विषय-प्रवेश (Introduction) –
चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् उसका सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त गुप्त साम्राज्य की राजगद्दी पर बैठा। समुद्रगुप्त न केवल गुप्त वंश के बल्कि सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम शासको में गिना जाता है। सम्राट समुद्रगुप्त के पिता का नाम चंद्रगुप्त प्रथम तथा माता का नाम कुमार देवी था। एक मत के अनुसार, समुद्रगुप्त का पुराना नाम “कचा” था परंतु, अपने राज्य को समुद्र तक फैलाने के बाद उसने अपना नाम “समुद्र” रखा। एक महान शासक होने के साथ-साथ समुद्रगुप्त एक उदार शासक, वीर योद्धा तथा कला का महान संरक्षक था। समुद्रगुप्त के कई अग्रज भाई थे, फिर भी उनके पिता ने समुद्रगुप्त की प्रतिभा को देख कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। इसलिए कुछ इतिहासकारों का मानना है कि चंद्रगुप्त की मृत्यु के बाद, उत्तराधिकार के लिये संघर्ष हुआ जिसमें समुद्रगुप्त एक प्रबल दावेदार बन कर उभरा और सभी प्रतिद्वन्दियो को पराजित कर सत्ता पर अधिकार करने में उसने सफलता प्राप्त की। इसके पश्चात समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए संघर्ष प्रारम्भ किया। एक लम्बे समय बाद समस्त भारतवर्ष पर एकाधिकार क़ायम कर भारत को राजनीतिक एकता के सूत्र में बॉधने में उसने सफलता पाई। एक प्रकार से उसका शासनकाल भारत के लिये स्वर्णयुग की शुरूआत कहा जाता है। उसके अनगिनत विजय अभियानों के कारण ही विन्सेण्ट स्मिथ जैसे इतिहासकार ने उसे ‘‘भारत का नेपोलियन‘‘ कहा है। निःसन्देह उसका काल राजनैतिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जा सकता है।
अध्ययन के स्रोत (Source of Study) –
- गरुड़ प्रकार- इसके मुख भाग पर अलंकृत वेष-भूषा में राजा की आकृति, गरुड़ध्वज; उसका नाम तथा मुद्रालेख ’सैकड़ों युद्धों को जीतने तथा रिपुओं का मर्दन करने वाला अजेय राजा स्वर्ग को जीतता है, (समरशत विततविजयोजितरिपुरजितो दिवं जयति) उत्कीर्ण मिलता है। पृष्ठ भाग पर सिंहासनासीन देवी के साथ-साथ ’पराक्रमः’ अंकित है। इस प्रकार के सिक्के नागवंशी राजाओं के ऊपर उसकी विजय के संकेत देते हैं।
- धनुर्धारी प्रकार- इनके मुख भाग पर सम्राट् धनुष-बाण लिये हुये खड़ा है तथा मुद्रालेख ’अजेय राजा पथ्वी को जीतकर उत्तम कर्मों द्वारा स्वर्ग को जीतता है’ (अप्रतिरथो विजित्य क्षितिं सुचरितैः दिव जयति) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ उसकी उपाधि ’अप्रतिरथः’ अंकित है।
- परशु प्रकार- मुख भाग पर बायें हाथ में परशु धारण किये हुये राजा का चित्र तथा मुद्रालेख ’कृतान्त परशु राजा राजाओं का विजेता तथा अजेय है‘ (कृतान्तपरशुर्जयतयजित राजजेताजितः) उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर देवी की आकृति तथा उसकी उपाधि ’कृतान्त. परशु’ अंकित है।
- अश्वमेध प्रकार- ये सिक्के समुद्रगुप्त द्वारा अश्वमेध यज्ञ किये जाने प्रमाण है। इनके मुख भाग पर यज्ञ यूप में बँधे हुये घोड़े का चित्र तथा ’राजाधिराज पृथ्वी को जीतकर तथा अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान कर स्वर्गलोक की विजय करता है’ (राजाधिराजो पृथ्वी विजित्यं दिवं जयत्या गृहीतवाजिमेधः)“ उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर राजमहिषी (दत्तदेवी) की आकृति के साथ-साथ ’अश्वमेघ पराक्रमः’ अंकित है।
- व्याघ्रहनन प्रकार- मुख भाग पर धनुष बाण से व्याघ्र का आखेट कर हुये राजा की आकृति तथा उसकी उपाधि ’व्याघ्रपराक्रमः’ अंकित है। पृष्ठ भाग पर मकरवाहिनी गंगा की आकृति के साथ-साथ ’राजा समुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। इस प्रकार के सिक्को से जहाँ एक ओर. उसका आखेट-प्रेम सूचित होता है, वही दूसरी ओर गंगा-घाटी की विजय भी इंगित होती है। .
- वीणावादन प्रकार- मुख भाग पर वीणा बजाते हुये राजा की आकृति तथा मुद्रालेख “महाराजाधिराजश्रीसमुद्रगुप्तः’ उत्कीर्ण है। पृष्ठ भाग पर हाथ में कार्नकोपिया लिये हुये लक्ष्मी की आकृति अंकित है। इस प्रकार के सिक्को से उसका संगीत-प्रेम सूचित होता है।
राज्यारोहण (Ascension)-
प्रयाग प्रशस्ति के चतुर्थ श्लोक में चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त के उत्तराधिकारी चुने जाने का विवरण सुरक्षित है। इसके अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने अपना उत्तराधिकारी चुनने के लिये अपने सभासदो की एक सभा बुलाई। वह समुद्रगुप्त के गुणां पर इतना अधिक मुग्ध था कि भरी सभा में उसने उसे गले से लगाते हुये यह घोषणा की कि- ’आर्य, तुम योग्य हो, पृथ्वी का पालन करो।’ प्रशस्तिकार ने आगे लिखा है कि जहाँ इस घोषणा से चन्द्रगुप्त के दरबारी प्रसन्न हए वही अन्य राजकुमार दुःखी हो गये। इस विवरण के आधार पर कुछ विद्वानो ने ऐसा. विचार व्यक्त किया है कि समुद्रगुप्त के अन्य भाइयों ने उसके निर्वाचन का विरोध किया तथा समुद्रगुप्त को उनके साथ उत्तराधिकार का एक युद्ध लड़ना पड़ा जिसका नेतृत्व काच नामक व्यक्ति ने किया। इस ’काच’ नामक राजा के समीकरण के विषय में मतभेद है। डी० आर० भण्डारकर इसे रामगुप्त के साथ समीकृत करते है किन्तु हमें ज्ञात है कि रामगुप्त एक निर्बल शासक था। कुछ अन्य विद्वान इसका तादात्म चन्द्रगुप्त के बडे पुत्र से जोडते है और उनका मानना है कि समुद्रगुप्त ने अपने बड़े भाई की हत्या कर राजगद्दी हथिया ली। परन्तु उत्तराधिकार के इस युद्ध का समर्थन किसी भी प्रमाण से नहीं होता। हमें ज्ञात होता है कि चन्द्रगुप्त ने स्वयं समुद्रगुप्त के पक्ष में अपना राजसिंहासन त्याग दिया था। एलन महोदय ने यह मत रखा है कि ’काच’ वस्तुतः समुद्रगुप्त का मौलिक नाम था किन्तु बाद में अपना अधिकार क्षेत्र समुद्रतट तक विस्तृत कर लेने के बाद उसने अपना नाम समुद्रगुप्त रख लिया। जो भी हो, युद्ध के विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कर सकते। वास्तविकता जो भी हो, इतना तो स्पष्ट ही है कि यदि कोई युद्ध हुआ भी हो तो समुद्रगुप्त उसमें पूर्णतया सफल रहा और उसने अपने पराक्रम के बल पर सभी विद्रोहियों को शान्त कर अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।
युद्ध और विजयें (Wars and victories)-
आर्यावर्त का प्रथम युद्ध- अपनी दिग्विजय की शुरूआती प्रक्रिया में समुद्रगुप्त में सर्वप्रथम उत्तर भारत में एक छोटा-सा युद्ध किया जिसमें उसने तीन शक्तियों को पराजित किया। इसका उल्लेख प्रशस्ति की तेरहवीं-चौदहवीं पंक्तियों में मिलता है। इन तीन शक्तियों के नाम क्रमशः अच्युत, नागसेन और कोतकुलज है। अच्युत संभवतः नागवंशी राजा था जो अहिच्छत्र में शासन करता था। इस स्थान की पहचान बरेली (उ0 प्र0) में स्थित रामनगर नामक स्थान से की जाती है जहाँ से ’अच्यु’ नामांकित कुछ सिक्के प्राप्त हुये हैं। नागसेन एक नागवंशी राजा था जो पद्मावती (ग्वालियर जिले में स्थित पद्मपवैया) में शासन करता था। कोतकुलज नामक तीसरी शक्ति के शासक का नाम नहीं मिलता, बल्कि यह कहा गया है कि वह कोत वंश में उत्पन्न हुआ था। यह बताया गया है कि जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र में खुशियाँ मना रहा था, उसकी सेना ने उसे वन्दी बना लिया। दिल्ली तथा पूर्वी पंजाब से कोत नामधारी सिक्के भी मिलते हैं। लगता है वह इन्हीं भागों का शासक था।
दक्षिणापथ का युद्ध- समुद्रगुप्त के शासनकाल का दूसरा महत्वपूर्ण सैन्य अभियान दक्षिणापथ के युद्ध के नाम से विख्यात है। ’दक्षिणापथ’ से तात्पर्य उत्तर में विन्ध्य पर्वत से लेकर दक्षिण में कृष्णा तथा तुंगभद्रा नदियों के बीच के प्रदेश से है। सुदूर दक्षिण के तमिल राज्य इसकी परिधि से बाहर थे। महाभारत में विदर्भ तथा कोशल के दक्षिण में स्थित प्रदेश को दक्षिणापथ की संज्ञा प्रदान की गयी है। गंगा घाटी के मैदानों तथा दोआब के प्रदेश की विजय के पश्चात् समुद्रगुप्त दक्षिणी भारत की विजय के लिये निकल पड़ा। प्रशस्ति की उन्नीसवी तथा बीसवीं पंक्तियों में दक्षिणापथ के बारह राज्यों तथा उनके राजाओं के नाम मिलते हैं। इन राज्यों को पहले तो समुद्रगुप्त ने जीता किन्तु फिर कृपा करके उन्हें स्वतन्त्र कर दिया। उसकी इस नीति को हम धर्म-विजयी राजा की नीति कह सकते है। ऐसा प्रतीत होता है कि वह उनसे भेंट-उपहारादि प्राप्त करके ही संतुष्ट हो गया। इसी लेख में एक अन्य स्थान पर वर्णित है कि ’उन्मूलित राजवंशों को पुनः प्रतिष्ठित करने के कारण उसकी कीर्ति सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त हो रही थी’। यहाँ उन्मूलित राजवंशों से तात्पर्य दक्षिणापथ के राजाओं से ही है। इन राज्यों के नाम इस प्रकार मिलते हैं –
- कोसल का राजा महेन्द्र,
- महाकान्तार का राजा व्याघ्रराज,
- कौराल का राजा मण्टराज,
- पिष्टपुर का राजा महेन्द्रगिरि,
- कोटूर का राजा स्वामीदत्त,
- एरण्डपल्ल का राजा दमन,
- कॉंची का राजा विष्णुगोप,
- अवमुक्त का राजा नीलराज,
- वेङ्गी का राजा हस्तिवर्मा,
- पालक्क का राजा उग्रसेन,
- देवराष्ट्र का राजा कुबेर,
- कुस्थलपुर का राजा घनन्जय ।
उपर्यक्त राज्यों में कोसल से तात्पर्य दक्षिणी कोसल से है जिसके अन्तर्गत आधुनिक रायपुर, विलासपुर (म0प्र0) तथा सम्भलपुर (उड़ीसा) के जिले आते हैं। महाकान्तार सम्भवतः उड़ीसा स्थित जयपुर का वनप्रदेश था जिसे ’महावन’ भी कहा गया है। बार्नेट तथा रायचौधरी ने कौराल की पहचान दक्षिण भारत के कोराड़ नामक ग्राम से किया है। पिष्टपुर, आन्ध्र के गोदावरी जिले का पिठारपुरम् है। कोटूर संभवतः उड़ीसा के गंजाम जिले में स्थित ’कोठूर’ नामक स्थान था। एरण्डपल्ल की पहचान आन्ध्र के विशाखापट्टनम् जिले में स्थित इसी नाम के स्थान से की जाती है। कॉं्ची, मद्रास स्थित कॉंचीवरम् है तथा विष्णुगोप संभवतः पल्लववंशी राजा था। अवमुक्त की पहचान संदिग्ध है। संभवतः यह कॉंचीवरम् के पास ही कोई नगर रहा होगा। वेङ्गी, कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित नेल्लोर के उत्तर में ’पेड्डवेगी’ नामक स्थान है तथा हस्तिवर्मा सालंकायनवंशी राजा था। पालक्क, नेल्लोर (तमिलनाडु) जिले का पालक्कड नामक स्थान है तथा देवराष्ट्र की पहचान इतिहासकार डूबील ने आधुनिक आन्ध्र प्रदेश के विजगापट्टम (विशाखापट्टनम्) जिले में स्थित एलमंचिली नामक परगना के साथ की है। कुस्थलपुर की पहचान बार्नेट ने उत्तरी आर्काट में पोलूर के समीप स्थित कुट्टलपुर से की है।
उसने पश्चिमी दकन के वाकाटक राज्य पर आक्रमण तो नहीं किया किन्तु फिर भी उसने मध्य भारत में वाकाटको के अधिकार को समाप्त कर दिया। यहाँ वाकाटकों के सामन्त शासन करते थे। इस समय यहाँ वाकाटक नरेश पृथ्वीसेन का सामन्त व्याघ्रदेव शासन करता था। यह प्रयाग प्रशस्ति का व्याघ्रराज है जिसे समुद्रगुप्त ने अपने दक्षिणापथ अभियान में पराजित किया था। एरण का लेख भी मध्य भारत के ऊपर समुद्रगुप्त का अधिकार प्रमाणित करता है। इस विजय ने मध्य भारत में वाकाटको के स्थान पर गुप्तो की सत्ता कायम कर दिया तथा इसके बाद वाकाटक राज्य पश्चिमी दकन में सीमित हो गया। अतः ऐसा लगता है कि वह जिस मार्ग से अभियान पर गया उसी मार्ग से वापस भी लौट आया।उसने सुदूर दक्षिण में अपनी विजय पताका फहरा दी परन्तु दक्षिण के राज्यों को उसने अपने प्रत्यक्ष शासन में लाने की चेष्टा नहीं की। यह उसकी महान् दूरदर्शिता थी। ये राज्य उसकी राजधानी से दूर पड़ते थे तथा तत्कालीन आवागमन की कठिनाइयों के कारण उन्हें प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखना कठिन था। अतः समुद्रगुप्त ने बुद्धिमानी की कि उसने इन राज्यों को स्वतन्त्र कर दिया तथा उन्होंने उसे अपना सम्राट मान लिया। संभव है उसके दक्षिणापथ अभियान का उद्देश्य आर्थिक ही रहा हो। समुद्री व्यापार के द्वारा दक्षिण के राज्यों ने प्रभूत सम्पत्ति अर्जित कर रखी थी। ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में कलिंग के शासक खारवेल ने भी पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण कर वहाँ के शासक से मुक्तिमणियों का उपहार प्राप्त किया था। मध्यकाल के अनेक लेखको तथा यात्रियों ने दक्षिणी राज्यों की विपुल सम्पत्ति का उल्लेख किया है। अतः यह अनुमान लगाना स्वाभाविक है कि समुद्रगुप्त को दक्षिणी भारत के अभियान में बहुत अधिक धन, उपहार अथवा लूट में प्राप्त हुआ होगा।आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध- दक्षिणापथ के अभियान से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में पुनः एक युद्ध किया जिसे ’आर्यावर्त का द्वितीय युद्ध’ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रथम युद्ध में उसने उत्तर भारत के राजाओं को केवल परास्त ही किया था, उनका उन्मूलन नहीं। राजधानी में उसकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर उत्तर भारत के शासकों ने पुनः स्वतन्त्र होने का चेष्टा की। अतः दक्षिण की विजय से वापस लौटने के बाद समुद्रगुप्त ने उन्हे पूर्णतया उखाड़ फेंका। इस नीति को प्रशस्ति में ’प्रसभोद्धरण’ कहा गया है। समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
प्रयाग प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं – उददेव, मत्तिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि, बलवर्मा का वर्णन हुआ है लेकिन उल्लेखनीय है कि यहाँ उनके राज्यों के नाम नहीं दिये गये है। इस आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश के एक भाग पर अपना अधिकार सुदृढ़ कर लिया।आटविक राज्यों की विजय- प्रशस्ति की 21वीं पंक्ति में ही आटविक राज्यो की भी चर्चा हुई है। इनके विषय में यह बताया गया है कि समद्रगुप्त ने ’सभी आटविक राज्यों को अपना सेवक बना लिया’। फ्लीट के मतानुसार उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले से लेकर मध्यप्रदेश के जबलपुर जिले तक के वन-प्रदेश में ये सभी राज्य फैले हुये थे। उत्तर तथा दक्षिण भारत के बीच के आवागमन को सुरक्षित रखने के लिये उन्हें नियन्त्रण में रखना. आवश्यक था। लगता है कि जब समुद्रगुप्त दक्षिणी अभियान पर जा रहा था, इन राज्यों ने उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया होगा। अतः उसने उन्हें जीतकर पूर्णतया अपने नियन्त्रण में कर लिया।
सीमावर्ती राज्यों की विजय- प्रयाग प्रशस्ति की 22वी पंक्ति में प्रत्यन्त राज्यों की एक लम्बी सूची मिलती है जो समुद्रगुप्त की पूर्वी, उत्तरी-पूर्वी तथा पश्चिमी सीमाओं पर स्थित थे। इनके विषय में यह कहा गया है कि वे समुद्रगुप्त को ’सभी प्रकार के करों को देते थे, उसकी आज्ञाओं का पालन करते थे तथा उसे प्रणाम करने के लिये (राजधानी में) उपस्थित होते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के पराक्रम से भयभीत होकर इन राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया था। उत्तरी तथा उत्तरी-पूर्वी सीमा पर स्थित इन राजतंत्रीय राज्यों की संख्या पाँच है – समतट, डवाक, कामरूप, कर्तृपुर और नेपाल।
इनमें समतट से तात्पर्य पर्वी बंगाल (आधुनिक बंगला देश) के समुद्र तटवर्ती प्रदेश से है। डवाक की पहचान असम के नौगाँव जिले में स्थित ’डबोक’ नामक स्थान से की जाती है। कामरूप आधुनिक असम का केन्द्रीय भाग था। कर्तृपुर की पहचान जालन्धर स्थित कारपर से की जाती है। एक मत के अनुसार इसके अन्तर्गत कुमाउँ, गढ़वाल तथा रुहेलखण्ड का प्राचीन कतूरियाराज प्रदेश भी आता था। नेपाल से तात्पर्य आधुनिक नेपाल राज्य से है। प्राचीन नेपाल गण्डक तथा कासी नदियों के बीच स्थित था। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, गुप्तों के समय में यहाँ लिच्छवियों का राज्य था।पूर्वी राज्यों, विशेष रूप से बंगाल पर अधिकार हो जाने से, समुद्रगुप्त को बगाल के समृद्ध बन्दरगाहो पर नियन्त्रण प्राप्त हो गया होगा। यहाँ का प्रसिद्ध वन्दरगाह ताम्रलिप्ति था जहाँ से मालवाहक जहाज मलय प्रायद्वीप, लंका, चीन तथा पूर्वी द्वीपो को नियमित रूप से जाया करते थे। यह स्थल बंगाल तथा भारत के अन्य नगरों से जुडा हआ था। अतः कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त के इस भाग पर अधिकार हो जाने से गुप्त सामाज्य की समृद्धि में इसने महत्वपूर्ण योगदान दिया होगा।सीमावर्ती राज्यो की दूसरी कोटि में नौ गणराज्य है जो पंजाब, राजस्थान तथा मध्य प्रदेश के विभिन्न भागों में फैले हुये थे। ये समुद्रगुप्त के साम्राज्य की पश्चिमी तथा उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित थे जिसके नाम इस प्रकार मिलते है –
(1) मालव, (2) अर्जुनायन, (3) यौधेय, (4) मद्रक, (5) आभीर, (6) प्रार्जुन (7) सनकानीक, (8) काक, (9) खरपरिक।इनमे मालव लोग गुप्तो के समय में मन्दसोर (प्राचीन दशपुर) में राज्य कर थे। अर्जुनायनों का राज्य आगरा-जयपुर क्षेत्र में था। यौधेय गणराज्य सतलज नदी के दोनो किनारो की भमि, जिसे ’जोहियाबार’ कहा जाता है, में स्थित था। मद्रक लोग रावी तथा चिनाब नदियों के बीच की भूमि में शासन करते थे। उनकी राजधानी शाकल (स्यालकोट) में थी। प्रार्जुन गणराज्य सम्भवतः मध्य प्रदेश के नरसिहपुर जिले में स्थित था। सनकानीक भिलसा के आस-पास शासन करते थे। यही से बीस मील उत्तर में स्थित काकपुर नामक स्थान में काक गणराज्य था तथा खरपरिक लोग दमोह (म०प्र०) के शासक थे।
विदेशी शक्तियाँ- प्रशस्ति की 23-24वीं पंक्तियों में कुछ विदेशी शक्तियो के नाम दिये गये हैं जिनके विषय में यह बताया गया है कि वे ’स्वयं को सम्राट की सेवा में उपस्थित करना, कन्याओं के उपहार एवं अपने-अपने राज्यो में शासन करने के निमित्त गरुड़ मुद्रा से अंकित राजाज्ञा के लिये प्रार्थना करना आदि विविध उपायों द्वारा उसकी सेवा’ किया करती थी। इन शक्तियों में सबसे प्रमुख कुषाण, शक्, मुरूण्ड और सिंहल थे।कुषाण गुप्तो के समय पश्चिमी पंजाब में निवास करते थे तथा समुद्रगुप्त का समकालीन कुषाण नरेश किदार कुषाण था जो पेशावर क्षेत्र का राजा था। पहले वह ससानी नरेश शापुर द्वितीय की अधीनता में था किन्तु बाद में समुद्रगुप्त की सहायता पाकर उसने अपने को स्वतन्त्र कर दिया। शक लोग गुप्तों के समय में पश्चिमी मालवा, गुजरात तथा काठियावाद के शासक थे। समुद्रगुप्त का समकालीन शासक रुद्रसिंह तृतीय था। टालमी के भूगोल से पता चलता है कि पूर्वी भारत में मुरुण्डों का शक्तिशाली राज्य था। उनके अनुसार मुरुण्ड राज्य विशाल नदी (गंगा) के मुहाने से लगभग 1200 मील की दूरी पर स्थित था। इस स्थान से तात्पर्य कन्नौज से हो सकता है। जैन साहित्य में भी मुरुण्डों का उल्लेख मिलता है। सिंहल का तात्पर्य लंकाद्वीप से है। समुद्रगुप्त का समकालीन लका-नरेश मेघवर्ण था। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि उसने समुद्रगुप्त के पास उपहारों सहित एक दूत-मण्डल भेजा था। गुप्तनरेश की आज्ञा से उसने बोधिवृक्ष के उत्तर में लंका के बौद्ध भिक्षुओं के लिये एक भव्य विहार बनवाया था।सिंहल के अतिरिक्त कुछ और भी द्वीपों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार कर ली थी क्योंकि प्रशस्ति में सिंहल के. बाद ’आदि सर्वद्वीपवासिभिः’ उल्लिखित मिलता है। इसका संकेत दक्षिण-पूर्वी एशिया के द्वीपों से है। यहाँ से हिन्दू उपनिवेशों के शासक इस समय अपनी मातृभूमि से सम्बन्ध बनाये हुये थे। जावा से प्राप्त तन्त्रीकामन्दक नामक ग्रन्थ में ऐश्वर्यपाल नामक राजा का उल्लेख हुआ है जो अपने को समुद्रगुप्त का वंशज कहता है। गद्यपि हमें यह ज्ञात नहीं है कि उपर्युक्त शक्तियों के साथ समुद्रगुप्त का कोई युद्ध हुआ अथवा उसका सम्बन्ध मात्र कूटनीतिज्ञ ही था तथापि यह स्पष्ट है कि शकों तथा कुषाणों ने उसकी अधीनता मानी थी। कुछ कुषाण मुद्राओं पर ’समुद्र तथा ’चन्द्र’ नाम अंकित है तथा शको के कुछ सिक्के भी गुप्त प्रकार के है। इनसे शको तथा कुषाणों पर गुप्त शासको का प्रभाव स्पष्टतः सिद्ध होता है।अश्वमेध यज्ञ- अपनी विजयों से निवृत्त होने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान प्रशस्ति लिखे जाने के बाद हुआ और इसी कारण उसमें इसका उल्लेख नहीं मिलता। बाद के शासक स्कन्दगुप्त के भितरी लेख में ’समुद्रगुप्त को चिर काल से छोड़े गये अश्वमेघ को करने वाला’ (चिरोत्सन्नाश्वमेघहतः) कहा गया है परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह उल्लेख अतिरंजित है। गुप्तो के पूर्व पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये थे। समुद्रगुप्त के ’अश्वमेघ’ प्रकार के सिक्के उसके द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किये जाने के प्रमाण है। इनके मुख भाग पर यज्ञ-यूप में बॅंधे हुये अश्व की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर मुद्रालेख ’अश्वमेघ-पराक्रमः’ (अश्वमेघ ही जिसका पराक्रम है) उत्कीर्ण मिलता है। प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्रलेख में समुद्रगुप्त को ‘अनेक अश्वमेघ यज्ञों को करने वाला‘ कहा गया है।
साम्राज्य तथा शासन –
सान्धिविग्रहिक- यह सन्धि तथा युद्ध का मन्त्री होता था। इसके अधीन वैदेशिक विभाग होता. था। समुद्रगुप्त का सान्धिविग्रहिक हरिषेण था जिसने ‘‘प्रयाग-प्रशस्ति‘‘ की रचना की।
कुमारामात्य- अल्टेकर. महोदय के अनुसार आधुनिक भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service) के पदाधिकारियों की भाँति ही कुमारामात्य उच्च श्रेणी के पदाधिकारी होते थे। वे अपनी योग्यता के बल पर उच्च से उच्च पद पर पहुँच सकते थे। यही कारण है कि गुप्त लेखों मे विषयपति, राज्यपाल, सेनापति, मंत्री आदि सभी को ’कुमारामात्य’ कहा गया है। गुप्त प्रशासन में यह पद अत्यन्त महत्वपूर्ण था।
समुद्रगुप्त की शासन-व्यवस्था के विषय में हमें बहुत कम ज्ञात है। ऐसा प्रतीत होता है कि निरन्तर यद्धों में व्यस्त होने के कारण उसे शासन व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करने का अवकाश नहीं मिला था। प्रयाग प्रशस्ति में उल्लिखित ’भुक्ति’ तथ ’विषय’ शब्दों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि उसने अपने साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों तथा जिलो में किया होगा। किन्तु उसी संख्या और पदाधिकारियों के विषय में कुछ भी ज्ञात नहीं है।
मूल्याङ्कन (Conclusion) –
समुद्रगुप्त युद्ध-क्षेत्र में जितना स्फूर्तिवान् था, शान्ति के समय में उससे कहीं अधिक कर्मठ भी था। वह स्वयं उच्चकोटि का विद्वान् तथा विद्या का उदार संरक्षक भी था। दुर्भाग्यवश हमें उसकी किसी भी रचना के विषय में ज्ञात नही है। वह महान् संगीतज्ञ था जिसे वीणावादन का बड़ा शौक था। अपने कुछ सिक्कों पर वह वीणा बजाते हुये दिखाया गया है। प्रयाग-प्रशस्ति में कहा गया है कि ’गान्धर्व विद्या में प्रवीणता के कारण उसने देवताओं के स्वामी (इन्द्र) के आचार्यः (कश्यप), तुम्बुरु, नारद आदि को भी लज्जित कर दिया था’। बौद्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि कोई गुप्त सम्राट विद्या का उदार संरक्षक था और उसने प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु को अपना मंत्री नियुक्त किया था। वामन के ’काव्यालंकारसूत्र’ से भी इसकी पुष्टि होती है जिसमें समुद्रगुप्त का एक नाम चन्द्रप्रकाश मिलता है। वसुबन्धु का काल चतुर्थ शती ईस्वी माना जाता है। अतः उसका संरक्षक समुद्रगुप्त ही था। इससे उसका विद्यानुराग सूचित होता है। समुद्रगुप्त एक उदार तथा दानशील शासक था। वह सज्जनों के लिये उदय तथा दुर्जनों के लिये प्रलय के तुल्य था। असहायों एवं अनाथों को उसने आश्रय दिया था। प्रयाग-प्रशस्ति में कहा गया है कि उसकी उदारता के फलस्वरूप ’श्रेष्ठकाव्य (सरस्वती) तथा लक्ष्मी का शाश्वत् विरोध सदा के लिये समाप्त हो गया था’। वह विविध शास्त्रों का ज्ञाता भी था।