window.location = "http://www.yoururl.com"; Previous Institutions of INC. | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ

Previous Institutions of INC. | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्थाएँ

 


भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पूर्ववर्ती संस्था - 

19वीं शताब्दी के मध्य तक जहॉ एक तरफ अंग्रेजी शासन सुदृढ़ होता गया वही दूसरी तरफ भारत में राष्ट्रीयता की भावना का अत्यधिक विकास हुआ। भारतीय जनता जहॉं एक ओर अपने गौरवपूर्ण अतीत से प्रेरणा ग्रहण करने में लगी थी वही दूसरी ओर पश्चिम की राजनीतिक चेतना एवं ज्ञान-विज्ञान के आलोक में अपनी प्रगति के द्वार खोलने के प्रति भी सतर्क-सचेष्ट हो रही थी। ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध तथा असंन्तोष की भावना ने भारतीयों को अंग्रेजों से संगठित मोर्चा लेने को बाध्य किया। इस प्रकार राष्ट्रीयता की इस भावना को व्यापक आयाम प्रदान करने के लिए छोटी-बड़ी अनेक संस्थाओं का निर्माण भी किया गया। 

19वीं सदी के चौथे दशक से ही कुछ उच्च शिक्षा प्राप्त आधुनिक बुद्धिजीवी राष्ट्रीय चेतना का प्रचार एवं प्रसार करने के लिए बंगाल, बम्बई और मद्रास में अनेक राजनेतिक संस्थाओं की स्थापना करने लगे थे। यद्यपि इन संस्थाओं का स्वरूप स्थानीय था और इनके पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं था, फिर भी इन संस्थाओं ने न केवल अंग्रेजी शासन की भेदभावपूर्ण नीतियों, शोषण के प्रकारों और लोक के आधुनिक सिद्धांतों का प्रचार किया, बल्कि अपने प्रार्थना पत्रों, प्रत्यावेदनों आदि के माध्यम से भारत में प्रशासनिक सुधार करने, प्रशासन में भारतीयों को उचित भागीदारी देने और देश में शिक्षा का प्रसार करने जैसी माँगें भी अंग्रेजों के समक्ष रखी। इन प्रान्तीय संस्थाओं ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रवादी चेतना को गति और शक्ति प्रदान की।

बंगाल में इस प्रकार स्थापित किए गए संगठनों में 1836 में सर्वप्रथम बंगभाषा प्रकाशिका सभा गठित की गई जिसके संस्थापक राजा राममोहन राय के सहयोगी एवं अनुयायी गौरीशंकर तरकाबागीश थे। अगले वर्ष कलकत्ता और उसके आसपास के ज़मींदारों ने लैन्ड होल्डर्स सोसाइटी अथवा जमींदारी एसोसिएशन की स्थापना की, जिसने सार्वजनिक संस्था के माध्यम से शिकायतों के निवारण हेतु एक संगठित संवैधानिक आन्दोलन शुरू करने का दृष्टान्त प्रस्तुत किया। 19 मार्च 1938 को कलकत्ता के प्रसन्न कुमार ठाकुर, राधाकान्त देव, राजा कालीकृष्ण, राजकमल सेन, विलियम काब हैरी, विलियम थियोबाल्ट, जी0ए0 प्रिन्सेप जैसे लोगो ने मिलकर इस संस्था की स्थापना की। लैण्ड होल्डर्स सोसाइटी ने लन्दन में ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी के साथ सहयोग करने का निश्चय किया और उसे भारतीय शिकायतों और माँगों के बारे में नियमित जानकारी के उपलब्ध कराने के लिए एक समिति भी नियुक्ति की। द्वारकानाथ टैगोर इसके बहुत सक्रिय सदस्य थे और 1843 में बंगाल ब्रिटिश इण्डिया सोसाइटी की स्थापना में इनकी मुख्य भूमिका रही।

1850 के दशक के प्रारम्भ में तीन प्रेसीडेन्सी संगठनों की स्थापना हुई - कलकत्ता की ब्रिटिश भारत परिषद अर्थात ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन (1851), बम्बई प्रेसीडेन्सी परिषद अर्थात बम्बई एसोसिएशन (1852) और मद्रास नेटिव परिषद। संभवतया यह आवश्यक हो गया था कि राजनीतिक आन्दोलनों का प्रारम्भ प्रेसीडेन्सी नगरों में किया जाए, जहाँ कम्पनी के वाणिज्य और प्रशासन ने भारतीय परम्परागत व्यवस्था को सर्वप्रथम छिन्न-भिन्न कर दिया था और अंग्रेजी शिक्षा के कारण राजनीतिक दृष्टि से जागरूक लोग पैदा हुए थे। ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन ने पहली बार भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकारों की मॉंग करते हुये 1852 ई0 में एक स्मृति-पत्र भेजा।

1857 के विद्रोह के बाद के वर्षों में ब्रिटिश-भारतीय परिषद भारत की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनीतिक संस्था के रूप में उभरी। इसका दृष्टिकोण अखिल भारतीय था तथा इसके व्यापक कार्यक्रमों में राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक मुद्दे शामिल थे। इसका मुखपत्र हिन्दू पैट्रियॉट संभवतया देश का अत्यन्त प्रभावशाली समाचार-पत्र था। बंगाल के मिदनापुर में 1866 ई0 में राष्ट्रीय भावना के विकास के लिए ‘‘जातीय गौरव सम्पादिनी सभा‘‘ की स्थापना की गई। जातीय गौरव सम्पादिनी सभा की स्थापना के एक ही वर्ष बाद ‘‘हिन्दू मेला‘‘ अस्तित्व में आया। इस संस्था के प्रेरणास्रोत राजनारायण बोस थे। राष्ट्रीय भावना के विकास में हिन्दू मेला की सबसे बड़ी देन यह है कि इसने हर क्षेत्र में स्वावलम्बन पर बहुत बल दिया। हिन्दू मेला का प्रमुख लक्ष्य था स्वदेशी वस्तुओं का विकास करना। साहित्य, संगीत, कला से लेकर आद्यौगिक क्षेत्र तक में यह संस्था भारतीय पद्धति पर बल देती थी। नवगोपाल मित्र के सहयोग से इस संस्था की गतिविधियों में अधिक तीव्रता आ गई। 

राजनीतिक जागरूकता में बंगाल के बाद दूसरे स्थान पर आने वाली बम्बई प्रेसीडेन्सी परिषद का इतिहास उतार-चढ़ाव से भरा था। इसकी स्थापना 1852 में हुई थी लेकिन विद्रोह के परवर्ती वर्षों में यह क्षीण हो गई थी। 1867 में इसे पुनर्गठित किया गया पर वस्तुतः 1879 तक इसकी गतिविधियाँ समाप्त हो गई। जनवरी 1885 में नए राजनीतिक परिषद की स्थापना हुई। वस्तुतः बम्बई के पारसी, गुजराती और मुस्लिम नेताओं का प्रतिनिधि संघ था। फिरोज शाह मेहता, के0 टी0 तैलंग तथा बदरुद्दीन तैयबजी की त्रयी इसका मार्ग-निर्देशन करती थी। तथापि शीघ्र ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के कारण इसका महत्त्व कम हो गया।

1852 में स्थापित दक्कन संघ और 1867 में स्थापित पूना संघ अधिक सक्रिय नहीं रहे। इनसे अधिक प्रभावशाली पूना सार्वजनिक सभा थी जिसकी स्थापना 1870 में एम0जी0 रानाडे ने तथा जी0वी0 जोशी द्वारा की गई थी। जी0वी0 जोशी को उनके त्यागपूर्ण कार्यों के लिए लोग इन्हे ‘सार्वजनिक काका‘ कहते थे। रानाडे ने सभा को विलक्षण नेतृत्व प्रदान किया। इस सभा ने केवल स्थानीय समस्यायों, जैसे कि भारतीय दस्तकारियों एवं उद्योगों में पुनरुत्थान, किसानों की दशा में सुधार, अकाल-राहत, मध्यस्थता द्वारा विवादों के निपटारे आदि जैसे मामलों में ही अपनी रचनात्मक रुचि का प्रदर्शन ही नहीं किया बल्कि इसने सामान्य मुद्दों पर भी राजनीतिक गतिविधियों को प्रोत्साहित किया। 1875 में इसने ब्रिटिश संसद में भारतीयों के प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व की माँग करते हुए हाउस ऑफ कामन्स के समक्ष याचिका प्रस्तुत की। शताब्दी के अन्त में इस सभा का नेतृत्व जब बाल गंगाधर तिलक ने किया, तो इसे सरकार के तीव्र विरोध का सामना करना पड़ा जिसके कारण संस्था कमजोर पड़ गई।

दक्षिण में 1881 ई0 में मद्रास महाजन सभा एक प्रमुख संगठन था। 1885 में लगभग 56 संघ इससे सम्बद्ध थे। अन्य उल्लेखनीय संघों में 1866 में लन्दन में दादाभाई नौरोजी द्वारा स्थापित ईस्ट इण्डियन एसोशिएसन तथा अमृत बाजार पत्रिका के संस्थापक-संपादक शिशिर कुमार घोष द्वारा 1875 में स्थापित भारत लीग उल्लेखनीय है। 1876 में भारत लीग का स्थान सुरेन्द्र नाथ बनर्जी की प्रेरणा से इण्डियन एसोशिएसन नामक एक अन्य राजनीतिक संस्था ने ले लिया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी इसके संस्थापक थे; आनन्द मोहन बोस उनके मुख्य सहयोगी थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से पूर्व इण्डियन एसोशिएसन प्रथम अखिल भारतीय राजनीतिक संगठन था, जिसने भारतीय प्रशासनिक (सिविल) सेवा परीक्षा के लिए आयु सीमा बढ़ाने और इलबर्ट बिल विवाद जैसे विषयों पर आन्दोलनों का नेतृत्व किया।

1883 में अदालत की अवमानना के लिए सुरेन्द्र नाथ बनर्जी को दो महीने की सजा होने पर राष्ट्रीय कोष की व्यवस्था करने का प्रस्ताव किया गया। इस निधि का उद्देश्य भारत और इंगलैण्ड में संवैधानिक आन्दोलनों के माध्यम से देश में राजनीतिक चेतना को बढ़ावा देना था। इसे अखिल भारतीय संगठन के अधिकार क्षेत्र में लाया गया। इन गतिविधियों एवं लक्ष्यों को दृष्टिगत करके इण्डियन एसोशिएशन ने दिसम्बर 1883 में कलकत्ता में नेशनल कॉन्फ्रेंस (राष्ट्रीय सम्मेलन) नामक एक अन्य अखिल भारतीय संगठन का सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन का उद्देश्य राष्ट्रवादी शक्तियों को एकजुट करना था और यदि संभव हो तो उन्हें सार्वजनिक हित को बढ़ावा देने वाले कतिपय समान मुद्दों पर संकेन्द्रित करना था। इस प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन के उपरान्त 1884 में सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने उत्तर भारत का व्यापक दौरा किया।

राष्ट्रीय सम्मेलन (नेशनल कॉन्फ्रेंस) का दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में दिसम्बर 1885 में उसी समय आयोजित किया गया, जब बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का पहला अधिवेशन हो रहा था। इसके बाद राष्ट्रीय सम्मेलन के सदस्य इस नवस्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गये।


1 Comments

  1. I'm totally flat on your energy sir, amazing class & ur teaching style, May god bless u guruji,I have no word to describe it, u r the best teacher forever and ever always blessed meI'm totally flat on your energy sir, amazing class & ur teaching style, May god bless u guruji,I have no word to describe it, u r the best teacher forever and ever always blessed me

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