window.location = "http://www.yoururl.com"; Origin & Development of Indian Nationalism : Responsible Factor | भारतीय राष्ट्रवाद : उदय और विकास के प्रेरक तत्व

Origin & Development of Indian Nationalism : Responsible Factor | भारतीय राष्ट्रवाद : उदय और विकास के प्रेरक तत्व

 


भारतीय राष्ट्रवाद के उत्थान के प्रेरक तत्व :

भारत में राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया बड़ी जटिल और बहुमुखी है। मुख्य रूप से भारत में राष्ट्रीय जागरण किसी एक कारण का परिणाम नही है अपितु उसके अनेक कारण बताए जा सकते है। भारत में राष्ट्रवाद के उदय और विकास में समय-समय पर अनेक परिस्थितियों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहॉं की अर्थव्यवस्था का आधार युरोपीय देशों के पूॅंजीवाद से पूर्ववर्ती काल के समाजों से भिन्न था। भारत विभिन्न भाषाओं, धर्मों तथा घनी आबादी वाला देश है। भारतीय राष्ट्रवाद के विकास के पृष्ठभूमि की यह विशेषता है कि खास तौर पर हिन्दू समाज और सामान्यतया सारा भारतीय समाज खण्डित और विभाजित रहा। भारतीय राष्ट्रवाद का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि इसका जन्म राजनीतिक पराधीनता के दिनों में हुआ। ब्रिटेन ने अपने हित में भारतीय समाज के आर्थिक ढ़ाचे में आमूलचूल परिवर्तन किया, केन्द्रीकृत प्रशासनीक और राजव्यवस्था की स्थापना की, आधुनिक शिक्षा प्रणाली की नींव डाली, आवागमन और आधुनिक संचार के साधन विकसित किये  और इसी प्रकार के अन्य अनेक संस्थाओं का निर्माण किया जिसके फलस्वरूप नये सामाजिक वर्गों का जन्म हुआ। ये नये सामाजिक तत्व अपनी विशिष्ट प्रकृति के कारण ब्रिटिश साम्राज्यवाद से टकराये जो भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की आधारशिला और प्रेरणा के स्रोत सिद्ध हुये। संक्षेप में, भारतीय राष्ट्रवाद के उदय और विकास के निम्न प्रेरक तत्व बतलाए जा सकते है -

राजनीतिक एवं प्रशासनीक एकीकरण -

भारत में राष्ट्रवाद के उदय और विकास में सबसे बडी भूमिका राजनीतिक और प्रशासनीक एकीकरण ने निभाया। 1707 ई0 के बाद उत्तरोत्तर भारत में सुव्यवस्था व राजनीतिक एकता का लोप हो चुका था लेकिन ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने भारत की पुरानी चली आ रही सांस्कृतिक एकता को तमाम अनेकताओं के बावजूद एक नवीन प्रकार की एकता के सूत्र में बॉंध दिया। अंग्रेजी शासन ने भारत के सम्पूर्ण भौगोलिक क्षेत्र को एक ही शासन के अधीन ला दिया। उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक सम्पूर्ण भारत एक सरकार के अधीन आ गया और पूरे देश में राजनीतिक एकता के साथ-साथ शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित हुई। समस्त भारतीय क्षेत्र में एक कोने से दूसरे कोने तक एक ही प्रकार की शासन व्यवस्था,  एक प्रकार का न्यायिक ढ़ॉंचा, संहिताबद्ध फौजदारी तथा दीवानी कानून, आदि लागू किये गये जिससे देश की एकता को बढ़ावा मिला। एकीकृत प्रशासनीक व्यवस्था से भारतीय लोगों में पारस्परिक सम्पर्क बढ़ा। एक ही प्रकार के अफसर पूरे देश में एक स्थान से दूसरे स्थान तक स्थानांतरित होते रहते थे। स्पष्ट है भारत राजनीतिक एवं प्रशासनीक रूप से ब्रिटिश शासन काल में ही एक हुआ और इतनी एकता अतीत में पहले कभी नही हुई थी। यहॉं यह कहना उचित है कि ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित भारत की राजनीतिक एकता सामान्य अधीनता की एकता थी लेकिन इन विशेषताओं और तत्वों ने भारत में एकल नागरिकता व एक राष्ट्रीयता की भावना को जन्म दिया।

ब्रिटिश द्वारा आर्थिक शोषण - 

भारत में ब्रिटिश शासन का एक प्रबल लक्षण था- भारतीयों का आर्थिक शोषण। भारत का तमाम आर्थिक खजाना ब्रिटिशों से पूर्व आने वाले अनेक विदेशी आक्रान्ताओं ने लूट लिए थे और बाद में अंग्रेजों ने बचे-खुचे सारे संसाधन खाली कर दिये, वह भी बेहद जर्जर तरीके से। इंग्लैण्ड में घटित आद्यौगिक क्रान्ति से विदेशों में कच्चे माल की मॉंग लगातार बढ़ती गई। बाहरी निर्माताओं, उत्पादकों के लिए एक विश्वव्यापी मंडी की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। दुर्भाग्य से अंग्रेजों के यह दोनों उद्देश्य भारत में पूरे होते गये जिसके अनेक दुष्परिणाम सामने आये। भारतीय हथकरधा और कुटीर उद्योग विनष्ट हो गया, कृषि पर बोझ बढ़ता गया और लोग दिन-प्रतिदिन निर्धन होते गये। भारत की कृषि को अंग्रेजों की राजस्व नीति ने नष्ट कर दिया और उनके मुक्त व्यापार की नीति से व्यापार सन्तुलन बेहद प्रतिकूल हो गया। दूसरी तरफ शिक्षित भारतीय वर्ग उपयोगी रोजगार पाने में विफल रहे। परिणामस्वरूप भारतीय भविष्य में किसी भी राहत के मिलने की आशा छोड़ बैठे।

राष्ट्रवादी इतिहासकारों के विचार से भारत पर ब्रिटिश शासन का मूल प्रभाव यह हुआ कि 19वीं शताब्दी के अन्त तक भारत उनके विशिष्ट उपनिवेश के रूप में परिवर्तित हो गया था जिससे यह देश ब्रिटिश उत्पादकों के लिए एक प्रमुख बाजार, कच्चे माल और खाद्य पदाथो्रं का एक बड़ा स्रोत और ब्रिटिश पूॅंजी निवेश के लिए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बन गया। यह रूपान्तरण वस्तुतः तीन अनुवर्ती चरणों में सम्पन्न हुआ जिसमें अंग्रेजों ने हमारे देश का अत्यधिक शोषण किया : (क) 1757 से 1813 तक के प्रथम ’व्यापारिक’ चरण में सीधी लूट-खसोट हुई और ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार पर पूर्ण एकाधिकार हो गया। (ख) औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप 1813 से 1858 के बीच इसका रूप बदलकर “मुक्त व्यापारिक औद्योगिक पूँजीवादी” शोषण का हो गया; और (ग) 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से धनी और ब्रिटिश-नियंत्रित बैंकों, निर्यात-आयात फर्मों तथा प्रबंधन एजेन्सी केन्द्रों की विशाल श्रृंखला के द्वारा भारत में ब्रिटिश ’पूँजीवादी साम्राज्यवादी’ अर्थव्यवस्था ने पाँव जमा लिए, जिसके कारण विदेशी एकाधिकार में आने वाली भारतीय अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों पर अंग्रेजों ने अपना पूरा अधिकार जमा लिया।

भारत के व्यापार के विनष्ट होने के अतिरिक्त उसके हस्तशिल्पों, वाणिज्यिक शिल्पों और उद्योगों का अनौद्योगीकरण तथा अत्यधिक कराधान, और अंग्रेजों द्वारा भारत में अपनाई गई आर्थिक नीतियों के परिणामस्वरूप भारत के संसाधनों का बड़े पैमाने पर दोहन किया गया। कृषि के वाणिज्यीकरण और भूमि बन्दोबस्त नीति ने लाखों लोगों को संकट में डाल दिया जिसके परिणामस्वरूप भूख से तड़प कर मर जाना एक सामान्य सी बात हो गई। समय-समय पर पड़ने वाले अकाल सामान्यतया भारतीय आर्थिक जीवन का स्थायी अंग बन गए थे। अकाल के वर्षों में भी खाद्यान्नों के निर्यात किए जाने को देखकर ब्रिटिश शासन के पूर्ण निष्ठावान समर्थक भी अलग-थलग पड़ गए थे। 19वीं शताब्दी के अन्त तक भारत की प्रति व्यक्ति वार्षिक राष्ट्रीय आय, 1899 में एकत्रित आँकड़ों के अनुसार सबसे कम, संभवतः अठारह रुपए थी। इस प्रकार उपरोक्त वर्णित परिस्थितियों में भारतीय जनमानस ने यह महसूस किया कि बगैर संगठित हुये अंग्रेजों का सामना करना संभव नही है। इस प्रकार स्वाधीनता प्राप्ति के लिए भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना जागृत हुई।

नवीन सामाजिक वर्गों का अभ्युदय -

अंग्रेजों ने अपने कृत्यों से भारत में विशेष प्रकार के सामाजिक वर्गो को पैदा किया। डा० ए० आर० देसाई ने अपनी सुविख्यात कृति “भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि“ में ब्रिटिश शासनकाल में विकसित निम्नलिखित वर्गो का उल्लेख किया है - ग्रामीण क्षेत्रां में विद्यमान इन वर्गों में मुख्यत जमींदार, उच्च, मध्य व निम्न स्तर पर विभाजित कृषि स्वामित्वों का वर्ग, खेतीहर मजदूर, आधुनिक व्यापारी तथा आधुनिक सूदखोर आदि। शहरी क्षेत्रों में विद्यमान वर्गो में मुख्य रूप से - आद्यौगिक, व्यवसायिक और वित्तीय पूंजीपति, कल-कारखानों में काम करने वाले मजदूर, आधुनिक पूंजीवादी अर्थतन्त्र से जुडे छोटे व्यापारी तथा दुकानदार और कारीगर, डाक्टर, वकील, अध्यापक, मैनेजर, क्लर्क आदि बुद्धिजीवी और शिक्षित मध्यम वर्ग सम्मिलित थे। इस सभी वर्गो की यह विशेषता थी कि वे राष्ट्रीय थे। प्रत्येक नये सामाजिक वर्ग के आर्थिक, राजनैतिक, और सामाजिक हितों का ‘‘आखिल भारतीय एकीकरण‘‘ हुआ। इस वर्ग के व्यक्ति और समुदाय जैसे-जैसे समान हित की बात समझने लगे, वैसे वैसे उसमे अखिल भारतीय संगठन बनाने और अपने सम्मिलित स्वार्थो के लिये संघर्ष करने की इच्छा तीव्र होती गयी। ये विभिन्न वर्ग अपने अलग-अलग आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ लेकर राष्ट्रीय स्वाधीनता की लड़ाई में शामिल हुये थे लेकिन इन सबका लक्ष्य था- राष्ट्रीय स्वाधीनता की प्राप्ति।

सामाजिक व धर्मसुधार आंदोलनों की भूमिका

भारतीय राष्ट्रवाद ब्रिटेन और भारत के हितों के टकराव से उत्पन्न हुआ था। बढ़ते नस्लीय तनाव, धर्मांतरण के डर और बेन्थमवादी प्रशासकों के सुधारवादी उत्साह ने बुद्धिजीवी भारतीयों को विवश कर दिया कि वे रूककर अपनी स्वयं की संस्कृति पर भी गहरी नजर डालें। यह नयी सांस्कृतिक परियोजना 19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण आन्दोलन से अभिव्यक्त हुई। इसका उद्देश्य भारतीय संस्कृति को शुद्ध करना और इस तर्क की पुनर्खोज करना था कि वह बुद्धिवाद, एकेश्वरवाद और व्यक्तिवाद के युरोपीय आदर्शों से मेल खाये। इसका उद्देश्य यह दिखाना था कि भारतीय सभ्यता किसी भी तरह से अन्य सभ्यताओं से हीन नही है बल्कि एक अर्थ में यह अपनी आध्यात्मिक सिद्धियों में उनसे भी श्रेष्ठ है।

ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन तथा थियोसॉफिकल सोसाइटी जैसी संस्थाओं ने हिंदू धर्म में प्रचलित बुराइयों की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया तथा लोगों में धर्म, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति निष्ठा स्थापित की। राजा राममोहन राय ने भारतीयों को स्वतंत्रता के नये विचार ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया तो स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राष्ट्रीय अस्मिता को जगाकर राष्ट्रीय चेतना का संचार किया। युवा सन्यासी स्वामी विवेकानन्द ने युरोप और अमेरिका में भारतीय संस्कृति और आध्यात्म का प्रचारकर भारतीयों में सांस्कृतिक चेतना जागृत किया। पश्चिम के भौतिकवादी संस्कृति के विपरित भारतीय सभ्यता के आध्यात्मिक मूल में गर्व की वैचारिक प्रेरणा ने सार्वजनिक कर्मक्षेत्र में औपनिवेशिक शासन का सामना करने के लिए प्रेरित किया। इसने आधुनिक राष्ट्रवाद का वैचारिक आधार भी प्रदान किया। व्यक्तिगत और सामाजिक समानता पर जोर देते हुये भारतवासियों को छुआछूत, बाल-विवाह, सती प्रथा जैसी समस्याओं के समाधान के लिए जनमत पैदा करने में इन सुधारकों और संस्थाओं ने सराहनीय कार्य किया। यहाँ यह जानना उचित होगा कि ये भावनाएँ आगे चलकर राष्ट्रीयता के रूप में प्रस्फुटित हुई या नहीं ?

ब्रह्य समाज, जिसकी स्थापना 20 अगस्त 1828 में राजा राममोहनराय ने की थी, मुख्य रूप से समाज सुधार के क्षेत्र में सक्रिय रहा। इसी तरह की कई और संस्थाएँ थीं, जैसे प्रार्थना समाज, सोशल रिफ़ॉर्म कॉन्फ्ऱरेंस इत्यादि। उधर आर्य समाज जैसी संस्थाएँ थीं जिन्होंने अपने सुधार कार्य में धर्म की महत्ता पर बल दिया। “वेद शास्त्र सर्वोपरि व अकाट्य है“, ऐसा उसका अटूट विश्वास था। इन संस्थाओं ने लोगों में विश्वास और गौरव पैदा करने की कोशिश की। भारतवासियों को भारत के सुनहरे अतीत की याद दिलाकर ललकारना और गौरवान्वित करना इनका उद्देश्य था। स्वामी दयानन्द सरस्वती पहले व्यक्ति थे जिन्होने पहली बार ‘स्वराज्यय‘ शब्द को अपनाया और हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा घोषित किया। निश्चय ही इस उभरते हुए आत्मबल व विश्वास ने राष्ट्रीयता को जगाने में सहायता दी। हालाँकि कुछ लेखकों का यह दावा है कि चूँकि इन संस्थाओं या आंदोलनों ने हिंदू धर्म को ही अपना आधार माना था, इसलिए इसका उन लोगों पर बुरा असर पड़ा जो हिंदू नहीं थे। आगे चलकर भारतीय जातीयता आंदोलन में जो मोड़ आए, जैसे कि मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान की माँग उनका एक कारण यह भी था।

ऐतिहासिक अन्वेषण एवं अनुसंधान -

19वीं शताब्दी के प्रारंभ में भारतवासियों को अपने प्राचीन इतिहास की बहुत कम जानकारी थी। इसका कारण भारत में इतिहास न लिखे जाने की परंपरा थी, किंतु विलियम जोंस (बंगाल एशियाटिक सोसाइटी), जेम्स प्रिंसेप, एलेक्जेंडर कनिंघम, मैक्समूलर, विल्सन, मोनियर विलियम्स, रोथ, सैसून तथा फग्यूसन जैसे यूरोपीय प्राच्य शिक्षाविदों के निरंतर प्रयासों तथा पुरातात्त्विक खुदाइयों ने भारत के प्राचीन महान् संस्कृति एवं इतिहास पर पड़े सदियों पुराने आवरण को उतार फेंका। जेम्स प्रिंसेप ने 1837 ई0 में सर्वप्रथम ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों को पढ़ने में सफलता प्राप्त की और सबसे पहले अभिलेखों और सिक्कों पर पियदस्सी (प्रियदर्शी) को पढ़ा था।

इतिहास की इन नई खोजों ने प्राचीन भारत की संस्कृति एवं महानता को पुनर्स्थापित किया। अनेक राष्ट्रवादी लेखकों, जैसे- आर0 जी0 भंडारकर, आर0 एल0 मित्रा एवं स्वामी विवेकानंद इत्यादि ने भारत की प्राचीन सांस्कृतिक विरासत की पुनर्व्याख्या कर भारतीयों की राष्ट्रीय भावनाओं को बल प्रदान किया। सर विलियम जोंस, मैक्समूलर, जेकोबी, कोलब्रुक, ए0बी0 कीथ, बुर्नूफ आदि ने भारत के संस्कृत भाषा में लिपिबद्ध ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन-विश्लेषण किया और उनका अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। इन पश्चिमी विद्वानों ने अथक परिश्रम करके कला, साहित्य, वास्तुकला, संगीत, दर्शन, विज्ञान तथा गणित आदि विभिन्न क्षेत्रों में भारतीयों की उपलब्धियों को खोज निकाला और मानव सभ्यता के विकास में भारत योगदान को पुनः प्रकाशित किया। इन ऐतिहासिक अन्वेषणों और अनुसंधानों ने भारतीयों को अपनी सभ्यता और संस्कृति पर गर्व करना सिखाया।

इसी समय जेम्स मिल ने भारत में इतिहास लेखन के आधुनिक परंपरा की नींव डाली। उसने भारतीय इतिहास के तीन कालखंडों प्राचीन काल, मध्यकाल और आधुनिक काल को हिंदू काल, मुस्लिम काल तथा ब्रिटिश काल के रूप में विभाजित किया। जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास में प्राचीन भारत के गौरव को अत्यंत बढ़ा-चढ़ाकर बताया, जिसका परिणाम यह हुआ कि उस काल के नवबुद्धिजीवियों का एक बहुत बड़ा तबका यह मानने लगा कि भारत के तत्कालीन दुर्दशा का कारण उनके धर्म में आई रुढिवादिता, कुरीतियाँ और धर्मांधता थीं, न क अंग्रेजी शासन। इन बुद्धिजीवियों ने भारतीय धर्म और समाज में फैले अंधविश्वासों, कुरीतियों और कर्मकांडों को दूर करने का प्रयास किया।

आंग्ल भाषा और पाश्चात्य शिक्षा -

भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में पश्चिमी विचारधारा और शिक्षा के प्रसार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। यद्यपि भारतीय जीवन पर आंग्ल भाषा और पाश्चात्य शिक्षा-सभ्यता के अधिक प्रचार-प्रसार का बुरा प्रभाव भी पड़ा क्योंकि इस शिक्षा का लक्ष्य पढ़े-लिखे भारतीयों के मन का उपनिवेशीकरण करना और उनमें वफादारी की भावना भरना था परन्तु नये विचारों एवं राजनीतिक जागरुकता की दिशा में उस समय आंग्ल भाषा और अँग्रेजी शिक्षा बहुत-कुछ सहायक सिद्ध हुई। यह स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए कि अँग्रेजी शिक्षा के कारण भारतीयों को वाल्तेयर, बेंथम, वर्क, जॉन स्टुअर्ट, मिल, ग्रीन, स्पेंसर, मैकाले आदि के स्वतंत्रता-संबंधी विचारों से अवगत होने का अवसर मिला। उक्त चिंतकों एवं शिक्षाविदों ने जनतंत्र के महत्त्व पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है और उनकी कृतियों के अध्ययन-अवलोकन से यूरोप के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे भारतीय छात्रों एवं अन्य प्रबुद्ध लोगों को यह प्रेरणा मिली कि उन्हें भी अपने देश को स्वाधीन कराना है।

अंग्रेजों ने भारतीय भाषा को नष्ट करके अंग्रेजी भाषा को 1835 ई0 में शिक्षा का माध्यम बनाया। यह भाषा भारतीय शिक्षित लोगों की भाषा बन गयी। इस भाषा को लोगों ने आपसी समझ व विकास का माध्यम माना जो विभिन्न भाषा-भाषी लोगों को एक दूसरे के सम्पर्क में लाई। शिक्षित भारतीय आंग्ल भाषा के माध्यम से पाश्चात्य विचारधारा व संस्कृति के सम्पर्क में आये। स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, प्रजातंत्र, राष्ट्रीयता आदि जैसे विचार उनके मस्तिष्क में केवल इसलिये प्रस्फुटित होने लगे क्योंकि अंग्रेजी भाषा जैसा माध्यम उन्हे प्राप्त हो गया था। अनेक भारतीयों ने विदेश गमन किया और वहॉं की सभ्यता-संस्कृति तथा पाश्चात्य जगत के सम्पर्क में आये। यह आंग्लभाषी शिक्षित भारतीय ही थे जिन्होने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को अंकुरित और विकसित किया। यह कहना पूरी तरह सही नही है कि भारतीय राष्ट्रीयता की भावना आंग्ल भाषा और पश्चिमी शिक्षा का पोष्य शिशु था। इतना अवश्य है कि पश्चिमी शिक्षा और विचारधारा के प्रचार के कारण भारतीयों ने एक बुद्धिसंगत, धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण अपनाया।

दूसरे शब्दों में, राष्ट्रवाद को प्रोत्साहन देने में अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का उल्लेखनीय योगदान रहा। इसी को संकेत करते हुए एडवर्ड डी क्रूज लिखते हैं - “अंग्रेजी भाषा के बिना देशव्यापी राष्ट्रवादी आन्दोलन का भारत में पैदा होना या सफल होना कभी भी सम्भव नहीं होता।” सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अनुसार - “अंग्रेजी भाषा ने भारतीय बहुरूपी सभ्यता के विभिन्न जाति व धर्मों, लोगों व जटिलताओं को एक अविलय संघ की सुनहरी जंजीरों में एकत्रित करने का साधन प्रस्तुत किया। यह उत्तर, दक्षिण, पूर्व व पश्चिम में संचार का आम साधन बनी। अंग्रेजी भाषा के प्रभाव से भारत की सूखी हड्डियों में जीवन अवतरित हुआ। एक नया उत्साह व प्रेरणा इस भूमि पर दिखाई दी।“ 

समाचार-पत्र और साहित्य -

राष्ट्रीय परिवेश को दिशा देने के मूल में समाचारपत्र और साहित्य ही रहते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद के उदय, विकास और प्रसार के मूल में भी अंग्रेजी एवं भारतीय प्रेस की उल्लेखनीय भूमिका रही। समाचारपत्रों ने विदेश नीति के विवादों, अन्तर्राष्ट्रीय विकास एवं ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति, प्रशासनिक खामियों की तरफ ध्यान आकर्षित किया। विभिन्न राजनीतिक संगठनों, नेताओं ने समाचारपत्रों के माध्यम से राष्ट्रवाद की भावना जाग्रत करने का प्रयास किया। भारतीय राष्ट्रवाद के कारकों के उत्थान में प्रेस की भूमिका को स्वीकार करते हुए कार्ल मार्क्स लिखते हैं- “एशियाई समाज में स्वतन्त्र प्रेस पहली बार प्रस्तावित हुआ और हिन्दुओं व यूरोपीय लोगों द्वारा समान रूप से पुनर्निर्माण के लिए नवीन व शक्तिशाली एजेन्ट के रूप में व्यवस्थित किया गया।“ इसी सन्दर्भ में मुनरो लिखते हैं - एक स्वतन्त्र प्रेस तथा विदेशी राज एक दूसरे के विरुद्ध हैं और दोनों एक साथ नहीं चल सकते। यह बात भारतीय इतिहास पर भी दृष्टिगत होती है। प्रारम्भिक अवस्था में प्रेस सिर्फ अंग्रेजी समाचारपत्र निकालती थी, लेकिन कालांतर में विभिन्न भाषी समाचारपत्रों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार की दमनीय नीति पर आलोचना की गई तो अंग्रेजी सरकार द्वारा बौखलाकर 1879 ई0 में वर्नाकुलर प्रेस एक्ट पास कर भारतीय समाचारपत्रों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगा दी गई। भारतीय राष्ट्रवाद में उल्लेखनीय भूमिका अदा करने वाले समाचारपत्र हिन्दू पेट्रियट, हिन्दी मिरर, अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, नवशक्ति तथा सन्ध्या नामक पत्र प्रमुख थे। समाचार पत्रों के साथ साहित्य की भूमिका भी राष्ट्रवाद के उदय में कम नहीं रही। बंकिमचन्द चटर्जी के आनन्दमठ, उनके गीत ’वन्दे मातरम’ रविन्द्रनाथ टैगोर के ’जन गण मन’ एवं मैथिलीशरण गुप्त की ’भारत भारती’ नामक पुस्तक ने भारतीय राष्ट्रवाद को जाग्रत करने में समर्पित भूमिका का निर्वहन किया। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक ’भारत दुर्दशा’ ने भारतीयों की दयनीय दशा को प्रस्तुत किया। उर्दू में अल्ताफ हुसैन हाली, असममी में लक्ष्मीदार बेजबरूआ, गुजराती में नर्मद, तमिल में सुब्रमण्यम भारती आदि इस काल के प्रख्यात राष्ट्रवादी लेखक थे। इसी तरह दादा भाई नौरोजी, दीन बन्धु मित्रा, लोकमान्य तिलक के साहित्य ने लोगों को अपूर्व उत्साह एवं राष्ट्रवाद की भावना से पूर्ण कर दिया। इन राष्ट्रवादी लेखकों ने अपने उत्कृष्ट साहित्य के माध्यम से भारतीयों में स्वतंत्रता, समानता, एकता, भाईचारा और राष्ट्रीयता की भावना का बढ़ावा दिया।

संचार व यातायात के आधुनिक साधन -

संचार और यातायात के आधुनिक साधनों का भी भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में प्रबल योगदान रहा है। अंग्रेजों ने अपने व्यापारिक हितों के विकास, भारत के प्रशासन पर अपना नियन्त्रण मजबूत करने एवं भारत से अधिकाधिक आर्थिक लाभ उठाने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासकों ने रेलमार्ग, सड़कें व आधुनिक संचार व्यवस्था का निर्माण किया। पर इनके बावजूद ये साधन विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को परस्पर निकट लाने में उपयुक्त यंत्र साबित हुए। दूरसंचार, ड़ाक सेवाएॅ और रेलवे के विकास आदि से लोगों को परस्पर सम्पर्क की सुविधा मिलने लगी। इसके जरिये राष्ट्रवादी नेता देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में पहुॅचकर अपनी बातों को लोगों तक पहुॅंचाने में सफल रहे और ब्रिटिश सरकार और शासन की कार्यवाहियों की दिन-प्रतिदिन आलोचना कर सके तथा लोगों को राजनैतिक समस्याओं की समझ और शिक्षा दे सके। रेलवे, ड़ाक-तार, सड़के, नहरों के निर्माण से लोग एक दूसरे के काफी निकट आने लगे जो सामाजिक स्तर पर भारतीय जनता को एक सूत्र में बॉंधा। परिणामस्वरूप समस्त भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को संगठित करने में जुट गये। यातायात और संचार की व्यवस्था हो जाने के कारण अब भारतीयों को भी देश एवं विदेश की विभिन्न गतिविधियों से अवगत होने एवं एक दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने में सुविधा हुई, विचारों के आदान-प्रदान से जीवन के प्रति स्वस्थ धारणा के निर्माण की प्रेरणा मिली। व्यापक दृष्टि के प्राप्त होने से भारतीय पराधीन होकर रहना अपना अपमान समझने लगे। इस प्रकार लोगों का ध्यान स्वतंत्रता की ओर अधिक आकृष्ट हुआ।

प्रो0 ए0 आर0 देसाई के अनुसार - बिना रेलवे, मोटर, बसों और संचार के साधनों के राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक व सांस्कृतिक जीवन संभव नहीं था। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोगों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध राजनीतिक आन्दोलन संगठित करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया। यातायात के इन आधुनिक साधनों ने एक विशाल शक्ति के रूप में भारतीय लोगों को सामाजिक रूप से संगठित किया। रेल जो लम्बी दूरी तय कर सकती थी, ऐसी रेल व्यवस्था ने उस सामाजिक व्यवस्था को नजदीक करने में सहायता की जो विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों को अलग-अलग करती थी। इन साधनों के सुलभ होने पर एक जगह राष्ट्रवाद की फूटी लहरें सम्पूर्ण देश में फैल जाती थी।

लार्ड लिटन की दमनकारी नीति -

लार्ड लिटन की दमनकारी नीति ने भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय चेतना की आग को अत्यधिक प्रज्ज्वलित किया। उसका शासनकाल सन 1876-80 ई0 भारतीय राष्ट्रीयता के बीजारोपण का समय कहलाता है। अपने शासन काल में लार्ड लिटन ने अनेक गलतियॉं की। सन् 1876 से 1878 तक दक्षिण भारत में एक भयंकर अकाल पड़ा जिसमें लाखों लोगों के मारे जाने के बाद भी ब्रिटिश सरकार ने पीड़ितों की कुछ खास सहायता नहीं की, इससे भारतीयों में अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध आक्रोश छा गया। इसी दौरान लार्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी का पद धारण कराने के लिए राजाओं, नवाबों, महाराजाओं का एक बहुत बड़े दरबार का आयोजन किया जिस पर अत्यधिक धन का अपव्यय किया। जबकि एक तरफ अकाल से भारत के लोग मर रहे थे तो दूसरी तरफ इस आयोजन में अनाज की अत्यधिक बर्बादी हुई। इससे भारतीयों को क्षोभ और निराशा हुई एवं इस आयोजन की कड़ी आलोचना की गई। इसके अलावा लॉर्ड लिटन ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार के लिए द्वितीय अफगान युद्ध में भारत का करोड़ों रुपया नष्ट कर दिया। अकाल और गरीबी से त्रस्त भारतीयों के लिए लार्ड लिटन के ये कार्य एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ और भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की भावना का तीव्र गति से संचार हुआ। ब्रिटेन ने इसी दौरान शस्त्र विधेयक लागू किया जिसके अनुसार भारतीयों को शस्त्र रखने के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य कर दिया गया जबकि अंग्रेजों को नहीं। वर्नाकुलर प्रेस एक्ट भी लार्ड लिटन की ही देन थी, जिससे भारत के समाचारपत्र स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के लिए तरसते रहे। आपात कर का हटाना, भारतीय वस्त्रों पर चुंगी लगाना एवं अन्य इसी तरह के दमनकारी कानून राष्ट्रीयता की ज्वाला को प्रज्वलित करने में कामयाब हो सके और समस्त भारतीयों ने अंग्रेजों से छुटकारा पाने का दृढ़ निश्चय कर ही लिया। 

अंग्रेजों का भारतीयों के प्रति उपेक्षापूर्ण वर्ताव -

ब्रिटिश सरकार का भारतीयों के साथ भेदभावपूर्ण, पक्षपातपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार राष्ट्रवाद के उदय का एक प्रमुख कारण बना। 1857 की क्रान्ति के बाद अंग्रेजों और भारतीयों के बीच कड़वाहट फैल गई। लार्ड लिटन का प्रशासन, इलबर्ट बिल पर विवाद तथा लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन सम्बन्धी नीति से यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेज अपने उपेक्षापूर्ण व्यवहार से भारतीयों को हीन बनाये रखा। इलबर्ट बिल के अन्तर्गत यह प्राविधान किया गया कि सभी न्यायधीशों को, चाहे वे भारतीय हो या अग्रेज, समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए। इसके अनुसार भारतीय न्यायाधीश अंग्रेजों को दण्डित कर सकते थे। इस बिल को लेकर अंग्रेजों ने जिस प्रकार विरोध प्रदर्शित किया उससे भारतीय अचंभित और हतप्रभ रह गये। ब्रिटिश शासकों द्वारा भारतीयों के साथ अनेक प्रकार से दुर्व्यवहार किया जाता था। अंग्रेजों की कालोनियों, पार्कों, होटलों, क्लबों  में भारतीयों को जाने तक की इजाजत नही थी। रेलवे कम्पार्टमेन्ट में भारतीय अंग्रेजों के साथ नहीं बैठ सकते थे, उनके साथ कुत्तों की तरह वर्ताव किया जाता था। भारतीयों का अपमान करना, भारतीय नौकरों और खेतीहरों को प्रताड़ित करना, भारतीय स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार करना आम बात हो गयी थी जिसे भारतीय समाचार पत्र व्यापाक रूप से उठाते थे। इस जातीय कटुता और राष्ट्रीय अपमान के बोध के कारण भारतीयों का रोष बढ़ता गया और उनमें राष्ट्रीय चेतना विकसित होने लगी। 

भारतीय किसानों की दुर्दशा को अभिव्यक्त करते हुए एक अंग्रेज सिपाही लिखता है - “भारतीय हमारे पैरों के नीचे पत्थर थे, यदि वो हमारे कहने के अनुसार या इच्छा के अनुरूप कार्य नहीं करते थे तो हम उनकी पगड़ी सिरों से खींचकर नीचे गिरा देते थे। इसी सम्बन्ध में एक अन्य अंग्रेज जी0 ओ0 ट्रेवेलियन लिखते हैं - “हमारी जाति की गर्विता, धृष्टता, जो हमारे स्वभाव में गहरी जमी हुई है और जो कि केवल उच्च शिक्षा एवं ज्ञान से प्राप्त हुई है, इसका अध्ययन करना अत्यन्त पीड़ादायक है। जो व्यक्ति जितनी घटिया स्थिति से सम्बन्धित होगा, उसकी भावनाएँ भी उतनी ही निम्न स्तर की घृणास्पद होंगी। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हुए अमानवीय व्यवहारों ने भारतीयों की गुलामी की कहानी को स्पष्ट कर दिया था। भारतीयों को महत्त्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियाँ नहीं मिलती थीं। न्यायिक प्रशासन के क्षेत्र में हालात इसी तरह के थे और कोई भी भारतीय अंग्रेजों के विरुद्ध न्याय प्राप्त नहीं कर सकते थे। भारतीयों को आमतौर पर न्यायाधीश नहीं बनाये जाते थे। यदि ऐसा हो भी जाता था तो उन्हें यूरोपीय जाति के लोगों पर केस लड़ने का अधिकार नहीं था। इससे शिक्षित भारतीयों में राष्ट्रवाद के अंकुर फूट पड़े।“

ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रियावादी नीति -

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश सरकार शिक्षित भारतीयों के अधिकारों का हनन करने लगी थी। इसका आरंभ ईसाई धर्मांतरण के आसन्न खतरे से हुआ, जिसको 1850 ई0 में पारित ‘लेक्स लोकी ऐक्ट‘ ने और बढ़ावा दिया, जिससे धर्म परिवर्तन करनेवाले को पुश्तैनी संपत्ति में हिस्सा लेने का अधिकार मिल गया। 1861 के इंडियन कौंसिल ऐक्ट ने गवर्नर जनरल की कौंसिल में गैर सरकारी भारतीय सदस्यों को सीमित संख्या में शामिल किये जाने की व्यवस्था दी, किंतु वे गवर्नर जनरल की अनुमति के बिना कोई विधेयक पेश नहीं कर सकते थे। इससे बड़ी बात यह कि उसे ’वीटो‘ का अधिकार प्राप्त था। सरकार सेना पर होम चार्जेज पर और साम्राज्य की आवश्यकतानुसार लोक निर्माण के कार्यों पर अत्यधिक खर्च कर रही थी, किंतु 31 मार्च 1870 ई0 को जब सरकार ने एक प्रस्ताव द्वारा बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के आवंटन में कटौती का फैसला किया, तो शिक्षित युवाओं को बड़ी निराशा हुई। 1870 के दशक में न्यायिक सुधार के अंतर्गत सीमित चुनाव के सिद्धांत को जगह तो दी गई थी, किंतु 1876 में सिविल सेवा में बैठने की आयु 21 वर्ष से घटाकर 19 साल करके इसकी भी काट निकाल ली गई, जबकि अभी पुरानी माँग कि परीक्षा लंदन के साथ-साथ भारत में भी कराई जाए, पूरी नहीं हुई थी। एक प्रयास से भारतीयों को विशेषकर नागरिक सेवा से अलग रखने के लिए विधिवत प्रयास किये गये। उदाहरणार्थ - 1869 ई0 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने प्ण्ब्ण्ैण् की परीक्षा पास कर ली, किन्तु ब्रिटिश सरकार ने सेवा में प्रवेश करने के बाद मामूली सी गलती पर उन्हे नौकरी से निकाल दिया। इसी प्रकार 1877 ई0 में अरविन्द घोष ने इस परीक्षा को पास कर लिया परन्तु उनकी नियुक्ति इसलिए नहीं की गई क्योंकि वे घोड़े की सवारी में निपुण नही थे। वास्तविकता यह है कि ब्रिटिश अधिकारी भारतीयों को उच्च पदों पर वंचित रखने के लिए नित नये-नये बहाने ढ़ूढ़ते रहते थे।

हद तो तब हो गयी जब प्रशासनीक सुविधा के नाम पर लार्ड कर्जन ने हिन्दू-मुस्लिम एकता को खण्डित करने के लिए 1905 ई0 में बंगाल विभाजन का फैसला लिया। बंगाल विभाजन के इस फैसले के प्रतिक्रियास्वरूप बंगाल की जनता ने स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन प्रारंभ कर जिस एकता और सामूहिकता का प्रदर्शन किया उससे सरकार की चूलें हिले गयी। इन समस्त प्रतिक्रियावादी कार्यो से भारत की जनता में असन्तोष का गुबार फूटा और वे राष्ट्रीयता की भावना से ओतप्रोत होकर ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेकने के लिए संकल्पबद्ध हुये।

इलबर्ट बिल विवाद -

राष्ट्रीयता की भावना को विकसित करने में इलबर्ट बिल सम्बन्धी विवाद की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। उदारपंथी लाई रिपन ने जब न्याय व्यवस्था में जाति-विभेद खत्म करने के लिए इल्बर्ट बिल के द्वारा भारतीय मजिस्ट्रेटों को यूरोपियनों के विरुद्ध अभियोग की सुनवाई करने और दंडित करने का अधिकार देने की व्यवस्था की, तो यूरोपियनों ने संपूर्ण भारत और इंग्लैंड में इस विधेयक के विरुद्ध संगठित रूप से आंदोलन चलाने के लिए ’यूरोपियन रक्षा संघ’ की स्थापना की और लगभग 150,000 रुपये का चंदा एकत्र किया। इस विधेयक का भयानक विरोध केवल गैर-सरकारी आंग्ल-भारतीय लोगों ने ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश अधिकारियों के एक बड़े भाग ने भी किया। इनमें बंगाल का ले0 गवर्नर रीवर्स टॉमसन भी शामिल था, जिसने कथित रूप से विधेयक की निंदा की कि कलम की एक जुंबिश से समता स्थापित करने के लिए इसमें नस्ली भेदों को अनदेखा किया गया था। सर हेनरी काटन की मानें तो कलकत्ते में कुछ अंग्रेजों ने सरकारी भवन के संतरियों के माध्यम से लार्ड रिपन को बाँधकर वापस इंग्लैंड भेजने का षड्यंत्र भी रचा था और यह सब बंगाल के गर्वनर तथा पुलिस कमिश्नर की जानकारी में हुआ था। अंततः जनवरी 1884 ई0 में अंग्रेजों के संगठित आंदोलन के सामने रिपन को झुकना पड़ा और इल्बर्ट बिल में संशोधन करना पड़ा।

इल्बर्ट बिल विवाद ने शिक्षित भारतवासियों को साम्राज्य की शक्ति संरचना में कष्टदायक ढंग से अपनी अधीनता की स्थिति का अनुभव कराया, जिससे भारतीयों को न केवल संगठित आंदोलन के महत्त्व और उसके मूल्य का ज्ञान हुआ, बल्कि उन्हें संगठित होने की प्रेरणा भी मिली। इस बिल के विरोध ने भारतीयों को एक ऐसे संगठन की आवश्यकता का अनुभव कराया, जो अखिल भारतीय हो और राजनीतिक उद्देश्य रखता हो। अंततः 1885 ई0 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना से यह आवश्यकता पूरी हुई।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाक्रम का प्रभाव -

उन्नीसवीं सदी का युग राष्ट्रवाद, उदारवाद तथा साम्राज्यवाद जैसे आंदोलनों को जन्म देनेवाली शक्तियों के प्रभाव में था। 1830 एवं 1848 की फ्रांसीसी क्रांतियों से भारतीयों में बलिदान की भावना जागी। इटली तथा यूनान की स्वाधीनता ने उनके उत्साह में असाधारण वृद्धि की। मैत्सिनी और गैरीवाल्डी के नेतृत्व में इटली के एकीकरण का सफल आन्दोलन भारतीय बुद्धिजीवियों और युवाओं को काफी प्रभावित किया था। यूरोप के बाल्कन क्षेत्र में तुर्की साम्राज्य के विरुद्ध राष्ट्रवादी आंदोलनों का जन्म होने लगा था। आयरलैंड में भी अंग्रेजों की पराधीनता से मुक्त होने का आंदोलन चल रहा था, जिससे भारतीय जनता काफी प्रभावित हुई। इटली, जर्मनी, रुमानिया और सर्विया के राजनीतिक आंदोलन, इंग्लैंड के सुधार कानून एवं अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम ने भी भारतीयों में साहस पैदा किया और प्रोत्साहित किया कि वे स्वाधीनता प्राप्त करने के संघर्ष में जुट जायें। यद्यपि अंग्रेजों ने भारत को अन्य देशों के जनतांत्रिक  और राष्ट्रवादी आन्दोलनों के प्रभाव से दूर रखने की भरपूर कोशिश की लेकिन फिर भी इसका कुछ-न- कुछ प्रभाव अवश्य पड़ा और भारतीय राष्ट्रीयता की भावना तीव्र और जोर पकड़ने लगी।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद का उदय और विकास किसी एक कारण का परिणाम नहीं है। वस्तुतः भारत में राष्ट्रवाद का जन्म ब्रिटिश सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप हुआ। भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दो विरोधी दृष्टिकोण सामने आते हैं- विकासवादी और प्रतिक्रियावादी। किंतु इन दोनों ही स्वरूपों ने राष्ट्रवाद के जन्म में सहायता पहुँचाई। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में राजनीतिक एकता की स्थापना हुई, पाश्चात्य शिक्षा का प्रचार-प्रसार हुआ और यातायात एवं संचार के साधनों का विकास हुआ। इनसे जहाँ एक ओर ब्रिटिश शासन को लाभ हुआ, वहीं दूसरी ओर अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवाद के उदय और विकास में भी सहायता मिली। ब्रिटिश शासन के विकासशील स्वरूप ने अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रवाद के जन्म में योगदान दिया, किंतु उसके प्रतिक्रियावादी स्वरूप ने इस प्रक्रिया को तीव्र किया। ब्रिटिश शासन द्वारा भारत का आर्थिक शोषण, भारतीयों के साथ भेदभाव, सरकारी नौकरियों में पक्षपात, प्रेस पर प्रतिबंध, साम्राज्यवादी खर्चीले युद्ध, आर्म्स ऐक्ट जैसे कानून से आधुनिक शिक्षाप्राप्त भारतीय नेताओं को स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश शासन भारत के हित में नहीं है।

कुछ लोगों का यह मानना है कि भारत में राष्ट्रीयता का विकास अंग्रेजों की देन है। यद्यपि इस कथन में अतिशयोक्ति नहीं है लेकिन वास्तव में भारत में राष्ट्रीय भावना इसलिए पैदा और विकसित हुई क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवादी भारत को बुरी तरह लूट रहे थे। इस प्रकार 19वीं शताब्दी में विकसित हुये इस राष्ट्रीय और राजनीतिक जीवन को गति एवं संगठित रूप तभी प्राप्त हुआ जब 1885 ई0 में एक अखिल भारतीय संस्था के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हो गयी। 


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