window.location = "http://www.yoururl.com"; The Vaishesik Philosophy | वैशेषिक दर्शन

The Vaishesik Philosophy | वैशेषिक दर्शन

 


विषय-प्रवेश :

भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों को आस्तिक और नास्तिक वर्गो में विभाजित किया गया है। वैशेषिक दर्शन भारतीय विचारधारा में आस्तिक दर्शन कहा जाता है, क्योंकि वह अन्य आस्तिक दर्शनों की तरह वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करता है। इस दर्शन के प्रणेता कणाद् को माना जाता है। उनके विषय में कहा जाता है कि वे अन्न कणों को खेत मे चुनकर अपने जीवन का निर्वाह किया करते थे इसीलिए उनका नाम कणाद् पडा-ऐसा विद्वानों के द्वारा बताया जाता है। कणाद् का असल नाम ’उलूक‘ था इसी कारण वैशेषिक दर्शन को कणाद् अथवा’ औलूक्य’ दर्शन की भी संज्ञा दी जाती है।

वैशेषिक दर्शन को वैशेषिक दर्शन कहलाने का कारण यह बतलाया जाता है कि इस दर्शन में विशेष नामक पदार्थ की व्याख्या की गई है। विशेष को मानने का कारण ही वैशेषिक’ को वैशेषिक कहा जाता है।

वैशेषिक दर्शन का विकास 3०० ई0पू0 हुआ माना जाता है। वैशेषिक के ज्ञान का आधार वैशेषिक-सूत्र कहा जाता है जिसके रचयिता महर्षि कणाद को कहा जाता है। प्रशस्तपाद कृत ’पदार्थ धर्मसंग्रह’ वैशेषिक दर्शन पर एक भाष्य है। श्रीधर इसके अन्य टीकाकार है।

कछ विद्वानों का मत है कि वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन से कहीं अधिक प्राचीन है। उनके ऐसा मानने का कारण यह है कि न्याय-दर्शन में वैशेषिक के तत्त्व-शास्त्र का प्रभाव दीख पड़ता है। यह जानकारी न्याय-सूत्र के अध्ययन से ही प्राप्त हो जाती है। परन्तु वैशेषिक के मूलों में न्याय की ज्ञानमीमांसा का प्रभाव दष्टिगोचर नहीं होता है। इस मत के पोषक प्रो0 गार्वे और डा. राधाकृष्णन कहे जा सकते हैं।

न्याय और वैशेषिक दर्शनों में इतनी अधिक निकटता का सम्बन्ध है कि दोनों को न्याय-वैशेषिक’ का संयुक्त नाम दिया जाता है। भारतीय दर्शनों के इतिहास में इन दोनों दर्शनों को समान-तन्त (Allied System) कहकर इनके सम्बन्ध को स्पष्ट किया जाता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन को समान-तन्त्र कहना प्रमाणसंगत प्रतीत होता है। दोनों दर्शन एक दूसरे पर निर्भर हैं। एक के अभाव में दूसरे की व्याख्या करना संभव नहीं है।

न्याय और वैशेषिक को समान तन्त्र कहलाने का प्रधान कारण यह है कि दोनों ने मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य कहा है। मोक्ष दुःख-विनाश की अवस्था है। मोक्ष की अवस्था में आनन्द का अभाव रहता है। दोनों ने माना है कि बन्धन का कारण अज्ञान है। अतः तत्व-जान के द्वारा मोक्ष को अपनाया जा सकता है। इस सामान्य लक्ष्य को मानने के कारण दोनों दर्शनों में परतंत्रता का सम्बन्ध है। न्याय दर्शन का मूल उद्देश्य प्रमाण शास्त्र और तर्कशास्त्र का प्रतिपादन करना है। प्रमाण साख और तर्कशास्त्र के क्षेत्र में न्याय का योगदान अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक दर्शन का उद्देश्य इसके विपरीत तत्वशास्त्र का प्रतिपादन कहा जा सकता है। न्याय दर्शन, जहाँ तक तत्वशास्त्र का सम्बन्ध है, वैशेषिक के तत्त्वशास्त्र को शिरोधार्य करता है । इसके विपरीत वैशेषिक दर्शन न्याय के प्रमाण शास्त से पूर्णतः प्रभावित है। यद्यपि दोनों दर्शनों के प्रमाण शास्त्र में यह कहकर अन्तर बतलाया जाता है कि न्याय चार प्रमाण-प्रत्यक्ष अनुमान, शब्द और उपमान को अपनाता है जबकि वैशेषिक दो ही प्रमाण-प्रत्यक्ष और अनुमान को मानता है, परन्तु सच पूछा जाय तो कहना पड़ेगा कि वैशेषिक शब्द और उपमान की सत्यता स्वीकार करता है। दोनों के प्रमाण-शास्त्र में अन्तर केवल दृष्टिकोण का बतलाया जा सकता है। न्याय उपमान और शब्द को स्वतंत्र प्रमाण मानता है जबकि वैशेषिक उपमान और शब्द को प्रत्यक्ष और अनुमान में समाविष्ट मानता है। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि दोनों दर्शन प्रमाण-शास्त्र और तर्क-शास्त्र को लेकर एक-दूसरे के ऋणी हैं।।

न्याय दर्शन में ईश्वर के स्वरुप की व्याख्या पूर्ण रूप से हुई है। ईश्वर को प्रस्थापित करने के लिए न्याय ने प्रमाण का प्रयोग किया है। वैशेषिक दर्शन न्याय के ईश्वर-सम्बन्धी विचारों को ग्रहण करता है। ईश्वर को सिद्ध करने के लिए न्याय में जितने प्रमाण दिये गये हैं उन सबों की मान्यता वैशेषिक में है। न्याय की तरह वैशेषिक ने भी ईश्वर को विश्व का व्ययस्थापक तथा अदृष्ट का संचालक माना है। अतः न्याय की तरह वैशेषिक भी ईश्वरपाद का समर्थक है । जहाँ तक ईश्वर-शास्त्र (Theology) का सम्बन्ध है, दोनों दर्शन एक-दूसरे पर आधारित हैं।

वैशेषिक दर्शन विश्व की सृष्टि के लिए सृष्टिवाद (Theory of Creation) को मानता है। वैशेषिक के सष्टिवाद को परमाणु सृष्टिवाद (Atomic theory of Creation) कहा जाता है, क्योंकि वह विश्व का निर्माण चार प्रकार के परमाणुओं से, यथा-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि-निर्मित मानता है। इन परमाणुओं के अतिरिक्त सृष्टि में ईश्वर का भी हाथ माना गया है। अतः वैशेषिक का सृष्टिवाद नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर बल देता है। न्याय-दर्शन में सृष्टिवाद की व्याख्या अलग नहीं हुई है। वैशेषिक के सष्टिवाद को न्याय-दर्शन में भी प्रामाणिकता मिली है । वैशेषिक की तरह न्याय भी विश्व का निर्माण चार प्रकार के परमाणुओं का योगफल मानता है । निर्माण के क्षेत्र में ईश्वर और नैतिक नियम को मानकर न्याय भी अध्यात्मवाद का परिचय देता है। अतः जहाँ तक सृष्टिवाद का सम्बन्य है दोनों दर्शन एक-दूसरे पर आधारित हैं। वैशेषिक दर्शन में आत्मा की चर्चा पूर्ण रुप से नहीं हुई है। इसका कारण यह है कि न्याय का आत्मविचार वैशेषिक को पूर्णतः मान्य है। न्याय की तरह वैशेषिक ने भी आत्मा को स्वभावतः अचेतन कहा है । चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक धर्म माना गया है। इस प्रकार जहाँ तक आत्मा का सम्बन्ध है, दोनों दर्शनों को एक-दूसरे पर परतन्त्र रहना पड़ता है। न्याय दर्शन में मनस् की व्याख्या अलग नहीं हुई है। वैशेषिक के मन-सम्बन्धी विचार को न्याय भी स्वीकार करता है। दोनों ने मन को परमाणु युक्त माना है। इस प्रकार मन को लेकर भी दोनों दर्शन एक-दूसरे पर आश्रित हैं। न्याय-दर्शन में कार्य-कारण सिद्धान्त के रूप में असत्-कार्यवाद को माना गया है। असत् कार्यवाद को प्रमाणित करने के लिए न्याय ने भिन्न-भिन्न तर्कों का सहारा लिया है। असत्-कार्यवाद उस सिद्धान्त को कहा जाता है जो उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता कारण में अस्वीकार करता है। वैशेषिक दर्शन में कार्य-कारणं सिद्धान्त की व्याख्या अलग नहीं की गई है। न्याय के कार्य-कारण सिद्धान्त को वैशेषिक ने पूरी मान्यता दी है। यही कारण है कि दोनों असत्-कार्यवाद के समर्थक हैं। अतः जहाँ तक कार्य-कारण सिद्धान्त का सम्बन्ध है, दोनों दर्शन एक-दूसरे पर आधारित हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि न्याय और वैशेषिक-दर्शन एक-दूसरे का ऋण स्वीकार करते हैं। न्याय की व्याख्या वैशेषिक के बिना अधूरी है और वैशेषिक की व्याख्या भी न्याय के बिना अधूरी है। दोनों दर्शन मिलकर ही एक सम्पूर्ण दर्शन का निरुपण करते हैं। सचमुच न्याय और वैशेषिक एक ही दर्शन के दो अवियोज्य अंग हैं । अतः दोनों दर्शनों को समान-तन्त्र कहना पूर्णतः संगत है।

वैशेषिक-दर्शन पर एक विहंगम दृष्टि डालने से पता लगता है कि वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की मीमांसा हुई है। ‘पदार्थ’ शब्द दो शब्दों के मेल से बना है और वे दो शब्द हैं ’पद’ और ’अर्थ’। पदार्थ का अर्थ है जिसका नामकरण हो सके अर्थात जिस पद का कछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है। पदार्थ के अन्दर वैशेषिक ने विश्व को वास्तविक वस्तुओं की चर्चा की है।

वैशेषिक-दर्शन में पदार्थ का विभाजन दो वर्गों में हुआ है- (1) भाव पदार्थ, (2) अभाव पदार्थ।

भाव पदार्थ छः हैं –

(1) द्रव्य (Substance) (2) गुण (Substance) (3) कर्म (Action) (4) सामान्य (Generality) (5) विशेष (Particularity) (6) समवाय (Inherence)

द्रव्य – द्रव्य से तात्पर्य उस आधार से है जहाँ गुण और कर्म निवास करते है। यह अपने कार्यो का समवायी कारण (Inherent Cause) भी होता है। जैसे वस्त्र का समवामी कारण सूत होता है क्योकि वस्त्र उसी से निर्मित होता है तथा उसी में निर्माण के पूर्व निहित रहता है। कोई भी गुण अथवा कार्य बिना आधार के नही रह सकते। उनका कोई न कोई आधार अवश्यमेव होना चाहिये। यही आधार द्रव्य है। वैशेषिक द्रव्य के नौ प्रकार मानते है- पृथ्वी, जल, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मन। इनमे प्रथम पाँच अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ’भूत’ (Elements) है जिनमें कोई न कोई विशेष गुण मिलता है। इनके गुण क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द है। इन गुणो की प्रत्यक्ष अनुभूति बाह्य इन्द्रियों के द्वारा होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि तथा वायु परमाणुओ से बनते है। इनके परमाणु नित्य है किन्तु उनसे जिन कार्य द्रव्यों की रचना होती है वे अनित्य है। किसी वस्तु के उस सुक्ष्मतम कण को परमाणु कहा जाता है जिसका और आगे विभाजन न हो सके। परमाण अनादि तथा अनन्त होते है। इनका अस्तित्व अनुमान द्वारा ही सिद्ध होता है। आकाश, दिक् तथा काल अप्रत्यक्ष द्रव्य है जो एक, नित्य और सर्वव्यापी है। इनका ज्ञान इन्द्रियों द्वारा नही हो सकता। आत्मा नित्य तथा सर्वव्यापी द्रव्य है और यह सभी चैतन्य वस्तुओ का आधार है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं है, यह आत्मा से अभिन्न भी नहीं है, अपितु चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना जाता है जो मन के सान्निध्य से उसमें उत्पन्न होता है। आत्माये अनेक है। मन एक अन्तरिन्द्रिय है। यह नित्य है किन्तु सर्वव्यापी (विभु) नहीं है। इसी के द्वारा आत्मा वस्तओ के साथ सम्पर्क स्थापित करता है। यह अगोचर अणु द्रव्य है। इससे एक समय में एक ही विषय की अनुभूति हो सकती है क्योंकि यह परमाणु के समान अत्यन्त छोटा होता है। प्रत्येक आत्मा ’मे एक मन होता है। मन ज्ञान का आन्तरिक साधन है जिसके द्वारा आत्मा विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है।

गुण- जो पदार्थ द्रव्य में निवास करता है उसे ’गुण’ कहा जाता है। इसका अस्तित्व द्रव्य पर ही निर्भर करता है। गुण में स्वयं कोई गुण या कर्म नहीं रह सकता, यह किसी वस्तु को उत्पन्न नहीं कर सकता तथा यह किसी के संयोग तथा विच्छेद का कारण भी नहीं बन सकता। वैशेषिक मत चौबीस गुणो को मान्यता प्रदान करता है-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिणाम, पृथकत्व, संयोग विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयल, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म और अधर्म। इसमें सभी का धार्मिक महत्व नहीं है। इनमें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही गुण है।

कर्म- गुण के समान कर्म का आधार भी द्रव्य है। कर्म द्रव्य से अलग नही रह सकते किन्तु गुण के विपरीत कर्म द्रव्य का सक्रिय स्वरूप् होता है। यही द्रव्यों के संयोग तथा विच्छेद का कारण है। कर्म गत्यात्मक होता है। कर्म के पॉच विभेद है –

उत्क्षेपण (उपर जाना), अवक्षेपण (नीचे जाना), आकुंचन (संकुचित होना), प्रसारण (फैलाव) तथा गमन (चलना)।

सामान्य- किसी वर्ग के समान लक्षणों को सामान्य कहा जाता है। सामान्य नित्य होता है। विभिन्न व्यक्तियों में कुछ ऐसे सामान्य लक्षण है जिनसे वे ‘मनुष्य‘ कहे जाते है। इसी प्रकार विभिन्न गायों में कुछ सामान्य लक्षण है जिनसे वे ‘गाय’ कही जाती है। यही मनुष्यत्व तथा गोत्व पर सामान्य लक्षण है जो विभिन्न व्यक्तियो तथा गायो में अनुगत है। सामान्य विषयक वैशेषिक मत वस्तुवादी है। यह सामान्य को नित्य पदार्थ मानता है। किसी व्यक्ति विशेष अथवा पशु विशेष के मृत होने से सामान्य का विनाश नही होता है।

विशेष- यह सामान्य के विपरीत पदार्थ है। प्रत्येक मनुष्य अथवा वस्तु में कुछ .विशिष्ट लक्षण या गुण विद्यमान रहते है जिसके आधार पर वे एक दूसरे से अलग समझी जाती है। विशेष के कारण ही एक आत्मा दूसरे आत्मा से, एक परमाणु दूसरे परमाणु से भिन्न समझा जाता है। परमाणु, आत्मा, दिक् काल, मन आदि सभी के अपने-अपने विशेष धर्म होते है। वैशेषिक इस पदार्थ पर विशेष बल देते है तथा इसकी विस्तृत व्याख्या करते है। इसी कारण उनका मत इस नाम से जाना गया है।

’विशेष’ की कल्पना नित्य द्रव्यों में विभेद स्थापित करने के उद्देश्य से की गयी है। अनित्य द्रव्यो के ज्ञान तथा उसमे विभेद के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है क्योकि वे तो अपने सामान्य लक्षणो से ही अलग किये जा सकते है। दिक्, काल, आकाश, मन, आत्मा तथा चार भूतों के परमाणु मे ही विशेष तत्व प्राप्त होता है। नित्य द्रव्यो मे रहने के कारण विशेष भी नित्य है।

समवाय- वस्तुओं के नित्य, स्थायी तथा अविच्छिन सम्बन्ध को समवाय कहा जाता है। इस प्रकार का सम्बन्ध कार्य-कारण, द्रव्य-गुण या कर्म आदि में दिखाई पड़ता है। यह क्षणिक सम्बन्ध नहीं है जिसे सयोग कहा जाता है। संयोग में दो पृथक् वस्तुयें कुछ समय के लिये मिल जाती है जैसे नाव का नदी के पानी के साथ सम्बन्ध हो जाता है। इसे दो वस्तुओ के मिलन पर उत्पन्न सम्बन्ध कहते है। किन्तु समवाय सम्बन्ध निरन्तर एवं स्थायी होता है, जैसे गुण या कर्म सदा द्रव्य में विद्यमान रहते है, जब तक फूल रहता है तब तक रंग उसमें बना रहता है, सामान्य व्यक्तियों में तथा विशेष नित्य द्रव्यों में सदा बना रहता है। वस्त्र अपने धागों में सदा विद्यमान है। इस प्रकार के स्थायी सम्बन्ध को वैशेषिक ‘समवाय‘ कहते है।

समवाय सम्बन्ध द्वारा युक्त वस्तुएॅ ‘अयुत सिद्ध‘ होती है अर्थात वे दो के सयोग से सम्बद्ध नही रहती है।

अभाव (Non-Existence) –

अभाव वैशेषिक दर्शन का सातवाँ पदार्थ है। अन्य छः पदार्थ भाव-पदार्थ है, जबकि यह पदार्थ अभावात्मक है। द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय निरपेक्ष पदार्थ है जबकि अभाव पदार्थ सापेक्षता के विचार पर आधारित है। अभाव किसी वस्तु का न होना कहा जाता है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु का किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थिति है। अभाव शून्य से भित्र है। अभाव को शून्य समझना भ्रामक है। प्रो॰ हिरियन्ना ने कहा है - “अभाव से हमें किसी विशेष स्थान और समय में किसी वस्तु की अनुपस्थिति समझनी चाहिये। अभाव का अर्थ शून्य नहीं है जिसे न्याय-वैशेषिक एक विचार शून्य या मिथ्या धारणा कहकर उपेक्षा करता है। (By Abhava, however, we should understand only the negation of something] somewhere and not absolute nothing (Shunya) which the Nyaya-Vaishesika dismisses as unthinkable or as a Pseudoidea)

वैशेषिक-दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद् ने अभाव का उल्लेख नहीं किया है परन्तु वैशेषिक-सूत्र में अभाव को प्रमेय के रुप में माना गया है। प्रशस्तपाद ने वैशेषिक-सुत्र का भाष्य लिखते समय अभाव का विस्तृत वर्णन किया है। इसी कारण बाद में अमाव को भी एक पदार्थ के रूप में जोड़ दिया गया है। अतः अभाव को वैशेषिक-दर्शन का मौलिक पदार्थ नहीं कहा जा सकता है ।

अब प्रश्न यह उठता है कि वैशेषिक ने अभाव को एक स्वतन्त्र पदार्थ क्यों माना ? अमाव को एक स्वतंत्र पदार्थ मानने के निमित्त वैशेषिक-दर्शन में अनेक तर्कों का उल्लेख किया गया है –

(1) अभाव का ज्ञान प्रत्यक्ष से होता है। जब रात्रि के समय आकाश की ओर देखते हैं तब वहाँ सूर्य का अभाव पाते हैं। सूर्य का आकाश में न रहना रात्रि-काल में उतना ही वास्तविक है जितना रात्रि-काल में चन्द्रमा और तारों का रहना। इस प्रकार अभाव की सत्ता को अस्वीकार करना भ्रामक है। इसीलिये वैशेषिक ने अभाव को एक स्वतंत्र पदार्थ माना है।

(2) अभाव को पदार्थ मानना पदार्थ के शाब्दिक अर्थ से भी प्रमाणित है। पदार्थ (पद +अर्थ) उसे कहा जाता है जिसे हम शब्दों के द्वारा व्यक्त कर सकें। अभाव को शब्दों के द्वारा व्यक्त किया जाता है। उदाहरणस्वरुप क्लास में हम हाथी का अभाव पाते हैं। इस अभाव को शब्दों के द्वारा प्रकाशित किया जा सकता है। अतः अभाव को एक अलग पदार्थ मानना संगत है।

(3) अभाव को मानना आवश्यक है। यदि अभाव को नहीं माना जाय तो संसार की सभी वस्तुएं नित्य हो जायेंगी। वस्तुओं का नाश असम्भव हो जायेगा। वैशेषिक-दर्शन अनित्य वस्तुओं की सत्ता में विश्वास करता है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के कार्य-द्रव्य, जो परमाणु के संयुक्त होने से बनते है, अनित्य हैं, ऐसी अनित्य वस्तुओं की व्याख्या के लिए वैशेषिक ने अभाव को अपनाया है। अभाव के बिना परिवर्तन और वस्तुओं की अनित्यता की व्याख्या करना असम्भव है।

(4) वैशेषिक-दर्शन में अभाव को स्वतंत्र पदार्थ माना गया है. क्योकि वैशेषिक बाह्य सम्बन्ध में विश्वास करता है। दो वस्तुओं के बीच सम्बन्ध का विकास होता है उसके पूर्व उन दो वस्तुओं के बीच सम्बन्ध का अभाव रहता है। उदाहरणस्वरूप वृक्ष और पक्षी के संयुक्त होने से एक सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध के होने के पूर्व वृक्ष और पक्षी के बीच सम्बन्ध का अभाव मानना आवश्यक है। जो दार्शनिक बाह्य सम्बन्ध में विश्वास करता है उसे किसी-न-किसी रूप में अभाव को भी मान्यता देनी पड़ती है । डॉ० राधाकृष्णन् ने कहा है – “जब हम किसी वस्तु के सम्बन्ध में विचार करते हैं तब वस्तु के भावात्मक पक्ष पर बल दिया जाता है और जब हम एक सम्बन्ध की बात करते हैं तो वस्तु के अभावात्मक पक्ष पर बल दिया जाता है।“.

(5) वैशेषिक का मोक्ष-सम्बन्धी विचार भी अभाव को प्रामाणिकता प्रदान करता है। मोक्ष का अर्थ दुःखों का पूर्ण अभाव कहा जाता है। मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना जाता है। यदि अभाव को नहीं माना जाय तो वैशेषिक का मोक्ष-विचार काल्पनिक होगा।

अभाव के प्रकार –

अभाव दो प्रकार का माना जाता -(1) संसर्गाभाव (Non-Existence of correlation) (2) अन्योन्याभाव (Mutual Non-existence)। संसर्गाभाव दो वस्तुओं के सम्बन्ध के अभाव को कहा जाता है। जब एक वस्तु का दूसरी वस्तु में अभाव होता है तो उस अभाव को संसर्गाभाव कहा जाता है। इस अभाव का उदाहरण है ’जल में अग्नि का अभाव’, वायु में गन्ध का अभाव’। इस अभाव का विपरीत होगा दो वस्तुओं में संसर्ग का रहना। संसर्गाभाव तीन प्रकार का होता है-(१) प्रागभाव (Prior Non-existence). (2) ध्वंसाभाव (Posterior Non-existence), (3) अत्यन्ताभाव (Absolute Non-existence)

प्रागभाव- उत्पत्ति के पूर्व कार्य का भौतिक कारण में जो अभाव रहता है उसे प्रागभाव कहा जाता है। निर्माण के पूर्व किसी चीज का अभाव रहना प्रागभाव कहा जाता है। एक कुम्हार मिट्टी से घड़े का निर्माण करता है। घड़े के निर्मित होने के पूर्व मिट्टी में घड़े का अभाव रहता है और यही अभाव प्रागभाव है। यह अभाव अनादि है। मिट्टी में कब से घड़े का अभाव है यह बतलाना असम्भव है परन्तु इस अभाव का अन्त सम्भव है। वस्तु के निर्मित हो जाने पर यह अभाव नष्ट हो जाता है। जब घड़े का निर्माण हो जाता है तब इस अभाव का अन्त हो जाता है। इसलिये प्रागभाव को सान्त माना गया है।

ध्वंसाभाव- ध्वंसाभाव का अर्थ है विनाश के बाद किसी चीज का अभाव। घड़े के नष्ट हो जाने के बाद टूटे हुए टुकड़ों में घड़े का जो अभाव है वही ध्वंसाभाव कहलाता है। ध्वंसाभाव सादि (With a begining) है । घड़े का नाश होने के बाद उसका ध्वंसाभाव शुरु होता है परन्तु ध्वंसाभाव का कभी अन्त नहीं हो सकता, क्योंकि जो घड़ा टूट चुका है उसकी उत्पति फिर कभी नहीं होगी। इसीलिए ध्वंसाभाव को सादि और अनन्त कहा गया है।

अत्यन्ताभाव- दो वस्तुओं के सम्बन्ध का अभाव जो भूत, वर्तमान और भविष्य में रहता है, अत्यन्ताभाव कहलाता है। उदाहरणस्वरूप् रूप का वायु में अभाव। रूप का भूतकाल में अभाव था, वर्तमान काल में भी है और भविष्यकाल में भी रहेगा। अत्यन्ताभाव अनादि और अनन्त कहा जाता है।

दूसरे प्रकार के अभाव को ‘अन्योन्याभाव‘ कहा जाता है। अन्योन्याभाव का अर्थ है- दो वस्तुओं की भिन्नता। इस प्रकार जब एक वस्तु का दूसरे वस्तु में भेद बतलाया जाता है तब अन्योन्याभाव का प्रयोग होता है। इस अभाव का उदाहरण होगा ‘घोडा गाय नही है‘‘। इसका विपरित होगा ‘‘घोडा गाय है‘‘। यह अभाव अनादि और अनन्त है। इस प्रकार अभाव का हमारे दैनिक जीवन में अत्यधिक महत्व है।

परमाणुवाद का सिद्धान्त (Theory of Atomism) –

सांख्य योग के समान वैशेषिक सत्कार्यवाद अर्थात ‘कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है‘ के सिद्धान्त को स्वीकार नहीं करता। इसके अनुसार कार्य की उत्पत्ति सर्वथा नवीन होती है तथा यह उत्पत्ति के पूव कारण में विद्यमान नही रहता। संसार के सभी कार्य-द्रव्यों का निर्माण चार प्रकार के परमाणुओं – पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु से होता है। परमाणुओं के संयोग से वस्तुओं की उत्पत्ति तथा उनके विच्छेद से विनाश होता है। किन्तु परमाणुओं का संयोग और विच्छेद स्वतः नहीं होता। वैशेषिक मत के अनुसार परमाणु निष्क्रिय होते है जिन्हे गति प्रदान करने वाली सत्ता ईश्वर की है। वही जीवों के अदृष्ट के अनुसार उन्हे कर्मफल का भोग कराने के निमित्त परमाणुओं की क्रियाओं को प्रवर्तित करता है। ईश्वर की सत्ता स्वीकार करने के कारण वैशेषिक परमाणुवाद आध्यात्मिक है। इसका विधान जगत के अनित्य पदार्थो की व्याख्या करने के लिए ही किया गया है। नित्य द्रव्य जैसे आकाश, दिक्, काल, मन, आत्मा उत्पत्ति और विनाश से रक्षित होते है।

परमाणुवाद के अनुसार दो परमाणुओं के प्रथम संयोग की द्वयणुक (Dyad) कहा जाता है। तीन द्वयणुक मिलकर त्र्यगुण (Traid) का निर्माण करते है। परमाणुओं के संयोग का यह क्रम तबतक चलता रहता है जबतक कि पृथ्वी, जल, तेज तथा वायु महाभूत उत्पन्न नहीं हो जाते। वैशेषिक दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर है जो अचेतन अदृष्ट को परिचालित करता है तथा अदृष्ट की सहायता से परमाणुओं को गति प्रदान करता है। अदृष्ट द्वारा गति प्रदान किये जाने पर परमाणुओं में कम्पन उत्पन्न हो जाता है तथा वे तत्काल द्वयणुक में बदल जाते है।

वैशेषिक दर्शन ईश्वर, आत्मा तथा कर्म सिद्धान्त को स्वीकार करता है। ईश्वर सर्वज्ञ, अनन्त तथा पूर्ण है। वह संसार का निमित्त कारण है तथा परमाणु इसके उपादान कारण है। आत्माएॅ तथा परमाणु ईश्वर के साथ-साथ विद्यमान रहते है तथा उसी के समान नित्य है। वह परमाणुओं का कर्त्ता नहीं है, केवल उसे गति प्रदान करता है।

सृष्टि तथा प्रलय –

वैशेषिक दर्शन के मतानुसार सृष्टि का कर्ता ईश्वर है। जिस प्रकार दिन के बाद रात्रि होती है उसी प्रकार प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय होता है। ईश्वर विभिन्न प्राणियों को कर्मफल का उपभोग कराने के लिए सृष्टि की इच्छा करता है। इसके साथ जीवात्माओं के अदृष्ट के अनुसार शरीर तथा बाह्य द्रव्य बनने लगते है और अदृष्ट जीवों को उस दिशा में प्रवृत करने लगते है। अदृष्ट की प्रेरणा से परमाणुओं के संयोग होने लगते है जिससे सृष्टि की अनेकों वस्तुएॅ उत्पन्न होती है। सर्वप्रथम महाभूतों की उत्पति होती है तत्पश्चात् ईश्वर की इच्छा से तेज परमाणुओं से विश्व का गर्भरूपी ब्रह्माण्ड उत्पन्न होता है। इसे ब्रह्मा संचालित करते है। वह कर्म के अनुसार भोग करने वाले सभी जीवों को उत्पन्न करता है तथा कर्मो के अनुसार ही उन्हे फल प्रदान करता है।

प्रत्येक सृष्टि के बाद प्रलय की अवस्था आती है। जब भोग करते-करते जीव थक जाते है जो उन्हे विश्राम देने के उद्देश्य से ईश्वर प्रलय की इच्छा करता है। इसके साथ ही जीवों के अदृष्ट अपने कार्य से विमुख हो जाते है। फलस्वरूप परमाणु विखर जाते है तथा शरीर और इन्द्रियों का विनाश हो जाता है। जीवात्मा नित्य है इसलिए उसका विनाश नहीं होता है। साथ ही चार अन्य नित्य – दिक्, काल, आकाश और मन भी बचे रह जाते है। इनसे अगली सृष्टि प्रारम्भ की जाती है। इस प्रकार सृष्टि की उत्पति तथा उसका विनाश ईश्वर की इच्छा मात्र पर निर्भर करता है।

बन्धन और मोक्ष –

अन्य भारतीय दर्शन की भॉति वैशेषिक दर्शन भी अज्ञान को ही बन्धन का कारण मानता है। अज्ञान से वशीभूत होकर आत्मा विविध कर्मो का सम्पादन करता है। हमारे कर्मो के अच्छे-बुरे फल होते है। आत्माओं के अच्छे-बुरे फलों से ‘अदृष्ट‘ का निर्माण होता है। आत्मा अपने अच्छे-बुरे कर्मो के अनुसार ही सुख-दुख का उपभोग करता है। जबतक आत्मा कर्म करता रहता है वह बन्धनग्रस्त है। मोक्ष उसे तभी मिल सकता है जब कार्यो का सम्पादन बन्द कर दे। आत्मा द्वारा कार्य बन्द किये जाने पर अच्छे-बुरे फलों का संचय रूक जाता है तथा पूर्व संचित पाप-पुण्यों का भी क्रमशः क्षय हो जाता है। आत्मा अपने को मन तथा शरीर से भिन्न समझ जाता है तथा उसे अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है। मुक्ति की अवस्था में सभी दुखों का पूर्ण विनाश हो जाता है।

वैशेषिक दर्शन में आत्मा को द्रव्य माना गया है जिसके ज्ञान, आनन्द आदि आगन्तुक गुण है। जब आत्मा शरीर से आबद्ध होता है तभी उसे इन गुणों की आवश्यकता होती है। मुक्तावस्था में आत्मा को इन गुणों की आवश्यकता नहीं पडती है। नैयायिको की भॉंति वैशेषिक भी मोक्ष या अपवर्ग की अवस्था को न केवल दुखों अपितु समस्त सुख, आनन्द और गुणों से भी परे मानते है। यही आत्मा शुद्ध द्रव्य के समान सर्वगुणरहित तथा सभी प्रकार के ज्ञान, अनुभूति तथा कर्मो से शून्य होकर अपने ‘विशेष‘ को ही बनाये रखता है।

निष्कर्ष –

न्याय और वैशेषिक दर्शन दोनों ही वस्तुवादी दर्शन है जो ईश्वर के साथ-साथ जीवात्माओं के अस्तित्व को भी मान्यता प्रदान करते है। पाश्चात्य दार्शनिकों के विपरित वे अपने परमाणुवाद का सम्बन्ध ईश्वर से जोडते है तथा इस प्रकार अपने मत को आध्यात्मिक आधार प्रदान करते है। किन्तु आत्मा और मोक्ष सम्बन्धी उनके विचार संतोषप्रद नहीं है। इस दर्शन में भक्ति का कोई स्थान नहीं है। यहॉ मोक्ष की अवस्था को जड बना दिया गया है। इसी कारण शंकर ने इसे ‘‘अर्द्धवैनाशिक‘‘ कहा है तथा श्रीहर्ष ‘‘वास्तविक उलूक दर्शन‘‘ कहकर इसकी निन्दा करते है।


सन्दर्भ –

  1. न्याय कुसुमांजलि
  2. नैषधचरित, 17.75
  3. डा0 सी0डी0 शर्मा, ए क्रिटिकल सर्वे ऑफ  इण्डियन फिलासफी पृ0सं0 181
  4. प्रोफेसर हिरियान्ना, आउटलाइन्स ऑफ इण्डियन फिलासफी, पृ0सं0 236,237, 238
  5. डा0 राधाकृष्णन, इण्डियन फिलासफी, जिल्द-2, पृ0सं0 218, 221, 227
  6. अन्न भट्ट, तर्क संग्रह, पृ0सं0 94
  7. वैशेषिक सूत्र, 1.1.15
  8. देखिए… फिलासफी ऑफ एंसिएण्ट इण्डिया, पृ0सं0 20

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