window.location = "http://www.yoururl.com"; Post Mauryan Period: Art and Culture | मौर्योत्तर काल: कला और संस्कृति

Post Mauryan Period: Art and Culture | मौर्योत्तर काल: कला और संस्कृति

Introduction (विषय-प्रवेश ):

जिस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने 184 ई0पू0 अन्तिम मौर्य सम्राट बृहद्रथ की हत्या कर दी वह प्राचीन भारत के इतिहास में पुष्यमित्र शुंग के नाम से विख्यात है और उसने भारत में एक नवीन राजवंश की स्थापना की। मौर्य साम्राज्य की लडखडाती हुई दीवार के गिर जाने से मौर्य साम्राज्य की राजनीतिक एकता कुछ समय के लिए समाप्त हो गयी। अब हिन्दुकुश से लेकर कर्नाटक एवं बंगाल तक एक ही राजवंश का आधिपत्य नही रहा। देश के उत्तरी पश्चिमी भागों में अनेक आक्रान्ताओं ने भारत के अनेक भागों में अपने अपने राज्य स्थापित कर लिये। दक्षिण में स्थानीय शासक स्वतन्त्र हो उठे और कुछ समय के लिए मध्यप्रदेश का सिन्धु घाटी तथा गोदावरी क्षेत्र से सम्पर्क टूट गया और मगध के वैभव का स्थान साकल, विदिशा, प्रतिष्ठान आदि कई नगरों ने ले लिया। अन्तिम मौर्य शासक की समाप्ति के बाद लगभग 200 ई0पू0 से 300 ई0 तक का काल मौयोत्तर काल के नाम से जाना जाता है। इस काल में मगघ सहित भारत के विभिन्न हिस्सों में ब्राह्मण साम्राज्यों यथा – शुंग, कण्व, सातवाहन एवं वाकाटक राजवंश का उदय हुआ। इस काल में सशक्त केन्द्रीय सत्ता के अभाव में क्षेत्रीय राजा स्वतन्त्र होने लगे तथा अनेक विदेशी आक्रमण भी हुए।

शुंग राजवंश (184 ई0पू0- 72 ई0पू0)

अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर पुष्यमित्र शुंग ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली, वह शुंग वंश के नाम से जाना जाता है। शुंग वंश के इतिहास के बारे में जानकारी साहित्यिक एवं पुरातात्विक दोनों साक्ष्यों से प्राप्त होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है --

पुराण (वायु और मत्स्य पुराण) – इससे पता चलता है कि शुगवंश का संस्थापक पुष्यमित्र शुंग था।

हर्षचरित – इसकी रचना बाणभट्ट ने की थी। इसमें अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की चर्चा है।
पतंजलि का महाभाष्य – पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे। इस ग्रंथ में यवनों के आक्रमण की चर्चा है।
गार्गी संहिता – इसमें भी यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है।
मालविकाग्निमित्र – यह कालिदास का नाटक है जिससे शुंगकालीन राजनीतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है।
दिव्यावदान – इसमें पुष्यमित्र शुंग को अशोक के 84,000 स्तूपों को तोड़ने वाला बताया गया है।

पुरातात्विक स्रोत-

अयोध्या अभिलेख – इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है।
बेसनगर का अभिलेख – यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है।
भरहुत का लेख – इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
उपर्युक्त साक्ष्यों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि स्थानों से प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की विशिष्टता का ज्ञान कराते हैं। शुंगकाल की कुछ मुद्रायें-कौशाम्बी, अहिच्छत्र, अयोध्या तथा मथुरा से प्राप्त हुई हैं जिनसे तत्कालीन ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।

पुष्यमित्र शुंग –

पुष्यमित्र शुंग मौर्य वंश के अन्तिम शासक बृहद्रथ का सेनापति था। इसके प्रारंभिक जीवन के बारे में कोई खास जानकारी प्राप्त नहीं है। पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ किये जिसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था। परवर्ती मौर्यों के कमजोर शासन में मगध का प्रशासन तंत्र शिथिल पड़ गया था तथा देश को आंतरिक एवं वाह्य संकटों का खतरा था। इसी समय पुष्यमित्र शुंग ने मगध साम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर न सिर्फ यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की बल्कि वैदिक धर्म के आदर्शों को, जो अशोक के शासन काल में उपेक्षित हो गये थे, पुनः प्रतिष्ठित किया। इसलिए पुष्यमित्र शुंग के काल को वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है।
मालविकाग्निमित्र नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र के समय में विदर्भ का प्रान्त यज्ञसेन, जो वृहद्रथ के सचिव का साला था, के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो गया। पुष्यमित्र ने वृहद्रथ की हत्या के बाद उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था। इस नाटक के अनुसार पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था। उसका मित्र माघवसेन था जो विदर्भ नरेश यज्ञसेन का चचेरा भाई होता था, परन्तु दोनों के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे। एक बार यज्ञसेन ने यह शर्त रखी कि यदि उसका सम्बन्धी जो पाटलिपुत्र की जेल में बन्द था, उसे छोड दिया जाय तो बंदी बनाए गए माधवसेन को मुक्त कर दिया जाएगा। इस पर अग्निमित्र ने अपने सेनापति वीरसेन को तुरन्त विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया। यज्ञसेन इस युद्ध में पराजित हुआ और विदर्भ राज्य दो भागों में बॉट दिया गया। इस प्रकार पुष्यमित्र का प्रभाव नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया।

यवनों का आक्रमण :

पुष्यमित्र के शासनकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना यवनों के भारतीय आक्रमण की है। विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि बिना किसी अवरोध के यवन आक्रमणकारी पाटलिपुत्र के अत्यत्न निकट आ पहुॅचे। यहॉ यह निश्चित नहीं है कि यवन आक्रमण का नेता कौन था। कुछ विद्धान उसका नेता डेमोट्रियस को जबकि कुछ विद्धान मेनाण्डर को उसका नेता मानते है। यह सम्पूर्ण प्रश्न इतना उलझा हुआ है कि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वास्तविकता जो भी हो, इतना तो तय है कि आक्रमणकारी यवन ही थे और पुष्यमित्र के हाथों उन्हे पराजित होना पडा। इस प्रकार यवनों का भारतीय अभियान असफल रहा। इस प्रकार यवनों को परास्त करना निश्चित रूप से पुष्यमित्र की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।
शुंगकाल में यद्यपि पाटलिपुत्र राजधानी थी तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि विदिशा का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक महत्व बढता जा रहा था और कालान्तर में इस नगर ने पाटलिपुत्र का स्थान ग्रहण कर लिया। अयोध्या और जालंधर इस काल के अन्य महत्वपूर्ण नगर थे। पुष्यमित्र शुग ने ‘सेनानी‘ की उपाधि धारण की थी।
अपनी उपलब्धियों के फलस्वरूप पुष्यमित्र शुंग उत्तर भारत का एकछत्र सम्राट बन गया। अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने के लिए उसने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। धनदेव के अयोध्या अभिलेख से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग ने अपने शासनकाल में दो अश्वमेघ यज्ञ किये। ऐसा प्रतीत होता है कि जब उसने राजधानी में अपनी स्थिती सुदृढ कर ली तो उसने प्रथम बार यज्ञ किया होगा जबकि दूसरा यज्ञ उसके शासन के अन्त में किया गया होगा। संभवतः इसी का उल्लेख मालविकाग्निमित्र में किया गया है। पतंजलि इन यज्ञों में पुरोहित थे।

धार्मिक नीति व सांस्कृतिक विकास –

बौद्ध रचनाओं से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का उत्पीड़क था। दिव्यावदान और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के विवरणों में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का घोर शत्रु तथा स्तूपों और विहारों का विनाशक बताया गया है। पुष्यमित्र ने बौद्ध विहारों को नष्ट किया तथा बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की थी। पुष्यमित्र शुंग को ब्राह्मण धर्म के पुनरूद्धार का श्रेय दिया जाता है। यद्यपि शुंगवशीय राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे, तथापि उनके शासनकाल में भरहुत स्तूप का निर्माण और साँची स्तूप की वेदिकाएँ (रेलिंग) बनवाई गई। इस समय सॉंची व भरहुत के स्तूप न केवल सुरक्षित रहे अपितु राजकीय तथा व्यक्तिगत सहायता भी प्राप्त करते रहे। पतंजलि ने इसके ही शासनकाल में अष्टाध्यायी पर महाभाष्य लिखा। इसी काल में मनुस्मृति लिखा गया और महाभारत के शान्ति और अश्वमेध पर्व का विस्तार इसी काल में हुआ। स्थापत्य काला के क्षेत्र में इस काल में भरहुत और सॉची के स्तूपों में बने खिडकियॉ और रेलिंग लकडी के स्थान पर पत्थर के बनाए गए। पुराणों के अनुसार लगभग 36 वर्ष तक पुष्यमित्र शुंग ने राज्य किया अतः उसका शासनकाल 184 ई0पू0 से 148 ई0पू0 तक मान सकते है।

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी –

पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ जो अपने पिता के शासनकाल में विदिशा का उपराजा था। उसके शासनकाल के किसी भी घटना के बारे में हमें किसी स्रोत से पता नही चलता है। हॉ, अतना अवश्य कहा जा सकता है कि कालिदास के सुप्रसिद्ध काव्य मालविकाग्निमित्र का मुख्य नायक अग्निमित्र ही था। इस वंश का चौथा शासक वसुमित्र था जिसके नेतृत्व में शुंग सेना ने यवनों को पराजित किया था। संभवतः पुष्यमित्र के समय में वह उत्तरी-पश्चिमी सीमा प्रान्त का वह राज्यपाल था। राजा बनने के बाद वह अत्यन्त विलासप्रिय हो गया। एक बार नृत्य का आनन्द लेते समय मित्रदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी जिसका उल्लेख हर्षचरित में हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस वंश का नवॉ शासक भागभद्र था जो अपेक्षाकृत अधिक योग्य और शक्तिशाली था। इसके शासनकाल के 14वें वर्ष तक्षशिला के यवन नरेश एन्तियोकस का राजदूत हेलियोदोरस उसके विदिशा स्थित राजदरबार में उपस्थित हुआ था। उसने भागवत धर्म ग्रहण करते हुए विदिशा के बेसनगर में गरूड-स्तम्भ की स्थापना कर भगवान विष्णु की उपासना की। विदिशा का गरूण ध्वज, भाजा का चैत्य एवं विहार, अजन्ता का 9वॉ चैत्य मन्दिर, नासिक तथा कार्ले के चैत्य, मथुरा के अनेक यक्ष-यक्षिणीयॉ की मूर्तियॉं शुंग काल के ही उदाहरण है। पुराणों के अनुसार शुंगवंश का दसवॉ और अंतिम शासक देवभूति था। उसने 10 वर्षो तक शासन किया। उसके अमात्य वासुदेव ने अन्ततः एक षडयन्त्र रचकर उसकी हत्या कर दी और एक उत्तर भारत में एक नवीन राजवंश की नीव डाली जिसे कण्व वंश के नाम से जाना जाता है।

कण्व राजवंश –

वासुदेव ने अन्तिम शुंग शासक देवभूमि की हत्या कर कण्व वंश की स्थापना की। हर्षचरित में इस घटना का वर्णन किया गया है। इस वंश में केवल चार शासक वासुदेव, भिममित्र, नारायण और सुदर्शन हुए जिन्होने लगभग 43 वर्षो तक शासन किया। दुर्भाग्यवश इस वंश के राजाओं के नाम के अतिरिक्त हमें उनके राज्यकाल की किसी घटना के विषय में ज्ञात नही है। पुराणों में वर्णन मिलता है कि इस वंश के राजा सत्य और न्याय के साथ शासन करेंगे और पडोसियों को दबाकर रखेंगे। इस वंश के अन्तिम शासक सुदर्शन को विस्थापित कर आंध्रों ने सातवाहन वंश की स्थापना की। इस प्रकार सुदर्शन की मृत्यु के साथ ही कण्व राजवंश तथा उसके शासन की समाप्ति हुई। इस वंश के राजाओं ने लगभग 72 ई0पू0 से 30 ई0पू0 तक शासन किया।

सातवाहन वंश –

प्रथम शताब्दी ई0पू0 में विन्ध्यपर्वत के दक्षिण में दो शक्तियॉ प्रबल हुई – आंध्र के सातवाहन और कलिंग के चेदि। इनमें चेदियों की शक्ति अल्पकालिक थी किन्तु सातवाहन शक्ति का तीन सदियों तक निरन्तर उत्कर्ष होता रहा तथा उनकी सत्ता किसी न किसी रूप से बनी रही। सातवाहन साम्राज्य के अन्तर्गत समस्त दक्षिणापथ सम्मिलित था और उत्तर भारत में संभवतः मगध तक उनका विस्तार था। सातवाहन सम्राटों ने न केवल विदेशियों के विरूद्ध अपनी स्वाधीनता की रक्षा की अपितु साहित्य, कला, व्यापार-वाणिज्य आदि के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति की।
सातवाहन शासकों के इतिहास के प्रमाणिक साक्ष्य अभिलेख, सिक्के और स्मारक है। नागनिका का नानाघाट अभिलेख, गौतमीपुत्र शातकर्णी के नासिक से प्राप्त दो गुहालेख, यज्ञश्री शातकर्णी का नासिक गुहालेख, देश के विभिन्न स्थानों से प्राप्त सिक्कों के ढेर आदि से न केवल सातवाहन शासको के राजनीतिक उपलब्घियों की जानकारी मिलती है अपितु इनके अध्ययन से उनके राज्य विस्तार, धर्म तथा व्यापार-वाणिज्य आदि के सम्बन्ध में भी महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। नासिक के जोगलथम्बी नामक स्थल से क्षहरात शासक नहपान के सिक्कों का ढेर मिलता है। इसमें अनेक सिक्के गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनः अंकित कराये गये हैं। इससे नहपान पर सातवाहन शासक के विजय की जानकारी मिलती है। यज्ञश्री शातकर्णी के एक सिक्के पर जलपोत के चिन्ह उत्कीर्ण हैं। इससे पता चलता है कि समुद्र के ऊपर उनका अधिकार था। सातवाहन सिक्के सीसा, ताँबा तथा पोटीन (ताँबा, जिंक, सीसा तथा टिन मिश्रित धातु) में ढलवाये गये थे। इन पर मुख्यतः अश्व, सिंह, वृष, गज, पर्वत, जहाज, चक्र, स्वास्तिक, कमल, त्रिरत्न, क्रॉस से जुड़े चार बाल (उज्जैन चिन्ह) आदि का अंकन मिलता है। विदेशी विवरण से भी सातवाहन वंश पर प्रकाश पड़ता है। इनमें प्लिनी, टॉलमी तथा पेरीप्लस ऑफ एरिथ्रियन सी के लेखक के विवरण महत्वपूर्ण है। पेरीप्लस के अज्ञात लेखक ने पश्चिमी भारत के बंदरगाहों का स्वंय निरीक्षण किया था तथा वहाँ के व्यापार-वाणिज्य के प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर जानकारी दी है। सातवाहन काल के अनेक चैत्य एवं विहार नासिक, कार्ले, भाजा आदि स्थानों से प्राप्त होते है जिनसे तात्कालीन कला और संस्कृति के बारे में भी जानकारी मिलती है।
सातवाहन वंश के शासकों को पुराणों में आंध्रभृत्य कहा गया है। सातवाहन अभिलेख के आधार पर सिमुक को सातवाहन वंश का संस्थापक माना जाता है जिसने गोदावरी नदी के किनारे स्थित पैठान या प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाया। वायुपुराण का कथन है कि आन्ध्रजातीय सिमुक कण्व वंश के अन्तिम शासक सुदर्शन की हत्या कर तथा शुंगों की बची हुई शक्ति को समाप्त कर पृथ्वी पर शासन करेगा। नानाघाट के लेख में उसे ‘‘राजा सिमुक सातवाहन‘‘ कहा गया है। जैन गाथाओं के अनुसार उसने जैन और बौद्ध मन्दिरों का निर्माण करवाया था। सिमुक के बाद उसका छोटा भाई कृष्ण राजा बना जिसने अपना साम्राज्य नासिक तक फेलाया। कृष्ण की मृत्यु के बाद श्रीशातकर्णी जो सिमुक का पुत्र था, सातवाहन वंश की गद्दी पर बैठा।

शातकर्णी प्रथम

इतिहास में श्रीशातकर्णी, शातकर्णी प्रथम के नाम से विख्यात है क्योंकि अपने वंश में शातकर्णी की उपाधि घारण करने वाला वह पहला राजा था। शातकर्णी प्रथम प्रारंभिक सातवाहन शासकों में सबसे महान था। उसने अंगीय कुल के महारठी की पुत्री नायनिका के साथ विवाह कर अपना राजनीतिक प्रभाव बढाया। नायनिका के नानाघाट अभिलेख से शातकर्णी प्रथम के शासनकाल के विषय में महत्वपूर्ण सूचनायें मिलती है। शातकर्णी प्रथम ने पश्चिमी मालवा, नर्मदा घाटी के क्षेत्र तथा विदर्भ के प्रदेशों की विजय की। विदर्भ उसने शुंगों से छीना तथा कुछ समय के लिए उसे अपने नियन्त्रण में रखा। सम्पूर्ण मालवा क्षेत्र उसके अधिकार में था तथा पूर्व की ओर उसका राज्य कलिंग की सीमा को स्पर्श करता था। उत्तरी कोंकण तथा गुजरात के कुछ क्षेत्रों को जीतकर उसने अपने राज्य में मिला लिया था। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि शातकर्णी प्रथम को कलिंग नरेश खारवेल के आक्रमण का भी सामना करना पडा लेकिन उसके प्रबल विरोध के कारण खारवेल को वापस लौटना पडा।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि शातकर्णी प्रथम एक सार्वभौम राजा बन गया। उसने अपने शासनकाल में दो अश्वमेघ यज्ञ तथा एक राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान किया। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि प्रथम अश्वमेघ यज्ञ राजा बनने के तुरन्त बाद तथा द्वितीय अपने शासनकाल के अन्त में किया होगा। भारतीय इतिहास में वह ‘दक्षिण पंथ पंथी‘ के नाम से भी प्रसिद्ध है। अश्वमेघ यज्ञ के बाद उसने अपनी पत्नी के नाम पर रजत मुद्राएॅ उत्कीर्ण करवायी जिसके उपर अश्व की आकृति मिलती है। उसका शासनकाल भौतिक दृष्टि से समृद्धि व समरसता का काल था। उसकी विजयों के फलस्वरूप गोदावरी घाटी में प्रथम विशाल साम्राज्य का उदय हुआ।
शातकर्णी प्रथम की मृत्यु के बाद सातवाहनों की शक्ति निर्बल पडने लगी। शातकर्णी प्रथम और गौतमीपुत्र शातकर्णी के बीच का शासनकाल अंधकार युग के नाम से जाना जाता है। पुराणों के अनुसार इस बीच लगभग 10 से 19 राजाओं का उल्लेख है जबकि दूसरे स्रोतों से हमें तीन शासकों का उल्लेख मिलता है। बीच के काल में सातवाहन शासक हाल ने प्राकृत भाषा में ‘गाथा सप्तसती‘ की रचना की। इसके शासनकाल में अमरावती स्तूप का विस्तार भी किया गया। वह स्वयं बहुत बडा कवि और विद्वानों का आश्रयदाता था। उसके राजदरवार में ‘बृहत्कथा‘ के रचयिता गुणाढ्य तथा ‘कातन्त्र‘ नामक संस्कृत व्याकरण के लेखक शर्ववर्मन् निवास करते थे। इस प्रकार शातकर्णी प्रथम से लेकर गौतमीपुत्र शातकर्णी के उदय के पूर्व तक का लगभग एक शताब्दी का काल सातवाहनों के पतन का काल था।

गौतमीपुत्र शातकर्णी

गौतमीपुत्र शातकर्णी के नेतृत्व में सातवाहन शासकों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को अर्जित कर लिया और इस प्रकार सातवाहन सत्ता का पुनरूद्धार हुआ। मोटे तौर पर हम उसका शासनकाल 106 ई0 से 130 ई0 तक मान सकते है। पुराणों के अनुसार गौतमीपुत्र शातकर्णी सातवाहन वंश का 23वॉ राजा था। उसके पिता का नाम शिवस्वाति तथा माता का नाम गौतमी बलश्री मिलता है। वह सातवाहन राजवंश का महानतम शासक सिद्ध हुआ। इसके तीन अभिलेख जिनमें दो अभिलेख नासिक से और एक अभिलेख कार्ले से मिलते है। गौतमीपुत्र शातकर्णी के सैनिक विजयों की जानकारी उसकी मॉ बलश्री की नासिक प्रशस्ति से मिलती है।

सैनिक सफलताएॅ –

गौतमीपुत्र शातकर्णी जब शासक बना उस समय तक क्षहरातों के आक्रमण के कारण सातवाहनों का महाराष्ट्र पर से अधिकार छिन गया था। अतः महाराष्ट्र तथा उत्तर के अन्य प्रदेशों पर अधिकार करना गौतमीपुत्र शातकर्णी का प्रमुख उद्देश्य था। अतः इसके लिए आवश्यक सैनिक तैयारियॉ पूरी करने के बाद एक बडी सेना के साथ क्षहरातों के राज्य पर उसने आक्रमण कर दिया। इस अभियान में क्षहरात नरेश नहपान तथा उषावदात पराजित हुये और मार डाले गये। यह युद्ध नासिक के आस-पास लडा गया। अपनी विजय के बाद उसने नासिक के बौद्ध संघ को ‘अजकालकिय‘ नामक क्षेत्र दान में दिया था। नासिक गुहालेख से भी इस अभियान में गौतमीपुत्र शातकर्णी की सफलता की सूचना मिलती है। अपनी सफलताओं से उत्साहित होकर गौतमीपुत्र शातकर्णी ने और आगे विजय अभियान किया तथा दक्षिण और उत्तर भारत के कई स्थानों को जीतकर अपने साम्राज्य में मिलाया। उसके पुत्र पुलुमावी के शासनकाल के 19वें वर्ष में उत्कीर्ण नासिक गुहालेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा विजित निम्नलिखित प्रदेशों के नाम मिलते है जिनमें कुछ प्रमुख है –

  1. कृष्णा नदी का तटीय प्रदेश ऋषिक,
  2. गोदावरी का तटीय प्रदेश अस्मक
  3. पैठन का समीपवर्ती भाग मूलक
  4. दक्षिणी काठियावाड
  5. पश्चिमी राजपूताना
  6. उत्तरी कोंकण
  7. नर्मदा घाटी
  8. विदर्भ
  9. पूर्वी मालवा और
  10. अवन्ति
    इस प्रकार उत्तर में मालवा तथा काठियावाड से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक सम्पूर्ण प्रदेश गौतमीपुत्र के प्रत्यक्ष शासन में आ गया। नासिक प्रशस्ति से पता चलता है कि गौतमीपुत्र का विन्ध्यपर्वत के दक्षिण के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार था। इसी प्रशस्ति में यह कहा गया है कि उसके वाहनों अर्थात अश्वों ने तीनों समुद्रों का जल पिया था (त्रि-समुद्र तोय-पिता-वाहन)। यह विवरण भले ही अतिरंजित लगे परन्तु इससे यह स्पष्ट होता है कि वह एक दिग्विजयी सम्राट था जिसके समय में सातवाहन साम्राज्य अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुॅच गया था।

    शासन प्रबन्ध –

    गौतमीपुत्र शातकर्णी जितना उच्चकोटि का विजेता था, उससे कही बढकर शान्ति के समय में वह महान था। उसने अपने विशाल साम्राज्य का संचालन अत्यन्त योग्यता और कुशलता से किया। अपने शासनकाल में उसने निर्धनों, निर्बलों एवं दुखी लोगों की उन्नति पर विशेष ध्यान दिया। वह अपनी प्रजा के सुख में सुखी तथा उनके दुख में दुखी होने वाला सम्राट था। उसने शास्त्रों के आदेशानुसार शासन किया। उसने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को आहारों में विभाजित किया। प्रत्येक आहार एक अमात्य के अधीन होता था। अपने राज्यकाल के अन्त में उसने अपनी माता के साथ मिलकर शासन किया था। गौतमीपुत्र शातकर्णी का शासनकाल दक्षिणापथ में वैदिक धर्म के पुनरूत्थान का काल था। ब्राह्मणवाद को संरक्षण प्रदान करने के कारण उसे ‘एकब्राह्मण‘ की उपाधि प्रदान की गई है। नासिक प्रशस्ति में उसे वेदों का आश्रय तथा अद्वितीय ब्राह्मण कहा गया है परन्तु वैदिक धर्म का पोषक होते हुए भी वह एक धर्म सहिष्णु शासक था। वह बौद्धों के प्रति उदार था तथा उसने भिक्षुओं के लिए ग्राम तथा भूमि दान में दिया था।

    गौतमीपुत्र शातकर्णी के उत्तराधिकारी

    गौतमीपुत्र की मृत्यु के पश्चात वसिष्ठीपुत्र पुलमावी सातवाहनों का राजा हुआ। अमरावती से प्राप्त लेख से उसके बारे में जानकारी मिलती है। शक शासक रूद्रदामन की पुत्री से वसिष्ठीपुत्र पुलमावी का विवाह हुआ। उसने एक नए नगर ‘नवनगर‘ की स्थापना कर नवनगरस्वामी की उपाधि धारण की। इसे ‘दक्षिणापथ परमेश्वर‘ भी कहा जाता था। सातवाहन वंश का अन्तिम प्रमुख शक्तिशाली शासक यज्ञश्री शातकर्णी था। उसने शकों को पुनः पराजित किया और शकों द्वारा जीते गये अपने प्रदेश पुनः प्राप्त किया। यज्ञश्री ने कुल 27 वर्षो तक शासन किया। यज्ञश्री शातकर्णी व्यापार और समुद्री यात्रा का प्रेमी था। इसके सिक्कों पर जहाज, मत्स्य एवं शंख की आकृति उत्कीर्ण थी।

    सातवाहनयुगीन संस्कृति

    लगभग तीन शताब्दियों तक दक्षिणापथ की राजनीति में सातवाहन सक्रिय रहे और इस काल में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनो दृष्टियों से दक्षिणी भारत की महत्वपूर्ण प्रगति हुई। सातवाहन राजाओं ने मौर्य राजाओं के आदर्श पर ही अपने प्रशासन का संगठन किया। शासन का स्वरूप राजतंत्रात्म ही था लेकिन शासन का मातृसत्तात्मक ढॉंचा इस काल में प्रचलित था। सम्राट की सहायता के लिए ‘अमात्य‘ नामक पदाधिकारियों का एक सामान्य वर्ग होता था। प्रशासन की सुविधा के लिए साम्राज्य को अनेक विभागों में बॉटा गया था जिन्हे ‘आहार‘ कहा जाता था। प्रत्येक आहार के अन्तर्गत एक निगम और कई गॉव होते थे। नगरों का शासन ‘निगम सभा‘ द्वारा चलाया जाता था और प्रत्येक ग्राम का अध्यक्ष एक ‘ग्रामिक‘ होता था जो ग्राम शासन के लिए उत्तरदायी था। सातवाहन राजाओं द्वारा ब्राह्मणों और बौद्ध भिक्षुओं को भूमिदान देने का प्रथम अभिलेखीय उदाहरण मिलता है। इस प्रकार की भूमि सभी प्रकार के करों से मुक्त होती थी। इस काल के समाज की प्रमुख विशेषता शकों और यवनों का भारतीयकरण है।
    आर्थिक दृष्टि से सातवाहनों का काल दक्षिण भारत के इतिहास में समृद्धि और सम्पन्नता का युग था। कृषि की उन्नति के साथ-साथ व्यापार वाणिज्य की अत्यधिक प्रगति हुई। व्यवसायिक संघों की अलग-अलग श्रेणियॉ थी जो बैंको का भी कार्य करते थे। व्यापार वाणिज्य में चॉदी और ताम्बे के सिक्कों का प्रयोग होता था जिन्हे ‘कार्षापण‘ कहा जाता था। इसके अतिरिक्त सातवाहन राजाओं ने सीसे की भी सिक्के ढलवाये क्योंकि दक्षिण में चॉदी की अनुपलब्धता होने से सीसा ही एकमात्र विकल्प था। ये सिक्के आर्थिक लेन-देन में अधिक उपयुक्त थे। इस काल के अधिकांश सिक्के सीसे के ही मिले है। सातवाहन काल में आन्तरिक और बाह्य दोनों ही व्यापार उन्नति पर था। भारत का व्यापार मिस्र, रोम, चीन तथा पूर्वी द्वीप समूहों के साथ होता था। सातवाहन नरेशों के कुछ सिक्कों पर ‘दो पतवारों वाले जहाज‘ के चित्र मिलते है जो समुद्री व्यापार के विकसित होने का सूचक है। भडौच इस काल का प्रमुख अन्तर्राष्ट्रीय बन्दरगाह और व्यापारिक केन्द्र था।
    जहॉ तक कला और स्थापत्य के विकास का प्रश्न है, सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति से दक्षिण भारत में बौद्ध कला को बहुत अधिक प्रोत्साहन मिला। इस समय नये स्तूपों का निर्माण हुआ और पुराने स्तूपों का जीर्णोद्धार हुआ। स्तूपों में अमरावती का स्तूप सबसे प्रसिद्ध था। सर्वप्रथम 1797 ई0 में कर्नल मेकेंजी को इस स्तूप का पता चला था। 1840 में इलियट द्वारा स्तूप के एक भाग की खुदाई करवायी गयी जिसमें कई मूर्तियॉ प्राप्त हुई। वेदिकाओं तथा स्तम्भों पर उत्कीर्ण बहुसंख्यक चित्र जातक कथाओं से लिए गए है, सातवाहनयुगीन कला के चरमोत्कर्ष को व्यक्त करते है।
    अमरावती से लगभग 95 कि0मी0 की दूरी पर उत्तर में स्थित कृष्णा नदी के तट पर नागार्जुन पहाडी पर भी तीसरी शताब्दी ई0 में स्तूपों का निर्माण किया गया था जिसे ‘नागार्जुनकोण्ड स्तूप‘ कहा जाता है। सर्वप्रथम 1926 ई0 में लांगहर्स्ट नामक विद्वान ने यहॉ के पुरावशेषों को खोज निकाला था। यहॉ हुए उत्खनन से अनेक स्तूप, चैत्य, विहार, मन्दिर आदि प्रकाश में आए है। स्तूप में लगे शिलापट्टों पर बौद्ध धर्म और जातक कथाओं से सम्बन्धित अनेक कथानक उत्कीर्ण किये गये है। इस स्तूप की प्रमुख विशेषता आयकों का निर्माण है। आयक एक विशेष प्रकार का चबूतरा होता था। इस काल में पश्चिम भारत में पर्वत गुफाओं को काटकर चैत्यगृह तथा विहारों का निर्माण किया गया है। भाजा, पीतलखोरा, अजन्ता, नासिक, कार्ले आदि प्रमुख चैत्यगृह थे। सामान्यतया ये सभी गुहा विहार एक मंजिले होते थे। इनमें एक बडा चौकोर मण्डप होता था। इनमें एक प्रवेशद्वार तथा तीन ओर गुफा के कमरे बने होते थे जिनमें भिक्षु निवास करते थे।

कलिंग का चेदि वंश –

मौर्य सम्राट अशोक ने कलिंग पर अधिकार कर लिया था किन्तु उसके निर्बल उत्तराधिकारी कलिंग पर अपना अधिकार नहीं रख सके तथा शीध्र ही कलिंग का राज्य पुनः स्वतन्त्र हो गया। प्रथम शताब्दी ई0पू0 में कलिंग भारत का एक अत्यन्त शक्तिशाली राज्य बन गया। संभवतः कलिंग के चेदि राजवंश का संस्थापक महामेधवाहन नामक व्यक्ति था। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा खारवेल हुआ। खारवेल ने कुल तेरह वर्षो तक शासन किया और सम्भवतः उसका शासनकाल 44 ई0पू0 निर्धारित किया जाता है। खारवेल प्राचीन भारतीय इतिहास के महानतम सम्राटों में से एक है। उडीसा प्रान्त के भुनेश्वर से तीन मील दूर उदयगिरी पहाडी की हाथीगुम्फा से उसका एक बिना तिथि का अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें खारवेल के बचपन, शिक्षा, राज्याभिषेक तथा राजा होने के बाद से तेरह वर्षो तक के शासनकाल की घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण मिलता है। हाथीगुम्फा अभिलेख खारवेल के इतिहास जानने का एकमात्र स्रोत है।

विभिन्न सैन्य अभियान –

राजा होने के पश्चात सर्वप्रथम खारवेल ने अपनी राजधानी कलिंग में निर्माण कार्य प्रारम्भ करवाया जिससे अपनी प्रजा में व्यापक लोकप्रियता प्राप्त करने में सहायता मिली। इसके पश्चात उसने दिग्विजय से सम्बन्धित एक व्यापक योजना तैयार की। अपने शासनकाल के दूसरे वर्ष ही उसने सातवाहन नरेश शातकर्णी प्रथम के विरूद्ध एक विशाल सेना पश्चिम की ओर भेजी। हॉलाकि यह निश्चित नही है कि खारवेल और शातकर्णी की सेनाओं के बीच कोई युद्ध हुआ या नही। लेकिन जैसा कि हम जानते है कि इस अभियान से खारवेल को कोई विशेष लाभ नही हुआ और उसे वापस आना पडा। राज्याभिषेक के चौथे वर्ष खारवेल ने भोजको और पूर्वी खानदेश व अहमदनगर के रठिकों के खिलाफ सैनिक अभियान किया और वे परास्त किये गये। रठिकों के रत्न व धन उनसे छीन लिए गए। इस प्रकार रठिकों को परास्त करना खारवेल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। अपने शासनकाल के पॉचवे वर्ष वह तनसुलि से एक नहर के जल को अपनी राजधानी ले आया। छठे वर्ष में एक लाख मुद्रा व्यय करके खारवेल ने अपनी प्रजा को सुखी रहने के लिए अनेक प्रयास किये। उसने ग्रामीण और शहरी जनता के कर माफ कर दिये। अपने अभिषेक के आठवें वर्ष खारवेल ने उत्तरी भारत में सैनिक अभियान किया जहॉ उसकी सेना ने बराबर की पहाडियों को पार करते हुए तथा मार्ग में दुर्गो को ध्वस्त करते हुए घेरा डाला। उसकी सेना के डर से यवन शासक की सेना मथुरा भाग गई। राज्यारोहण के नवें वर्ष उसने अपनी उत्तर भारत के विजय के उपलक्ष में प्राची नगर के दोनों किनारों पर ‘महाविजय प्रासाद‘ बनवाये। 10वें वर्ष उसने गंगा घाटी के क्षेत्रों पर आक्रमण किया परन्तु कोई विशेष सफलता नही मिली। 11वें वर्ष में खारवेल ने दक्षिण भारत की ओर ध्यान दिया। उसकी सेना ने मद्रास के निकट पिथुन्ड नगर को ध्वस्त किया और दक्षिण की ओर जाकर तमिल संघ का भेदन किया। सुदूर दक्षिण में विजय करते हुए खारवेल पाण्ड्य राज्य तक जा पहुॅचा। 12वें वर्ष खारवेल ने दो अभियान किया- एक उत्तर भारत में तथा दूसरा दक्षिण भारत में। उत्तर भारत के अभियान में तात्कालीन मगध नरेश ने खारवेल की अधीनता स्वीकार कर ली और वह अपार लूट की सम्पति लेकर कलिंग लौटा। दक्षिण अभियान के अन्तर्गत उसने जल और थल दोनो रास्तों से पाण्ड्य राज्य पर धावा बोला। यह अभियान भी पूर्णरूपेण सफल रहा और पाण्ड्य नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार करते हुए उसे मुक्तामणियों का उपहार दिया। इस प्रकार यह खारवेल का अन्तिम सैन्य अभियान था और इस प्रकार वह अतुल सम्पति लेकर अपनी राजधानी वापस लौटा। अपने शासन के 13वें वर्ष में उसने कुमारीपहाडी पर जैन भिक्षुओं के निवास के लिए गुहाविहारों का निर्माण करवाया था।

मूल्यांकन –

उपरोक्त विवरणों से यह स्पष्ट होता है कि खारवेल एक महान सेनानायक और प्रतापी शासक था। सातवाहन नरेशों के विपरित वह जैन मतावलम्बी था। उसने जैन साधुओें को संरक्षण प्रदान किया, उन्हे अतुल दान दिए तथा रहने के लिए आरामदायक निवास स्थान बनवाये। परन्तु स्वयं जैन होते हुए भी वह अन्य धर्मावलम्बियों के प्रति उदार था। हाथीगुम्फा अभिलेख से पता चलता है कि उसने सभी देवताओं के मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया था तथा सभी धर्मो का समान आदर करता था। उसके द्वारा निर्मित गुफाओं में उत्कीर्ण चित्र तात्कालीन समाज के जनजीवन को प्रदर्शित करते है। इस प्रकार खारवेल के जीवन एवं कृतियों से जो विवरण हमें प्राप्त होता है उससे यह स्पष्ट होता है कि वह एक महान विजेता, लोकोपकारी शासक, महान निर्माता, विद्वानों का आश्रयदाता था। अभिलेख में उसे ‘राजर्षि‘ कहा गया है। वस्तुतः प्राचीन भारत के इतिहास में वह एक उल्का की भॉति प्रस्फुटित होता है जिसने अपनी उपलब्धियों से सभी को चकाचौंध कर दिया। निःसन्देह वह एक असाधारण योग्यता वाला शासक था और उसके समय में कलिंग का राज्य अपने गौरव की पराकाष्ठा पर पहुॅच गया। उसका अन्त किन परिस्थितीयों में हुआ, यह हमें ज्ञात नही है। वस्तुतः जितनी तेजी से उसका उत्थान हुआ उतनी ही तेजी से उसका पतन हुआ और उसकी मृत्यु के साथ ही उसका साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

हिन्द-यवन आक्रमण :

सिकंदर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा, जिसमें मैसेडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफगानिस्तान एवं पश्चिमोत्तर भारत के कुछ प्रदेश शामिल थे ! इस साम्राज्य का काफी बड़ा भाग सेल्युकस के अधीन रहा। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस को परास्त करके भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर अपना अधिकार कर लिया था और लगभग एक शताब्दी तक सेल्यूकसवंशीय राजाओं का भारतीय नरेशों के साथ मैत्री सम्बन्ध बना रहा। परन्तु परवर्ती मौर्य नरेशों के निर्बल काल में भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों पर पुनः विदेशी आक्रमण का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। इन आक्रमणकारियों में सर्वप्रथम आक्रमण करने वाले बैक्ट्रिया के यवन शासक थे। उन्होने शीध्र ही भारत के कुछ क्षेत्रों को जीत लिया। इन्ही भारतीय यवन राजाओं को हिन्द-यवन शासक कहा जाता है।
हिन्द-यवन शासकों के लेख व सिक्के उनके इतिहास पर सुन्दर प्रकाश डालते है तथा क्लासिकल लेखकों में पोलिबियस, स्ट्रेबो, जस्टिन, प्लूटार्क आदि का विवरण हिन्द-यवन इतिहास जानने के लिए उपयोगी है। यह सर्वविदित है कि उत्तर-पश्चिम में स्वर्ण सिक्कों का प्रचलन सर्वप्रथम यवन शासकों ने ही करवाया था।
ई०पू० 250 में बैक्ट्रिया के गवर्नर डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने-आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया। डियोडोटस के वंश के एक शासक डेमेट्रियस-डी ने ई०पू० 183 में मौर्यात्तर काल का प्रथम यूनानी आक्रमण किया। डेमेट्रियस ने पंजाब का एक बड़ा हिस्सा जीत लिया एवं साकल को अपनी राजधानी बनायी। किंतु डेमेट्रियस जिस वक्त भारत में व्यस्त था, स्वयं बैक्ट्रिया में यूक्रेटाड्स के नेतृत्व में विद्रोह हो गया एवं उसे बैक्ट्रिया से हाथ धोना पड़ा। उसका शासन पूर्वी पंजाब एवं सिंघ पर ही रहा गया। यूक्रेटाइड्स भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। इस प्रकार भारत में यवन साम्राज्य’ अब दो कुलों डेमेट्रियस एवं यूक्रेटाइड्स के वंशों में बंट गया। सबसे प्रसिद्ध यवन शासक मिनान्डर (ई०पू० 160-120) था, जो बौद्ध साहित्य में मिलिन्द के नाम से प्रसिद्ध है।

मिनाण्डर – इण्डो-यूनानी शासकों में मिनाण्डर का नाम सर्वाधिक प्रमुख है। पेरीप्लस के अनुसार मिनाण्डर के सिक्के भडौच में खूब चलते थे। स्टै्रबो लिखता है कि उसने सिकन्दर से भी अधिक प्रदेश जीते थे तथा व्यास नदी पार करके यमुना नदी तक पहुॅच गया था। इस प्रकार मिनाण्डर एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बना जो झेलम से मथुरा तक विस्तृत था तथा साकल अर्थात स्यालकोट उसकी राजधानी थी। मिलिन्दपन्हो में इस नगर का सुन्दर वर्णन मिलता है। कुछ विद्वानों का मत है कि मेनाण्डर ने युक्रेटाइडीज के वंशजों से भी कुछ प्रदेशों को छिन लिया था क्योंकि काबुल घाटी तथा सिन्ध क्षेत्र से उसकी मुद्राएॅ मिलती है। उसके सिक्कों पर धर्मचक्र के चिन्ह अंकित है, इससे यह सिद्ध होता है कि वह एक धर्मनिष्ठ बौद्ध था। प्लूटार्क हमें बताता है कि वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था। वह अपने विशाल साम्राज्य का शासन राज्यपालों की सहायता से चलाता था।

बौद्ध जनश्रुति में मेनाण्डर को बौद्ध धर्म का संरक्षक बताया गया है। क्षेमेन्द्र कृत अवदानकल्पलता से पता चलता है कि मेनाण्डर ने अनेक स्तूपों का निर्माण करवाया था। मेनाण्डर का समीकरण मिलिन्द से किया जाता है जिनका उल्लेख नागसेन ने ‘मिलिन्द-पन्हो‘ में किया। इस ग्रन्थ में महान बौद्ध मिक्षु नागसेन तथा मिलिन्द के अनेक गूढ दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देते है तथा अन्ततोगत्वा वह उनके प्रभाव से बौद्ध हो जाता है। यह कहा गया है कि मेनाण्डर अपने पुत्र के पक्ष में सिंहासन त्याग कर न केवल भिक्षु अपितु अर्हत बन गया।
मिलिन्द-पण्हो से पता चलता है कि मिनाण्डर एक उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या तथा कला का प्रेमी था। उसकी राजधानी साकल तात्कालीन भारत का प्रमुख सांस्कृतिक एवं व्यापारिक स्थल बन गई थी। यहॉ के नागरिकों के पास भारी मात्रा में कार्षापण, स्वर्ण तथा रजत मुद्राएॅ विद्यमान थी। इसकी शोभा को देखने से प्रतीत होता था कि साक्षात स्वर्ग लोक की पृथ्वी पर उतर आया है। मिनाण्डर यद्यपि एक विदेशी शासक था तथापि उसने भारतीय धर्म को अपनाया तथा उसमें अपने लिए अत्यन्त आदरणीय स्थान बना लिया। निःसन्देह भारत में उसका स्थान सिकन्दर के अपेक्षा अधिक उॅंचा है।
यूनानियों के शासन का अंत सीथियनों (शकों) द्वारा किया गया। गार्गी संहिता के अनुसार ‘ज्योतिष’ के क्षेत्र में भारत यूनान का ऋणी है। भारतीयों ने यूनानियों से ही कैलेंडर प्राप्त किया। तक्षशिला के यवन राजा एण्तियालकिडास के राजदूत हेलियोडोरस ने (जो कि भागवत् धर्म का अनुयायी था) देवों के देव वसुदेव (विष्णु के अवतार ‘कृष्ण’) का बेसनगर (विदिशा) में एक गरुड़ध्वज स्थापित किया। हिन्द-यूनानियों ने उत्तर-पश्चिम में यूनान की प्राचीन कला हेलिनिस्टिक आर्ट का खूब प्रचलन किया। सॉचे में ढॅली मुद्राओं के निर्माण की विधि भारतीयों ने यूनानियों से ही ग्रहण की थी। इण्डों-ग्रीक शासकों ने ही सर्वप्रथम अपने सिक्कों पर लेख उत्कीर्ण करवाया था। भारत की गंधार-कला शैली पर इनकी स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

हिन्द -पार्थियन :

ई०पू० पहली शती के अंत में ‘पार्थियन’ नामों वाले कुछ शासक पश्चिमोत्तर भारत पर राज कर रहे थे। इन्हें भारतीय स्रोतों में पहलव कहा गया है। पहलव शक्ति का वास्तविक संस्थापक मिथेडेट्स-1 था जो कि यूक्रेटाइड्स का समकालीन था। भारत में पहला पार्थियन शासक माउस (डंनमे) था, जिसने ई०पू० 90 से ई०पू० 70 तक राज किया। इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासकं गोंडोफर्निस (गुन्दफर्न) था जिसने 20-41 ई० के दौरान शासन किया। 65 ई० के हजारा जिले के पंजतर अभिलेख एवं 79 ई० के तक्षशिला अभिलेख के अनुसार कुषाणों ने भारत में हिन्द-पार्थियन शासन का अंत किया।

शक :

शकों का मूल निवास-स्थान मध्य एशिया की सरदारिया नदी का तट था। ई०पू० 165 में शकों का कबीला ‘उत्तर-पश्चिम चीन’ में निवास करने बाले एक अन्य कबीले यू-ची द्वारा अपने मूल स्थान से खदेड़ दिया गया। शकों ने इसके बाद बैक्टिया. पार्थिया आदि पर आक्रमण किया। शक आगे बढ़े एवं ‘हिंद-पार्थियन’ से उनका संघर्ष हुआ। भारत में शक शासक स्वयं को क्षत्रप कहते थे। शक शासक भारत में दो शाखाओं उत्तरी क्षत्रप (तक्षशिला एवं मथुरा) तथा पश्चिमी क्षत्रप (नासिक एवं उज्जैन) में बंटे थे। उज्जैन के एक स्थानीय राजा द्वारा शकों को 58 ई०पू० में पराजित कर खदेड़ दिया गया तथा उसके द्वारा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की गई। इसी के पश्चात भारतीय इतिहास में ‘विक्रमादित्य’ एक लोकप्रिय उपाधि हो गई एवं कम से कम 14 शासकों ने यह उपाधि धारण की। उज्जैन के शक क्षत्रपों में चष्टन सर्वाधिक प्रसिद्ध है। ‘विक्रमादित्य द्वारा शकों पर विजय की स्मृति में 57 ई०पू० में विक्रम संवत् चलाया गया।

रूद्रदामन – शक वंश का सबसे शक्तिशाली तथा प्रतापी शासक रूद्रदामन (130-150 ई०) था। जूनागढ अर्थात गिरनार से शक् सम्वत् 72 ई0 अर्थात 150 ई0 का उसका एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जो प्रशस्ति के रूप में है। इससे उसकी विजयों, व्यक्तित्व और कृतित्व का विवरण प्राप्त होता है। जूनागढ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सभी जातियों के लोगों ने रूद्रदामन को अपना रक्षक चुना था तथा उसने ‘महाक्षत्रप‘ की उपाधि स्वयं ग्रहण की थी। इससे ऐसा संकेत मिलता है कि उसके पूर्व शकों की शक्ति निर्बल पड गई थी जिसे अपने बाहुबल से पुनः प्रतिष्ठित किया। अभिलेखों से यह भी ज्ञात होता है कि उसने अवन्ति, नर्मदा के तट पर अवस्थित महिष्मती, उत्तरी कोंकण के क्षेत्र, सौराष्ट्र, मालवा प्रदेश, साबरमती का क्षेत्र, राजस्थान के क्षेत्र, सिन्ध के क्षेत्र आदि क्षेत्रो पर आधिपत्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। अभिलेखों से यह भी पता चलता है कि उसने दक्षिणापथ के स्वामी शातकर्णी को दो बार पराजित किया। यौधेयों को पराजित कर रूद्रदामन ने उन्हे अपने नियंत्रण में कर लिया तथा उसका राज्य उनके आक्रमणों से सदा के लिए सुरक्षित हो गया।

विजेता होने के साथ-साथ रूद्रदामन एक प्रजापालक सम्राट भी था। जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि उसके शासनकाल में सौराष्ट्र में सुदर्शन झील, जिसका निर्माण चन्द्रगुप्त के समय में हुआ था, का बॉध भारी बारिश में टूट गया था जिसके फलस्वरूप झील का सारा पानी बह गया तथा चारों ओर हाहाकार मच गया। चूॅंकि इसके पुनर्निमाण में बहुत अधिक धन की आवश्यकता थी, अतः रूद्रदामन ने जनता पर बिना कोई अतिरिक्त कर लगाए ही अपने व्यक्तिगत कोष से धन देकर अपने राज्यपाल सुविशाख के निर्देशन में बॉंध की फिर से मरम्मत करवाई तथा उससे तीन गुना मजबूत बॉध बनवा दिया। उसके शासन में प्रजा को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं था। उसने साम्राज्य को प्रान्तों में विभक्त किया था और प्रत्येक प्रान्त का शासन योग्य तथा विश्वासपात्र अमात्य के अधीन रखा गया था। जूनागढ अभिलेख में उसे ‘भष्ट-राज-प्रतिष्ठापक‘ कहा गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त के समान उसने भी पराजित राजाओं के राज्य पुनः वापस कर दिये थे।
रूद्रदामन महान विजेता एवं कुशल प्रशासक होने के साथ ही एक उच्च कोटि का विद्वान तथा विद्या प्रेमी था। वह वैदिक धर्मानुयायी था तथा संस्कृत भाषा को उसने राज्याश्रय प्रदान किया। इससे पता चलता है कि रूद्रदामन व्याकरण, राजनीति, तर्कविद्या में प्रवीण था। विशुद्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ उसका अभिलेख प्राचीनतम अभिलेखों में से एक है तथा इससे उस समय संस्कृत भाषा के पर्याप्त रूप से विकसित होने का प्रमाण मिलता है। रूद्र दामन संस्कृत भाषा और अलंकार शास्त्र का प्रकांड पंडित था, उसने संस्कृत भाषा के पहले नाटक की रचना कराई। उसके समय में उज्जयिनी शिक्षा का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। इस प्रकार रूद्रदामन एक महान विजेता, साम्राज्य निर्माता, उदार एवं लोकोपकारी प्रशासक तथा हिन्दू घर्म एवं संस्कृत का महान उन्नायक था। सामान्यतया उसका शासनकाल 130 ई0 से 150 ई0 तक माना जाता है। उसका अन्त किन परिस्थितीयों में हुआ यह हमें ज्ञात नही है।
रूद्रदामन की मृत्यु के पश्चात् उज्जयिनी के शकों की शक्ति क्रमशः घटने लगी और इस तरह से शक -सत्ता का पतन होने लगा। पश्चिम भारत का अन्तिम शक नरेश रूद्रसिंह तृतीय था। गुप्त नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय ने उसे परास्त कर पश्चिमी भारत से शक-सत्ता का उन्मूलन कर दिया।

कुषाण वंश :

मौर्योत्तर काल में विदेशी आक्रमणकारियों में कुषाण वंश महत्वपूर्ण स्थान रखता है। द्वितीय शताब्दी ई०पू० में चीन के सीमांत प्रदेशों में रहने वाली यू-ची जनजाति को एक अन्य बर्बर जनजाति हूण ने खदेड़ दिया फलस्वरूप यू-ची ने मध्य एशिया में शरण ली। कुछ समय पश्चात यू-ची का 5 शाखाओं में विभाजन हो गया। इन्हीं शाखाओं में एक का नाम कुषाण था। कालांतर में कुजुल कडफिसस के नेतृत्व में कुषाणों ने यू-ची की शेष शाखाओं पर विजय प्राप्त कर ली। इस प्रकार कुजुल कडफिसस कुषाण वंश का प्रथम शासक बना। उसने अफगानिस्तान और तक्षशिला के आस-पास के भू-भागों पर कुषाण साम्राज्य की सुदृढ़ नींव डाली और महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। कुजुल कडफिसस ने केवल ताम्बे के सिक्के जारी किये और सिक्कों पर एक तरफ अंतिम यूनानी राजा हर्मियस और दूसरी ओर इसकी स्वयं की आकृति खुदी मिली है। सामान्यतया कुजुल कडफिसस का शासनकाल 15 ई0 से 65 ई0 के बीच माना जाता है।
भारत के आंतरिक भाग में कुषाण साम्राज्य को संगठित करने का श्रेय इस वंश के अगले शासक विम कडफिसस को प्राप्त है। उसने कश्मीर, पंजाब एवं सिंध आदि राज्यों पर अधिकार करते हुए कुषाण साम्राज्य का विस्तार किया। विम कडफिसस के सिक्कों पर नंदी, शिव और त्रिशूल की आकृति खुदी होने से अनुमान लगाया जाता है कि वह शैव मतानुयायी था। उसने ‘महेश्वर‘ की उपाधि धारण की थी। विम कडफिसस के मिले ताम्बे और स्वर्ण सिक्कों पर यूनानी और खरोष्ठी दोनों लिपियों में लेख मिलते है। प्लिनी के विवरण से पता चलता है कि उसके समय भारत और रोम के बीच व्यापारिक सम्बन्ध अत्यन्त विकसित अवस्था में थे और चीन के साथ भी उसका व्यापारिक सम्बन्ध था।

कनिष्क –

कनिष्क कुषाण शासकों में सबसे योग्य और महान था। कनिष्क और उसके उत्तराधिकारियों का इतिहास हमें मुख्यतः तिब्बती बौद्ध स्रोतों, संस्कृत बौद्ध स्रोतों के चीनी अनुवाद तथा चीनी यात्रियों के विवरण से ज्ञात करते है। कौशाम्बी, सारनाथ, मथुरा आदि स्थानों से कनिष्क के लेख भी मिलते है। उत्तर प्रदेश, बंगाल और विहार के विभिन्न स्थानों से कनिष्क और उसके वंशजों के सिक्के भी प्राप्त होते है। अभिलेखों और सिक्कों के प्रसार से एक ओर जहॉ उसका साम्राज्य विस्तार सूचित होता है वही दूसरी ओर राज्य की आर्थिक समृद्धि तथा धर्म के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी भी मिलती है। इन स्रोतों के अतिरिक्त तक्षशिला तथा अफगानिस्तान स्थित बेग्राम से की गई खुदाईयों से भी कुषाण इतिहास के पुनर्निमाण के लिए उपयोगी सामग्रियॉ मिल जाती है। तक्षशिला की खुदाई 1915 ई0 में सर जॉन मार्शल द्वारा करवाई गई थी।
कनिष्क की उत्पत्ति और प्रारंभिक जीवन अन्धकारपूर्ण है और दुर्भाग्य से हमें किसी भी साक्ष्य से उसके राज्यारोहण की निश्चित तिथि का पता नही चलता। इस सन्दर्भ में विभिन्न इतिहासकारों के अलग-अलग मत और तर्क है और इन मतों और तर्को के अध्ययन के पश्चात यह निष्कर्ष निकलता है कि उसका राज्यारोहण 78 ई0 में ही हुआ। कनिष्क की तिथि की समस्या पर विचार करने के लिए लन्दन में 1913 ई0 तथा 1960 ई0 में दो अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किये गये और द्वितीय सम्मेलन में आम सहमति 78 ई0 के पक्ष में ही बनी।

कनिष्क की उपलब्धियॉ –

कनिष्क एक महान विजेता था जिसने कडफिसस साम्राज्य को बहुत अधिक विस्तृत किया। कनिष्क के साम्राज्य की सीमाएॅ अफगानिस्तान, सिन्ध, बैक्ट्रियॉ, पार्थिया तथा भारत में मगध तक फेला था। राजतरंगिणी से पता चलता है कि काश्मीर भी कनिष्क के राज्य का ही अंग था। पर्याप्त साम्राज्य विस्तार के बाद उसने अपनी राजधानी पुरूषपुर या पेशावर को बनायी थी। मथुरा उसकी दूसरी राजधानी थी। संक्षेप में उसकी विजयों और उपलब्धियों का विवरण निम्नलिखित है –

पूर्वी भारत की विजय – सारनाथ से कनिष्क के शासन के तीसरे वर्ष का प्राप्त अभिलेख तथा ‘श्रीधर्मपिटकनिदानसूत्र‘ के चीनी अनुवाद से पता चलता है कि कनिष्क ने पाटलिपुत्र के राजा पर आक्रमण कर उसे बुरी तरह परास्त किया तथा हर्जाने के रूप में एक बहुत बडी रकम की मॉग की परन्तु इसके बदले में वह अश्वघोष नामक लेखक, बुद्ध का भिक्षा-पात्र तथा एक अदुभूत मुर्गा पाकर ही संतुष्ट हो गया। भोजपुर, पाटलिपुत्र, वैशाली आदि कई स्थानों से प्राप्त सिक्के बिहार पर कनिष्क के अधिकार की पुष्टि करते है। बिहार के आगे बंगाल के कई स्थानों जैसे तामलुक तथा महास्थान से भी कनिष्क के सिक्के मिले है। कौशाम्बी तथा श्रावस्ती से प्राप्त बुद्ध प्रतिमाओं की चरण- चोटियों पर उत्कीर्ण अभिलेखों में कनिष्क के शासनकाल का उललेख मिलता है। इनसे यह प्रमाणित होता है कि इन स्थानों पर कनिष्क ने विजय प्राप्त की थी।

चीन के साथ यु़द्ध – चीनी तुर्किस्तान के प्रश्न पर कनिष्क और चीन के बीच युद्ध होने के भी विवरण प्राप्त होते है। चीनी इतिहासकारों के अनुसार लगभग 90 ई0 के आसपास कनिष्क ने चीनी सेनापति के पास अपना एक दूत भेजकर हन राजकुमारी से विवाह की मॉग की लेकिन जब चीनी शासक पान-चाउ ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया तो उसने चीनी राज्य पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में कनिष्क असफल रहा परन्तु शीध्र ही कनिष्क ने अपनी पराजय का बदला ले लिया। व्हेनसांग के विवरण से पता चलता है कि गांधार प्रदेश के राजा कनिष्क ने प्राचीन काल में सभी पडोसी राज्यों को जीतकर एक विस्तृत प्रदेश पर शासन किया और सुंग-लिन पर्वत के पूर्व में भी उसका अधिकार था। यहॉ सुंग-लिन का तात्पर्य चीनी-तुर्कीस्तान से है जिसमें यारकन्द, खेतान और काशगर शामिल थे। इसके अतिरिक्त बैक्ट्रिया, ख्वारिज्म और तुखारा पर भी उसका अधिकार था।

पश्चिमोत्तर प्रदेशों की विजय – कनिष्क ने अपने शासनकाल के 11वें वर्ष में उसने निचली सिन्धु घाटी को जीत लिया था। कपिशा से कनिष्क के विजय की पुष्टि व्हेनसांग भी करता है। काबुल के वार्दाक से शक संवत् 151 तिथि वाला हुविष्क का एक लेख मिला है जो अफगानिस्तान के उपर कुषाण सत्ता को प्रमाणित करता है। संभवतः यह विजय भी कनिष्क के समय में ही की गई थी। कल्हण की राजतरंगिणी से भी पता चलता है कि उसका काश्मीर पर अधिकार था। उसके अनुसार उसने यहॉ कनिष्कपुर नामक नगर बसाया था।

दक्षिण भारत का अभियान – सॉची से कनिष्क संवत् 28 का एक लेख मिला है जो वासिष्क का है तथा बौद्ध प्रतिमा पर खुदा हुआ है। वासिष्क की किसी भी उपलब्धि का ज्ञान हमें नही है क्योंकि उसका शासनकाल मात्र चार वर्षो का था। अतः कहा जा सकता है कि यह भू-भाग कनिष्क द्वारा ही विजित किया गया होगा। ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि दक्षिण में कम से कम विन्ध्यपर्वत तक कनिष्क का साम्राज्य विस्तृत था।

प्रशासन और धर्म –

अपनी अनेकानेक विजयों द्वारा कनिष्क ने अपने लिए एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया था और पुरूषपुर इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी। इस विशाल साम्राज्य में उसने बेहतर शासन प्रबन्ध लागू किया था। वास्तव में प्रशासन के सामन्तीकरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ शक-कुषाण काल से ही होता दिखाई पडता है। एक ही प्रान्त पर दो शासक नियुक्त करने की विचित्र प्रथा का प्रारम्भ कुषाणों के समय में ही देखने का मिलता है। मथुरा संभवतः उसके शासन का मुख्य केन्द्र था और दूसरा प्रशासनीक केन्द्र वाराणसी में था।
कनिष्क ने प्रथम बार एक अन्तर्राष्ट्रीय साम्राज्य की स्थापना की थी। इस काल में आर्थिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है भारत का मध्य एशिया तथा पाश्चात्य विश्व के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध की स्थापना। कुषाणों ने चीन से ईरान तथा पश्चिम एशिया तक जाने वाले रेशम के मार्ग को अपने नियंत्रण में रखा क्योंकि यह उनके साम्राज्य से होकर गुजरता था। यह मार्ग उनकी आय का सबसे बडा स्रोत था। इस सिल्क व्यापार में भारतीयों ने बिचौलिए के रूप में भाग लेना प्रारम्भ किया। भारत के व्यापार चीन से रेशम खरीदकर रोम को भेजते तथा उसके बराबर सोना प्राप्त करते थे। प्लिनी ने भारत रोम व्यापार में रोम से भारत आ रहे सोने के सिक्के पर दुख व्यक्त किया है। रोमन साम्राज्य का सर्वाधिक लाभ दक्षिण भारत को मिला। प्लिनी ने भारत को ‘रत्नों की एकमात्र जननी‘ कहा है। उसके अनुसार भारत में पीतल और सीसा का उत्पादन नहीं होता था।
कुषाणकालीन भारत में व्यापार वाणिज्य के क्षेत्र में सिक्कों का नियमित रूप से प्रचलन हुआ। कुषाणों के पास स्वर्ण का भारी भण्डार था जिसे उन्होने मध्य एशिया के अल्लाई पहाडी एवं रोम से प्राप्त किया था। कुषाण सिक्के शुद्धता की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट थे। कनिष्क ने सर्वप्रथम अपने द्वारा जारी किये गये सिक्के पर बुद्ध की आकृति बनवायी। इस प्रकार कनिष्क का शासनकाल आर्थिक समृद्धि और सम्पन्नता का काल था। इस समय आयात-निर्यात मुख्यतः बारबेरिकम और भडौच बन्दरगाह से होता था। इसके अतिरिक्त अरिकमेडु, ताम्रलिप्ति, कावेरीपत्तनम तथा मुजिरिस प्रमुख बन्दरगाह थे। मिलिन्दपण्हो में 75 प्रकार तथा महावस्तु में 36 प्रकार के व्यवसाय होने के उल्लेख मिलते है।
कनिष्क की ख्याति उसके विजयों के कारण नही अपितु धार्मिक और सांस्कृतिक उपलब्धि के कारण है। वह प्रारंभिक चरण से ही बौद्ध धर्मानुयायी था। पेशावर में स्थित प्रसिद्ध चैत्य का निर्माण करवाकर उसने बौद्ध धर्म के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की थी। उसने बौद्ध धर्म की महायान शाखा को राज्याश्रय प्रदान किया और उसका मध्य एशिया तथा चीन में प्रचार करवाया। उसके शासनकाल में ही काश्मीर के कुण्डलवन नामक स्थान में बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगिति का आयोजन किया गया था जिसकी अध्यक्षता प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान वसुमित्र ने की थी तथा अश्वघोष उसके उपाध्यक्ष बनाये गये थे। इस बौद्ध संगिति में ‘विभाषाशास्त्र‘ नामक बौद्ध ग्रन्थों का संकलन किया गया। कनिष्क के समय में ही बौद्ध धर्म स्पष्टतः दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया – हीनयान और महायान। यद्यपि वह बौद्ध मतावलम्बी था तथापि वह अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णु बना रहा।
कनिष्क का शासनकाल साहित्य की प्रगति के लिए भी प्रसिद्ध है। वह स्वयं विद्या का उदार संरक्षक था तथा उसके दरबार में उच्चकोटि के विद्वान और दार्शनिक निवास करते थे। ऐसे विद्वानों में अश्वघोष का नाम सर्वप्रमुख है जो कनिष्क के राजकवि थे। अश्वघोष की तीन प्रमुख रचनाएॅ है – बुद्धचरित, सौन्दरनन्द और शारिपुत्रप्रकरण। इनमें प्रथम दो महाकाव्य और अन्तिम नाटक ग्रन्थ है। बुद्धचरित में गौतम बुद्ध के जीवन का सरल और सरस वर्णन मिलता है। सौन्दरनन्द में बुद्ध के सौतेले भाई सुन्दर नन्द के सन्यास ग्रहण का वर्णन है जबकि शारिपुत्रप्रकरण में बुद्ध के शिष्य शारिपुत्र के बौद्ध धर्म में दीक्षित होने का नाटकीय विवरण प्रस्तुत किया गया है। विद्वानों ने अश्वघोष की तुलना मिल्टन, गेटे तथा वाल्तेयर से की है। इसके अतिरिक्त माध्यमिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य नागार्जुन भी कनिष्क के राजसभा में निवास करते थे। उन्होने ‘प्रज्ञापारमितासूत्र‘ की रचना की जिसमें शून्यवाद अर्थात सापेक्षवाद की प्रतिपादन है। नागार्जुन को भारत का आइन्सटाइन कहा जाता है तथा इनकी तुलना मार्टिन लूथर से की जाती है। अन्य विद्वानों में पार्श्व, वसुमित्र, संघरक्ष, मातुचेट आदि का नाम उल्लेखनीय है। संधरक्ष कनिष्क के पुरोहित थे। कनिष्क के ही दरबार में आयुर्वेद के प्रख्यात विद्वान चरक निवास करते थे और वे कनिष्क के राजवैद्य थे जिन्होने ‘चरक-संहिता‘ की रचना की। वात्सायन का कामसूत्र तथा भारवि की वासवदत्ता कुषाण काल में ही लिखी गई।

कला और स्थापत्य –

कुषाण राजाओं के संरक्षण में भी बौद्ध कलाओं का विकास होता रहा। प्रसिद्ध कुषाण शासक कनिष्क के शासनकाल में अनेक स्तूपों और विहारों का निर्माण हुआ। उसने अपनी राजधानी पुरूषपुर में 400 फीट उॅचा 13 मंजिलों वाला एक टावर बनवाया था। इसके उपर एक लौहछत्र स्थापित किया गया तथा उसी के पास में एक विशाल संघाराम निर्मित किया गया था जिसे ‘कनिष्क चैत्य‘ के नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण यवन वास्तुकार अगिलस द्वारा किया गया था। इसके अतिरिक्त कनिष्क ने काश्मीर में कनिष्कपुर नामक एक नये नगर की स्थापना की थी। कनिष्क के शासनकाल में कला के क्षेत्र में दो स्वतन्त्र शैलियों का विकास हुआ – गान्धार शैली और मथुरा शैली।

गान्धार कला शैली – यूनानी कला के प्रभाव से देश के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में कला की जिस नवीन शैली का उदय और विकास हुआ उसे गान्धार शैली कहा जाता है। पश्चिमी विद्वानों का मानना है कि सर्वप्रथम गान्धार शैली में ही बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया गया था। यद्यपि वी0एस0 अग्रवाल जैसे इतिहासकारों ने अत्यन्त तार्किक ढंग से यह सिद्ध कर दिया है कि सर्वप्रथम बुद्ध मूर्ति का निर्माण मथुरा के शिल्पियों द्वारा किया गया था। गान्धार शैली में भारतीय विषयों को यूनानी ढंग से व्यक्त किया गया है और इस पर रोमन कला का भी स्पष्ट प्रभाव दिखता है। इसका विषय केवल बौद्ध है, इसलिए कभी कभी इस कला को यूनानी बौद्ध कला भी कहा जाता है। इस शैली की मूर्तियॉ अफगानिस्तान, तथा पाकिस्तान के अनेक स्थलों से प्राप्त हुई है। इसका प्रमुख केन्द्र गान्धार ही था इसी कारण यह ‘गान्धार कला‘ के नाम से ही ज्यादा लोकप्रिय है।

गान्धार कला के अन्तर्गत बुद्ध और बोधिसत्वों की बहुसंख्यक मूर्तियों का निर्माण हुआ और ये मूर्तियॉ काले स्लेटी पाषाण, चूने तथा पकी मिट्टी से बनी है। ये मूर्तियॉ विभिन्न मुद्राओं में है और साथ ही साथ बुद्ध के जीवन और पूर्व जन्मों से सम्बन्धित विविध घटनाओं के दृश्यों का अंकन भी इस शैली में किया गया है। कुछ दृश्य अत्यन्त कारूणिक और प्रभावोत्पादक है। तपस्यारत बुद्ध का एक दृश्य जिसमें उपवास के कारण उनका शरीर अत्यन्त क्षीण हो गया है, गान्धार कला के सर्वोत्तम नमूनों में से है। इस शैली की बनी मूर्तियों में बुद्ध की वेश-भूषा सूनानी है, उनके पैरों में जूते दिखाए गए है, प्रभामण्डल सादा और अलंकरणरहित है। उनके सिर पर घुंघराले बाल दिखाये गये है। इन सबका प्रतिफल यह है कि बुद्ध की मूर्तियॉ यूनानी देवता अपोलो की नकल प्रतीत होती है। इतना सब होने के वाबजूद इनमें वह सहजता तथा भावनात्मक स्नेह नहीं है जो भरहुत, सॉची, गया की मूर्तियों में दिखाई देता है इसी कारण यह कहा जाता है कि इस शैली के कलाकार के पास ‘यूनानी का हाथ परन्तु भारतीय का हृदय था।
गान्धार शैली में निर्मित बुद्ध तथा बोधिसत्व मूर्तियॉ ही विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन मूर्तियों में आध्यात्मिकता तथा भावुकता न होकर बौद्धिकता एवं शारीरिक सौन्दर्य की ही प्रधानता दिखाई देती है। चॅूंकि यूनानी विचार नैतिक एवं बुद्धिप्रधान था जबकि भारतीय विचार आध्यात्मिक एवं भावना-प्रधान था, यही कारण है कि भारत के बाहर गान्धार कला का व्यापक प्रभाव रहा और इसने चीनी तुर्किस्तान, मंगोलिया, चीन, कोरिया, जापान आदि की बौद्ध कला को जन्म दिया।

मथुरा कला शैली – कुषाण काल में मथुरा भी कला का प्रमुख केन्द्र था जहॉ अनेक स्तूपो, विहारों एवं मूर्तियों का निर्माण करवाया गया। इस समय तक शिल्पकारी एवं मूर्ति निर्माण के लिये मथुरा के कलाकार दूर-दूर तक प्रख्यात हो चुके थे। दुर्भाग्यवश आज वहाँ एक भी विहार शेष नही है किन्तु यहाँ से अनेक हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मूर्तियाँ प्राप्त हुई है। इनमें अधिकांशतः कुषाण युग की है। कनिष्क, हुविष्क तथा वासुदेव के काल में मथुरा कला का सर्वात्कृष्ट विकास हुआ। प्रारम्भ में यह माना जाता था कि गन्धार की बौद्ध मूर्तियो के प्रभाव एवं अनुकरण पर ही मथुरा की बौद्ध मर्तियों का निर्माण हुआ था, परन्तु यह स्पष्टतः सिद्ध हो चुका है कि मथुरा की बौद्ध मूर्तियाँ गन्धार से सर्वथ स्वतन्त्र थी तथा उनका आधार मूल रूप से भारतीय ही था। वासुदेव शरण अग्रवाल के मतानुसार सर्वप्रथम मथुरा में ही बुद्ध मूर्तियों का निर्माण किया गया जहाँ इनके लिये पर्याप्त धार्मिक आधार था। उनकी मान्यता है कि कोई मूर्ति तब तक नही बनाई जा सकती जब तक उसके लिये धार्मिक मांग न हो। मूर्ति की कल्पना धार्मिक भावना की तुष्टि के लिये होती है। इस बात के प्रमाण है कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी में मथुरा भक्ति आन्दोलन का केन्द्र बन गया था जहाँ संकर्षण, वासुदेव तथा पंचवीरो (बलराम, कृष्ण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध तथा साम्ब) की प्रतिमाओ के साथ ही साथ जैन तीर्थकरों की प्रतिमाओं का भी पूर्ण विकास हो चुका था और इसका प्रभाव बौद्ध धर्म पर पड़ा। फलस्वरूप बौद्धो को भी बुद्ध मूर्ति के निर्माण की आवश्यकता प्रतीत हुई। कनिष्क के शासनकाल में महायान बौद्ध – धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हो गया। इसमें बुद्ध की मूर्तिरूप में पूजा किये जाने का विधान था। बौद्धों की तृप्ति अब केवल प्रतीक पूजा से नहीं हो सकती थी। उन्हें बुद्ध को मानव मूर्ति के रूप में देखने की आवश्यकता प्रतीत हुई और इसी भावना से मथुरा के शिल्पियों द्वारा पहले बोधिसत्व तथा फिर बुद्ध मूर्तियो का निर्माण किया गया। मथुरा से कुछ ऐसी बोधिसत्व प्रतिमायें मिली है जिन पर कनिष्क संवत् की प्रारम्भिक तिथियों में लेख खुदे है। इसके विपरीत गन्धार कला की मूर्तियो में से एक पर भी कोई परिचित संवत् नहीं है। जो तीन-चार तिथियाँ मिलती है उनके आधार पर गन्धार कला का समय पहली से तीसरी शती ईस्वी के बीच ठहरता है। इस प्रकार मथुरा की बौद्ध प्रतिमायें प्राचीनतर सिद्ध होती है। इस प्रसग में एक अन्य विचारणीय बात यह है कि गधार मूर्तियो पर जो बौद्ध प्रतिमा लक्षण के चिन्ह जैसे पद्मासन, ध्यान, नासाग्रदृष्टि, उष्णीश आदि मिलते है उनका स्रोत भारतीय ही है न कि ईरानी तथा यूनानी। स्पष्टतः गन्धार के शिल्पकारो ने इन प्रतिमा लक्षणो को मथुरा के शिल्पियो से ही ग्रहण किया था जो उनके पूर्व इन प्रतिमालक्षणो से युक्त बोधिसत्व. तथा बुद्ध की बहुसंख्यक प्रतिमाओ का निर्माण कर चुके थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि बुद्ध मूर्तियाँ सर्वप्रथम मथुरा मे हो गढ़ी गयी। यदि वे गन्धार में विदेशी कलाकारों द्वारा गढ़ी गयी होती तो प्रतिमालक्षण के विविध चिन्ह कदापि नही आये होते क्योंकि ईरानी तथा यूनानी कला में इन लक्षणों का अभाव था।

मथुरा से बुद्ध एवं बोधिसत्वों की खड़ी तथा बैठी मुद्रा में बनी मूर्तियॉ मिली है। उनके व्यक्तित्व में चक्रवर्ती तथा योगी दोनों का ही आदर्श देखने को मिलता है। बुद्ध मूर्तियो में कटरा से प्राप्त मूर्ति विशेष रूप से उल्लेखनीय है जिसे चौकी पर उत्कीर्ण लेख में ‘बोधिसत्व‘ की संज्ञा दी गयी है। इसमें बुद्ध को भिक्षु वेष धारण किये हुए दिखाया गया है। वे बोधिवृक्ष के नीचे सिंहासन पर विराजमान है तथा उनका दायॉ हाथ अभय मुद्रा में ऊपर उठा हआ है। हथेली तथा तलवो पर धर्मचक्र तथा त्रिरत्न के चिह्न बनाये गये है। इस प्रकार समग्र रूप से यह मूर्ति कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त प्रशंसनीय है। इसके अतिरिक्त मैत्रेय, काश्यप अवलोकितेश्वर आदि बोधिसत्व-मूर्तियाँ भी मथुरा से मिलती है। वे सफेद, चित्तीदार, लाल एवं रवादार पत्थर से बनी है। गन्धार मूर्तियों के विपरीत वे सभी आध्यात्मिकता एवं भावना प्रधान है। अनेक मूर्तियाँ वेदिका स्तम्भों पर उत्कीर्ण है। बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाये भी स्तम्भों पर मिलती है। जन्म, अभिषेक, महाभिनिष्क्रमण, सम्बोधि, धर्मचक्रप्रवर्तन, महापरिनिर्वाण आदि उनके जीवन की विविध घटनाओं का कुशलतापूर्वक अकन मथुरा कला के शिल्पियों द्वारा किया गया है। यहाँ के कलाकारो ने ईरानी तथा यूनानी कला के कुछ प्रतीको को भी ग्रहण कर उन पर भारतीयता का रंग चढ़ा दिया। यही कारण है कि मथुरा की कुछ बुद्ध मूर्तियों में गन्धार मूर्तियो के लक्षण दिखाई देते है, जैसे-कुछ मूर्तियों में मूॅंछ तथा पैरों में चप्पल दिखाई गयी है। कुछ उपासको की भी मूर्तियाँ है जो अपने हाथ जोड़े हुए तथा माला ग्रहण किये हुए प्रदर्शित किये गये है। कुछ दृश्य महाभारत की कथाओं का प्रतिनिधित्व करते है।

मथुरा शैली में शिल्पकारी के भी सुन्दर नमूने मिलते है। बुद्ध एवं बोधिसत्व मूर्तियों के अतिरिक्त मथुरा से कनिष्क की एक सिररहित मूर्ति मिली है जिस पर ‘महाराज राजाधिराजा देवपत्रो कनिष्को‘ अंकित है। यह खडी मुद्रा में है तथा 5 फुट 7 इंच ऊँची है। राजा घुटने तक कोट पहने हए है, उसके पैरों में भारी जूते है, दायाँ हाथ गदा पर टिका है तथा वह बायें हाथ से तलवार को पकड़े हुए है। कला की दृष्टि से प्रतिमा. उच्चकोटि की है जिसमें मूतिकार को सम्राट की पाषाण मूर्ति बनाने में अदुभूत सफलता मिली है। इसमें मानव शरीर का यथार्थ चित्रण दर्शनीय है।

अग्रवाल के शब्दो मे अपनी मौलिकता, सुन्दरता और रचनात्मक विविधता एवं बहुसंख्यक सृजन के कारण मथुरा कला का पद भारतीय कला में बहुत ऊँचा है। मथुरा की कलाकृतियाँ वैदेशिक प्रभाव से मुक्त है तथा इस कला मे भरहुत और सौची की प्राचीन भारतीय कला को ही आगे बढ़ाया गया है।
गन्धार तथा मथुरा के अतिरिक्त सारनाथ से भी कुषाणकाल की एक बोधिसत्व की विशाल मूर्ति मिली है जो खड़ी मुद्रा में है। इसके ऊपर कनिष्क संवत् 3 को तिथि खुदी हुई है। इसी प्रकार आन्ध्र प्रदेश के अमरावती (गुन्टूर जिला) से भी बैठी तथा खड़ी मुद्रा में निर्मित कई बुद्ध मूर्तियाँ प्राप्त होती है। इनमे बुद्ध के बाल घुंघराले है, उनके कन्धो पर संघाटिवस्त्र है तथा वे अपने बाये हाथ से संघाटि को पकड़े हुए है। अमरावती की बुद्ध मूर्तियो का समय ईसा की दूसरी शती माना जाता है।

कनिष्क का मूल्यांकन – कनिष्क के अन्तिम दिनो के विषय में हमे निश्चित रूप से ज्ञात नही है। कनिष्क ने कुल 23 वर्षों तक राज्य किया। यदि हम उसके राज्यारोहण को तिथि 78 ईस्वी माने तो तदनुसार उसकी मृत्यु 101 ईस्वी के लगभग हुई। कनिष्क की उपलब्धियो को देखते हुये हम उसे भारतीय इतिहास के महान् सम्राटो मे स्थान दे सकते है। वह एक महान् विजेता, साम्राज्य-निर्माता तथा विद्या एव कला-कौशल का उदार संरक्षक था। गंगाघाटी में एक साधारण क्षत्रप के पद से उठकर उसने अपनी विजयो द्वारा एशिया के महान् राजाओ में अपना स्थान बना लिया। वह एक कुशल सेनानायक तथा सफल प्रशासक था। अशोक के समान उसने भी बौद्ध धर्म के प्रचार मे अपने साम्राज्य के साधनो को लगा दिया। वह कभी भी धर्मान्ध अथवा धार्मिक मामलो मे असहिष्णु नही हुआ तथा बौद्ध धर्म के साथ-साथ दूसरे धर्मों का भी सम्मान किया। इस प्रकार कनिष्क मे चन्द्रगुप्त जैसी सैनिक योग्यता तथा अशोक जैसा धार्मिक उत्साह देखने को मिलता है। कनिष्फ एक विदेशी शासक था, फिर भी उसने भारतीय संस्कृति में अपने को पूर्णतया विलीन कर दिया। उसने भारतीय धर्म, कला एवं विद्वता को संरक्षण प्रदान किया और इस प्रकार उसने मध्य तथा पूर्वी एशिया में भारतीय संस्कृति के प्रवेश का द्वार खोल दिया।

कनिष्क की मृत्यु के बाद वासिष्क, हुविष्क, कनिष्क द्वितीय, वासुदेव नाम के और शासकों ने शासन किया परन्तु कनिष्क के बाद कुषाणों का साम्राज्य लगातार पतन की ओर बढता गया।



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