सुबंदिया विद्रोह -
सुबान्दिया पूर्व बंगाल के बाकरगंज जिले का एक स्थान है जो इस वक्त बंगलादेश में है। इस जिले के बारे में दो बातें बहुत महत्वपूर्ण है - सारे बंगाल में बाकरगंज के निवासी दंगेबाजी और हंगामापसंदी के लिए बदनाम हैं। वे कुछ ज्यादा गरम मिजाज हैं, जरा-सी बात पर ही गरम हो जाते हैं- खास कर भाटी देश अर्थात इस जिले के दक्षिण अंचल के लोग।
सारे बंगाल में बाकरगंज के निवासी बदनाम हैं कि वे दंगेबाज और हंगामापसंद हैं। लेकिन वस्तुतः यह बदनामी उन्हें न मिलनी चाहिए। पहले उनके जमींदार मालिक उन पर भयंकर अत्याचार करते। ये जमींदार कोई भी कानून मान कर नहीं चलते। अंग्रेज शासक भी इसका कोई इलाज नहीं कर सके। किसान यह महसूस करते थे कि नायबों और गुमास्तों की हत्या कर बदला लेने पर भी उन्हे कोई दण्ड नहीं मिलता और सरकार की तरफ से इन दंगों-हंगामों को बंद करने की कोई भी चेष्टा नहीं की जाती थी। इस हालत में दंगों-हंगामों का बढ़ना बिलकुल स्वाभाविक है।
उक्त बातें मि0 रेली की पुलिस रिपोर्ट में बताई गई है जिसमें कुछ सच्चाई है लेकिन उसे सम्पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता, उसमें तिल का ताड़ बनाया गया है। पहला उद्धरण पुलिस सुपारिंटेंडेंट जे0 एच0 रेली की पुलिस रिपोर्ट से लिया गया है। यह अंग्रेज पुलिस अधिकारी इस जिले के निवासियों के अंग्रेज-विरोध और जमींदार-विरोध को देख कर यह गलत मन्तव्य कर बैठता है कि इस जिले के निवासी ही दंगेबाज और हंगामापसंद हैं। दूसरा उद्धरण बाकरगंज जिला गजेटियर से लिया गया है जिसके रचयिता जे0सी0 जैक हैं। ये भी एक अंग्रेज हैं लेकिन ये पुलिस सुपरिंटेंडेंट के मत का खण्डन करते हैं। इस उद्धरण में स्पष्ट स्वीकार किया गया है कि जमींदार के अत्याचार और अंग्रेज सरकार की अत्याचार रोकने की असफलता ने इस जिले के किसानों को विद्रोही बना दिया था। वे जमींदारों के नायबों और गुमास्तों को मार कर इन अत्याचारों का बदला लेते थे।
जमींदार कंपनी सरकार को प्रसन्न करने के लिए किसानों से ज्यादा से ज्यादा मालगुजारी इकट्ठा करते और इसके लिए बड़े-से-बड़े जुल्म करते। कंपनी सरकार के अधिकारी इन जमींदारों की सहायता से चावल, सुपारी, नारियल, नमक आदि का व्यापार करते और किसानों को लूटकर मालामाल होते। बाकरगंज जिले के सिर्फ दक्षिणी अंचल में अंग्रेज सौदागरों के चावल के बड़े-बड़े 52 गोले थे। इन गोलों में चावल इकट्ठा कर ये सौदागर इस जिले में इसका अभाव पैदा करते, कीमत बढ़ाते और फिर चढ़े दामों पर बेच कर मुनाफा कमाते। चावल का बड़ा हिस्सा वे इस देश से बाहर भेजते थे।
यहॉ यह भी उल्लेखनीय है कि अंग्रेज सौदागरों की इस खुली लूट का परिणामस्वरूप ही सारे देश में बार-बार अकाल पड़ा था। 1787 ई0 का अकाल बाकरगंज जिले के जन-जीवन में सबसे बड़ी घटना थी जिसमें 60,000 आदमी मरे थे और बहुत से किसानों को मुट्ठीभर अत्र की तलाश में घर-द्वार छोड़ कर भागना पड़ा था। इस अकाल के समय यहाँ का जिला कलक्टर डगलस था। उसने इसका पूरा विवरण लिख कर रेवेन्यू बोर्ड के पास भेजा था।
डगलस के बाद इस जिले का क्लेक्टर बन कर डे आया। उसने अकाल के कारण हुई तबाही पर जरा भी ध्यान न दिया और 1791 ई0 के जमीन के बंदोबस्त में मालगुजारी बढ़ा देने की सिफारिश की। अकाल के समय जो लोग मौत के मुँह में जाने से किसी तरह बच सके थे, मालगुजारी बढ़ा कर उनमें से बहुतों को जिला छोड़ कर भाग जाने को बाध्य किया गया। लेकिन किसान जायें तो जाये कहाँ ? बंगाल में अन्नाभाव था, इसलिए बहुतों ने सुन्दरवन का रास्ता पकड़ा और डकैती को अपनी जीविका का साधन बनाया। वे अंग्रेज सौदागरों की माल से लदी नावों को लूट लेते। अंग्रेज अधिकारियों के साथ इनके जलयुद्ध के कितने ही उदाहरण उस वक्त के सरकारी कागजात में पाये जाते हैं।
इस पृष्ठभूमि में 1792 ई0 में बाकरगंज जिले के दक्षिणी अंचल में विद्रोह की आग जल उठी। इस विद्रोह का केन्द्र सुबन्दिया नामक स्थान था और इसके नेता थे बुलाकी शाह फकीर। संन्यासी विद्रोह में दौरान हम यह जानते है कि कितने ही फकीर गृहस्थ बन गये थे और खेती करते थे। बुलाकीशाह ऐसे ही फकीर थे। अन्य किसानों के साथ उन्हें भी जमींदारों और अंग्रेज सौदागरों के शोषण उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा था। अपने अनुभव से वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसानों को संगठित कर इन अत्याचारियों का सशस्त्र मुकाबला ही जिन्दा रहने का एक मात्र रास्ता है।
स्थानीय जमींदार भी कम शक्तिशाली न थे। इसके पास तरह-तरह के हथियारों से लैस बहुत से सिपाही रहते थे जो किसानों को कुचलने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। उसके नायब की कचहरी में 88 बंदूकधारी सिपाही हर वक्त प्रस्तुत रहते थे। इसके अतिरिक्त कंपनी सरकार उनकी मददगार भी थी अतः इन दुश्मनों का मुकाबला सहज नही था। इसलिए बुलाकी ने सुबन्दिया में एक छोटा किला बनाया और स्थानीय किसानों की सेना खड़ी की। उन्हें तरह-तरह के हथियारों के चलाने की शिक्षा दी। इस किले में उन्होंने एक तलवार, बल्लभ आदि बनाने का और एक बारूद, गोला आदि का कारखाना खोला। उन्होंने इस किले में सात तोपें और बारह बंदूकें इकट्ठा कीं। दो आदमी दिन-रात बारूद तैयार करते। बुलाकी इन तोपों को शुजाबाद नामक स्थान से ले आये थे। मुगल सेना इन्हें इस स्थान में छोड़ कर चली गयी थी। बुलाकी शाह ने इन्हें दुर्ग के अंदर लाकर अपने कारीगरों से ठीक कराकर काम लायक बना दिया।
इस तरह बुलाकी शाह ने पर्याप्त तैयारी के साथ विद्रोह की घोषणा की। उनके आदमियों ने चारों तरफ प्रचार किया कि फिरंगियों का राज खत्म हो गया है। किसानों को आदेश दिया गया कि वे जमींदार को मालगुजारी देना बंद कर दें। जमींदार के गुमास्ते पकड़-पकड़ कर किले में बंद किये गये। ऐसा ही एक गुमास्ता किसी तरह भाग निकला और जमींदार के नायब को किले का सारा भेद बता दिया। नायब ने फौरन अपने सिपाही इस किले पर हमला करने के लिए भेजे। बुलाकी की किसान सेना ने किले के बाहर और फिर अंदर डटकर उनका मुकाबला किया लेकिन जमींदार के युद्ध कला की नियमित शिक्षा पाये सिपाहियों के सामने किसान ठहर न सके। हारकर वे तितर-बितर हो गये। नायब के सिपाहियों ने किले पर कब्जा कर उसे ढहा दिया लेकिन बुलाकी शाह का क्या हुआ ? अनुमान लगाया जाता है कि वे भी किले से निकल भागने में समर्थ हुए।
इस तरह यह विद्रोह समाप्त हो गया लेकिन इस पराजय के बाद भी किसान जमींदार के खिलाफ लड़ते पाये जाते रहे। कभी उन्होंने लगानबंदी का रास्ता अपनाया, तो कभी गुप्त रूप से जमींदार के कर्मचारियों की हत्या की। बाकरगंज के दक्षिणी अंचल में इस तरह किसान काफी दिन तक लड़ते रहे।