window.location = "http://www.yoururl.com"; Gupta Dynasty: Early History | गुप्त राजवंश : प्रारंभिक इतिहास

Gupta Dynasty: Early History | गुप्त राजवंश : प्रारंभिक इतिहास

Introduction (विषय-प्रवेश) :

प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से सबसे प्रभावशाली और शक्तिशाली राजवंश गुप्त राजवंश था। गुप्त सम्राटों का शासन-काल प्राचीन भारतीय इतिहास के उस युग का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई तथा हिन्दू संस्कृति अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गयी। गुप्तकाल की चहुमुखी प्रगति को ध्यान में रखकर ही इतिहासकारों ने इस काल को ‘स्वर्ण-युग’ की संज्ञा से अभिहित किया है। इसी काल को ‘क्लासिकल युग’ अथवा ‘भारत का पेरीक्लीन युग’ आदि नामों से भी जाना गया है। निश्चयतः यह काल अपने प्रतापी राजाओं तथा अपनी सर्वोत्कृष्ट संस्कृति के कारण भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण के समान प्रकाशित है ।
कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने इस काल को भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान का काल माना है परन्तु इस प्रकार का विचार भ्रामक लगता है क्योंकि इस स्थिति में हमें यह स्वीकार करना पड़ेगा कि गुप्त-काल के पूर्व कोई ऐसा युग था जिसमें भारतीय संस्कृति के तत्व पूर्णतया विलुप्त हो गये थे जो सर्वथा अस्वाभाविक बात होगी। हमें ज्ञात है कि चिरस्थायित्व एवं निरन्तरता हमारी संस्कृति की प्रमुख विशेषतायें हैं। भारतीय संस्कृति के विकास की धारा अबाध गति से प्रवाहित होती रही तथा कभी भी इसके तत्व विलुप्त नहीं हुए। गुप्त-काल में आकर विकास की यह धारा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गयी तथा यह उन्नति बाद की शताब्दियों के लिये मानदण्ड बन गयी। अतः हम गुप्तकाल को भारतीय संस्कृति के चरमोत्कर्ष का काल मान सकते हैं, न कि पुनरुत्थान का।

वस्तुतः मौर्य वंश के पतन के बाद लम्बे समय तक भारत में राजनीतिक एकता का अभाव रहा। कुषाण एवं सातवाहनों ने राजनीतिक एकता लाने का भरसक प्रयास किया। कुषाण साम्राज्य के विघटन के पश्चात् जिस विकेन्द्रीकरण के युग का प्रारम्भ हुआ वह चतुर्थ शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ तक चलता रहा। पश्चिमी पंजाब में यद्यपि कुषाण वंश का शासन था तथापि पूर्व की ओर उसका कोई प्रभाव नहीं था। गुजरात तथा मालवा के पश्चिमी भाग में शक अभी सक्रिय थे, परन्तु उनकी शक्ति का उत्तरोत्तर ह््रास होता जा रहा था। उत्तरी भारत के शेष भू-भाग में इस समय अनेक राज्यों एवं गणराज्यों का शासन था। सामान्यतः यह काल अराजकता, अव्यवस्था एवं दुर्बलता का काल था। देश में कोई ऐसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति नहीं थी जो विभिन्न छोटे-बड़े राज्यों को विजित कर एकछत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना कर सकती। यह काल किसी महान् सेनानायक की महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये सर्वाधिक सुनहला अवसर प्रस्तुत कर रहा था फलस्वरूप मगध के गुप्त राजवंश में ऐसे महान् सेनानायकों का उदय हुआ इस प्रकार मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को भारत में पुनः स्थापित करने का श्रेय गुप्त राजवंश के शासकों को जाता है।

अध्ययन के स्रोत :

गुप्त राजवंश का इतिहास हमें साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों ही प्रमाणों से प्राप्त होता है। साहित्यिक स्रोतों में पुराण सर्वप्रथम है जिससे गुप्तवंश के प्रारंभिक इतिहास का कुछ ज्ञान प्राप्त होता है। विशाखदत्त कृत ‘देवीचन्द्रगुप्तम‘ नाटक से गुप्तवंशीय नरेश रामगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के विषय में कुछ सूचना मिलती है। शूद्रक कृत मृच्छकटिक‘ तथा वात्स्यायन कृत ‘कामसूत्र‘ से भी गुप्तकालीन शासन व्यवस्था और नगर जीवन के विषय में सामग्री मिल जाती है। भारतीय साहित्य के अतिरिक्त फाह्यान जैसे चीनी यात्रियों का विवरण भी गुप्त इतिहास के पुनर्निमाण में सहायक है। ह्वेनसांग के यात्रा विवरण से बाद के गुप्त शासकों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त होती है। उसके विवरण से ही ज्ञात होता है कि कुमारगुप्त ने ही नालन्दा महाविहार की स्थापना करवायी थी।
साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त पुरातात्विक प्रमाणों से भी गुप्त राजवंश के इतिहास को जानने में सहायता मिलती है। समुद्रगुप्त का प्रयाग स्तम्भलेख समुद्रगुप्त के व्यक्तित्व पर व्यापक प्रकाश डालता है। भितरी स्तम्भ लेख से स्कन्दगुप्त के शासनकाल में हूणों के आक्रमण का विस्तृत व्योरा मिलता है। इसके अलावा और भी बहुत से अभिलेख है जो गुप्त काल के इतिहास पर प्रकाश डालते है। भारत के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त गुप्तकालीन सिक्के भी सम्बन्धित शासकों के व्यक्तित्व और शासन व्यवस्था पर प्रकाश डालता है। जैसे समुद्रगुप्त के अश्वमेघ प्रकार के सिक्के से उसके अश्वमेघ यज्ञ की सूचना तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय के व्याध्र-हनन प्रकार के सिक्के से उसकी पश्चिमी भारत के विजय की सूचना मिलती है। इन सिक्कों से हमें उस काल की आर्थिक स्थिती का भी पता चलता है। गुप्तकाल के अनेक मन्दिर, स्तम्भ, मूर्तियॉं, चैत्यगृह आदि प्राप्त होते है जिससे न केवल तात्कालीन कला तथा स्थापत्य की उत्कृष्टता सूचित होती है अपितु इनसे तात्कालीन सम्राटों एवं जनता के धार्मिक विश्वास को समझने में भी मदद मिलती है। अजन्ता और बाघ की गुफाओं के चित्रों सें भी गुप्तकालीन समाज की वेश-भूषा, श्रृंगार-प्रसाधन आदि को समझने में सहायता मिलती है। इस प्रकार साहित्य और पुरातत्व दोनों के माध्यम से हम गुप्तकालीन इतिहास का पुनर्निमाण कर सकते है।

गुप्तों की उत्पत्ति और मूल निवास स्थान :

यद्यपि गुप्त नरेशों के अनेक अभिलेख तथा सिक्के अनेक स्थानों से मिले है लेकिन फिर भी उनमें किसी से भी न तो उनके जाति के विषय में कोई संकेत मिलता है और न ही साहित्यिक साक्ष्यों से हमें इस विषय में कोई ठोस सामग्री उपलब्ध होती है जिसके कारण गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादास्पद प्रश्न रहा है।
गुप्त संभवतः कुषाणों के सामन्त थे और थोडे ही समय में उनके उत्तराधिकारी बन गये। वे अपनी सत्ता के केन्द्र प्रयाग को बनाकर पडोस के इलाकों में फेलते गये। गुप्त शासकों ने अपना आधिपत्य मध्य गंगा मैदान, प्रयाग, साकेत और मगध पर स्थापित किया। गुप्तों को शूद्र अथवा निम्न जाति से सम्बन्धित करने वाले इतिहासकारों में काशी प्रसाद जायसवाल का नाम सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार गुप्त सम्राट जाट और मूलतः पंजाब के निवासी थे। आर0 सी0 मजूमदार और गौरी शंकर ओझा जैसे विद्वान इन्हे क्षत्रिय तथा हेमचन्द्र राय चौधरी ने ब्राह्मण माना है। स्मृतियों में गुप्तों को वैश्य कहा गया है। इस प्रकार विभिन्न मतों की समीक्षा करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहॅुचते है कि गुप्तों की जाति का प्रश्न हमारे ज्ञान की वर्तमान अवस्था में असंदिग्ध रूप से हल नहीं किया जा सकता है। उत्पत्ति के ही समान गुप्तों के मूल निवास स्थान का प्रश्न भी बहुत कुछ अंशों में अनुमानात्मक ही है। चीनी यात्री इत्सिंग के यात्रा-विवरण के आधार पर आर0 सी0 मजूमदार जैसे इतिहासकार गुप्तों का मूल निवास स्थान बंगाल में निर्धारित करते है। पुराणों पर दृष्टिपात करने से पता चलता है कि गुप्तों का आदि सम्बन्ध मगध से था। मगध के साथ उनके मूल सम्बन्ध को ध्यान में रखकर ही पुराण उन्हे ‘मागध गुप्त‘ कहते है। एस0आर0 गोयल जैसे इतिहासकार ने गुप्तों की मूल भूमि का प्रश्न पुरातात्विक आधार पर हल करने का प्रयास करते हुये कहा है कि किसी भी वंश के लेख अथवा सिक्के प्रायः उसी स्थान से प्राप्त होते है जो उनका आदि निवास स्थान होता है। चूॅकि इस वंश के प्रारंभिक लेख तथा सिक्के पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही मिले है अतः उनका मूल निवास स्थान इसी क्षेत्र में रहा होगा। प्रयाग-प्रशस्ती के आधार पर भी यह कहा जा सकता है कि गुप्तों का मूल निवास स्थान इसी भाग में रहा होगा। किन्तु इस सन्दर्भ में कहा जा सकता है कि गुप्त वंश के प्रारंभिक काल का लेख इस भाग से प्राप्त नहीं होता है। इस प्रकार उत्पत्ति के ही समान गुप्तों के मूल निवास स्थान का प्रश्न भी स्पष्ट प्रमाणों के अभाव में विवाद का विषय बना हुआ है।

गुप्त राजवंश : प्रारंभिक इतिहास –

गुप्तकालीन अभिलेखों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुप्त राजवंश की स्थापना श्रीगुप्त द्वारा की गई। इन्होने लगभग 240 ई0 से 280 ई0 तक शासन किया और ‘महाराज‘ की उपाधि घारण की। हमें यह निश्चित रूप से पता नही है कि उनका नाम श्रीगुप्त था अथवा केवल गुप्त। उसका कोई भी लेख अथवा सिक्का नही मिलता। दो मुहरें जिनमें से एक के उपर संस्कृत तथा प्राकृत मिश्रित मुद्रालेख ‘गुप्तस्य‘ तथा दूसरे के उपर संस्कृत में ‘श्रीगुप्तस्य‘ अंकित है, उससे सम्बन्धित की जाती है। परन्तु इस सम्बन्ध में हम निश्चित रूप से कुछ भी नही कह सकते है।
गुप्तवंश का दूसरा शासक महाराज घटोत्कच हुआ जो श्रीगुप्त का पुत्र था। इसने लगभग 280 ई0 से 319 ई0 तक शासन किया। प्रभावती गुप्ता के पूना और रिद्धपुर ताम्रपत्रों में उसे ही गुप्त वंश का प्रथम शासक बताया गया है। इसी आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि घटोत्कच ही इस वंश का संस्थापक था। घटोत्कच के ही शासनकाल में सर्वप्रथम गुप्तों ने गंगाघाटी में राजनीतिक महत्ता प्राप्त की होगी। घटोत्कच के भी कोई लेख अथवा सिक्के नही मिलते है। इन दोनों शासकों की किसी भी उपलब्धि के बारे में हमें कोई जानकारी नही मिलती है। काशी प्रसाद जायसवाल का विचार है कि गुप्तों के पूर्व मगध पर लिच्छवियों का शासन था तथा प्रारंभिक गुप्त नरेश उन्ही के सामन्त थे। कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि वे शकों के सामन्त थे जो तृतीय शताब्दी में मगध के शासक थे। सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त प्रथम ने ही गुप्त वंश को शकों की अधीनता से मुक्त किया था। इस प्रकार इन विविध मतान्तरों के बीच यह निश्चित रूप से बता सकना कठिन है कि प्रारंभिक गुप्त नरेश किस सार्वभौमिक शक्ति की अधीनता स्वीकार करते थे। यह भी कहना मुश्किल है कि वे किसी के सामन्त ही होगे। वास्तविकता जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि महाराज गुप्त तथा घटोत्कच अत्यन्त साधारण शासक थे जिनका राज्य संभवतः मगध और उसके आस-पास के क्षेत्र तक ही सीमित था। इन दोनों राजाओं ने 319 ई0 तक शासन किया।

चन्द्रगुप्त प्रथम (319-350 ई0) :

घटोत्कच का पुत्र और उसका उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त प्रथम प्रारंभिक गुप्त राजवंश के शासको में सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रसिद्ध राजा हुआ। 319 ई0 में चन्द्रगुप्त प्रथम का राज्यारोहण हुआ और लगभग 350 ई0 तक उसने मगध के सम्राट के रूप में कार्य किया। राज्यारोहण के बाद उसने अपनी महत्ता सूचित करने के लिए अपने पूर्वजों के विपरित ‘महाराजाधिराज‘ की उपाधि धारण की। प्राचीन समय में महाराज विशेषण तो अधीनस्थ सामन्त राजाओं के लिए भी प्रयुक्त होता था पर ‘महाराजाधिराज’ केवल ऐसे ही राजाओं के लिए प्रयोग किया जाता था, जो पूर्णतया स्वाधीन व शक्तिशाली हों। अपने राज्यारोहण की स्मृति में 319-20 ई0 में चन्द्रगुप्त प्रथम ने गुप्त संवत् आरम्भ किया।

लिच्छवियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध –

चन्द्रगुप्त के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना गुप्तों तथा लिच्छवियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना की है। एक दूरदर्शी सम्राट की भॉंति चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवियों का समर्थन तथा सहयोग प्राप्त करने के उद्देश्य से वैशाली के प्राचीन लिच्छवि वंश की राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया।
मगध के उत्तर में लिच्छवियों का जो शक्तिशाली साम्राज्य था, चंद्रगुप्त ने उसके साथ मैत्री और सहयोग का सम्बन्ध स्थापित किया। कुषाण काल के पश्चात् इस प्रदेश में सबसे प्रबल भारतीय शक्ति लिच्छवियों की ही थी। कुछ समय तक पाटलिपुत्र भी उनके अधिकार में रहा था। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में लिच्छवियों का राज्य आर्थिक दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध था। उसमें बहुमूल्य रत्नों की खान थी। बुद्धधोष की टीका ‘सुमंगलविलासिनी’ से ज्ञात होता है कि पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में मगधनरेश अजातशत्रु का लिच्छवियों के साथ संघर्ष रत्नों की खान पर नियंत्रण स्थापित करने के लिये ही हुआ था। इस समय लिच्छवियों के दो राज्य थे – वैशाली का राज्य और नेपाल का राज्य। लिच्छवियों का सहयोग प्राप्त किए बिना चंद्रगुप्त के लिए अपने राज्य का विस्तार कर सकना सम्भव नहीं था। इस सहयोग और मैत्रीभाव को स्थिर करने के लिए चंद्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह किया और अन्य रानियों के अनेक पुत्र होते हुए भी ’लिच्छवि-दौहित्र’ (कुमारदेवी के पुत्र) समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियत किया।
ऐसा प्रतीत होता है, कि इस काल में लिच्छवि गण के राजा वंशक्रमानुगत होने लगे थे। गणराज्यों के इतिहास में यह कोई अनहोनी बात नहीं है। कुमारदेवी लिच्छवि राजा की पुत्री और उत्तराधिकारी थी इसीलिए चंद्रगुप्त के साथ विवाह हो जाने के बाद गुप्त राज्य और लिच्छवि गण मिलकर एक हो गए थे। इस वैवाहिक सम्बन्धों की पुष्टि एक प्रकार के स्वर्ण सिक्के जिसे ‘राजा-रानी‘ प्रकार अथवा ‘चन्द्रगुप्त-कुमारदेवी‘ प्रकार कहा जाता है, से होती है। इस प्रकार के लगभग 25 सिक्के गाजीपुर, टांडा (फैजाबाद), मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सीतापुर तथा बयाना (राजस्थान के भरतपुर जिले में स्थित) से प्राप्त किये गये हैं। समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख से भी इस मत की पुष्टि होती है। चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उसका अपना और कुमारदेवी दोनों का नाम भी एक साथ दिया गया है। सिक्के के दूसरी ओर ’लिच्छवयः’ शब्द भी उत्कीर्ण है। इससे यह भली-भाँति सूचित होता है कि, लिच्छवि गण और गुप्त वंश का पारस्परिक विवाह सम्बन्ध बड़े महत्त्व का था। इतिहासकार स्मिथ की धारणा है कि इस वैवाहिक सम्बन्ध के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त ने लिच्छवियों का राज्य प्राप्त कर लिया तथा मगध एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र का सर्वभौम शासक बन बैठा। इसके कारण इन दोनों के राज्य मिलकर एक हो गए थे, और चंद्रगुप्त तथा कुमारदेवी का सम्मिलित शासन इन प्रदेशों पर माना जाता था। इस प्रकार लिच्छवियों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्य को राजनीतिक दृष्टि से सुदृढ तथा आर्थिक दृष्टि से समृद्ध करने में सफलता पाई। इस वैवाहिक सम्बन्ध के ऊपर टिप्पणी करते हुए इतिहासकार हेमचन्द्र रायचौधरी ने लिखा है- ‘‘अपने महान् पूर्ववर्ती शासक बिम्बिसार की भाँति चन्द्रगुप्त ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी के साथ विवाह कर द्वितीय मगध साम्राज्य की स्थापना की।’‘

विजय-अभियान :

चन्द्रगुप्त प्रथम के विजय अभियान के सन्दर्भ में हमें कोई खास जानकारी प्राप्त नही है। हम ठीक-ठाक उसकी साम्राज्य की सीमा का निर्धारण भी नहीं कर सकते। वायुपुराण में किसी गुप्त राजा की साम्राज्य सीमा का वर्णन करते हुए बताया गया है कि ‘गुप्तवंश के लोग गंगा के किनारे प्रयाग तक तथा मगध और साकेत के प्रदेशों पर शासन करेंगे। जिस साम्राज्य सीमा का उल्लेख यहॉ हुआ है, उसका विस्तार पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में प्रयाग तक था। स्पष्ट है कि यह साम्राज्य सीमा चन्द्रगुप्त प्रथम के समय की ही है क्योंकि उसके पूर्ववर्ती दोनो शासक अत्यन्त साधारण स्थिती के थे तथा उसके बाद के शासक समुद्रगुप्त का साम्राज्य इससे कहीं अधिक विस्तृत था। हेमचन्द्र राय चौधरी के मतानुसार कौशाम्बी तथा कोशल के राजाओं को चन्द्रगुप्त प्रथम ने जीतकर उनके राज्यों पर अपना अधिकार कर लिया था और पाटलिपुत्र को उसने अपना राजधानी बनाया। ऐसा प्रतीत होता है, कि अपने पूर्वजों के पूर्वी भारत में स्थित छोटे से राज्य को चंद्रगुप्त ने बहुत बढ़ा लिया था, और महाराजाधिराज की पदवी ग्रहण कर ली थी। पाटलिपुत्र निश्चय ही चंद्रगुप्त के अधिकार में आ गया था और मगध, उत्तरी बंगाल तथा उत्तर प्रदेश के बहुत से प्रदेशों को जीत लेने के कारण चंद्रगुप्त के समय में गुप्त साम्राज्य बहुत विस्तृत हो गया था।

गुप्त सम्वत् का प्रारम्भ –

चन्द्रगुप्त प्रथम को इतिहास में एक नये संवत् के प्रवर्त्तन का श्रेय भी दिया जाता है जिसे बाद के लेखों में ‘गुप्त-संवत्’ कहा गया है। हालॉकि इसकी तिथि को लेकर भी इतिहासकारों के मध्य विवाद है। अंग्रेजी विद्वान डॉक्टर फ्लीट के अनुसार गुप्त संवत 319 -329 ईस्वी में शुरू हुआ था। फ्लीट की खोज को कई विद्वानों ने बहुत महत्वपूर्ण व सही माना है। उनकी खोज से उस काल की घटनाओ को तय करने में सफलता मिली है जोकि गुप्त संवत के अनुसार लेखो में दर्ज है। विभिन्न इतिहासकारों के तर्को को देखने और समझने के बाद अन्ततः यह कहा जा सकता है कि गुप्त संवत् का प्रारम्भ 319 ईस्वी में ही हुआ था। इसकी पुष्टि अल्वरूनी के इस कथन में भी होती है कि गुप्त संवत् तथा शक संवत् के बीच 241 वर्षों का अन्तर था। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लगभग 319 ईस्वी से 350 ईस्वी तक शासन किया। उसने अपने जीवन-काल में ही अपने सुयोग्य पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी निर्वाचित कर दिया ।
निःसन्देह वह अपने वंश का प्रथम महान् शासक था । कुछ विद्वानों का तो यहाँ तक विचार है कि वह अपने वंश की स्वतन्त्रता का जन्मदाता था और उसी के काल में गुप्त लोग सामन्त स्थिति से सार्वभौम स्थिति में आये। वास्तविकता जो भी हो, हम चन्द्रगुप्त प्रथम को गुप्त साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक मान सकते हैं।

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