window.location = "http://www.yoururl.com"; Revolt of Royal Navy, 1946 | शाही नौसेना विद्रोह, 1946

Revolt of Royal Navy, 1946 | शाही नौसेना विद्रोह, 1946




नौसेना विद्रोह, 1946 : राष्ट्रवाद का उत्थान  

रायल इण्डियन नेवी अर्थात शाही नौसेना हडताल ऐसे समय में हुई जब देश भर में राष्ट्रवादी भावना अपने चरम पर पहुॅंच गई थी। 1945-46 में भारत में तीन हिंसक टकराव देखने को मिले -

1. आजाद हिन्द फौज के युद्धबन्दियों के मुकदमें को लेकर

2. आजाद हिन्द फौज के अधिकारी अब्दुल रशीद अली के मुकदमें और उनकी सजा को लेकर

3. जब रायल इण्डियन नेवी के नाविकों ने हड़ताल कर दी

दो घटनाओं का विवरण पहले ही दिया जा चुका है। यहॉं हम तीसरी घटना अर्थात रायल इण्डियन नेवी के विद्रोह की धटनाओं का एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। 

आजाद हिन्द फौज के कैदियों पर चलाये जाने वाले मुकदमों के विरुद्ध देशव्यापी आन्दोलन से ब्रिटिश सरकार अभी उबर भी नही पाई थी कि फरवरी 1946 ई0 में शाही भारतीय नौसेना के नाविकों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह की स्वतःस्फूर्त शुरुआत नौसेना के सिगनल्स प्रशिक्षण पोत आई0एन0एस0 तलवार से हुई जब नाविकों द्वारा खराब खाने की शिकायत करने पर अंग्रेज कमान अफसरों ने नस्लीय अपमान और प्रतिशोध का रवैया अपनाया और कहा कि - ‘भिखमंगों को चुनने की छूट नहीं होती‘‘। इससे क्षुब्ध होकर 18 फरवरी 1946 को बम्बई में आई0एन0एस0 तलवार के 1100 नाविकों ने भूख हड़ताल कर दिया। उसके अगले ही दिन 19 फरवरी को यह हड़ताल कैसल, फोर्ट बैरकों और बम्बई बन्दरगाह के 22 जहाजों तक फैल गया। शीध्र ही एक हड़ताल कमेटी का चुनाव किया गया और कमेटी ने अपनी प्रमुख मॉंगे सामने रख दी। नाविकों की मॉंगों में बेहतर खाने और गोरे व भारतीय नौसैनिकों के लिए समान वेतन के साथ ही आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों और सभी राजनीतिक बन्दियों की रिहाई तथा इण्डोनेशिया से सैनिकों को वापस बुलाये जाने की मॉंग भी शामिल थी। उनकी एक मॉंग यह भी थी कि नाविक बी0सी0 दत्ता को, जिसे जहाज की दीवारों पर ‘‘भारत छोडो‘‘ लिखने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था, रिहा कर दिया जाय। विद्रोही बेड़े के मस्तूलों पर कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस और मुस्लिम लीग के झण्डे एक साथ फहरा दिये गये। 20 फरवरी को विद्रोह को कुचलने के लिए सैनिक टुकड़ियाँ बम्बई लायी गयीं। नौसैनिकों ने अपनी कार्रवाइयों के तालमेल के लिए पाँच सदस्यीय कार्यकारिणी चुनी। लेकिन शान्तिपूर्ण हड़ताल और पूर्ण विद्रोह के बीच चुनाव की दुविधा उनमें अभी बनी हुई थी, जो काफी नुकसानदेह साबित हुई। 20 फरवरी को उन्होंने अपने-अपने जहाजों पर लौटने के आदेश का पालन किया, जहाँ सेना के गार्डों ने उन्हें घेर लिया। अगले दिन कैसल बैरकों में नाविकों द्वारा घेरा तोड़ने की कोशिश करने पर लड़ाई शुरू हो गयी जिसमें किसी भी पक्ष का पलड़ा भारी नहीं रहा और दोपहर बाद चार बजे युद्धविराम घोषित कर दिया गया। एडमिरल गाडफ्रे अब बमबारी करके नौसेना को नष्ट करने की धमकी दे रहा था। इसी समय लोगों की भीड़ गेटवे ऑफ इण्डिया पर नौसैनिकों के लिए खाना और अन्य मदद लेकर उमड़ पड़ी।

विद्रोह की खबर फैलते ही कराची, कलकत्ता, मद्रास और विशाखापत्तनम के भारतीय नौसैनिक तथा दिल्ली, ठाणे और पुणे स्थित कोस्ट गार्ड भी हड़ताल में शामिल हो गये। 22 फरवरी हड़ताल का चरम बिन्दु था, जब 78 जहाज, 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नौसैनिक इसमें शामिल हो चुके थे। इसी दिन कम्युनिस्ट पार्टी के आह्नान पर बम्बई में आम हड़ताल हुई। नौसैनिकों के समर्थन में शान्तिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे मजदूर प्रदर्शनकारियों पर सेना और पुलिस की टुकड़ियों ने बर्बर हमला किया, जिसमें करीब तीन सौ लोग मारे गये और 1700 घायल हुए। इसी दिन सुबह, कराची में भारी लड़ाई के बाद ही ‘आई0एन0एस0 हिन्दुस्तान‘ जहाज से आत्मसमर्पण कराया जा सका। अंग्रेजों के लिए हालात संगीन थे, क्योंकि ठीक इसी समय बम्बई के वायु सेना के पायलट और हवाई अड्डे के कर्मचारी भी नस्ली भेदभाव के विरुद्ध हड़ताल पर थे तथा कलकत्ता और दूसरे कई हवाई अड्डों के पायलटों ने भी उनके समर्थन में हड़ताल कर दी थी। कैण्टोनमेण्ट क्षेत्रों से सेना के भीतर भी असन्तोष उभरने और विद्रोह की सम्भावना की खुफिया रिपोर्टों ने अंग्रेजों को भयाक्रान्त कर दिया था।
इन विद्रोहों के सिलसिले में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी उभरकर सामने आया कि 1946 के प्रारंभ तक यद्यपि नौकरशाही  और सेना में काफी अस्थिरता आ गई थी, फिर भी दमन करने की ब्रिटिश क्षमता अक्षुण्ण थी और उसके कठोर इस्तेमाल का इरादा भी बना हुआ था। सेना और जनसामान्य द्वारा काफी विरोध किये जाने पर आजाद हिन्द फौज के खिलाफ मुकदमा चलाने के निर्णय पर पुनर्विचार करना एक बात थी तथा कानून और व्यवस्था के समक्ष चुनौती उपस्थित होने पर उनका सामना करने की जरुरत बिल्कुल दूसरी बात थी। ब्रिटिश सरकार इस मामले पर बिल्कुल स्पष्ट थी कि ऐसी चुनौतियों को कुचल देना है।
इन परिस्थितियों को देखते हुए नौसेना के विद्रोही जहाजियों से अरुणा आसफ अली जैसे समाजवादियों को सहानुभूति थी, किंतु गांधीजी ने हिंसा की निंदा की और कहा जाता है कि वल्लभभाई पटेल ने विद्रोही नाविकों को सलाह दी कि वे आत्म-समर्पण कर दें। गाँधीजी ने 22 फरवरी 1946 को कहा कि हिंसात्मक कार्रवाई के लिए हिन्दुओं-मुसलमानों का एकसाथ आना एक अपवित्र बात है। नौसैनिकों की निन्दा करते हुए उन्होंने कहा कि यदि उन्हें कोई शिकायत है तो वे चुपचाप अपनी नौकरी छोड़ दें। अरुणा आसफ अली ने इसका दोटूक जवाब देते हुए कहा कि नौसैनिकों से नौकरी छोड़ने की बात कहना उन कांग्रेसियों के मुँह से शोभा नहीं देता जो खुद विधायिकाओं में जा रहे हैं। सरदार पटेल के शब्दों में - ‘‘सेना के अनुशासन से छेड़छाड़ नहीं की सकती.... हमें स्वतंत्र भारत तक में सेना की आवश्यकता होगी।‘‘ वास्तव में पटेल ने नौसैनिकों को यह सलाह इस डर से नहीं दिया था कि स्थिति कांग्रेस के नियंत्रण से बाहर हो जायेगी या सेना में एक बार अनुशासनहीनता फैली, तो स्वतंत्र भारत में कांग्रेस को मुश्किल होगी। दसअसल वे यह समझ गये थे कि ब्रिटिश शासन विद्रोहियों का दमन करने में सक्षम है और उन्हें पूरी तरह नष्ट करने की धमकी दी भी जा चुकी थी। कांग्रेसियों की तरह साम्यवादियों ने भी न केवल नवंबर 1945 में, बल्कि फरवरी 1946 में भी कलकत्ता के लोगों से शांति बनाये रखने की अपील की थी। यह सही है कि नाविकों और छात्रों के प्रति लोगों की सहानुभूति तथा सरकारी दमन के प्रति उनका गुस्सा स्वतःस्फूर्त था और ये विद्रोह परंपरागत कांग्रेसी आंदोलनों के अहिंसात्मक स्वरूप से अलग, हिंसात्मक थे, किंतु अपनी मुखरता के कारण कांग्रेस ने न केवल जनता की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को और प्रखर किया, बल्कि एक तरह से पूरे देश को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध खड़ा कर दिया। वस्तुतः आजाद हिंद फौज के ‘गुमराह‘ देशभक्तों की सबसे गरम समर्थक कांग्रेस ही थी।
कांग्रेस और मुस्लिम लीग से समर्थन न मिलने से विद्रोहियों के हौसले टूटने लगे थे। अंत में वो सरदार पटेल के कहने पर समझौते के लिए तैयार हुए। पटेल ने उन्हें हथियार डाल देने को कहा और भरोसा दिलाया कि उनके साथ नरमी बरती जाएगी। कई लोग इसके खिलाफ थे और लड़ने को तैयार थे लेकिन शुरुआत से उन्होंने घोषणा की थी कि वो राष्ट्रीय नेताओं के कहने पर चलेंगे। ऐसे में वो सरदार पटेल का कहना कैसे ठुकरा सकते थे। दूसरी तरफ मुहम्मद अली जिन्ना की तरफ से भी ऐसा ही सन्देश आया।
23 फरवरी सुबह 6 बजे सरेंडर की शुरुआत हुई। हालांकि इसके बाद भी कई शिप थे, जिन्होंने ऐन मौके पर सरेंडर से इंकार कर दिया। आई0एन0एस0 अकबर में सवार 3500 नौसैनिक हथियार डालने को राजी नहीं थे। कुछ ऐसा ही हाल करॉची बंदरगाह का भी था, जहां आई0एन0एस0 हिंदुस्तान ने सरेंडर से इंकार कर दिया। जब ब्रिटिश जहाजों ने उसे चारों ओर से घेर लिया तो उसने मदद के लिए आई0एन0एस0 काठियावाड़ को डिस्ट्रेस सिग्नल भेजा। आई0एन0एस0 काठियावाड़ करॉची से काफी दूर था इसलिए उसने बॉम्बे का रुख किया। लेकिन जैसे ही वो बॉम्बे हार्बर में दाखिल हुआ, यहां उसका सामना ग्लासगो नाम के एक क्रूजर जहाज से हुआ, जो उससे शक्ति और आकार में काफी बढ़ा था। इन छिटपुट घटनाओं के अलावा सरेंडर शांतिपूर्ण ढंग से पूरा हो गया।
अंग्रेजों ने सरदार पटेल से वादा किया था कि आत्मसमर्पण करने वाले लोगों के साथ नरमी बरती जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इनमें से 400 लोगों को मुलंद के पास एक कंसनट्रेशन कैंप भेज दिया गया जहां इनके साथ लंम्बे समय तक बुरा सुलूक किया गया। बाद में इन्हें नौकरी से बर्खास्त कर घर भेज दिया गया। आजादी के बाद भी इन लोगों को वो हक नहीं मिला जिसके ये हकदार थे।
आंदोलनों का महत्त्व -
विश्वयुद्ध के दौरान और बाद में सैन्यकर्मियों में बढ़ती राजनीतिक चेतना अंग्रेज अधिकारियों के लिए पहले ही चिंता का कारण बनी हुई थी। किंतु आजाद हिंद फौज के मुकदमों ने और उसके सैनिकों के प्रति सेना की बढ़ती सहानुभूति ने ब्रिटिश हुकूमत को पूरी तरह झकझोर दिया, क्योंकि ’भारत छोड़ो’ आंदोलन के बाद तो यही सेना ही उनके शासन का एकमात्र विश्वसनीय सहारा थी। संभवतः इसलिए कमांडर-इन-चीफ जनरल ऑचिनलेक ने आजाद हिंद फौज के तीनों अफसरों की सजा को रद्द कर दिया था। उसने स्वयं वरिष्ठ अंग्रेज अधिकारियों के सामने स्वीकार किया था कि इन सजाओं को लागू करने की कोई भी कोशिश पूरे देश में अराजकता और संभवतः विद्रोह को भी जन्म देती, और सेना में असंतोष को भी, जिसके कारण उसका विघटन हो। विभिन्न केंद्रों में शाही भारतीय वायुसेना के सदस्यों और दूसरे सैन्यकर्मियों को न केवल अभियुक्तों से सहानुभूति थी, बल्कि वे राहत कोष में चंदा दिये और कुछ अवसरों पर तो पूरी वर्दी पहनकर विरोध सभाओं में शामिल हुए थे। 
दूसरी तरफ नौसेना के विद्रोह के दौरान जो सांप्रदायिक एकता परिलक्षित हुई, वह जनएकता कम, संगठनात्मक एकता अधिक थी। यद्यपि कलकत्ता अगस्त 1946 में सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहा था फिर भी फरवरी 1946 में वहॉं के लोगों ने नाविकों के समर्थन में सराहनीय एकता का प्रदर्शन किया था। यद्यपि नाविकों ने कांग्रेस, मुस्लिम लीग एवं कम्युनिस्ट पार्टी, तीनों के झंडे जहाजों पर एक साथ लगाये थे, किंतु वैचारिक स्तर पर संप्रदायवाद से वे गहरे प्रभावित थे। नीतिगत मसलों पर विचार-विमर्श के लिए अधिकांश हिंदू नाविक जहाँ कांग्रेस के पास जाते थे, वहीं मुसलमान नाविकों का झुकाव मुख्यतः मुस्लिम लीग की ओर था।
फिर भी, सशस्त्र सेनाओं के ये अल्पकालिक विद्रोह कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण थे। इनके द्वारा जनता के लड़ाकूपन और उसकी निर्भीकता की अभिव्यक्ति हुई। अब भारतीय जनता आत्म-विश्वास के साथ ब्रिटिश सरकार से टकराने के लिए तत्पर हो गई थी। यद्यपि ब्रिटिश सरकार को विद्रोह की गंभीरता का अनुमान था और वह उसका दमन करने की अपनी क्षमता के बारे में भी आश्वस्त थी, किंतु शाही नौसेना के नाविकों के विद्रोह से सरकार को यह भी आभास हो गया कि अब विद्रोह को कुचलने के लिए सेना पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। बाद में एक सरकारी जाँच आयोग से भी यह बात उजागर हो गई कि अधिकांश नौसैनिक राजनीतिक चेतना से संपन्न थे और आजाद हिंद फौज के प्रचार और आदर्शों से गहराई तक प्रभावित थे। इस विद्रोह के द्वारा जनता ने अपने लड़ाकूपन की समर्थ अभिव्यक्ति प्रदर्शित की। इस विद्रोह की घटनाओं ने लोगों को भयमुक्त कर दिया। बिपिनचंद्र का मनानना है कि - ‘‘रॉयल भारतीय नौसेना के विद्रोह की घटना ऐसी घटना है जो ब्रिटिश शासन के अंत में लगभग वैसा ही प्रतीक है, जैसे भारतीय स्वतन्त्रता दिवस।‘‘
अपनी मुखरता के कारण इस विद्रोह ने न केवल जनता की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना को प्रखर किया, बल्कि एक तरह से पूरे देश को ब्रिटिश शासन के खिलाफ खड़ा कर दिया था। इस तरह यह विद्रोह उन पूर्ववर्ती राष्ट्रवादी गतिविधियों का ही विस्तार था, जिससे कांग्रेस जुडी हुई थी। इस विद्रोह का आह्वान न तो कांग्रेस ने किया था और न ही किसी और पार्टी ने लेकिन शाही भारतीय नौसेना के नाविकों के प्रति लोगों की सहानुभूति और सरकारी दमन के प्रति उनका गुस्सा स्वतः स्फूर्त था।

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