window.location = "http://www.yoururl.com"; Lord Cornwaliis (1786-93) | लार्ड कार्नवालिस

Lord Cornwaliis (1786-93) | लार्ड कार्नवालिस

 


विषय-प्रवेश (Introduction)

आधुनिक भारत के इतिहास में लार्ड कार्नवालिस अपने द्धारा किए गए सुधारों के कारण विशेष रुप से याद किया जाता है। बंगाल के गवर्नर-जनरल के रूप में अपनी नियुक्ति से पहले, उन्होंने अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में उत्तरी अमेरिका में ब्रिटिश सेनाओं के कमांडर-इन-चीफ के रूप में काम किया था। सन् 1786 ई0 में वह भारत का गर्वनर जनरल बनकर आया। 

कॉर्नवालिस को गवर्नर जनरल पद पर नियुक्त करने का सुझाव सबसे पहले 1781 में डुंडास ने कॉमन सभा में प्रस्तुत किया था। किंतु गर्वनर जनरल का पद स्वीकार करने के लिए कॉर्नवालिस ने दो शर्ते रखी कि गवर्नर जनरल को कौंसिल के निर्णय पर वीटो लगाने और विशेष परिस्थितियों में आवश्यकतानुसार अपनी इच्छापूर्वक काम करने का अधिकार दिया जाए। जब फरवरी 1786 में कॉर्नवालिस ने गवर्नर जनरल के पद के लिए अपनी स्वीकृति दी तो 1784 के ऐक्ट में संशोधन किया गया और उसे निषेधाधिकार के साथ-साथ कौंसिल की इच्छा के विरुद्ध निर्णय लेने का अधिकार भी दे दिया गया। आवश्यकता पड़ने पर वह सेनापति का कार्यभार भी ले सकता था।

जिस  समय  कार्नवालिस  भारत  का  गर्वनर जनरल बनकर आया उस समय कम्पनी की स्थिती अत्यन्त दयनीय थी। भूमि व्यवस्था में अनेक दोष थे। पुलिस, प्रशासनिक, तथा न्यायिक विभाग में तमाम अनियमिततायें थी। व्यापार का पुर्नगठन करना था और सबसे बढकर कम्पनी के कर्मचारियों में अत्यधिक भ्रष्टाचार व्याप्त था। कंपनी के संचालक मंडल की प्रमुख समस्या राजस्व-संग्रह और उसके निर्धारण की थी। यद्यपि बंगाल में द्वैध शासन प्रणाली समाप्त कर दी गई थी, लेकिन अपने तमाम प्रयोगों के बावजूद वारेन हेस्टिंग्स इस समस्या का समुचित हल नहीं निकाल सका था। कंपनी के संचालक चाहते थे कि राजस्व निर्धारण स्थायी रूप से किया जाये और इसके लिए एक निश्चित संग्रह व्यवस्था स्थापित की जाये।

वास्तव में 1767 के पश्चात् कंपनी को व्यापार के साथ-साथ प्रशासन का उत्तरदायित्व भी सँभालना पड़ रहा था। कंपनी का व्यापार उसके कर्मचारियों के द्वारा होता था, लेकिन उसके कर्मचारी अपने व्यक्तिगत व्यापार में संलिप्त रहते थे जिससे कंपनी के व्यापार को हानि होती थी। कर्मचारी दिन-प्रतिदिन अमीर होते जा रहे थे और कंपनी की आय घटती जा रही थी। इसलिए कंपनी चाहती थी कि कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को किसी तरह समाप्त किया जाये। इसके अलावा, ब्रिटिश संसद की राय थी कि इतने विशाल प्रदेश का प्रशासन एक व्यापारिक कंपनी के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता। बर्क ने तो कंपनी प्रशासन को ’घोर अमानवीय घोषित कर दिया था। इसलिए ब्रिटिश सरकार चाहती थी कि प्रशासन में ऐसे सुधार किये जायें जिससे भारत के प्रशासन को विधिसंगत’ बनाया जा सके। अतः लार्ड कार्नवालिस से यह अपेक्षा की गई कि वह इन सभी समस्याओं का निष्ठापूर्वक हल करेगा। अपने सात वर्षो के शासन काल में कार्नवालिस ने न केवल एक सुचारु तथा संगठित प्रशासन व्यवस्था की स्थापना की अपितु बहुत हद तक अपेक्षित अन्य कार्यो को भी उसने पूरा किया। उसके इन प्रयत्नो से जहॉ एक ओर कम्पनी को आर्थिक लाभ हुआ वही दूसरी तरफ भारतीय भी इससे लाभान्वित हुए।

कार्नवालिस द्धारा किए गए सुधार कार्य-

प्रशासनिक सुधार-

यद्यपि लार्ड कार्नवालिस से पूर्व लार्ड क्लाईव तथा वारेन हेस्टिंग्स द्धारा प्रशासनिक क्षेत्र में कुछ सुधार किए गए थे लेकिन इन्हे अपने उद्देश्यों में बहुत अधिक सफलता नही मिली थी। गर्वनर जनरल बनने के पश्चात लार्ड कार्नवालिस ने प्रशासन के क्षेत्र मे ंविद्यमान अनेक दोषों को दूर करने का प्रयास किया। उसके द्धारा किए गए कुछ प्रशासनिक सुधार निम्नलिखित है-

  • सर्वप्रथम उसने अपने व्यक्तिगत उदाहरणों द्धारा इमानदारी तथा आदर्श चरित्र की भावना को कम्पनी के कर्मचारियों के समक्ष रखकर उनमें इमानदारी की भावना जागृत करने की चेष्टा की।
  • उसने कम्पनी को पक्षपात के कारण होने वाले क्षेत्रों से बचाने का प्रयास किया ताकि कर्मचारियों में कम्पनी के प्रति निष्ठा बनी रहें।
  • उसने व्यय या खर्चा कम करने की दृष्टि से अनेक अनावश्यक एवं महत्वहीन पदों को समाप्त कर दिया। 
  • उसने कम्पनी के संचालको को इस बात के लिए बाध्य किया कि वे कम्पनी के कर्मचारियों के वेतनो में वृद्धि करें ताकि उनमें भ्रष्टाचार की प्रवृति कम हो सके।
  • उसने भारत में कम्पनी के कर्मचारियों द्धारा किये जाने वाले निजी व्यापार तथा रिश्वत लेने के विरुद्ध कठोर नियम बना दियें।

इस प्रकार लार्ड कार्नवालिस के इन प्रयत्नो से प्रशासनिक व्यवस्था में निश्चित रुप से सुधार हुआ और कम्पनी के कर्मचारी पहले की तुलना में अधिक ईमानदार होने लगे। नियुक्तियों को करते समय, उसने केवल यूरोपीय लोगों को सामान्य रूप से और विशेष रूप से अंग्रेजों को सबसे अच्छी नौकरियां दीं। उसे मानना था कि भारतीय भरोसे के योग्य नहीं हैं, इसलिए कॉर्नवॉलिस ने भारतीयों के साथ तिरस्कार का व्यवहार किया।

न्यायिक सुधार-

प्रशासनिक क्षेत्र के समान ही लार्ड कार्नवालिस ने न्यायिक क्षेत्र में भी सुधार किये। उसके द्धारा न्यायिक क्षेत्र में किये गये सुधार निम्नलिखित है -

दिवानी न्यायालयों की संख्या बढाना-

लार्ड कार्नवालिस ने अनुभव किया कि भारत में दिवानी न्यायालयों की संख्या कम होने के कारण भारतीय जनता को अनेक कष्टों का सामना करना पडता है तथा उन्हे समय से न्याय नही मिल पाता है। इन दोषो को दूर करने के उद्येश्य से कार्नवालिस ने अनेक स्तरो पर विभिन्न न्यायालयों की स्थापना की। नयी ब्यवस्था के तहत् सबसे छोटा न्यायालय मुन्सिफ न्यायालय होता था जिसे 50 रु0 तक के मुकदमे सुनने का अधिकार था। इसके बाद रजिस्ट्रार न्यायालय होता था जिसे 200 रु0 तक के मुकदमे सुनने का अधिकार था। इन दोनो न्यायालयो से बड़ा जिला न्यायालय होता था। यहॉ यह उल्लेखनीय है कि मुन्सिफ तथा रजिस्ट्रार न्यायालय मे ंन्यायधीश भारतीय होते थे और जिला न्यायालय में अंग्रेज न्यायधीश को सलाह देने के लिए भारतीय न्यायधीश होते थे। जिला न्यायालयो के निर्णयों के विरुद्ध अपील प्रान्तीय न्यायालय मे की जा सकती थी जो चार प्रमुख शहरो कलकत्ता, ढॉका, मुर्शिदाबाद, और पटना में स्थापित था। इन प्रान्तीय न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपील सबसे बड़ी अदालत ’सदर दीवानी अदालत’ मे ंकी जा सकती थी जो कलकत्ता में स्थित था। इसका निर्णय सर्वोच्च माना जाता था। 

फौजदारी न्यायालय का पुर्नगठन-

दीवानी न्यायालय के समान ही फौजदारी न्यायालय का गठन किया गया और अनेक स्तरो पर न्यायालयों की स्थापना करके इनकी संख्या में वृद्धि की गई। फौजदारी न्यायालय के क्षेत्र में सबसे छोटा न्यायालय दारोगा का होता था जो छोटे-छोटे मुकदमों का निस्तारण करता था। इसके बाद जिला न्यायालय होता था। जिला न्यायालयो के निर्णयों के विरुद्ध उपरोक्त वर्णित चार प्रमुख नगरों में स्थापित प्रान्तीय न्यायालय में की जा सकती थी। प्रान्तीय न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध कलकत्ता में स्थित सबसे बड़ी अदालत ’सदर निजामत अदालत ’ में अपील की जा सकती थी और उसका निर्णय सर्वोच्च माना जाता था।

कलक्टर से न्याय अधिकार वापस लेना-

तात्कालिक समय तक कलक्टर एक जिला न्यायाधीश के समान ही अधिकार रखता था। कार्नवालिस ने इन कलेक्टरों से समस्त न्यायिक अधिकार वापस ले लिये और अलग से एक न्याय विभाग की स्थापना की। अब कलेक्टर का कार्य मात्र लगान वसूल करना रह गया। लार्ड कार्नवालिस का यह सुधार अत्यन्त महत्वपूर्ण था क्योकि प्रशासनिक तथा न्यायिक दोनों ही कार्यो को सम्पादित करने के कारण कलेक्टर अत्यन्त शक्तिशाली हो गये थे और वे इस अधिकार का दुरुपयोग करने लगे थे।

कार्नवालिस कोड की स्थापना -

गवर्नर जनरल बनने के पश्चात लार्ड कार्नवालिस ने यह अनुभव किया कि ब्रिटिश इ्रस्ट इण्ड़िया कम्पनी के लिए अलग से एक लिखित कानून होना चाहिए। अतः उसने विभिन्न कानूनों तथा नियमों को संकलित करके एक कानून की स्थापना की जिसे भारत के इतिहास में कार्नवालिस कोड़ के नाम से जाना जाता है। इसमें न केवल विभिन्न कानूनो तथा नियमों का वर्णन किया गया बल्कि पहले से प्रचलित अनेक महत्वपूर्ण लेकिन अमानवीय प्रथा को भी बन्द कर दिया गया।

इस प्रकार लार्ड कार्नवालिस ने न्याय के क्षेत्र मे ंविभिन्न सुधार करके न केवल न्याय ब्यवस्था को सुचारु स्वरुप प्रदान किया वरन् न्याय को वह गरीब भारतीय जनता तक पहुॅचाने में भी सफल रहा।

पुलिस विभाग में सुधार-

तात्कालिन समय तक भारत में अलग से पुलिस विभाग नही था अपितु यह कार्य सामान्यतया जमींदार वर्ग पर ही आधारित था। अतः जमींदार वर्ग द्धारा कमजोर तथा गरीब भारतीय जनता पर मनमाने अत्याचार किये जाते थे। इन दोषों को दूर करने के लिए कार्नवालिस ने पुलिस विभाग में अनेक सुधार किये। उसके द्धारा पुलिस विभाग में किये गये कार्य निम्नलिखित है -

  • उसने अलग से एक पुलिस विभाग की स्थापना की और जमींदारों को पुलिस कार्य सम्बन्धी अधिकार से वंचित कर दिया।
  • उसने प्रत्येक जिले को अनेक प्रान्तों में विभक्त कर दिया और प्रत्येक थाने को एक दारोगा के अधीन कर दिया गया।
  • प्रत्येक दारोगा को कलेक्टर के अधीन कार्य करना था। 
  • उसने चोरी का माल अथवा अपराधियों को पकड़ने पर सम्बद्ध अधिकारियों अथवा कर्मचारियों के लिए पुरस्कार की ब्यवस्था की ताकि उनका मनोबल बढा रहे।
  • पुलिस विभाग पर होने वाले खर्च के लिए उसने बड़े-बड़े नगरों की कुछ प्रमुख दुकानों पर कर लगा दिए ताकि राजकोष पर अतिरिक्त भार भी न पड़े तथा शान्ति व्यवस्था भी कायम रखी जा सके।

वाणिज्यिक सुधार -

जिस समय लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया कम्पनी का व्यापार निरन्तर घाटे में चल रहा था। इसे दूर करने के उद्देश्य से लार्ड कार्नवालिस ने सर्वप्रथम व्यापार सम्बन्धी समस्त अधिकार व्यापार बोर्ड को सौंप दिया। व्यापार बोर्ड के सदस्यो की संख्या ग्यारह से घटाकर पॉच कर दी गई। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के क्रय -विक्रय के लिए कमीशन एजेंण्ट नियुक्त किये गये तथा भारतीय कारीगरों की सुरक्षा के लिए अनेक प्राविधान किये गये। इस प्रकार कार्नवालिस के प्रयत्नो से कम्पनी को अत्यधिक लाभ हुआ और उसका व्यापार घाटे की जगह लाभ में चलने लगा।

इस प्रकार इन सम्पूर्ण विवेचनो से यह स्पष्ट है कि लार्ड कार्नवालिस प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रो मे ंसुधार करके कम्पनी की स्थिती को सुदृढ करने का प्रयास किया। निश्चित रुप से उसके द्धारा किए गए सभी सुधारों का प्रमुख उद्देश्य कम्पनी का हित था लेकिन हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि उसने जो भी सुधार अथवा नवीन व्यवस्थाएॅ लागू की उससे भारतीयों को भी लाभ पहुॅचा। यद्यपि उसके द्धारा किये गये सुधार कार्य पूर्णतया दोषमुक्त नही थे फिर भी वे प्रशंसनीय अवश्य है। वारेन हेस्टिंग्स ने जिस नींव की आधारशिला रखी थी निश्चित रुप से उसपर भवन निर्माण का कार्य लार्ड कार्नवालिस ने किया। उसके प्रशासन काल का महत्व इस बात से और अधिक बढ जाता है कि उसके द्धारा स्थापित नवीन व्यवस्थाओं में से अधिकांशतः बहुत हद तक आज भी विद्यमान है।

डेविड थामसन के शब्दों में Lord cornwallis’s main task through out  his term  was the first honest , incorruptible governer  India  ever  saw.”

स्थायी   बन्दोबस्त  व्यवस्था :-

सन् 1793 ई0 में लार्ड कार्नवालिस  द्धारा  प्रतिपादित  ’’स्थायी  बन्दोबस्त  व्यवस्था  ’’ जिसे  ’’इस्तेमरारी  बन्दोबस्त  व्यवस्था ’’ भी कहा जाता है, आधुनिक भारत के इतिहास का एक विवादास्पद मुद्दा है। एक तरफ अंग्रेजो की दृष्टि में जहॉ यह व्यवस्था ब्रिटिश साम्राज्य को सुदृढ तथा स्थायी बनाने में काफी सहायक रही है वही भारतीयों की दृष्टि में यह व्यवस्था अंग्रेजों द्धारा भारतीयों के भरपूर शोषण का परिचायक है। इस व्यवस्था द्धारा भारतीय काश्तकारों का इतना शोषण किया गया कि उनकी स्थिती ब्रिटिश शासन के स्वतंत्र नागरिक होते हुए भी वस्तुतः क्यूबा के गुलामों तथा रुस के कृषि दासो से भी अधिक अपमानजनक तथा शोचनीय थी। सामान्यतया इस व्यवस्था के दो उद्देश्य बताये जा सकते हैै 

1. आर्थिक 

2. राजनीतिक 

आर्थिक दृष्टि से ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी की आय को निश्चित करना तथा भारतीय धन सम्पदा का अधिकाधिक शोषण करना था। जबकि राजनीतिक दृष्टि से एक ऐसे वर्ग का समर्थन प्राप्त करना था जो प्रत्येक स्थिती में अंग्रेजों या ब्रिटिश साम्राज्य का साथ देने के लिए तैयार हो।

तात्कालिन समय में लगान व्यवस्था से सम्बन्धित मुख्य रुप से तीन प्रकार की समस्याएॅ थी -

1. समझौता किससे किया जाय - जमींदार से या किसान से 

2. राज्य को पैदावार का कितना भाग प्राप्त हो अर्थात लगान की रकम के रुप में कितना कर वसूल किया जाय

3. समझौता कुछ वर्षो के लिए किया जाए या स्थायी रुप से अर्थात समझौता का कार्यकाल क्या हो

इन सभी समस्याओं के सम्बन्ध में सर जॉन शोर, चार्ल्स ग्राण्ट, तथा स्वयं लार्ड कार्नवालिस में मतभेद था। समझौता किसानों से किया जाय या जमींदार से -  इस सम्बन्ध में डायरेक्ठरों की नीति तथा आदेश के कारण निर्णय जमींदारों के पक्ष में लिया गया। लगान निश्चित करने का आधार क्या हो ? - इस सम्बन्ध में यह निर्णय लिया गया कि लगान निर्धारित करने का एकमात्र आधार तात्कालीन समय में एकत्रित्र किया हुआ लगान ही होना चाहिए। इसके अतिरिक्त समझौता कुछ समय के लिए हो या स्थायी रुप से - इस समस्या के  सम्बन्ध में स्थायी समझौता के पक्ष में निर्णय लिया गया।

इस प्रकार काफी वाद-विवाद के बाद सर्वप्रथम 1790 ई0 में बंगाल में इस व्यवस्था को लागू किया गया। तत्पश्चात 1793 ई0 में लार्ड कार्नवालिस ने इस व्यवस्था को स्थायी रुप से लागू करने की घोषणा की।

स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था द्धारा निम्न व्यवस्थाएॅ लागू की गई -

1. जमींदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। 

2. जमींदार भूमि का स्वामी होने के कारण उसे खरीद या बेच सकता था।

3. जमींदारों को भूमि से तबतक पृथक नही किया जा सकता था जबतक कि वह अपना निश्चित लगान सरकार को देते रहेगे।

4. जमींदारों के लिए लगान निश्चित कर दिया गया उन्हे कुल लगान का 10/11 भाग सरकार को देना पड़ता था। यद्यपि अलग -अलग इतिहासकारों ने इस दर को अलग -अलग बताया है।

5. जमींदारों के लिए पुलिस तथा मजिस्ट्रेट कार्य समान कर दिया गया।

6. सरकार का किसानों के साथ कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रह गया।

स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था के गुण - दोष :

जहॉ तक स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था के गुण - दोष अथवा लाभ - हानी का प्रश्न है, इस सम्बन्ध में सभी इतिहासकार एकमत नहीं है। एक तरफ मार्शमैन जैसे इतिहासकार ने इसे साहसी , बुद्धिमानी , तथा बहादुरी का कार्य बतलाया है वही होम्स जैसे इतिहासकार ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि - ’’स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था एक भारी  भूल थी।------जमींदार समय से अपना लगान की दर देने में असमर्थ रहें और उनके भूक्षेत्र और सम्पत्ति सरकार के लाभ के लिए बेंच दिए गए। ’’

{The  parmanent  sattlement  was  a  sad  blunder . The  inferrior  tenants  derrived  from  it no  benefit   whatever,  The  zamindar  again   and   again  failed  to pay  their  rent  charge  and  their  estates  were  sold  for  the  benefit   of  the government . }

इस व्यवस्था के अन्तर्गत राजस्व की दर इतनी ऊॅची थी कि भारतीय काष्तकारों के लिए बहुत ही कष्टप्रद और ब्रिटिश सरकार के लिए यह विशेष फायदेमन्द साबित हुई। सरकार को इस व्यवस्था से सह लाभ हुआ कि एक तरफ उसकी आय निश्चित हो गयी और भूराजस्व जो उसकी आय का मुख्य स्रोत था, उसको निश्चित तथा नगद राशि के रूप में मिलने लगा। कम्पनी के कर्मचारी अब लगान वसूल करने की चिन्ता से मुक्त हो गये और अब वे अधिक स्वतंत्रता से न्याय , प्रशासन , तथा व्यापार की ओर ध्यान देने लगे।

रातनीतिक दृष्टि से उन्हे भारत में एक ऐसे वर्ग का सहयोग प्राप्त हुआ जो प्रत्येक दृष्टि से उनका साथ देने को तैयार था। 1857 के विद्रोह के समय इसी जमींदार वर्ग ने अंग्रेजो का साथ दिया। इस प्रकार 1857 के विद्रोह की असफलता में इस वर्ग का प्रबल योगदान रहा था। इस प्रकार लार्ड कार्नवालिस अपने इस लक्ष्य की पूर्ति में पूर्ण रुप से सफल रहा और अंग्रेजी राज्य बरकरार रखने के लिए ऐसा राजनीतिक आधार तैयार किया जो ब्रिटिश राज्य के अन्त तक उसका प्रबल समर्थक बना रहा।

यदि भारतीय दृष्टिकोण से इस व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाय तो इसके लाभ कम तथा दोष अधिक परिलक्षित होता है। बहुत से जमींदारों द्धारा समय से अपना निश्चित लगान देने में असमर्थ होने के कारण उसकी भूमि नीलाम कर ली जाती थी । दूसरी तरफ कृषकों का जमीन पर से सीधा अधिकार छीन लिया गया। कृषक द्धारा लगान निश्चित समय पर अदा न करने के कारण जमींदार किसानों की निजी सम्पति को बेंचकर लगान की पूरी रकम वसूल करता था। इसके अतिरिक्त जमींदार आसानी से पट्टे में लिखित लगान की रकम बढा लेता था और जब भी चाहे, बिना किसी कारण के किसान को भूमि से बेदखल भी कर सकता था। किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार की तरफ से कोई कानूनी प्राविधान नही था। किसानों की दुर्दशा के कारण ऋण लेने की प्रथा प्रबल हो गई। इस नयी व्यवस्था में लगान का बोझ इतना  अधिक बढ गया कि किसानों को उसे चुकाने के लिए नियमित रुप से ऋण लेना पड़ता था। बहुत बार ऋण चुकाने के बाद किसानों के पास जो कुछ भी बचा रहता था वह उसके जीवन निर्वाह के लिए पर्याप्त नही होता था। किसानोें के लिए उन्नत किस्म के बीज , खाद , सिचाई , आदि की व्यवस्था नही की गयी । इस प्रकार ब्रिटिश शासन पद्धति में उत्पन्न हुई यह जमींदारी व्यवस्था किसानों के निर्मम शोषण का दोहरा साधन बन गई -एक ओर लगान के रुप में तो दूसरी ओर ऋण के उपर दिये जाने वाले ब्याज के रुप में।

इस शोषण तंत्र का सर्वाधिक भयंकर परिणाम यह हुआ कि कृषक जो कृषि कार्य के विकास के लिए जी -जान से मेहनत करता था, अब कृषि कार्य से दूर भागने लगा और अपनी जिविकोपार्जन के लिए विदेशों में पलायन करने लगा। कृषि कार्य न होने से भूमि बंजर तथा पर्ती पड़ने लगी जिसका दुष्प्रभाव भारतीय उद्योग - धन्धों तथा अर्थव्यवस्था पर पड़ा ।

निष्कर्ष रुप में यह कहा जा सकता है कि लार्ड कार्नवालिस द्धारा प्रतिपादित स्थायी बन्दोबस्त व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ ब्रिटिश साम्राज्य के लिए लाभदाई रही। भारतीयों का विशेष रुप से कृषको का इससे सर्वाधिक नुकसान हुआ और इस व्यवस्था ने एक तरह से काश्तकारों की कमर ही तोड़ दी।

लार्ड कार्नवालिस की भारतीय राज्यों के प्रति नीति-

कॉर्नवालिस ने भारतीय राज्यों के मामलों में अहस्तक्षेप की नीति का पालन करने का प्रयास किया। वह पिट के अधिनियम में की गई घोषणा के अनुसार किसी भारतीय राज्य के विरुद्ध किसी प्रकार के युद्ध की घोषणा करने के पक्ष में नहीं था। फिर भी उसे मैसूर से युद्ध करना पड़ा।

अवध से संबंध-

कम्पनी की नीति थी कि अवध के नवाब से अधिक से अधिक धन की वसूली की जाए। इसी क्रम में 1775 में वारेन हेस्टिंग्स की परिषद् ने नवाब पर दूसरी संधि थोपी। इसके अनुसार अवध की अंग्रेजी सेना के व्यय के लिए धनराशि 30,000 रुपये मासिक से बढ़ाकर 2,10,000 रुपये मासिक कर दिया गया था। नवाब इतना धन देने की स्थिति में नहीं था जिससे उस पर बकाया राशि बढ़ती जा रही थी। नवाब ने गवर्नर जनरल कॉर्नवालिस से प्रार्थना की कि उसे अंग्रेजी सेना के व्यय से मुक्त किया जाये। कॉर्नवालिस ने नवाब की प्रार्थना पूर्ण रूप से तो नहीं स्वीकार की लेकिन उसका कुल व्यय घटाकर 50 लाख रुपये वार्षिक कर दिया और नवाब को यह आश्वासन भी दिया कि अंग्रेज रेजीडेंट नवाब के प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करेगा। इसके बदले में नवाब ने वादा किया कि वह अवध में किसी यूरोपीय को कंपनी की सहमति के बिना बसने की अनुमति नहीं देगा।
मराठों से संबंधः मेकफर्सन के काल में महादजी सिंधिया ने मुगल सम्राट शाहआलम के वकील-ए-मुतलक के रूप में बंगाल की चौथ माँगी थी। मेकफर्सन ने इस पर ध्यान नहीं दिया था, लेकिन उसने मराठों को आश्वासन जरूर दिया था कि अगर टीपू सुल्तान उनके क्षेत्रों पर आक्रमण करेगा तो वह मराठों की सहायता करेगा। कॉर्नवालिस ने इस संधि की पुष्टि करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह टीपू और अंग्रेजों के बीच की गई मंगलौर संधि के विरुद्ध थी।

निजाम से संबंध- 

कॉर्नवालिस मैसूर के टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के लिए खतरनाक मानता था। इसलिए उसने हैदराबाद के निजाम से घनिष्ठ संबंध रखे। यद्यपि 1785 में टीपू और अंग्रेजों के बीच मंगलौर की संधि हो चुकी थी लेकिन दोनों पक्षों को एक-दूसरे पर भरोसा नहीं था। अंग्रेजों और निजाम के बीच पहले समझौता हुआ था कि निजाम बसालतजंग की मृत्यु के बाद उत्तरी सरकार का गंटूर जिला अंग्रेजों को दे दिया जायेगा। चूंकि 1782 में बसालतजंग की मृत्यु हो चुकी थी, इसलिए कॉर्नवालिस ने गुंटूर की माँग की। निजाम गुंटूर नहीं देना चाहता था, इसलिए उसने 1765 की संधि के अनुसार अग्रेजों से टीपू के अधिकार वाले क्षेत्रों की माँग की। कॉर्नवालिस ने 1788 में निजाम पर दबाव डालकर गुंटुर ले लिया और उसको आश्वासन दिया कि जब कभी टीपू के अधिकारवाले क्षेत्र अंग्रेजों के अधिकार में आ जायेंगे, तो उन्हें निजाम को दे दिया जायेगा। कॉर्नवालिस ने इस संधि के बाबत बोर्ड ऑफ कंट्रोल के अध्यक्ष डुंडास से स्वीकृति भी ले ली थी।

मैसूर से युद्ध-

कॉर्नवालिस जानता था कि मैसूर का टीपू कभी भी अंग्रेजों के लिए संकट पैदा कर सकता है। टीपू भी अंग्रेजों को दक्षिणी भारत से निकालने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ था। कॉर्नवालिस ने टीपू से निपटने के लिए निजाम एवं मराठों से मित्रतापूर्ण संबंध बनाये रखा। उसने निजाम को उन क्षेत्रों को वापस दिलाने का आश्वासन भी दिया था जो हैदरअली ने छीन लिये थे।
मामला उस समय बिगड़ गया जब टीपू ने ट्रावनकोर के राजा पर आक्रमण कर दिया जो अंग्रेजों का मित्र था। कॉर्नवालिस ने मित्र की सहायता के बहाने 1790 में मैसूर पर हमला बोल दिया। टीपू दो वर्ष तक अंग्रेजों के छक्के छुड़ाता रहा। अंततः कॉर्नवालिस को स्वयं मोर्चा सँभालना पड़ा। संसाधनों के अभाव में टीपू अधिक समय तक संघर्ष नहीं कर सका। कॉर्नवालिस ने बंगलौर और कोयम्बटूर जैसे मैसूर के कई दुर्गों पर अधिकार कर लिया तथा फरवरी, 1792 में श्रीरंगपट्टम की बाहरी रक्षा-दीवार को ध्वस्त कर दिया। विवश होकर टीपू को मार्च, 1792 ई. में श्रीरंगापट्टम की संधि करनी पड़ी। टीपू को 3.30 लाख रुपये युद्ध की क्षतिपूर्ति देने के साथ ही अपने राज्य का आधा भाग भी देना पड़ा, जिसे अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम ने आपस में बाँट लिया। इस प्रकार 1765 के बाद अंग्रेजी राज्य का विस्तार करने का श्रेय कॉर्नवालिस को था।

नेपाल तथा असम- 

1784 में हेस्टिंग्स ने नेपाल से व्यापारिक संधि करने के लिए एक दूत काठमांडू भेजा था, लेकिन उसे निराश लौटना पड़ा था। इसके बाद तिब्बत और नेपाल के बीच युद्ध आरंभ हो गया। तिब्बत को चीन से सहायता मिली तो नेपाल ने अंग्रेजों से सहायता माँगी। नेपाल ने 1792 में अग्रेजों से एक व्यापारिक संधि की, जिससे आयात कर में कमी के साथ-साथ नेपाल में अंग्रेज व्यापारियों को आने की अनुमति मिल गई। कॉर्नवालिस ने किर्कपेट्रिक को नेपाल तथा चीन में समझौता कराने के लिए काठमांडू भेजा। किंतु नेपाल का राजा सैनिक सहायता चाहता था, चीन से समझौता नहीं। इसलिए उसने चीन से समझौता होते ही व्यापारिक संधि को भंग कर दिया।
असम के राजा ने, जिसे गद्दी से हटा दिया गया था, कॉर्नवालिस की सहायता माँगी। कॉर्नवालिस ने कैप्टन वाल्स को असम भेजा, जिसने राजा को गद्दी पर बिठाने में सफलता प्राप्त की। लेकिन उसके वापस आते ही स्थानीय नागरिकों ने राजा को फिर गद्दी से हटा दिया।
इस प्रकार अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा तथा विस्तार के लिए कॉर्नवालिस ने साम्राज्यवादी नीति अपनाई। यह अंग्रेजों की धूर्तता थी कि वे नैतिकता का प्रदर्शन करते थे और बार-बार भारत में अपने राज्य का विस्तार न करने का दंभ भरते थे। लेकिन अवसर मिलते ही उनकी साम्राज्यवादी लिप्सा जाग उठती थी और वे भारतीय राज्यों को हड़प लेते थे। इसी साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत ही अंग्रेजों ने निजाम से गुंटर और टीपू से आधा राज्य हड़प लिया था।

लार्ड़ कार्नवालिस का मूल्यांकन -

लॉर्ड कॉर्नवालिस मूलतः एक सैनिक था, लेकिन भारत में उसने प्रशासनिक सुधार का महत्वपूर्ण कार्य किया और एक व्यापारिक कंपनी के कर्मचारियों को प्रशासकों में परिवर्तित कर दिया। उसने अपने कॉर्नवालिस कोड के द्वारा प्रशासन के विस्तृत नियमों तथा सिद्धांतों का निर्माण किया और उसे स्थायित्व प्रदान किया। उसने सार्वजनिक सेवाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म किया और कंपनी के शासन को न्यायिक व प्रशासनिक दो भागों में बाँट दिया। कॉर्नवालिस ने कंपनी की सेवा का जो रुप तय किया, वही आगे चलकर इंपीरियल सिविल सर्विस के रूप में विकसित हुआ। इसलिए उसे भारत में नागरिक सेवा का जनक भी माना जाता है। भूराजस्व, कॉर्नवालिस प्रणाली तथा न्यायिक सेवा के क्षेत्र में अपने महत्त्वपूर्ण सुधारों के कारण वह आज भी अमर है।
यह सही है कि कॉर्नवालिस वारेन हेस्टिंग्स या वेलेजली जैसा प्रतिभाशाली नहीं था। उसमें मौलिक प्रतिभा भी नहीं थी और न ही वह सर जान शोर या चार्ल्स ग्रांट के समान विशेषज्ञ ही था। फिर भी, उसने अपने अनुशासन, नैतिकता तथा ईमानदारी से संचालकों तथा ब्रिटिश मंत्रिमंडल के आदेशों का पूरी निष्ठा के साथ पालन किया और एक प्रशासनिक अधिकारी के रूप में अंग्रेजी सरकार के प्रति लोगों में पनपी घृणा की भावना को काफी हद तक कम करने में सफल रहा।
प्रायः यह माना जाता है कि कॉर्नवालिस ने हेस्टिंग्स के कार्य को पूरा किया। यह सही है कि हेस्टिंग्स की नीव पर ही कॉर्नवालिस ने प्रशासन का निर्माण किया। किंतु यदि हेस्टिंग्स कुछ समय और मिलता तो शायद वह प्रशासन का निर्माण करने में भी सफल हो जाता। हेस्टिंग्स को पता था कि कंपनी के कर्मचारी तब तक ईमानदार नहीं हो सकते, जब तक उन्हें अच्छा वेतन नहीं दिया जायेगा। उसने राजस्व कर्मचारियों को 19 प्रतिशत कमीशन देना आरंभ भी कर दिया था, लेकिन वह कर्मचारियों का वेतन बढ़ाने में असफल रहा। कॉर्नवालिस को पिट और हुंडास का समर्थन प्राप्त था, अतः वह वेतन बढ़ाने तथा भ्रष्टाचार को रोकने में सफल रहा।
कॉर्नवालिस का सबसे महत्वपूर्ण कार्य राजस्व तथा दीवानी का पृथक्करण था। किंतु राजस्व विभाग को दीवानी अधिकारों से पृथक् करने का कार्य हेस्टिंग्स ने ही आरंभ किया था, जिसे कॉर्नवालिस ने पूरा किया। हेस्टिंग्स राजस्व-निर्धारण और संग्रह की समस्या के लिए भी व्यवस्था कर रहा था। कॉर्नवालिस का स्थायी बन्दोबस्त का प्रमुख कारण संचालकों का आदेश था। इस प्रकार आदेश मिलने पर हेस्टिंग्स भी स्थायी बंदोबस्त कर सकता था। कॉर्नवालिस के शासनकाल की संचालकों तथा ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने प्रशंसा की। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स ने उसका आभार प्रकट करते हुए उसे 20 वर्ष के लिए 25000 पौंड की वार्षिक पेंशन प्रदान की थी। पश्चिमोत्तर भारत यात्रा के दौरान 5 अक्टूबर, 1805 को गाजीपुर में उसकी मृत्यु हो गई।

Post a Comment

Previous Post Next Post