बैलूर का सिपाही विद्रोह, 1806
दक्षिण भारत के किलेदारों (पायंगारों) के विद्रोह (1801-05) के बारे में लिखते समय हमने यह उल्लिखित किया है कि इसकी तुलना उत्तर भारत के 1857 के विद्रोह के साथ की जा सकती है, लेकिन यह कम्पनी की सेना के सिपाहियों का विद्रोह न था। पायंगार और उनके सिपाही देशी राजाओं और नवाबों के अधीन थे। इन राजाओं और नवाबों के अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर लेने पर भी उन्होंने अपने किले इन नये मालिकों को देने से इनकार कर दिया था। भयंकर युद्ध कर इन किलेदारों और उनके साथी सैनिकों ने कम्पनी सरकार के दाँत खट्टे कर दिये थे। दक्षिण में कम्पनी के सिपाहियों का विद्रोह तो दरअसल 1806 ई0 में हुआ, जिसमें सबसे प्रमुख बेलोर का विद्रोह था।लेकिन इस विद्रोह के बारे में कुछ कहने के पहले कम्पनी की देशी सेना के इतिहास और 1806 के पहले हुए सिपाही विद्रोहों पर जरा नजर डाल ली जाय।
अंग्रेज सौदागरों ने देशी सेना का गठन पहले दक्षिण भारत में किया, जब उस पर अधिकार के लिए फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के बीच लड़ाई चल रही थी। उत्तर भारत में सबसे पहले कम्पनी की देशी सेना 1757 ई0 में पलासी युद्ध के समय बनी। इतिहास प्रसिद्ध बंगाल आर्मी की यही शुरुआत थी’ जिसने 1857 के राष्ट्रीय महाविद्रोह में प्रधान भूमिका ग्रहण की थी।
इस बंगाल आर्मी को बने सात ही साल हुए थे कि उसमें पहला विद्रोह देखा गया। इस विद्रोह को आरंभ करने वाले इस सेना के गोरे सैनिक थे। अपने वादे के मुताबिक मीरजाफर ने बंगाल आर्मी को मोटा अनुदान दिया था, लेकिन वह रास्ते में ही रुक गया था। गोरे सिपाहियों ने विद्रोह कर कम्पनी को यह रकम सैनिकों में बांटने को बाध्य किया। देशी सिपाहियों ने देखा कि अगर वे चुप रहते हैं तो उन्हें इस रकम से एक फूटी कौड़ी भी न दी जायगी इसलिए उन्होंने अब विद्रोह किया और अपने हिस्से की माँग की। अन्ततः कम्पनी सरकार को झुकना पड़ा। हर गोरे सिपाही को 40-40 रुपए और हर हिन्दुस्तानी सिपाही को 6-6 रुपए दिये गये। बाद में हिन्दुस्तानी सिपाहियों का हिस्सा बढ़ाकर 20-20 रुपया कर दिया गया। एक ही युद्ध में समान-समान हिस्सा लेने पर भी हिन्दुस्तानी सिपाहियों को गोरे सिपाहियों का आधा या उससे कम दिया जाना सूचित करता है कि किस तरह कम्पनी सरकार गोरे सिपाहियों और देशी सिपाहियों के बीच भेदभाव बरतती थी।
इस मामले के हल हो जाने के बावजूद विद्रोह की भावना दबी नहीं। उसी साल 1761 के ही अन्त में बंगाल आर्मी की कुछ पलटनों ने बगावत की। एक बटालियन ने अपने अंग्रेज अफसरों को घेर कर कैद कर लिया और शपथ ली कि अब कम्पनी की नौकरी नही करेंगे।
इस बार कम्पनी सरकार ने बड़ी सख्ती से काम लिया। 24 सिपाहियों पर छपरा में फौजी अदालत में मामला चला। उन पर बगावत और फौज छोड़कर चल जाने के अभियोग थे उन्हें तोप के मुँह से बाँध कर उड़ा देने का मृत्युदण्ड दिया गया। निश्चित दिन गोरी और देशी पलटनें परेड के मैदान में मृत्युदण्ड का दृश्य देखने को जमा की गयीं। बंगाल आर्मी के प्रधान मेजर हेक्टर-मुनरो के हुक्म से मृत्युदण्ड प्राप्त सिपाहियों में से चार तोपों के मुँह से बाँधे गये लेकिन तभी चार लंबे-चौड़े बहादुर प्राप्त सिपाहियों की कतार से आगे आये और अनुरोध किया कि जैसे सेना में उनका पद सबसे ज्यादा सम्माननीय रहा है, वैसे ही मृत्यु के वक्त भी उन्हें पहला स्थान दिया जाय; पहले उन्हें तोप से उड़ाया जाय। उनका अनुरोध स्वीकार किया गया और पहले उन्हें मृत्युदण्ड दिया गया लेकिन उनके उड़ाये जाते ही देशी सिपाहियों के तेवर बदल गये। उस वक्त छपरा में गोरे सैनिकों से कहीं ज्यादा हिन्दुस्तानी सैनिक थे। लगने लगा कि देशी सिपाही हमला बोल देंगे और अपने साथियों को छुड़ा लेंगे। अंग्रेज अफसरों ने देशी सिपाहियों का यह रुख देखा तो दौड़े-दौड़े सामने की कतार में पहुँचे और मुनरो को सूचित किया कि देशी सिपाहियों का विश्वास नहीं किया जा सकता। हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने निश्चय कर लिया है कि वे अन्य सिपाहियों को मृत्युदण्ड देने न देंगे।
यह सुनते ही मुनरो ने फौरन कदम उठाये। उसने गोरे सैनिकों को तोपखाने के इर्दगिर्द जमा किया, उनकी बन्दूकों और तोपों में गोली-गोले भरवा दिये। इस तैयारी के बाद उसने हिन्दुस्तानी सैनिकों को हथियार डालने और पीछे हटने का हुक्म दिया। तोपों और गोरों की बन्दूकों को अपनी तरफ तना देख सिपाहियों ने इस आज्ञा का पालन किया। मुनरो के हुक्म से अंग्रेज सैनिक देशी पलटनों और जमीन में पड़े उनके हथियारों के बीच आ खड़े हुए। इस तरह देशी सिपाहियों से हथियार छीनकर दण्ड प्राप्त 16 और सिपाहियों को तोप से उड़ाया गया।
चार को बचा रखा गया ताकि अन्य छावनी में ले जाकर उन्हें तोप से उड़ाया जाय और इस तरह हिन्दुस्तानी सिपाहियों के अन्दर आतंक पैदा किया जाय। प्रायः उसी समय बैरकपुर कलकत्ता की छावनी में छह हिन्दुस्तानी सिपाहियों पर फौजी अदालत में मुकदमा चला और उन्हें भी तोप से उड़ा दिया गया।
इस घटना के बाद कई साल तक देशी पलटनों के विद्रोह के प्रमाण नहीं मिलते। 1766 में बंगाल आर्मी में फिर बगावत हुई थी, लेकिन वह भत्ता बन्द किये जाने के खिलाफ यूरोपीय अफसरों का विद्रोह था। कम्पनी सरकार ने गोरे अफसरों का यह विद्रोह देशी सिपाहियों के बल से दबा दिया था। इस घटना के बाद से क्लाइव और कम्पनी सरकार के अन्य अधिकारियों की नजर में देशी पलटनों का महत्व बढ़ गया था। अपनी गरज के लिए वे इन पलटनों की बड़ी खातिर करने लगे ।
किन्तु 19वीं सदी के आरंभ तक हालत बदल गयी। कम्पनी सरकार ने अब जैसा बर्ताव करना आरंभ किया, उससे हिन्दुस्तानी पलटनों का असन्तोष खासकर दक्षिण भारत में बढ़ गया। रात में उनकी सभाएँ होने लगीं इनमें वे अपनी शिकायतों के प्रतिकार के उपायों पर विचार करने लगे।
इन सिपाहियों की शिकायतें क्या थीं ? उनकी शिकायतें थीं कि उन्हें तरक्की ज्यादा से ज्यादा सूबेदार के पद तक ही दी जाती, आगे नहीं। ऊँचे पदों पर सब गोरे नियुक्त किये जाते। देशी अफसरों को क्रमशः ऊँचे पदों से हटाया जा रहा था। हर हिन्दुस्तानी सैनिक अपने से ऊँचे ओहदे के गोरे सैनिक को सलाम करता, लेकिन गोरे सैनिक हिन्दुस्तानी अफसरों को भी सलाम न करते। एक अंग्रेज सार्जेन्ट भी बड़े से बड़े हिन्दुस्तानी अफसर पर हुक्म चलाता। परेड में अंग्रेज अफसर गलतियाँ करते, गलत हुक्म देते, लेकिन वे अपनी गलती स्वीकार न कर सारा दोष हिन्दुस्तानी सिपाहियों के मत्थे मढ़ देते और उन्हें गालियाँ देते। फौज में नौकरी करते-करते जिन देशी अफसरों के बाल सफेद हो गये थे, अंग्रेज छोकड़े उन्हें भी खुलेआम गाली देते।
इन देशी सिपाहियों को दूर-दूर तक लड़ने के लिए ले जाया जाता। वहाँ वे मारे जाते, लेकिन उनके बाल-बच्चों की परवरिश का कोई इन्तजाम न होता। अनाथ होकर उन्हें भीख माँगने तक को बाध्य होना पड़ता। जब वे किसी देशी राजा या नवाब के यहाँ नौकरी करते थे, तो बहादुरी के लिए उन्हें इनाम और जागीर दी जाती थी, लेकिन कम्पनी की सरकार उन्हें केवल मीठी बातें देती थी। अंग्रेजों की रखैलों को भी देशी अफसरों से ज्यादा और उनके घसियारों को देशी सिपाहियों से ज्यादा वेतन मिलता। किसी भी लड़ाई लूट का माल अंग्रेजों का होता। अंग्रेज अफसर देश की सबसे सुन्दर औरतें अपने जनानखाने में लाकर रख सकते थे, लेकिन देशी अफसर गुलाम लड़कियों की तरफ भी नजर उठाकर देखने की हिम्मत न करते। इसके बाद घायलों के प्रति अंग्रेज अधिकारियों का व्यवहार था। सिपाहियों में जोर-शोर से प्रचार था कि जनरल आर्थर वेलेजली ने हुक्म दिया है कि घायल देशी सिपाहियों को गोली मारकर खत्म कर दो, उन्हें नाहक का बोझ मत बनाओ।
सिपाहियों की इन शिकायतों के बीच वर्दी, हजामत आदि के बारे में फौज में नये हुक्म जारी हुए थे। हुक्म हुआ था कि परेड आदि के समय कोई भी सिपाही अपने माथे पर तिलक नहीं लगा सकता, कान में आभूषण नहीं पहन सकता। उसे खास किस्म की हजामत करानी होगी और खास किस्म की वर्दी पहननी होगी। इनसे हिन्दुस्तानी सिपाहियों में विश्वास फैला कि अंग्रेज सभी को ईसाई बनाने पर तुले हैं, उनका धर्म नष्ट कर देना चाहते हैं। इन सबके कारण विभिन्न धर्मों और जातियों के हिन्दुस्तानी सिपाही अंग्रेज शासकों के खिलाफ एक मोर्चे पर आ खड़े हुए। अंग्रेज इतिहासकार के ;ज्ञम्ल्द्ध ने लिखा - सामान्य खतरे की भावना से विचलित और सामान्य आशा से प्रेरित होकर विभिन्न जातियाँ अपने मतभेद भूल गयीं और सामान्य शत्रु के विरुद्ध ऐक्यबद्ध हो गयीं।“ इन असन्तुष्ट देशी सिपाहियों ने सारे दक्षिण भारत की छावनियों में अपने को संगठित करना आरंभ किया। रात की सभाओं के अलावा दीवारों पर पोस्टर लगाये जाते, फकीर. कठपुतलियों का नाच दिखाने वाले छावनियों में जा-जाकर सिपाहियों को अंग्रेजों के खिलाफ भड़काते। इतिहासकार के शब्दों में - अदृश्य हाथ विभिन्न पत्र लिखकर गिरा देते और दीवारों पर विभिन्न पोस्टर चिपकाये जाते। कर्नाटक और दक्खिन की सभी छावनियों में बेचैनी फैली हुई थी कि कुछ होने जा रहा है। बहुत से लक्षण बता रहे थे कि आक्रमण का अवसर आ गया है ... ।’
उस समय टीप सुल्तान का परिवार बेलोर के किले में नजरबन्द था। उनके शाहजादे सिपाहियों के इस असन्तोष को बढ़ाने और उन्हें अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा करने की पूरी चेष्टा कर रहे थे। सिपाहियों को भी एक लक्ष्य और एक नेता की आवश्यकता थी, टीपू का परिवार उन्हें नेता के रूप में दीख पड़ने लगा। बेलोर के देशी सिपाहियों ने कम्पनी सरकार को खत्म कर हैदर अली और टीपू के वंश का राज्य स्थापित करना अपना लक्ष्य निर्धारित किया।
7 मई 1806 ई0 को बेलोर की एक बटालियन खुली बगावत कर बैठी। अवश्य ही हथियारों के इस्तेमाल की नौबत न आयी। इसलिए अंग्रेज अधिकारियों ने उस बटालियन को बेलोर से हटाकर मद्रास भेज दिया और फौजी अदालत ने उसके दो नेताओं को बेंत मारने की सजा दी। देखने में बगावत दब गयी, लेकिन विद्रोह की आग पुरजोर अन्दर ही अन्दर सुलगती रही और यह आग सिर्फ बेलोर के किले तक ही सीमित न थी। इतिहासकार के ने इस सम्बन्ध में लिखा है - ‘‘और न यह केवल स्थानीय महामारी थी। कर्नाटक की अन्य छावनियों में भी इसी तरह की सरगरमी फैली हुई थी। लाइनों में आधी रात को सभाएँ होतीं। बातों को गुप्त रखने की सौगन्ध सिपाहियों से ली जाती। धमकी दी जाती कि जो भी उनके साथ गद्दारी करने की हिम्मत करेगा, उससे भयंकर से भयंकर प्रतिशोध लिया जायगा। देशी अफसर नेतृत्व करते, सिपाही उनका अनुकरण करते।’
जो छोटे-छोटे अंग्रेज अफसर सिपाहियों की लाइनों के पास रहते, क्या वे इस असन्तोष की बात न जानते थे ? अधिकांश न जानते थे, लेकिन जो जानते थे, वे चुप रहना ही उचित समझते थे। उच्च अधिकारी सेना में किसी तरह के असन्तोष या खतरे की बात पर विश्वास करने को तैयार न थे। अगर ये अफसर वास्तविकता की सूचना उच्च अधिकारियों को देते, तो उल्टे अपनी ही फजीहत का उन्हें डर था।
बेलोर में देशी सेना का विद्रोह 10 जुलाई, 1806 को आरंभ हुआ। कहा जाता है कि विद्रोह की तारीख 14 जुलाई निश्चित की गयी थी और उसी के अनुसार तैयारी की जा रही थी। आशा की जाती थी कि उस तारीख तक बेलोर में हैदरअली और टीपू सुल्तान के राजवंश के समर्थक 14,000 आदमी इकट्ठा हो जायेंगे। लेकिन एक जमादार ने नशे से ज्यादा जोश में आकर विद्रोह निश्चित तिथि के पहले ही आरंभ कर दिया। किलेदारों को जो पत्र लिखकर रखे गये थे, वे अभी भेजे ही न गये थे।
10 जुलाई को आधी रात के दो घंटे बाद विद्रोह शुरू हुआ। सन्तरियों को गोली मार दी गयी। सदर फाटक के पहरेदार मौत के घाट उतार दिये गये। अंग्रेजों को खोज-खोजकर मारा जाने लगा। गोलियों की आवाज सुनकर अंग्रेज अफसर नींद से हड़बड़ा कर उठे। बाहर निकल कर ज्योंही उन्होंने गोलमाल का कारण जानना चाहा, किसी देशी सिपाही की गोली उन्हें आ लगी और वे वहीं ढेर हो गये। सबसे पहले मारे जाने वाले इस किले में तैनात सेना के दो बड़े अफसर थे। इसी तरह बेलोर का सेनाध्यक्ष फैनकोर्ट मारा गया।
बेलोर दुर्ग में नजरबन्द टीपू के बेटों ने विद्रोहियों को हर तरह मदद देने की कोशिश की। अंग्रेज अधिकारियों के कथनानुसार खुद शाहजादा मोजिउद्दीन ने विद्रोह के नेताओं को उत्साहित किया, अपने हाथ से उन्हें पान दिया। खुद उन्होंने घोषणा की कि अगर विद्रोह सफल हो गया और उनका वंश राजगद्दी पर बैठा, तो विद्रोही नेताओं को उचित पुरस्कार दिया जायगा। उन्हीं के निवास स्थान से एक विश्वासी भृत्य टीपू का झण्डा ले आया जिस पर बाघ का चिह्न था। मैसूर का यह झण्डा नारों के बीच वेलोर के किले के अन्दर महल की दीवार पर फहरा दिया गया।
इस विद्रोह में 14 अंग्रेज अफसर और 90 गोरे सैनिक मारे गये और कितने ही अफसर तथा सैनिक घायल हुए लेकिन अवसरवश उस दिन कोट्स नामक एक अंग्रेज अफसर की ड्यूटी किले के बाहर थी। विद्रोह का समाचार पाते ही वह थोड़ी रात रहे भागकर चन्द मील की दूरी पर स्थित अर्काट पहुँचा और वहाँ के सेनाध्यक्ष कर्नल गिलेस्पी को इसकी सूचना दी। 7 बजे सबेरे उसे समाचार मिला और 15 मिनट के अन्दर ब्रिटिश ड्रैगन का एक दस्ता लेकर वह तेजी से बेलोर की तरफ चला। बाकी ब्रिटिश सेना को जल्दी तैयार होकर आने का आदेश दिया।
किले के अन्दर और बाहर दोनों तरफ से ब्रिटिश सेना ने विद्रोहियों पर हमला किया। किले में घिरे ब्रिटिशोें को बाहर से इतनी जल्दी मदद मिल जायगी, इसकी उम्मीद विद्रोहियों ने न की थी। दुतरफे हमले से उनकी पराजय हुई। इसके बाद ब्रिटिश सैनिकों ने देशी सिपाहियों का कत्लेआम शुरू किया। इसमें कितने सिपाही मारे गये, यह इतिहास के पन्नों में छिपा है।
ब्रिटिश सैनिक टीपू के वंश को भी मौत के घाट उतार देना चाहते थे, लेकिन उनकी देखरेख के लिए नियुक्त अंग्रेज अधिकारी कर्नल मैरियट के बड़े अनुरोध पर उन्हें छोड़ दिया गया। इस विद्रोह के बाद मैसूर में कहीं भी उनका रहना खतरनाक समझा गया इसलिए कलकत्ता ले जाकर उन्हें नजरबन्द किया गया।
विद्रोह की तैयारी दूसरी छावनी में भी हुई थी। सहायता संधि के अन्तर्गत कम्पनी की सेना निजाम के हैदराबाद में रहती थी। निजाम और उसके मंत्री कम्पनी सरकार के प्रति बड़े वफादार थे, देश के प्रति वफादारी से उन्हें कोई वास्ता न था लेकिन कम्पनी की सेना के देशी सिपाही विद्रोह की तैयारी चुप ही चुप कर रहे थे। 22 जुलाई, 1806 को उनमें बड़ा असन्तोष देखा गया। अंग्रेज अधिकारी उन पर कड़ी नजर रखने लगे। 14 अगस्त को देशी पल्टन के चार सूबेदारों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें मसुलीपट्टम भेज दिया गया। अंग्रेज अधिकारियों की इस कार्रवाई से बाकी विद्रोहियों ने फिलहाल चुप रहना ही उचित समझा।
मैसूर का नन्दी दुर्ग सैनिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था। अपनी स्थिति के कारण यह विद्रोहियों का सदर दफ्तर बनने के योग्य था। लेकिन इसमें देशी सेना बहुत कम थी। फिर भी यहाँ विद्रोह की योजना बनी। 18 अक्तूबर 1806 को आधी रात के दो घण्टे पहले विद्रोह आरंभ करने का फैसला हुआ। लेकिन अंग्रेज अधिकारियों को इसका समाचार रात के 8 बजे मिल गया। उन्होंने फौरन विद्रोह रोकने की कार्रवाई की। फलतः कोई विद्रोह न हो सका।
नवम्बर 1806 में पल्लमकोट्टा की छावनी में विद्रोह की चेष्टा की गयी। लेकिन यहाँ भी अधिकारियों को पहले ही सूचना मिल गयी। उन्होंने तुरन्त देशी सेना के 13 अफसर गिरफ्तार कर लिए और 500 मुसलमान सिपाहियों को किले के बाहर निकाल दिया।“ इस तरह यहाँ भी विद्रोह न किया जा सका।
दक्षिण में सिपाहियों का यह विद्रोह सुनिश्चित तौर से अंग्रेजों की हुकूमत को खत्म कर देशी हुकूमत कायम करने का प्रयास था। अवश्य ही वह अवधि और व्यापकता दोनों दृष्टियों से बड़ा आकार धारण न कर सका। लेकिन मार्के की बात है कि जिन कारणों से दक्खिन में सिपाहियों के असन्तोष की आग भड़की थी, उन्हीं कारणों ने लगभग पचास साल बाद विद्रोह की वह आग लगायी कि अधिकांश उत्तर भारत में अंग्रेजी हुकूमत का नामनिशान कितने ही महीनों के लिए मिट गया।