थियोसोफिकल सोसाइटी -
थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना सन् 1875 ई0 में अमेरिका में हुई थी। इसकी स्थापना एक रूसी महिला Madam Helena Petrovna Blavatsky तथा एक अमेरिकी सैनिक अफसर Kernel Henry Steel Olcott ने की थी। थियोसॉफिकल सोसायटी की स्थापना के पीछे मुख्यतः तीन उद्देश्य बताए गए थे जो निम्नलिखित है –
- शाश्वत भाईचारे की स्थापना। (To form a universal brotherhood of Man.)
- प्राचीन दर्शनों, धर्मो तथा विज्ञानों को प्रोत्साहन देना। (To promote the story of Ancient religions, philosophy and sciences.)
- प्रकृति के नियमों की खोज करना तथा मनुष्य के अन्तर्गत सन्निहित दैवीय शक्तियों को विकसित करना। (To investigate the laws of Nature and develop the divine power latent in man.)
थियोसॉफिकल सोसायटी को बौद्ध और बाह्मण साहित्य ने सिद्धान्तों की शब्दावली प्रदान की जो रहस्यवादी भारतीयों तथा आधुनिक आध्यात्मिक विचारों तथा फार्मूलों से प्रभावित थी। इस सोसायटी के अनुयायी ईश्वरीय ज्ञान को अन्तर्दृष्टि द्धारा प्राप्त करने का प्रयास करते थे। उन्होने हिन्दू धर्म तथा बौद्ध धर्म जैसे प्राचीन धर्मो को पुनर्जीवित करके उन्हे मजबूत बनाने की वकालत की। वे पुनर्जन्म तथा कर्म के सिद्धान्तों में विश्वास करते थे और सांख्य और उपनिषदों के दर्शनों को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे। वे विश्वबंधुत्व की भावना का समर्थन करते थे। उन्होने हिन्दू धर्म की प्रचलित प्रथाओं का पक्ष लिया। उन्होने विश्वबंधुत्व की भावना का जातिप्रथा से मेलमिलाप करवाया और सर्वोच्च सत्ता की मूलभूत आवश्यकता के आधार पर देवी देवताओं की पूजा को उचित ठहराया। इन्होने मूर्तिपूजा को आत्मिक शक्ति के विकास का माध्यम माना। इन सबके माध्यम से थियोसॉफिकल सोसायटी ने भारतीयों के मन में हीनता की भावना को निकालने का प्रयास किया। साथ ही साथ थियोसॉफिकल सोसायटी ने शिक्षित हिन्दूओं को कुछ कठोर अनुशासन में भी बॉधने का कार्य किया। इसने नशा से पूरी तरह से मुक्त होने तथा सामाजिक पवित्रता पर विशेष बल दिया क्योंकि उनकी दृष्टि में इसके अभाव में मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक शक्ति का विकास संभव नहीं था। इन्ही आधारों पर फरक्यूहर (Farquhar) ने थियोसॉफिकल सोसायटी के इतिहास को रेखांकित करते हुए लिखा है कि – थियोसाफी धर्म, विज्ञान तथा व्यवहारिक जीवन की एक पद्धति है। सबसे पहले ब्लावटस्की (Blavatsky) ने इसकी शिक्षा दी और फिर इसे कर्नल अल्काट (Kernel Olcott) द्धारा 1875 ई0 में न्यूयार्क में स्थापित सोसायटी मे ंइसे समाविष्ट किया गया किन्तु इसके बाद के बर्षो में श्रीमती एनी बेसेण्ट Smt. Annie Besant तथा सी0 डब्ल्यू0 लीडराइटर (C.W.Lead-writer) ने इसे काफी आगे बढाया। यह विश्व के उस अन्तिम सत्य का दावा करता है जिसका विभिन्न धर्मो के संस्थापकों तथा धर्मदर्शनों के शिक्षकों ने विभिन्न कालों में विश्व के विभिन्न भूभागों में शिक्षा दी थी किन्तु ब्लावटस्की को इस सत्य की जानकारी तिब्बत और अन्यत्र रहने वाले महात्माओं से मिली। इसी कारण भारत में थियोसाफी तथा थियोसॉफिकल सोसायटी के विषय में लोगों को जानने की विशेष रूचि पैदा हुई। चूॅकि थियोसॉफिकल सोसायटी के उद्देश्य तथा सिद्धान्त भारतीय धर्मदर्शन पर आधारित थे, उदाहरणस्वरूप – विश्वव्यापी भाईचारे की धारणा भारतीय दर्शन के इस सिद्धान्त पर आधारित थी कि सभी जीवों में एक ही आत्मा है। इसी तरह इस सोसायटी का दूसरा उद्देश्य सभी धर्मो एवं दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन शीध्र ही इस विश्वास में बदल गया कि धर्म के विभिन्न स्वरूप केवल एक ही सत्य की विभिन्न व्याख्याएॅ मात्र है। इस सत्य का ज्ञान विभिन्न कालों में रहस्यवादियों अथवा महात्माओं को था। मैडम ब्लावटस्की ने घोषित किया कि वह इन महात्माओं के साथ मनोवैज्ञानिक एवं प्रत्यक्ष सम्पर्क में थी। उनके सहयोगियों के द्धारा इस बात को स्वीकार भी किया गया। थियोसॉफी के मूल दार्शनिक सिद्धान्त जैसे कर्म और निर्वाण बाह्मण तथा बौद्ध धर्म के समान थे अतः भारतीयों का उनकी ओर आकृष्ट होना स्वाभाविक था। किन्तु जब कर्नल अल्काट तथा मैडम ब्लावटस्की ने यह घोषित किया कि उनके द्धारा उद्धरित महात्मा हिमालय की दुर्गम कन्दराओं में अभी भी रहते है तो थियोसाफी के सन्देश को बडे उत्साह के साथ उच्च पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त भारतीयों द्धारा भी अपनाया गया क्योंकि उनका सामाजिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों, रीति-रिवाजों और परम्पराओं में कोई खास विश्वास नहीं था किन्तु समाज के भय से वे प्रत्यक्षतः इसका विरोध करने का साहस नही रखते थे। मानसिक तथा मैत्रिक विरोधाभासों के बीच रहकर कष्ट पाने वाले लोगों के लिए थियोसॉफिकल सोसायटी शान्ति एवं मुक्ति के धर्म के रूप मेंं प्रस्तुत हुआ। इसलिए भारत में थियोसाफी तथा थियोसॉफिकल सोसायटी का बडे ही उत्साह के साथ स्वागत किया गया। किन्तु थियोसॉफिकल सोसायटी बहुत लम्बे समय तक लोकप्रिय नही रह सकी। मैडम ब्लावटस्की द्धारा महात्माओं के साथ संचार सम्पर्क की घोषणा आलोचना का विषय बन गया। उन्होने यह घोषित किया कि महात्माओं का शरीर उनमें विद्यमान है और तिब्बत जैसी दूरी से उनके पास तत्काल सन्देश आ जाते है। इसके लिए उन्होने अपनी आध्यात्मिक शक्ति दर्शन का भी प्रदर्शन किया किन्तु इसे आम जनता ने विशुद्ध जादूगरी माना। यद्यपि दूसरी ओर उनकी बातों का समर्थन भी कुछ लोगों ने किया। श्रीमती एनी बेसेण्ट जो मैडम ब्लावटस्की के बाद आगामी 50 वर्षो तक थियोसाफिकल सोसायटी का निर्देशन करती रही, उनके प्रति असीम आदर व्यक्त किया। एनी बेसेण्ट ने 1893 में यह वक्तब्य दिया था कि – मै अपने व्यक्तिगत प्रयोगों के द्धारा यह जानते हुये भी कि आत्मा विद्यमान रहती है और मेरी आत्मा न कि मेरा शरीर अपना है, यह इच्छा से शरीर को छोड सकती है, जीवित मानव के पास जाकर उनसे कुछ सीख सकती है और वापस लौटकर शारीरिक मस्तिष्क पर यह प्रभाव डाल सकती है कि उसने क्या सीखा है। जागरूकता की यह प्रक्रिया जिसमें एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में स्थानान्तरण होता है, बडी ही मन्द गति से होता है। इस प्रक्रिया में शरीर तथा मस्तिष्क व आत्मा एक दूसरे से गूढ रूप से जुडे रहते है। मेरा अपना निजी अभ्यास अभी भी अधूरा है।
एनी बेसेण्ट ने स्वयं को मैडम ब्लावटस्की के रहस्यवादी शिक्षण संस्थान की एक शिष्या बताया। यद्यपि ब्लावटस्की के चमत्कार के उपर उठे विवाद के कारण थियोसाफिकल सोसायटी की लोकप्रियता नीचे गिरी किन्तु फिर भी यह एक शक्तिशाली संगठन बना रहा। जब 8 मई 1891 को मैडम ब्लावटस्की की लंदन में मृत्यु हो गई तब उनके अन्तिम संस्कार में लगभग 1 लाख लोग लंदल, पेरिस, न्यूयार्क तथा मद्रास आदि से आकर सम्मिलित हुये थे।
भारत में थियोसॉफिकल सोसायटी का प्रधान केन्द्र मद्रास के निकट अड़यार नामक स्थान पर 1882 ई0 में स्थापित किया गया किन्तु भारत में थियोसॉफिकल सोसायटी की सफलता का अध्याय 1893 ई0 में शुरू हुआ जब एनी बेसेण्ट भारत आई तथा अपने हाथों से इस संस्था का कार्यभार संभाला।
श्रीमती एनी बेसेंट –
श्रीमती एनी वेसेण्ट का जन्म सन् 1847 ई0 में लन्दन में हुआ था। उनके पिता एक डाक्टर थे किन्तु विचारों से वे नास्तिक थे जबकि उनकी माता धार्मिक प्रवृति की महिला थी। 05 वर्ष की आयु में ही उनके पिता व छोटे भाई की मृत्यु हो गई थी और उनकी औपचारिक शिक्षा सन् 1855 ई0 में एलेन मैरियट (Miss Elen Mariet) की देखरेख में प्रारम्भ हुई जो एक कट्टर धार्मिक महिला थी अतएवं उनके शिक्षा का मूल धार्मिक शिक्षा थी। एनी वेसेण्ट पर इस शिक्षा का गहरा प्रभाव पडा। 1867 ई0 में श्रीमती एनी वेसेण्ट का विवाह फ्रैंक विसेण्ट (Frank wisent) से हुआ जो एक रूढिवादी व्यक्ति था। उनका अपनी पत्नी के साथ अच्छा सम्बन्ध न रहा और 1873 में दोनो के सम्बन्ध विच्छेद हो गये। मई 1874 में एनी वेसेण्ट की मॉ की भी मृत्यु हो गई जिसके कारण उनके जीवन यापन के लिए जूझना पडा। वह भूखमरी की अवस्था में पहुॅच गई थी और प्रायः अपनी भूख से लडने हुए ब्रिटिश म्यूजियम में पढनें के लिए जाया करती थी और लेखन का कार्य करती थी।
श्रीमती एनी वेसेण्ट की इंग्लैण्ड में रूचि तथा गतिविधियॉ बहुआयामी रही। 1875 ई0 में उन्होने पूरे देश में घूम घूम कर धर्म तथा राजनीति पर भाषण देना प्रारम्भ किया। डब्ल्यू0 टी0 स्टीड (W. T. Stead) के अनुसार – उनके प्रथम सार्वजनिक भाषण का विषय “The Political status of women” था। 1876 ई0 में उन्होने “The religious condition of India by a Hindu spectator” नामक लेख लिखा जिसमें उन्होने लिखा था कि – ईसाई मिशनरियों को भारत में समय बर्बाद करने की जगह अपने घर की ओर देखना चाहिए। 1878 ई0 में उन्होने “India, England, and Afganistan” नामक पुस्तक लिखी जिसमें उन्होने भारत पर अंग्रेजो की विजय का इतिहास ढूॅंढा और उन्होने भारत विजय और हिन्दुस्तान को पराधीन बनाने की निन्दा की। 1884 -86 तक एनी वेसेण्ट राजनीति से लेकर व्यवहारिक राजनीतिक-सामाजिक प्रश्नों की ओर आकृष्ट हुई। 1889 ई0 में जब 'The secret Doctrine' प्रकाशित हुआ और इसके दो खण्डों की समीक्षा के लिए सम्पादक ने इसे एनी वेसेण्ट को सौपा तो इसके गहन अध्ययन के पश्चात मई 1889 में एनी वेसेण्ट थियोसॉफीकल सोसायटी की सदस्य बन गई। 1893 ई0 में उन्हाने भारत की प्रथम यात्रा की और इसे अपना घर बनाने का निश्चय किया तथा अपने अतीत से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया।
एनी वेसेण्ट भारत क्यों आई? – इस सम्बन्ध में थियोसॉफिकल सोसायटी के संस्थापक कर्नल अल्काट ने अपने लेख ”Old Diary Leaves” में उत्तर दिया है। उन्होने लिखा है कि वह ऋषियांं द्धारा भारत भेजी गयी थी ताकि उन बीजों से फल उगाया जा सके जिनका पिछले 15 वर्षो में थियोसॉफिकल सोसायटी ने बीजारोपण किया था। थियोसॉफिकल सोसायटी के भारतीय सदस्यों में उन्हे 1892 ई0 के अड़यार सम्मेलन में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया गया था किन्तु वह इस समय न आ सकी। नवम्बर 1893 ई0 में वह भारत आई और यहॉ के गॉवों, कस्बों तथा नगरों का भ्रमण किया। उन्हे सर्वत्र अत्यधिक सम्मान दिया गया। इस सम्बन्ध में आर्थर एच0 नीदरपॉट (Aurther H. Neitherpot) ने लिखा है कि -‘‘उन्हे वह आदर सम्मान दिया गया जो देवताओं तथा ख्यातिप्राप्त उच्च आध्यात्मिक शक्ति वाले व्यक्तियों को दिया जाता है‘‘।
18 जनवरी 1894 ई0 को पश्चिम बंगाल की एक सभा में उनके स्वागत में एक सम्मान पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें उन्हे भारत मॉ की विदुषी पुत्री की संज्ञा दी गई। उन्होने भारत को अपने पूर्व जन्म की मातृभूमि के रूप में महसूस किया। उनके लिए भारत वास्तव में पवित्र भूमि थी, यहॉ का धर्म सभी धर्मो का मूल स्रोत था। दूसरे शब्दों में उन्होने भारत को वर्तमान अवनति के रूप में नही अपितु अतीत की महानता के रूप में देखा। भारत आने के बाद ऐनी वेसेण्ट में जीवन के भौतिक मूल्यों के प्रति उदासीनता उत्पन्न हुई। उन्होने अपने थियोसाफी ज्ञान द्धारा यह जान लिया था कि मनुष्य में उच्च प्रवृति विद्यमान रहती है। उनका विश्वास था कि मनुष्य के इस गुण को पुनर्जिवित करके विश्व की सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है और मानवता की सही सेवा की जा सकती है। उन्होने जीवन की सच्चाई को पा लेने का दावा किया। उन्होने मनुष्य के भाईचारे के अपने नवस्थापित आदर्श को आतुरता के साथ फैलाने का प्रयास किया और इसके लिए उन्होने भारत को सही स्थान माना इसलिए वह भारत आई थी।
एनी वेसेण्ट के भारत पर्दापण के समय यहॉं कि दशा बहुत अच्छी नही थी। भारतीय समाज परम्परागत रीतिरिवाजों में विश्वास रखने वालों तथा पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति के बीच स्पष्ट रूप से दो भागों में बटॉ हुआ था। अतएवं सबसे बडी समस्या इन दोनों बर्गो के बीच सामंजस्य एवं एकता स्थापित करने की थी। एनी वेसेण्ट ने इस स्थिती का समाधान अपने तरीके से किया। भारत आने के बाद ऐनी वेसेण्ट ने सबसे पहले यहॉं के प्राचीन धर्म, संस्कृति तथा प्राचीन दर्शन के मूल आदर्शो को सीखा, यहॉ के लोगों की आदतों तथा रीतिरिवाज को अपनाया ताकि भारतीयों की दृष्टि में वह विदेशी न रहे। इसके बाद उन्होने थियोसॉफिकल सोसायटी के संरक्षण में सम्पूर्ण राष्ट्र का भ्रमण किया और प्राचीन भारतीय विचारों की श्रेष्ठता एवं गौरव के विषय में विभिन्न भाषाओं में व्याख्यान दिये। उन्होने भारतीय धर्म तथा दर्शन की अत्यधिक प्रशंसा की तथा लोगों को पाश्चात्य सभ्यता की ओर आकृष्ट होने से रोका। उन्होने भारतीय परम्पराओं तथा रीतिरिवाजों में विश्वास रखने वालों को अत्यधिक प्रोत्साहित किया। उन्होने स्वयं अपने दैनिक जीवन में हिन्दू आदर्शो तथा परम्पराओं को अपनाया तथा देश में घूम घूम कर यह प्रचार प्रसार किया कि भारतीयों को राजनीति त्यागकर आध्यात्मिकता के प्रचार-प्रसार में जुट जाना चाहिए क्योंकि वही उनका मूल कर्मक्षेत्र है और इसके माध्यम से ही पूरे विश्व पर वे अपना वर्चस्व स्थापित कर सकेंगे। 1898 ई0 में उन्होने बनारस में सेन्ट्रल हिन्दू स्कूल (Central Hindu School) की स्थापना की तथा पूरे देश में स्कूल और कॉलेज का एक जाल बिछा दिया। किन्तु इसके लिए उन्होने सरकारी सहायता स्वीकार नही की। उन्होने अपने यहॉं उन छात्रों को भी भर्ती करने में कोई हिचक नही दिखलाई जिन्हे तथाकथित अनेक भिन्न कारणों से सरकारी स्कूलों से दण्डित करके निकाला गया था। अपने द्धारा प्रचारित शैक्षणिक कार्यक्रम में उन्होने धार्मिक शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया क्योंकि उनका मत था कि धार्मिक शिक्षा के माध्यम से ही विद्यार्थियों में नैतिक एवं मानवीय मूल्यों को जगाया जा सकता है। देशसेवा और नागरिकता के उच्च आदर्शो की प्राप्ति के लिए ”Indian Boy Scout” तथा ”Girls Chitta Association” स्थापित किया। 1907 ई0 में एनी वेसेण्ट को भारत की थियोसॉफिकल सोसायटी का अध्यक्ष मनोनीत किया गया जिसपर वह आजीवन, अपनी मृत्यु से पूर्व 1933 ई0 तक आसीन रही।
श्रीमती एनी वेसेण्ट ने भारत आने के बाद 20 वर्षो तक अपने आप को राजनीति के मामलों से दूर रखा और केवल धार्मिक, शैक्षणिक तथा समाज सेवा के कार्यो में ही अपना समय व्यतीत किया। उन्होने भारत का भ्रमण करके भारतीयों का ध्यान उनकी महान आध्यात्मिक धरोहर की ओर आकृष्ट किया जिससे भारत में नवीन जागृति एवं विश्वास का वातावरण पैदा हुआ। उन्होने विद्यार्थियों को भी राजनीतिक आन्दोलनों से दूर रहने की सलाह दी किन्तु 1905 ई0 के बंगाल विभाजन की घटना ने पूरे भारत में उत्तेजना पैदा कर दी। इससे स्वदेशी आन्दोलन को बल मिला और भारत के आर्थिक पुनरुत्थान के लिए एक नया मार्ग दिखलाई पडा। एनी वेसेण्ट ने स्वदेशी आन्दोलन के महत्व को समझकर उसका समर्थन किया और बंगाल विभाजन की तीव्र भर्त्सना की किन्तु इस आन्दोलन में भी विद्यार्थियों की भागीदारी का उन्होने विरोध किया जिससे कुछ समय के लिए उनकी लोकप्रियता में कमी आई। प्रेस जगत ने इसकी कडी आलोचना की और उन्हे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सबसे अच्छा प्रतिनिधि बतलाया तथा उनके सभी कार्यो को मात्र दिखावा बताया। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने वर्ष 1905 से 1910 के मध्य देश में फेली हुई अशान्ति से विद्यार्थियों को अलग रखने के लिए ”Sons of India society ” की स्थापना की जिसमें सभी आयु के स्त्री पुरूषों को सदस्य बनाया गया। इसमें वृद्धजनों का कार्य विद्यार्थियों के अन्दर अनुशासन पैदा करना और युवा शक्ति का उपयोग देश की प्रगति हेतु लगाना था, अनुशासन तथा आत्मत्याग के द्धारा अच्छे नागरिक का निर्माण करना तथा देश को शक्तिशाली बनाना था। श्रीमती एनी वेसेण्ट ने ब्रिटिश नीति की अच्छाई का स्वीकार किया तथा गलत नीतियों की आलोचना भी की। उदाहरण के लिए उन्होने मार्ले-मिण्टो सुधार (Marle-Minto reforms) 1909 को सही दिशा में उठाया गया एक कदम बताया। इसी तरह 1858 की इस घोषणा की भी वह पक्षधर थी कि सरकारी नौकरियों में रंगभेद का प्रयोग नही होना चाहिए तथा सभी ऊॅंचे पदों पर योग्य भारतीयो ंकी नियुक्ति की जानी चाहिए। उन्होने युरोपियनों के द्धारा भारतीयो ंके प्रति किये जाने वाले दुर्व्यवहार की भी निन्दा की।
श्रीमती एनी वेसेण्ट ने भारत की आध्यात्मिक जागृति एवं भारत की महानता का संदेश देने के बाद यह नारा लगाया कि – कोई भी विदेशी राज्य अन्य राज्यों को अपना गुलाम बनाकर नही रख सकता। उनके अनुसार – भारत जैसे महान राष्ट्र को स्वराज्य न देना इंग्लैण्ड की सरकार पर कलंक है अतएवं उन्होने भारत में होमरूल आन्दोलन (Home Rule Movement) चलाने का निर्णय लिया और इस सम्बन्ध में 1914 ई0 मे Commonweal नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया। होमरूल के काम को चलाने के लिए एनी वेसेण्ट ने ”Madras standard” नामक समाचारपत्र खरीदा तथा उसका नाम “New Indian” रखा। धीरे -धीरे एनी वेसेण्ट का भारत की राजनीति से सम्बन्ध बढता गया। उन्होने अपनी पुस्तक “Wake up India” के माध्यम से भारत में राजनीतिक जागरूकता पैदा की। उन्होने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के शिथिल पडे कार्यकलापों को एक नवीन गति प्रदान की। उन्होने 1916 ई0 में होमरूल लीग (Home Rule League) की स्थापना की। उन्हे गरमपंथीयों का समर्थन प्राप्त था और उन्ही के प्रयास से 1916 में लखनऊॅ अधिवेशन के दौरान एकता स्थापित हुयी तथा साथ ही साथ कांग्रेस-मुस्लिम लीग समझौता करवाया। एनी वेसेण्ट की बढती हुई लोकप्रियता को ब्रिटिश सरकार ने अहितकर माना तथा 1917 ई0 में उन्होने नजरबन्द कर दिया किन्तु उनकी नजरबन्दी अर्न्तराष्ट्रीय महत्व का विषय बन गई। वुडरो विल्सन (Woodrow Wilson) ने ब्रिटिश प्रधानमंत्री लायड जार्ज (Lloyd George) को उनकी रिहाई के लिए पत्र लिखा। अन्ततः सरकार को उन्हे रिहा करना पडा। कांग्रेस में उनकी सेवाओं को देखते हुए 1917 में अपने कलकत्ता अधिवेशन में उनकी अनुपस्थिती में ही अपना अध्यक्ष चुनकर उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित किया। 1918 ई0 के मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड (Montague-Chelmsford) सुधारों को अपर्याप्त मानकर एनी वेसेण्ट ने उनकी बडी निन्दा की। चूॅंकि वह संविधानवादी थी अतएवं उन्होने महात्मा गॉधी के असहयोग तथा सत्याग्रह आन्दोलन का समर्थन नही किया। उन्होने प्रोफेसर भगत राम का “Common wealth of India bill” तैयार करवाया लेकिन इसे कांग्रेस तथा ब्रिटिश संसद ने अस्वीकार कर दिया। इसके बाद उनकी राजनीतिक गतिविधियॉ उत्साहपूर्ण नही रही और अन्त में 1933 ई0 में उनकी मृत्यु हो गई।
स्पष्ट है कि एनी वेसेण्ट एक महान ऐतिहासिक विभूति थी। विदेशी होने के बावजूद उन्होने भारत की जितनी सेवा की उतनी बहुत से भारतीय भी न कर सके। जार्ज बनार्ड शॉ (George Bernard Shaw) ने इन्हे न केवल इंग्लैण्ड बल्कि पूरे युरोप में सबसे बडी वक्ता माना है।
एनी बेसेंट के सामाजिक और धार्मिक विचार :
एनी वेसेण्ट के अनुसार धर्म मनुष्य की आत्मा द्धारा वृहद आत्मा के साथ तादात्मय की खोज है। उनके अनुसार जीवन के तीन महान सत्य है –
- वह सत्य अर्थात ईश्वर जो जीवन दाता है हमारे अन्दर तथा बाहर है, वह उस मनुष्य द्धारा जाना जा सकता है जो इसे जानने के इच्छुक है।
- प्रत्येक मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता है। वह अपने सुख-दुःख, प्रशंसा-पुरस्कार, अपमान-दण्ड आदि सबका विधायक है। ये सत्य उतने ही महान है जितना कि विधाता महान है।
एनी वेसेण्ट ने थियोसाफी को उन सभी अटल सत्यों का समूह बताया जो सभी धर्मो की आधारशिला कही जा सकती है और जिसे कोई भी एक धर्म अपनी सम्पत्ति नही कह सकता। थियोसाफी का आधार स्तम्भ पुनर्जन्म और कर्मविधान है। कर्मविधान ईश्वर का कोई मनमाना नियम नही है अपितु वह वैज्ञानिक सिद्धान्त कर्म और फल पर आधारित है। यह वैज्ञानिक नियम है कि प्रत्येक क्रिया की एक प्रतिक्रिया होती है। इसी बात को श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि कोई भी क्षण ऐसा नही है जब मनुष्य बिना कर्म किये रहे और जिसका कोई फल न हो। सभी प्रकृति के गुणों के वश में होकर कर्म करते है, शरीर तथा मन प्रकृति के गुणों से वशीभूत होकर ही कर्म करते है अतः कर्म का प्रतिफल शरीर तथा मन देनों पर पडता है, न कि सिर्फ आत्मा पर। यदि हम अपने को आत्मा समझे जो शरीर, मन और बुद्धि से परे है तो हमको कष्ट नही पहुॅचेगा। चूॅकि हम अपने को शरीर और मन से भिन्न नही समझते है अतः हमें कष्टों की अनुभूति होती है। जबतक हमारी चेतना इतनी उॅची नही उठती कि हम स्वयं को शरीर तथा मन से भिन्न समझे, हमें समझ लेना चाहिए कि वैज्ञानिक नियम कारण और फल के अनुसार हमारे कर्मो का प्रतिफल हमपर पडेगा ही।
‘कर्ममया वाचा कर्मणा‘ तीन प्रकार से होता है और तीनों प्रकार के कर्मो का फल कर्ता को भोगना पडता है। श्रीमती एनी वेसेण्ट के अनुसार हम उस महाज्योति की ही चिंगारी है और उसी में ही विलीन होंगे। इसके लिए हमने अनेको जन्म लिए है और अनेकों बार हमारी मृत्यु हुई है। जैसे कोई वृक्ष प्रतिवर्ष हरा-भरा पल्वित और पुष्पित होता है और पूर्णता की ओर आगे बढता है, वैसे ही अनेक जीवन लेकर हम पूर्णता की ओर बढ रहे है। इस पूर्णता में मृत्यु नामक मरीचिका समाप्त हो जाएगी और विक्षोभ नही होगा। हम अपनी अमरता और आत्मतत्व को अच्छी तरह अनुभव कर पूर्ण बन जायेगे। यही जीवन का कारण है। ऐनी वेसेण्ट के धार्मिक विचारों का सार जैसा कि B. S. Sharma ने अपनी पुस्तक “Hinduism through the ages” में लिखा है कि- उनकी हिन्दू धर्म में अगाध आस्था का होना है। वे हिन्दू धर्म को उसकी पूर्णता में स्वीकार करती है। उन्होने उपनिष्द्, गीता, रामायण, मनुस्मृति आदि समस्त साहित्य को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होने हिन्दू धर्म के दर्शनों, उपासना पद्धति, लोक पद्धति, आदर्श, वर्णाश्रम धर्मव्यवस्था आदि सभी को स्वीकार करके भारतीयों को चकित कर दिया। उन्होने कर्म के सिद्धान्त, पुनर्जन्म की घारणा, अवतारवाद आदि को भी श्रद्धापूर्वक स्वीकार किया। नवम्बर 1914 ई0 में मद्रास के प्रेसीडेण्सी कॉलेज में उन्होने कहा था कि – ‘‘मैने अपने विश्व के महान धर्मो के 40 वर्षो से अधिक के अध्ययन में किसी भी धर्म को न तो इतना पूर्ण, न इतना वैज्ञानिक, न दार्शनिक और न ही इतना आध्यात्मिक पाया जितना हिन्दू धर्म के नाम से विख्यात महान धर्म को‘‘।
उनके उपरोक्त कथन उनके हिन्दू धर्म के प्रति लगाव को दर्शाता है। ऐनी वेसेण्ट ने सामाजिक जीवन में विश्व-बंधुत्व की भावना को प्रचारित प्रसारित करने को अपना लक्ष्य बनाया था। इसके साथ साथ सामाजिक भेदभाव को दूर करना भी उनका लक्ष्य रहा जो प्राचीन हिन्दू धर्म का ही एक लक्ष्य था।
मूल्यांकन :-
ऐनी वेसेण्ट ने प्रेम और सेवा से स्वयं को हिन्दू राष्ट्र से जोडकर भारत की जो सेवा की उसके सम्बन्ध में भारतीय सिद्धान्तों में वैचारिक मदभेद है। कुछ विद्वानों ने उन्हे भारत की महान सेविका और धर्म सुधारका माना है तो कुछ लोग उन्हे भारत में अ्रग्रेजी राज्य की दासता का प्रवर्तक माना है। उनके आलोचकों का कथन है कि जब स्वामी विवेकानन्द 1893 ई0 में पश्चिमी विजेताओं को हिन्दू धर्म के माध्यम से विजित करने के लिए शिकांगो गए ठीक उसी वर्ष ऐनी वेसेण्ट भारत की आध्यात्मिक संस्कुति के पुनरूत्थान तथा उनके नैतिक उत्थान के लिए भारत आई। शिक्षित भारतीय अ्रग्रेज शासकों की संस्कृति की उच्चता के इतने कायल थे कि उन्होने ऐनी वेसेण्ट के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त करने की बजाय उन्हे भारत की राजनीति में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप करने और बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गॉधी जैसे महान नेताओं से नेतृत्व की प्रतिद्वन्दिता करने का अवसर प्रदान किया। उनके आलोचकों का यह भी मत है कि ऐनी वेसेण्ट की आध्यात्मिकता उनके अंग्रेजी राज समर्थित विचारों को छिपाने का एक प्रधान चोला था। एनी वेसेण्ट यह अच्छी तरह जानती थी कि किसी भी साम्राज्य को शक्ति के बल पर अधिक दिनों तक नही चलाया जा सकता था इसलिए दासता को बनाये रखने के लिए मानसिक आधार ढूॅढना आवश्यक था। उन्होने अंग्रेजों के अधिकार को प्रशासन से बढाकर सांस्कृतिक क्षेत्र में भी स्थापित कर दिया। उन्होने हिन्दूओं के मस्तिष्क को महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधियों से दूर हटाकर आध्यात्मिकता में लगा दिया। भारतीयों ने एक अंग्रेज से हिन्दूओं की महत्ता का उपदेश सुनकर अपने दर्शन तथा धर्म के मूल्यों को उनके माध्यम से प्राप्त कर अपनी सारी श्रद्धा उनके प्रति उडेल दी। यद्यपि भारतीय विद्धानों ने बारम्बार उपनिषदों की प्रशंसा की थी किन्तु दासता की प्रवृति के कारण किसी विदेशी के मुह से की गई प्रशंसा को उन्होने सच्ची प्रशंसा मान लिया। श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने भारतीय संस्कृति के भौतिक पक्ष को विस्मृत कराकर भारतीयों को आध्यात्मिकता की ओर ले जाने का प्रयास किया ताकि ब्रिटिश सरकार के अन्तर्गत देश की राजनीतिक दुर्दशा के बारे में लोग अपरिचित बने रहे। उन्होने भारतीय संस्कृति की रक्षा और उसके अनुपम अस्तित्व को सुरक्षित रखने का आन्दोलन चलाकर राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष को उनके सामने गौड बनाने का प्रयास किया। उन्होने निरन्तर यह प्रयास किया कि भारतीय राजनीति के स्थान पर धर्म की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करे। उन्होने खुलेआम कहा कि भारतीयों की श्रेष्ठता धर्म में रही है, न कि राजनीति के क्षेत्र में। अतः भारतीयों को आध्यात्मिक गुरू बनना चाहिए और राजनीतिक संघर्ष से अपने आप को दूर रखना चाहिए। भारत के उपर विश्व के धर्म की रक्षा करने का दायित्व बताकर उन्होने भौतिकवाद के विरूद्ध आध्यात्मवाद का पक्ष लिया। इतना ही नही उन्होने पूरब और पश्चिम में गुणात्मक अन्तर दर्शाते हुए दोनो संस्कृति के भिन्नता को ईश्वर की सुनियोजित योजना का भाग मानते हुए इनकार कर दिया और दोनो संस्कृतियों को अनुपम और एक दूसरे पर निर्भर बताया। उनके अनुसार – भारत में सभी धर्मो का आध्यात्मिकरण प्रारम्भ होगा और इंग्लैण्ड से व्यवहारिक विज्ञान प्रवाहित होगा जो प्रकृति के समस्त स्रोतों का मानव सेवा में आबद्ध कर देगा। उनका प्रयास भारतीयों को जीवन की यथार्थ समस्याओं से अलग थलग करने का था।
श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने भारत की आध्यात्मिक महत्ता का सन्देश फेलाने में कोई कमी नही रखी फिर भी भारत में राष्ट्रवाद के प्रचार-प्रसार में कुछ व्यक्तियों का एक समूह लगा हुआ था जो युरोपीय क्रान्तिकारियों का अनुसरण करने में ही भारत का भावी भविष्य देख रहा था। उनकी सफलता को देखकर श्रीमती ऐनी वेसेण्ट को भारत में ब्रिटिश शासन की रक्षा के लिए आध्यात्मिकता की बात छोडकर सक्रिय राजनीति में प्रवेश करना पडा। तिलक द्धारा चलाए गए स्वराज्य अभियान के चार महीने बाद श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने होमरूल आन्दोलन चलाया। श्रीमती ऐनी वेसेण्ट द्धारा लोगों को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी जाती थी किन्तु अब वह स्वयं राजनीति में प्रविष्ट होकर स्वराज्य को जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में मॉगने का प्रयास करने लगी। उनके आलोचकों का मत है कि श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने यह नाटक इसलिए किया था कि वह तिलक और गॉंधी दोनो के राजनीतिक कार्यक्रमों की लोकप्रियता को ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर प्रहार मानती थी और उससे ब्रिटिश साम्राज्य को बचाना चाहती थी। वह भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल का अंग बनाना चाहती थी ताकि भारत को स्वशासन देकर सदा के लिए ब्रिटेन से बॉध दिया जाय।
श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने कहा कि ईश्वर की इच्छा के कारण ही भारत ब्रिटेन से जुडा है और इसी में पूरब और पश्चिम का बंधन अन्तर्निहित है। उनका प्रयास था कि ब्रिटेन और भारत के सम्बन्धों को शक्ति के स्थान पर प्रेम पर आधारित कर दे ताकि भारतीय अपनी दासता की बेडियों को बेडियॉ न मानकर फॅूलों की माला समझे किन्तु राजनीतिक घटनाओं ने उन्हे सफल नही होने दिया। तब उन्होने गॉधीजी के सत्याग्रह, असहयोग और बहिष्कार आन्दोलनों के भारत के लिए घातक बताया। यहॉ तक कि वे गॉंधीजी को शैतान की संज्ञा देने लगी और उन्हे भीडतन्त्र का अगुआ बताया। संक्षेप में, श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने हिन्दू धर्म की महत्ता के सन्देश की आड़ में अपना अहिंसात्मक साम्राज्यवादी मुखौटा छिपा रखा था। आलोचकों के उक्त विचारों में सत्यता का चाहे जितना अधिक अंश क्यों न हो किन्तु इस बात से भी इनकार नही किया जा सकता कि श्रीमती ऐनी वेसेण्ट ने भारत को अपनी मातृभूमि मानकर यहॉ के देशवासियों और हिन्दू धर्म की महत्ता के सन्देश के प्रचार और प्रसार में जो महत्वपूर्ण योगदान किया वह स्वयं में अत्यधिक महत्वपूर्ण है। उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप भारतीयों की गरिमा को महत्व मिला।