पाड्यगारों का संग्राम (1801-05)
अर्काट के नवाब ने 1781 में तिनेवली (तिरुनेलवेली) और कर्नाटक के प्रान्तों की मालगुजारी की व्यवस्था ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ सौंप दी इस शर्त पर कि मालगुजारी का छठा हिस्सा नवाब को निजी इस्तेमाल के लिए दिया जायगा। दक्षिण के पायंगार (किलेदार) युगों से स्वाधीन चले आ रहे थे। वे अपनी स्वाधीनता फिरंगियों को सौंपने को तैयार न हुए। उन्होंने जगह-जगह इन विदेशी शासकों का मुकाबला किया। तिनेवेली जिले के पांजालन कुरिची के पायंगार ने अंग्रेजों की सेना का डटकर मुकाबला किया। 12 अगस्त 1783 को कर्नल फुलार्टन ने उन पर हमला किया तो खूँखार युद्ध हुआ। लेकिन आखिर में अंग्रेजों ने किले पर कब्जा कर लिया। बहुत सी बन्दूकें और लड़ाई का सामान उनके हाथ लगा। इसके बाद फुलार्टन ने शिवगिरि के पायंगार पर हमला किया और उनके किले पर भी कब्जा कर लिया।’
इस शुरुआत को अशुभ-सूचक समझ कम्पनी ने 1785 में मालगुजारी की वसूली का काम नवाब को वापस सौंप दिया किन्तु नवाब एक पैसा भी इकट्ठा न कर सका और धमकी के बावजूद वह ईस्ट इंडिया कम्पनी को पैसा न दे सका। ऐसी हालत में कम्पनी ने 1790 में एक घोषणा के जरिए इन प्रान्तों की व्यवस्था अपने हाथ में ले ली और मालगुजारी की व्यवस्था के लिए एक बोर्ड बैठाया। 1792 में नवाब के साथ संधि के जरिए मद्रास सरकार ने पायंगारों से बकाया मालगुजारी वसूल करने की जिम्मेदारी ली। नाम के लिए अंग्रेज अब भी नवाब को यहाँ का राजा मानते थे, लेकिन सारी व्यवस्था उनके हाथ में थी। पायंगारों ने इन नये शासकों के खिलाफ पूरे जोर से विद्रोह का झण्डा उठाया। इस विद्रोह में पांजालन कुरिची के पायंगारों की भूमिका बहुत बड़ी थी। वे विद्रोहियों के नेता थे। 1795 में रामनाड में जब विद्रोह शुरू हुआ तो वे उसमें शामिल होने वाले पहले पायंगार थे। 1797 में रामनाड सदर में बगावत आरंभ होने पर पांजालन कुरिची के पायंगार कट्टबोम नायक्कन ने लेफ्टिनेन्ट क्लार्क को मार डाला। इसलिए 1799 में मेजर बैनरमैन के नेतृत्व में अंग्रेज शासकों की सेना ने पांजालन कुरिची पर चढ़ाई की। बैनरमैन को सफलता मिली, लेकिन चार यूरोपीय अफसर मारे गये। दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। जो भी विद्रोही अंग्रेजों के हाथ पड़े, मारे गये। कट्टबोम नायक्कन भाग कर पुडुक्कोट्टाई चले गये, लेकिन बाद में वे पकड़े गये और उन्हें सरे बाजार फाँसी दी गयी, ताकि विद्रोही डर कर फिर सर न उठायें।
पायंगारों पर फिरंगियों के जुल्म बढ़ गये। जो विद्रोह में शामिल हुए थे, उनकी जायदाद जब्त कर ली गयी। कुछ को पकड़कर फाँसी पर लटका दिया गया और बहुतों को जेल में डाल दिया गया। फिरंगियों ने फरमान जारी किया कि पायंगारों के सारे किले ढहा दिये जायँ, बन्दूक, भाले, बरछे सब छीन लिये जायँ। जो पायंगार इन्हें अंग्रेज अधिकारी के पास जमा न करे, उसे मृत्यु दण्ड दे दिया जाय। फिरंगी शासकों ने इसे शक्ति से लागू किया। लन्दन में बैठे ईस्ट इंडिया कम्पनी के कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने मद्रास के किले सेन्ट जार्ज के गवर्नर के पास 17 अगस्त 1803 को पत्र लिख कर इसमें उसकी कामयाबी की तारीफ की। लेकिन पायंगारों के अन्दर सुलगते असंतोष ने खुले विद्रोह का रूप धारण किया। दरअसल तिनेवेली के पायगारों का विद्रोह दक्षिण भारत के विभिन्न हिस्सों में अंग्रेजों के खिलाफ फैले विद्रोह का हिस्सा था। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट की पाँचवीं रिपोर्ट में साफ स्वीकार किया गया कि 1801 में दक्षिण के पड़य्यमों (पड़ावों या छावनियों) में फैले विद्रोह का संबंध उसी समय डिंडिगुल और मालाबार के अंचलों में फैले विद्रोह के साथ था।’
2 फरवरी 1801 को पालमकोट के किले में कैद पायंगार फाटक के पहरेदारों को परास्त कर भाग निकले। 30 मील पैदल चल कर वे पांजालन कुरिची जा पहुँचे। मेजर मेकाले ने एक टुकड़ी लेकर चढ़ाई की। 1 फरवरी 1801 को पांजालन कुरिची पहुँचने पर उसने देखा कि किले की रक्षा सैकड़ों हथियारबन्द पायंगार कर रहे हैं। चूँकि उसके पास किले की दीवारें तोड़ने के लिए तोपें न थीं, इसलिए उसने किले पर आक्रमण करने का विचार छोड़ दिया। विद्रोहियों की संख्या करीब पाँच हजार देख उसे वापस भाग कर पालमकोट जाना पड़ा।
विद्रोही पायंगारों ने जगह-जगह धावा बोलना शुरू किया। एक-एक कर उस अंचल के प्रायः सभी किलों पर उनका कब्जा हो गया। तूतीकोरिन उनके हाथ आ गया। फिरंगियों की नयी पल्टन 27 मार्च 1801 को कयत्तार पहुँची। उन्होंने सारी सेना लेकर फिर विद्रोहियों के गढ़ पांजालन कुरिची पर चढ़ाई की। दो दिन बाद वे इस गढ़ के पास जा पहुँचे। तोपों से गोलाबारी कर उत्तर-पश्चिम की दीवार तोड़ी गयी और फिर सारी सेना को धावा बोल देने का हुक्म हुआ लेकिन जो भी आदमी किले की दीवार की चोटी पर पहुँचा, विद्रोहियों के भालों, बरछों और बन्दूकों के घाव खाकर नीचे आ गिरा। फिरंगियों की सेना एक इंच आगे न बढ़ सकी।’ इस चढ़ाई में स्टाक अफसर की हैसियत से हिस्सा लेने वाले कैप्टेन वेल्श ने इसका सजीव वर्णन किया है - ‘‘आखिर में फिरंगी सेना को बहुत नुकसान उठा कर भागना पड़ा। विद्रोहियों ने किले से निकल कर भागती सेना का पीछा किया और जिसे पाया काट कर रख दिया।‘‘ अंग्रेजों की इस पराजय से ब्रिटेन में बड़ी हलचल मची।
अंग्रेजों ने फिर आसपास से सेना जमा की। जगह-जगह से हिन्दुस्तानी और यूरोपीय सैनिक लाये गये। लेफ्टिनेन्ट कर्नल एगन्यू शक्तिशाली तोपखाना लेकर मालाबार से आया। दो तोपखानों ने प्रचण्ड गोलाबारी कर दक्षिण-पश्चिम की दीवार तोड़ दी। गोलाबारी की आड़ में अंग्रेज सेना आगे बढ़ी। दीवार पर चढ़ कर उसने हथगोलों से काम लिया और फाटक खोल दिया। लगभग 600 विद्रोही मारे गये। अंग्रेजों ने पांजालन कुरिची का किला ढहा दिया। उसे जोतवा कर वहाँ सरसों बो दिये। जिले के रजिस्टर से इस स्थान का नाम भी उड़ा दिया।“ इसके बाद पायगार बिलकुल निरस्त्र कर दिये गये। उनके हथियार खोज-खोज कर छीन लिये गये। हथियारों के बनाने पर रोक लगा दी गयी। कितने ही पायंगारों को दण्ड दिया गया। कितनों ही की जागीरें छीन ली गयीं। इसी बीच अंगरेजों से 31 जुलाई 1801 को संधि कर अर्काट के नवाब ने कर्नाटक की सारी भूमि और उसके अधीन रियासतों की शासन व्यवस्था अंगरेजों के हाथ सौंप दी।
उधर निजाम ने कई जिले अंग्रेजों को सौंप दिये थे। इन जिलों में भी पायंगार थे । यहाँ के भी पायंगारों ने विदेशी शासकों के खिलाफ बार-बार सर उठाया। इन जिलों का प्रशासक बन कर आते ही मुनरो ने पायंगारों का दमन करने के लिए उन पर मालगुजारी (पेशकश) सबसे ज्यादा बढ़ा दी। इतनी मालगुजारी पायंगारों ने न तो निजाम को दी थी न अन्य किसी को। इस बढ़ी मालगुजारी को वसूल करने के लिए पुलिस और फौज के इस्तेमाल की भी धमकी दी गयी।
इतना दबाये जाने पर भी पायंगारों के अन्दर बदले की आग सुलगती रही। तारनीकल्लू की 1801 की घटना इसका प्रमाण है। अड़ोनी परगने के इस गाँव के मुखिया पर गबन का इल्जाम लगाया गया, तो वह भाग निकला। उसने विद्रोहियों के साथ एक किले पर अधिकार कर लिया। डगाल्ड कैम्पबेल कम्पनी के सिपाही लेकर उसे पकड़ने गया, तो उसे मार भगाया गया। दूसरी भिड़न्त में कम्पनी की 6 अंग्रेज अफसर और 14 सैनिक मारे गये तथा 228 सिपाही घायल हुए। तोपें लाकर इस किले की दीवारें तोड़ी गयीं, तब कहीं उस पर कब्जा किया जा सका। विद्रोही मुखिया को फाँसी दी गयी।
17 अगस्त 1803 को कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स द्वारा लन्दन से भेजा गया पत्र सूचित करता है कि उस वक्त भी हथियारबन्द पायंगार कम्पनी के लिए चिन्ता का विषय बने हुए थे। सर जान माल्कम माँग कर रहा था कि पायंगारों को दबाने के लिए शक्तिशाली सेना भेजी जाय। मुनरो का 26 जून 1804 का पत्र बताता है कि एक पेंशनयाफ्ता पायंगार ने बेलारी के किले पर अधिकार करने की कोशिश की थी।’ इसका उद्देश्य आड़ोनी पर अधिकार करना और वहाँ के भूतपूर्व जमींदार के बेटे कुदरतुल्ला खाँ को वहाँ का स्वामी बनाना था। यह चेष्टा सफल न हो सकी।
मुनरो को पायंगारों के विद्रोह का दमन करने में लोहे के चने चबाने पड़े। उनकी वजह से वह मालगुजारी वसूल नहीं कर पाता था इसलिए उसने फरमान जारी किया कि जो भी पायंगार हथियारबन्द सिपाही रखेगा या किले की रक्षा की व्यवस्था करेगा, उसे दण्ड दिया जायगा। जो पायंगार यह हुक्म न मानेगा, उसे विद्रोही समझा जायगा और उसके साथ वैसा ही व्यवहार किया जायगा।
1801 में वेलेजली ने नवाब के हाथ से कर्नाटक का प्रशासन सँभाला। सँभालते ही उसे खासकर चित्तूर और चन्द्रगिरि के पायंगारों का सामना करना पड़ा। स्ट्रैटन उत्तर अर्काट का पहला कलक्टर नियुक्त किया गया। उसने सब जिलों की पुलिस व्यवस्था अपने हाथ में ली और पायंगारों का ‘कवाली’ कर वसूल करने का अधिकार छीन लिया। इससे नाराज होकर पायंगारों ने चारों तरफ मार काट आरंभ कर दी। 1803 में नरगन्ती के पायंगार के आदमियों ने उत्तनतंगल गाँव लूट लिया और कम्पनी का खजाना लूटने की योजना बनायी। उन्होंने कैप्टेन नटाल पर हमला किया।
पायंगारों का दमन करने के लिए कम्पनी सरकार ने लफ्टिनेन्ट कर्नल डार्ले के मातहत एक बटालियन चित्तूर भेजी। स्ट्रैटन ने हुक्म जारी किया कि सब पायंगार हथियार डाल दें और बाकी मालागुजारी दे दें। लेकिन एक पायंगार भी आत्मसमर्पण करने नहीं आया। 25 जुलाई 1804 को डार्ले ने पेन्नामारी के किले पर चढ़ाई की। उसके पायंगार ने आत्मसमर्पण का दिखावा किया, लेकिन रात को वह अपने 800-1000 आदमियों को लेकर चलता बना। डार्ले ने अपना गुस्सा किले को ध्वंस कर उतारा।
इसके बाद कलेक्टर स्ट्रैटन के हुक्म से डार्ले अपनी बटालियन के साथ कल्लूर, पुपलीचेरला, बाँगड़ी, येदरगुन्ता, पुल्लूर और तुम्बा की जागीरों पर कब्जा करने चला। इन सबके किलों को उसने ढा दिया। पुल्लूर का किला हाथ से निकल जाने से पायंगारों में निराशा छा गयी, क्योंकि उत्तर अर्काट का यह उनका सबसे मजबूत किला था। वे अब अपने जत्थे लेकर जंगल में चल गये और वहाँ से अंग्रेजों को हैरान करते रहे। कम्पनी के सिपाहियों के छोटे दस्ते उनका दमन करने में असमर्थ थे।
दमन में अधिक सफलता प्राप्त न होते देख आखिर में कम्पनी सरकार ने अपनी नीति बदली और पायंगारों से समझौते की नीति अपनायी। इसके लिए 22 सितम्बर 1804 को उसने एक कमीशन नियुक्त किया और पायंगारों का दमन करना बन्द कर दिया, लेकिन इसका कोई फल न निकला। पायंगारों ने कम्पनी के समझौते के प्रस्ताव पर कोई ध्यान न दिया, वे कम्पनी सरकार को परेशान करते रहे।
इस बार अंग्रेजों ने लेफ्टिनेन्ट कर्नल मनीपेनी के नेतृत्व में 3,000 सैनिक विद्रोह का दमन करने भेजा। दो-चार पायंगारों ने आत्मसमर्पण किया, लेकिन अधिकांश लड़ते रहे। वे दिन में पहाड़ियों में चल जाते और रात को अंग्रेजी सेना और अंग्रेज परस्तों पर आ टूटते। इन हमलों में येदरगुन्ता के पायंगार सबसे ज्यादा साहसी साबित हुए। इनके साथ चरगुल्ला के पायंगार आ मिले जो कृष्णगिरि किले में विद्रोह के अपराध में कैद थे। जेल से भाग कर चरगुल्ला के पायंगार ने येदरगुन्ता के आदमियों को लेकर पेड्डानाइडी दुर्ग पर कब्जा कर लिया। मनीपेनी अपनी सेना और मैसूर से आयी नयी सेना लेकर चढ़ आया। विद्रोहियों ने बहादुरी के साथ मुकाबला किया, लेकिन हार कर हटना पड़ा। दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। 8 फरवरी 1805 तक विद्रोह पूरी तरह दब गया। पकाला, मोगराला, पुल्लूर और येदरगुन्ता की जागीरें जब्त कर ली गयीं।
पायंगारों का यह विद्रोह दक्षिण भारत का अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे बड़ा सशस्त्र विद्रोह था। अगर 1857 का महाविद्रोह और पायंगार विद्रोह एक साथ होते तो भारत से अंग्रेजों की हुकूमत कभी उखाड़ फेंकी गयी होती।