window.location = "http://www.yoururl.com"; Formation of Indian National Congress, 1885 | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना, 1885

Formation of Indian National Congress, 1885 | भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना, 1885

 

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना, 1885 ई0 -

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास सच पूछो तो उस लड़ाई का इतिहास है जो हिन्दुस्तान ने अपनी आजादी के लिए लड़ी है। कांग्रेस की स्थापना दिसम्बर 1885 ई0 में एक अंग्रेज अफसर ए0 ओ0 ह्यूम द्वारा की गई थी। अखिल भारतीय स्तर पर यह भारतीय राष्ट्रवाद की पहली अभिव्यक्ति थी। वस्तुतः भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने कुछ और नही किया तो कम से कम इतना जरूर किया कि उसने अपना गनतब्य स्थान खोज लिया  और राष्ट्र के विचारों और प्रवृतियों को एक ही बिन्दु पर लाकर ठहरा दिया। इसने भारत के करोड़ों निरीह और बेवस लोगों के दिलों में एक जागृति पैदा कर दी, उसके अन्दर एकता, आशा और आत्मविश्वास की संजीवनी डाल दी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारतवासियों के विचारों और आकांक्षाओं को एक स्पष्ट राष्ट्रीय स्वरूप दिया जिसके द्वारा उन्होनें अपनी राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय साहित्य को, अपने सर्वसामान्य आकांक्षाओं और आदर्शों तक को खोज निकाला है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के उत्तरदायी कारकों में उन सभी तत्वों का सामूहिक योगदान है जिसके कारण भारत में राष्ट्रीयता अथवा राष्ट्रवाद का उदय हुआ। भारतीय राष्ट्रीयता के उदय के प्रेरक कारकों का उल्लेख उपर किया जा चुका है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में भी इन तत्वों का कहीं न कहीं योगदान अवश्य है। इसके अतिरिक्त भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के कुछ अन्य उत्तरदायी तत्व और कारक है लेकिन इस सम्बन्ध में सभी इतिहासकार तथा राजनीतिज्ञ एकमत नही है। इस सन्दर्भ में कई दृष्टिकोण प्रचलित है जिनमें से कुछ का उल्लेख करना यहॉं समीचीन होगा।

सुरक्षा बाल्ब का सिद्धान्त -

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ एक मिथक एक लम्बे अरसे से जुड़ा है जो अपने तार्किक आधार के कारण काफी दमदार है। ‘सुरक्षा बाल्ब‘ या ‘सेफ्टी बाल्ब‘ का यह मिथक पिछले कई वर्षो तक काफी प्रभावशाली माना जाता रहा है। लेकिन इतिहास को वृहद स्तर पर टटोलने से यह पता चलता है कि इस मिथक में उतना दम नही है जितना कि आमतौर पर इसके बारे में माना जाता रहा है। चूॅकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना किसी भारतीय द्वारा नही बल्कि एक सेवानिवृत अंग्रेज अफसर ए0 ओ0 ह्यूम द्वारा की गई थी इसलिए यह परिकल्पना की गई की ह्यूम ने ब्रिटिश शासन के प्रति बढ़ते हुये असन्तोष को सुरक्षा बाल्ब प्रदान करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की। यह भी माना जाता है कि मिस्टर ए0 ओ0 ह्यूम को तात्कालीन वायसराय लार्ड डफरिन ने परिचर्चाओं के लिए शिक्षित भारतीयों का एक वार्षिक सम्मेलन बुलाने का विचार दिया था ताकि उस समय भारतीय जनमानस में पनपते और बढ़ते हुये असन्तोष को हिंसा के ज्वालामुखी के रूप में फूटने से रोका जा सके और असन्तोष रूपी वाष्प को बिना किसी खतरे के बाहर निकलने के लिए सुरक्षित और शान्तिपूर्ण ‘सुरक्षा बाल्ब‘ उपलब्ध कराया जा सके। 1916 में प्रकाशित ‘‘यंग इण्डिया‘‘ के अपने लेख में लाला लाजपत राय ने ‘सुरक्षा बाल्ब‘ की परिकल्पना पर लम्बी चर्चा करते हुये कहा था कि - ‘‘कांग्रेस लार्ड डफरिन की दिमाग की उपज है।‘‘ कालान्तर में रजनी पाम दŸा ने इस मिथक को जोरदार ढ़ंग से उठाते हुये लिखा कि - सरकार की सीधी पहल और मार्गदर्शन के द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अस्तित्व में आई। इसके लिए वायसराय के साथ मिलकर एक गुप्त योजना तैयार की गई जो एक आसन्न क्रान्ति को विफल करने की एक घेराबंदी थी। ठीक है कि समय रहते ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक राष्ट्रवादी संगठन के रूप में तब्दील हो गई और इसके निष्ठावान चरित्र पर राष्ट्रीय चरित्र हावी होने लगा लेकिन इसके जन्म के समय का कलंक इसकी राजनीति पर एक स्थायी दाग छोड़ गया। एक ंसंगठन के रूप में इसका यह दोहरा चरित्र कि इसे ब्रिटिश सरकार ने बनाया और फिर यह भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की अगुआ बनी- इसके समूचे इतिहास पर नजर आता है।

श्री रजनी पाम दत्त के अनुसार इस तरह कांग्रेस के दो रुख थे : “एक पक्ष तो जनांदोलन के ’ख़तरे’ के खिलाफ साम्राज्यवाद से सहयोग का था और दूसरा पक्ष राष्ट्रीय संघर्ष में जनता की अगुआई का था। जी0 के0 गोखले से लेकर महात्मा गाँधी तक, कांग्रेस नेतृत्व का यह दोहरापन दरअसल भारतीय बुर्जुआ वर्ग के दोहरे और ढुलमुल चरित्र को ही प्रतिबिंबित करता है, जो ब्रिटिश बुर्जुआ के खिलाफ संघर्षरत रहते हुए और भारत के लोगों का नेतृत्व करने की इच्छा रखते हुए भी इसके प्रति आशंकित था कि ’बहुत तेज़ी से’ आगे बढ़ने से, साम्राज्यवादियों द्वारा भोगी जा रही सुविधाओं के खात्मे के साथ, उसको हासिल सुविधाएँ भी ख़त्म हो सकती हैं।“ इस तरह कांग्रेस वास्तविक क्रांति यानी हिंसक क्रांति के विरोध का हथियार बन गई। लेकिन कांग्रेस की यह भूमिका गाँधी के समय से नहीं शुरू हुई, बल्कि यह बात तो साम्राज्यवाद ने इसके जन्म के समय ही इसकी निर्दिष्ट सरकारी भूमिका के तौर पर इसे घुट्टी में पिलाई थी। इस दोहरी भूमिका की चरम परिणति माउंटबेटन समझौते के रूप में इसके अंतिम आत्मसमर्पण के तौर पर हुई।

1939 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक एम0 एस0 गोलवलकर ने भी कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता के कारण उसे गैर-राष्ट्रवादी ठहराने के लिए सुरक्षा वाल्व की इस परिकल्पना का इस्तेमाल किया था। उन्होंने अपने पैम्फलेट ’वी’ (हम) में कहा था कि- ‘‘हिंदू राष्ट्रीय चेतना को उन लोगों ने तबाह कर दिया जो राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं और जिन्होंने लोकतंत्र के सिद्धांतों को बढ़ावा दिया और यह विकृत धारणा फैलाई कि हमारे पुराने दुश्मन और हमलावर मुसलमान भी कई मायनों में हिंदुओं के समान हैं। नतीजा यह हुआ कि हमने अपने दुश्मनों को अपना दोस्त मान लिया और इस तरह हमने सच्ची राष्ट्रीयता की जड़ें खुद अपने हाथों ही खोद डालीं।“ सच तो यह है कि भारत में चल रहा संघर्ष केवल भारतीयों और अँग्रेज़ों के बीच नहीं है, बल्कि यह ’एक त्रिकोणीय संघर्ष’ है। गोलवलकर के अनुसार, हिंदुओं को एक तरफ तो मुसलमानों से लड़ना पड़ रहा है और दूसरी तरफ अँग्रेज़ों से। हिंदुओं को ’विराष्ट्रीकरण’ के रास्ते पर ले जाने के लिए ह्यूम, कॉटन और बेडरबर्न द्वारा 1885 में तय की गई नीतियां ही जिम्मेदार थीं। इन लोगों ने उस समय उबल रहे राष्ट्रवाद के खिलाफ ’सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर कांग्रेस की स्थापना की। उस समय जाग रहे एक विशाल देव को सुला देने के लिए यह एक खिलौना था, राष्ट्रीय चेतना को तबाह कर देने का हथियार था और जहाँ तक उन लोगों के उद्देश्य की बात है वे इसमें पूरी तरह सफल रहे।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उस समय भारत में एक हिंसक क्रान्ति जन्म ले रही थी, जो कांग्रेस की स्थापना से टल गई। यही कारण है कि कांग्रेस का उदारवादी नेता कांग्रेस की स्थापना को सही कदम मानते है और यह साबित करने का प्रयास करते है कि कांग्रेस का रूख साम्राज्यवाद के प्रति निष्ठावान नहीं तो कम से कम समझौतावादी अवश्य रहा है। जबकि दूसरी तरफ दक्षिणपंथी इस मिथक का इस्तेमाल यह सिद्ध करने के लिये करते है कि कांग्रेस शुरू से ही गैर-राष्ट्रवादी रही है। परन्तु ये दोनों पक्ष इस बात पर सहमत है कि कांग्रेस का जन्म जिस तरीके से हुआ है, उस तरीके ने इसके बुनियादी चरित्र और भविष्य में उसके कार्यों पर निर्णायक प्रभाव डाला है।

गोपनीय रिपोर्ट और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मिथक -

सबसे पहले यह जान लेना चाहिए कि वह गोपनीय रिपोर्ट क्या थी और कैसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का मिथक इसके साथ जुडा है ? सुरक्षा बाल्ब की इस परिकल्पना को ऐतिहासिक साक्ष्य बना देने में सात खण्डो वाली एक गोपनीय रिपोर्ट की निर्णायक भूमिका रही है जिसकी चर्चा पहली बार 1913 में प्रकाशित विलियम वेडरबर्न द्वारा लिखित ए0ओ0 ह्यूम की जीवनी में की गई है। ह्यूम के पास भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के जो दस्तावेज थे, उन्ही में से वेडरबर्न को एक ऐसा दस्तावेज मिला था जिसपर कोई तिथि नही थी और इस दस्तावेज का ह्यूम की जीवनी में विस्तार से उल्लेख किया गया है। जैसा कि वेडरबर्न ने ह्यूम की जीवनी में लिखा है कि - वायसराय लार्ड लिटन के शासनकाल के अन्त में अर्थात 1878-79 के लगभग मिस्टर ए0 ओ0 ह्यूम को यह पक्का विश्वास हो गया कि बढती अशांति का मुकाबला करने के लिए कोई सुनिश्चित कार्यवाही जरूरी हो गयी है। देश के विभिन्न भागों के शुभचिन्तकों से इन्हे चेतावनी मिली थी कि भारतीय जनता के आर्थिक कष्ट और सरकार से बुद्धिजीवियों के अलगाव के कारण भारत के भावी कल्याण के लिए खतरा पैदा हो गया है।

इस दस्तावेज का सारांश यह था कि मौजूदा हालात में बढ़ती हुई निराशा के कारण भारत के कुछ लोग एकजुट हिंसक संघर्ष करना चाहते है। पढ़े-लिखे लोगों का एक छोटा वर्ग भी इन लोगों के साथ है। यह शिक्षित तबका तंग आकर अनुचित रूप से सरकार के विरूद्ध है और यह तबका भी आन्दोलन में शामिल होगा और उसे अपना नेतृत्व प्रदान करेगा। भारतीयों का असन्तोेेेेेेेेेेेष इस समय ऐसे चौराहे पर खड़ा था जहॉं वह राष्ट्रीय मुक्ति का वही रास्ता अपना सकता था जिसे अमरिका और इटली ने अपनाया था। भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन को इस रास्ते पर जाने से रोकने के लिए ब्रिटिश शासकों ने हस्तक्षेप करना जरूरी समझा और हस्तक्षेप करके भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को जन्म दिया।

हालॉंकि यह भी समझना भी जरूरी है कि भारत के कई राष्ट्रीय नेता और अनेक इतिहासकारों जैसे कि लाला लाजपत राय, आर0 सी0 मजूमदार, ताराचन्द आदि ने इस रिपोर्ट के उद्धरण को एक ऐतिहासिक साक्ष्य मान लिया। हालॉंकि आज तक के शोधों के आधार पर यह दावा किया जाता है कि सात खण्डों की जिस रिपोर्ट का हवाला दिया जाता है, वह वेडरबर्न की किताब के ‘‘भारतीय धार्मिक नेता‘‘ शीर्षक से छपे अध्याय के है जो कि पुस्तक के पृष्ठ संख्या 80-83 के बीच छपे है और यह महात्माओं, गुरूओं और ह्यूम के दोस्तों ने तैयार किये थे। सारांश यह है कि ‘सुरक्षा बाल्ब‘ की बात वास्तव में महात्माओं औैैैैैैैैर गुरूओं की कारगुजारियों पर आधारित है।

भारतीय आभिजात्य वर्ग की प्रतिद्वन्द्वी आकांक्षाएँ -

मुख्यतः कैम्ब्रिज में केन्द्रित इतिहास की नव-साम्राज्यवादी विचारधारा से सम्बद्ध कुछ इतिहासकारों ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस वस्तुतः बिल्कुल भी राष्ट्रवादी नहीं थी, बल्कि यह तो नौकरी के भूखे, कुण्ठित और निराश मध्यम वर्ग या सत्ता लोभी स्वार्थी व्यक्तियों का एक आन्दोलन मात्र था और उन्होंने अपनी प्रतिद्वन्द्विताओं के लिए एक साधन के रूप में कांग्रेस का उपयोग किया। किसी विशेष मामले में यह बात पर्याप्त सही सिद्ध हो सकती है लेकिन विचारधारा एवं देशभक्तिपूर्ण प्रयोजनों के महत्त्व का इस प्रकार सामान्यीकरण करना, न केवल गलत होगा बल्कि उस विचार की भी उपेक्षा होगी, जिसने लाखों, करोड़ों लोगों में राष्ट्रीय चेतना का संचार करके उन्हें प्रभावित किया। बल्कि सही अर्थ में कहें तो कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के उन आर्थिक एवं जातीय उपलक्ष्यों पर ही पानी फेर दिया जिनकी कल्पना भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के समय अंग्रेजों ने भी नहीं की थी और न उन्हें कांग्रेस की कार्य-सूची में प्राथमिकता दी गई थी। ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि भारत उस समय एक निर्माणाधीन देश था जिसकी अपेक्षाओं तथा शिकायतों को पहले वकीलों तथा पत्रकारों जैसे शिक्षित मध्यम वर्गों के छोटे से समूह द्वारा ही अभिव्यक्ति एवं प्रस्तुति मिल पाती थी क्योंकि उन्हें ही आधुनिक घटनाक्रम को समझने एवं उजागर करने के बेहतर अवसर उपलब्ध थे।

एक अखिल भारतीय संस्था की आवश्यकता-

सिर्फ यह कहना कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना सुरक्षा बाल्ब के रूप में की गई थी, एक गलत और अधूरा सत्य होगा। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना न तो अप्रत्याशित घटना थी और न ही कोई ऐतिहासिक दुर्घटना। इस समय जो भारतीय लोग एक नये सामाजिक और राजनीतिक तत्वों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे और अंग्रेजों के  द्वारा भारत में किये जा रहे शोषण के विरूद्ध थे। 1860 और 1870 के दशक से ही भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर भारत के विभिन्न हिस्सों में अनेक संगठनों की स्थापना होने लगी थी और भारतीय जनता राजनीतिक तौर पर काफ़ी जागरूक हो चुकी थी। भारतीय राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी, संकीर्ण हितों के लिए आवाज़ उठाने के बजाय राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने को छटपटाने लगे थे। 1885 तक आते-आते एक अखिल भारतीय राजनीतिक  संगठन का जन्म एक ऐतिहासिक जरूरत और अवश्यंभावी हो गया। देश के सभी राष्ट्रवादियों ने इस जरूरत को बड़ी शिद्दत से महसूस किया। उनके इस प्रयास को सफलता मिली और एक ’राष्ट्रीय दल’ का गठन हुआ जो राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक था। एक प्लेटफार्म, एक संगठन, एक मुख्यालय के रूप में 1885 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना इस बढ़ती चेतना की पराकाष्ठा थी। 

इस ’राष्ट्रीय दल’ के गठन के लिए जो राजनीतिक गतिविधियाँ हो रही थीं, अँग्रेज़ सरकार उससे बखूबी परिचित थी। उसे पूर्वाभास हो गया था कि क्या होने वाला है। राजनीति में सक्रिय भारतीयों को संदेह की नज़र से देखा जाने लगा। ब्रिटिश हुकूमत को लगने लगा कि यह असहयोग कहीं देशद्रोह और आयरलैंड की तरह के आंदोलनों का दौर न शुरू कर दे। उनका यह संदेह तात्कालिक नहीं था बल्कि इसका ठोस ऐतिहासिक आधार था। उस् समय की कई राष्ट्रीय माँगो - आयातित सूती वस्त्रों पर आयात शुल्क में कमी न करना, हथियार रखने का अधिकार देना, प्रेस की आज़ादी, सेना पर खर्च में कटौती, प्रशासनिक सेवा का भारतीयकरण, भारतीय न्यायाधीशों को यूरोपीय नागरिकों पर आपराधिक मुकद्दमे की सुनवाई का अधिकार,  आदि के सन्दर्भ में यह स्पष्ट था ब्रिटिश हुकूमत इन माँगों को भी आसानी से मानने वाली नहीं थी क्योंकि उसे लगता था कि यदि ये माँगें मान ली गईं तो भारतीय जनता पर अँग्रेजी हुकूमत का शिकंजा ढीला हो जाएगा।

इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि कांग्रेस की स्थापना, 1885 से पहले के कुछ वर्षों से देश में चल रहे राजनीतिक कार्यकलाप और गतिविधियों की स्वाभाविक परिणति थी। उस समय तक देश की राजनीतिक परिणति ऐसी बन गई थी कि यह ज़रूरी हो गया था कि कुछ बुनियादी काम और लक्ष्य तय किए जाएँ और उनके लिए संघर्ष शुरू किया जाए। इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए यह ज़रूरी था कि देश के राजनीतिक कार्यकर्ता एक अखिल भारतीय आधार पर गठित मंच पर आएँ। ये सभी लक्ष्य एक-दूसरे से जुड़े थे और एक-दूसरे पर आधारित थे और इन्हें तभी हासिल किया जा सकता था, जब राष्ट्रीय स्तर पर कोई कोशिश शुरू की जाती। 28 दिसंबर 1885 को बंबई में हुए सम्मेलन में जिन लोगों ने हिस्सा लिया था, उनके लिए ये बुनियादी लक्ष्य ही सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण थे और वे यह आशा लेकर ही वहाँ गए थे कि इन लक्ष्यों को हासिल करने की प्रक्रिया की शुरुआत बंबई से हो सकेगी। 

ए0 ओ0 ह्यूम की भूमिका -

अब इस देशव्यापी राष्ट्रीय संगठन की स्थापना में क्या थी ह्यूम की भूमिका? अगर कांग्रेस की स्थापना करने वाले लोगों में इतनी ही क्षमता, योग्यता और देशभक्ति थी, तो उन्हें क्या ज़रूरत थी कि वे ह्यूम को कांग्रेस का मुख्य संगठनकर्ता बनाते। उस समय की परिस्थितियों पर गौर किया जाय तो शायद इस प्रश्न का उत्तर ढूॅंढ़ा जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के विस्तृत आकार की तुलना में, 1880 के दशक की शुरुआत में राजनीतिक सोच रखने वाले लोग बहुत कम थे और ब्रिटिश शासकों का खुले विरोध करना इतना आसान नही होता।

दादाभाई नौरोजी, न्यायमूर्ति रानाडे, फिरोजशाह मेहता, जी0 सुब्रह्मण्यम अय्यर और एक साल बाद आए सुरेंद्रनाथ बनर्जी जैसे उत्साही और प्रतिबद्ध नेताओं ने इसलिए ह्यूम से सहयोग लिया क्योंकि वे बिलकुल शुरू-शुरू में ही सरकार से दुश्मनी नहीं मोल लेना चाहते थे। उन्होने ह्यूम का साथ इसलिए दिया कि वे अपनी प्रारंभिक राजनीतिक गतिविधियों के लिए सरकार के संदेह का पात्र नही बनना चाहते थे। उनका सोचना था कि अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे सरकार-विरोधी संगठन का मुख्य संगठनकर्ता ऐसा आदमी हो जो अवकाश प्राप्त ब्रिटिश अधिकारी हो तो इस संगठन के प्रति सरकार को शक-शुबहा कम होगा और इस कारण कांग्रेस पर सरकारी हमले की गुंजाइश भी कम होगी।

दूसरे शब्दों में, अगर ह्यूम और दूसरे अँग्रेज़ अधिकारियों ने कांग्रेस का इस्तेमाल ’सुरक्षा वाल्व’ के तौर पर करना भी चाहा हो, तो कांग्रेस के नेताओं ने उनका साथ इस आशा से पकड़ा था कि ये लोग कांग्रेस के लिए ’तड़ित चालक’ (स्पहीजमदपदह ब्वदकनबजवत) जैसा काम करेंगे और आंदोलन पर गिरनेवाली सरकारी दमन की बिजली से उसे बचा सकेंगे। जैसा कि बाद के हालात गवाह हैं, इस मामले में कांग्रेस के नेताओं का अंदाज़ा और उम्मीदें ही सही निकलीं। 1913 ई0 में गोपाल कृष्ण गोखले ने भी कहा था- 

         कोई भी भारतीय कांग्रेस की स्थापना नही कर सकता था .........  यदि कोई भारतीय इस प्रकार का अखिल भारतीय आन्दोलन प्रारंभ करने के लिए आगे आता भी तो सरकारी अधिकारी उसे अस्तित्व में ही नही आने देते। यदि कांग्रेस का संस्थापक एक भूतपूर्व अंग्रेज अधिकारी नही होता तो उन दिनों के राजनैतिक आन्दोलनों के संदेहास्पद वातावरण में अधिकारी इस आन्दोलन को कुचलने का कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही लेते।

इस प्रकार 1885 ई0 में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन लघु पैमाने पर तथा मंद गति से - लेकिन एक संगठित रूप में - शुरू हुआ तथा साल दर साल शक्ति ग्रहण करता गया। धीरे-धीरे उसने सभी भारतवासियों को विदेशी सत्ता के विरूद्ध संघर्ष करने के लिए अपने दायरे में ले लिया।


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