Mauryan Art and Culture | मौर्य कालीन कला और संस्कृति
byDr. Rajesh-
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Indian Concept on ‘Chakravartin Samrat’
चक्रवर्ती सम्राट सम्बन्धी भारतीय अवधारणा –
मौर्यो के अधीन मगध साम्राज्य या दूसरे शब्दों में प्राचीन भारत के किसी भी अन्य “साम्राज्य“ को समझने के लिए यह जानकारी उपयोगी हो सकती है कि प्राचीन साहित्य में आदर्श सम्राट का मानदण्ड क्या था। संस्कृत में सम्राट को ’चक्रवर्ती और उसके ’राज्य-क्षेत्र’ को “चक्रवर्ती क्षेत्र’ कहा गया है। हालांकि आरंभिक ब्राह्मण ग्रंथों में राजा द्वारा सम्पन्न “अश्वमेध’ और “राजसूय’ जैसे बलि-यज्ञों की चर्चा है, परन्तु “चक्रवर्ती क्षेत्र’ की स्पष्ट चर्चा अर्थशास्त्र में की गई है। इसके अनुसार, “चक्रवर्ती क्षेत्र“ में उत्तर से लेकर दक्षिण तक हिमालय से लेकर समुद्र तक (हिन्द महासागर) और हज़ार योजन का भू-भाग शामिल होता था। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि चक्रवर्ती परम्परागत विचारों का ही प्रतिबिंबिन था, जिसमें भारतीय राजा के प्रभाव-क्षेत्र की चर्चा की गई थी परन्तु शायद अशोक के अलावा कोई भी इस आदर्श की प्राप्ति में सफल नहीं हुआ। दूसरी तरफ, साहित्यिक और पुरालेखीय स्रोतों में हमेशा बढ़ाचढ़ाकर सार्वभौमिक विजय की महत्त्वकांक्षा का जिक्र होता रहा है। प्रायः इतिहासकार इन आदर्श कथनों को राजाओं द्वारा प्राप्त वास्तविक विशाल राज्य क्षेत्रीय अधिकार से जोड़कर देखने लगते हैं, इससे भ्रम पैदा होता है क्योंकि आदर्श को ही यथार्थ समझ लिया जाता है।
मौर्य प्रशासन(Mauryan Administration) :
मौर्यो के शासनकाल में भारत में पहली बार राजनीतिक एकता स्थापित हुई और साथ ही चक्रवर्ती सम्राट का आदर्श चरितार्थ हुआ। तात्कालीन आर्थिक आवश्यकता और उसकी अपनी आवश्यकताओं ने मौर्य शासन को एक केन्द्रीकृत नौकरशाही का रूप दे दिया जो कि मौर्यो के शासन पद्धति की एक प्रमुख विशेषता है। मौर्य प्रशासन की झलक हमें प्रमुखतया मेगस्थनीज की इण्डिका, कौटिल्य के अर्थशास्त्र और अशोक के अभिलेखों में मिलता है। इस काल में राजतन्त्र का विकास हुआ और गणतन्त्र का पतन हुआ। कौटिल्य ने साप्तांग सिद्धान्त को राज्य का प्रमुख आधार बताया है। ये सात अंग है – राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र। कौटिल्य ने शत्रु को राज्य का आठवॉ अंग बताया है। कौटिल्य की व्यवस्था में राजनीतिक और सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों पर सम्राट का पूर्ण नियन्त्रण था। मौर्य शासक पितृसŸात्मक राजत्व के समर्थक थे। अशोक अपने वृहद शिलालेख में कहता है कि सभी मनुष्य मेरी संतान है। राजा प्रजा के कल्याण और हित को काफी महत्व देते थे। राजा की सहायता के लिए एक मन्त्रिपरिषद होती थी जो राजा को प्रशासन से सम्बन्धित सलाह मशविरा देती थी लेकिन राजा मन्त्रिपरिषद की सलाह को मानने के लिए बाध्य नहीं था। अन्तिम निर्णय राजा का ही होता था। मन्त्रिपरिषद के सदस्यों को 12000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। अमात्य विशाल प्रशासनिक कार्य में सम्मिलित विशाल प्रशासनिक वर्ग को कहा जाता था। राजा अपने अमात्यों में से जो सभी प्रकार के आकर्षणों से परे हुआ करते थे, मन्त्री नियुक्त करता था। ये मन्त्री एक छोटी उपसमिति के सदस्य हुआ करते थे जिसे ‘‘मन्त्रिण‘‘ कहा जाता था। मन्त्रिण के सदस्यों को 48000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।
शासन की सुविधा के लिए केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में बटॉ हुआ था और प्रत्येक विभाग को ‘‘तीर्थ‘‘ कहा जाता था। अर्थशास्त्र में शीर्षस्थ अधिकारी के रूप में 18 ‘‘तीर्थ‘‘ का उल्लेख है जिन्हे 48000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। ये निम्नलिखित है –
पुरोहित व मंत्री – राज्य का प्रमुख धर्माधिकारी व प्रधान मंत्री
समाहर्ता – कर संग्रह करने वाला प्रमुख अधिकारी
सन्निधाता – कोषाध्यक्ष
सेनापति – सेना का सर्वोच्च अधिकारी
युवराज – राजपुत्र
व्यवहारिक – धर्मस्थीय न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
प्रदेष्टा – फौजदारी न्यायालयों का न्यायाधीश
नायक – सेना का प्रमुख संचालक
कर्मान्तिक – खान का प्रमुख अधिकारी
मन्त्रिपरिषदाध्यक्ष – परिषद का अध्यक्ष
दण्डपाल – पुलिस प्रमुख
अन्तपाल – बाह्य सुरक्षा का प्रमुख
दुर्गपाल – देश के भीतर दुर्गो का रक्षक
नागरक – नगर का शासनाधिकारी
प्रशास्ता – राजाज्ञाएॅ लिपिबद्ध करने वाला अधिकारी
दौवारिक – राजमहलों की देखरेख करने वाला
अन्तर्वशिक – हरम का प्रमुख
आटविक – वन विभाग का प्रधान अधिकारी
उपर्युक्त पदाधिकारियों के अतिरिक्त अनेक अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख अर्थशास्त्र में मिलता है जिनके जिम्मे कोई न कोई सरकारी विभाग था। इन्हे ‘‘अघ्यक्ष‘‘ कहा गया है। मौर्य प्रशासन में इन अध्यक्षों का महत्वपूर्ण स्थान था और इन्हे 1000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। मेगास्थनीज ने इन्हे ‘मजिस्ट्रेट कहा है। इनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है –
पण्याध्यक्ष – वाणिज्य का अध्यक्ष
सुराध्यक्ष – शराबखाने का अध्यक्ष
सूनाध्यक्ष – बूचडखाने का अध्यक्ष
गणिकाध्यक्ष – वेश्याओं का निरीक्षक
सीताध्यक्ष – राजकीय कृषि विभाग का अध्यक्ष
आकराध्यक्ष – खानों का अध्यक्ष
कोष्ठागाराध्यक्ष – कारागार का अध्यक्ष
कुप्याध्यक्ष – वन विभाग तथा सम्पदा का अध्यक्ष
आयुधागाराध्यक्ष – अस्त्र-शस्त्र का अध्यक्ष
सूत्राध्यक्ष – कताई-बुनाई विभाग का अध्यक्ष
लक्षणाध्यक्ष – छापाखाना का अध्यक्ष
सुवर्णाघ्यक्ष – सोने-चॉदी के आभूषण का अध्यक्ष
मुद्राध्यक्ष – पासपोर्ट विभाग का अध्यक्ष
गौध्यक्ष – पशुधन विभाग का अध्यक्ष
वीवीताध्यक्ष – चारागाह विभाग का अध्यक्ष
नवाध्यक्ष – जहाजरानी विभाग का अध्यक्ष
पत्तनाध्यक्ष – बन्दरगाहों का अध्यक्ष
संस्थाध्यक्ष – व्यापारिक मार्गो का अध्यक्ष
प्रान्तीय एवं नगरीय प्रशासन(Provincial Administration):
मौर्य शासकों के अधीन साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों और प्रान्तों को विभाजन अन्य कई प्रशासनीक ईकाईयों में किया गया था। अशोक के अभिलेखों से हमें उस काल के विभिन्न प्रान्तों के नाम ज्ञात होते है जो इस प्रकार है –
उत्तरापथ – इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
अवन्ति – इसकी राजधानी उज्जयिनी थी।
कलिंग – इसकी राजधानी तोसलि थी।
दक्षिणापथ – इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी। इसमें दक्षिण भारत के प्रदेश शामिल थे।
प्राच्य या प्रासी – इसका तात्पर्य पूर्वी भारत से है जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
इन प्रान्तों के शासन राजवंश के ही किसी व्यक्ति द्वारा चलाया जाता था जिन्हे अशोक के अभिलेखों में कुमार या आर्यपुत्र कहा गया है। अर्थशास्त्र के अनुसार राज्यपाल को 12000 पण वार्षिक वेतन मिलता था। केन्द्रीय शासन की भॉति प्रान्तीय शासन में भी मन्त्रीपरिषद होती थी। चन्द्रगुप्त ने पुष्यगुप्त वैश्य को काठियावाड का राज्यपाल बनाया था।
प्रत्येक प्रान्त में कई मण्डल होते थे और अर्थशास्त्र में उल्लिखित अधिकारी ‘प्रदेष्टा‘ मण्डल का प्रधान होता था। अशोक के लेखों में इसे ‘प्रादेशिक‘ कहा गया है। मण्डल का विभाजन जिलों में हुआ था जिसे ‘आहार‘ या ‘विषय‘ कहा जाता था। जिले के नीचे ‘स्थानीय‘ होता था जिसमें लगभग 800 ग्राम शामिल होते थे। 10 ग्रामों को मिलाकर एक ‘संग्रहण‘ होता था जिसका प्रधान ‘गोप‘ कहा जाता था। मेगास्थनीज जिले के इन अधिकारियों को ‘एग्रोनोमोई‘ कहता है। मौर्य युग में प्रमुख नगरों को प्रशासन नगरपालिकाओं द्वारा चलाया जाता था। नगरों के प्रशासन के संचालन के लिए एक सभा होती थी जिसका प्रमुख ‘नागरक‘ कहा जाता था। इस कार्य में गोप तथा स्थानिक नामक कर्मचारी उनकी सहायता करते थे। मेगास्थनीज के अनुसार नगर प्रशासन 30 सदस्यों के एक मण्डल द्वारा किया जाता था जो 6 समितियों में विभाजित था तथा प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी ईकाई होता था जिसका अध्यक्ष ‘ग्रामणी‘ कहलाता था। वह ग्रामवासियों द्वारा निर्वाचित होता था लेकिन वह वेतनभोगी कर्मचारी नहीं था। ग्राम सभा के कार्यालय का कार्य ‘गोप‘ नामक कर्मचारी किया करते थे।
न्याय व्यवस्था (Judiciary System)-
मौर्य शासकों के एकतंत्रात्मक शासन में सम्राट ही सर्वोच्च न्यायाधीश होता था लेकिन उसके साम्राज्य में अनेक अदालते होती थी। न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के होते थे – धर्मस्थीय और कंटक-शोधन। धर्मस्थीय दीवानी न्यायालय थी जिसमें न्याय निर्णय तीन धर्मस्थ या व्यवहारिक तथा तीन अमात्य करते थे। इसमें पेश होने वाली चोरी, डाके व लूट के मामलों को साहस कहा जाता था। कंटक-शोधन एक प्रकार से फौजदारी अदालत थी। इसमें राज्य और व्यक्ति के बीच विवाद न्याय का विषय होता था और न्याय तीन प्रदेष्टि तथा तीन अमात्य मिलकर करते थे। विदेशीयों के मामलों को सुनने के लिए विशेष अदालतें होती थी।
दण्ड विधान अत्यन्त कठोर था। सामान्य अपराधों में आर्थिक जुर्माने अधिक लिए जाते थे। इसके अतिरिक्त कैद, कोडे मारना, अंग-भंग तथा मृत्यु-दण्ड की सजा भी दी जाती थी। पाटलिपुत्र में स्थित केन्द्रीय न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय था। अपराध को रोकने के लिए मुख्य स्थानों पर पुलिस मुख्यालय की व्यवस्था थी। 800 गॉवों के लिए स्थानीय मुख्यालय, 400 गॉवों के लिए द्रोणमुख, 200 गॉवों के लिए खार्वटिक तथा 10 गॉवों के लिए एक संग्रहण मुख्यालय था।
राजस्व प्रशासन (Revenue System) :
मौर्य प्रशासन सुदृढ वित्तीय आधार पर अवलम्बित थी। साम्राज्य के समस्त आर्थिक कार्यकलापों पर सरकार का कठोर नियंत्रण था। भूमि पर राज्य और कृषक दोनों का अधिकार होता था। राजकीय भूमि को सीता भूमि तथा इसकी व्यवस्था को देखने वाला प्रधान अधिकारी सीताध्यक्ष कहलाता था। राज्य की आय का प्रमुख स्रोत भमि-कर था जो सिद्धान्ततः उपज का 1/6 भाग होता था परन्तु व्यवहार में आर्थिक स्थिती के अनुसार इसे बढाया जा सकता था। किसान अपनी व्यक्तिगत भूमि से प्राप्त उपज का एक भाग राजा को कर के रूप में देते थे, जिसे ‘भाग‘ कहा जाता था। राजकीय भूमि से प्राप्त आय को ‘सीता‘ कहा गया है। कृषकों को सिचाई कर भी देना पडता था जिसे ‘उद्रंग‘ कहा गया है। राजस्व एकत्र करना, आय-व्यय का लेखा-जोखा रखना तथा वार्षिक वजट तैयार करना समाहर्ता के प्रमुख कार्य थे। समाहर्ता अक्षपटलाध्यक्ष अर्थात महालेखाकार के कार्यो के निरीक्षण द्वारा आय और व्यय पर नियंत्रण रखता था। स्थानिक और गोप नामक पदाधिकारी प्रान्तों में करों को एकत्र करते थे। इसके अतिरिक्त पिंडकर एक प्रकार का रिवाजी कर था जिसका निर्धारण सामूहिक रूप से होता था। यह गॉवों द्वारा उत्पाद के रूप में देय कर था। हिरण्य नामक कर एक प्रकार का नकद कर था। जिस क्षेत्र से सेना गुजरती थी वहॉ के निवासियों के उपर लगने वाला कर सेना भक्तम कहलाता था। विष्टि बेगार के रूप में लिया जाने वाला कर था। वस्तुतः भारत में पहली बार मौर्यो के शासनकाल में ही कर प्रणाली की विस्तृत रूपरेखा प्रस्तुत की गई जिसका विवरण हमें अर्थशास्त्र में मिलता है।
सैन्य विभाग (Military Department):
मौर्य शासकों के पास एक विशाल और सुसंगठित सेना थी। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में विभिन्न प्रकार के सैनिकों का उल्लेख किया है जैसे- पारम्परिक सैनिक, भाडे के सैनिक, जंगली कबीलों के सैनिक तथा मित्रबल। मेगास्थनीज के अनुसार सैन्य विभाग 30 सदस्यीय एक सर्वोच्च परिषद के नियंत्रण में कार्य करती थी जो छः भागों में विभक्त था। सेनापति सैन्य विभाग का सबसे बडा अधिकारी होता था तथा नायक युद्ध क्षेत्र में सेना का नेतृत्व करता था। सेनापति को 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था और नायक को 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। सेना के चार अंग थे – अश्व, गज, रथ और पैदल। मौर्यो के पास शक्तिशाली नौसेना भी थी। अर्थशास्त्र में ‘नवाध्यक्ष‘ नामक पदाधिकारी का उल्लेख हुआ है जो युद्धपोतों के साथ साथ आन्तरिक पोतों का भी अध्यक्ष होता था। ऐसी मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक अत्यन्त विशाल सेना थी जिसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार अश्वारोही, 9 हजार हाथी तथा संभवतः 800 रथ थे। इन सैनिकों को नकद वेतन मिलता था। सीमान्त प्रदेशों की सुरक्षा सुदृढ दुर्गो द्वारा की जाती थी।
गुप्तचर विभाग (Intelligence Department):
मौर्य शासकों के विस्तृत प्रशासन की सफलता बहुत कुछ अंशों में कुशल गुप्तचर विभाग पर आधारित थी। मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत गुप्तचर विभाग सुसंगठित था। गुप्तचरों के द्वारा राजा एक ओर राजकीय अधिकारियों पर नियंत्रण रखता था और दूसरी ओर जनता के विचारों, शिकायतों तथा भावनाओं की जानकारी प्राप्त करता था। यह विभाग ‘महामात्यापसर्प‘ के अधीन कार्य करता था। अर्थशास्त्र में वर्णित ‘गुढपुरूष‘ वास्तव में मौर्य काल के गुप्तचर थे। यूनानी लेखकों ने इन्हे निरीक्षक अथवा ओवरसियर्स कहा है। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख किया गया है – संस्था अर्थात एक ही स्थान पर रहने वाले तथा संचरा अर्थात प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले। पुरूषों के अतिरिक्त चतुर स्त्रियों को भी गुप्तचर बनाया जाता था। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि वेश्याएॅ भी गुप्तचरों के पदों पर नियुक्त की जाती थी।
सामाजिक दशा (Social Condition):
जहॉ तक मौर्यकालीन सामाजिक दशा का प्रश्न है, मौर्य काल तक आते-आते वर्णाश्रम व्यवस्था को एक निश्चित आधार प्राप्त हो चुका था। वर्ण कठोर होकर जाति के रूप में बदल गये जिसका आधार जन्म था। कौटिल्य ने शूद्रों को आर्य कहा है और इन्हें मलेच्छों से भिन्न बतलाया ह ैऔर शूद्र को शिल्पकार और सेवावृत्ति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति दी है। इन्हें दास बनाये जाने पर प्रतिबंध था। इस काल में कुछ व्यवसाय पर आधारित जाति तंतुवाय (जुलाहे), रज्जक (धोबी), दर्जी, सुनार, लुहार, बढ़ई आदि का उदय हुआ। कौटिल्य ने अनेक वर्णसंकर जाति अम्बष्ट, निषाद, पारशव, रथकार, क्षत्ता, वेदेहक, मागध, सूत, पुल्लकस, वेज, चांडाल, श्वपाक आदि का उल्लेख किया है। उसने चांडाल के अतिरिक्त अन्य सभी जातियों को शूद्र माना है। मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है- 1. दार्शनिक, 2. कृषक, 3. अहीर, 4. शिल्पी 5. सैनिक, 6. निरीक्षक तथा 7. सभासद। मेगास्थनीज के वर्गीकरण की मुख्य कमी यह है कि उसने व्यावसायियों का कोई उल्लेख नहीं किया है। स्मृतिकाल की अपेक्षा इस काल में स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ। समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा थी। तलाक प्रथा व स्त्रियों को पुनर्विवाह तथा नियोग की अनुमति थी। स्त्रियां प्रायः घर के अंदर रहती थीं। ऐसी स्त्रियों को कौटिल्य ने अनिष्कासिनी कहा है। कुलीन परिवारों में बहुविवाह की प्रथा थी। समाज में अन्तर्जातीय विवाह का भी प्रचलन था। उच्च जाति के व्यक्ति का अपने नीचे की जाति में विवाह अनुलोम तथा उच्चजातीय कन्या का निम्नजातीय वर के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहा जाता था। वेश्यावृति का प्रचलन था तथा स्वतंत्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियों को कौटिल्य ने ’रूपाजीवा’ कहा है। ‘इत्फिक महामत्त‘ महिला कल्याण अधिकारी को कहा जाता था। मौर्यकालीन भारतीय अच्छे वस्त्रों और आभूषणों के शौकीन थे। रथदौड, घुडदौड, सॉंडयुद्ध, मृगया आदि मनोरंजन के साधन थे। राज्य की ओर से कई प्रकार के उत्सवों और मेलों का आयोजन किया जाता था। मेगास्थनीज ने उल्लेख किया है कि भारत में कोई दास नहीं है जबकि कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 9 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। अस्थायी रूप से बंधक या निश्चित समय के लिए बनाये गये दास को ’अहितक’ कहा जाता था।
आर्थिक व्यवस्था (Economic Condition):
कृषि मौर्यकाल का प्रमुख व्यवसाय था। राज्य की ओर से बंजर भूमि को उपजाऊ बनाने तथा सिंचाई के साधनों के विकास द्वारा कृषि उत्पादन में वृद्धि करने का प्रयास किया जाता था। इस काल में पहली बार दासों को कृषि कार्य में लगाया गया। कृषि, पशुपालन एवं व्यापार को अर्थशास्त्र में सम्मिलित रूप से ‘वार्ता’ कहा गया है। जिस भूमि में बिना वर्षा के ही अच्छी खेती होती थी उसे ‘अदेवमातृक‘ कहते थे। सीता भूमि सरकारी भूमि होती थी। भूमि कर उपज का 1/4 भाग से 1/6 भाग तक होती थी। राज्य की ओर से सिंचाई का पूर्ण प्रबंध था जिसे सेतुबंध कहा गया है। सिंचाई कर उपज का 1/5 से 1/3 भाग तक थी। रूद्रदामन के जूनागढ अभिलेख से पता चलता है कि सुदर्शन झील के निर्माण का कार्य चन्द्रगुप्त के राज्यपाल पुष्यगुप्त वैश्य ने करवाया था तथा अशोक के राज्यपाल तुषास्प ने इसे पूरा करवाया था। सोहगौरा और महास्थान अभिलेख में दुर्भिक्ष के समय राज्य द्वारा अनाज वितरण का उल्लेख है।
इस काल में शिल्य एवं उद्योगों को प्रोत्साहन मिला। सूत कातना एवं बुनना सबसे प्रधान उद्योग था। सूती कपड़े के लिए काशी, बंग, वत्स, महिस, कलिंग तथा मालवा प्रसिद्ध थे। बंग मलमल के लिए प्रसिद्ध था तथा रेशम चीन से आयात किया जाता था। मेगास्थनीज ने ’एग्रोनोमई’ नाम के मार्ग निर्माण अधिकारी का उल्लेख किया है। व्यापार स्थल एवं जल दोनों मागों से होता था परंतु कौटिल्य ने नदी मार्ग को अधिक सुरक्षित माना है। देशज वस्तुओं पर 4 प्रतिशत एवं आयातित वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। मेगास्थनीज के अनुसार विक्रीकर न देने वालों को मृत्युदंड दिया जाता था। मौर्य काल में व्यापार पश्चिमी भारत में भृगुकच्छ तथा पूर्वीभारत में ताम्रलिप्ति के बन्दरगाहों द्वारा किया जाता था। अर्थशास्त्र में विदेशी व्यापारियों के काफिलों को ‘सार्थवाह‘ कहा गया है। मौर्यकाल में खान, जंगल, नमक और शस्त्र व्यवसाय पर राज्य का पूर्ण आधिपत्य था। उद्योग-धन्धों की संस्थाओं को ‘श्रेणी‘ या गिल्ड कहा जाता था। पतंजलि ने कहा है कि मौर्यकाल में धन के लिए देवताओं की प्रतिमाएं बनाकर बेची जाती थी। आहत मुद्राओं पर मयूर, पर्वत, हाथी, पेड़ के प्रतीक चिन्ह बने होते थे। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कार्षापण, पण या धरण (चांदी निर्मित सिक्के), मानक, सुवर्ण (सोने से निर्मित मानक) तथा काकिणी (तांबे से निर्मित सिक्कों) का उल्लेख किया है। स्वतंत्र रूप से सिक्का ढलवाने वाले को 13.5 प्रतिशत व्याज रूपिका का परीक्षण के रूप में राजा को देना पड़ता था। दक्षिणी-पश्चिमी व्यापारिक मार्ग श्रावस्ती से प्रतिष्ठान तक जाता था। सबसे महत्वपूर्ण व्यापारिक मार्ग तक्षशिला से पाटलिपुत्र को जोड़ने वाला मार्ग था। वैदिक धर्म का प्रचलन सर्वाधिक था। अर्थशास्त्र में ब्रह्मदेव भूमि का उल्लेख है जिसे यज्ञ करवाने वाले ब्राह्मण को दान में दिया जाता था। उपर्युक्त विवरणों से पता चलता है कि मौर्य युग में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को चरितार्थ किया गया था।
धार्मिक जीवन (Religious status):
मौर्य काल में अनेक धर्म व सम्प्रदाय प्रचलित थे। इस काल में सम्राटों की धार्मिक सहिष्णुता की नीति ने विभिन्न मतों एवं सम्प्रदायों के विकास का सुअवसर प्रदान किया। समाज के उच्च वर्गो में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला था। ब्राह्मणों का एक वर्ग सन्यासियों का था। वे जंगलों में रहकर कठोर साधना का जीवन व्यतीत करते थे। सन्यासियों को श्रमण कहा जाता था। अशोक के समय में बौद्ध धर्म को राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ। परम्परा के अनुसार उसने 84 हजार स्तूपों का निर्माण करवाया था। अशोक के उत्तराधिकारियों में शालिलूक भी बौद्ध धर्मानुयायी था।
मार्य काल में आजीवक तथा निर्ग्रन्थों को भी संरक्षण प्राप्त हुआ। आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना मक्खलिगोसाल ने की थी। वे बुद्ध और महाबीर के समकालीन थे। अशोक ने अपने अभिषेक के 12वें वर्ष इस सम्प्रदाय के सन्यासियों के निवास के लिए बराबर पहाडियों पर कुछ गुहा विहार बनवाये थे। निर्ग्रन्थ से तात्पर्य जैन धर्म से है। जैन आचार्य भद्रबाहु ने चन्द्रगुप्त मौर्य को जैन मत में दीक्षित किया था। अशोक के समय में ये उत्तरी बंगाल के पुण्डवर्धन प्रदेश में निवास करते थे।
भाषा और साहित्य (Language and Literature):
मौर्य काल में साधारण जनता की भाषा पालि थी। अशोक ने अपने अभिलेख पालि अथवा प्राकृत भाषा में ही उत्कीर्ण करवाये तथा इसे राजभाषा बनवाया। उसके अभिलेखों में मुख्य रूप से दो प्रकार की लिपियों का प्रयोग किया गया है- खरोष्ठी लिपि तथा ब्राह्मी लिपि। खरोष्ठी लिपि ईरानियों के प्रभाव से आई तथा यह देश के पश्चिमोत्तर प्रदेश तक की सीमित रही। यह दाई से बाई ओर को लिखि जाती थी। साम्राज्य के शेष भागों में ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था। इस समय संस्कृत शिक्षित समुदाय एवं साहित्य की भाषा थी।
मौर्य काल की साहित्यिक कृतियॉ बहुत कम ज्ञात है। परम्परा के अनुसार इस समय मोग्गलिपुततिस्स ने ‘कथावस्तु‘ नामक अभिधम्मपिटक के प्रसिद्ध ग्रन्थ तथा भद्रबाहु ने ‘कल्पसूत्र‘ की रचना की थी। कौटिल्य का अर्थशास्त्र इस काल की सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति है। यह हिन्दू राजतन्त्र पर प्राचीनतम उपलब्ध रचना है। मौर्य काल में वैदिक ,बौद्ध और जैन धर्म के विभिन्न धर्म ग्रंथों को लिखा गया। वैदिक ग्रंथों में वेदांग ,धर्मसूत्र आदि की रचना की गई तथा भास के नाटकों को भी रचा गया। पाणिनि की अष्टाध्यायी को भी इसी युग का माना जाता है। इसी काल में सम्राट अशोक ने मोगलीपुत्त्त तिस्स की अध्यक्षता में तीसरी बौद्ध संगति का आयोजन पाटलिपुत्र में किया था । जिन्होंने धम्म पिटक, विनय पिटक के साथ एक अन्य ग्रन्थ कथावत्थु की रचना की जो विस्तृत होकर अभिधम्म पिटक बना। जैन धर्म के संत स्वयंभू ने दर्श वैकालिक नामक ग्रंथ लिखा। आचार्य भद्रबाहु ने जैन ग्रंथों पर भाष्य लिखा।
इस समय तक्षशिला विश्वविद्यालय भारत ही नहीं वरन संपूर्ण विश्व में ज्ञान और संस्कृति का पाठ पढ़ाता था। इसके अलावा मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र विद्या का एक प्रमुख केंद्र था ,काशी धर्म ग्रंथों की शिक्षा के लिए और अन्य ग्रंथों की शिक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण केंद्र था।
मौर्यकालीन स्थापत्यकला (Architecture during Mauryan Empire)-
शिलालेखों, सम्तम्भ लेखों और गुहालेख की ही तरह मौर्यकालीन कला भी सामाजिक. आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति का सॉंगोपांग विवेचन करती है। यद्यपि छिटपुट उदाहरणों को छोड़ दें तो मौर्यकाल से पूर्व सम्पूर्ण विश्व में वास्तुकला और मूर्तिकला का कही दर्शन नहीं होता। अतः मौर्य काल को अनुपमेय कलात्मक गतिविधियों का जनक मानना ही श्रेयस्कर है। ये अदभुत कलाकृतियां मौर्य कालीन सुख, वैभव और सम्पन्नता तथा स्थायी शान्ति की प्रतीक है। कला और स्थापत्य के क्षेत्र में मौर्य युग में ही सुसंगठित क्रिया-कलाप के दर्शन होते है। मौर्य शासकों ने सुंदर-सुंदर भवनों का निर्माण कराया था। स्ट्रैबो पाटलिपुत्र का वर्णन इस प्रकार करता है – पाटलिपुत्र गंगा और सोन के संगम पर स्थित था। इसकी लम्बाई 80 स्टेडिया और चौडाई 18 स्टेडिया थी। इसके चारों ओर लगभग 700 फीट चौडी खाई थी। नगर के चारों ओर लकडी की दीवार बनी हुई थी जिसमें बाण छोडनें के लिए सुराख बनाए गए थे। इसमें 64 द्वार तथा 570 बुर्ज थे। इसी नगर में चन्द्रगुप्त मौर्य का भव्य राजप्रासाद स्थित था। इस प्रकार मौर्य युग में काष्ठकला अपने विकास की पराकाष्ठा पर पहुॅच गई थी। फाह्यान नामक चीनी यात्री का विवरण मौर्य युगीन भवनों पर महत्वपूर्ण है जिसने बताया था सम्राट अशोक के बनवाए भवनों को देखकर वह चकित हो गया है और शायद देवों ने उसकी रचना की है। क्योंकि पत्थरों को इकट्ठा किया गया, दीवारों ,तोरण द्वार को चिना गया और अद्भुत नक्काशी की गई है ऐसा कार्य संसार के मनुष्य के बस की बात नहीं है।
स्तूप – स्तूप बुद्ध अथवा महान बौद्ध भिक्षुओं की अस्थियों के ऊपर बनाये जाते थे। सम्राट अशोक से पूर्व कलाकृतियों में ईंट और लकड़ी का प्रयोग किया जाता था, किन्तु अशोक के समय से कलाकतियों के लिए प्रायः प्रस्तर-खण्डों का प्रयोग किया जाने लगा। कल्हण कृत राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने कश्मीर की राजधानी श्रीनगर की नींव रखी तथा यहीं पर उसने 500 बौद्ध बिहारों का निर्माण कराया। अशोक अपनी पुत्री चारुमती के साथ नेपाल यात्रा पर गया था, यहीं पर चारुमती ने अपने पति देवपाल के नाम पर देवपाटन नगर तथा अशोक ने ललितपाटन नगर तथा पाँच स्तूपों का निर्माण कराया।
दिव्यावदान हमें बताता है कि अशोक ने 84000 स्तूप बनवाये थे, महावंश का विवरण है कि अशोक ने 84000 धर्म स्कन्ध तथा बौद्ध बिहार का निर्माण कराया था। अशोक की मृत्यु के कई सौ वर्ष बाद जब चीनी चात्री ह्वेनसंाग और फाह्यान भारत आये तो उन्होंने इन स्तूपों और बौद्ध बिहारों को देखा था।
ह्वेनसांग के अनुसार कपिशा (गांधार) में पीलुसार स्तूप विद्यमान था, जो ऊंचाई में 100 फिट था। 300 फिट ऊंचा एक अन्य स्तूप इसी से तीन मील दूर ‘नगरहार‘ नामक स्थान पर था। पुष्कलावती (गान्धार) में भी एक संघाराम था, जिसके पास में ही कई सौ फिट ऊंचा एक स्तूप भी था। तक्षशिला में भी 100 फिट ऊँचा एक स्तूप था। तक्षशिला में जहाँ कुणाल को अन्धा किया गया था वहाँ भी एक स्तूप था। इसी प्रकार कश्मीर, थानेश्वर, मथुरा, कन्नौज, प्रयाग, कौशाम्बी, अयोध्या, विशाखा, कपिलवस्तु, वाराणसी, कुशीनगर, वैशाली, पाटलिपुरत्र, बोधगया, ताप्रलिपि आदि अनेक नगरों में अशोक द्वारा बनवाये गये स्तूपों, संघारामों तथा बिहारों को ह्वेनसांन ने अपने भारत प्रवास के दौरान देखा था। ह्वेनसांग ने तक्षशिला में अशोक द्वार निर्मित तीन स्तूप देखा, जो लगभग 100 फिट ऊँचे थे। नेपाल राज्य के अन्तर्गत पिपरहवा के खण्डहरों में एक स्तूप मिला है।
स्तूप अर्धगोलाकार होते थे, आन्तरिक भाग कच्ची तथा बाहरी भाग में पक्की ईंट लगी होती थी। इन पर पलस्तर भी होता था। स्तूप के ऊपर लकडी या पत्थर का छत्तर होता था। परिक्रमा पथ भी बनाया जाता था और स्तूप के चारों ओर परिक्रमा पथ भी बनाया जाता था।
कला की दृष्टि से सॉची का स्तूप दर्शनीय है। यह स्तूप सदियों बीत जाने के बाद भी मौर्यकालीन कला के सौन्दर्य का द्योतक है। इसकी ऊँचाई 77.5 फिट,व्यास 121.5 फिट तथा बाह लगायी गयी है, वह 11 फिट ऊंची है।
सम्राट अशोक ने हजारों की संख्या में स्तूपों , चैत्य (चिता पर स्थापित सामूहिक पूजा का स्थान), विहार (भिक्षुओं के रहने का स्थान) और स्तंभों का निर्माण कराया था। जिसमें से भरहुत (इलाहाबाद से 153 किलोमीटर दूर) और सांची के स्तूप (मध्यप्रदेश के भोपाल के पास) विशेष प्रसिद्ध है।
‘स्तूप‘ का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होता है जहॉ अग्नि की उठती हुई ज्वालाओं को स्तूप कहा गया है। ऐसा लगता है कि अपने मौलिक रूप में स्तूप का सम्बन्ध मृतक संस्कार से था। शवदाह के पश्चात बची हुई अस्थियों को किसी पात्र में रखकर मिट्टी से ढॅंक देने की प्रथा से स्तूप का जन्म हुआ। कालान्तर में बौद्धो ने इसे अपनी संघ पद्धति में अपना लिया। स्तूप का प्रारंभिक रूप अर्ध-गोलाकार मिलता है। स्तूप की संरचना इस प्रकार है कि इनका व्यास नीचे अधिक होता है और ये ऊपर की ओर बढ़ते जाते हैं जहां इनका व्यास कम होता जाता है और यह अर्ध गोलाकार होते हैं तथा यह ईंट और पत्थर के बनाए जाते हैं। प्रांरभिक स्तूपों में सॉची का स्तूप सबसे प्रसिद्ध है जिसकी खोज सर्वप्रथम जनरल रायलट ने 1818 ई0 में की थी। इसके अतिरिक्त सारनाथ और तक्षशिला स्थित ‘धर्मराजिका स्तूप‘ का निर्माण भी अशोक के समय में ही करवाया गया था।
Sanchi Stupa
Barabar Cave
Pillar of Ashok
मौर्य युग में अनेक पर्वत गुफाओं को काटकर निवास स्थान बनाने की कला का पूर्ण विकास हुआ। अशोक और उसके पौत्र दशरथ के समय में बराबर और नागार्जुनी पहाडी की गुफाओं को काटकर आजीविकों के लिए आवास बनाए गए थे। अशोक के समय बराबर पहाडी की गुफाओं में ‘सुदामा की गुफा‘ तथा ‘कर्ण-चौपड‘ नामक गुफा सर्वप्रसिद्ध है। दशरथ के समय में बनी गुफाओं में ‘लोमश ऋषि ‘ नाम की गुफा उल्लेखनीय है। बराबर पहाडी की चौथी गुफा को ‘विश्व झोपडी‘ कहा जाता है। इसका निर्माण भी अशोक ने अपने शासनकाल के 12वें वर्ष में किया था। अशोक ने अन्य अनेक गुफाओं का भी निर्माण कराया और उनकी दीवारें पर उच्च कोटि की पॉलिश की गई है जिससे वे शीशे की तरह चमकदार प्रतीत होती हैं।
अशोक ने अनेक स्तंभों का निर्माण कराया और स्तंभों पर अपना लेख लिखवाया। यह स्थापत्य कला के शानदार नमूने हैं। इनकी संख्या 30 से अधिक है । यह स्तंभ एक ही पत्थर के टुकड़े को काटकर बनाए जाते हैं एक स्तंभ का वजन लगभग 50 टन है इसकी ऊंचाई 15 से मीटर तक होती है नीचे की ओर मोटे और ऊपर की ओर पतले होते जाते हैं। प्रत्येक स्तंभ के शीर्ष पर उल्टे कमल के आकार का शिखर है और उस पर कोई न कोई पशु आकृति बनी है जिनमें सिंह, हाथी ,घोड़ा और बैल की सुंदर मूर्तियां हैं। स्तंभ के मध्य भाग में चक्र, पशु आदि की कलाकृतियां बनी हैं। सारनाथ में बना हुआ अशोक स्तंभ जिस पर सिंह की मूर्ति स्थापित है। इनमें सिंहों की संख्या चार हैं और ये चारों दिशाओं में मुंह करके खड़े हैं। सिंहों के मस्तक पर महाधर्मचक्र स्थापित था जिसमें मूलतः 32 तिलियॉ थी। यह शक्ति के उपर धर्म की विजय का प्रतीक है जो बुद्ध और अशोक दोनों के ही व्यक्तित्व में दिखाई देता है। सिंहों के नीचे की फलक पर चारों दिशाओं में चार चक्र बने हुए है जो धर्मचक्रप्रवर्तन के प्रतीक है। इसी पर चार पशुओं – गज, अश्व, बैल और सिंह की आकृतियॉ उत्कीर्ण है जिन्हे चलती हुई अवस्था में दिखाया गया है। फूशे के अनुसार हाथी बुद्ध के गर्भस्थ होने, वृष जन्म, अश्व गृह त्याग तथा सिंह बुद्ध का प्रतीक है। इसे भारत का राष्ट्रीय चिन्ह स्वीकार किया गया है।
मथुरा जिले के बडोदा ग्राम से मिली पाषाण निर्मित यक्ष-यक्षिणी की विशाल प्रतिमाओं ने भी मौर्ययुगीन कलाओं को लोकप्रिय बनाया। यक्ष-यक्षिणा प्रतिमाएॅ लोकधर्म का प्रमुख आधार थी। इन्हे सर्वत्र देवी-देवताओं के रूप में पूजा जाता था। ये सभी आकार – प्रकार, शैली तथा बनावट में भारतीय है।
इस प्रकार मौर्ययुग की स्थापत्य कला अत्यंत उन्नत अवस्था में थी इन्हें विश्व की भवन निर्माण कला में अत्यंत उन्नत स्थान प्रदान किया जा सकता है।