window.location = "http://www.yoururl.com"; Commercialization of Indian Agriculture. // भारतीय कृषि का वाणिज्यिकरण

Commercialization of Indian Agriculture. // भारतीय कृषि का वाणिज्यिकरण


विषय-प्रवेश :

प्राचीन काल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है तथा यहॉं के निवासियों की आजिविका का मुख्य आधार कृषि ही है। भारत के लगभग 75 प्रतिशत लोग अभी भी अपनी आजिविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है। किन्तु यह बडे दुर्भाग्य की बात है कि कृषि और कृषक को सदैव ही शोषित होना पडा है। ब्रिटिश काल में भी किसानों को लाभ पहुॅंचाने के लिए कोई ठोस कदम नही उठाये गये। यही कारण है कि भारतीय कृषक निर्धनता, अकाल व ऋणग्रस्तता के दलदल में फॅसा रहा। इसी कारणवश बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि – ‘‘भारत की आत्मा रूपी किसान के उपर मॅडराते हुये जडता तथा उदासीनता के बादलों को हटाना होगा और उसके लिए हमें अपने आप को किसानों के साथ जोडना होगा और यह अनुभव करना होगा कि किसान हमारा है और हम किसान के लिए है।‘‘

18वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भारतीय ग्रामीण समुदाय परम्परागत ढंग से चला आ रहा था। भारतीय किसानों की कृषि उनके निर्वाह के मुख्य साधन थे। इस समय तक भारतीय कृषक अपने कृषि उत्पादनों से अपना पेट भरते तथा उत्पादन के एक अंश को बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। कभी कभी जब अधिक उत्पादन हो जाता था तो कृषक संकटकालीन परिस्थितीयों के लिए कुछ अनाज भण्डार भी कर लेता था क्योंकि आवागमन के साधन अभी उतने विकसित नही थे। इसी कारण भारतीय कृषि उत्पादनों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कोई स्थान नही मिल सका।

इस प्रकार लगभग 1850 ई0 तक भारतीय कृषि का चरित्र गैर व्यवसायिक कृषि उत्पादन से सम्बन्धित था किन्तु 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में परिवर्तन के प्रारंभिक लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। गॉंवों की आत्मनिर्भरता टूटने लगी और भारतीय कृषि का चरित्र व्यवसायिक कृषि की ओर होने लगा। इस परिवर्तन के दो प्रमुख कारण थे –
  1. ब्रिटिश प्रशासकों द्धारा भूराजस्व प्रणाली में नवीन प्रयोग तथा 
  2. भारत में यातायात के साधनों का तीव्र गति से विकास

यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पादन के लिए देश के भीतर तथा बाहर बाजार सुलभ हो गए। भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में हुये उपरोक्त परिवर्तनों के कारण भारत की परम्परागत कृषि में कतिपय नवीन प्रवृतियॉ विकसित हुई जिनमें मुख्य थी- भारतीय कृषि का आद्यौगीकीकरण अथवा व्यवसायिक कृषि का विकास।

कृषि का वाणिज्यिकीकरण –

19वीं शताब्दी के मध्य में भारतीय परम्परागत कृषि में दो परिवर्तन आए। इस पर टिप्पणी करते हुए D.R. Gadgil ने लिखा है कि – ‘‘जो परिवर्तन हो रहे थे उनमें पहला स्थान कृषि के वाणिज्यिकरण का है जो स्वतः एक लाभकर प्रक्रिया है। इसके चलते अनाज का पहले से अच्छा वितरण संभव हुआ और कृषिजन्य लाभ में वृद्धि हुई।‘‘
इस परिवर्तन के फलस्वरूप ऐसी व्यवस्था कायम हुई जिसे कृषि के आद्यौगिकीकरण की संज्ञा दी गई। किसान अब खास किस्म की फसलें उगाने पर जोर देने लगे। अपनी विशिष्ट उपयोगिता के कारण अनेक गॉंवों में केवल एक ही फसल उगाई जाने लगी जैसे – रूई, जूट, ईख, तेलहन इत्यादि। तात्कालीन परिस्थितीयों पर प्रकाश डालते हुए क्तण् ।ण्त्ण्क्मेंप ने लिखा है कि -‘‘अपनी निजी तथा गॉंव की सामूहिक जरूरतों को पूरा करने के बदले अब भारतीय किसान सारे विश्व के लिए फसाल उगाने लगा और कृषि उत्पादन की दिशा में परिवर्तन के फलस्वरूप न केवल फसलों का आद्यौगिकीकरण व विशिष्टीकरण हुआ बल्कि भारतीय गॉंवों की कृषि तथा उद्योग की प्राचीन एकता भी भंग हो गई।‘‘

इस प्रकार 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय कृषि का आद्यौगिकीकरण हुआ। व्यवसायिक कृषि का अभिप्राय है कि कृषि को एक अर्थपरक व्यवसाय के रूप में अपनाया जाय जिससे किसान अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सके। सामान्य रूप से कृषि के वाणिज्यिकरण का अर्थ है- कृषि का बाजारोन्मुख होना या किसानों की बाजार में भागीदारी पर भारतीय सन्दर्भ में यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण की एक कडी थी जिसका मूल उद्देश्य भारत में ऐसी फसलों का उत्पादन करवाना था जो इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति कर सके। वास्तव में यह वाणिज्यिकरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया न होकर एक थोपी गयी प्रक्रिया थी। इस प्रकार व्यवसायिक कृषि के द्धारा कृषि उत्पादन गॉंवों की जरूरतों के स्थान पर बाजार के लिए होने लगा। अतः खाद्यान्नों के उत्पादन में कुछ अंशो तक कमी कर किसानों ने अधिक लाभ देने वाली व्यवसायिक फसलों का उत्पादन करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी फसलों को व्यवसायिक कृषि का नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इनका उत्पादन ब्रिक्री के लिए होता था न कि परिवार का पेट भरने के लिए। इसी कारणवश इन फसलों को नकदी फसल भी कहा जाता है। इन विशेष फसलों का उत्पादन राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मण्डियों के लिए किया जाता था। इस प्रकार गन्ना, तेलहन, जूट, अफीम, कपास, नील, तम्बाकू आदि फसलों का उत्पादन अब भारतीय कृषकों ने करना प्रारम्भ कर दिया।

वाणिज्यिक कृषि के विकास के कारण :

यद्यपि 18वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही व्यवसायिक कृषि की दिशा में कुछ प्रयास प्रारम्भ हो गये थे किन्तु इसे निश्चित गति 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही प्राप्त हुआ। इस समय व्यवसायिक कृषि के विकास के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित है –

यातायात के साधनों का विकास – यातायात के साधनों का विकास भारतीय कृषि के स्वरूप में परिवर्तन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था। सर्वप्रथम 1853 ई0 में बम्बई से थाणें के बीच पहली रेल लाइन बिछाई गई किन्तु इसके पश्चात रेलमार्ग का तीव्र गति से विकास हुआ। 1857 ई0 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय भारत में केवल 288 मील लम्बी रेल लाइन बिछ सकी थी जो 1861 ई0 में बढकर 20000 मील लम्बा हो गया था और 1908 ई0 तक यह लगभग 30000 मील लम्बी हो चुकी थी। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादनों को सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता था। इसी प्रकार 1869 ई0 में स्वेज नहर आवागमन के लिए खुल गया था जिससे भारत और इंग्लैण्ड के बीच की दूरी कम हो गई थी जिससे भारत से अन्य देशों तक वस्तुएॅं भेजना सरल हो गया। इसके अतिरिक्त 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में सडकों का विकास भी तीव्र गति से हुआ जिससे किसानों को अपनी फसल मण्डियों तक पहुॅचाने में सुविधा होने लगी।

जहाजी शुल्क के दर में कमी – इसी काल में जहाजी यातायात का तीव्र विकास हुआ था तथा जहाजी भाडें में भारी कमी हुई थी। हवा की सहायता से चलने वाली छोटी नावों का स्थान अब भाप से चलने वाले बडे जहाजों ने ले लिया था। इससे विभिन्न वस्तुएॅं न केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक जल्दी पहुॅचने लगी वरन् उनपर खर्चा भी कम आने लगा। उदाहरण के तौर पर कलकत्ता से ब्रिटिश लिवरपुल बन्दरगाह तक जिस सामान को भेजने में पहले 55 स्टर्लिंग पाउण्ड लगते थे अब केवल 27 स्टर्लिंग पाउण्ड देने पडते थे। इस प्रकार जहाजी यातायात के विकास ने भी व्यवसायिक कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सिचाई साधनों का विकास – 1860 ई0 के बाद भारत में सिचाई के साधनों का विकास भी हुआ और अनेक महत्वपूर्ण नहरों का निर्माण भी किया गया। सरकार ने बंगाल, आगरा, पंजाब, बम्बई और दक्षिण भारत में अनेक नहरों की खुदाई करवाई। इससे भारत के सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई जिसका सीधा प्रभाव आद्यौगिक कृषि पर पडा। भारत में 1880 ई0 में कुल सिंचित क्षेत्र 29 मिलियन एकड था जो 1903 ई0 में बढकर 44 मिलियन एकड हो गया। इसलिए सिंचाई की बेहतर सुविधा के कारण आद्यौगिक कृषि के विकास में महत्वपूर्ण सहायता मिली।

अमेंरिका का गृहयुद्ध – भारतीय कृषि के आद्यौगिकीकरण अथवा वाणिज्यिकरण का एक प्रमुख कारण अमेरिका का गृहयुद्ध था। अमेरिका में 1861 ई0 से 1865 ई0 तक उत्तरी तथा दक्षिणी राज्यों के बीच गृहयुद्ध चलता रहा। गृहयुद्ध से पूर्व इंग्लैण्ड अपने उद्योगों के लिए कपास अमेरिका से मगॉता था किन्तु अमेरिका में गृहयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण इंग्लैण्ड के लिए अमेरिका से कपास आयात करना संभव न रहा। इन परिस्थितीयों में भारत से कपास मगॉए जाने की मॉंग में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी। इसी कारणवश 1862 ई0 के बाद भारत से कपास के निर्यात में असाधारण वृद्धि हुई। 1861 ई0 में मात्र 5 करोड रू0 का कपास ब्रिटेन भेजा गया था जबकि 1864-65 में कपास का यह निर्यात बढकर लगभग 37 करोड रू0 हो गया। यद्यपि 1865 ई0 के बाद कपास के निर्यात में गिरावट आई किन्तु तबतक भारत में भी सूती मिलों की स्थापना होने लगी थी अतः कपास की मॉंग पूर्ववत बनी रही। इसी कारणवश भारतीय किसान अपनी भूमि पर अधिकाधिक कपास उगाने लगे क्योंकि कपास उगाने पर उन्हे अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ होता था। इस प्रकार अमेरिका गृहयुद्ध ने भी अप्रत्यक्ष रूप से भारत को प्रभावित करते हुये कृषि के व्यवसायिकरण को प्रोत्साहित किया।

निर्यात में वृद्धि – 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के निर्यात में असाधारण वृद्धि हुई। इसका कारण उस समय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अफीम तथा नील की मॉंग होना था। 1859-60 में भारत से लगभग 29 करोड रू0 का निर्यात किया गया था। यह निर्यात 1906 ई0 तक आते आते 165 करोड रू0 तक पहॅंच गया। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अफीम तथा नील की मॉग को देखते हुए भारतीय किसानों ने इन दोनों ही बस्तुओं का अधिकाधिक खेती करना प्रारम्भ कर दिया तथा भारत इन दोनों प्रमुख बस्तुओं का प्रमुख निर्यातक बन गया। इस प्रकार इन वस्तुओं की अन्तर्राष्ट्रीय मॉंग ने भारत में कृषि के व्यवसायिकरण में काफी सहायता की।

सरकार की वाणिज्य नीति – 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में आद्यौगिक क्रान्ति हुई थी जिसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में बडी संख्या में कारखाने स्थापित हुये। इन कारखानों को विभिन्न वस्तुओं के निर्माण के लिए कच्चे माल की आवश्यकता होती थी। अतः भारत की अंग्रेजी सरकार ने इस प्रकार की नीतियॉं अपनाई जिनके फलस्वरूप अधिकाधिक क्षेत्रों में ब्रिटिश उद्योगों की जरूरत वाले कच्चे माल की खेती होने लगी। फलस्वरूप भारतीय कृषि के वाणिज्यिकरण तथा विशिष्टीकरण की गति और तेज हो गई। ब्रिटिश सरकार ऐसी फसल उगाने के लिए विशेष प्रोत्साहन देती थी जिससे कि ब्रिटिश लोगों को कच्चे माल की आपूर्ति हो सके। अतः भारतीय किसान इन प्रोत्साहन के लोभ में अधिक से अधिक इसी प्रकार की खेती करते थे।

 वाणिज्यीकरण का विकास / चरण

प्रथम चरण ( 1857 से पूर्व )

प्रमुख फसल

  1. अफीम- चीन से होने वाले व्यापार की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण था।
  2. नील- ब्रिटेन के वस्त्र उद्योगों में रंगाई हेतु प्रयोग । उल्लेखनीय है कि पहले नील वेस्ट इंडीज आदि क्षेत्रों से मंगाया जाता था , पर जब बाद में ब्रिटेन का इस पर प्रभाव खत्म हुआ तब भारत से आयात किया गया।
  3. अन्य फसल- रेशम , गन्ना

द्वितीय चरण- ( 1857 के बाद )

  • इस चरण में कृषि के वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया तीव्र होती है ।

प्रमुख फसल

  1. कपास – दक्कन क्षेत्र में व्यापक स्तर पर कपास की खेती करवायी गई । उल्लेखनीय है कि पहले लंकाशायर , मैनचेस्टर आदि सूती वस्त्र केन्द्रों के लिए अमेरिका से कपास आता था लेकिन अमेरिका पर से ब्रिटिश नियंत्रण समाप्त होने के कारण इसकी आपूर्ति भारत से की जाने लगी। कृषि के वाणिज्यीकरण में कपास सर्वाधिक प्रमुख फसल थी
  1. जूट – ब्रिटिश औपनिवेशिक आवश्यकताओं के अनुरूप बंगाल क्षेत्र में इसकी खेती आरंभ करवाई गई । जूट, पटसन की खेती में बड़े स्तर पर विदेशी पूंजी निवेश भी किया गया।

व्यवसायिक कृषि का भारतीय जनमानस पर प्रभाव :

19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कृषि का जो वाणिज्यिकरण हुआ उसका भारतीय जनजीवन पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में गहरा प्रभाव पडा। जहां तक सकारात्मक प्रभाव का प्रश्न है – भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ना गयी, अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी परिवर्तन हुआ, भारत के कुछ क्षेत्रों का विशेष कृषि क्षेत्रों के रूप में विकसित होना एक महत्वपूर्ण बात थी, कुछ नई फसलों का आगमन हुआ तथा कुछ का उत्पादन बढ़ने लगा और सीमित स्तर पर कृषि क्षेत्र में नवीन प्रौद्योगिकी का आगमन हुआ। दूसरी तरफ कृषि के इस वाणिज्यिकरण का नकारात्मक प्रभाव ज्यादा देखने को मिला जिसका उल्लेख निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है –

कृषि का विशिष्टिकरण अथवा स्थानीयकरण- कृषि के स्थानीयकरण का अभिप्राय यह है कतिपय क्षेत्र किसी विशिष्ट उत्पादन के क्षेत्र बन गए और दूसरा क्षेत्र दूसरे किस्म की कृषि के विशिष्ट क्षेत्र बने। उदाहरणस्वरूप – दक्षिण भारत और बंगाल प्रेसीडेन्सी में कपास की खेती बडे पैमाने पर की जाने लगी। इसके अतिरिक्त बंगाल जूट उत्पादन का केन्द्र बन गया जबकि बिहार में अफीम की खेती, आसाम में चाय, पंजाब में गेहॅू, उत्तरप्रदेश में गन्ना की खेती प्रमुखतः की जाने लगी। कृषि के व्यवसायिकरण से पूर्व इस प्रकार का विशिष्टिकरण देखने में नहीं मिलता तथा प्रत्येक क्षेत्र के किसान थोडी – थोडी मात्रा में सभी चीजों की खेती करते थे जिससे स्थानीय जरूरतें पूरी हो सके लेकिन कृषि के वाणिज्यिकरण ने लम्बे समय से चली आ रही परम्परागत कृषि व्यवस्था को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया।

किसानों की दरिद्रता में वृद्धि – ब्रिटिश काल में कृषि का जो वाणिज्यिकरण हुआ, उसका किसान के जीवन पर कुप्रभाव पडा। अब उसे भारतीय तथा विश्व की मण्डियों के लिए फसल उगाना पडता था और इसलिए वह व्यापार की निरन्तर बदलती हुई गतिविधियों का शिकार हो जाता था। भारतीय किसानों को अमेरिका व यूरोप जैसे विशाल कृषि व्यापार संघों तथा अन्तर्राष्टी्रय प्रतियोगियों से होड लेने पडी। भारतीय किसान पुरानी पद्धति से खेती करते थे तथा उसके पास वही हल व दुबले-पतले बैलों की जोडी होती थी जबकि उनके प्रतिद्वन्दी आधुनिकतम तकनीक से तथा नवीनतम कृषियन्त्रों की सहायता से तथा उच्च श्रेणी के बीजों से कृषि करते थे जिससे भारतीय कृषकों की तुलना में वे कही बेहतर फसल उगाने में सफल होते थे। अतः ऐसे प्रतिद्वन्दियों से भारतीय किसानों को प्रतिद्वन्दिता करना अत्यन्त कठिन होता था। इसी कारणवश किसानों की स्थिती खराब होती जाती थी। विशेषकर ऐसी परिस्थितीयों में जब किसी कारणवश उनकी फसल नही बिक पाती थी तो वे कंगाल होने की स्थिती में आ जाते थे। उदाहरणस्वरूप – अमेरिकी गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद कपास की निर्यात की मॉग में भारी गिरावट आई। अनेक भारतीय किसान जिन्होने बडी मात्रा में कपास की खेती की थी उनके लिए अपनी फसलों को बेचना कठिन हो गया तथा वे भूखमरी के कगार पर पहॅुच गये। इसी कारणवश इस व्यवस्था की आलोचना करते हुए डा0 ए0 आर0 देसाई ने लिखा है कि — ‘‘किसानों की दरिद्रता और ऋणग्रस्तता बढती गई, उनके भू-स्वामित्व का अपहरण होता रहा और अनेक खेतीहर सर्वहारा की हैसियत में आ गए।‘‘

मध्यस्थ व्यापारियों का उदय – वाणिज्यिकरण के कारण किसान धीरे-धीरे मध्यस्थ व्यापारियों पर निर्भर होता गया और इन मध्यस्थ व्यापारियों ने किसानों की गरीबी का पूरा लाभ उठाया। गरीब किसान के पास कभी कोई संचित निधि नही रही थी। अब सरकारी लगान तथा महाजन के सूद का भुगतान करने के लिए फसल के कटते वक्त ही उसे अपनी उपज का अधिकांश भाग मध्यस्थ व्यापारी को मनमाने दामों पर बेचना पडता था। ये मध्यस्थ व्यापारी जानते थे कि इन गरीब किसानों को सिवाय अपनी फसल के वास्तविक मूल्य से बहुत कम धनराशी किसानों को उनके फसल के लिए देते थे। दूसरी ओर ये मध्यस्थ व्यापारी जो कि समस्त साधन सम्पन्न थे इस खरीदी हुई फसल को राष्टी्रय- अन्तर्राष्टी्रय बाजारों में अत्यन्त उच्च कीमत पर बेचते थे। इस प्रकार फसल को पैदा करने वाला गरीब किसान तो गरीब ही रहता था तथा फसलों का असली फायदा ये मध्यस्थ व्यापारी उठाते थे। दुर्भाग्यवश ब्रिटिश सरकार ने किसानों की इस शोषण की ओर कभी कोई ध्यान ही नही दिया। यदि ब्रिटिश सरकार ने किसानों के हित में थोडा भी सोचा होता तो इस वाणिज्यिक कृषि से निश्चित रूप से किसानों की आर्थिक स्थिती में सुधार हुआ होता।

ग्रामीण आत्मनिर्भरता की समाप्ति – आद्यौगिक कृषि के प्रारम्भ होने से पूर्व ग्रामीण समुदाय आत्मनिर्भर माना जाता था जहॉ आवश्यकता की सभी वस्तुएॅ उपलब्ध हो जाती थी किन्तु कृषि के व्यवसायिकरण के बाद यह आवश्यक नही रह गया था कि प्रत्येक गॉव अपनी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करें क्योंकि कृषकों ने ऐसी फसलों का उत्पादन शुरू कर दिया था जिसे बेचकर वे लाभ कमा सके। किसान अब उत्पादन के कुछ अंशों को सुरक्षित भी नही रखते थे जिससे कि विषम परिस्थितीयों में वे इस सुरक्षित अनाज का उपयोग कर सके क्योंकि कृषकों ने अनाज के स्थान पर अन्य वस्तुओं का उत्पादन करना प्रारम्भ कर दिया था। ऐसी स्थिती में अकाल, बाढ जैसी प्राकृतिक आपदा आने पर किसानों की स्थिती अत्यन्त दयनीय हो जाती थी और इसका मुख्य कारण ग्रामीण आत्मनिर्भरता की कमी हो जाना था।

खाद्यान्न उत्पादन में कमी – व्यवसायिक कृषि के तहत् किसानों ने व्यवसायिक फसलों अर्थात नील, कपास अफीम, चाय आदि का उत्पादन बडे पैमाने पर प्रारम्भ कर दिया था जिससे खाद्य-पदार्थो के उत्पादन में भारी गिरावट आई। इसका कटु प्रभाव भारतीयों को तब झेलना पडा जब 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के विभिन्न भूभाग में भीषण अकाल पडे। 1886 ई0 में उडीसा तथा बंगाल में भीषण अकाल पडा था। इस अकाल के कारणों के विषय में जो जॉंच की गई थी उसके आधार पर उडीसा के ही जमींदार शिवप्रकाश ने बताया कि जिले की सर्वोत्तम भूमि में नील की खेती की जाने लगी थी और पिछले पॉंच वर्षो में कृषि के क्षेत्र में भारी कमी आई थी। इसी प्रकार ब्रिटिश अधिकारी क्रेकरे, जिसने बिहार और उडीसा के भू-भाग में अकाल राहत का कार्य किया था, उसने भी इसी आशय का विवरण प्रस्तुत किया। उसने लिखा है कि खाद्यान्नों की कमी के कारणों में से एक मुख्य कारण नील की कृषि में प्रतिवर्ष होने वाली वृद्धि है जिसने उन क्षेत्रों को अपने में समेट लिया है जिनमें पहले खाद्यान्नों का उत्पादन होता था।

मूल्यांकन –

इस बात को लेकर कोई दो राय नहीं है कि वणिज्यिकरण के कारण भारतीय कृषि में तेजी से महाजन पूंजी का प्रसार होता है। मार्क्सवादी लेखकों विशेषकर रजनी पाम दत्त की “इंडिया टुडे” और एस0 जे0 पटेल की “एग्रीकल्चरल लेबर इन मॉडर्न इंडिया एंड पाकिस्तान” में ग्रामीण वर्ग संरचना पर इसका एक ख़ास प्रभाव दिखाने की कोशिश की है। इन विद्वानों का मानना है कि वाणिज्यीकरण के कारण साहूकार महाजनों ने बड़े पैमाने पर किसानों की जमीनों पर कब्ज़ा ज़माना शुरू कर दिया जिससे वे बड़ी संख्या में भूमिहीन होते चले गए खेतिहर मजदूरों की श्रेणी का संख्यात्मक विस्तार किया। इसके बिपरीत बिपरीत जॉन ब्रेमान तथा धर्मा कुमार जैसे विद्वान का मानना है कि मार्क्सवादी लेखक खेतिहर मजदूरों की संख्या को बढ़ा चढ़ा कर दिखाते रहे है और भारत में परम्परागत जाती विन्यास की वजह से पूर्व-औपनिवेशिक काल में भी खेतिहर भूमिहीन मजदूरों की काफी बड़ी तादाद मौजूद थी। इसे केवल वाणिज्यीकरण का प्रभाव नहीं माना जा सकता। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि विणिज्यीकरण के कारण नगदी फसले उगाकर छोटे-छोटे किसान भी उसका लाभ उठा रहे थे। भले ही यह लाभ समृद्ध किसानो को ज्यादा मिल रहा हो। धनी समृद्ध किसानों के पास भू-सम्पत्तियाँ काफी थी और मजदूरों का उपयोग करके वे बड़े पैमाने पर मंडियों के लिए उत्पादन कर रहे थे। वे आसानी से साख की सुबिधा जूता सकते थे और अनेक जगहों पर स्वयं उधार पर पैसा देते थे। अधिकाँश छोटे किसानों ने वाणिज्यीकरण के कारण जो लाभ कमाया वह उन्हें 19वी शताब्दी के बीच में आये भयंकर अकालों में गंवाना पड़ा जबकि खेतिहर मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में अकालों दे समय में काफी गिरावट दिखाई पड़ती है। उत्तरी पश्चिमी प्रान्त के राजस्व परिषद ने भी ऐसा ही अभिमत व्यक्त किया है। इसके अनुसार उत्तरी पश्चिमी प्रान्त में जहॉं पहले ज्वार, बाजरा, तिलहन, और गेहूॅ की खेती होती थी वहॉ पर अब कपास की खेती की जाने लगी। इसी प्रकार राजस्थान के विषय में भी उल्लेख मिलता है। राजस्थान के विषय में  Dr. Macaulay ने लिखा है कि – ‘‘ राजपूताना में अनाज की कमी का एक मुख्य कारण मालवा से खाद्यान्नों की आपूर्ति का बन्द हो जाना है क्योंकि वहॉ पर अब अफीम और नील की खेती होने लगी है। इस सन्दर्भ में  George Blevins  का एक लेख  “The Agriculture crops in India from 1834 to 1946” अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस लेख में उन्होने लिखा है कि – 50 वर्षों में (1895 -1945) जहॉं व्यवसायिक कृषि में 85% की वृद्धि हुई है वही पर इसी काल में खाद्यान्न उत्पादन में 7% की कमी हुई है। अतः अकाल के वर्षो में खाद्यान्नों की कमी का एक मुख्य कारण यह भी था कि कृषि क्षेत्र व्यवसायिक फसलों के उत्पादन में आ गये थे किन्तु यह स्वीकार करना भी गलत होगा कि जिस अनुपात में व्यवसायिक कृषि की वृद्धि हुई उसी अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन में कमी आई। वास्तविकता यह भी है कि इस काल में कृषकों ने अपनी उस भूमि पर भी आद्यौगिक उत्पादन किया था जो सामान्यतया खाद्यान्न उत्पादन के लिए अनुपयुक्त थी। यह स्थिती लगभग द्वितीय विश्व युद्ध तक बनी रही। उदाहरण के तौर पर – सम्पूर्ण भारताय क्षेत्र में 1901 में जहॉ 85% क्षेत्रों में खाद्यान्न लगभग 5% क्षेत्र में तिलहन तथा लगभग 5% क्षेत्र में जूट और कपास का उत्पादन होता था वही 1940 में 80% क्षेत्रों में खाद्यान्न, 7% क्षेत्रों में तिलहन और लगभग 7% क्षेत्रों में जूट और कपास का उत्पादन होने लगा था।

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रभाव वर्ग, क्षेत्र, आदि पर निर्भर करते थे और एक सामान नहीं थे। आद्यौगिक कृषि किसी भी देश के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है तथा सामान्य परिस्थितीयों में इससे किसान और देश दोनों को ही लाभ होता है परन्तु दुर्भाग्यवश गलत ब्रिटिश नीतियों के कारण तथा किसानों की अत्यधिक जर्जर आर्थिक स्थिती व मध्यस्थ व्यापारियों के व्यक्तिगत लोभ के कारण भारत में ऐसा न हो सका तथा भारतीय किसानों की स्थिती पूर्ववत कमजोर ही बनी रही।

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