उसके व्यक्तित्व के निर्माण में अहम भूमिका निभाते हैं। साहित्य समाज का दर्पण होता है। साहित्यकार का चिंतन किसी न किसी रूप में अपने युग परिवेश व परिस्थितियों का परिणाम होता है। क्योंकि उसके व्यक्तित्व का निर्माण समाज में होता है इसलिए उसके अनुभवों का स्रोत भी समाज ही होता है। अपनी रचनाओं में वह अपनी उन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है जिन्हें वह अपने संस्कार और सामाजिक वातावरण से ग्रहण करता है। रचनाकार केवल अपनी अनुभूतियों को ही अपने काव्य में अभिव्यक्त नहीं करता बल्कि अपने देश, काल एवं तत्कालीन परिस्थितियों का भी सांकेतिक रूप में उल्लेख करता है। जिस वातावरण में वह रहता है, उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। इसलिए उसकी रचनाओं में व्यक्तिगत अनुभूतियों के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन का भी उल्लेख मिलता है।
प्रत्येक समाज के अपने सामाजिक मूल्य, मान्यताएँ एवं संस्थाएँ होती हैं, जिनसे तत्कालीन समाज की सभ्यता संस्कृति, उसके आचार-विचार आदि के विषय में पता चलता है। इसके अतिरिक्त इन सामाजिक संस्थाओं से हमें यह भी जानकारी प्राप्त होती है कि तत्कालीन समाज में लोगों की मानसिकता कैसी थी ? विभिन्न लेखकों की रचनाओं के माध्यम से हमें मध्यकालीन सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन की बहुत उपयोगी जानकारी प्राप्त होती है। इनमें तत्कालीन वर्ण-व्यवस्था, विभिन्न व्यवसायिक वर्ग, खान-पान, वस्त्र, आभूषण, मनोरंजन के साधन, उत्सव एवं त्यौहार, सामाजिक प्रथाएँ, धार्मिक विश्वास, शकुन-अपशकुन इत्यादि के विषय में विस्तृत जानकारी उपलब्ध होती है। सल्तनत काल के आरम्भ में हिन्दू समाज पूर्व की भॉंति जाति प्रथा एवं वर्णाश्रम व्यवस्था पर आधारित था किन्तु जैसे-जैसे तुर्कों का प्रभाव व प्रभुत्व बढता गया और राजपूतों के पराजय के फलस्वरूप हिन्दू राज्य समाप्त होने लगे, वैसे-वैसे हिन्दू समाज के आन्तरिक ढॉंचे में कुछ परिवर्तन होने लगे। तुर्को के आक्रमण और भारत में उनके द्वारा स्थापित सल्तनत ने हिन्दूओं की अपनी व्यवस्था सम्बन्धी नियम और जटिल बनाने के लिए बाध्य कर दिया।
हिन्दू समाज -
जब हम सल्तनत कालीन समाज की बात करते है तो हमें यह ध्यान रखना होगा कि हम हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों की बात कर रहे है। ऐतिहासिक दृष्टि से सल्तनत काल में हिन्दू समाज तीन वर्गों में विभक्त था-
1. शासक वर्ग एवं पुरोहित
2. हिन्दू कर्मचारी, व्यापारी और शिल्पकार
3. निम्न वर्ग जिसमें कृषक और निम्न श्रेणी के लोग शामिल थे।
हिन्दू समाज में ब्राह्मण वर्ग को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। मुस्लिम शासन की स्थापना के साथ ही हिन्दु मुस्लिम समाज में अन्तर्विरोध की स्थिति पैदा हो गयी थी। अतः समाज के श्रेष्ठ पायदान पर खडे ब्राह्मण वर्ग ने जाति बंधन और संकीर्णता को और जटिल बना दिया। अन्धविश्वास और छूआछूत का बोलबाला और बढ़ गया। मांस, मदिरा सेवन और अन्तर्जातीय सम्बन्धों पर कठोर प्रतिबन्ध लग गये। अफ्रीकी यात्री इब्नबतूता लिखता है कि - ‘‘यद्यपि हिन्दू जाति नियमों को कठोरता से पालन करती थी किन्तु अतिथि सत्कार की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी थी। सुशिक्षित हिन्दू एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे जबकि बहुसंख्यक निरक्षर जनता मूर्तिपूजा करती थी।‘‘
मुस्लिम शासन की स्थापना से पूर्व भारत की अधिकांश जनता हिन्दू थी और हर जगह उनका प्रभुत्व और स्वामित्व था। अधिकांश हिन्दू जनता कृषि पर आश्रित थी। मुस्लिम शासन के लगभग 600 वर्षों के शासनकाल में विजय और दमन की प्रक्रिया के अन्तर्गत असंख्य हिन्दुओं का वध भी हुआ और लाखों स्त्रियॉं और बच्चे मुसलमान बनाकर दास के रूप में बेंच दिये गये। हिन्दूओं को सैनिक और असैनिक नौकरियों से वंचित कर दिया गया। जैसे-जैसे हिन्दुओं के हाथों से राजैनीतिक शक्ति निकलती गई वैसे-वैसे हिन्दुओं का नैतिक पतन भी बढता गया। उन्हे शासन के महत्वपूर्ण पदों से ही वंचित नहीं किया गया वरन् उनके साथ घृणापूर्ण व्यवहार भी किया गया। अपनी नारी जाति की सम्मान की रक्षा के लिए हिन्दुओं ने बाल-विवाह तथा जौहर प्रथा जैसी कुप्रथा को अपना लिया। उन्हे किसी प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता नही थी। इस काल में बडी संख्या में मंदिरें और मूर्तियों को विनष्ट करने का प्रयास हुआ और उनके धार्मिक अनुष्ठानों पर तरह-तरह के प्रतिबन्ध लगाये गये। डा0 ईश्वरी प्रसाद अपनी पुस्तक ‘मध्ययुग का इतिहास‘ में लिखते है कि - मुस्लिम शासक हिन्दुओं को अपना सबसे बडा शत्रु मानते थे। कुछ अपवादों को छोड कर उन्हे राज्य में कोई उच्च पद कभी नहीं दिया गया और जजिया स्वीकार करने पर ही हिन्दुओं को जीवित रहने का अधिकार दिया गया था।‘‘
प्राचीन काल में हिन्दू समाज वर्ण व्यवस्था और वर्णाश्रम व्यवस्था पर टिका हुआ था। हिन्दुओं के समाज का प्रमुख आधार जाति प्रथा था। इस काल में मुसलमानों को जिस प्रकार तुर्की रक्त को जाति के आधार पर श्रेष्ठ समझा जाता था उसी प्रकार की जाति व्यवस्था हिन्दुओं में भी संकीर्ण होती गई। वंश परम्परा के अनुसार हिन्दुओं का व्यवसाय स्थिर होने लगा। खान-पान, धार्मिक विश्वास, भौगोलिक स्थिति, विवाह, संस्कार आदि में विभिन्नता के कारण एक वर्ग के भीतर ही अनेक वर्ग बनने लगे। वर्ण संकरों की नई जातियॉ बनी। पहले गोत्र का महत्व अधिक था, किन्तु अब गोत्र का उल्लेख बन्द हो गया और लोगों का परिचय उपाधियों के द्वारा दिया जाने लगा। इस्लाम धर्म अपनाने वाले हिन्दुओं को पुनः हिन्दू समाज और धर्म में वापस लिये जाने की कोई व्यवस्था नही थी। यद्यपि जातियों की जटिलता इस काल में बढी पर ब्राह्मणों की श्रेष्ठता बरकरार रही। छूआछूत की भावना पहले से और प्रबल हो गयी और अछूतों की स्थिति में और भी गिरावट आई।
मुस्लिम समाज -
मुसलमान शासक वर्ग के लोग थे। मध्ययुग के प्रारम्भ में बाहर से आए हुए मुसलमानों की संख्या कम थी, धर्म परिवर्तित भारतीय मुसलमान भी कम ही थे, परन्तु तुर्की साम्राज्य के प्रसार के साथ-साथ इस्लाम का प्रचार उत्तरोत्तर बढ़ता गया और धर्म परिवर्तित मुसलमानों की संख्या में काफी वृद्धि होने लगी। किन्तु भारतीय मुसलमानों का वर्ग अलग था और उन्हें विजेताओं के सामन्ती गुट में शामिल नहीं किया जाता था और न ही उन्हें सामाजिक और आर्थिक विशेषाधिकार ही दिये जाते थे। साधारणतया विदेशी मुसलमान भारतीय मुसलमानों के साथ अछूतों-सा व्यवहार करते थे तथा उनका तिरस्कार किया करते थे। उनकी आर्थिक दशा भी संतोषजनक नहीं थी।
समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी मुस्लिम समाज को उच्च और निम्न वर्ग में विभाजित करता है। बरनी के अनुसार केवल उच्च वर्ग के लोग ही मुख्य सेनानायक, उच्चपद और प्रमुख प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति के अधिकारी है। बरनी ने अपनी पुस्तक ‘फतवा-ए-जहॉदारी‘ में व्यवसाय के आधार पर भी मुस्लिम समाज में अनेक वर्ग एवं श्रेणिॉं बताई है। इस प्रकार 15वीं शताब्दी के अन्त तक मुख्यतः सम्पत्ति, व्यवसाय, शिक्षा, आय, वंश आदि के आधार पर अनेक वर्ग और उपवर्ग मुस्लिम समाज में बन चुके थे। धर्म के आधार पर मुस्लिम समाज शिया और सुन्नी में विभक्त था और इनमेंं धार्मिक मतभेदों को लेकर काफी मनमुटाव रहता था। मध्य एशिया के सुन्नियों की संख्या उत्तरी भारत में काफी थी जबकि ईरानी शिया मुसलमान अल्पमत थे। दक्षिण के मुस्लिम राजवंशों की स्थापना शियाओं द्वारा की गई थी। इन दोनों का आपसी विरोध पूरे मध्ययुग में चलता रहा।
अमीर वर्ग के लोग : विदेशी मुसलमानों का दो वर्ग था- एक तलवार पकड़ने वाला और दूसरा कलम। पहले वर्ग के लोग अधिकतर विदेशी सैनिक थे। ये तुर्की, ईरान, अरब, अफगानिस्तान, मिस्र आदि के मूल बासिन्दे थे। इन विदेशी मुसलमानों की स्थिति अत्यन्त सम्मानजनक और प्रभावपूर्ण थी। भारतीय मुसलमानों के साथ के शासन सत्ता के लिए इनका सदैव तीव्र संघर्ष चलता रहा। मुहम्मद तुगलक के शासनकाल से भारतीय मुसलमानों का प्रभुत्व बढ़ने लगा। इस वर्ग के लोग खाँ, मलिक, अमीर, सिपहसालार और ’सरे खैल’ आदि श्रेणियों में विभक्त थे। खाँ का स्थान सबसे ऊपर होता था और उनके नीचे क्रम से सभी श्रेणियां आती थीं। इस प्रकार इनके वर्गीकरण का आधार सामन्ती व्यवस्था थी। किन्तु, ये सब केवल सैद्धान्तिक व्यवस्था थी। जल्द ही इसका महत्त्व समाप्त हो गया। किन्तु निश्चित है कि प्रशासन और सेना में इसी वर्ग का बोलबाला था। ये काफी सम्पन्न और प्रभावशाली वर्ग के लोग थे।
उलेमा वर्ग : कलम से जीविका अर्जित करने वाले वर्ग के लोग अधिकांशतः गैर-तुर्की विदेशी या उनके वंशज थे। इस वर्ग में सबसे महत्वपूर्ण दल उन मौलवियों और धर्मशास्त्रियों का था जिन्हें उलेमा कहा जाता था। मुस्लिम समाज, राजनीति, प्रशासन और धर्म पर इस वर्ग का काफी प्रभाव था। ये इस्लाम धर्म और कानूनों के ज्ञाता थे। अतः, धर्म विभाग पर तो उनका हक था ही, साथ-ही-साथ न्याय विभाग में भी इन्हें उच्च पदों पर प्रतिष्ठित किया जाता था। सुल्तान प्रशासन में इनका परामर्श लिया करते थे। सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी और मुहम्मद तुगलक को छोड़कर किसी भी सुल्तान ने इनके विरुद्ध जाने की हिमाकत नहीं की। जनसाधारण में तो वे अत्यन्त ही प्रभावशाली थे। उलेमा अवसरवादी तथा महत्वाकांक्षी होते थे और वे सुल्तान की निन्दा तथा आलोचना करने से भी बाज नहीं आते थे।
व्यवसायिक वर्ग --
सल्तनतकाल में साधारणतः व्यवसायिक वर्ग के लोग भी होते थे। इनकी कोई विशेष जाति नहीं होती थी। ये विभिन्न कार्य करते थे जैसे जूता बनाना, टोकरी बनाना इत्यादि। मछुवारे, नाविक, शिकारी, और जुलाहे भी इसी वर्ग में आते थे। इसके अतिरिक्त समाज में श्रमिक तथा शिल्पकारों का भी एक वर्ग था जिसमें धोबी, सुनार, लुहार, रंगरेज, जुलाहे, आदि शामिल थे। अलबरुनी के अनुसार समाज में अंत्यज वर्ग के लोग भी थे। उनकी गणना किसी भी जाति में नहीं होती थी बल्कि उन्हें किसी विशेष शिल्प या व्यवसाय का सदस्य माना जाता था। इनकी आठ श्रेणियाँ हैं और उनमें धोबी, चमार और जुलाहों को छोड़कर जिनके साथ कोई भी किसी प्रकार का नाता नहीं रखना चाहता था, उनमें आपस में शादी ब्याह भी खूब होते है। ये आठ शिल्पी हैं- धोबी, चमार, बाजीगर, टोकरीसाज और सिपरसाज, नाविक, मछुआरा, बहेलिया और जुलाहा भक्त साधिकाओं ने अपनी रचनाओं में बहुत से व्यवसायिक वर्गो का उल्लेख किया है। इनमें प्रमुख व्यवसायिक वर्ग हैं- सुनार (स्वर्णकार), कुम्हार, जुलाहा, रंगरेज, धुनिया, नाई धोबी, नाविक, रसोइया, चरवाहा, गन्धी इत्यादि।
सुनार आभूषण बनाने का कार्य करते थे। ये विभिन्न प्रकार के आभूषण बनाते थे। धोबी समाज में कपड़े धोने का काम करते थे। समाज में ढ़ादिन नाचने गाने का कार्य करती थी। जब किसी घर में पुत्र का जन्म होता था तब वह वहां पर बधाई देने जाती थी और गाती तथा नाचती थी। इस पर उस परिवार के व्यक्ति उसे भेंटस्वरूप आभूषण प्रदान करते थे। नाई भी समाज का एक प्रमुख वर्ग था। वैवाहिक उत्सवों में इनकी प्रमुख भूमिका होती थी। दूल्हा या दुल्हन को तेल चढ़ाने और उतारने का काम नाइन ही करती थी। इसके अलावा वह दुल्हन को उबटन भी लगाती थी। इसके अतिरिक्त गंधी भी एक ऐसा ही सामाजिक वर्ग था। वैवाहिक उत्सव के समय वे दुल्हा या दुल्हन के लिए सुगन्धित पदार्थ लेकर आते थे तथा उनकी नज़र उतारते थे। कुम्हार समाज में मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य करते थे। धुनिये कपास को धुनने का और जुलाहे कताई-बुनाई का काम करते थे। रंगरेज कपड़ा रंगने का कार्य करते थे तथा नट रस्सी पर चलकर तमाशा करके जनता का मनोरंजन करते थे और अपना जीविकोर्पाजन करते थे। समाज में भांड, गैवये और गणिका (वेश्या) नृत्य और गायन करके जनता का मनोरंजन करते थे। जनता इनके नृत्य गायन को बड़ी उत्सुकता से देखती थी। रसोइया घर में खाना बनाने का कार्य करता था। नाविक नाव चलाकर लोगों से तरावा लेता था और अपनी जीविका कमाता था तथा चरवाहा भेड़ चराने का काम करता था। अहीर भी एक प्रमुख जाति थी, जो दूध, दही, मक्खन का व्यापार करते थे। इस जाति में स्त्रियाँ (ग्वालिन) भी दूध, दही, मक्खन बेचने का कार्य करती थी
मध्यकालीन कुछ लेखकों ने जाट जाति का भी उल्लेख अपने पदों में किया है। कर्नल टॉड ने बताया है कि इस जाति के पास भूमि बहुत अधिक होती थी परन्तु फिर भी वे अधिक धनवान नहीं थे। इस जाति की मुख्य विशेषता अतिथि सत्कार थी। बनिये व्यापार तथा पैसे के लेन-देन का कार्य करते थे। इनके अतिरिक्त एक वर्ग वैद्य (चिकित्सक) और ज्योतिषियों का भी था। वैद्य बीमारी के समय लोगों को दवाई देने का काम करते थे और ज्योतिषी भविष्यवक्ता थे।
मुस्लिम समाज में सबसे नीचे कारीगर, दुकानदार, और मुंशी होते थे। कलन्दर और फकीरों का स्थान और भी नीचा था। मुस्लिम समाज में सूफियों का एक अलग वर्ग था जो शहर के बाहर रहते थे। मुस्लिम समाज में सूफियों का काफी आदर था और वे काफी प्रभाव रखते थे।
मुसलमानों की सामान्य स्थिति : मुसलमान मुख्य रूप से शहरी जीवन ही पसन्द करते थे। भारत के गांवों में जाकर रहना उनके वश की बात नहीं थी। कुछ मुसलमान प्रशासनिक तथा सैनिक कार्यों के अतिरिक्त शहरों में व्यापार-व्यवसाय भी किया करते थे। कुछ विद्यालयों में शिक्षक का काम भी करते थे। भारतीय मुसलमान गांवों में कृषि कार्य तथा शहरों में दस्तकारी तथा अन्य छोटे-मोटे धन्धे किया करते थे। इन्होंने तरह-तरह का जैसे कसाई, मशालची, जुलाहे, धोबी, नाई, लुहार, दर्जी, बढ़ई आदि का पेशा अपना लिया था।
मुसलमान शासक वर्ग के लोग थे, अतः हिन्दुओं की अपेक्षा उनकी स्थिति काफी अच्छी थी। अमीर, सरदार और मालिकों का जीवन अधिक सम्पन्न था और प्रभुत्व के चलते धीरे-धीरे ये काफी विलासी हो गये थे। इसके चलते उनमें अनेक दुर्गुण आ गए थे। उनमें कर्त्तव्यनिष्ठा, वीरता, परिश्रमशीलता आदि सद्गुण लुप्त हो गए थे और अब वे सुरा, सुन्दरी, जुआ, रास-रंग तथा आमोद-प्रमोद के शौकीन हो गए थे। वे अनैतिकता के गर्त में जा गिरे थे। उलेमा वर्ग के चरित्र में भी काफी परिवर्तन हुआ था और उनमें भी अमीर सरदारों के समान दुर्गुण आ गए थे। किन्तु सामान्य मुसलमानों का जीवन अपने हिन्दू भाइयों से बहुत अच्छा नहीं था। उन्हें जीविकोपार्जन के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ता था। फिर भी शासक वर्ग की कृपा उन पर हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक रहती थी, अतः वे संतुष्ट रहते थे।
दास वर्ग : यूॅं तो प्राचीन काल से ही भारत में दासों का प्रचलन था। कौटिल्य के अनुसार पॉच, मनुस्मृति के अनुसार सात और हिन्दुओं के अन्य धार्मिक ग्रन्थों में पन्द्रह प्रकार के दासों का वर्णन हम पाते हैं जिनमें निम्मनलिखित मुख्य था - क्रीत-दास (खरीदा हुआ), लब्ध-दास (दान-भेंट में प्राप्त), युद्ध प्राप्त-दास (युद्ध में बन्दी बनाकर लाए गए), आत्म विक्रेता- दास (जो स्वयं अपने आपको बेच दे), ऋण-दास (कर्जा न चुकाने वाले), गृहजात- दास (घर की दासी से उत्पन्न), अनाकाल-दास (अकाल के समय मृत्यु से बचाया हुआ), प्रव्रज्यावासित-दास आदि। 12वीं शताब्दी के अन्त में मुस्लिम आक्रमणों के दौरान युद्ध में बडे पैमाने पर दास-दासियॉ बनाने की प्रथा शुरू हुई। इस काल में विजयों द्वारा, धर्म परिवर्तन द्वारा और सूफी सन्तों द्वारा दास बनाने की प्रथा थी। पूरे मध्यकाल में भी भारत में दास प्रथा का काफी प्रचलन बना रहा। मुस्लिम शासन की स्थापना से ही विदेेेेेेेेशी दास व्यापारी भी भारत आने लगे थे। हिन्दू एवं मुसलमान दोनों दास रखते थे। मुसलमानों में उपरोक्त वर्णित प्रथम चार प्रकार के दास ही होते थे। दास स्त्री तथा पुरुष, दोनों होते थे। उनसे मुख्यतः शारीरिक काम लिया जाता था, जैसे घर का काम-काज करना, खेती-बारी करना, सामान आदि लाना-ले-जाना, व्यापार में सहायता करना आदि। सुन्दर दासियों को शारीरिक उपभोग के लिए भी रखा जाता था। मुहम्मद तुगलक के वजीर खान-ए-जहॉं मकबूल की 2000 रखैले यानि दासियॉं थी जो रूस और चीन से खरीद कर लाई गयी थी। हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों के बीच यह प्रथा और भी अधिक लोकप्रिय थी।
सल्तनत काल में दास-दासियों की बाजार लगती थी और जानवरों के समान उनकी क्रय-विक्रय होती थी। अलाउद्दील खिलजी के शासनकाल में तो दास-दासियों को तीन श्रेणियों में विभक्त कर उनका मूल्य तक निर्धारित कर दिया गया था और उनका बाजार लगता था। दासों का आयात अन्य देशों, जैसे-तुर्किस्तान, अफ्रीका आदि से भारत में होता था। भारतीय दासों में असम के दासों का महत्व उनकी शारीरिक शक्ति के कारण अधिक था। अतः इनका मूल्य अपेक्षाकृत अधिक होता था। एक प्रकार के विशिष्ट दासों की नियुक्ति शाही हरम में होती थी। बाल्यावस्था में ही लाकर इनका लालन-पालन किया जाता था। ये हिजड़े होते थे। तेरहवीं शताब्दी में बंगाल तथा मलाया से हिजड़ों का व्यापार होता था। जिन स्त्री दासों को सहवास के लिए रखा जाता था उनकी स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी होती थी। कभी-कभी तो गृहस्वामिनी से भी उनका अधिक सम्मान किया जाता था। सहवास के लिए सुन्दर दासियॉ चीन और तुर्किस्तान से भी मॅगाई जाती थीं। दास सामान्यतः सुल्तान, अमीर, सरदार, वरिष्ठ अधिकारीगण, हिन्दू राजा, सामन्त तथा राजपूतों आदि के द्वारा बड़ी संख्या में रखे जाते थे।
शाही- दास : इस काल के सुल्तान बड़ी संख्या में दास रखते थे। इनकी स्थिति काफी अच्छी होती थी और इन्हें ’बन्दगान-ए-खास’ कहा जाता था। ये दास शिक्षा और सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त करके कभी-कभी काफी ऊंचे पदों को प्राप्त कर लेते थे। मुहम्मद गोरी के एक दास कुतुबुद्दीन ऐबक ने तो भारत में प्रथम मुस्लिम राजवंश की ही स्थापना कर ली। यह वंश इस कारण ही दास वंश के नाम से जाना जाता है। इल्तुतमिश और बलवन जैसे योग्य सुल्तान भी अपने जीवन के प्रारम्भ में दास ही थे। शाही दासों की संख्या अलाउद्दीन के समय पचास हजार और बाद में तो फिरोज शाह के शासन-काल में इनकी संख्या डेढ लाख तक पहुंच गई थी। इन दासों को अनेक पेशों में लगाया जाता था। इनकी देख-रेख के लिए फिरोज ने एक अलग विभाग ‘दीवान-ए-बन्दगान‘ की स्थापना कर दी थी।
हिन्दुओं की अपेक्षा मुस्लिम समाज में दासों की स्थिति अच्छी थी। मुस्लिम समाज में यदि घर की दासी से गृहस्वामी द्वारा उत्पन्न सन्तान हो तो दोनों ही दासता से मुक्त हो जाते थे। दासी को पत्नी तथा उसकी सन्तान को पुत्र अथवा पुत्री का पद प्राप्त हो जाता था। दोनों समाज में सभी दासों के साथ अच्छे व्यवहार किये जाते थे। फिर भी दासों को स्वामी की आज्ञा माननी पड़ती थी और उसे कहीं आने-जाने की स्वतन्त्रता नहीं थी। दास की के मृत्यु पश्चात् उसके द्वारा अर्जित सम्पत्ति का उत्तराधिकारी उसका स्वामी होता था। दोनों ही समाज में कुछ विशेष स्थिति में दासों को स्वतन्त्र कर देने का नियम था, परन्तु ये नियम सामान्य नहीं थे। स्वन्तत्रता देते समय हिन्दू स्वामी दास के सिर पर से पानी का घड़ा उतारकर फोड़ देता और उसके पश्चात् चावल फेंकते हुए तीन बार कहता- ’अब तू दास नहीं है।’ मुसलमानों में लिखित स्वतंत्रता-पत्र देने की परिपाटी थी।
भोजन और पेय पदार्थ -
भोजन के द्वारा शरीर की पुष्टि के साथ-साथ मन और मस्तिष्क का भी संवर्धन होता है। भारतीय संस्कृति में
भोजन का महत्त्व वैदिक युग से चला आ रहा है। भोजन के गुण-अवगुण के अनुसार ही लोगों के आचार-विचार एवं क्रिया-कलापों का निर्धारण होता है। परिणाम स्वरूप खानपान का प्रभाव अपने समय की संस्कृति पर पड़े बिना नहीं रहता। साधारणतः हिन्दू और मुसलमान दोनों का भोजन एक प्रकार का ही था। किन्तु सामिष भोजन जो मुसलमानों का प्रिय था, भावनात्मक आधार पर मध्य और दक्षिण भारत के हिन्दुओं के द्वारा घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। विदेशी यात्रियों का यह कथन है कि- “हिन्दू मांसाहार की कम जानकारी रखते हैं तथा वे वैसा भोजन नहीं करते हैं जिसमें रक्त हो।“ यह बात जैन, बौद्ध, ब्राह्मण, वैश्य तथा तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात और मध्य भारत की कुछ अन्य जातियों पर ही लागू होता है। पंजाब, बंगाल और कश्मीर में तो ब्राह्मण भी मांसाहारी थे। फिर भी आदत और आर्थिक परिस्थितियों के कारण हिन्दुओं का बड़ा समुदाय निरामिष भोजन अर्थात शाकाहारी भोजन ही करता था। साधारणतः हिन्दू शाकाहारी होने के कारण दही, मक्खन, तेल और दूध का उपयोग करते थे। घी तथा पनीर का प्रयोग अच्छी आर्थिक स्थिति वाले ही करते थे।
शाही परिवार के सदस्यों के लिए विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाए जाते थे तथा इसके लिए एक अलग विभाग होता था जो शाही सदस्यों की पसंद का ध्यान रखता था। सुल्तान, अमीर, मलिक, सरदार, राजे, सामन्त तथा अन्य सम्पन्न वर्ग के लोग काफी सुरुचिपूर्ण भोजन किया करते थे। उनके भोजन में अन्न, मांस-मछली, घी, दूध, दही के अलावे देश-विदेश से मंगाये गए मेवे, फल, मिठाइयों आदि की प्रधानता रहती थी। ’रोगनी’ नामक चपाती, पूरी, लुची, बिरंज, पुलाव, कीमा, काबुली, दुर्जदावरयान आदि आटा तथा चावल से निर्मित महंगे एवं स्वादिष्ट पदार्थ थे। मीठे पदार्थों में हलुआ तथा मिष्ठान अधिक प्रसिद्ध थे। दिल्ली, लाहौर, आगरा जैसे बड़े शहरों में मिठाइयों की अनगिनत दुकानें थीं। बलवन के समय में, भोजन के अन्तर्गत मनपसन्द भोज्य पदार्थों से पूर्ण कम-से-कम पचास थालियॉ परोसी जाती थीं।
मुहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन खिलजी के भोजन में शामिल किए गए सामिष व्यंजनों के अनेक किस्मों का वर्णन किया है। उच्च वर्ग के लोग भोजन में गेहूं का आटा, चावल तथा सब्जियों का प्रयोग करते थे जो पूर्वी बिहार, बंगाल, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में विशेष लोकप्रिय थी। मुसलमानों को मांस तथा उनसे बने व्यंजन अधिक प्रिय थे। ‘दूजा ब्रियानी’ और ’कीमा पुलाव’ प्रिय आहार थे। मिष्ठान्नों में ‘हलुवा’ तथा ’फलूदा’ का प्रचलन था। 16वीं सदी के बंगाली कवि मुकुंद राम द्वारा वर्णित शानदार दावत तथा स्वादिष्ट निरामिष व्यंजन से प्रमाणित होता है कि उच्च वर्ग के हिन्दुओं के बीच भी यह सब काफी लोकप्रिय रहा होगा। मिठाइयों में लड्डू पेड़ा, जलेबी, मालपुआ (गेहूँ के आटे अथवा मैदे में गुड़, शक्कर या मिश्री डालकर घी में बनाए गए पकवान को मालपुआ कहते हैं) तथा घेवर बड़े चाव से खाये जाते थे। उस समय में भी मथुरा के पेड़े बहुत प्रसिद्ध थे। इसके अलावा लोग पूरी कचौरी भी चाव से खाते थे। मीठे व्यंजनों में लापसी, मगद और खीर का प्रयोग होता था। लापसी तो अच्छे शकुन की प्रतीक रही है जो बारात आने पर और त्यौहार के दिन बनायी जाती थी। भोजन के उपरान्त पान खाया जाता था। मनूची लिखता है कि राजस्थान में समृद्ध लोग पान चबाते हैं जिनमें चूना, सुपारी के अतिरिक्त सुगन्धित द्रव्य भी मिलाते है।
जन साधारण की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण ये उच्च वर्ग के व्यक्तियों की भाँति उत्तम कोटि का भोजन नहीं कर पाते थे। ये लोग रोटी (जो गेंहू या जौ के आटे से बनायी जाती थी) तथा दाल और चावल खाते थे। जन साधारण वर्ग के लोग प्रातः काल भुने एवं पिसे हुए बाजरे में शक्कर और पानी मिलाकर खाया करते थे। साधारण वर्ग के लोग दूध, दही, छाछ, दाल और रोटी का प्रयोग खाने में करते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों धर्म के सामान्य लोग उत्तम भोज्य पदार्थों पर अधिक व्यय करने की स्थिति में नहीं थे, अतः वे साधारण भोजन से ही संतोष कर लेते थे। इस वर्ग का प्रमुख भोजन ’खिचड़ी’ था, जिसका वर्णन सभी विदेशी यात्रियों ने किया है। दक्षिण में लोगों का मुख्य भोजन चावल था। गुजराती दही और चावल पर अपना निर्वाह करते थे। चावल और खिचड़ी को दही एवं अचार के साथ खाया जाता था। लोग तरह-तरह की सब्जियों का प्रयोग भी करते थे। उत्तर भारत में लोग गेहूं, ज्वार या बाजरे की बनी चपातियों का काफी प्रयोग करते थे। पान का काफी प्रचलन था। अमीर वर्ग के लोग पान में सुगन्धित मशालों का प्रयोग करते थे। मध्यम वर्ग के लोग प्रतिदिन तीन बार और गरीब वर्ग के लोग दो बार भोजन किया करते थे। जलपान में चने तथा भूने अनाज का प्रयोग किया जाता था।
रसोई घर और भोजन की विधियांः हिन्दू अपने रसोईघर की स्वच्छता पर विशेष ध्यान देते थे और उनके बर्तन साफ-सुथरे होते थे। चौकों को गोबर से लीपा जाता था तथा जूते पहन कर कोई भी रसोई में नहीं जा सकता था। खान-पान में छुआछूत की प्रबल भावना थी। भोजन बनाने का कार्य केवल ब्राह्मण ही करते थे। हिन्दुओं की रसोई घर में प्रयोग में लाए जाने वाले बर्तन पीतल अथवा काँसे के होते थे, मुसलमानों के बर्तन अधिकतर ताम्बे या मिट्टी के होते थे। सुल्तान और सम्पन्न वर्ग के लोग सोने-चांदी से बने बर्तनों का भी इस्तेमाल करते थे। साधारण जनता पत्तलों में ही भोजन करती थी। सामान्यतया पत्नियॉ अपने पति के साथ बैठकर भोजन नहीं करती थीं। वे पति के भोजन कर लेने के बाद ही भोजन ग्रहण किया करती थीं। मुसलमानों की रसोई और खाने के ढंग बहुत सरल थे। उनमें हिन्दुओं जैसी स्वच्छता नहीं थी। जमीन पर दस्तरखान बिछा कर उस पर खाना परोसा जाता था और परिवार के सभी सदस्य एक साथ बैठकर भोजन किया करते थे।
पेय-पदार्थ -
जल के अतिरिक्त लोगों के मुख्य पेय थे - दूध, विभिन्न फलों के रस, गुलाबजल तथा नींबू के शर्बत आदि। पेय में बर्फ का प्रयोग अमीरों तक ही सीमित था। उन दिनों चाय और कहवा का प्रयोग पेय के रूप में नहीं बल्कि नशे की तरह किया जाता था जिसका उपयोग विशेषकर कारोमंडल तटीय क्षेत्र में किया जाता था।
मध्यकाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों समान रूप से मादक द्रव्यों का प्रयोग किया करते थे। यद्यपि कुरान में मद्य-निषेद्य किया गया है, किन्तु भारतीय मुसलमानों में इसका समान रूप से प्रचलन था। मुसलमानों में स्त्रियां, शिक्षक, उलेमा वर्ग के लोग भी गुप्त रूप से नशीली वस्तुओं का प्रयोग करते थे। हिन्दुओं में भी ब्राह्मण तथा कुछ अन्य ऊंचे वर्गों को छोड़कर अन्य सभी मादक वस्तुओं का प्रयोग करते थे। स्त्रियां और बच्चे शायद ही इनका प्रयोग करते थे। शराब को छोड़कर अफीम, भांग, तम्बाकू, आदि का भी प्रयोग किया जाता था। कभी-कभी पान, चाय और कहवा को भी इस श्रेणी में रखा जाता था। जन-साधारण मादक वस्तुओं के सेवन को सामान्यतः बुरा मानता था। देशी मद्य की मशहूर किस्मों में ताड़ी, नीरा, महुआ, खेरा, बधवार और जागरा विशेष रूप से उल्लेखनीय थे। कुछ उत्तम किस्म के शराब विदेशों से विशेषकर पुर्तगाल और फारस से मंगाई जाती थी। अलाउद्दीन खिलजी के अतिरिक्त दिल्ली सल्तनत के अन्य किसी सुल्तान ने मद्यपान का विरोध नहीं किया।
सल्तनतकालीन शिक्षा प्रणाली -
सल्तनत काल में, सुल्तान, शिक्षाविदों, धार्मिक नेताओं, चिन्तकों एवं सूफी सन्तों द्वारा शिक्षा के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया। वास्तव में, इस्लाम धर्म इल्म या ज्ञान प्राप्त करने और उसके प्रसार पर अधिक बल देता है। उसके अनुसार - केवल कुरान, हदीस एवं अन्य विषयों का अध्ययन करके ही ’सत्य’ की खोज की जा सकती है। अतः इस काल में शिक्षा का मुख्य आधार धर्म था। इसीलिए, मस्जिदों में मकतब, मदरसे तथा सूफी सन्तों के खानकाह और दायरे में ही शिक्षा प्रदान की जाती थी। यद्यपि इन शिक्षा केन्द्रों में धर्मशास्त्र एवं कानून पर ही विशेष बल दिया जाता था किन्तु शिक्षा का दायरा बहुत ही व्यापक था। विद्यार्थियों को खगोलशास्त्र, भूगोल, इतिहास, गणित, दर्शन, ज्योतिषशास्त्र एवं अलंकार-शास्त्र आदि विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी।
मुस्लिम समाज में जब शिशु चार वर्ष, चार माह एवं चार दिन की आयु पूरा करता था, तब बड़ी धूमधाम से उसका ’बिस्मिल्लाह खानी संस्कार’ सम्पन्न कराया जाता था। अर्थात् शिशु की शिक्षा, शुभ मुहूर्त में, वर्ण माला का पहला अक्षर ’अलिफ’ लिखवाकर, प्रारम्भ की जाती थी। मूलतः प्रारम्भिक शिक्षा वर्णमाला का ज्ञान, कुरान का पाठ, सुलेख, व्याकरण तथा इस्लाम के ज्ञान तक सीमित रहती थी। इसके पश्चात् उसे साहित्य, इतिहास एवं नीतिशास्त्र आदि विषयों की शिक्षा दी जाती थी। इतनी शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों को ’मुन्शी’ का प्रमाण-पत्र मिलता था। किन्तु जो इसके आगे भी अध्ययन जारी रखते थे, उन्हें मौलवी, मौलाना या फाजिल की उपाधि दी जाती थी। अरबी की शिक्षा प्राप्त करने वालों को कुरान, पैगम्बर साहब की जीवनी पर ग्रन्थ कुरान की टीकाओं एवं दर्शन का अध्ययन करना पड़ता था।
ग्यारहवीं सदी तक प्रायः सभी मुस्लिम देशों में अपनी रुचि, आवश्यकताओं एवं इस्लाम के आदशों के अनुरूप शिक्षा प्रणाली का विकास हो चुका था। भारत में शिक्षा संस्थाओं के रूप में मकतब एवं मदरसे तथा सूफी सन्तों की खानकाहें थी। मकतब प्रत्येक मोहल्ले में अध्यापक अथवा किसी अमीर के घर में हुआ करते थे। ये निजी शिक्षा केन्द्र थे, जिन्हें किसी प्रकार की राजकीय सहायता नहीं दी जाती थी। जबकि मदरसे उच्च शिक्षा के केन्द्र माने जाते थे जो मुख्य-मुख्य नगरों में हुआ करते थे और इन्हें राजकीय सहायता मिला करती थी। मदरसों की स्थापना प्रारम्भ में लाहौर, बदायूँ एवं अजमेर में हुई। दिल्ली सुल्तान अपने दरबार में विद्वानों, कवियों एवं सन्तों को आदर-सम्मान सहित रखते थे। उनसे शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर-दूर के देशों से छात्र भारत आया करते थे। सन्तों की खानकाहें भी शिक्षा के केन्द्र के रूप में विकसित होने लगीं और कालान्तर में उन्हें राजकीय अनुदान मिला करता था।
13वीं शताब्दी में, मंगोल आक्रमणों से भयभीत होकर बहुत से दार्शनिक, सन्त, साहित्यकार, न्यायविद एवं कवि आदि फारस तथा मध्य एशिया से स्थानान्तरित होकर दिल्ली पहुँचे। सुल्तानों के संरक्षण द्वारा इन्होंने दिल्ली, अजमेर, लखनौती व बदायूँ आदि स्थानों में कई मकतब, मदरसे एवं खानकाहें स्थापित की। इन्हें राज्य की ओर से भूमि एवं धन प्रदान किया गया। सुल्तान बलबन ने भी विद्वानों का आदर दिया। वह इन विद्वानों से प्रति- दिन मिलता था और वाद-विवाद करता था। अमीर खुसरो, अमीर हसन एवं सन्त शेख उस्मान मुल्तान तथा प्रसिद्ध कवि शेख सादी उसके दरबार की शोभा थे।
खिलजी सुल्तान भी विद्वानों का सम्मान करते थे। सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने अमीर खुसरो को एक हजार दो सौ टंका वेतन पर दरबार में रखा और शाही पुस्तकालय की देख-रेख हेतु नियुक्त किया। अलाउद्दीन खिलजी ने शमशुलमुल्क नामक एक विद्वान को अपना वजीर नियुक्त किया जो निजामुद्दीन औलिया के गुरू थे। जिवाउद्दीन बर्नी के राज्य में इतने बड़े-बड़े विद्वान थे कि उस समय समरकन्द, बुखारा, मिस्र, वारिज्म, तबरेज आदि में भी इतने बड़े विद्वान न थे। बरनी के अनुसार बलबन के काल में ज्योतिषशास्त्र विकसित हुआ और अलाउद्दीन खिलजी के काल में शिक्षा व साहित्य की प्रगति हुई।
सुल्तान मुहम्मद तुगलक स्वयं एक विद्वान था। उसने दिल्ली में एक बड़े मदरसे एवं मस्जिद का निर्माण कराया जहाँ उच्च शिक्षा की बेहतरीन व्यवस्था की गई। फिरोज तुगलक ने गद्दी पर बैठते ही शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया। उसने शेखों, सैय्यदों, आमिलों एवं सूफियों को भूमि तथा अनुदान प्रदान किये, विद्यार्थियों को वजीफे दिये, लाखों अन्य लोगों को वजीफे दिये व प्राचीन पाठशालाओं एवं मदरसों को पुनः नया जीवन दिया। अध्यापकों एवं विद्वानों को सुल्तान ने अच्छे वस्त्र पहनने एवं घुड़सवारी की अनुमति दी।
सल्तनत काल की उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में इतिहास एवं चिकित्सा शास्त्र को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। विदेशों से विद्यार्थी चिकित्सा शास्त्र के अध्ययन हेतु भारत आते थे। सुल्तान सिकन्दर लोदी को चिकित्सा शास्त्र में इतनी रुचि थी कि उसने संस्कृत के ग्रन्थों के आधार पर ’तिब्ब-ए-सिकन्दरी’ नामक ग्रन्थ की रचना 1515 ई0 में अपने वजीर मियाँ युवा से करवायी।
शिक्षक एवं छात्र एक-दूसरे का पूरा ध्यान रखते थे। मदरसों में परीक्षा लेने का ढंग सरल था। वाद-विवाद द्वारा छात्र ज्ञान एवं बुद्धि की परख की जाती थी। विद्यार्थियों को मुफ्त शिक्षा प्रदान की जाती थी। शिक्षा के प्रश्रयदाता, सम्पन्न व्यक्ति, अमीर एवं सुल्तान मदरसों में शिक्षक एवं विद्यार्थी हेतु भोजन, कपड़ा एवं किताब की व्यवस्था करते थे। फिरोजशाह तुगलक ने तो व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था भी की, जिसमें 12,000 दासों को उद्योगों एवं कारखानों में कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया। सल्तनत काल में शिक्षा न तो अनिवार्य थी और न ही सभी के लिये थी। जो ज्ञान प्राप्त को उत्सुक रहते थे उन्हें अनुशासनपूर्वक कठिन जीवन व्यतीत कर अध्ययन करना पड़ता था। इस काल में, हिन्दुओं में विशेष रूप से कायस्थों ने फारसी भाषा एवं साहित्य का विशद अध्ययन किया। बाद में, वे राजसेवा में उच्च पद प्राप्त करने लगे। 15वीं शताब्दी शिक्षा एवं साहित्य की दृष्टि से अच्छी मानी जाती है। विभिन्न शहरों में हजारों पाठशालाएँ एवं मदरसे स्थापित हो चुके थे। उस समय जौनपुर, जो ’शिराज-ए-हिन्द’ कहलाता था, शिक्षा का प्रमुख केन्द्र था। इसी प्रकार, बंगाल, बिहार, गुजरात, मालवा, खानदेश तथा दक्षिणी राज्यों में भी शिक्षा का विकास हुआ। इस काल में, उत्तरी भारत में शिक्षा के प्रमुख केन्द्र थे- दिल्ली, आगरा, लाहौर, इलाहाबाद, पटना, अजमेर, अहमदाबाद आदि। पंजाब ज्योतिष शास्त्र एवं गणित तथा दिल्ली हदीस अध्ययन के लिए प्रसिद्ध था ।
हिन्दू शिक्षा भी पाठशालाओं, प्राइमरी स्कूलों, टोल तथा व्यक्तिगत अध्यापकों द्वारा प्रदान की जाती थी। टोल में उच्च शिक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्म के विभिन्न मतावलम्बी भी अपने मठों, अखाड़ों एवं पंथों के माध्यम से अपनी रुचि एवं आवश्यकतानुसार शिक्षा की व्यवस्था करते थे। हिन्दू शिक्षा केन्द्रों में भी निःशुल्क शिक्षा दी जाती थी। प्रायः 5-6 वर्ष की आयु में शिक्षा प्रारम्भ की जाती थी। गुरु-शिष्य परस्पर सम्मान, एवं परिवार भावना से रहते थे। उच्च शिक्षा केन्द्र ’टोल’ में अधिक-से-अधिक 25 विद्यार्थी अध्ययन कर सकते थे। विद्यार्थियों के रहने, खाने, कपड़े एवं पुस्तकों की भी व्यवस्था निःशुल्क रहती थी। उच्च शिक्षा लगभग 8 से 10 वर्ष तक दी जाती थी।
हिन्दू बालकों की शिक्षा का श्री गणेश - ’राम’, ’कृष्ण’, ’ओम’ भूमि या तख्ती पर खड़िया द्वारा लिखवाकर होता था। फिर बच्चों को वर्णमाला का ज्ञान कराया जाता था। उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में-संस्कृत भाषा और साहित्य, व्याकरण, काव्य, छन्द, अलंकार, ज्योतिष, वेद, पुराण, दर्शन, खगोल शास्त्र, न्याय, इतिहास, भूगोल, संगीत, चिकित्सा शास्त्र, गणित इत्यादि शामिल थे। इस काल में हिन्दू शिक्षा के महत्वपूर्ण केन्द्र थे- बनारस, मिथिला, नदिया, नालन्दा, कश्मीर, विक्रमशिला एवं गुजरात आदि। अमीर खुसरो के अनुसार- बनारस वेदान्त, संस्कृत साहित्य तथा व्याकरण की शिक्षा का महान केन्द्र था । यहाँ दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों से विद्वान अध्ययन हेतु आते थे । मिथिला हिन्दू शिक्षा का दूसरा प्रमुख केन्द्र था। शिक्षा का महत्व केवल उच्च वर्ग एवं मध्यवर्ग में ही था। स्त्रियों को शिक्षा देने का प्रचलन नहीं था। हिन्दू विद्यार्थी वेद, उपनिषद एवं महाभारत का अध्ययन अवश्य करते थे।
आवास -
सुल्तानों के महल : भारत में मकानों का निर्माण सदैव यहॉ की जलवायु के अनुरूप किया जाता रहा है और मकान हवादार बनाए जाते रहे हैं। सुल्तानों के महल लोगों के लिए आकर्षण का केन्द्र होता था। महल चारों ओर से ऊॅची चाहरदीवारी से घिरा होता था। महलों के दो भाग होते थे जनाना तथा मर्दाना। जनाना या अंतःपुर रानियॉ और राजकुमारियॉ रहती थीं। उनके निवास, निजी समारोह कक्ष, आरामगाह आदि के लिए अलग-अलग कमरे होते थे। मर्दाना में दीवान-ए-आम, दीवान-ए-खास, शस्त्रागार, भंडार आदि होते थे। महलों में आनन्द बाग, वाटिका, बगीचे, फव्वारे तथा तालाब आदि की भी व्यवस्था रहती थी। महल स्थापत्य कला के अनूठे नमूने होते थे।
अमीरों के निवास स्थान : अमीरों के मकान भी काफी विशाल और सभी सुविधाओं से युक्त होते थे। इनमें भी ’मर्दाना’ तथा ’जनाना’ दो हिस्से होते थे। शयनकक्ष, रसोई, गुसलखाना आदि की उचित व्यवस्था रहती थी। लोग गर्मी में सोने के लिए छतों का भी प्रयोग करते थे। अमीरों के घर पेड़-पौधे, बाग-बगीचे तथा फव्वारों से सुसज्जित हुआ करते थे। गुजरात, बंगाल और उड़ीसा में घरों के साथ साग-सब्जी की वाटिका तथा तालाब भी होते थे। मकान पक्के होते थे। काश्मीर में सभी मकान लकड़ी के बने होते थे।
जनसाधारण के मकान : मध्यम वर्ग के लोगों के मकान रईसों के मकानों की तुलना में छोटे और कम सुविधापूर्ण होते थे। इनमें से कुछ पक्के के खपड़ैल घर थे तथा शेष मिट्टी और फूस से निर्मित होते थे। इनके मकान कभी-कभी दुमंजिला भी होते थे। इनकी मकानें यथासंभव चित्रकारी रंग आदि से सुसज्जित रहते थे। गरीब अधिकांशतः घास-फूस की झोपड़ियों में रहते थे। इन झोपड़ियों में खिड़की आदि की व्यवस्था नहीं रहती थी। प्रायः झोपड़ियों में एक ही कोठरी हुआ करता था।
फर्नीचर तथा घरेलू सामान : आधुनिक अर्थ में फर्नीचर भारत में पहले कभी प्रचलित नहीं थे। खाट या चारपाई का प्रयोग आम था। कुर्सी, स्टूल और मोढ़ों का भी व्यवहार प्रचलित था। अमीर सोने के लिए सुन्दर और कीमती पलंग, तोशक, तकिए, चादर का इस्तेमाल करते थे। गरीब ज्यादा से ज्यादा चारपाई पर चादर का इस्तेमाल करते थे। चटाई का प्रयोग काफी अधिक किया जाता था। कम्बल का इस्तेमाल जाड़े में मध्यम वर्ग के लोगों तक ही सीमित था। सम्पन्न लोग मच्छरदानी का भी प्रयोग करते थे। अमीरों की बैठकों को सुन्दर तथा मूल्यवान कालीनों से सजाया जाता था। कमरे को सजाने के लिए पर्दे का भी इस्तेमाल होता था। गर्मी में पंखों का भी प्रयोग किया जाता था जिनका निर्माण ताड़पत्र, हाथी दाँत, जरी, रेशम, कागज आदि से होता था। गरीब ताड़ या नारियल के पत्तों से बने पंखे का इस्तेमाल करते थे।
वस्त्र, आभूषण तथा मनोरंजन के साधन -
भोजन की भॉंति वेशभूषा भी मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। भारत एक विशाल देश है और यहां विभिन्न जातियों तथा धर्मों के लोग निवास करते हैं। अतः यहां के लोगों के वस्त्र, आभूषण और श्रृंगार प्रसाधनों में विभिन्नता पाई जाती है। विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों की वेशभूषा स्थानीय जलवायु पर भी निर्भर होती है। इसके अतिरिक्त वेशभूषा संस्कृति की भी द्योतक होती है क्योंकि उनमें एकरूपता और मौलिकता के ऐसे तत्व विद्यमान रहते है कि विदेशी सम्पर्क या आदान-प्रदान की प्रक्रिया की संभावना बने रहने पर उसके मूल तत्व नष्ट नही होते। वस्तुतः वेशभूषा से ही किसी देश के लोगों की सांस्कृतिक स्थिति का पता लगाया जा सकता है। यह बात मध्यकाल के लिए भी सत्य थी। मध्यकालीन समाज में उच्च वर्ग के हिन्दू और मुसलमान दोनों की वेशभूषा में काफी समानता थी। सुल्तान तथा अमीर वर्ग के लोगों का पोशाक सामान्य लोगों से काफी भिन्न होता था।
सुल्तान और अमीरों के पोशाक सिर्फ मूल्य को छोड़कर लगभग समान ही होता था। सुल्तान सिर पर ’कुला’ अथवा लम्बी तारतर टोपी धारण करते थे। ऊपरी वस्त्र के रूप में ’काबा’ का प्रयोग किया जाता था। कालांतर में ’पेशवाज और ’अंगरखे’ का प्रयोग किया जाने लगा। जाड़े में कुर्ते के ऊपर ’दगाल’ का प्रयोग किया जाता था।
अमीरों के पोशाक : अमीर दरबार में ’खिलअत’ का वस्त्र पहनते थे जो उन्हें सुल्तान द्वारा वर्ष में एक बार प्रदान किया जाता था। सामान्य तौर पर उच्च वर्ग के मुसलमान सलवार या पाजामा धारण करते थे। उनकी कमीज ऊपर से नीचे तक खुली रहती थी। जाड़े में बण्डी पहना जाता था। काबा का भी व्यवहार सामान्य था। हिन्दू काबे के बन्द बायीं ओर और मुसलमान दाहिनी ओर बांधते थे। कंधे पर जाड़े में ऊनी शाल पहना जाता था। हिन्दू सामान्य रूप से धोती पहनते थे और कन्धे पर सफेद चादर धारण करते थे।
सामान्य लोगों की पोशाक : हिन्दू वर्ग के सामान्य लोग धोती तथा कुर्ते का इस्तेमाल करते थे जबकि मुसलमान वर्ग के लोग पायजामा और कुर्ते का प्रयोग करते थे। मजदूर और कृषक लंगोटा धारण करते थे जो कमर से घुटने तक जाता था। लोग कम-से-कम वस्त्रों से अपने शरीर को ढंकते थे। सिर पर पगड़ी धारण की जाती थी जो कई रंगों की होती थी। पुरूषों के वस्त्रों में पगडी का महत्वपूर्ण स्थान था। अपनी गौरव की रक्षा के लिए राजस्थान में आज भी यह कहावत प्रचलित है कि पगड़ी की लाज रखना। दक्षिण में निम्नवर्ग की स्त्रियॉ सिर को नहीं ढंकती थीं। उड़ीसा में गरीब स्त्रियॉ पेड़ों की पत्तियों से अपने शरीर को ढके रहती थीं। अमीर घराने की स्त्रियां कीमती साड़ियों का प्रयोग करती थीं। अंगिया और जैकेट सभी स्त्रियॉ धारण करती थीं। दोआब क्षेत्र की स्त्रियॉ लहंगा, चोली और अंगिया पहनती थीं। कभी-कभी वे सिर पर दुपट्टे भी धारण करती थीं। मुसलमान महिलाएं पाजामा और कुर्ता पहनती थीं। उनके वस्त्र सूती तथा रेशमी दोनों तरह के होते थे। अमीर वर्ग की स्त्रियों का प्रिय पोशाक कश्मीरी शाल और काबा था। सिर पर दुपट्टे का प्रयोग सभी स्त्रियों के द्वारा किया जाता था। बाहर जाते समय मुस्लिम स्त्रियां बुर्के का प्रयोग करती थीं।
समकालीन विभिन्न ग्रन्थों में सलवार व चूडीदार पायजामा पहने जाने का उल्लेख मिलता है। वस्त्रों के उपर अचकन पहनने का रिवाज भी था जो घुटनों तक नीचा होता था। हिन्दू स्त्रियॉं का सामान्य वस्त्र साड़ी, लहॅंगा, चोली व चुनरी होता था। हिन्दू स्त्रियों के मायके जाने पर अपने पति के लिए कुर्ता तथा पगडी लेकर आने का रिवाज था। निर्धन स्त्रियॉं साड़ी पहनती थी और उसके एक सिरे को अपने सर पर रख लेती थी। इसके अतिरिक्त चोली और अंगिया पहनने का भी प्रचलन था। लहॅगा शरीर के नीचे के भाग में और चोली लहॅगे या साड़ी के ऊर्ध्व भाग में पहनी जाती थी। स्त्रियॉं रेशमी कपडें की एक किस्म अतलस का लहॅंगा और बेल-बूटेेेेेेेेेदार कपडे की बनी चोली पहनती थी। स्त्रियॉं भारी-भरकम घेरावाला लहॅंगा और उसके ऊपर हरे रंग की चोली और साथ में शाल भी ओढ़ती थी। विदेशी यात्रियों ने रेशमी कपडे की किस्म दरियाई लहॅगा का भी उल्लेख किया है जिसके ऊपर भारी अंगियॉं पहनी जाती थी। लहॅंगे के उपर ओढ़नी, चुनरी या दुपट्टा का रिवाज था जिसका प्रयोग सिर तथा शरीर के ऊपरी भाग को ढ़कने के लिए किया जाता था। हिन्दू स्त्रियॉं रंग बिरंगे बस्त्रों में लाल रंग के वस्त्र अधिक पहनती थी। अनेक लेखकों ने लाल, कुसुम्भी तथा पचरंगी साड़ियों का विवरण दिया है। विभिन्न साधिकाओं ने हिन्दू समाज में पहने जाने वाले विभिन्न प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख अपनी रचनाओं में किया है। उनका कहना है कि छोटे बच्चों में जामा प्रमुख होता था जो आठ कली और नौ तनियों का बना होता था। बच्चे के जन्म के बाद जब उसका मामा आता था तो वह उसके लिए जामा ले कर आता था। छोटे बच्चों को पहनाये जाने वाले वस्त्रों को झुगला कहा जाता था जो कि खुले कपडे होते थे।
सैनिकों के लिए उन दिनों विशेष प्रकार का लिबास पहनने का प्रचलन नहीं था। उनकी पहचान केवल उनके द्वारा धारण किए गए अस्त्रों से होती थी। शाही दास कमरबंद, लाल जूते और ’कुला’ पहनते थे। कुछ लोग निर्धनता के कारण गर्म कपड़े नहीं रख सकते थे।
पैर का पहनावा : पैर में पुरुष जूते, खड़ाऊॅ एवं चप्पल का प्रयोग करते थे। स्त्रियॉ अधिकांशतः चप्पल धारण करती थीं। अमीर वर्ग के स्त्री-पुरुष अलंकृत जूते और चप्पल धारण करते थे। शाही परिवारों के जूते तथा चप्पल रत्नजड़ित होते थे। सामान्यतः गर्मी के कारण जुर्राबें बहुत कम पहनी जाती थीं। अधिकांश हिन्दू खाली पैर रहते थे। किन्तु बलवन ने अपने सेवकों को जुर्राबें पहनने का आदेश दिया था। अमीर खुसरो ने ऊॅची एड़ी के जूते (कफ्श) तथा काठ की तली वाले जूते (नाले) का वर्णन किया है। ब्राह्मण गर्मियों में खड़ाऊं पहनते थे। मध्यवर्गीय लोग चमड़े के लाल जूता पहनते थे, जिन पर फूल कढ़े होते थे।
आभूषण : मध्यकाल में स्त्रियॉं तथा पुरूष अपने सौन्दर्य में वृद्धि करने के लिए अनेक प्रकार के आभूषण का प्रयोग करते थे। सल्तनत काल में स्त्री और पुरुष दोनों ही आभूषण धारण करते थे और स्त्रियों का सम्पूर्ण शरीर आभूषणों से ढंका रहता था। हिन्दू स्त्रियॉ आभूषण को सुहाग का प्रतीक समझती थीं। श्रृंगार सामान्यतया पॉंच प्रकार के आभूषणों से किया जाता था जिसमें शीशफूल, मॉंगटीका और बिन्दिया प्रमुख थे। आभूषणों में उल्लेखनीय थे - चौक या शीशफूल, कर्णफूल, पीपलपट्टी. मोर भँवर, चम्पाकली नथ या बेसर, लौंग, हार, बाजूबन्द, कंगन, कड़ा, चूड़ी, अंगूठी, कमरघनी, घुंघरू, पायल, बिछुआ, अंक आदि। कानों का प्रमुख आभूषण कर्णफूल, पीपलपट्टी, मोरभॅवर, बाली, झुमका और चम्पाकली थे। स्त्रियॉं नाक में सोने की नथ या बेसर पहनती थी। फैशनपरस्त या उच्च वर्ग की स्त्रियॉं नाक में लौंग पहनती थी। गले में पॉच या सात लड़ियों वाला नेकलेस भी एक प्रमुख आभूषण था। हिन्दू स्त्रियॉं गले में हार और गुलबन्द पहनती थी। बाहों में आभूषण पहनने का विशेष प्रचलन था क्योंकि नंगी बॉंहे रखना अपशकुन माना जाता था। इसके अतिरिक्त बाहों के अन्य आभूषण थे - बाजूबन्द, गजरा, कंगन, कडे, चूड़ी आदि। ये आभूषण सोने के और रत्नजड़ित होते थे। हाथों की अंगुलियों में स्त्री और पुरूष दोनों अॅंगूठियॉ पहनते थे। कमर में कमरबंद जिसे पेटी भी कहा जाता है, छूद्रकंटिका तथा कटिमेखला, पैरों में पायल, नेवर, पैंजनी, भंक, बिछुआ तथा अनवत आदि पहनने का रिवाज था। कमरबन्द सामान्यतया साडी के साथ पहनी जाती थी। स्पष्ट है कि सल्तनत काल में भी स्त्रियॉं नख से शिख तक गहने धारण करती थी।
पुरुष स्त्रियों के समान अधिक आभूषण धारण नहीं करते थे लेकिन फिर भी हाथों में अॅंगूठी, कानों में कुण्डल, गले में हार तथा मोतियों की माला आदि पहनते थे। आभूषण अमीरों और गरीबों दोनों के बीच लोकप्रिय थे। सुल्तान भी कीमती आभूषण धारण करते थे। आभूषण बहुधा सोने चॉदी तथा बहुमूल्य रत्नों के बने होते थे, परन्तु गरीबों के आभूषण सस्ते धातुओं के बने होते थे। हाथी दॉत तथा गैंडे की हड्डियों से भी आभूषण तैयार किये जाते थे।
सौन्दर्य प्रसाधन : पुरुष एवं स्त्रियॉ अपने शारीरिक सौन्दर्य की वृद्धि के लिए अनेकानेक श्रृंगार प्रसाधनों का प्रयोग करते थे। मलिक मोहम्मद जायसी ने तो हिन्दू स्त्रियों के लिए 16 प्रकार के श्रृंगार का वर्णन किया है- स्नान करना, तेल लगाना, बालों में जूडा या चोटी बनाकर, सिर पर मुकुट या अन्य आभूषण पहनकर, चंदन लगाकर, अच्छे वस्त्र पहनकर, मोतियों के आभूषण पहनकर, ऑंखों में काजल लगाकर, कानों में बाली पहनकर, नाक में नथ या लौंग पहनकर, गले में आभूषण पहनकर, फूलों की माला पहनकर, हाथों में मेंहदी रचाकर, कमर में कमरबंद पहनकर, पैरों में सोने के आभूषण धारण कर, पान खाकर। श्रृंगार प्रसाधनों का प्रयोग सिर्फ उच्च तथा मध्य वर्ग के लोग ही कर सकते थे क्योंकि वे कीमती होते थे। सिर के बालों को धोने के लिए रीठे का प्रयोग किया जाता था। शरीर को स्वच्छ और सुन्दर बनाने के लिए नहाते समय उबटन और चंदन का प्रयोग स्त्रियों के लिए आम बात थी। यह चन्दन मलयगिरी से मॅगवाया जाता था। स्नान के पश्चात अपने शरीर को सुगंधित बनाने के लिए महिलाएॅ इत्र का भी प्रयोग करती थी। स्त्रियॉं अपनी ऑखों की सुन्दरता बढाने के लिए उनमें अंजन या सुरमा लगाती थी। बालों में विभिन्न प्रकार के सुगन्धित तेल लगाए जाते थे और उसमें जूडा बनाकर सजाने का प्रयास करती थी। बालों को सजाने के लिए वे सिर में मॉंग बनाती थी। सुलझे हुये बालों को दो भागों में विभाजित करने वाली रेखा मॉंग कहलाती थी। हिन्दू स्त्रियॉं अपनी मॉंग में सिन्दूर लगाती थी जो उनके सुहाग का प्रतीक होता था। स्त्रियॉं अपने माथे पर बिन्दिया या टीका लगाती थी। रूप देखने के लिए दर्पण का प्रयोग किया जाता था। शीशा और कंधा सामान्य सौन्दर्य प्रसाधन थे। कंधे लकड़ी धातु और हाथी दांत के बने होते थे। स्त्री और पुरूष अपने होठों को लाल बनाने के लिए पान खाते थे। स्त्रियॉं अपने हाथों की सुन्दरता बढ़ाने के लिए मेंहदी लगाती थी। पुरूष अपने माथे पर तिलक लगाते थे।
मनोरंजन के साधन -
मध्यकाल में भारतीय लोगों के मनोरंजन के साधन पाश्चात्य साधनों को छोडकर आजकल की ही तरह थे। यदि कोई विशेष अन्तर था तो वह खेलने के कुछ ढंगों में। उस समय के मनोरंजन के साधनों को डॉ० के० एम० अशरफ ने तीन भागों में बांटा है- सैनिक एवं शारीरिक खेल (डपसपजंतल ंदक च्ीलेपबंस ैचवतजे), घर के अन्दर खेले जाने वाले खेल (प्दकववत ळंउमे) और लोकप्रिय मनोरंजन (च्वचनसंत ।उनेमउमदजे)
प्रथम श्रेणी के मनोरंजन के साधन थे- चौगान अथवा पोलो, शिकार, मछली पकड़ना, कुश्ती और मुक्केबाजी, पशुओं की दौड़, पशु-युद्ध, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि। घर के अन्दर खेले जाने वाले खेलों में उल्लेखनीय थे- शतरंज, चौपड़, तास आदि।
लोकप्रिय मनोरंजन के अन्तर्गत विभिन्न उत्सव, त्यौहार, मेले इत्यादि मुख्य थे। नाच-गान तथा संगीत आदि का महत्व भी काफी अधिक था। जादूगर, नट आदि भी घूम-घूमकर लोगों का मनोरंजन करते थे। हिन्दुओं के मुख्य त्यौहार थे- दशहरा, बसन्त पंचमी, होली, दिवाली, शिवरात्री, रक्षाबंधन, रामनवमी, जन्माष्टमी आदि। मुसलमानों के मुख्य त्यौहार ईद-उल-फितर, ईद-उल-जुहा, मोहर्रम, शबेबारात, पैगम्बर की वर्षी और नौरोज थे। सुल्तानों के जन्म दिन भी बड़ी धूमधाम से मनाए जाते थे। आम जनता संगीत, नृत्य और नाटक के बड़े ही प्रेमी थे। बांसुरी, वीणा और मृदंग प्रचलित वाद्ययंत्र थे। तार वाले वाद्ययंत्र और तुरही का भी प्रचलन था।
अंध-विश्वासों का प्रचलन : मध्यकाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों अपेक्षाकृत अंध-विश्वासी होते थे। ज्योतिष पर उन्हें बड़ा विश्वास रहता था। कोई भी कार्य करने के पूर्व वे ज्योतिषी से परामर्श लेते थे। जादू-टोना, भूत-प्रेत, मंत्र-तंत्र, शकुन-अपशकुन आदि में उनकी गहरी आस्था थी। धर्मानुमोदित रूप में आत्म-हत्या करने की पुरानी हिन्दू प्रथा सल्तनत काल में भी बनी रही। प्रयाग और काशी जैसे तीर्थस्थानों में आत्महत्या करना बड़ा ही पुण्य कार्य समझा जाता था। इब्नबतूता लिखता है कि हिन्दू स्वेच्छा से गंगा में डूबकर आत्महत्या करने को बड़ा ही पुण्य कार्य समझते थे। हिन्दू और मुसलमान दोनों अपने-अपने तीर्थ स्थानों की यात्रा किया करते थे।
उत्सव तथा त्यौहार -
सामाजिक जीवन और उससे संबंधित संस्थाओं में लोकोत्सव तथा त्यौहारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें देश की संस्कृति की अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है क्योंकि इनके साथ प्राचीन परम्पराएँ एवं विचारधाराएँ जुड़ी रहती हैं। जब उत्सवों तथा त्यौहारों का आयोजन होता है तो देश या प्रान्त के सांस्कृतिक पहलू के स्वरूप की अभिव्यक्ति होती है जिसमें प्रत्येक तबके का व्यक्ति बड़े उत्साह से शामिल होता है। अलग-अलग मौसम में अलग-अलग स्थानों में वेश-भूषा, नाच-गान या प्रदर्शन अपनी विशेषताओं को लेकर इस तरह रचे जाते हैं कि इन उत्सवों में नये जीवन का संचार हो जाता है। स्त्रियाँ महावरों और व्रतों द्वारा इनमें एक नयी उमंग भर देती हैं। इन अवसरों पर गाये जाने वाले लोकगीतों अथवा कहे जाने वाली लोकवार्ताओं में धार्मिक निष्ठा तथा ऐतिहासिक तथ्य छिपे होते हैं जो भारतीय संस्कृति के द्योतक है। मध्यकालीन भक्त साधिकाओं और अनेक लेखकों ने मध्यकालीन समाज में विशेषकर सल्तनतकालीन समाज में प्रचलित कई त्यौहारों व उत्सवों का उल्लेख किया है। जैसे गणगौर, होली, बसंत पंचमी, तीज, कात्यायनी व्रत, हिंडोरा इत्यादि।
आज भी राजस्थान के सभी त्यौहारों में गणगौर का उत्सव बड़ा महत्त्वपूर्ण है। विवाहित स्त्रियाँ तथा कन्याएँ इसको असीम श्रद्धा और निष्ठा से मनाती हैं। इसमें वे यह कामना करती हैं कि उनके पति दीर्घायु हों और कन्याओं को अच्छे वर की प्राप्ति हो। यह त्यौहार एक व्रत का भी अंग माना जाता है। इसमें स्त्रियाँ 15 दिन तक व्रती रहकर शिव-पार्वती का पूजन करती हैं। यह व्रत होलिका दहन से प्रारम्भ होकर चैत्र शुक्ल एकम और कहीं-कहीं तृतीया तक समाप्त होता है। इस अवसर पर होली के राख के पिण्ड भी बनाये जाते हैं और यव के अंकुरों के साथ इनका पूजन होता है। कन्याएँ बाग-बगीचों से फलों को कलश में सजाकर गीत गाती हुई अपने घर ले जाती हैं। इस अवसर पर चूड़ा और चूँदड़ी की अक्षयता की कामना की जाती है और उसी के उपलक्ष्य में विविध नृत्यों का आयोजन और गीतों का गायन किया जाता है।
गणगौर का त्यौहार शिव-पार्वती के रुप में ईसरजी और ईसरीजी के पूजन की प्रतिमाओं के द्वारा मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस उत्सव का आरम्भ पार्वती के गौने या अपने पिता के घर पुनः लौटने और उसकी सखियों द्वारा स्वागत गान को लेकर हुआ था। इस स्मृति में आज भी गणगौर की काष्ठ की प्रतिमाओं को सजाकर मिट्टी की प्रतिमाओं के साथ स्त्रियाँ किसी जलाशय पर जाती है और नृत्य और लोकगीतों की ध्वनि से मिट्टी की प्रतिमाओं को विसर्जन कर काष्ठ प्रतिमाओं को पुनः लाकर स्थानापन्न करती हैं। इस उत्सव को जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, कोटा आदि राज्यों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता था। कोटा में तो अनेक जातियों की स्त्रियाँ, जिनमें कूंजाड़ियाँ, लखारन, भड़भूँजा आदि भी सम्मिलित होती हैं और राजप्रसाद के आँगन में आकर नृत्य करती है। उदयपुर में मनाये जाने वाले उत्सव में गणगौर की सवारी का कर्नल टॉड ने बड़ा रोचक वर्णन किया है, जहाँ अट्टालिकाओं में बैठकर सभी जातियों की स्त्रियाँ, बच्चे और पुरुष रंग-रंगीले आभूषणों से सुसज्जित होकर गणगौर की सवारी को देखते थे। यह सवारी तोप के धमाके से और नगाड़े की आवाज से राजप्रासाद से प्रारम्भ होकर पिछोबा तालाब के गणगौर घाट तक बड़ी धूम-धाम से पहुँचती थी और नौका बिहार तथा आतिशबाजी के प्रदर्शन के बाद समाप्त होती थी। 84 भक्त साधिकाओं ने भी गणगौर के त्यौहार का उल्लेख अपने पदों में किया है।
मध्यकालीन सल्तनतकालीन समाज में बसन्त पंचमी का त्यौहार भी बडे धूमधाम से मनाया जाता था। यह त्यौहार बसन्त का अग्रदूत था और माघ शुक्ल पंचमी को मनाया जाता था। यह गायन, लोकनृत्य तथा गुलाल बिखेरे जाने के लिए प्रसिद्ध था। इसका महत्त्व आज भी पूरे देश में है। छोटे बड़े सभी एक हो जाते हैं और किसी में भी कोई भेदभाव नहीं रहता। इस त्यौहार में महादेव की पूजा का प्रमुख स्थान है। सिंदूर और गुलाल इतनी मात्रा में बिखेरा जाता था कि मालिक मुहम्मद जायसी के शब्दों में- ’पृथ्वी से लेकर आकाश तक प्रत्येक वस्तु लाल हो जाती थी। युवतियाँ शिव मन्दिरों में फल-फूलों की भेंट ले जाना नहीं भूलती थी और वहाँ वे शिवलिंग को अगरु और चंदन के लेप से अभिषिक्त करके और सिंदूर में रंगकर अपनी मनोकामना की पूर्ति की प्रार्थना करती थी, जिसमें निश्चय ही जीवन-साथी की आकांक्षा भी सम्मिलित रहती थी। तब संभवतः इच्छा पूरी होने पर देवता को दूसरी भेंट चढ़ाने का वादा करके वे घर लौट जाती थी। भक्त साधिकाओं ने अपनी रचनाओं में बताया है कि किस प्रकार सभी लोग मिलकर बसंत पंचमी का त्यौहार मनाते थे। इस अवसर पर लोक गीत गाए जाते थे और लोग एक-दूसरे पर गुलाल, चंदन, अरगजा आदि का प्रयोग करते थे।
सल्तनतकालीन समाज विशेषकर पूरे मध्यकालीन समाज का एक और महत्वपूर्ण त्यौहार होली था। अबुल फजल के अनुसार इस दिन लोग एक-दूसरे पर भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग डालते हैं और गीत गाते हैं। होली का त्यौहार फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सम्पूर्ण भारत में बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार हिरण्यकश्यप के नृशंस शासन का अंत इसी दिन हुआ था और प्रह्लाद की भक्ति की विजय हुई थी। इसी घटना की स्मृति में यह त्यौहार मनाया जाता है। इसे मनाने का समय भी बड़ा उपयुक्त है। ऋतु परिवर्तन और रबी की फसल की कटाई के अवसर पर जनमानस उल्लास से प्रेरित होकर मनोरंजन के लिए उत्साही हो जाता है।
इस अवसर पर होली की पूजा की जाती है। गोबर के कंडो को इक्ट्ठा किया जाता है और कुछ कंडों की मालाएँ होली दहन के लिए समर्पित की जाती है। होली की परिक्रमा करना और उसकी अग्नि से भोजन पकाना शुभ एवं धार्मिक माना जाता है। इस अवसर पर नाच गाना होता है और लोग एक-दूसरे पर गुलाल लगाते है। इस अवसर पर सभी वर्गों के लोग एक-दूसरे से बिना किसी भेदभाव के मिलते हैं। अग्नि पूजा, परिक्रमा, गोबर की माला का समर्पण, नृत्य गायन् आदि विविध प्रकरण इसके सांस्कृतिक पक्ष हैं। कर्नल टॉड ने बताया है कि इस अवसर पर लोग एक-दूसरे को अबीर लगाते हैं और रंग खेलते हैं। शासक वर्ग के लोग भी इस त्यौहार में शामिल होते हैं और एक-दूसरे पर रंग डालते हैं।“ भक्त साधिकाओं ने अपनी रचनाओं में इस त्यौहार का सुन्दर विवरण प्रस्तुत करते हुये कहा है कि इस अवसर पर नृत्य तथा गीत गाए जाते थे।
जो मारो तो सनमुख मारो, नातर दूँगी मैं गारी।।
चोबा-चंदन, अगर-अरगजा केसर की पिचकारी।
चोली को रंग फीको पड़ गयो, लहँगो हो गयो भारी।।
अबुल फजल के अनुसार - ‘‘होली के अवसर पर आग जलायी जाती थी और उसमें कई प्रकार की वस्तुएँ डाली जाती थी। लोग एक-दूसरे पर रंग डालते थे और इस उत्सव को बड़ी धूमधाम से मनाते थे।” मीराँबाई ने भी होली के त्यौहार का उल्लेख किया है और बताया है कि पति के बिना होली का त्यौहार फीका लगता है।
तीज का त्यौहार सल्तनतकालीन समाज का एक और प्रमुख त्यौहार था जो आज भी भारतीय समाज में धूमधाम से मनाया जाता है। तीज का त्यौहार ऋतु प्रधान होते हुए भी भावुकता से अधिक संबंधित है। जब यह त्यौहार मनाया जाता है तो प्रकृति पूरी तरह हरियाली से ओत-प्रोत हो जाती है तथा नदी-नाले बहने लगते हैं और सरोवर जल से पूरी तरह भर जाते हैं। सावन कृष्णा तृतीया को बालिकाएँ एवं नवविवाहित स्त्रियाँ इस त्यौहार को मनाती हैं। एक दिन पूर्व वे हाथों और पांवों में मेंहदी लगाती हैं और दूसरे दिन वे अपने पिता के घर जाती हैं, जहाँ उन्हें नयी पोशाकें दी जाती हैं और पकवान के भोजन से तृप्त किया जाता है। इस त्यौहार के अवसर पर उत्तर भारत में स्थान-स्थान पर झूले लगते हैं व सरोवरों के तटों पर मेलों का आयोजन होता है। यहाँ पर स्त्रियाँ शृंगार रस प्रधान गीतों को गाती हैं और नृत्य करती हैं। इस त्यौहार के आसपास खेतों में बुवाई भी शुरू होती है। लोक गीतों में इसीलिए इस अवसर को सुखद और सुहावना गाया जाता है। मोठ, बाजरा, फली आदि की बुवाई के लिए कृषक इस उत्सव पर वर्षा की महिमा व्यक्त करते हैं। मीरा ने बताया है कि सावन के महीने में वर्षा की झड़ी लग जाती है और सभी सखियाँ मिलकर तीज का त्यौहार मनाती है। तीज के त्यौहार पर स्त्रियाँ मिलकर झूला झूलती हैं। रसिक बिहारी ने झूला झुलने का बड़ा सुन्दर उल्लेख करते हुये कहा है कि -
नवल रंगीली सब झूलावत गावत सखियां सारी री।।
तीज के त्यौहार में स्त्रियाँ बढ़ चढ़ कर भाग लेती थी विवाहित स्त्रियाँ और कन्याएँ दोनों को इस त्यौहार से भावनात्मक लगाव था। जेम्स टॉड के अनुसार तीज पर्वतीय देवी पार्वती को समर्पित वह त्यौहार है, जिस दिन लम्बे तप के पश्चात् वह शिव से दोबारा मिली थी। उसने स्वयं इस त्यौहार को पवित्र बताया और घोषणा की कि जो कोई व्यक्ति उस दिन उससे प्रार्थना करता है वह अपनी मनचाही इच्छा प्राप्त कर सकता है।
स्पष्ट है कि मध्यकालीन भारत विशेषकर सल्तनतकालीन समाज में भी विभिन्न प्रकार के त्यौहार और उत्सवों का आयोजन होता रहा। यहॉं यह बात उल्लेखनीय है कि दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बाद हिन्दू समाज में प्रचलित त्यौहारों और उत्सवों पर समय-समय पर प्रतिबन्ध लगते रहे जिसके कारण इनकी रौनक कम होती गई। मुख्यतः हिन्दू त्यौहार नगरीय समाज से विलुप्त होते गये और यह गॉवों तक सीमित होकर रह गया। मुहम्मद-बिन-तुगलक दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने होली खेली थी। कालान्तर में जब मुगल सम्राट अकबर ने सुलह-ए-कुल की नीति अपनाई तो सभी धर्मों के अनुयाइयों को अपना त्यौहार मनाने की छूट मिली।