है।
- दण्डपाशिक- यह पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी था।
- महादण्डनायक- मुख्य न्यायाधीश की संज्ञा महादण्डनायक थी।
- विनयस्थितिस्थापक- इस पदाधिकारी का कार्य कानून और व्यवस्था की स्थापना करना होता था।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में आने वाला चीनी यात्री फाह्यान उसके शासन प्रबन्ध की काफी प्रशंसा करता है। कुछ इसी प्रकार का वर्णन महाकवि कालिदास ने भी किया है – ‘‘जिस समय वह राजा शासन कर रहा था, उपवनों में मद पीकर सोयी हुई सुन्दरियों के वस्त्रों को वायु तक स्पर्श नहीं कर सकता था, तो फिर उसके आभूषणों को चुराने का साहस कौन कर सकता था।‘‘
धर्म- चन्द्रगुप्त वैष्णव मतावलम्बी था जिसने ’परमभागवत’ की उपाधि धारण की थी। मेहरौली लेख के अनुसार उसने विष्णुपद पर्वत पर विष्णुध्वज की स्थापना करवायी थी परन्तु वह अन्य धर्मानुयायियों के प्रति पर्याप्त सहिष्णु था। उसने बिना किसी भेदभाव के अन्य धर्मावलम्बियो को प्रशासन के उच्च पदो पर नियुक्त किया तथा दूसरे धर्मो को दानादि दिया। उसका सान्धिविग्रहिक सचिव वीरसेन शैव था जिसने भगवान शिव की पूजा के लिये उदयगिरि पहाड़ी पर एक गुफा का निर्माण करवाया था। उसका सेनापति आग्रकाईव बौद्ध था। सांची लेख के अनुसार उसने सॉंची महाविहार के आर्यसंघ को 25 दीनारे और ईश्वरवासक ग्राम दान में दिया था। यह प्रतिदिन पॉच भिक्षुओ को भोजन कराने एवं रत्नगृह में दीपक जलाने के लिये दिया गया था।
विद्या प्रेम- चन्द्रगुप्त द्वितीय युद्ध-क्षेत्र में जितना महान् था, शान्ति काल में उससे कही अधिक कर्मठ था। वह स्वयं विद्वान् एवं विद्वानो का आश्रयदाता था। उसके समय में पाटलिपुत्र एवं उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थे। अनुश्रुति के अनुसार उसके दरबार मे नौ विद्वानो की एक मण्डली निवास करती थी जिसे ’नवरत्न’ कहा गया है। महाकवि कालिदास संभवतः इनमें अग्रगण्य थे। कालिदास के अतिरिक्त इनमे धनवन्तरि, क्षपणक. अमरसिंह, शंकु, बेतालभटट, घटकर्पर, वाराहमिहिर, वररुचि जैसे विद्वान् थे। इनमें अधिकांश को गुप्तकालीन ही माना जाता है। उसका साधिविग्रहिक वीरसेन ’व्याकरण, न्याय, मीमांसा एवं शब्द का प्रकाण्ड पण्डित तथा कवि’ था। राजशेखर ने अपने ग्रन्थ काव्यमीमांसा में इस बात का उल्लेख किया है कि उज्जयिनी में कवियो की परीक्षा लेने के लिये एक विद्वतपरिषद् थी। इस परिषद् ने कालिदास, भर्तृमेठ, भारवि, अमरु, हरिश्चन्द्र, चन्द्रगुप्त आदि कवियों की परीक्षा लिया था। सम्भव है यहाँ चन्द्रगुप्त से तात्पर्य चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य से ही हो।
मूल्यांकन – इस प्रकार चन्द्रगुप्त द्वितीय एक महान् विजेता, कुशल शासक, कूटनीतिज्ञ, विद्वान् एवं विद्या का उदार संरक्षक था। उसकी प्रतिभा बहुमुखी थी तथा उसके काल में गुप्त साम्राज्य की चहुंमुखी प्रगति हुई। जिस साम्राज्य को उसके पिता समुद्रगुप्त ने निर्मित किया, वह चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पूर्णतया संगठित, सुव्यवस्थित एवं सुशासित होकर उन्नति की चोटी पर जा पहुँचा तथा प्राचीन भारत मे ’स्वर्णयुग’ का दावेदार बन गया। चन्द्रगुप्त निश्चय ही न केवल गुप्तवंश के अपितु सप्पूर्ण भारतीय इतिहास के महानतम शासकों में से एक है। महाकवि कालिदास की निम्नलिखित पंक्तियाँ इस गुप्त सम्राट के व्यक्तित्व का सही मल्यांकन करती है – ’भले ही पृथ्वी पर सहस्त्रों राजा हो लेकिन पृथ्वी इसी राजा से राजवन्ती (राजा वाली) कही गयी है, जिस प्रकार की नक्षत्र, तारा एवं ग्रहों के होने पर भी रात्रि केवल चन्द्रमा से ही चाँदनी वाली कही जाती है।‘‘
चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्के –
अपने पिता के समान चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने भी विशाल साम्राज्य के लिए अनेक प्रकार के सिक्कों का प्रचलन करवाया। उसकी कुछ मुद्रायें पूर्णतया मौलिक एवं नवीन थी। स्वर्ण के साथ-साथ उसकी रजत एवं ताम्र मुद्रायें भी प्राप्त हई हैं। स्वर्ण सिक्कों को ‘दीनार‘ तथा रजत सिक्कों को ‘रूप्ष्क‘ अथवा ‘रूपक‘ कहा जाता था।
चन्द्रगुप्त की स्वर्ण मुद्राओं का विवरण इस प्रकार है :
धनुर्धारी प्रकार (Archer type)- इस प्रकार के सिक्के सबसे अधिक मिलते है। इनके मुख भाग पर धनुष-बाण लिये हुये राजा की मूर्ति, गरुडध्वज तथा मुद्रालेख ’देवश्रीमहाराजाधिराजश्रीचन्द्रगुप्तः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर बैठी हुई लक्ष्मी के साथ-साथ राजा को उपाधि ’श्रीविक्रम’ उत्कीर्ण मिलती है।
छत्रधारी प्रकार- इसके अन्तर्गत मुख्यतः दो प्रकार के सिक्के सम्मिलित हैं। मुख-भाग पर आहुति डालते हुए राजा खड़ा है। वह अपना बाँया हाथ तलवार की मुठिया पर रखे हुए है। राजा के पीछे एक बौना नौकर उसके ऊपर छत्र ताने हुए खड़ा है। पृष्ठ भाग पर कमल के उपर लक्ष्मी खडी हुई है तथा मुद्रालेख अंकित है।
सिंह निहन्ता प्रकार- इस प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर सिंह को धनुष-बाण से मारते हुए राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर सिंह पर बैठी हुई देवी दुर्गा की आकृति उत्कीर्ण है। इस प्रकार के सिक्कों पर अलग अलग मुद्रालेख भी अंकित है।
अश्वारोही प्रकार- इस प्रकार के सिक्कों के मुख भाग पर घोडे पर सवार राजा की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर वैठी हुई देवी उत्कीर्ण है। दोनो तरफ मुद्रालेख भी अंकित है।
पर्यन्क प्रकार (Couch type)- इस प्रकार के सिक्के कम मात्रा में मिले है। इनके मुख भाग पर राजा वस्त्र एवं आभूषण धारण किये हुए पलंग पर बैठा है तथा उसके दाएॅ हाथ में कमल है जबकि पृष्ठ भाग पर सिंहासन पर बैठी हुई लक्ष्मी का चित्र तथा मुद्रालेख उत्कीर्ण है।
फाह्यान का यात्रा विवरण-
प्राचीन काल में ईसा से पूर्व ही धर्म, कला, नीति, सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में भारत की ख्याति विदेशों में फैल चुकी थी। यही कारण है कि भारत सदैव विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। चौथी शताब्दी में फाहियान नाम का एक बौद्ध भिक्षु अपने तीन अन्य भिक्षु-साथियों के साथ भारत आया। चूंकि बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था अतः फाहियान का यहां आने का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध धर्म के आधारभूत ग्रन्थ ’त्रिपिटक’ में से एक ‘विनयपिटक’ को ढूंढ़ना था। फाहियान पहला चीनी यात्री था, जिसने अपने यात्रा-वृत्तांत को लिपिबद्ध किया। फाह्यान ने भारत में बिताए 12 वर्षों में से 6 वर्ष यात्रा में और 6 वर्ष अध्यवसाय में बिताए थे।
प्रसिद्ध चीनी यात्री फाह्यान ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में ही भारत का भ्रमण किया। लगभग 399 ई0 से 414 ई0 तक उसने भारत के विभिन्न हिस्सों अथवा स्थानों का भ्रमण किया था। उसके द्वारा लिखा गया यात्रा-वृतान्त चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल की सांस्कृतिक और सामाजिक दशा का सुन्दर चित्रण करता है। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि उसने अपने यात्रा वृतान्त में समकालीन शासक के नाम का उल्लेख नही किया है।
फाह्यान का जन्म चीन के ’वु-यॉंग’ (Wu-yang) नामक स्थान में हुआ था। बचपन मे ही वह भगवान बुद्ध की शिक्षाओं की ओर आकृष्ट हुआ और बड़ा होने पर वह भिक्षु जीवन व्यतीत करने लगा। उसकी आस्था दिनो-दिन बुद्ध के उपदेशों तथा शिक्षाओं में दृढ़ होती गयी। बौद्ध ग्रन्थों के गहन अध्ययन तथा बुद्ध के चरण-चिह्नो से पवित्र हुए स्थानों को देखने की लालसा से उसने अपने कुछ सहयोगियो के साथ भारतवर्ष की यात्रा प्रारम्भ की। चंगन से चलकर सर्वप्रथम शान-शान पहुंचा। तत्पश्चात् उसने करशहर, खोतान तथा काशगर की यात्रा की। खोतान के प्रसिद्ध गोमती विहार में उसने निवास किया। यहाँ महायान सम्प्रदाय के लगभग 10,000 भिक्षु निवास करते थे। इसके बाद सिन्ध नदी पार कर उसने उद्यान. गन्धार. तक्षशिला, पेशावर आदि स्थानों का भ्रमण किया। पेशावर में कनिष्क द्वारा बनवाये गये टावर (चैत्य) को उसने देखा था। यह सम्पूर्ण क्षेत्र स्तुपो, विहारों तथा स्मारकों से भरा हुआ था। यहाँ से चलकर वह नगरहार पहुँचा। नगरहार की राजधानी में बुद्ध का ’दन्त पगोडा’ था। पहाडियाँ पार कर वह अफगानिस्तान देश गया जहाँ उसने हीनयान तथा महायान दोनों सम्प्रदायों के लगभग 3000 भिक्षु देखे। यहाँ से पूर्व की ओर उसने पुनः सिन्धु पार किया तथा पंजाब राज्य में प्रवेश किया। पंजाब में उसने बहुसंख्यक बौद्ध-विहार देखे। पंजाब के बाद मध्यदेश का उसने व्यापक भ्रमण किया।
फाह्यान अपने यात्रा-वृतान्त में इस देश का वर्णन विस्तारपूर्वक करता है। यह ब्राह्मणों का देश था जहाँ लोग सुखी एवं समृद्ध थे। लोगों को न तो अपने मकानों का पंजीकरण कराना पड़ता था और न ही न्यायालयों में दण्डाधिकारियों के सम्मुख उपस्थित होना पड़ता था। वे जहाँ चाहे जा सकते तथा रह सकते थे। जो लोग सरकारी भूमि पर खेती करते थे उन्हें उपज का एक भाग राजा को देना पड़ता था। दण्डविधान उदार थे। राजा बिना मृत्यु-दण्ड अथवा शारीरिक यन्त्रणाओं का भय दिलाते हुए ही शासन करता था। अपराधों में आर्थिक दण्ड लगाये जाते थे। बार-बार राजद्रोह का अपराध करने वाले व्यक्ति का केवल दायाँ हाथ काट लिया जाता था। इसके बावजूद भी अपराध नहीं होते थे तथा चतुर्दिक शान्ति एवं सुव्यवस्था का साम्राज्य था। राजकर्मचारी वैतनिक होते थे। तात्कालीन समाज पर प्रकाश डालते हुये फाह्यान ने कहा है कि यहॉ लोग न तो किसी जीवित प्राणी की हत्या करते थे और न ही मांस, मदिरा, प्याज, लहसुन आदि का प्रयोग करते थे। केवल चाण्डाल इसके अपवाद थे. जो समाज से बहिष्कृत समझे जाते थे। लोग सुअर अथवा पक्षियों नहीं पालते थे तथा पशुओं का व्यापार नहीं करते थे। बाजारों में बूचड़खाने तथा मदिरालय नहीं थे। क्रय-विक्रय में कौडियों का प्रयोग होता था। केवल चाण्डाल ही शिकार करते तथा मछलियाँ बेचते थे। धनपति एवं कुलीन वर्ग के लोग मन्दिर एवं विहार बनवाते तथा उनके निर्वाह के लिये धन दान देते थे। धर्मपरायण परिवार भिक्षुओं को भोजन, वस्त्रादि देने के लिये चन्दे एकत्रित करते थे। उसकी दृष्टि में इस देश में ब्राह्मण धर्म का ही बोल-बाला था। फ़ाह्यान ने भारत में वैशाख की अष्टमी को एक महत्त्वपूर्ण उत्सव मनाये जाने की बात कही हैं। उसके अनुसार चार पहिये वाले रथ पर कई मूर्तियों को रख कर जुलूस निकाला जाता था।
फाह्यान ने पवित्र बौद्ध स्थानों की भी यात्रा की। संकिसा तथा श्रावस्ती में उसने अनेक स्मारक तथा भिक्षु देखे। श्रावस्ती स्थित ’जेतवान विहार’ की वह अत्यधिक प्रशंसा करता है। यहाँ कई पुण्यशालाये थी जही यात्रियो एवं भिक्षुओ को निःशुल्क भोजन दिया जाता था। फाहियान ने कपिलवस्तु नगर को उजड़ा हुआ पाया। उसने लुम्बिनी, रामग्राम तथा वैशाली की भी यात्रा की। गंगा नदी पार कर उसने पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। पाटिलपुत्र में संस्कृत के अध्ययन हेतु उसने 3 वर्ष व्यतीत किये। फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। पाटलिपुत्र में फाहियान ने अशोक का राजमहल देखा था। इसकी भव्यता से वह प्रभावित होकर लिखता है – इसका निर्माण दैत्यो द्वारा किया गया था। यहाँ हीनयानियों तथा महायानियो के अलग-अलग मठ थे। मगध देश का वर्णन करते हुये फाहियान लिखता है कि यहाँ सर्वाधिक नगर थे। लोग सुखी एवं समृद्ध थे तथा धर्म एवं कर्तव्य-पालन में परस्पर स्पर्धा रखते थे। धनपतियों ने यहाँ चिकित्सालय बनवाये थे जहाँ रोगियों को मुफ्त भोजन तथा दवायें दी जाती थी। इसके बाद फाहियान ने नालन्दा, राजगृह तथा बोधगया की यात्रा की और अनेक पवित्र स्तूपो एवं ताम्र विहारो के दर्शन किये। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र लौटा तथा वहाँ से चलकर वाराणसी पहुँचा जहाँ उसने सारनाथ स्थित मृगवन (DeerForest) तथा दो विहार देखे। इनमें अनेक भिक्षु निवास करते थे। यहाँ से वह पुनः पाटलिपुत्र वापस लौट गया।
पाटलिपुत्र से फाहियान ने अपनी वापसी यात्रा प्रारम्भ किया। चम्पा होता हुआ वह तामलुक (ताम्रलिप्ति) पहुँचा जहाँ एक बन्दरगाह था। यहाँ 24 विहार थे। तामलुक में दो वर्षों तक रहकर फाहियान ने बौद्ध सूत्रों की प्रतिलिपियाँ तैयार की तथा बौद्ध प्रतिमाओं के चित्र बनाये। तत्पश्चात् लंका तथा पूर्वी द्वीपों से होता हुआ वह स्वदेश लौट गया।
फाहियान ने भारत में रहकर विभिन्न स्थानों का भ्रमण किया। वह एक बौद्ध था तथा उसने प्रत्येक वस्तु को बौद्ध की दृष्टि से ही देखा। अपनी पूरी यात्रा-विवरण मे वह कहीं भी सम्राट का नामोल्लेख नहीं करता। फिर भी फाहियान के विवरण से चन्द्रगुप्तकालीन शान्ति, सुव्यवस्था, समृद्धि एवं सहिष्णुता आदि की स्पष्ट सूचनायें प्राप्त हो जाती है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची :
- इण्डियन हिस्टोरिकल क्वार्टर्ली, भाग-3, पृ0सं0- 719
- जर्नल ऑफ द रायल एशियाटिक सोसायटी, 1914 पृ0सं0- 324
- मजूमदार और अल्तेकर, वाकाटक गुप्त एज, पृ0सं0- 169, 218
- आर0 के0 प्रुथी, क्लासिकल एज, पृ0सं0- 16
- के0सी0श्रीवास्तव, प्राचीन भारत का इतिहास और संस्कृति, पृ0सं0- 430 435
- राधाकुमुद मुखर्जी, द गुप्त अम्पायर, पृ0सं0- 44-66
- अल्तेकर, द क्वायनेज ऑफ द गुप्त अम्पायर, पृ0सं0- 90-132
- गंगा प्रसाद मेहता, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, इलाहाबाद, 1932
डूबते को बचाते हैंआप,
ReplyDeleteज्ञान की गंगा बहाते हैं,
मुश्किलें चाहे कितनी भी आए,
जीने की राह मुझे सिखलाते,दिखलाते हैं आप।
🙏🙏🙏🙏
मुझे सपने दिखाने से लेकर उन्हें साकार करने की हिम्मत देने के लिए आपका बहुत बहुत आभार गुरुजी। 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏