परिचय -
मानव संस्कृति का संबंध ज्ञान, कर्म तथा रचना से है। इसका संवर्धन निरंतर बना रहे इसलिए किसी भी संस्कृति का संस्कार सम्पन्न होना अति आवश्यक होता है। इसी सन्दर्भ में यदि हम प्राचीन भारतीय संस्कृति की बात करें तो इसका अतीत अत्यधिक गौरवपूर्ण है। संपूर्ण विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति को बहुत आदरपूर्ण स्थान दिया गया है। हमारे वेदों में भी इसका वर्णन किया गया है कि ”सा संस्कृतिः प्रथिमा विश्ववारा” जिसका अर्थ यह है कि संस्कृति संपूर्ण विश्व के कल्याण के लिए है इसके इस उत्कृष्ट भावना का ही प्रतिफल है कि जहां एक ओर अन्य समकालीन संस्कृतियां काल के गर्त में समां गई वहीं भारतीय संस्कृति वर्तमान में भी जीवंत है और यह आज भी विश्व के समक्ष आदर्श प्रस्तुत कर सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को गौरवान्वित कर रही है
विश्व की प्राचीनतम् संस्कृति भारतीय सनातन हिन्दू संस्कृति में पर्यावरण को देवतुल्य स्थान दिया गया है। यही कारण है कि पर्यावरण के सभी अंगों को जैसे जल, वायु, भूमि को देवताओं से जोड़ा गया हैं मनुष्य पांच तत्वों जल, अग्नि, आकाश, पृथ्वी और वायु से मिलकर बना है। वैदिक काल से इन तत्वों के देवता मान कर इनकी रक्षा का करने का निर्देश मिलता है।
संस्कृति का अर्थ -
संसार के सभी विद्वानों ने ‘संस्कृति’ शब्द की विभिन्न परिभाषाएं, व्याख्याएं की हैं। कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं मिल पाती फिर भी इतना तो स्पष्ट ही है कि ‘संस्कृति’ उन भूषणरूपी सम्यक् चेष्टाओं का नाम है जिनके द्वारा मानव समूह अपने आंतरिक और बाह्य जीवन को, अपनी शारीरिक मानसिक शक्तियों को संस्कारवान, विकसित और दृढ़ बनाता है। संक्षेप में संस्कृति मानव समुदाय के जीवन-यापन की वह परंपरागत किंतु निरंतर विकासोन्मुखी शैली है जिसका प्रशिक्षण पाकर मनुष्य संस्कारित, सुघड़, प्रौढ़ और विकसित बनता है।
‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से 3 शब्द बनते हैं- ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। ‘संस्कृति’ का शब्दार्थ है- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति यानी कि किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके।
विभिन्न ऐतिहासिक परंपराओं से गुजरकर और विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों में रहकर संसार के भिन्न-भिन्न समुदायों ने उस महान मानवीय संस्कृति के भिन्न-भिन्न पक्षों से साक्षात किया है। नाना प्रकार की धार्मिक साधनाओं, कलात्मक प्रयत्नों और सेवाभक्ति तथा योगमूलक अनुभूतियों के भीतर से मनुष्य उस महान सत्य के व्यापक और परिपूर्ण रूप को क्रमश: प्राप्त करता है जिसे हम ‘संस्कृति’ शब्द द्वारा व्यापक करते हैं।
सभ्यता से किसी संस्कृति की बाहरी चरम अवस्था का बोध होता है। संस्कृति विस्तार है तो सभ्यता कठोर स्थिरता। सभ्यता में भौतिक पक्ष प्रधान है, जबकि संस्कृति में वैचारिक पक्ष प्रबल होता है। यदि सभ्यता शरीर है तो संस्कृति उसकी आत्मा। सभ्यता बताती है कि ‘हमारे पास क्या है’ और संस्कृति यह बताती है कि ‘हम क्या हैं’। एक संस्कृति तब ही सभ्यता बनती है, जबकि उसके पास एक लिखित भाषा, दर्शन, विशेषीकरणयुक्त श्रम विभाजन, एक जटिल विधि और राजनीतिक प्रणाली हो।’
भारतीय संस्कृति व्यक्ति-समाज-राष्ट्र के जीवन का सिंचन कर उसे पल्लवित-पुष्पित फलयुक्त बनाने वाली अमृत स्रोतस्विनी चिरप्रवाहिता सरिता है। भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। कई भारतीय विद्वान तो भारतीय संस्कृति को विश्व की सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानते हैं।
भारतीय संस्कृति और पर्यावरण संरक्षण –
भारतीय संस्कृति पर्यावरण-संरक्षण में महत्त्वपूर्ण तथा सकारात्मक भूमिका रखती है। मानव तथा प्रकृति के बीच अटूट रिश्ता कायम किया गया है। जो पूर्णतः वैज्ञानिक तथा संतुलित है। हमारे शास्त्रों में पेड़, पौधों, पुष्पों, पहाड़, झरने, पशु-पक्षियों, जंगली-जानवरों, नदियाँ, सरोवन, वन, मिट्टी, घाटियों यहाँ तक कि पत्थर भी पूज्य हैं और उनके प्रति स्नेह तथा सम्मान की बात बतलायी गयी है। बुद्धिजीवियों का यह चिन्तन पर्यावरण को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिये सार्थक तथा संरक्षण के लिये बहुमूल्य हैं।
आज समाज का एक प्रबुद्ध वर्ग यह मानकर चलता है कि हम उस संस्कृति में विश्वास नहीं रखते जो दकियानूसी या फिर देवी-देवताओं वाले धर्म को मानती है अर्थात उनका इसके पीछे यह तर्क है कि वे आस्तिकता पर कतई ध्यान नहीं देते तथा भौतिक समृद्धि को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं, वे ऐसी संस्कृति में लौटना नहीं चाहते जो उपरोक्त सजीव तथा निर्जीव तत्वों को किसी न किसी रूप में पूजती और स्वीकार करती है। मेरा सवाल यह है कि प्रत्येक मनुष्य, समुदाय, वर्ग अपना रास्ता चुनने तथा संस्कृति को मानने के लिये स्वतंत्र हैं वह किसी भी चीज को सर्वोपरि ठहरा सकता है। मनुष्य नास्तिक हो या आस्तिक, धार्मिक हो या अधार्मिक क्या फरक पड़ता है? लेकिन पर्यावरण हमारे चारों ओर है। हवा, भोजन, पेड़-पौधे, पानी, जीव-जन्तु का महत्व जितना आस्तिक के लिये है, उतना ही नास्तिक के लिये भी है। प्राकृतिक विपदायें आने से पहले यह नहीं पूछती हैं कि कौन आस्तिक है और कौन नास्तिक। जब प्रदूषण की आँधी आती है, वह सब अपने में समेटकर ले जाती है। कहने का अभिप्राय है कि पर्यावरण का संरक्षण करना हमारा नैतिक दायित्व है क्योंकि संरक्षण करना अपने आपको जीवन देना है। पर्यावरण की कोई भौगोलिक तथा राजनैतिक सीमा नहीं होती है। यह विश्व-व्यापी है इसके साथ किया गया प्रतिशोध मनुपुत्रों को हमेशा-हमेशा के लिये काल के गाल में धकेल देगा।
भारत की जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग आज भी अपनी संस्कृति को पूज्य तथा विश्वसनीय मानता है। हमारे देश में अनेक तीर्थ स्थानों को पवित्र तथा त्योहारों को मनाने की परम्परा आज भी विद्यमान है। जहाँ हर दिन, सप्ताह, महीना, साल सांस्कृतिक मान्यताओं से ओत-प्रोत है वहाँ सभी दिन तथा त्योहार तीर्थ प्राकृतिक संसाधनों से सम्बन्धित है। नगाधिराज हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक तीर्थों की शृंखला सी बनी हुई है। इस पवित्र वातावरण में मनुष्य प्रवेश करके निष्पाप हो जाता है। इस तरह की यात्रा के पीछे यह प्रावधान रखा गया, कि मानव विभिन्न जगहों की भौगोलिकता, पर्यावरण का ज्ञान, मनोरंजन के स्थल, अभ्यारण्य, अरण्य, सरोवर, झीलों के शुभ दर्शन कर सकते हैं। इससे लोगों के रहन-सहन जीवनचर्या और जीवन-यापन करने के तौर-तरीकों का बोध होता है और अनेकता में एकता का आभास मिलता है साथ ही मानव नैसर्गिक सौन्दर्यता से प्रभावित होता है और उसे मानसिक शान्ति की अनुभूति होती है।
हमारी संस्कृति पर्यावरण संरक्षण प्रधान रही है, जो प्रदूषण पर उपराम लगाती है और आध्यात्मिक मनोविज्ञान को स्वीकार करती है और यह स्पष्ट करती है कि मानव के प्राणों की सुरक्षा तथा पवित्रता की सुरक्षा प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा पर निर्भर करती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार जिस मनुष्य को आध्यात्मिक अनुभूति हो जाती है तो वह अल्प साधनों से अपने हितों की पूर्ति कर सकता है, वह हर तरह से सामाजिक तथा आर्थिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। ऊँच-नीच के भेदभाव से ऊपर उठ जाता है। आज जरूरत इस बात की है कि मानव अपनी शक्ति को देशहित में सुदृढ़ बनाए और नैतिक मूल्यों को समझे तथा नैतिक अनुशासन से नियमबद्ध हो, तभी उसकी भौतिकतावादी प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकता है। हमारे प्राचीन शास्त्रों में इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि इस तरह के कार्य को सम्पन्न करने के लिये किसी विशेष अध्ययन तथा चिन्तन की आवश्यकता नहीं होती है।
कालिदास, सूरदास, रसखान, तुलसीदास, कबीरदास ने किसी संस्था से शिक्षा प्राप्त नहीं की, लेकिन अपनी रचनाओं में प्रकृति को इस तरह चित्रित किया कि इसके विनाश की बात सोची भी नहीं जा सकती। कालिदास ने पर्यावरण संरक्षण के विचार को मेघदूत तथा अभिज्ञान शाकुन्तलम में दर्शाया। रामायण तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों, उपनिषदों में वन, नदी, जीव-जन्तु, पशु-पक्षियों की भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी। ये कृतियाँ जितनी तत्कालीन समाज में लोकप्रिय रही होंगी, ठीक कहीं उससे भी अधिक आज की व्यवस्था के अनुरूप और न्यायसंगत हैं। अन्तर विरोध इस बात का है तब भारतीय नैतिक अनुशासन अन्तर्मुखी तथा आत्मसंयम और त्याग पर बल देता था और दूसरों को समाज (पेड़-पौधे, जीव-जन्तु) तथा उन पर शासन एवं अधिकार करने का समर्थन नहीं करता था। इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने की आत्म प्रेरणा दी जाती थी कि चिन्तन तथा मनन के द्वारा नैतिक उत्साह और अन्तर्दृष्टि प्राप्त की जाय जिससे बाह्य शक्तियों (साधनों की खोज में ये भाग-दौड़, जोखिम और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति रोष) पर अत्यधिक दबाव न डाला जा सके तथा अपने ऊपर विजय पायी जाय। महाभारत की एक कथा के अनुसार भारतीय ऋषियों ने राक्षसों का सर्वनाश करने के लिये अपनी अस्थियों को भी दान स्वरूप दे दिया था। खेद की बात है, आज हम अपने अनन्त स्वार्थों की पूर्ति के लिये किसी अन्य सभ्यता तथा संस्कृति से प्रभावित होकर पूँजी और विकास को केन्द्र बिन्दु या जीवन का प्रमुख आधार मान बैठे हैं और अपने प्राणों के रक्षक पर्यावरण को खत्म कर रहे हैं उसे प्रदूषित कर रहे हैं।
पर्यावरण संरक्षण और शास्त्र –
रामायण, महाभारत, गीता, वायु-पुराण, स्कन्दपुराण, भविष्य पुराण, वराहपुराण, ब्रह्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, मत्स्यपुराण, गरुणपुराण, श्री विष्णुपुराण, भागवतपुराण, श्रीदेवी भागवत पुराण वेद, उपनिषद तथा कुरान बाईविल, श्रीगुरु ग्रन्थ तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थ, पेड़-पौधे, जीव-जन्तुओं पर दया करने की सीख देते हैं। यदि ध्यान से इन शास्त्रों की बातों को पढ़ा तथा सुना जाय तो मानव से इनका सम्बन्ध अन्तरंग है और इनके विनाश की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। मानसिक शान्ति, शारीरिक सुख, इन सबकी पूर्ति के साधन प्राकृतिक सम्पदा ही है। गेहूँ, जौ, तिल, चना, चन्दन, लाल पुष्प, केसर, खस, कमल, ताम्बूल, श्वेतपुष्प, बांस, मिट्टी, फल, तुलसी, हल्दी, पीत-पुष्प, शहद इलाइची, सौंफ, उड़द, काले-पुष्प, सरसों के फूल, मुलेठी देवदारू, बिल्व वृक्ष की छाल, आम, पला, खैर, पीपल, गूलर, दूब, कुश आदि। उपरोक्त सभी को संरक्षित रखने के उद्देश्य से इन्हें किसी दिन, त्योहार, देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना से जोड़ा गया है। औषधि के रूप में फलों तथा जड़ी-बूटियों की रक्षा करने की बात कही गयी है और इन्हें घरों के निकटस्थ लगाकर पर्यावरण को स्वच्छ रखने की सलाह दी गयी है। जैसे- अंगूर, केला, अनार, सेव, जामुन, प्याज, लहसुन, गाजर, मूली, नींबू, अदरक, आंवला, घिया, बादाम, आम, टमाटर, अखरोट, अजवाइन, अन्नानास, असगन्द, गिलोय, तम्बाकू, तरबूज, तुलसी, दालचीनी धनिया, पुदिना, संतरा, पान, पीपल, बबूल, ब्राह्मीबूटी, कालीमिर्च, लालमिर्च, लौंग, हरड़, बहेड़ा आदि अनेक बूटियों का प्रयोग करने से मनुष्य निरोग रह सकता है।
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति में शुद्ध वायु, शुद्ध पानी, शुद्ध मिट्टी इन चीजों को मुख्य आधार मानकर चिकित्सा की जाती है और असाध्य रोगों का इलाज इनसे कर दिया जाता है। गंगा, यमुना, झीलें, सरोवर, तालाब, झरने, नाले के पानी से नहाने पर निष्पाप तथा चर्म रोग दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए कि मनुष्य इनकी साफ-सफाई तथा उचित रख-रखाव की व्यवस्था को बनाये रखे। वन्य जीव-जन्तुओं का भी हमारे शास्त्रों में बहुत अच्छी तरह से वर्णन प्रस्तुत किया गया है ज्ञान तथा नैतिक शिक्षा पर आधारित पंचतंत्र की कथायें जातक कथायें अनेक ग्रन्थ जीव-जन्तुओं की उपमा से भरे पड़े हैं। इनमें से कई को देवी-देवताओं के वाहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है। माँ श्री दुर्गा का वाहन शेर, श्री शिव भगवान जी वाहन बेल, श्री इन्द्र जी का एरावत हाथी, श्री गणेश जी का चूहा, सर्प, हंस, हनुमान जी भालू आदि ऐसे ही प्रतीक हैं। वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम तथा आदर की भावना के बाद भी आज अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं, जो जीव-जन्तु बचे हैं सरकार इनके संरक्षण के लिये अत्यधिक चिन्तित है। इसलिए चौदह आरक्षित जीव मण्डलों की स्थापना की गयी है। समस्त जीव मण्डलों को एक दूसरे से जोड़ने के लिये सरकार एक राष्ट्रीय नीति बनाने पर विचार कर रही है। जानवरों की खाल तथा हड्डियों और चोरी छिपे इनका वध करने वालों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए। फर के पर्स, टोपी, कोट, हड्डियों से बने दवाओं पर पाबन्दी तथा इनका विकल्प खोजने के लिये अनुसंधान किये जाने चाहिए।
मनुष्य के जीवन को सफल बनाने में तथा उसके अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिये औषधि उदर पूर्ति के लिये कन्दमूल फल, शरीर ढकने के लिये वस्त्र, कारखाने चलाने हेतु कच्चामाल, भूमि को उपजाऊ तथा भू-स्खलन से बचाने में पेड़ पौधों की भूमिका को कदापि नकारा नहीं जा सकता। कार्बनडाइऑक्साइड को अमृत (ऑक्सीजन) में परिवर्तित पेड़-पौधे ही करते हैं। पूजा-हवन, यज्ञ करने में पुष्प समिधाओं की परम आवश्यकता होती है। पेड़ों में अनेक देवी-देवताओं का वास बतलाया गया है। गीता में स्वयं भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैं पेड़ों में स्वयं पीपल का वृक्ष हूँ, तुलसी का पौधा स्वयं विष्णुप्रिया के रूप में पूज्यनीय है। सन्तान प्राप्ति के लिये बरगद की पूजा की जाती है। चन्दन की लकड़ी चिता से लेकर माथे की शोभा तक बढ़ाता है। और अपनी शीतलता के लिये अतुलनीय है। हवन यज्ञ में प्रयोग आने वाली समिधाओं जैसे- आम, चन्दन, पीपल, पाकड़ा, देवदार, बेल, नीबू, धतूरा इनके फल टहनियों, छाल से आहुति दी जाती है। भगवान राम ने अपने जीवन के चौदह वर्ष तथा पाण्डवों को जब वनवास दिया गया तो इन्होंने अपनी उदर पूर्ति कन्दमूल, फल तथा तन ढकने के लिये वृक्ष की पत्तियों तथा छाल का ही प्रयोग किया। भगवान राम ने दण्डक व वन, कृष्ण ने वृन्दावन, पाण्डवों ने खाण्ड-वन, शौनकादि ऋषियों ने नैमिषारण्य वन, इन्दु ने नन्दन वन का निर्माण कराया। तुलसीदास जी वनों से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने जीवन काल के चौथे चरण में वनागमन के आवश्यक माना है। भगवान शंकर की पूजा अर्चना के लिये बेल-पत्तियों की परम आवश्यकता होती है। मत्स्यपुराण की जानकारी के अनुसार दस कुँओं के बराबर एक बाबड़ी, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र, दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। शास्त्रों में ही यह बतलाया गया है कि सौ पुत्रों से उतना सुख नहीं मिलता, जितना एक वृक्ष लगाने से होता है।
मत्स्य पुराण में इस बात का भी उल्लेख है कि शास्त्र, जलाशय, वृक्ष, मन्दिर ये चारों अमर हैं। मनुष्य के मर जाने के पश्चात भी यह जीवित शरीर कहे जाते हैं। सुभासितावली में कहा गया है लम्बे फलों ने मृगों को, पुष्पों ने भ्रमरों को, फलों ने पक्षियों को छाया ने गर्मी से पीड़ितों को, सुगन्ध ने वायु को सदा आनन्दित किया है। चाणक्य जैसे निपुण नीतिज्ञ भी साम्राज्य की स्वच्छता का आधार पर्यावरण को मानता है और उसने पशुओं से सीख लेने का आग्रह भी किया है। सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कुत्ते से छः गदहे से तीन गुण ग्रहण करने चाहिए। हमारी संस्कृति में नीम को पूर्ण चिकित्सक, आंवले को पूर्ण भोजन, पीपल को शुद्ध वायुदात्री, पाकड़ और वट के युग्म वृक्षों को जल संग्राहक एवं वट को पूर्ण घर माना गया है। भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष महत्व है। अपनी प्राचीन एवं पारंपरिक संस्कृति को जानने के साथ-साथ विभिन्न त्योहारों में वट, पीपल, नीम, आम के पेड़ों, केला एवं तुलसी के पौधे की पूजा तथा गाय, कुत्ता, चिड़ियों यहां तक कि कौवों आदि को भोजन खिलाना हमारी संस्कृति का अंग है। यह हमारी प्रकृति एवं मनुष्य के विभिन्न सहभागियों के प्रति जागरूकता का द्योतक है। नदियों एवं पहाड़ों का मानवीयकरण करके हमने उसमें जीवंतता ही नहीं पैदा की वरन् उन्हें अपना हिस्सा बनाया।
प्रकृति से सामंजस्य स्थापित कर जीवनयापन करने के लिए आध्यात्मिकता को अपने जीवन का अंग बनाकर प्रकृति से केवल आवश्यकता भर प्राप्त करने का मूल-मंत्र हमने सीखा है। इस कारण विभिन्न धर्मों-सनातन, जैन एवं बौद्ध धर्म में अन्न को बर्बाद होने से रोकना, अधिक अन्न का संग्रह न करना, अपने शरीर को प्रकृति के अनुरूप ढालना, स्वस्थ शरीर के लिए शुद्ध जल एवं वायु पर निर्भर रहना, पशु-पक्षियों के साथ रहना एवं उनवके प्रति करुणा का भाव रखना आदि पर विशेष जोर दिया गया।
आध्यात्म और विज्ञान का सम्बन्ध –
सामान्य मानता है कि विज्ञान जहां समाप्त होता है, अध्यात्म वहां से प्रारंभ होता है, किंतु ऐसा नहीं है। यदि हम ध्यान में देखें तो विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हां, यह सही है कि दोनों के दृष्टिकोण एक-दूसरे के विपरीत हैं। इस कारण विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे से दूर दिखाई देते हैं। विज्ञान भौतिक सुख-सुविधाएं आप तक उपलब्ध कराता है और आपके शरीर के अनुकूल वातावरण तैयार करता है, जैसे शरीर को सुखद लगने वाले ताप के लिए एयरकंडीशन का उपयोग, हवा के लिए पंखा, सुखद यात्रा के लिए वाहन का प्रयोग आदि। अध्यात्म द्वारा आप अपने शरीर को वातावरण के अनुकूल बनाते हैं, ताकि ताप के अंतर से आपको कष्ट का अनुभव न हो। अधिक ऊर्जा प्राप्त कर आप कठिन मार्ग पर चल सकें। अध्यात्म की यौगिक क्रिया द्वारा शरीर को हल्का करके उड़ना, यहां तक कि किसी भी स्थान पर ताप में बदलाव लाना, अध्यात्म के एक विशिष्ट अंग की तकनीक है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि विज्ञान और अध्यात्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
इन दोनों में विशेष अंतर है, जो प्रकृति और पर्यावरण से सीधा जुड़ा है। वैज्ञानिक तरीके से भौतिक सुखों को प्राप्त करने में प्रकृति में विकृति, प्रदूषण की वृद्धि, पर्यावरण में असंतुलन एवं प्रकृति के चक्रों में बाधा उत्पन्न होती है, जबकि अध्यात्म के मार्ग से जीवनयापन करने से प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक होता है। अतः प्रकृति का निर्बाध चक्र और पर्यावरण संतुलन दोनों ही संयोजित रहते हैं। अतः किसी भी कठिनाई का अनुभव नहीं होता। हां, इस पर चलने का कार्य कठिन अवश्य है, किंतु सुखद है।
अध्यात्म का एक और बड़ा गुण है-यौगिक क्रिया द्वारा अपने शरीर को स्वस्थ रखना, जो किसी भी जीवन के सुख का आधार होती है। विज्ञान यह सुख नहीं दे सकता, मात्र आप दवाओं के दास बनकर ही रह सकते हैं। कष्ट तो आपको उठाना ही पड़ेगा, कम या अधिक। अब या तो कठिन मार्ग से चलकर सुख उठाएं या सुखद मार्ग से चलकर कष्ट झेलें, इसका निर्णय मनुष्य को ही करना है। यही है अध्यात्म का लक्ष्य और भारतीय चिंतन का परम उद्देश्य।
संस्कृति तथा विज्ञान का आपस में अविच्छेद सम्बन्ध है अर्थात यह एक दूसरे के पूरक हैं। यदि संस्कृति मानव के हृदय को परिष्कार, परोपकार, समाज सेवा, सहयोग सहानुभूति प्रदान करती है, तो विज्ञान मानव को बाह्य रूप से मजबूती प्रदान करता है। संस्कृति की सफलता देश के लोगों की निपुणता, नेतृत्व, संयम, उत्कण्ठा तथा इसे सामाजिक हितों के अनुकूल बनाने पर निर्भर करती है। जिस जनसमुदाय में अपने देश की समस्याओं को सुलझाने की प्रबल इच्छा हो और वे उदासीन तथा अदृष्ट न हो, बल्कि स्वतः सामुदायिक कार्यकलाप में अभिक्रम करने की श्रेष्ठ तथा क्रियाशील क्षमता रखते हों, तो उस देश अथवा स्थान की संस्कृति मानवतावादी, सृजनात्मक, परार्थवादी अवश्य होगी।
आज परिधान से लेकर खान-पान, ज्ञान से लेकर सम्मान, उत्पादन से लेकर उपभोग विकास से लेकर विनाश और समझने से लेकर विचारने तक सभी कुछ पश्चिमी तौर-तरीकों से ग्रस्त है। यद्यपि हमें विश्व का सबसे बड़ा तथा श्रेष्ठ लोकतंत्र होने का गौरव प्राप्त है और विश्व के अनेक देशों की संस्कृति हमारे पूर्वजों व विद्वानों के उपदेशों से सिंचित तथा पोषित हुई तथा दुनिया को हमने संस्कृति, सभ्यता की नसीहत दी फिर भी आज दुर्भाग्यवश अपने घर में ही हमारी संस्कृति परापेक्षी तथा विखण्डित होकर रह गयी। आज हम यदि बच्चों से यह कहते हैं कि पेड़ों, नदियों, तालाबों, पहाड़ों, गुफाओं, कन्दराओं, घाटियों के किनारे बैठकर हमारे ऋषियों, तपस्वियों, चिन्तकों, साधु-सन्तों ने ज्ञान अर्जन किया और धार्मिक ग्रन्थों की रचना की तथा देश-विदेशों में भ्रमण करके भारतीय चिन्तकों ने अपनी सभ्यता तथा संस्कृति से विश्व जनसमुदाय को अवगत कराया तो खेद की बात है कि उन्हें विश्वास ही नहीं होता और यह सब उन्हें एक कहानी सी लगने लगती है। यद्यपि दोष उनका नहीं है। इसके लिये दोषी हम हैं, उन्हें परिवेश ही नहीं दिया गया, जहाँ उन्हें नैतिक शिक्षा से परिचित कराया जाता।
निष्कर्ष –
उपरोक्त विवेचन से हम यह स्पष्तः कह सकते हैं कि हमारी संस्कृति अद्वितीय, समृद्धशाली और सुगठित है। पर्यावरण के संरक्षण में नियमबद्ध तथा वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी का सूत्र प्रदान करती है। इसमें कहीं भी संकीर्णता, धर्मान्धता, घृणा, पृथकता आदि दुर्गुणों के लिये कोई स्थान नहीं है। आवश्यकता इस बात की है हमें निष्ठापूर्वक नैतिक अनुशासन की समस्त जन समुदाय को शिक्षा देनी चाहिए जिससे पर्यावरण के प्रति प्रेम तथा उत्साह की भावना को प्रबल बनाया जा सके। हमारे शास्त्र किसी भी उद्देश्य को ध्यान में रखकर क्यों न रचे गये हों, एक बात स्पष्ट है कि आज यह व्यवस्था खास तौर पर पर्यावरण संरक्षण के लिये एक नयी दिशा तथा प्रदूषण से उत्पन्न चुनौतियों को जड़ से समाप्त करने में सक्षम है। पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा बचपन से ही आरम्भ की जाए और लोगों के मन में विश्वास कायम किया जाए, जब एक अबोध बालक अपने आस-पास की नैसर्गिक सुन्दरता से अति प्रसन्न होता है, तो एक परिपक्व मस्तिष्क उसके विनाश की बात क्यों सोचता है इसलिए हमें यह प्रयास करना चाहिए कि हम लोगों को ज्यादा से ज्यादा प्राकृतिक सुन्दरता का अनुसरण करायें और इससे सम्बन्धित ज्ञान दें और उन्हें इस बात से परिचित करायें कि हम चारों ओर से पर्यावरण के द्वारा प्रदान किये गये सुरक्षा कवच से घिरे हैं तो हमें इस कवच में सुराख करने की कभी भी नहीं सोचनी चाहिए, अपितु उसे मजबूती प्रदान करनी चाहिए। कोरोना के इस वैश्विक संकट के दौर में सार्वभौमिकता पर बल देते हुए भारत अपनी उन्नति के साथ-साथ संपूर्ण विश्व के कल्याण की न केवल कामना करता है बल्कि हमने विश्व को यह भी सन्देश दिया है कि हम भारतीय सदैव ”वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना रखते हैं। यही हमारी संस्कृति की अपनी थाती है जो विश्व के अन्य संस्कृतियों से भिन्न बनाती हैं।