मोआमारिआ विद्रोह -
मोआमारिया कृष्ण भक्तों का एक सम्प्रदाय था, जो उत्तर असम में फैला हुआ था। इस शब्द की उत्पत्ति ‘मायामारा’ नामक स्थान से बतायी जाती है जो इस सम्प्रदाय का केन्द्र था।’ सर एडवर्ड गेट ने इस शब्द की उत्पत्ति ’मोआ’ नामक मछली से बतायी है। उनका कहना है कि इस सम्प्रदाय का संस्थापक कलिता जाति का अनिरोध था। उसके प्रथम शिष्य एक झील के किनारे रहते थे, जहाँ वे ’मोआ’ नाम की मछली बड़ी संख्या में पकड़ा करते थे। उन्होंने यह भी लिखा था कि मोआमारिया मुख्यतः डोम, मोरान, काछाड़ा, हाड़ी और चुटिया जैसे शूद्र थे जो ब्राह्मणों को सर्वक्षेष्ठ मानना अस्वीकार करते थे। लेकिन गोहाटी स्थित असम रिसर्च सोसायटी आफिस में संरक्षित पुराने कागजात बताते हैं कि मोआमारियों में सिर्फ हाड़ी, डोम और अन्य शूद्र ही न थे, बल्कि कुछ ब्राह्मणों, दैवज्ञ, कायस्थ, कलिता, केवट, कोच आदि भी थे।’ इन मोआमारियों का विद्रोह असम के अहोम राजवंश के पतन का कारण बना।
अहोम राजवंश दुर्गा की पूजा करता था, लेकिन मोआमारियों ने राजवंश का अनुकरण करने से इनकार कर दिया। आरंभ में इन्हें कोई कष्ट न उठाना पड़ा, पर शिव सिंह के अहोम राजवंश की गद्दी पर बैठते ही उन पर विपत्ति के बादल घिर आये। शिव सिंह ने शक्ति धर्म को राजधर्म बनाने की कोशिश की। मोआमारियों ने कृष्णभक्ति को छोड़कर शक्ति सम्प्रदाय अपनाने से इनकार किया। लेकिन शिव सिंह की रानी अपने धर्म के बलपूर्वक प्रचार में पति से दस कदम आगे थी। उसने मोआमारियों को दुर्गा की पूजा करने और अपने मस्तक पर दुर्गा के पूजने वालों का चिह्न लगाने को बाध्य किया। आरम्भ में मोआमारियों ने इस जबर्दस्ती को चुपचाप बर्दाश्त किया, लेकिन ज्योंही उन्होंने कुछ शक्ति संचित कर ली, खुला विद्रोह आरम्भ कर दिया। इस विद्रोह में उन्हें सिर्फ अहोम राजा का ही नहीं, अंगरेजों का भी मुकाबिला करना पड़ा, जो राज की सहायता करने गये थे।
अहोमवंश के राजा लक्ष्मी सिंह (1769-80) का बरबडुवा (प्रधानमंत्री) बड़ा घमण्डी, उद्दण्ड और क्रूर था। उसी के कुचक्र से लक्ष्मी सिंह राजा बन सका था, इसलिए बरबडुवा इस राज्य का कर्ताधर्ता बन गया था। एक दिन वह राजा के साथ नौका में कहीं जा रहा था। उस वक्त मोआमारिया गोसाई नदी तट पर खड़ा था। उसने राजा को सलाम किया, लेकिन बरबडुवा की तरफ ध्यान नहीं दिया। इससे वह आगबबूला हो उठा और गोसाई को खरी-खोटी सुनायी। स्वभावतः गोसाई मन-ही-मन बहुत ही अप्रसन्न हुआ और खुल कर राजवंश के विरुद्ध बोलने लगा।
इसके बाद ही मोरान जाति का सरदार नाहर बरबडुवा का कोपभाजन बना। वह राजा को हर वर्ष हाथी दिया करता था। यह उसका राजस्व था। वह हाथी लेकर सीधे राजा के पास चला गया और उन्हें दे आया। यह देखकर बरबडुवा को क्रोध आ गया। उसने इसका दण्ड नाहर को दिया। पहले उसने नाहर को पकड़वा कर खूब पिटाई करवाई और फिर कान कटवा लिए। यह नाहर मोआमारिया गोसाई का चेला था। इसलिए वह अपने के पास दौड़ा गया और उससे इसके प्रतिकार के लिए सहायता माँगी।
मोआमारियों का गोसाई तो ऐसे मौके का इन्तजार कर ही रहा था। उसने विद्रोह का झण्डा उठाया। अपने अनुयायियों को इकट्ठा कर अपने पुत्र बांगन के नेतृत्व में उन्हें आगे बढ़ने का आदेश दिया। नामरूप में उसका बड़ा स्वागत हुआ और खासकर मोरान तथा काछाड़ी उसके शिष्य बन गये। उसके पुत्र बांगन ने नामरूप के राजा की उपाधि धारण की।
मोआमारियों ने राजा लक्ष्मी सिंह के बड़े भाई वर्जना गोहाइन को अपने साथ मिला लिया। विद्रोहियों ने उसे असम का राजा बनाने का वादा किया। उसकी देखा-देखी असम के बहुत से निर्वासित राजा विद्रोहियों के साथ आ मिले।’ विद्रोह का समाचार पाकर राजा लक्ष्मी ने उसके दमन और बांगन को पकड़ने के लिए अपने आदमी भेजे। विद्रोहियों ने उन सब को साफ कर दिया और तिपाम पर चढ़ाई की। राजा की सेना से उनका पहला युद्ध डिब्रू नदी के किनारे हुआ। वे पराजित होकर पीछे हटे, पर फिर चढ़ आये। राजा के सेना की मोर्चेबन्दी को न तोड़ पाकर विद्रोही भी मोर्चेबन्दी कर सामने ही डट गये। कई महीने दोनों ही पक्ष चुपचाप बैठे रहे।
अक्टूबर 1769 में राधा नामक मोरान के, जो अपने को विद्रोहियों का बरबडुवा कहा करता था, नेतृत्व में विद्रोही ब्रह्मपुत्र पार कर उत्तरी तट पर पहुँचे और कई लड़ाइयों में राजा की सेना को पराजित किया। बरबडुवा की सलाह से राजा लक्ष्मी सिंह अपनी राजधानी रंगपुर छोड़ कर गौहाटी भागा। उसके प्रधान कर्मचारियों ने उसका साथ आरंभ से ही छोड़ना शुरू किया। सोनारी नगर में जब वह पहुँचा तो अन्य अधिकारी भी उसका साथ छोड़कर चले गये। राधा के आदमियों ने राजा को सोनारी नगर में पकड़ लिया। उसे पकड़ कर वापस राजधानी ले आये और जयसागर के मन्दिर में बन्द कर दिया।’ कितने ही अमीरजादों की भी गिरफ्तार किया गया। कुछ को मार दिया गया, लेकिन अधिकांश को कैद रखा गया।
राजा की हार का समाचार सुनकर वर्जना गोहाइन राजा बनने के लालच से दौड़ा हुआ राजधानी आया, लेकिन राधा के हुक्म से मार डाला गया। पदच्युत बरबडुवा कीर्तिचन्द और उसके बेटे भी मार दिये गये, और उनकी पत्नियों तथा पुत्रियों को मोआमारिआ नेताओं में बाँट दिया गया। राजा लक्ष्मी सिंह को जेल में पड़ा रहने दिया गया।
राधा ने बांगन को राजा बनाना चाहा, पर मोआमरिया गोसाई ने अपने पुत्र को यह पद लेने से मना किया और मोरान सरदार नाहर के पुत्र रमाकान्त को राजा बनवाया। नाहर के दो अन्य पुत्र तिपाम और सारिंग के राजा बनाये गये। विद्रोही नेताओं को उच्च राज्य पद दिये गये। राधा बरबडुआ बना। उसने सिंहासनच्युत राजा की पत्नियों को अपने महल में डाल लिया। इनमें मनीपुर की एक राजकुमारी भी थी जो राजा लक्ष्मी सिंह और उनके बड़े भाई तथा स्वर्गीय राजा राजेश्वर दोनों की पत्नी थी।
रमाकान्त के नाम 1769 में सिक्के ढाले गये। वास्तविक सत्ता राधा के हाथ में थी। अपर (उत्तरी) असम के सब गोसाइयों को मोआमारियों के गोसाई को सबसे बड़ा मानने को बाध्य किया गया। राजा लक्ष्मी सिंह के समर्थक चुप न थे। चुप ही चुप तैयारी कर रहे थे। अधिकांश विद्रोही धीरे-धीरे अपने घर चले गये। रमाकांत के साथ सिर्फ थोड़े से लोग राजधानी में रह गये। इस अवसर को राजा लक्ष्मी सिंह के समर्थकों ने अपने अनुकूल समझा। अप्रैल 1770 को ’बीहू’ के त्योहार के दिन उन्होंने राधा के घर को घेर लिया और उसे पकड़ कर मार दिया। कहा जाता है कि पहला आघात खुद मनीपुर की राजकुमारी ने किया था।“ यह भी कहा जाता है कि राधा के घर पर आक्रमण का संकेत भी इसी राजकुमारी ने किया था ।
राधा के मारे जाने के बाद मोआमारियों का कत्ल आरंभ हुआ। इस आकस्मिक आक्रमण के सामने वे ठहर न सके। हजारों मोआमारिया मारे गये। इस नर-संहार में उम्र या स्त्री-पुरुष का विचार नहीं किया गया।“ रमाकान्त भाग निकला, लेकिन उसके पिता और अन्य संबंधी तथा राज्याधिकारी मारे गये। लक्ष्मी सिंह फिर राजा बना और मोआमारियों पर नये सिरे से अत्याचार शुरू हुए। उनके गोसाई का घर घेर लिया गया और उसके सारे परिवार के लोगों को उसकी आँखों के सामने मार डाला गया। उसे पकड़ कर जेल में तरह-तरह की यंत्रणाएँ दी गयीं। यही भाग्य रमाकान्त का हुआ। उसकी पत्नियों के साथ बर्बरता बरती गयी। एक को पीट-पीट कर मार डाला गया, दो के नाक-कान काट लिये गये और आँखें निकाल ली गयीं। मोआमारियों ने जिन्हें राज्याधिकारी बनाया था, उन सब को पीट-पीट कर मार डाला गया।
इस बर्बर अत्याचार का परिणाम शीघ्र ही नया विद्रोह हुआ। इस विद्रोह के नेता नामरूप के चुंगी थे।“ राजा ने जल्दी अपनी सेना को उसका दमन करने भेजा, लेकिन विद्रोहियों की अग्रगति वह न रोक सकी। वे क्रमशः आगे बढ़ते गये। राजा के मनीपुरी सैनिकों ने आकर देसोंग नदी के किनारे विद्रोहियों को हराया, लेकिन वे फिर चढ़ आये। वे फिर हारे और इस बार जंगल में चले गये। वहाँ उन्होंने किला बनाया। वे यहीं से राजा के अधिकारियों को हैरान करते रहे।
लक्ष्मी सिंह की मृत्यु के बाद गौरीनाथ सिंह राजा बना (1780-1795)। वह मोआमारियों का कट्टर शत्रु था और कोई भी बहाना पाते ही उन पर अत्याचार करता था। इसके अत्याचार से आजिज आकर फिर मोआमारियों ने विद्रोह किया। अप्रैल 1782 की एक रात को राजा मछली का शिकार कर सदलबल गड़गांव वापस आ रहा था। मोआमारियों का एक जत्था भी मशालधारी बन कर राजा के साथ वापस आने वालों में शामिल हो गया। इस तरह वे नगर के अन्दर घुस आये। शहर में घुसते ही उन्होंने मशालें फेंक हथियार सँभाले और राजा के कितने ही सेवकों को मार गिराया गौरीनाथ हाथी लेकर भागा। महल के अन्दर घुस कर उसने अपनी जान बचायी।” बुड़ागोहाइन उसके सौभाग्य से कुछ सैनिकों को लेकर वहाँ आ पहुँचा और विद्रोहियों को शहर से निकाल बाहर करने में सफल हुआ। विद्रोही तब रंगपुर की तरफ बढ़े। इसके अन्दर भी वे चतुराई से घुसना चाहते थे। वैसा न कर पाने पर उन्होंने फाटक तोड़ डाले और जो सामने आया, उसे मौत के घाट उतारा । स्थानीय राज्याधिकारी भाग खड़े हुए। गड़गाँव से उनका पीछा करने वाला बुड़ागोहाइन आकर विद्रोहियों को शहर से भगाने में सफल हुआ। इसके बाद राजा गौरीनाथ ने मोआमारियों के कत्लेआम का हुक्म दिया। हजारों मोआमारिया फिर कत्ल किये गये। इसका परिणाम हुआ कि मोआमारियों ने भी इस अत्याचारी राजा के राज को खत्म करने की योजना पर योजना बनायी। पहली योजना जखलाबांधा के गोसाई परिवार के महन्त ने जयसागर में बनायी। वे पकड़े गये और उनकी आँखें निकाल ली गयीं । उनके तीन अनुयायियों को उबलते तेल के कड़ाह में डाल कर मार डाला गया। और पूर्व में मोरानों ने अपने गाँव बुड़ा (मुखिया) के नेतृत्व में विद्रोह किया, लेकिन वे आसानी से पराजित हो गये।
1786 में फिर मोआमारियों का बड़ा विद्रोह हुआ। यह लोहित नदी के उत्तरी किनारे पर हुआ।“ अनेक असन्तुष्ट लोग इन विद्रोहियों से जा मिले। इन्हें हराने के लिए राजा की जो भी सेना गयी, उसे हार कर वापस आना पड़ा। उसके मददगारों की सेनाएँ भी हारीं। मोआमारियों ने बढ़ कर राजधानी रंगपुर पर कब्जा कर लिया। स्वर्गदेव गौरीनाथ भाग कर गौहाटी पहुँचा और अंगरेजों से मदद माँगी। मोआमारियों ने अपने सम्प्रदाय के भारत सिंह को उत्तरी असम का राज बनाया, मटकों के प्रसिद्ध सरदार बड़सेनापति के पुत्र सर्वदानन्द को मोरानों या मटकों के अंचल का राजा बनाया।
गौरीनाथ के आवेदन पर गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस ने सितम्बर 1792 में कैप्टेन वेल्स के मातहत कंपनी की सेना को मोआमारियों के विद्रोह का दबाने भेजा। इस बीच गोहाटी पर डोमों ने वैरागी के नेतृत्व में कब्जा कर लिया। कैप्टेन वेल्स सेना लेकर पहले ग्वालपाड़ा गया। 16 नवम्बर 1792 को वह वहाँ से गौहाटी के लिए रवाना हुआ। तीन दिन बाद गौहाटी पर कब्जा कर वह गौरीनाथ को लेकर आगे बढ़ा। पहले मंगलदई के विद्रोही राजा कृष्ण नारायण को हराया और मार्च 1794 में रंगपुर पर कब्जा किया। मोआमारियों ने बड़ी वीरता से अंगरेजों और राजा की सम्मिलित सेना का मुकाबिला किया। जोरहाट की लड़ाई में पराजय के बाद भी मोआमारियों को रंगपुर से हट जाना पड़ा। वहाँ से हटने के बाद भी विद्रोही लड़ते रहे। मई 1794 में वेल्स वापस गया। गौरीनाथ को रंगपुर में रहना असंभव मालूम होने लगा। वह अपने राज्याधिकारियों के साथ वहाँ से हट आया और जोरहाट को राजधानी बनाया। विद्रोहियों ने फिर रंगपुर पर कब्जा कर लिया।
गौरीनाथ ने कंपनी की सेना के अफसरों की मदद से नयी सेना तैयार की, अंगरेजी ढंग से उसको शिक्षा दी, कलकत्ते से हथियार मँगा कर उसे दिये। इसकी मदद से अहोम राजवंश मोआमारियों और विद्रोहियों से अपनी रक्षा करता रहा।
1799 में फिर मोआमारियों ने विद्रोह किया। इस बार विद्रोह का केन्द्र बेंगमारा था और इसके नेता भारती राजा थे। अंगरेजों की मदद से यह विद्रोह भी दबा दिया गया। इस तरह ये विद्रोही बहुत दिनों तक अहोम राजवंश और उसके मददगार अंगरेजों से लोहा लेते रहे।