window.location = "http://www.yoururl.com"; Warren Hastings (1772- 85) | वारेन हास्टिंग्स

Warren Hastings (1772- 85) | वारेन हास्टिंग्स

भूमिका (Introduction)

वारेन हेस्टिंग्स आधुनिक भारत के इतिहास में एक विवादास्पद व्यक्ति माना जाता है। उसका जन्म 1732 ई0 में इग्ंलैण्ड़ में हुआ। 1750 ई0 से 1755 ई0 तक वह ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कम्पनी में एक क्लर्क के रुप में कार्य करता रहा तत्पश्चात उसे कलकत्ता  काउन्सिल का सदस्य बनाया गया। इस दौरान वारेन हेस्टिंग्स की छवि एक इमानदार तथा कुशल प्रशासक के रुप में स्थापित हो गई। फलस्वरुप उसे 1772 ई0 में बंगाल का गर्वनर बनाया गया और 1785 ई0 तक वह इस पद पर बना रहा। जिस समय वारेन हेस्टिंग्स बंगाल का गर्वनर बना उस समय उसके समक्ष अनेक आन्तरिक व बाह्य समस्याये थी, जिसका उसे सामना करना था। वारेन हेस्टिंग्स ने इस चुनौती को स्वीकार किया तथा बंगाल में अनेक सुधार करके आन्तरिक समस्यायों का समाधान करने की चेष्टा की तथा बाहरी शक्तियों का सामना किया। वारेन हेस्टिंग्स को इन कार्या के लिए आन्तरिक प्रेरणा लार्ड क्लाइब के उस पत्र से मिली जिसमें क्लाइब ने लिखा था कि- ’’ सार्वजनिक हितों के आगे व्यक्तिगत हितों की उपेक्षा, स्वयं के निर्णयों पर विश्वास, संकटकालीन परिस्थितीयों का धैर्यपूर्वक सामना व नवीन योजनाओं को लागू करना सफलता के लिए आवश्यक है।’’

वारेन हेस्टिंग्स को इस पत्र से दिशा निर्देश मिल गया और उसने इन्ही सिद्धान्तों पर कार्य करते हुए विभिन्न समस्यायों का कुशलता पूर्वक सामना किया और अपने शासन काल में भारत में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए।

वारेन हेस्टिंग्स के सुधार :

प्रशासनिक सुधार - 

प्रशासनिक सुधारों की दृष्टि से वारेन हेस्टिंग्स का सबसे महत्वपूर्ण कार्य लार्ड़ क्लाईब द्धारा स्थापित बंगाल की द्धैधशासन प्रणाली को समाप्त करना था। इसके अन्तर्गत कम्पनी को प्रान्त की शासन व्यवस्था का उत्तरदाईत्व सम्भालना था। उसके कर्मचारियों को दीवान के रुप में अपने कर्मचारियों द्धारा भूराजस्व एकत्रित्र करने का कार्य करना था। इस दृष्टि से बंगाल तथा बिहार के नायब दीवान मुहम्मद रजा खॉ तथा राजा शिताबराय पर अभियोग लगाया गया और उन्हे अपने पद से हटा दिया गया। कम्पनी का राजकोष मुर्शिदाबाद से कलकत्ता परिवर्तित कर दिया गया। बंगाल के नवनियुक्त नबाब को मुन्नी बेगम के नियंत्रण में छोड दिया गया और उसकी पेंशन भी 32 लाख से घटाकर 16 लाख रुपये कर दी गई।

न्यायिक सुधार - 

न्यायिक दृष्टिकोण से वारेन हेस्टिंग्स के सुधार अत्यन्त महत्वपूर्ण है। 1772 ई0 में उसने प्रत्येक जिले के लिए एक दीवानी न्यायालय की स्थापना की जो कलेक्टर के अधीन होता था। इस न्यायालय के निर्णयों के खिलाफ अपील सदर दीवानी अदालत में की जा सकती थीं। जिले के स्तर पर फौजदारी अदालतों की भी स्थापना की

गई। फौजदारी अदालत में जिले का काजी तथा मुफ्ती बैठते थे तथा उनके साथ कानून की व्याख्या के लिए दो मौलवी बैठते थे। कलेक्टर का यह कर्तव्य था कि वह इस बात का ध्यान रखे कि फौजदारी के मुकदमों में गवाहियॉ ठीक प्रकार से दी जाए। इससे उपर सदर निजामत अदालत होता था। अदालतों की कार्यप्रणालीयों में भी सुधार किये गयें। परगनो के मुख्य जमींदारों को अधिकार दिया गया कि वे मुकदमों को सुन सके जिससे किसानों कां न्याय के लिए दूर न जाना पडें। विवाह, उत्तराधिकार, जातीय, तथा धार्मिक मामलो ंमें मुसलमानों के लिए कुरान तथा हिन्दुओं के लिए शास्त्रों के अनुसार निर्णय होते थे। 

लगान ब्यवस्था में सुधार :

कम्पनी ने बंगाल, बिहार और उडीसा के दीवानी अधिकार यद्यपि 1765 में ही प्राप्त कर लिया था लेकिन लगान वसूल करने का कार्य उसने अपने हाथों में नही लिया था। इस बात को ध्यान में रखते हुए कम्पनी ने एक समीति का गठन किया तथा इसके अध्यक्ष ने जानकारी प्राप्त करने के लिए बंगाल का दौरा भी किया। समीति ने यह निष्कंर्ष निकाला कि कम्पनी स्वयं राजस्व इकट्ठा करने का कार्य करें। परिणामस्वरुप वारेन हेस्टिंग्स ने मालगुजारी इकट्ठा करने तथा प्रशासन व्यवस्था के लिए कलेक्टरों को नियुक्त कर दिया और देशी अफसरों को उनकी सहायता करने के लिए कहा गया। सबसे उॅची बोली बोलने वालो के लिए लगान वसूल करने का अधिकार पॉच वर्षो के लिए दे दिया गया। कुछ वांछित कारणों से यह पंचवर्षीय लगान व्यवस्था असफल रही और अंततः 1777 ई0 में एक वर्ष के लिए भूमि को देने की व्यवस्था अपनाई गई। मुगलसम्राट शाहआलम को 26 लाख रुपये वार्षिक कर देना बन्द कर दिया गया। मुगल सम्राट से कारा तथा इलाहाबाद के जिले भी ब्रिटिश अधिकार में ले लिए गये तथा उसे अवध के नबाब को 50 लाख में बेंच दिये गये। इस प्रकार उसने ब्रिटिश कम्पनी की आर्थिक दशा को हर संभव ठीक करने का प्रयास किया। 

वारेन हेस्टिंग्स के उपर्युक्त लगान सम्बन्धी सुधार में अनेक दोष भी थे। प्रारम्भ में जो सुधार किए गए उसका सबसे बडा दोष यह था कि सर्वाधिक लगान देने का वायदा करने वालो को भूमि दी गई जबकि किसानो के साथ कोई लगान निश्चित नहीं किया गया। इसके अतिरिक्त न तो ऐसी कोई व्यवस्था की गई जिससे जमींदारों के विरुद्ध उनके हितों की रक्षा सम्भव हो पाती। इस कारण किसानों से लगान अब भी अधिक रही। 1778 ई0 में डायरेक्टरों के आदेशानुसार जब यह भूमि प्रति वर्ष जमींदारों को दी जाने लगी तो उससे और भी अधिक हानी हुई। इसके अतिरिक्त इस व्यवस्था में लगान वसूल करने वाले अधिकारियो को ही न्याय के अधिकार दे दिये गये थे जिसके कारण इसकी आलोचना हुई। इन आलाचनाओं के वावजूद कम्पनी ने पहली बार इस व्यवस्था का प्रत्यक्ष उत्तरदायित्व अपने उपर लिया और उसका हल निकालने का प्रयत्न किया। वारेन हेस्टिंग्स ने इसमें कुछ सफलता प्राप्त की और साथ ही अपने अनुभव से भविष्य के लिए मार्गदर्शन भी किया।

व्यापारिक सुधार -

वारेन हेस्टिंग्स ने ड़ायरेक्टरों के आदेशों के अनुरुप वाणिज्यिक क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण सुधार किए। उसनें कम्पनी के कर्मचारियों के दस्तक के उपयोग पर पाबन्दी लगा दी और इस प्रकार कम्पनी की आय में वृद्धि की। देश में बहुत सी सीमा शुल्क चुंगियों तथा चौकियों के कारण देश के विकास में बाधा हो रही थी परिणामस्वरुप उसने उनको हटा दिया। भविष्य में कलकत्ता, हुगली, मुर्शिदाबाद, पटना, तथा ढॉका जैसे पॉच स्थानों पर ही चुंगी घर रखने का निश्चय किया। नमक, सुपारी, तथा तम्बाकू को छोडकर सभी वस्तुओं पर करो में ढ़ाई  प्रतिशत की सामान्य छूट दी गई। इन सब सुधारों का परिणाम यह हुआ कि व्यापार में सुधार हुआ।

शैक्षणिक सुधार - 

हेस्टिंग्स ने मुस्लिम शिक्षा के विकास के लिए 1781 में कलकत्ता में एक मदरसा स्थापित किया और गीता के अंग्रेजी अनुवादक चार्ल्स विल्किन्स को संरक्षण दिया। उसके समय में कलकत्ता और मद्रास में कॉलेज स्थापित हुए। प्राच्य कला और विज्ञान के अध्ययन के लिए सर विलियम जोंस ने 1784 में ’दि एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ जैसी प्रसिद्ध संस्था की स्थापना की। वारेन हेस्टिंग्स ने हिंदू तथा मुस्लिम कानूनों को भी एक पुस्तक का रूप देने का प्रयत्न किया। 1776 में संस्कृत में एक पुस्तक ’कोड ऑफ जेण्टू लॉ’ प्रकाशित की गई। 1791 में विलियम जोंस तथा कोलबुक की डाइजेस्ट ऑफ हिंदू लॉ’ छापी गई। इसी प्रकार ‘फतवा-ए-आलमगीरी’ का अंग्रेजी अनुवाद करने का भी प्रयास हुआ। हेस्टिंग्स स्वयं अरबी, फारसी का जानकार था और बांगला भाषा बोल सकता था।

सुधारों का मूल्यांकन ¼Evaluation of Reforms½ 

उपर्युक्त सुधारों के द्धारा वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल, बिहार और उडीसा में अच्छी शासन व्यवस्था स्थापित करने का प्रयत्न किया। हन्टर के शब्दों में - ‘‘वारेन हेस्टिंग्स ने असैनिक शासन की दृढ नींव डाली जिस पर कार्नवालिस ने भवन का निर्माण किया।’’ 

वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल प्रांत में कंपनी का प्रत्यक्ष शासन स्थापित करने के साथ-साथ विभिन्न सुधारों द्वारा सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। किंतु वह समुचित बंदोबस्त करने में असफल रहा। उसकी नीतियों के कारण कृषि की अवनति हुई, किसानों और जमींदारों की दरिद्रता में वृद्धि हुई और साहूकार मालामाल हुए। उसने मध्यम और निचली अदालतों की स्थापना नहीं की थी जिससे सामान्य लोगों के लिए न्याय मिलना कठिन हो गया। यद्यपि वह अपने सुधारों की अपूर्णता के कारण भ्रष्टाचार को रोकने में असफल रहा, किंतु सुधारों के द्वारा उसने जो आधारशिला रखी, उसी पर बाद में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई।

रेग्यूलेटिंग एक्ट, 1773 

रेग्यूलेटिंग एक्ट ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का कम्पनी के शासन में प्रथम हस्तक्षेप था जिसके आधार पर आगे आने वाले कानूनों की रूपरेखा तैयार हुई। दीवानी अनुदान के फलस्वरूप कम्पनी बंगाल, विहार और उडीसा प्रान्तों की वास्तविक शासक बन गई। इन प्रदेशों का वास्तविक प्रशासन कम्पनी के हाथों में आ जाने से कम्पनी के अधिकारीगण स्वतन्त्र हो गये। प्रदेशों में प्रशासन की बागडोर कम्पनी के सेवकों पर ही थी, जिन्हे बहुत कम वेतन मिलता था। उन लोगों ने इस अवसर का पूरा-पूरा लाभ उठाया और भारतवासियों का भरपूर शोषण करने लगे। स्थिती यह थी कि जहॉ कम्पनी के कर्मचारी अधिकाधिक धन एकत्रित कर रहे थे, वही कम्पनी का व्यापार घाटे में जाने लगा था। फलतः कम्पनी ने ब्रिटिश सरकार से ऋण की मॉंग की। इन परिस्थितीयों में ब्रिटिश सरकार तथा वहॉ के राजनीतिज्ञों में यह धारणा बन गई थी कि इस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रशासन में बहुत बडी गडबडी हो गयी है। कम्पनी के अवकाशप्राप्त कर्मचारियों के धनी होकर इंग्लैण्ड लौटने तथा उनकी बढती हुई अपकीर्ति को देखकर ब्रिटिश सरकार को यह विश्वास हो गया कि उनका धन एवं सम्पति भारतीय जनता के ही शोषण का ही परिणाम है। फलतः कम्पनी तथा उसके कर्मचारियों के मामलों की जॉच के लिए ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने एक गोपनीय समिति की नियुक्ति की। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में कम्पनी की अनेक त्रुटियॉ दिखलायी और उनके शीध्रताशीध्र सुधार की सिफारिश की। इस समिति के सिफारिश के फलस्वरूप ब्रिटिश पार्लियामेण्ट ने 1773 ई0 में एक कानून बनाया जिसे रेग्यूलेटिंग एक्ट का नाम दिया गया। इस अधिनियम की प्रमुख धाराओं को दो प्रमुख वर्गो में विभाजित किया जा सकता है -

इंग्लैण्ड में प्रस्तावित सुधार एवं परिवर्तन तथा

भारत के प्रस्तावित सुधार एवं परिवर्तन।

 रेग्यूलेटिंग एक्ट द्धारा इंग्लैण्ड के कम्पनी के विधान में निम्न परिवर्तन किये गये -

1. प्रारम्भ में कम्पनी का एक कोर्ट ऑफ प्रापराइटर्स हुआ करता था जिसमें मतदान के वे अधिकारी हुआ करते थे जिनका हिस्सा 500 पाउण्ड का होता था परन्तु रेग्यूलेटिंग एक्ट के द्धारा मताधिकारा उसे प्रदान किया गया जिसका हिस्सा 1000 पाउण्ड का हो।

2. डायरेक्टरों का चुनाव एक वर्ष के स्थान पर चार वर्ष के लिए करने की व्यवस्था की गई जिनमें से एक- चौथाई सदस्य को प्रत्येक वर्ष अवकाश लेने की भी व्यवस्था की गई। डायरेक्टरों को कम्पनी की धन सम्बन्धी रिपोर्ट ब्रिटिश अर्थमन्त्री को और सैनिक तथा राजनीतिक कार्यो की रिपोर्ट अंग्रेज विदेशमंत्री को देनी होगी।

भारत के लिए सुधार -

1. बंगाल के गवर्नर को भारत का गवर्नर बनाया गया और मद्रास तथा बम्बई के गवर्नर उसके अधीन कर दिये गये। अब बंगाल के गवर्नर को गवर्नर जनरल के नाम से जाना जाने लगा।

2. प्रशासन में गवर्नर जनरल की सहायता के लिए चार सदस्यों की एक परिषद नियुक्त की गई जिसमें निर्णय बहुमत द्धारा होता था। गवर्नर जनरल केवल उसी समय निर्णायक मत दे सकता था जबकि परिषद के सदस्यों के मत बराबर संख्या में विभाजित हो जाय।

3. इस अधिनियम द्धारा कलकत्ता में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई। उल्लेखनीय है कि यह सर्वोच्च न्यायालय भारत के लिए उच्चतम न्यायालय नही था। कुछ मामलों में अपील लंदन स्थित प्रिवी परिषद् में की जा सकती थी।

4. देशी राज्यों से युद्ध और शान्ति के लिए गवर्नर जनरल तथा कौन्सिल को सीमित अधिकार प्राप्त थे। मद्रास और बम्बई के गवर्नर युद्ध और शान्ति विषयक निर्णय लेने के लिए स्वतन्त्र नही थे।

5. इस अधिनियम के द्धारा कम्पनी के कर्मचारियों का निजी व्यापार बन्द कर दिया गया। उनके उपहार, भेंट, रिश्वत आदि स्वीकार करने पर रोक लगा दी गई तथा इसका उल्लंघन करने वालों के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था की गई।

रेग्यूलेटिंग एक्ट का महत्व -

रेग्यूलेटिंग एक्ट सामान्यतया एक कठिन समस्याओं को सुलझाने का सच्चा प्रयास था किन्तु कतिपय कमियों के कारण इसकी आलोचना हुई। एक ब्रिटिश सांसद ने इस अधिनियम के बारे में ठीक ही लिखा है कि- ‘‘एक सुधार को लागू करने के ढंग में संसद ने जल्दबाजी की और व्यक्तिगत रूप से लोग असंयमित थे।‘‘ फिर भी अनेक दोषों के वावजूद इस अधिनियम का सांवैधानिक दृष्टिकोण से विशेष महत्व है। 

1. इस अधिनियम द्वारा ब्रिटिश संसद ने कम्पनी के राजनीतिक तथ्यों को निश्चित रूप से मान्यता प्रदान की। संसद ने प्रान्तों के शासन के स्वरूप को निर्धारित करने का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। इसके पूर्व वे प्रान्त जो कम्पनी के अधीन थे कम्पनी की व्यक्तिगत सम्पति समझे जाते थे। इस अधिनियम के पश्चात वे ब्रिटिश संसद के अधीन हो गये। प्रोफेसर कीब ने लिखा है कि - ‘‘इस अधिनियम से कम्पनी की इंग्लैण्ड स्थित संस्थाओं के विधान में विशेष परिवर्तन किया गया। भारत सरकार के स्वरूप में भी चन्द सुधार किये गये। कम्पनी के सभी विजित क्षेत्रों पर एक शक्ति का नियंत्रण स्थापित किया गया। कम्पनी को किसी अंश तक ब्रिटिश मन्त्रीमण्डल की देखरेख में रखने का प्रयत्न किया गया।

2. इस अधिनियम के द्वारा भारत सरकार को विधायीनी शक्तियॉ प्रदान की गई। गवर्नर जनरल को अपनी परिषद् की सलाह से कम्पनी के प्रदेशों के लिए नियम बनाने का अधिकार प्रदान कर दिया गया।

3. इस अधिनियम द्वारा कम्पनी के भारतीय प्रदेशों में केन्द्रीय शासन का सूत्रपात हुआ। इसके पूर्व बम्बई तथा मद्रास में अलग-अलग कम्पनी का शासन था और बंगाल का शासन अलग था परन्तु इस अधिनियम द्वारा बम्बई तथा मद्रास के प्रेसीडेन्सी और उनके परिषदों को बंगाल के गवर्नर के अधीन और उसके निरीक्षण में कर दिया गया और उनकी स्वतन्त्र सत्ता छीनकर केन्द्रीय शासन की नींव डाली गयी।

4. इस अधिनियम द्वारा एक तरह से न्यायपालिका का जन्म हुआ। अधिनियम द्वारा बंगाल में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसे प्रारंभिक और अपीलीय दोनो प्रकार के अधिकार प्रदान किये गये।

5. इस अधिनियम के द्वारा यह भी स्पष्ट हो गया कि कम्पनी की कोई स्वतन्त्र सत्ता नही है और ब्रिटिश संसद को कम्पनी के शासनाधिकार में हस्तक्षेप करने का पूर्ण अधिकार है।

6. कम्पनी के प्रबन्ध को यह बात समझ में आ गई कि यदि उन्होने सुधारवादी नीति के तहत् कार्य नही किया तो ब्रिटिश सरकार कम्पनी को अपने अधिकार में कर लेगी। अतः कम्पनी के अधिकारियों ने भी ऐसे कृत्यों को करना कम कर दिया जिससे उनका व्यक्तिगत लाभ होता था।

7. इस अधिनियम के द्वारा भारतीय सेवाओं में आए दोषों को दूर करने का प्रयत्न किया गया।

8. इस अधिनियम के द्वारा एक व्यक्ति के स्थान पर कौंन्सिल के शासन की स्थापना हुई।

भारत के वैधानिक विकास के इतिहास में रेग्यूलेटिंग एक्ट का विशेष महत्व है। केन्द्रीय कार्यकारिणी का सूत्रपात भी यही से हुआ और व्यवस्थापिका का जन्म भी यही से हुआ। इसके अतिरिक्त न्याय के क्षेत्र में स्वतन्त्रता की बुनियाद भी यही से पडी। इसके द्वारा ही केन्द्रीय सरकार का प्रान्तीय सरकारों पर नियंत्रण प्रारम्भ हुआ। शक्ति विभाजन के सिद्धान्त का प्रयोग भी इसी अधिनियम से प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार रेग्यूलेटिंग एक्ट विभिन्न दृष्टिकोणों से अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ, कदाचित् वारेन हेस्टिंग्स ही ऐसा योग्य गवर्नर जनरल था जिसे इस अधिनियम के दोषों का फल भुगतना पडा।  

वारेन हेस्टिंग्स का देशी रियासतों के साथ सम्बन्ध --

अवध की बेगमों का मामला -

वारेन हेस्टिंग्स का समकालीन अवध का नबाब आस्फुद्दौला था। 1775 ई0 में अवघ का नबाब बनने के बाद आस्फुद्दौला ने ब्रिटिश इस्ट इण्ड़िया कम्पनी के साथ फैजाबाद की सन्धि की जिसके अन्तर्गत उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के लिए एक बड़ी धनराशी देना स्वीकार किया। चूॅंकि अवध का शासन भ्रष्ट और कमजोर था अतः नियत धनराशी समय पर न दे सकने के कारण नवाब पर कम्पनी का बकाया चढ़ गया। इसके अतिरिक्त आर्थिक स्थिती कमजोर होने के कारण उसने कम्पनी से बडी मात्रा में धन कर्ज के रुप में ले रखा था। वारेन हेस्टिंग्स ने आस्बुद्दौला से कम्पनी का कर्ज और तमाम बकाया वापस लौटाने के लिए कहा लेकिन वह इस स्थिती में नही था कि कम्पनी का कर्ज चुका सके। दूसरी तरफ आस्बुद्दौला की मॉ और दादी के पास अपार व्यक्तिगत सम्पति थी जिसपर नबाब का कोई अधिकार नही था। यहॉ यह उल्लेखनीय हैं कि अवध की मॉ और दादी को ही अवध की बेगमें कहा जाता था। वारेन हेस्टिंग्स द्धारा आस्बुद्दौला पर अधिक दबाब डाले जाने के कारण 1775 ई0 में अवध की बेगमें नबाब को लगभग 3 लाख पाउण्ड़ की बडी रकम इस शर्त पर देने को तैयार हो गई कि भविष्य में कम्पनी तथा नबाब उनसे और धन की मॉग नही करेगें। इस प्रकार नबाब ऋण की एक किश्त चुकाने में सफल हो गया। लेकिन 1780 ई0 में वारेन हेस्टिंग्स ने नबाब से शेष ऋण तुरन्त चुकाने की मॉग की। दुर्भाग्यवश नबाब इस स्थिती में नही था कि इस ऋण को चुकाता। अतः 1781 ई0 में उसने कम्पनी से आग्रह किया कि वह बेगमों के धन पर अधिकार करके अपने ऋण की पूर्ति कर लें। अतः वारेन हेस्टिंग्स द्धारा एक सेना भेजकर बेगमों के धन पर कब्जा कर लिया गया और इस दौरान बेगमों के साथ अत्यधिक दुर्व्यवहार किया गया। वारेन हेस्टिंग्स का यह कार्य समझौते के विरुद्ध था क्योंकि बेगमां का कम्पनी के साथ कोई वास्ता ही नही था। अतः वारेन हेस्टिंग्स के इस कार्य की तीखी आलोचना की गई है और लगभग सभी इतिहासकारों ने उसके इस कार्य को निंदनीय कहा है। इतिहासकार अलफ्रेड लायल ने इस कार्य को घृणित मानते हुए लिखा है कि - ‘‘यह एक नीच प्रकार का उपक्रम था‘‘ (It was an ignoble type of undertaking.)
वारेन हेस्टिंग्स की बाद में दी गई यह दलील बड़ी लचर थी कि चेतसिंह से साँठगाँठ के कारण बेगमों ने ब्रिटिश संरक्षण प्राप्त करने का अधिकार खो दिया था, तथा कलकत्ता की कौंसिल द्वारा दी गई गारन्टी समाप्त हो गई थी। वारेन हेस्टिंग्स ने बेगमों के खि़लाफ़ द्वेषवश कार्रवाई की थी और यह विस्मयकारी है कि ब्रिटेन की लॉर्ड सभा ने उसे बेगमों पर अत्याचार करने के आरोप से दोषमुक्त कर दिया। उसने निःसंदेह उन पर अत्याचार किया था, यद्यपि इस प्रकार ज़ोर-ज़बर्दस्ती से प्राप्त की गई धनराशि का उपयोग कम्पनी के लिए ही किया गया था।

राजा चेतसिंह का मामला --

राजा चेतसिंह बनारस का शासक तथा अवध का सामन्त था अतः चेतसिंह अवध को कर के रूप में 22.5 लाख रूपये प्रति वर्ष देता था। 1775 ई0 में फैजाबाद की सन्धि द्धारा बनारस पर कम्पनी का अधिकार हो गया। इस प्रकार अब चेतसिंह कम्पनी को 22.5 लाख रूपया कर के रूप में देने लगा और बदले में कम्पनी ने करार किया कि वह किसी भी आधार पर अपनी मॉंग नही बढ़ाएगी और किसी भी व्यक्ति को राजा के अधिकार में दखल देने और उसके देश में शान्ति भंग करने की इजाजत नही देगी। 1778 ई0 में जब कम्पनी भारत में मराठों और मैसूर से युद्धरत थी तब वारेन हेस्टिंग्स ने राजा चेतसिंह से 5.5 लाख रुपये अतिरिक्त धन के रुप में मॉग की। राजा चेतसिंह ने उक्त धनराशि उसे दे दी। 1779 ई0 में वारेन हेस्टिंग्स ने पुनः राजा चेतसिंह से 5 लाख रूपये की मॉग की और राजा चेतसिंह ने इस बार भी उक्त रुपये दे दिये। तत्पश्चात एक वर्ष बाद 1780 ई0 में वारेन हेस्टिंग्स ने 5 लाख रुपये के अतिरिक्त दो हजार घुडसवार सैनिक मॉगे। चेतसिंह उस समय इतनी घुडसवार सैनिक देने की स्थिती में नही था अतः उसने 2 लाख रूपये व्यक्तिगत उपहार के रुप में भेजते हुए पॉच सौ घुडसवार सैनिक तथा इतने ही पैदल सैनिक भेज दिये। परिणामस्वरुप वारेन हेस्टिंग्स ने नाराज होकर राजा चेतसिंह पर तीस लाख रुपये का जुर्माना कर दिया। चेतसिंह ने वारेन हेस्टिंग्स से मॉफी मॉगते हुए तीस लाख रुपये देने में असमर्थता जताई किन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने स्वयं बनारस पर आक्रमण करके चेतसिंह को बन्दी बना लिया। चेतसिंह के सैनिक अपने राजा के साथ हुए दुर्व्यवहार को सहन नही कर सके और उन्होने विद्रोह कर दिया। परिणामस्वरुप अनेक अंग्रेज सैनिक मारे गये और वारेन हेस्टिंग्स को बनारस छोडकर भागना पडा। कुछ समय बाद वारेन हेस्टिंग्स ने पुनः शक्तिशाली सेना के साथ बनारस पर आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में चेतसिंह परास्त हुआ और ब्रिटिश सिपाहियों ने चेतसिंह के महल को जी भरकर लूटा। हेस्टिंग्स ने चेतसिंह का सारा राजपाट जब्त करके उसके भांजे को बनारस का राजा घोषित कर उससे 40 लाख रुपये वसूल किये। इतिहासकारों द्धारा वारेन हेस्टिंग्स के इस कार्य की तीखी आलोचना की गई है क्योकि इस मामले में भी राजा चेतसिंह की कोई गलती नही थी। चेतसिंह के मामले में भी हेस्टिंग्स का व्यवहार क्रूर, अनुचित और दमनकारी था। हेस्टिंग्स पर महाभियोग लगाये जाने का यह भी एक कारण था। 

नन्द कुमार का मामला --

नन्द कुमार कलकत्ता के एक कुलीन परिवार का व्यक्ति था। 1775 ई0 में उसने वारेन हेस्टिंग्स पर यह आरोप लगाया कि उसने मीरजाफर की पत्नी मुन्नी बेगम से 3 लाख रुपये रिश्वत लेकर उसे नबाब की संरक्षिका बनाया था। इस मामले की छानबीन का दायित्व गर्वनर जनरल की काउन्सिल को सौपा गया। इसी बीच वारेन हेस्टिंग्स ने नन्द कुमार पर कम्पनी के विरूद्ध षड़यन्त्र करने का आरोप लगाया तथा कलकŸा के ही मोहन प्रसाद नामक व्यापारी ने नन्द कुमार पर जालसाजी का आरोप लगाया। इस आरोप के आधार पर कलकत्ता के सर्वाच्च न्यायालय में नन्द कुमार पर 5 मई 1775 ई0 को मुकदमा चलाया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने नन्द कुमार को जालसाजी के आरोप में दोषी मानते हुए 16 जून 1775 ई0 को फॉंसी की सजा सुनाई और निरपराध नन्दकुमार को अन्यायपूर्वक 5 अगस्त 1775 ई0 को मृत्युदण्ड़ दे दिया गया जिसके कारण वारेन हेस्टिंग्स पर लगा आरोप स्वतः ही समाप्त हो गया।
इतिहासकारों द्धारा नन्दकुमार को फॉसी दिये जाने की घटना की कटु आलोचना की गई है। इनका मानना है कि कारणवश अनेक इतिहासकारों द्धारा इस घटना को ’’न्यायिक हत्या’’ कहा गया है। दूसरी तरफ अधिकां नन्दकुमार को मृत्युदण्ड़ उसके द्धारा वारेन हेस्टिंग्स पर आरोप लगाये जाने के कारण दिया गया था क्योकि तात्कालिक सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश इम्पे वारेन हेस्टिंग्स का मित्र था। यद्यपि तात्कालिन कानून के हिसाब से जालसाजी के आरोप में लम्बी सजा तो दी जा सकती थी लेकिन मृत्युदण्ड़ नही दिया जा सकता था। इसीश युरोपिय इतिहासकार इस तर्क को स्वीकार नही करते है। इनका मत है कि नन्दकुमार को मृत्युदण्ड़ दिये जाने में वारेन हेस्टिंग्स का कोई हाथ नही था। ये इतिहासकार अपने मत के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत करते है -
1. मोहन कुमार ने नन्दकुमार पर जालसाजी का आरोप पहले लगाया था तथा नन्द कुमार ने वारेन हेस्टिंग्स पर जालसाजी का आरोप बाद में लगाया था।
2. नन्दकुमार को मृत्युदण्ड़ की सजा अकेले इम्पे ने नही वरन् चार जजों की खण्ड़पीठ ने दी थी।
3. वारेन हेस्टिंग्स और इम्पे एक दूसरे से परिचित अवश्य थे किन्तु उनकी बहुत घनिष्ठता नही थी। 
यद्यपि उपरोक्त इतिहासकारों द्धारा प्रस्तुत किये गये तर्क प्रभावपूर्ण है किन्तु वे इस बात का जबाब देने में असमर्थ है कि यदि नन्दकुमार के मामले में वारेन हेस्टिंग्स का हाथ नही था तो नन्दकुमार को जालसाजी के आरोप में कानूनों का उल्लंघन करते हुये मृत्युदण्ड़ क्यों दिया गया। यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि नन्दकुमार को मृत्युदण्ड़ दिये जाने से सर्वाधिक लाभ वारेन हेस्टिंग्स को ही था।
यद्यपि विभिन्न इतिहासकार इस सन्दर्भ में अलग अलग मत रखते है लेकिन पूरी घटना का गहराई से अवलोकन करने के बाद वारेन हेस्टिंग्स को नन्दकुमार को मृत्युदण्ड़ दिये जाने के आरोप से पूर्णतया मुक्त नही किया जा सकता क्योंकि यह मानना अत्यन्त कठिन है कि चार जज एक साथ बिना किसी के इशारे पर कानून की अवहेलना करते हुए जालसाजी के आरोप में मृत्युदण्ड़ दे दें। अतः वारेन हेस्टिंग्स को इस आरोप से मुक्त करना अत्यन्त कठिन है। यद्यपि यहॉ यह भी सर्वविदित है कि वारेन हेस्टिंग्स पर महाभियोग चलाते समय यह मामला भी विचार में लाया गया था किन्तु ब्रिटिश सरकार ने उसे दोषमुक्त पाया था।

वारेन हेस्टिंग्स की रूहेल्ला नीति --

तात्कालीन समय में रूहेलखण्ड़ के सरदार पर तथा अवध के नबाब पर मराठों के आक्रमण का भय था। अतः रूहेलों के सरदार हाफिज रहमत खॉ ने जून 1772 ई0 में अवध के नबाब से एक सन्धि कर ली जिसके तहत् यह तय हुआ कि यदि रूहेलखण्ड़ पर मराठे आक्रमण करते है तो नबाब वजीर रूहेलो की सहायता करेगा तथा उसकी सहायता के उपलक्ष्य में उसे 40 लाख रुपये प्राप्त होगें। एक साल बाद 1773 ई0 में मराठों ने रूहेलखण्ड़ पर आक्रमण किया लेकिन मराठा पेशवा माधव राव की अचानक मौत के कारण युद्ध किये बिना ही मराठे वापस चले गये। इस बीच  ब्रिटिश तथा अवध की सेना रूहेलखण्ड़ के लिए प्रस्थान कर गई। सन्धि की शर्तो के मुताबिक अवध के नबाब ने रूहेला सरदार से 40 लाख रुपये की मॉग की लेकिन हाफिज रहमत खॉं ने धन देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि युद्ध तो हुआ ही नही है और उसने टालमटोल की नीति अपनाई।
तत्पश्चात सन् 1774 ई0 में अवध के नबाब वजीर ने कम्पनी के साथ एक सन्धि की जिसमें यह कहा गया कि यदि उसे रूहेलखण्ड़ जीतने के लिए फौजी सहायता प्राप्त हो तो वह युद्ध का खर्च उठाने को तैयार है तथा अतिरिक्त 40 लाख रुपये भी अदा कर सकता है। वारेन हेस्टिंग्स ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इस प्रकार कम्पनी की सेना की सहायता से रूहेलखण्ड़ पर आक्रमण हुआ और मीरनकटरा के निर्णायक युद्ध में अन्ततः हाफिज रहमत खॉ मारा गया। लगभग 20 हजार रूहेलों को देश से निकालकर रूहेलखण्ड़ अवध में सम्मिलित कर लिया गया।
भारतीय इतिहासकारों ने वारेन हेस्टिंग्स द्धारा रूहेलों के प्रति अपनाई गई इस नीति की काफी आलोचना की है। मैकाले ने भी इस कठोर आचरण की निन्दा करते हुए कहा है कि कम्पनी के सैनिकों के सम्मुख रूहेला ग्राम लूटे गये ,बच्चे मार डाले गये तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार तक किया गया। इन इतिहासकारों का मत है कि रूहेलो ने कम्पनी के विरुद्ध कुछ भी नही किया था तथा हेस्टिंग्स अवध के नबाब के साथ सन्धि पर हस्ताक्षर प्राप्त करने में इतना अधीर हो गया कि उसने बिना सोच विचार के ही कम्पनी की सेना को अवध के नबाब के रूहेलखण्ड़ के आक्रमण में संलग्न कर दिया। 

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (First Anglo-Maratha War, 1776-1782)

वारेन हेस्टिंग्स ने अवध से संधि करके प्रसिद्धि प्राप्त कर ली, तो मद्रास परिषद् ने कर्नाटक तथा उत्तरी सरकार के क्षेत्रों पर अपना प्रभाव सुदृढ़ कर लिया। बंबई की परिषद् सालसीट, बेसीन और थाणे पर अधिकार करके बंबई की सुरक्षा करना चाहती थी, किंतु मराठों के भय से वह ऐसा नहीं कर पा रही थी। तभी मराठों के आंतरिक झगड़ों से अंग्रेजों को एक अवसर मिल गया।
पेशवा माधवराव की मृत्यु (1772) तथा पेशवा नारायणराव की हत्या (1774) के बाद महाराष्ट्र में आंतरिक झगड़े आरंभ हो गये। नारायण राव के चाचा रघुनाथ राव ने नारायण राव के मरणोपरांत जन्मे पुत्र माधवराव नारायण के विरूद्ध कंपनी की सहायता माँगी। बंबई की सरकार ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए रघुनाथ राव से सूरत की संधि (1775) कर ली। बंबई परिषद् को लगा कि कठपुतली रघुनाथराव के द्वारा बंगाल के इतिहास को दोहराया जा सकेगा। सूरत की संधि के अनुसार रघुनाथ राव को सैनिक सहायता देकर पूना में पेशवा की गद्दी पर बिठाना था और उसके बदले में कंपनी को सालसेट तथा बेसीन मिलने थे। इसके लिए बंबई सरकार ने संचालकों से सीधी अनुमति ले ली।
कंपनी की सहायता लेकर रघुनाथराव पूना की ओर बढ़ा तथा मई, 1775 में अर्रास के स्थान पर एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। कलकत्ता परिषद् को सूरत संधि की प्रति युद्ध आरंभ होने पर मिला। हेस्टिंग्स युद्ध के पक्ष में नहीं था, इसलिए कलकत्ता परिषद् ने सूरत की संधि को अस्वीकार कर दिया और पूना दरबार से मार्च, 1776 में पुरंदर की संधि कर ली। लेकिन यह संधि व्यर्थ रही क्योंकि बंबई की सरकार तथा संचालकों ने इसे स्वीकार नहीं किया।
यद्यपि रेग्यूलेटिंग एक्ट में युद्ध तथा शांति के मामलों में बंबई तथा मद्रास की सरकारों को बंगाल में स्थित केंद्रीय सरकार के नियंत्रण में कर दिया गया था, परंतु तात्कालिक आवश्यकता पड़ने पर संचालकों से सीधी आज्ञा प्राप्त कर लेने पर वे गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद् की अनुमति के बिना कार्य कर सकती थीं। इन युद्धों में हेस्टिंग्स या उसकी परिषद् से अनुमति नहीं ली गई थी, लेकिन कंपनी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हेस्टिंग्स को इन युद्धों को स्वीकार करना पड़ा।
1775 ई0 मे अमेरिका का स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हो जाने के कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी पुनः एक-दूसरे के विरोधी हो गये। पूना दरबार में फ्रांसीसी प्रभाव की आशंका से हेस्टिंग्स ने अपनी नीति बदल दी और गाडर्ड के नेतृत्व में एक सेना बंबई की सेना की सहायता के लिए भेज दी। बंबई परिषद् ने लंदन से प्रोत्साहित होकर सूरत की संधि को पुनर्जीवित कर दिया। किंतु बंबई की अंग्रेजी सेना बड़गाँव स्थान पर पेशवा की सेना से हार गई और उसे जनवरी, 1779 ई0 में बड़गाँव की संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार अंग्रेजों ने 1773 के बाद जीते गये सभी प्रदेशों को लौटाने का वादा किया।
उधर वारेन हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा। उसने एक सेना सिंधिया के आगरा-ग्वालियर क्षेत्र पर तथा दूसरी सेना पूना पर आक्रमण करने के लिए भेजी। पूना भेजी गई सेना जनरल गाडर्ड के नेतृत्व में अहमदाबाद, गुजरात को रौंदते हुए बड़ौदा पहुँच गई। अंग्रेजों का सामना करने के लिए पूना सरकार के प्रमुख नाना फड़नबीस ने निजाम, हैदरअली और नागपुर के भोंसले को मिलाकर एक गुट बना लिया। गाडर्ड ने गायकवाड़ को अपनी ओर मिला लिया, किंतु वह पूना पर अधिकार नहीं कर सका और लौट गया। मध्य भारत में महादजी सिंधिया ने अंग्रेजों से घोर युद्ध किया। हेस्टिंग्स को लगा कि वह मराठों को पराजित नहीं कर सकता, इसलिए सिंधिया की मध्यस्थता में अंग्रेजों और मराठों के बीच मई, 1782 में सालबाई की संधि हो गई। इस संधि के अनुसार दोनों ने एक-दूसरे के विजित क्षेत्र लौटा दिये, केवल सालसेट और एलीफैंटा द्वीप अंग्रेजों के पास रह गये। अग्रेजों ने रधुनाथराव का साथ छोड़ दिया और माधवराव नारायण को पेशवा स्वीकार कर लिया। राघोबा को पेंशन दे दी गई। इस संधि से युद्ध के पूर्व की स्थिति स्थापित हो गई, किंतु कंपनी को भारी वित्तीय क्षति उठानी पड़ी।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (Second Anglo-Mysore War, 1780-84)

मैसूर का हैदरअली 1771 से ही अंग्रेजों से नाराज था। इसका कारण यह था कि अंग्रेजों ने हैदरअली को मराठाआक्रमण के समय उसकी सहायता का वचन दिया था। किंतु जब 1771 में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने अपना वादा नहीं निभाया था।
आंग्ल-मैसूर युद्ध का तात्कालिक कारण यह था कि बंबई सरकार ने 1779 में मैसूर राज्य के बंदरगाह माही पर अधिकार कर लिया। वारेन हेस्टिंग्स का तर्क था कि माही के द्वारा हैदरअली को फ्रांसीसी सहायता मिल सकती थी। इससे हैदरअली बहुत रुष्ट हुआ और वह नाना फड़नबीस के अंग्रेज-विरोधी गुट में शामिल हो गया।
हैदरअली ने जुलाई, 1780 में दो अंग्रेजी सेनाओं को पराजित करके अर्काट को जीत लिया। इसके बाद उसने हैक्टर मुनरो की सेना को हरा दिया। इससे मद्रास सरकार के लिए गंभीर संकट उत्पन्न हो गया और कंपनी की साख अपने न्यूनतम् स्तर पर पहुँच गई।
कलकत्ता से हेस्टिंग्स ने हैदरअली के विरुद्ध सेनाएँ भेजीं। सर आयरकूट के अधीन अंग्रेजी सेना ने हैदरअली को पोर्टोनोवो, पोलिलूर तथा सोलिंगपुर में कई स्थानों पर पराजित किया, लेकिन उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के सौभाग्य से दिसंबर, 1782 में हैदरअली की मृत्यु हो गई।
हैदर के बेटे टीपू ने युद्ध को जारी रखा। उसने जनरल मैथ्यू को पराजित किया। जुलाई, 1783 में इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य पेरिस की संधि से जब अमरीकी युद्ध समाप्त हो गया, तो मद्रास के गवर्नर लॉर्ड लॉर्ड मैकार्टनी के प्रयास से मार्च, 1784 ई. में अंग्रेजों और टीपू के बीच मंगलौर की संधि हो गई और दोनों ने एक-दूसरे के विजित प्रदेश लौटा दिये। इस प्रकार आंग्ल-मैसूर युद्ध से भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ था, वह वारेन हेस्टिंग्स की दूरदर्शिता से टल गया।

वारेन हेस्टिंग्स पर महाभियोग (Impeachment of Warren Hastings)

गवर्नर जनरल के रूप में वारेन हेस्टिंग्स की दो कारणों से बड़ी बदनामी हुई थी- एक, बनारस के राजा चेतसिंह से अकारण अधिक रुपयों की माँग करने और उसे हटाकर उसके भतीजे को बनारस की नवाबी देने के कारण एवं दूसरे, अवध की बेगमों को शारीरिक यंत्रणा देकर उनका खजाना लूटने के कारण। जब पिट्स के इंडिया ऐक्ट के विरोध में अपने पद से इस्तीफा देकर वारेन हेस्टिंग्स फरवरी, 1785 में इंग्लैंड पहुँचा तो कॉमन सभा के सदस्य एडमंड बर्क ने उसके ऊपर महाभियोग लगाया। प्रारंभ में हेस्टिंग्स के ऊपर ग्यारह आरोप थे, लेकिन बाद में इनकी संख्या बढ़कर बाईस हो गई थी।
ब्रिटिश पार्लियामेंट में महाभियोग की कार्यवाही सात वर्षों तक (1788 से 1795) तक चलती रही। महाभियोग में न्यायोचित कार्यवाही की संभावना नहीं थी और अंत में वही हुआ भी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट ने माना कि चेतसिंह के मामले में हेस्टिंग्स का व्यवहार क्रूर, अनुचित और दमनकारी था, किंतु 23 अप्रैल, 1795 को हेस्टिंग्स को सभी आरोपों से ससम्मान बरी कर दिया गया गया।

वारेन हेस्टिंग्स का मूल्यांकन-

वारेन हेस्टिंग्ज का व्यक्तित्व तथा कृतित्व विवादास्पद रहा है। एक ओर उसे योग्य, प्रतिभावान तथा साहसी प्रशासक के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसने संकट के समय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा की थी, तो दूसरी ओर एक वर्ग उसे निष्ठर, अत्याचारी, भ्रष्ट और अनैतिक शासक मानता है जिसके कार्यों ने इंग्लैंड की राष्ट्रीय अस्मिता को आघात पहुँचाया और मानवता को शर्मशार किया। हेस्टिंग्स क्लाइव की ही भाँति व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट और लालची था। महाभियोग में उसके आर्थिक भ्रष्टाचार पर विस्तृत बहस हुई थी। उसने 2 लाख रुपये चेतसिंह से तथा 10 लाख रुपये नवाब से घूस लिया। मून के अनुसार उसने लगभग 30 लाख रुपये घूस अथवा उपहार के रूप में लिया था। उसने नियुक्तियों तथा ठेके देने में घोर अनियमितताएँ की थी और संचालकों के संबंधियों तथा अपने प्रिय पात्रों को अनुचित लाभ पहुँचाया था। हेस्टिंग्स ने कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के प्रधान सूलिवन के पुत्र को अफीम का ठेका दिया, जो उसने 40,000 पौंड में बेंच दिया। इसी प्रकार उसने बहुत सी अधिकारियों की भर्ती की, जिससे असैनिक प्रशासन का व्यय 1776 के 251,533 पाउण्ड से बढ़कर 1784 में 927,945 पाउण्ड हो गया था।
हेस्टिंग्स में मानवता या नैतिकता नाम की कोई भावना ही नहीं थी। मैकाले ने उसके बारे में लिखा है कि “न्याय के नियम, मानवता की भावनाएँ, तथा संधियों में लिखे वचन इत्यादि का उसके लिए कोई महत्त्व नहीं था, चाहे वे तात्कालिक राजनैतिक हितों के विरुद्ध ही हों। उसका नियम केवल एक ही था, जिसकी लाठी उसकी भैंसः। वह अपने पीछे बंगाल, बनारस तथा अवध में दुःख, उजाड़ तथा अकाल की लंबी कड़ियाँ छोड़ गया।“
इसके विपरीत डेविस का विचार है कि भारत में ब्रिटिश शासन की सुरक्षा और स्थायित्व के लिए हेस्टिंग्स ने जो कार्य किये, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। उसने भारत में बिखरे ब्रिटिश साम्राज्य को एक शक्ति बना दिया, जो अन्य सभी राज्यों से अधिक शक्तिशाली हो गया। डाडवेल का भी मानना है कि हेस्टिंग्स की महानता को कभी पूरी मान्यता नहीं मिल सकी। इसके अनुसार यदि बर्क को महाभियोग चलाना था, तो यह अपने पुराने शत्रु लॉर्ड नार्थ पर चलाना चाहिए था जो रेग्यूलेटिंग ऐक्ट का प्रवर्तक था, न कि उस पर जो इस ऐक्ट का शिकार हुआ। अल्फ्रेड लायल ने भी हेस्टिंग्स की प्रशासनिक प्रतिभा की प्रशंसा की है क्योंकि जिस समय अंग्रेजों को अपने शेष उपनिवेशों में विद्रोहों का सामना करना पड़ रहा था, वहीं भारत में कठिनाइयों के होते हुए भी कंपनी की स्थिति अच्छी बनी रही।
यद्यपि हेस्टिंग्स ने भारत को लूटा, किंतु उसने भारत को समृद्ध भी बनाया। उसने प्राचीन विद्या और साहित्य को संरक्षण दिया। उसने चार्ल्स विल्किन्स के गीता के प्रथम अनुवाद की प्रस्तावना लिखी। उसकी प्रेरणा से प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्ययन शुरू हुआ। विल्किन्स ने फारसी तथा बांग्ला मुद्रण के लिए ढ़लाई के अक्षरों का आविष्कार किया और हितोपदेश का भी अंग्रेजी अनुवाद किया।
इस प्रकार अंग्रेजों की दृष्टि में हेस्टिंग्स एक महान साम्राज्य निर्माता है। भारतीयों की दृष्टि में वह धनलोलुप और अत्याचारी है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की लूट-खसोट, अत्याचार और विश्वासघात की परंपराओं को मजबूत किया। वी0ए0 स्मिथ का मत तर्कसंगत लगता है कि उसके थोड़े से दोष उस राजनीतिज्ञ के दोष थे जिस पर सहसा ही संकट आ पड़ा हो और कठिन उलझनों में कभी-कभी मानवीय समझ में भूल-चूक हो जानी लाजिमी थी। वैसे भी साम्राज्य बनाने वालों से पूर्णतया नैतिक आचरण की आशा भी करना ठीक नहीं है, क्योंकि साम्राज्य कभी बिना पाप के नहीं बनते हैं।


1 Comments

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