window.location = "http://www.yoururl.com"; Development of Nationalism in India | भारत में राष्ट्रवाद का विकास

Development of Nationalism in India | भारत में राष्ट्रवाद का विकास

 


राष्ट्रवाद का अर्थ -

अन्य सामाजिक तथ्यों की तरह राष्ट्रवाद भी ऐतिहासिक तथ्य है। लोक जीवन के विकास के क्रम में वस्तुनिष्ठ और भावनिष्ठ दोनों प्रकार के ऐतिहासिक तत्वों की परिपक्वता के पश्चात राष्ट्रवाद का उदय हुआ। जैसा कि ई0एच0 कार ने कहा- ‘‘ सही अर्थों में राष्ट्रों का उदय मध्ययुग की समाप्ति पर ही हुआ।‘‘ भारतीय राष्ट्रवाद के विस्तृत अध्ययन से पूर्व राष्ट्र और राष्ट्रवाद क्या है, उसका अर्थ क्या है, के सम्बन्ध में जान लेना उपयुक्त होगा। राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता, राष्ट्रीय एकता का पर्याय है। गार्नर ने राष्ट्र की परिभाषित करते हुये लिखा है कि- ‘‘एक राष्ट्र सांस्कृतिक समानता का एक सामाजिक समूह है जो अपने मानसिक जीवन और अभिव्यक्ति की एकता के विषय में पूर्ण चेतन और दृढ़ निश्चयी हो।‘‘ इस प्रकार जब इन बन्धनों से संगठित जनता के बीच राष्ट्रीय भावना पैदा होती है और वह उस भावना से प्रेरित होकर राजनीतिक एकता और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने लगता है तो इस स्थिति को राष्ट्रीय जागरण की स्थिति कहते है। दूसरे शब्दों में कहे तो जब किसी राष्ट्र के नागरिक स्थान, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, भाषा-साहित्य, मूल्य, मान्यताओं, जाति समूह और धर्म आदि के अन्तर होते हुए भी सभी को एक समझते हैं और राष्ट्रहित के समक्ष अपने व्यक्तिगत एवं सामूहिक हितों का परित्याग करते हैं, यही भावना राष्ट्रवाद या राष्ट्रीयता कहलाती है। 

प्रसिद्ध समाज विज्ञानी बुबेकर राष्ट्रीयता को परिभाषित करते हैं- “साधारण रूप में राष्ट्रीयता देश प्रेम की अपेक्षा देशभक्ति के अधिक व्यापक क्षेत्र की ओर संकेत करती है। राष्ट्रीयता में स्थान के सम्बन्ध के साथ-साथ जाति, भाषा, इतिहास, संस्कृति और परम्पराओं के सम्बन्ध भी प्रदर्शित होते हैं।“ 

डॉ0 हुमायूँ कबीर राष्ट्रीयता को अपने शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं- “राष्ट्रीयता वह है जो राष्ट्र के प्रति अपनत्व की भावना पर आधारित होती है।“ 

इन सभी परिभाषाओं से राष्ट्रवाद का अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है। इनके आधार पर हम निष्कर्ष निकालते हैं कि राष्ट्रीयता की भावना में देश प्रेम के तत्त्व नीहित होते हैं जो देश के विविध मतावलम्बी निवासियों को एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास करते हैं। सच्ची राष्ट्रीयता वही है जिसमें व्यक्ति देशहित व राष्ट्रहित के लिए सभी कुछ त्याग देने के लिए तत्पर रहता है। यदि यह कहा जाए कि किसी राष्ट्र के अस्तित्व का राष्ट्रीयता मूल अंग है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

भारतीय राष्ट्रवाद का उदय

राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद भारत के लिए नया नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि इसका अभिर्भाव राजनीतिक पराधीनता के दिनों में हुआ। अंग्रेज इतिहासकारों ने तो पहले भारत में राष्ट्रीयता के अस्तित्व को मानने से ही इनकार कर दिया था। 1883 ई0 में जे0 आर0 सीले भारत को एक ’भौगोलिक अभिव्यक्ति’ मात्र मानता था, जिसमें राष्ट्रीयता की कोई भावना नहीं थी। 1884 में जान स्ट्रैची ने भी कैंब्रिज विश्वविद्यालय के भूतपूर्व छात्रों को बताया था कि भारत के बारे में सबसे पहली और प्रमुख जानने योग्य बात यह है कि ’भारत न एक है और न एक था।’ लेकिन जब 19वीं शताब्दी के अंत और 20वीं शताब्दी के पहले दशक में भारतीय राष्ट्रवाद उभरकर शक्तिशाली हो रहा था, तो अंग्रेजों ने इसका श्रेय खुद लेना चाहा। तर्क दिया कि भारत में राष्ट्रवाद के उत्थान को आद्यौगिकीकरण, नगरीकरण और मुद्रण पूँजीवाद से बढ़ावा मिला। मांटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट के लेखकों ने दावा किया था कि- “राजनीतिक भावना से प्रेरित भारतीय बौद्धिक रूप से हमारी ही संतान हैं। उन्होंने वे ही विचार अपनाये हैं, जो हमने उनके सामने रखे हैं और इसका श्रेय हमें ही मिलना चाहिए। कूपलैंड ने स्पष्ट लिखा था ’भारतीय राष्ट्रवाद तो अंग्रेजी राज की ही संतति थी।“ इस प्रकार भारतीय राष्ट्रवाद से जुड़े अधिकांश इतिहासकारों का तर्क रहा है कि आधुनिक अर्थ में भारतीय राजनीतिक राष्ट्र ब्रिटिश राज की स्थापना के पहले मौजूद नहीं था।

जिस समय अंग्रेज यहॉं आए उस समय भारत एक राष्ट्र नही था क्योंकि भारतीय सन्दर्भ मेंं राष्ट्रवाद आधुनिक युग की चीज है। ब्रिटिश शासन और विश्व शक्तियों की वजह से, साथ ही भारतीय समाज में उत्पन्न एवं विकसित विभिन्न आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ कारणों की क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप ब्रिटिश काल में भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म हुआ। लेकिन हम ब्रिटिश आलोचकों के उस तथ्य को भी स्वीकार नही कर सकते कि भारत में उन सभी आधारभूत तत्वों का अभाव था जो एक राष्ट्रीयता के पनपने में सहयोगी होते है। यह तर्क भी सही नही है कि भारत के विस्तार और विविधता की वजह से यहॉं एक समन्वित राष्ट्र के उभरने की संभावना नही थी। वास्तव में अनुकूल परिस्थितियॉं उत्पन्न होने पर यह एक राष्ट्र बन सकता था और ये अनुकूल परिस्थितियॉं भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान उत्पन्न हुई।

किंतु भारत में राष्ट्रीय चेतना वेद काल से अस्तित्वमान है। पौराणिक ग्रन्थों, उपनिषदों, वेदों में कई मन्त्र, ऋचाएँ, स्मृतियाँ सिर्फ राष्ट्र की अवधारणा को स्पष्ट करने मात्र के लिए हैं। यजुर्वेद के एक मंत्र में सारे देशवासियों के हितार्थ योग क्षेम की कामना की गई है। योग क्षेम से तात्पर्य है- भौतिक एवं आध्यात्मिक समन्वित समृद्ध जीवन; यानी राष्ट्र के सभी वर्गों का अभ्युदय। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में धरती माता का यशोगान किया गया हैं- माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः अर्थात भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ। विष्णुपुराण में तो राष्ट्र के प्रति श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस ग्रंथ में भारतभूमि का यशोगान पृथ्वी पर स्वर्ग के रूप में किया गया है।

अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने ।
यतोहि कर्म भूरेषा हातोऽन्या भोग भूमयः ॥
गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत-भूमि भागे।
स्वपिस्वगस्पिदमार्गे भूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात्

इसी प्रकार महाभारत, गरुड पुराण, रामायण आदि ग्रंथों में भारतभूमि की महिमा का बखान किया गया है और जननी जन्मभूमि को स्वर्ग से भी महान् बताया गया है। स्पष्ट है कि भारत में राष्ट्रवाद का जन्म और विकास कोई नई और अपरिचित प्रक्रिया नहीं थी। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीयता की अवधारणा के लिए समाहित तत्त्व- मातृभाषा, संस्कृति और मातृभूमि- पूर्णतः भारत के लिए राष्ट्रीयता के पुरातनकालिक सम्बन्धों को उजागर करते हैं। इन सबके बावजूद राष्ट्रीयता तभी फलीभूत होती है जब राष्ट्र प्रभुता सम्पन्न और लोकतान्त्रिक हो। 

ऐसा माना जाता है कि बहुत पहले ही भारतीय समाज एक निजी सांस्कृतिक क्षेत्र में अपने राष्ट्रत्व की कल्पना करने लगा था। 19वीं सदी के आरंभिक वर्षों के भारत में क्षेत्रीय आधार पर ऐसी भावनाओं का विकास होने लगा था, जब जन्मभूमि की परिभाषा देश या वतन के रूप में की जाने लगी थी। संचार के विभिन्न साधनों के विकास के कारण भी उनका अलगाव भंग हुआ और सांस्कृतिक बाधाएँ व्यापार और नियमित तीर्थयात्राओं के कारण धीरे-धीरे समाप्त होने लगीं। जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना वर्चस्व स्थापित किया, तो यह प्रारंभिक देशभक्ति प्रतिरोध की अनेक कार्यवाइयों में फूटकर सामने आई, जिसका चरमोत्कर्ष 1857 की क्रांति था। क्रांति के बाद भारत में शिक्षा के तीव्र प्रसार, रेल और तार जैसी संचार व्यवस्थाओं के विकास तथा औपनिवेशिक संस्थाओं के कारण उत्पन्न कर्मक्षेत्र के कारण धीरे-धीरे राजनीति का यह आधुनिक स्वरूप सामने आया। यद्यपि पुराना ’देशप्रेम’ पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ, किंतु उसे नये सिरे से ढालकर एक ऐसी नई उपनिवेशी आधुनिकता पैदा की गई, जो पश्चिम की आधुनिकता से भिन्न थी।

इस ऐतिहासिक संग्राम के विरुद्ध फिरंगियों ने कठोर नियम, कानून लागू किये। थामसन, गैरेट, और मैलेसन द्वारा लिखित कुछ अंश अंग्रेजी दमन नीति को स्पष्ट करते हैं- “हर एक हिन्दुस्तानी जो अंग्रेजों की तरफ से नहीं लड़ रहा था, उसे हत्यारा माना जाए। दिल्ली निवासियों का कत्ले-आम किया जाए।“ इससे सम्पूर्ण देश में राष्ट्रीयता की धूम मच गई और जनक्रान्ति को अपेक्षाकृत अधिक बल मिला। अंग्रेजी शासकों ने क्रान्ति के बाद समय-समय पर शासन व्यवस्था में कुछ सुधार किए और शासन के कार्यों में थोड़ा-थोड़ा भारतीयों का सहयोग लेना आरंभ किया। लेकिन सुधारों की गति बहुत धीमी थी अतः राष्ट्रवाद की कोपलें तेजी से पल्लवित होने लगीं। कई स्वयंसेवी, राष्ट्रीय राजनीतिक संगठनों का सूत्रपात हुआ। भारत में राष्ट्रीय राजनीतिक संगठनों की स्थापना में सबसे अहम भूमिका इलबर्ट बिल की रही। इसके अनुसार भारतीय न्यायाधीशों को भी यूरोपीय अपराधियों को दण्ड देने का अधिकार दे दिया गया था। अंग्रेजों ने इस बिल का विरोध किया। हेनरी कॉटन के अनुसार- यूरोपियनों द्वारा इस न्याय संगत कानून का विरोध करने पर भारतीयों को राष्ट्रीय राजनीतिक संगठन के निर्माण की आवश्यकता महसूस हुई जिसके माध्यम से वे अपनी आवाज सरकार तक पहुँचा सकें। इस कड़ी में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने सन् 1876 में इंडियन एसोसियेशन की स्थापना की। सन् 1883 के अन्तिम माह में कलकत्ता में एक राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसमें एक अखिल भारतीय संगठन को मूर्त रूप देने की अनुशंसा की गई। तात्कालिक गवर्नर जनरल लॉर्ड डफरिन ने भारतीयों की योजना का अनुमोदन किया। डफरिन के कथनों से आश्वस्त होकर सर ए0 ओ0 ह्यूम ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के स्नातकों एवं अन्य पचास शिक्षित नवयुवकों से स्वातन्त्र्य हितार्थ अपील की, जिसके फलस्वरूप 28 दिसम्बर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की नींव पड़ी।

बाद के स्वाधीनता संग्राम का इतिहास भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस का इतिहास बन गया। राष्ट्रीय आन्दोलन के संघर्ष में राष्ट्र के समस्त वर्गों ने एकजुट होकर स्वतन्त्रता प्राप्ति तक संघर्ष किया। राष्ट्रवाद की संकल्पना के विकास में स्वामी दयानन्द, विवेकानन्द, गोखले, लाला लाजपतराय, बाल गंगाधर तिलक, विपिनचन्द्र पाल, अरविन्द, रविन्द्रनाथ ठाकुर, सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, जवाहरलाल नेहरू ने महती भूमिका का निर्वहन किया। एक ओर राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता का संघर्ष व्यावहारिक रूप से लड़ा गया तथा दूसरी ओर राष्ट्रवाद का सैद्धान्तिक धरातल विकसित किया गया। 

आधुनिक भारत में राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास :

स्वतंत्र रहना मनुष्य का प्रकृत धर्म है परन्तु जागरूकता के अभाव में स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रह पाती। हर्षवर्द्धन के राज्य काल (606-648 ई०) के बाद भारत में देश-प्रेम की उत्कृष्ट भावना का ह्रास होता गया। सैकड़ों वर्षों तक राष्ट्रीय एकता का अभाव रहा। वस्तुतः उन्नीसवीं शताब्दी के पहले तक जन-सामान्य के बीच राजनीतिक चेतना का उदय नहीं हो पाया था। अपनी स्थितियों एवं शिकायतों को प्रभावकारी रूप में व्यक्त करने के लिए उनलोगों ने किसी मंच अथवा संस्था तक का गठन नहीं किया। इस प्रकार के राजनीतिक जीवन के प्रति उदासीन से हो गये थे। जनता में न तो राष्ट्रीयता की उग्र भावना थी और न ही पराधीनता से मुक्ति पाने के लिए उसकी ओर से कोई ठोस कार्यक्रम बन रहा था।

परन्तु इसका यह अर्थ नहीं ग्रहण करना चाहिए कि लोग इस शासन-व्यवस्था से संतुष्ट और प्रसन्न थे। उनमें असंतोष था और वे अपने शासक के शोषण और अत्याचार से अत्यंत दुःखी थे। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होकर न सही, पर छिटफुट रूप से विभिन्न समुदाय के लोगों ने अपने क्षोभ को कई बार प्रकट किया था। किसानों, आदिवासियों, संन्यासियों आदि की ओर से तो विद्रोह भी हुआ था। 19 मार्च 1938 ई० को कलकत्ता के नगर भवन में भूमिपतियों की समिति का जो उद्घाटन समारोह हुआ था उसका मूलोद्देश्य भी राजनीतिक चेतना उत्पन्न करना ही था । परन्तु क्रांति की सफलता के लिए जिस संगठन एवं एकता की अपेक्षा थी वह लोगों में विद्यमान नहीं रहा और व्यापक स्तर पर एकजुट होकर कभी आन्दोलन नहीं कर सके। इसी से अँग्रेजी शासन भारत में जमता गया और सामान्य झोंकों से उसकी नींव को उखाड़ फेंकना संभव नहीं रहा। फिर भी, देशवासियों में संकीर्णता और दासता के भार से मुक्त होने की आकुलता विद्यमान थी।

विदेशी शासकों ने भारत में प्रवेश के दौरान सम्पूर्ण भारत का राष्ट्रीय एकीकरण किया। देशवासियों में एकता की भावना जाग्रत की एवं भारत को अखण्ड एक इकाई बनाया। एकता के स्वर दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद के प्रणेता ऋषियों की वाणी में ही प्रस्फुटित हो चुके थे। इतना अवश्य था पुरातन काल में राष्ट्रवाद मात्र भौगोलिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों तक ही सीमित था। राजनीतिक एकता का अस्तित्व प्राचीन भारत में नहीं था। राष्ट्रवाद की आधुनिक संकल्पना के अनुसार 19वीं शताब्दी में राष्ट्रीयता भारत में अस्तित्व में आई अर्थात राजनीतिक एकता का सूत्रपात 19वीं शताब्दी में ही हो पाया। विभिन्न आंदोलनों, भारतीय विचारकों, साहित्यकारों और विभिन्न घटनाओं ने राष्ट्रीय चेतना की ज्वाला को अधिकाधिक भड़काया। भारत के राष्ट्रवाद की गति और शक्ति को समूल नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक झगड़े फैलाना शुरू किया एवं “फूट डालो और राज करो” की नीति अपनाई। इसके फलस्वरूप राष्ट्रीयता की लहर अनवरत बढ़ती रही और अन्ततः भारतीय राष्ट्रवाद के हाथ विजय पताका लग ही गई।

क्या भारतीय राष्ट्रवाद अँग्रेज़ों की देन है ?

अँग्रेज़ों का यह दावा ग़लत है कि भारतीय राष्ट्रवाद अँग्रेज़ी शासन की देन है। यह प्रश्न कई बार उठाया जा चुका है कि यदि अँग्रेज़ी शासन यहाँ न होता तो क्या भारत में राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आंदोलन जन्म ले पाता ? दूसरे शब्दों में इनका अभिप्राय यह था कि भारत में राष्ट्रीय जागरण के लिए भारतीयों को नहीं वरन् ख़ुद अँग्रेज़ों को ज़िम्मेदार समझा जाए। पर सचाई यह है कि ऐसी सभी धारणाएँ साम्राज्यवादी समर्थकों की एक चाल थी जिनका एक ख़ास उद्देश्य था और वह यह कि अँग्रेज़ी उपनिवेशवाद को एक उदारवादी कल्याणकारी शासन के रूप में पेश किया जा सके।

कुछ साम्राज्यवादी समर्थकों ने यह कहना शुरू किया कि भारत का राष्ट्रीय आंदोलन मूलतः उन्हीं की देन है। भारतीय जनता का राजनीतिक मनोवृत्ति वाला हिस्सा बौद्धिक दृष्टि में हमारी संतान है। उन्होंने उन विचारों को ग्रहण किया जिन्हें ख़ुद हमने उनके सामने रखा। भारत की वर्तमान बौद्धिक और नैतिक हलचल हमारे कार्य की निंदा नहीं वरन् प्रशंसा की बात है।

यह शायद दुहराने की आवश्यकता ही नहीं कि अँग्रेज़ों ने भारत पर इसलिए शासन कायम किया था कि भारत को लूटा खसोटा जा सके, इसलिए नहीं कि भारत में राष्ट्रीयता की नींव डालकर ख़ुद अपने पैर में कुल्हाड़ी मारी जाए। भारतीय राष्ट्रीयता के जन्मदाता होने का दावा केवल अंतर्विरोधपूर्ण ही नहीं है वरन् यह अँग्रेज़ों की ढकोसलेबाज़ी का जीता-जागता उदाहरण है। इसी संदर्भ में अँग्रेज़ी साम्राज्यवाद के एक प्रबल समर्थक का कथन उल्लेखनीय है - हमने भारत को भारतवासियों के लाभ के लिए नहीं जीता। मैं जानता हूँ कि मिशनरियों की सभाओं में कहा जाता है कि हमने भारत को भारतवासियों का स्तर ऊँचा करने के लिए जीता है। यह सफ़ेद झूठ है। हमने भारत को तलवार से जीता है और तलवार से ही उसे अपने कब्ज़े में बनाएं रखेंगे। हम उस पर इसलिए आधिपत्य बनाए रख रहे हैं कि वह ब्रिटिश माल की निकासी का सर्वोत्तम मार्ग है।

साम्राज्यवादियों के इस कथन से यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि भारत पर अँग्रेज़ी शासन बनाए रखने का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य यह था कि अँग्रेज़ी पूँजीपतियों के कारख़ानों में बने तैयार माल के लिए भारत को एक मंडी बनाया जा सके। साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पुष्टि अंग्रेजों के इन शब्दों से होती है कि- “भारत ब्रिटिश साम्राज्य की कुंजी है, यदि हम भारत को खो दें तो साम्राज्य का विनाश हो जाएगा - पहले आर्थिक फिर राजनीतिक दृष्टि से।“

भारत पर अंग्रेज़ या किसी अन्य विदेशी शक्ति का शासन होता या नहीं, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आंदोलन का जन्म निश्चय ही हुआ होता। लोकतांत्रिक विकास की जड़ें ब्रिटेन के अलावा आधुनिक युग में कई और राष्ट्रों में भी फैलती गई हैं, अतः यह निश्चय ही अकेले ब्रिटेन की देन नहीं है। न यह कहना ही उचित होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक विदेशी आधिपत्य कायम न हो जाए। इंग्लैंड में राजा व संसद के बीच हुए समझौतों की तुलना अमरीकी स्वतंत्रता की घोषणा और ख़ासकर फ्रांसीसी क्रांति के मूलतंत्र (स्वाधीनता, समानता और भाईचारे) ने उन्नीसवीं शताब्दी के लोकतांत्रिक आंदोलनों को कहीं ज़्यादा प्रेरणा दी थी। बीसवीं शताब्दी में 1905 और 1917 की रूसी क्रांति ने भी एशिया के पराधीन लोगों को अपने खोए हुए अधिकारों के प्रति जागरूक बना दिया था। परंतु साथ ही यह कहना भी अनुचित होगा कि भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मूल में अमरीकी स्वतंत्रता की घोषणा या फ्रांसीसी एवं रूसी क्रांति ने ही भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जन्म दिया था।


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