window.location = "http://www.yoururl.com"; The Sankhya Philosophyt | सांख्य दर्शन

The Sankhya Philosophyt | सांख्य दर्शन

 

प्रमुख दार्शनिक सम्प्रदाय (Major Philosophical Sects).

हिंदू धर्म को जानने के लिए हमें भारत के प्राचीन दर्शनों के बारे में जानना जरूरी है। यही दर्शन विज्ञान का आधार है। बहुत पहले से ही भारत में ज्ञान-विज्ञान की ये परंपरा विकसित हो चुकी थी और यहां तक कि भारत में अलग-अलग दर्शनों को भी फलने फूलने का मौका मिला।वेदिक ज्ञान को समझने व समझाने के लिए दो प्रयास हुएः

  • दर्शनशास्त्र 
  • ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थ।
ब्राह्यण और उपनिषदादि ग्रन्थों में अपने-अपने विषय के आप्त ज्ञाताओं द्वारा अपने शिष्यों, श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों की मूल वैदिक ज्ञान सरल भाषा में विस्तार से समझाया है। यह ऐसे ही है जैसे आज के युग में आइन्सटाइन को सापेक्षिता का सिद्धान्त व अन्य विषयों का प्रख्यात ज्ञाता माना जाता है तथा उसके कथनों व लेखों को अधिकांश लोग, बगैर ज्यादा अन्य प्रमाण के सत्य मान लेते है। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी है जो कि आइन्सटाइन की इन विषयों में सिद्धहस्ता (आप्तता) पर संदेह करते है, उनको समझाने के लिए तर्क (Logic) की आवश्यकता है। इसी तरह वेद ज्ञान को तर्क से समझाने के लिए छः दर्शन शास्त्र लिखे गये। सभी दर्शन मूल वेद ज्ञान को तर्क से सिद्ध करते है। प्रत्येक दर्शन शास्त्र का अपना-अपना विषय है। यह उसी तरह है जैसे कि भौतिक विज्ञान (भौतिकी) में न्यूटन की भौतिकी, परमाणु भौतिकी इत्यादि है। दर्शन शास्त्र सूत्र रूप में लिखे गये है। प्रत्येक दर्शन अपने लिखने का उद्देश्य अपने प्रथम सूत्र में ही लिख देता है तथा अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति का सूत्र देता है।

दर्शनशास्त्र या फिलॉसफी सनातन भारतीय परंपरा की रीढ़ है और यही दर्शनशास्त्र आधुनिक विज्ञान का भी मूल है। ये सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं कि आधुनिक विज्ञान जिस परिपाटी पर चल रहा है वो भारत के ज्ञान-विज्ञान का मूल हजारों वर्षों से रहा है। सबसे महत्वपूर्ण सवाल वही था जो आज भी आधुनिक विज्ञान के लिए अबूझ है। सृष्टि की रचना क्यों और किसलिए हुई? भारतीय दर्शन इस प्रश्न का जवाब बहुत पहले दे चुका है और ऐसे ही सवालों से इस दर्शन शास्त्र का प्रादुर्भाव हुआ था। सांख्य दर्शन ने प्रकृति और पुरुष के सिध्दांत के साथ साथ कार्य कारण का सिध्दांत भी समझाया। इससे बहुत स्पष्ट हो गया कि कुछ नहीं से, कुछ नहीं ही मिलता है। अर्थात् किसी भी उत्पत्ति के लिए कुछ होना आवश्यक है। जो धर्म, कुछ भी नहीं था और ईश्वर की इच्छा से जगत की उत्पत्ति हुई, की बात कहते रहे, वो विज्ञान के इस गूढ़ रहस्य को नहीं छू पाए। प्राचीन भारतीय साहित्य में दार्शनिक सम्प्रदायों की संख्या 06 मानी जाती है जिन्हे सामूहिक रूप से ‘षड्दर्शन‘ कहा जाता हैं।

‘षड्दर्शन‘ उन भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारों के मंथन का परिपक्व परिणाम है जो हजारों वर्षो के चिन्तन से उतरा और हिन्दू (वैदिक) दर्शन के नाम से प्रचलित हुआ। इन्हें आस्तिक दर्शन भी कहा जाता है। 

भारत में प्रचलित ये छः दर्शन इस प्रकार हैं-

                         दर्शन                                          संस्थापक/प्रवर्तक

                      सांख्य दर्शन –                                   महर्षि कपिल
                      योग दर्शन –                                      महर्षि पतंजलि
                      न्याय दर्शन –                                    महर्षि गौतम
                      वैशेषिक दर्शन –                               महर्षि कणाद्
                     मीमांसा दर्शन (पूर्व मीमांसा) -             महर्षि जैमिनी

                     वेदान्त दर्शन (उत्तर मीमांसा) -           महर्षि वादरायण

इसके अलावा चार्वाक दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन जैसे अनेक दर्शन कालांतर में लोकप्रिय हुए, लेकिन ये सभी इन छः दर्शनों के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। यही वजह है कि आज भी दर्शन शास्त्र का मूल स्त्रोत यही छः दर्शन माने जाते हैं। दरअसल, उपरोक्त वर्णित ये 06 दर्शन सभी आस्तिक दर्शन कहे जाते हैं यानी ईश्वरवादी दर्शन। हिंदू परंपरा का मूल ही ईश्वर विश्वास है। इसके बावजूद अनीश्वरवादी और भौतिकवादी दर्शनों को भी भारतीय परंपरा में स्थान मिला। यहीं सनातन परंपरा सबसे वैज्ञानिक परंपरा सिध्द होती है। यहां किसी का निषेध नहीं है, लेकिन तर्क-वितर्क और उच्चतम सत्य की स्वीकार्यता अवश्य है।

सांख्य दर्शन (Sankhya Philosophy)-

सांख्य दर्शन भारत के सबसे प्राचीनतम दार्शनिक सम्प्रदायों में से एक है। सांख्य दर्शन ईश्वर को नही मानता इसलिए इसे ‘‘निरीश्वरवाद‘‘ भी कहते है। गोविन्द चन्द्र पाण्डेय के अनुसार इसकी उत्पति अवैदिक श्रमण विचारधारा से हुई। इस दर्शन को सबसे अधिक सम्मान प्राप्त रहा क्योंकि ये सबसे गूढ़ प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम रहा, जैसे प्रकृति-पुरुष का संबंध, कार्य-कारण का सिद्धांत, मनुष्य को मिलने वाले त्रितापों – आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक के कारण और निवारण। यह बहुत ही बौद्धिक व वैज्ञानिक दर्शन है। महर्षि कपिल ने इसकी रचना की थी और इसका प्रामाणिक ग्रन्थ ‘‘सांख्यकारिका‘‘ है जिसकी रचना ईश्वरकृष्ण ने की थी। बौध्द धर्म का मूल भी यही दर्शन है। कपिल मुनि के समय काल की ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती लेकिन ईश्वरकृष्ण जी द्वारा रचित सांख्य कारिका से इसके बारें में जानकारियां मिल जाती हैं। ये कितना व्यापक था इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि सांख्यकारिका की जो सबसे विश्वसनीय प्रति मिली वो चीनी भाषा में थी और इसकी रचना का काल 569 ई0पू0 बताया जाता है।
सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित 24 कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष 25वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। चूॅंकि इसमें 25 तत्वों का विवरण मिलता है अतः इसे ‘संख्या का दर्शन‘ भी कहा जा सकता है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदार्थों का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं नहीं है।

सांख्य दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त-

सत्कार्यवाद – यह सांख्य दर्शन का मुख्य आधार है। ‘सत्कार्यवाद‘ का तात्पर्य यह है कि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में विद्यमान रहता है। जो सम्प्रदाय इस सिद्धान्त को नही मानते उन्हे असत्कार्यवादी कहा जाता है। इनमें न्याय, वैशेषिक और बौद्ध आदि प्रमुख है जिनकी मान्यता है कि कार्य अपनी उत्पति के पूर्व कारण में विद्यमान नही होता तथा उसकी उत्पति सर्वथा नयी होती है। किन्तु सांख्य दर्शन इस मत का खण्डन करते हुए इसके समर्थन में कई तर्क प्रस्तुत करता है 

  1. प्रत्येक वस्तु की उत्पति प्रत्येक वस्तु से नही होती, वह किसी विशेष वस्तु से ही होती है। जैसे तेल केवल तिल से और दही केवल दूध से ही उत्पन्न हो सकता है। इससे सत्कार्यवाद के सिद्धान्त की पुष्टि होती है।
  2. कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के रूप है। कपडा धागों में, तेल तिल में, दही दूध में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहता है। जब उत्पति के मार्ग की बाधाओं को दूर कर दिया जाता है तो कारण कार्य को प्रकट करे देता है।
  3. यदि कार्य उत्पति के पूर्व कारण में विद्यमान न रहे तो किसी भी प्रकार से उसकी उत्पति नही हो सकती। हम जानते है कि बालू से तेल कदापि नही निकल सकता, वह केवल तिल से ही निकल सकता है क्योंकि उसमें तेल पहले से ही विद्यमान रहता है। इस प्रकार कार्य वस्तुतः कारण की अभिव्यक्ति मात्र है।
  4. केवल योग्य कारण से ही अभीष्ट कार्य उत्पन्न होता है। इससे भी सिद्ध है कि कार्य का अस्तित्व सूक्ष्म रूप से अपने कारण में बना रहता है। उत्पति कारण का प्रत्यक्षीकरण मात्र है। यदि ऐसा नही होता तो पानी से दही तथा बालू से तेल की उत्पति हो सकती है।

उपर्युक्त तर्को के आधार पर सांख्य दर्शन इस निष्कर्ष पर पहॅुचता है कि कार्य मूलतः अपने कारण में विद्यमान है। सत्कार्यवाद के दो विभेद है – परिणामवाद और विवर्तवाद। परिणामवाद से तात्पर्य यह है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में बदल जाता है जैसे तिल तेल में और दूध दही में रूपान्तरित हो जाते है। विवर्तवाद के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है, जैसे रस्सी में सर्प का आभास हो जाता है। सांख्य दर्शन परिणामवाद का समर्थक है। विवर्तवाद का समर्थन अद्वैत वेदान्ती करते है।
सांख्य दर्शन द्वैतवादी है और इसमें प्रकृति और पुरूष नामक दो स्वतन्त्र शक्तियों की सत्ता को स्वीकार किया गया है जिनके संयोग से ही सृष्टि की उत्पति होती है।

प्रकृति – यह सृष्टि का आदि कारण है जिसे ‘प्रधान‘ तथा ‘अव्यक्त‘ की संज्ञा भी दी जाती है। यह नित्य और निरपेक्ष है। इसका कोई कारण नही होता क्योंकि यही समस्त कार्यो का मूल स्रोत है।

प्रकृति में तीन गुण होते है – सत्व, रज और तम। इन तीनों की साम्यावस्था का ही नाम प्रकृति है। ये गुण प्रकृति के आधारभूत तत्व होते है। इनसे मिलकर बने होने के वावजूद भी प्रकृति इन पर निर्भर नही होती। प्रकृति के ये तीन तत्व रस्सी की तीन डोरियों की भॉंति मिलकर पुरूष को बॉधते है, अतः इन्हे गुण कहा जाता है। सत्व प्रकाश तथा प्रसन्नता, रज क्रियाशीलता तथा तम स्थिरता, अवरोध तथा मोह का सूचक है। सभी सांसारिक वस्तुओं में ये तीनों गुण दिखाई देते है क्योंकि वे सभी प्रकृति से उत्पन्न हुई है। सत्व, रज तथा तम को क्रमशः शुक्ल, रक्त तथा कृष्ण वर्ण के रूप में कल्पना की गयी है परन्तु तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। ये हमेशा एक साथ रहते है और किसी एक के बिना दूसरा नही रह सकता और न ही कोई कार्य ही कर सकता है। इन तीनों गुणों की तुलना तेल, बत्ती, और दीपक से की गइ्र्र है जो परस्पर भिन्न होते हुए भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते है। तीनों गुणों में जो प्रबल होता है उसी के अनुसार वस्तु का स्वरूप निर्धारित होता है। एक बात और, गुण निरन्तर परिवर्तनशील है तथा वे एक क्षण भी स्थिर नही रह सकते। इन गुणों का परिवर्तन दो प्रकार से होता है 

  1. सरूप परिणाम – प्रलय की अवस्था में यह परिवर्तन दिखाई देता है जबकि तीनों गुण स्वयं अपने आप में परिवर्तित हो जाते है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते है कि सत्व सत्व में, रज रज में तथा तम तम में परिणत हो जाता है। इस अवस्था में किसी प्रकार की उत्पति नही होती है। इस समय गुणों की साम्यावस्था रहती है और इसी को प्रकृति कहते है।
  2. विरूप परिणाम – प्रलय के बाद जब कोई एक गुण शक्तिशाली हो जाता है तथा अन्य उसके अधीन हो जाते है तब सृष्टि के विकास का क्रम प्रारम्भ होता है। इसे ही विरूप परिणाम अथवा परिवर्तन कहा गया है। इस समय गुणों से क्षोभ उत्पन्न होता है तथा साम्यावस्था उद्धिग्न हो जाती है। ऐसा तभी होता है जब प्रकृति पुरूष के संसर्ग में आती है।

पुरुष –  सांख्य दर्शन का दूसरा प्रधान तत्व पुरूष अर्थात आत्मा है। इसका स्वरूप नित्य, सर्वव्यापी एवं शुद्ध चैतन्य है। चैतन्य आत्मा का स्वभाव ही है। यह शरीर, इन्द्रिय, मन अथवा बुद्धि से भिन्न है। आत्मा सदैव ज्ञाता के रूप में रहता है और यह ज्ञान का विषय नही हो सकता है। इसे उदासीन, अकर्त्ता, साक्षी, द्रष्टा, ज्ञाता आदि कहा गया है। इसमें किसी प्रकार का विकार अथवा परिवर्तन नही होता, अपितु विकार या परिवर्तन तो प्रकृति के धर्म है। सांख्य दर्शन में अनेकात्मवाद का समर्थन किया गया है जिसके अनुसार आत्मा एक न होकर अनेक है। प्रत्येक जीव में भिन्न भिन्न आत्मा रहती है। इस प्रकार जहॉ प्रकृति एक है वहॉ पुरूष यानि आत्मा अनेक माने गये है।

जगत् की उत्पति या विकास –

प्रकृति जब पुरूष के संसर्ग में आती है तो गुणों की साम्यावस्था विकृत हो जाती है जिससे सृष्टि की उत्पति होती है। सांख्य दर्शन इसके लिए पुरूष और प्रकृति के संसर्ग को आवश्यक मानता है। इनमें से अकेला कोइ्र्र भी तत्व सृष्टि रचना में समर्थ नही होता है। सृष्टि का उद्देश्य पुरूष का हित साधन करना होता है। पुरूष को भोग तथा केवल्य दोनों के लिए प्रकृति की आवश्यकता होती है। प्रकृति को ज्ञात होने के लिए पुरूष की आवश्यकता पडती है। सृष्टि द्वारा पुरूष के भोग के लिए वस्तुएॅ उत्पन्न होती है तथा जब पुरूष अपने स्वरूप को पहचान कर प्रकृति से अपना विभेद स्थापित कर लेता है तब उसे मुक्ति प्राप्त होती है। उदाहरणार्थ जिस प्रकार अंधे और लॅगडे आपस में मिलकर एक दूसरे की सहायता से जंगल पार कर लेते है उसी प्रकार जड, प्रकृति तथा चेतन पुरूष भिन्न होते हुए भी एक दूसरे के सहयोग से सृष्टि की रचना करते है।
पुरूष के सम्पर्क से प्रकृति के गुणां में क्षोभ उत्पन्न होता है। सबसे पहले रज क्रियाशील होता है तथा फिर दूसरे गुणों में उद्धेग पैदा होता है। प्रत्येक एक-दूसरे पर अधिकार जमाने का प्रयास करता है जिससे प्रकृति में एक आन्दोलन उठ खडा होता है और इस प्रकार तीनों गुणों के संयोग से जगत की विभिन्न वस्तुएॅ पैदा होती है। प्रकृति तथा पुरूष के संयोग से ‘महत‘ तत्व अर्थात बुद्धि उत्पन्न होती है। गुणों में जब सत्व की प्रधानता होती है तब इसका उदय होता है। यह बाह्य जगत की वस्तुओं का विशाल बीज है तथा यही सभी जीवधारियों में बुद्धि रूप में विद्यमान है। यही ज्ञाता और ज्ञेय का भेद कराती है तथा इसी के द्वारा हम किसी वस्तु के विषय के बारे में हम निर्णय कर पाते है। बुद्धि के स्वाभाविक गुण है – कर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा एश्वर्य। तमोगुण द्वारा विकृत होने पर इन गुणों का स्थान इनके विरोधी गुण जैसे – अधर्म, अज्ञान, आसक्ति तथा अशक्ति ग्रहण कर लेते है। बुद्धि की सहायता से ही प्रकृति तथा पुरूष में विभेद स्थापित होता है।

बुद्धि से अहंकार का जन्म होता है। बुद्धि में ‘मै‘ तथा ‘मेरा‘ का भाव ही अहंकार है। इसका कार्य अभियान को प्रारम्भ करना है। पुरूष भ्रमवश अपना तादात्म्य इसके साथ स्थापित कर लेता है तथा अपने को कर्त्ता, भोक्ता, कामी तथा स्वामी मानने लगता है। अहंकार के तीन भेद होते है –

सात्विक – इसमें सत्व की प्रधानता होती है जिससे मन पॉच इन्द्रियों – ऑख, कान, नाक, जीभ और त्वचा तथा पॉच कर्मेन्द्रियों – मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तथा जननेन्द्रिय उत्पन्न होती है।
तामस – इसमें तम की प्रधानता होती है जिनमें पॉच तन्मात्र – शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध उत्पन्न होते है।
राजस – इसमें रज की प्रधानता होती है। यह सात्विक तथा तामस को गति प्रदान करता है।

इस प्रकार पॉच तन्मात्रों से पॉच महाभूतों – आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार सृष्टि का विकास प्रकृति से प्रारम्भ होता है तथा महाभूतों तक समाप्त होता है। यह चौबीस तत्वों का खेल मात्र है। पुरूष को मिलाकर सांख्य दर्शन में कुल 25 तत्वों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। पुरूष इस विकास की परिधि से बाहर रहकर इसका द्रष्टामात्र होता है। वह न तो कारण है और न ही कार्य। प्रकृति कारण मात्र है।

बन्धन तथा मोक्ष –

सांख्य दर्शन के अनुसार हमारा सांसारिक जीवन नाना प्रकार के दुखों से परिपूर्ण है। जिन्हे हम सुख समझते है वे भी वास्तव में दुख के ही कारण है। सांख्य दर्शन में तीन प्रकार के दुख बताये गये है 
आध्यात्मिक दुःख – सके अन्तर्गत वे दुख शामिल है जो जीवन के अपने मन या शरीर से उत्पन्न होते है। जैसे- रोग, क्रोध, संताप, क्षुधा आदि। इस प्रकार आध्यात्मिक दुख से तात्पर्य सभी प्रकार के मानसिक और शारीरिक दुखों से है।
आधिभौतिक दुःख – इसमें बाहरी भौतिक पदार्थो जैसे – मनुष्य, पशु, पक्षियों, कॉटों आदि के द्वारा उत्पन्न दुख आते है।
आधिदैविक दुःख – इसमें अलौकिक कारणों से उत्पन्न दुख आते है, जैसे – भूत-प्रेतों का उपद्रव, ग्रह-पीडा आदि।

मनुष्य के जीवन का प्रमुख उद्देश्य इन तीन प्रकार के दुखों से छुटकारा पाना है। मोक्ष का अर्थ है – सभी प्रकार के दुखों से मुक्ति। अज्ञान तथा अविवेक बन्धन का कारण है जिससे हमें अनेक प्रकार के दुख प्राप्त होते है। पुरूष स्वतन्त्र तथा चैतन्यस्वरूप होता है। यह देश, काल और कारण की सीमाओं से परे है। शारीरिक तथा मानसिक विकार इसे प्रभावित नही करते। एक प्रकार से सांख्य दर्शन के अनुसार सुख-दुख मन के विषय है, पुरूष के नही। किन्तु अज्ञानता के कारण पुरूष, प्रकृति के विकार तथा अहंकार से अपना तादात्म्य स्थापित कर बैठता है और अनेक प्रकार के दुखों को प्राप्त करता है। इस प्रकार अज्ञानता ही दुखों का कारण और विवेक ज्ञान उससे मुक्ति का एकमात्र उपाय है। विवेक ज्ञान की प्राप्ति निरन्तर साधना से होती है। इस साधना का विवरण योगदर्शन के अन्तर्गत मिलता है जो सांख्य दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है।

सांख्य दर्शन दो प्रकार की मुक्ति मानता है – जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। जीवन मुक्ति ज्ञान के उदय के साथ ही मिल जाती है तथा भौतिक शरीर के बने रहने पर भी पुरूष अर्थात आत्मा उससे अपने को पृथक एवं आलिप्त मानता है। उसे दैहिक अथवा भौतिक सुख-दुख बाधित नही करते। विदेह मुक्ति भौतिक शरीर के विनाश के बाद मिलती है जबकि स्थूल तथा सूक्ष्म दोनो शरीरों से छुटकारा मिल जाता है। सांख्य दर्शन के अन्तर्गत मोक्ष का अर्थ तीनों प्रकार के दुखों का पूर्ण विनाश है। यह अवस्था कोई आनन्दमय नही है क्योंकि जहॉ कोई दुख नही है वहॉ कोई सुख भी नही हो सकता। सुख या आनन्द सतोगुण की देन है तथा मोक्ष त्रिगुण निरपेक्ष होता है।
ईश्वर की सत्ता के विषय में सांख्य मतानुयायियों में मतभेद है। प्रारम्भ में यह मत ईश्वर की सत्ता को नही मानता था। इसके अनुसार यह संसार कार्य-कारण श्रृंखला का परिणाम है जिसके विकास के लिए प्रकृति तथा पुरूष ही समर्थ है। इसमें ईश्वर के लिए कोई स्थान नही हो सकता क्योंकि वह तो निर्विकार होता है। किन्तु बाद में विज्ञानभिक्षु जैसे सांख्य दार्शनिकों ने वेदान्त और योग के प्रभाव से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया तथा यह मत दिया कि ईश्वर के सानिध्य से ही प्रकृति का विकास होता है। जिस प्रकार चुम्बक के समीप आने से लोहे में गति आती है उसी प्रकार ईश्वर के सानिध्य से प्रकृति में क्रियाशीलता उत्पन्न होती है।

निष्कर्ष –

सांख्य दर्शन प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। वस्तुतः महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शांति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। सांख्य, भारतीय दर्शन की अन्य सभी प्रणालियों की तरह, अज्ञानता को बंधन और पीड़ा का मूल कारण मानता है। यह इस तथ्य पर जोर देता है कि इस ब्रह्मांड में रहने लायक बनाने के लिए शुद्ध मन आवश्यक है। जब तक मानव मन सभी स्थूल तत्वों से मुक्त नहीं हो जाता तब तक अनन्त आनंद की स्थिति प्राप्त करना संभव नहीं है।

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