पहाड़िया विद्रोह (1788-90)
यह विद्रोह बंगाल के तत्कालीन वीरभूम बाँकुड़ा जिले में 1788-90 ई0 में हुआ। ये पहाडिया कौन थे ? ब्रिटिश शासकों ने इन्हें जंगली, चोर और खूनी बताया है जो पहाड़ियों से समतल भूमि में आकर लूटपाट किया करते थे लेकिन उनके बारे में प्राप्त तथ्यों से ज्ञात होता है कि ये वे आदिवासी किसान थे, जिनकी जमीनें छीनकर अंग्रेज शासकों ने ज़मींदारों को सौंप दी थी। इसलिए उनके आक्रमण के शिकार अंग्रेजों की कोठियाँ, जमींदारों की कचहरियाँ और उनके खैरखाह लोग थे। उन्होंने जिन अस्त्रों का इस्तेमाल किया, वे सिर्फ तीर, धनुष और भाले ही न थे, उनमें देशी बन्दूकें और तलवारें भी थीं। उनका संग्राम अंग्रेज शासकों और जमींदारों की लूट खसोट के खिलाफ तथा अपनी जमीन के लिए था।
1788 ई0 में उन्होंने विद्रोह आरंभ किया। छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर विद्रोहियों ने बीरभूम जिले के उत्तरी हिस्से में गंगा के किनारे के प्रायः एक सौ मील लम्बे हिस्से में अंग्रेज सौदागरों की कोठियाँ, जमींदारों की कचहरियाँ और देशी व्यापारियों की नावें लूटनी शुरू कीं। अंग्रेज शासकों ने इसे बड़े विद्रोह का सूचक समझ कर बीरभूम बाँकुड़ा जिले को दो अलग जिलों में बाँट दिया और दोनों के अलग-अलग कलेक्टर नियुक्त कर दिये। विद्रोहियों के दमन के लिए फौज भेजी गयी।
विद्रोहियों ने भी मिलकर बड़ी सेना बनायी और अपना संगठित आक्रमण जनवरी 1789 ई0 में आरंभ किया। बीरभूम जिले के शासक के प्रधान केन्द्र से सिर्फ कुछ मील की दूरी पर स्थित एक बहुत बड़े बाजार को उन्होंने लूट लिया। वे अत्याचारी महाजनों की आढ़तों से खाद्यात्र छीन ले गये। इन आक्रमणकारियों की संख्या पांच सौ बताई जाती है। इसके बाद उन्होंने इस अंचल के तीस-चालीस गाँवों के जमींदारों के अनाज के गोलों तथा अंगरेज सौदागरों की कोठियों को लूट लिया। इन गाँवों में अंगरेजों की हुकूमत का नाम निशान मिट गया।
यह विद्रोह तेजी के साथ बीरभूम के गावों में फैला। विद्रोहियों ने शहरों पर भी हमले किये। उनके आक्रमणों के बारे में एक अंगरेज ने लिखा है कि - सब जगह आतंक और रक्तपात का राज था। सीमान्त के प्रवेश पथों की चौकियों को फौरन हटा लिया गया। 21 फरवरी 1789 ई0 को हम बीरभूम जिले के कलक्टर मि0 किटिंग को नियमित सेना के साथ मिलकर डाकुओं के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए अनियमित सैनिकों को भी नियुक्त करते पाते हैं। ये विद्रोही उस वक्त तीन सौ से लेकर चार सौ तक के छोटे-छोटे दल बना कर और अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर जिले के मुफस्सल के शहरों को भी लूटते फिर रहे थे।
यह विद्रोह क्रमशः बॉंकुडा जिले में भी फैल गया। लगान न चुका सकने के अपराध में अंग्रेज शासकों ने विष्णुपुर के राजा को गिरफ्तार कर लिया और इस जागीर की देख रेख के लिए हेसिलरिज नामक अंग्रेज को नियुक्त किया। इसका नतीजा हुआ कि विष्णुपुर की जनता और विद्रोहियों में नये सिरे से गुस्सा फैल गया। किसानों ने विद्रोहियों का साथ दिया और दोनों ने मिलकर अंग्रेज हुकूमत पर हमला किया। जून 1789 ई0 में विद्रोहियों का दमन करने के लिए अंग्रेज सेना भेजी गयी। विद्रोहियों ने इसे पराजित कर बाँकुड़ा जिले के उस वक्त के व्यापार के सब से बड़े केन्द्र इलाम बाजार नामक शहर लूट लिया। और अंग्रेज सेना आई किन्तु हालत उसके काबू के बाहर चली गयी थी। 7 जुलाई 1789 ई0 को बीरभूम जिले के कलक्टर किटिंग ने बड़े अधिकारी के पास रिपोर्ट भेजी कि - ‘‘बन्दूकों तलवारों से लैस एक बहुत बड़ी सेना ने बीरभूम में अपना अड्डा बनाया है। अब उसे तितर-बितर करना एक पूरी सेना के बिना संभव न होगा।‘‘ बरसात के आने पर अधिकांश विद्रोही अपने पहाड़ी इलाकों में चले गये। अधिकृत केन्द्रों की रक्षा के लिए सिर्फ थोड़ी सी सेना छोड़ गये। शीत ऋतु में उनके नये आक्रमण का मुकाबला करने के लिए कलकत्ता से और सेना मँगायी गयी। बीरभूम के कलक्टर ने तात्कालीन गवर्नर लार्ड कार्नवालिस से और सेना भेजने का अनुरोध करते हुए 16 अक्टूबर 1789 ई0 को लिखा कि - ‘‘यहाँ पर हमारी जो सेना है, वह जिले की रक्षा के लिए नाकाफी है। चढ़ाइयों के वक्त परम्परागत प्राप्त दस्ते अनुशासनहीन और हतोत्साह हैं तथा लुटेरों के खिलाफ युद्ध करने के बदले उनसे सहयोग करना ज्यादा पसन्द करते हैं।“
अंग्रेज शासकों ने नवम्बर 1789 में विष्णुपुर (बांकुड़ा) की रक्षा में पूरी ताकत लगायी जिसके फलतस्वरूप बीरभूमि अरक्षित रहा। विद्रोहियों ने विष्णुपुर में शासकों की सेना का जमाव देख जिले पर आक्रमण किया। इस क्षेत्र के अंग्रेज शासकों की हालत का वर्णन करते हुए एक अंगरेज ने लिखा -
रात को मार्च करते-करते थकावट से चूर हो जाते। छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर चारों तरफ फैल जाने के कारण सेना के लिए डकैतों का दमन करना संभव न था। यहाँ तक कि मुख्य-मुख्य शहरों की रक्षा करना भी उसके लिए असंभव हो गया। 25 नवम्बर 1789 को सेना के अफसर ने लिख भेजा कि सदर के सरकारी दफ्तरों में पहरा देने के लिए सिर्फ चार सैनिक रह गये हैं। कुछ सप्ताह के बाद इसी अफसर ने सूचित किया कि जिले से होकर जाने के समय मालगुजारी का रुपया ले जाने वाले दल की रक्षा के लिए वह एक भी सैनिक न भेज सकेगा।
1790 में लगता था कि सारा बीरभूमि जिला अंग्रेज शासकों के हाथ से निकल जायेगा। उसकी रक्षा के लिए जिला कलक्टर किटिंग ने विष्णुपुर की सेना को रात में भाग आने का आदेश दिया। शासकों की सेना के भागते ही विद्रोहियों ने विष्णुपुर पर अधिकार कर लिया और बाँकुड़ा जिले के सभी जमींदारों-महाजनों की कचहरियाँ तथा अंग्रेज सौदागरों की कोठियों को लूट लिया। वर्षा आने पर फिर युद्ध बंद हो गया। विष्णुपुर अंचल पर विद्रोहियों का अधिकार कई महीने रहा लेकिन आखिरकार यहाँ के विद्रोहियों में मतभेद पैदा हो गया। इस फूट से फायदा उठा कर अंग्रेज शासक विद्रोह को दबाने में सफल हुए और इस प्रकार पहाड़ियों का यह किसान विद्रोह समाप्त हुआ।