window.location = "http://www.yoururl.com"; Government of India Act, 1919 | भारत शासन अधिनियम, 1919

Government of India Act, 1919 | भारत शासन अधिनियम, 1919

 


भारत शासन अधिनियम, 1919

1858 ई0 में कम्पनी की सत्ता  हस्तगत करने के बाद ब्रिटिश सरकार ने भारत में सहयोग की नीति की अनुसरण किया और इसे कार्यरूप देने के लिए समय-समय पर अनेक अधिनियम पारित किये गये लेकिन यह नीति असफल सिद्ध हुई परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने अपनी भारतीय नीति में परिवर्तन करते हुये यह महसूस किया कि केवल भारतीयों से सहयोग लेना ही पर्याप्त नही है। अतः ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करने के उद्देश्य से 1919 में एक अधिनियम पारित कर आंशिक उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को अपनाया गया। इस अधिनियम के जन्मदाता भारत सचिव मान्टेग्यू तथा भारतीय वायसराय चेम्सफोर्ड थे। अतः इसे मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार अथवा भारत शासन अधिनियम, 1919 भी कहते है।

भारत शासन अधिनियम, 1919 की पृष्ठभूमि :

मार्ले-मिण्टो सुधार की असफलता -

वास्तव में 1909 का मार्ले-मिण्टो सुधार भारतीयों को सन्तुष्ट न कर सका क्योंकि  यह अधिनियम त्रुटिपूर्ण, अपर्याप्त तथा अर्द्धमार्गीय थे। भारतवासी स्वराज के लिए आन्दोलन कर रहे थे लेकिन मार्ले-मिण्टो ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। जब मार्ले ने यह घोषणा की कि वह भारत में संसदीय सरकार की स्थापना किसी भी कीमत पर नही करना चाहता है। इससे देशवासियों की ब्रिटिश नीति में रही-सही आस्था जाती रही और उन्होने ब्रिटिश नीति के विरोध में कडा रूख अपनाया। 1909 का सुधार अधिनियम कई अर्थो में प्रतिगामी था क्योंकि उसने साम्प्रदायिक और पृथक निर्वाचन प्रणाली अपनाकर भारत में साम्प्रदायिकता और विभाजन का बीज बोया। इस सुधार अधिनियम द्वारा प्रान्तीय और स्थानीय संस्थाओं पर केन्द्र के नियंत्रण को और भी कठोर बना दिया गया। इन्ही सब कारणों से यह अधिनियम भारतीयों को सन्तोष प्रदान नही कर सका और एक नवीन सुधार के लिए उनका आन्दोलन और भी तीव्र हो गया।

1909 के बाद का राजनैतिक दबाव -

हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच बढ़ते हुए असंतोष के कारण ब्रिटिश सरकार ने अपना व्यापक दमन चक्र चलाया। 1910 ई0 में प्रेस की स्वतंत्रता को जकड दिया गया और सरकार के विरुद्ध सभाएँ करने पर कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था की गई। 1911 ई0 में बंगाल के विभाजन के रद्द किए जाने का मुसलमानों ने विरोध किया तथा इसके फलस्वरूप हिंदू-मुसलमान संबंधों में गिरावट आई। राष्ट्रवादियों के बीच क्रान्तिकारी हिंसात्मक आंदोलन पूर्ववत् चलता रहा। इस व्यापक असंतोष के वातावरण में समकालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग ने राजनीति का रुख देखकर 25 अगस्त, 1911 को एक लेख में प्रांतों में स्वशासन की स्थापना के सिद्धांत पर बल दिया था। समकालीन भारत सचिव लॉर्ड क्रो ने ब्रिटिश नीति का स्पष्टीकरण करते हुए यह कहा था कि जिस स्वशासन की स्थापना का ज़िक्र किया गया था उसका यह अर्थ कदापि नहीं था कि ब्रिटिश संसद के नियंत्रण से स्वतंत्रता प्रदान की जाएगी। बदलती परिस्थितियों में ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीति को इस प्रकार से निर्धारित किया गया कि स्थानीय व प्रांतीय सरकारों को अधिक-से-अधिक ऐसे विभाग सौंपे जाएँ जिनका कार्य वे सुविधानुसार कर सकें तथा सार्वजनिक सेवाओं के क्षेत्र में भारतीयों को अधिक स्थान दिए जाएँ। इनके साथ-साथ ब्रिटिश साम्राज्य की सुचारुता तथा स्थायित्व बनाए रखने के लिए सतत कार्य किया जाए। तथापि अन दोनों में से किसी ने भी संवैधानिक सधारों के विषय में पहल नहीं की। अतः इन परिस्थितियों में भारतवासियों ने स्वराज्य की मॉग को लेकर ब्रिटिश सरकार पर दबाब बनाना प्रारंभ कर दिया।

भारतीयों की अन्य शिकायतें -

स्वशासन की दिशा में विकेन्द्रीकरण आयोग, 1907 और 1912 ई0 में लोक सेवा आयोग की स्थापना से भारतीयों को बडी आशा बॅधी। लेकिन बहुत जल्द ही उनकी आशा निराशा में बदल गई। विकेन्द्रीकरण आयोग की स्वीकृतियॉं अपर्याप्त हुई सिद्ध हुई और लोक सेवा आयोग ने अपने कार्य करने में बडी शिथिलता दिखायी। अस्त्रों के लाइसेन्स के बारे में जाति भेद की नीति अपनाई गयी। दक्षिणा अफ्रीका में भारतीयों के साथा दुर्व्यवहार किया गया और अन्य ब्रिटिश उपनिवेशों में भारतीयों के साथ भेद-भाव की नीति अपनाई गयी। इन समस्त कारणों से अंग्रेजों के विरूद्ध भारतीयों में क्षोभ और असन्तोष की भावना बहुत तीव्र हो गयी।

प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव -

इन निराशा और असन्तोष के माहौल में जब 1914 ई0 में प्रथम विश्व युद्ध का आगाज हुआ तो भारतीयों का युद्ध में सहयोग प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने उसके साथ सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करना शुरू कर दिया और उनका दिल जीतने को लेकर अनेक घोषणाएॅ की गयी। इस अवसर पर भारतीयों ने भी उदारता दिखलाई और युद्ध में ब्रिटेन की भरपूर सहायता की। युद्ध शुरू होते ही प्रधानमंत्री एसक्विथ ने यह घोषणा की कि भविष्य में भारत के प्रश्न को एक नये दृष्टिकोण से देखा जायेगा। युद्ध के दौरान ब्रिटेन के गुट वाले मित्र राष्ट्रों ने भी यह ऐलान किया कि वे निजी स्वार्थो के लिए युद्ध नही लड रहे है, अपितु दुनिया में प्रजातंत्र को सुरक्षित करने के लिए ही उन्होने युद्ध में प्रवेश किया है। इन घोषणाओं से भारतीयों को यह आशा हुई कि युद्ध के उपरान्त भारत को स्वशासन का अधिकार मिल जाएगा। युद्ध के काल में भारतीयों ने भी स्वतंत्रता और स्वशासन का महत्व समझा। उन्होने कमजोर और शक्तिविहिन देशों की दुर्दशा देखी। अतः वे अपने देश को भी स्वतंत्र देखने के लिए व्याकुल हो उठे। स्पष्ट है कि प्रथम विश्वयुद्ध के प्रभाव से भारतीयों में राष्ट्रीय जागरण और चेतना आयी।

सरकार के प्रति मुसलमानों के रुख का परिवर्तन -

प्रारंभ में सरकार के पक्षपातपूर्ण नीतियों के चलते मुसलमानों को बहुत प्रोत्साहन मिला और वे ब्रिटिश सरकार की ओर काफी झुक गये। पृथक निर्वाचन की मान्यता ने अंग्रेजों और मुसलमानों की मित्रता की घनिष्ठता को भी गाढ़ा बना दिया। लेकिन मॉर्ले-मिण्टो सुधार के बाद कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनसे मुसलमानों में राष्ट्रीय जागरण हुआ तथा वे अंगरेज विरोधी हो गये। 1911 ई0 में बंगाल विभाजन का अन्त कर दिया गया जिससे मुसलमानों का सरकार पर से विश्वास उठने लगा। तुर्की-इटली युद्ध और बाल्कन युद्ध में अंगरेजों ने तुर्की के विरुद्ध नीति अपनायी जिससे भारतीय मुसलमान बहुत ही सशंकित हो उठे। दूसरी ओर राष्ट्रवादी पत्रों और पत्रिकाओं ने मुसलमानों के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की। इसका परिणाम यह हुआ कि मुसलमान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के निकट आने लगे। मुस्लिम लीग पर अलीगढ़ आन्दोलन का प्रभाव कम हो गया तथा कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों का प्रभाव उस पर बढ़ गया। लीग का दृष्टिकोण राष्ट्रवादी तथा प्रगतिवादी हो गया। वह राष्ट्रीयता के भाव में बहने लगी और कांग्रेस के निकट आने लगी। कांग्रेस और लीग के अधिवेशन लखनऊ में एक ही समय हुआ और दोनों ने सुधार की एक समान योजना तैयार की जो लखनऊ समझौता (Lucknow Pact) के नाम से प्रसिद्ध है। इस योजना में व्यवस्थापिका-सभाओं के आकार तथा अधिकार में वृद्धि, प्रत्यक्ष, व्यापक तथा पृथक प्रतिनिधित्व और प्रान्तीय स्वायत्तता के लिए सिफारिश की गयी थी। यह एक महान ऐतिहासिक घटना है जिसने भारत के बड़े सम्प्रदायों को एकता के सूत्र में बांध दिया। गुरुमुख निहाल सिंह के शब्दों में - “इस प्रकार भारत के दो बड़ी जातियों ने और दो बड़ी राजनैतिक संस्थाओं ने एक कार्यक्रम अपनाया और इस रूप में इनके द्वारा विशेषकर उसी वर्ष नरम और उग्र पक्ष में फिर से एकत्र हो जाने पर ब्रिटिश भारत की राजनीतिक दृष्टि से जगी हुई सारी जनता का प्रतिनिधित्व हुआ।“

भारतीय राजनीतिक आंदोलन का प्रभाव -

इन वर्षों में परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ। मुसलिम लीग तथा अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (मध्यवर्गीय) आपस में निकट आए। 1908 ई0 में गोखले ने निर्वाचन क्षेत्र की आवश्यकता को स्वीकार कर लिया था। 1911 ई0 में भारतीय पृथक मुसलमान तुर्की इटली युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन के रुख से रुष्ट हो गए थे। 1912 ई0 में ब्रिटेन की तुर्की-विरोध नीति के कारण ब्रिटिश सरकार के प्रति मुसलमानों की वफादारी में कमी आ गई। दिसंबर 1912 में अपने अधिवेशन में लीग ने अपना उद्देश्य इस प्रकार से स्पष्ट किया था कि वे अन्य वर्गों के सहयोग से तथा संवैधानिक तरीकों से उचित स्वशासन प्राप्त करेंगे। 1913 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में लीग के प्रस्ताव का स्वागत किया गया। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध में ग्रेट ब्रिटेन के, तुर्की के विरुद्ध शत्रुगुट में शामिल हो जाने से हिंदुओं और मुसलमानों में और अधिक निकटता आई। यह समय कांग्रेस के मध्यमार्गियों तथा उग्रवादियों के बीच समझौते के लिए महत्वपूर्ण है। तिलक के नेतृत्व में गरम दल भी ब्रिटिश सरकार के द्वारा भविष्य में राजनैतिक उद्देश्यों की घोषणा के लिए मांग कर रहे थे। 1916 में कांग्रेस के अधिवेशन में मध्यमार्गी तथा गरमपंथी दोनों दलों के बीच एकता के लिए समझौता हुआ। लखनऊ के एक स्थान पर ही कांग्रेस तथा मुसलिम लीग दोनों के बीच एकता स्थापित हुई। संधि के अंतर्गत व्यापक संवैधानिक योजना प्रस्तुत की गई। तय किया गया कि प्रांतों में स्वायत्त शासन तथा केंद्र में बड़े पैमाने पर उत्तरदायी शासन की स्थापना की मांग की जाए। ब्रिटिश सरकार को यह घोषणा करनी चाहिए कि भारत में पूर्ण स्वशासन बहुत ही शीघ्र लागू होगा। भारत को ब्रिटेन की अन्य स्वशासित बस्तियों के समान स्तर पर रखा जाए। 1916 ई0 में श्री तिलक तथा श्रीमती ऐनी बिसेंट के नेतृत्व में आयरलैंड के आंदोलन के आधार पर होमरूल लीग आंदोलन चलाया गया।

20 अगस्त 1917 की घोषणा

भारत में राजनीतिक कठिनाई के इस दौर में उदारवादी दल से संबंधित मौंटेग्यू तथा चेम्सफ़ोर्ड क्रमशः भारत-सचिव तथा गवर्नर-जनरल थे। विरोधी दलों के राजनैतिक दबाव तथा प्रथम विश्व युद्ध में भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने की आकांक्षाओं के कारण 20 अगस्त 1917 को मौंटेग्यू ने भारत के राजनीतिक भविष्य के विषय में ब्रिटिश सरकार की नीति की घोषणा की। इस महत्त्वपूर्ण घोषणा का प्रस्तुतीकरण भारत के भूतपूर्व गवर्नर-जनरल तथा तत्कालीन संसद सदस्य लॉर्ड कर्जन ने किया। “उद्देश्य समिति” के सदस्य माँटेग्यू, चेम्बरलेन तथा लॉर्ड कर्जन थे। चूंकि ब्रिटिश संसद ने “स्वशासन” शब्द के प्रयोग पर आपत्ति प्रकट की थी, इस कारण मौंटेग्यू की सलाह पर “उत्तरदायी शासन“ शब्दावली का प्रयोग किया गया। लॉर्ड कर्ज़न के अनुसार उत्तरदायी सरकार का अर्थ विधान सभा का मताधिकारियों के समक्ष उत्तरदायी होना था। ब्रिटिश सरकार के “उद्देश्य“ की घोषणा 20 अगस्त 1917 को संसद के समक्ष प्रस्तुत की गई। “महारानी की सरकार की नीति, जिससे भारत सरकार पूर्ण सहमत है, प्रशासन की प्रत्येक शाखा में भारतीयों का अधिक-से-अधिक शामिल होना तथा स्वशासन संस्थाओं का शनैः शनैः विकास है। ......... ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना हो.........  इस उद्देश्य से मैं यह जोड़ना चाहूँगा कि इस नीति में विकास केवल विभिन्न चरणों में ही संभव है।“ घोषणा में यह भी कहा गया था कि प्रत्येक चरण का समय तथा तरीका ब्रिटिश संसद ही नियत करेगी। मध्यमागियों ने ब्रिटिश सरकार की इस घोषणा का स्वागत किया। उग्रवादी, जिन्हें कांग्रेस का नेतृत्व प्राप्त था, उपर्युक्त घोषणा की भाषा एवं परिधि दोनों से ही असंतुष्ट थे।

माँटेग्यू चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट,  जुलाई 1918 -

अगस्त घोषणा के पश्चात मोंटेग्यू के साथ एक दल राजनैतिक स्थिति का अध्ययन करने के लिए भारत आया। इसके अध्ययन के आधार पर जुलाई 1918 में ‘मौंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट’ प्रकाशित की गई जो 1919 के भारत सरकार अधिनियम का आधार बनी। इस अधिनियम की प्रस्तावना में 20 अगस्त 1917 की घोषणा के मूल सिद्धांतों का समावेश था। इसमें सुधार तथा लाभों के विषय में कहा गया था कि यदि भारतीय जनता सरकार को सहयोग प्रदान करेगी तभी ब्रिटिश संसद इन्हे लाभ प्रदान करेगी।

1918 की रिपोर्ट ने प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के विषय में सबसे अधिक बल दिया। इस रिपोर्ट के अनुसार स्थानीय, प्रांतीय तथा केंद्रीय तीनों ही स्तरों पर भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ प्रदान करने की सिफ़ारिश की गई। मुख्य सिफ़ारिशें निम्नलिखित थीं : (1) केंद्रीय तथा प्रांतीय क्षेत्रों के बीच शक्तियों का विभाजन अधिक स्पष्टता से किया जाए। (2) स्थानीय स्तर पर शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण उत्तरदायी संस्थाओं की स्थापना की जाए। प्रांतीय स्तर पर भारतीय जनता के प्रतिनिधि को कुछ शक्तियाँ हस्तांतरित करने के क्षेत्र में प्रयोग करने के पश्चात् सरकार का एकसंघीय (unitary) रूप भंग नहीं होना चाहिए। इस उद्देश्य के अंतर्गत प्रांतीय कार्यकारिणी को दो हिस्सों में विभक्त किया जाए। कार्यकारिणी के आधे हिस्से को रक्षित बनाकर उसे प्रांतीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी न बनाया जाए। कार्यकारिणी के दूसरे हिस्से को भारतीय मंत्रियों को सौंपा जाए जो कि विधान सभा के प्रति उत्तरदायी हों। इस विधानसभा के चुने हुए सदस्यों को हस्तांतरित अथवा जनमहत्त्व एवं विकास-संबंधी विषयों को सौंपा जाए। उपर्युक्त पद्धति से यद्यपि केंद्रीय सरकार के द्वारा प्रांतीय सरकारों के ऊपर नियंत्रण ढीले किए जाने की व्यवस्था थी, तथापि केंद्रीय कार्यकारिणी का प्रांतीय विधानसभा पर नियंत्रण पर्याप्त था। (3) केंद्रीय प्रशासन के स्तर पर उत्तरदायी शासन की स्थापना समय से पूर्व थी। परंतु गवर्नर जनरल की परिषद् में भारतीयों को पहले की अपेक्षा अधिक स्थान दिए जा सकते थे। अतः यह सिफारिश की गई कि एक द्विसदनीय केंद्रीय विधान सभा की स्थापना की व्यवस्था की जाए। इसकी सदस्य संख्या में वृद्धि की जाए तथा इसके सदस्यों को पहले की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ प्रदान करके केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् के कार्यों की आलोचना, समालोचना इत्यादि करने की शक्तियाँ प्रदान की जाएँ। (4) जैसे- जैसे उपयुक्त परिवर्तन लाया जाए, भारत सरकार तथा प्रांतीय सरकारों पर से ब्रिटिश संसद तथा भारत सचिव के नियंत्रण के अनुपात को शनैः शनैः घटाया जाए।

संयुक्त रिपोर्ट के द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को विस्तृत रूप प्रदान करने के लिए तीन समितियॉं बनीं। प्रथम दो समितियों का कार्य क्रमशः चुनाव-संबंधी तथा शक्ति एवं कार्य परिधि से संबंधित विषयों को संवैधानिक सुधारों का रूप प्रदान करना था। लॉर्ड साउथबरो के नेतृत्व में इन समितियों ने भारत सरकार की प्रस्तावित प्रांतीय सरकार योजना को कार्यरूप प्रदान करने के लिए कार्य किया। तीसरी समिति, जिसका नेतृत्व (सभापतित्व) लॉर्ड क्रो ने किया था, का कार्य लंदन स्थित भारत सचिव की परिषद् से संबंधित विषयों में सुधारों के लिए सुझाव प्रस्तुत करना था। तीनों ही समितियों की सिफ़ारिशों में ब्रिटिश संसद के दोनों सदनों की चुनी हुई विशेष समिति ने कुछ परिवर्तन किए तथा दिसंबर 1919 में भारत सरकार अधिनियम के द्वारा उन सिफ़ारिशों को मान लिया गया। इस प्रकार मान्टेग्यू की प्रकाशित रिपोर्ट को अन्ततः 23 दिसम्बर 1919 को राजकीय स्वीकृति मिल गई और भारत शासन अधिनियम, 1919 अपने अस्तित्व में आया।

भारत सरकार अधिनियम, 1919 के प्रमुख प्राविधान :

भारत शासन अधिनियम,1919 अथवा मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के प्रमुख प्राविधानों अथवा विशिष्टताओं को निम्न शीर्षकों से स्पष्ट किया जा सकता है -

शक्तियों का वितरण और विभाजन -

1919 के अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय तथा केंद्रीय सरकार के मध्य शक्तियों का वितरण न्यागमन-नियमों (Devolution rules) के तहत किया गया था। इस व्यवस्था ने भारतीय संविधान में सरकार को एकात्मक से संघात्मक में परिवर्तित करने के लिए मार्ग तैयार कर दिया। शक्तियों का विभाजन बहुत ही लचीला था, सामान्यतः संघात्मक सरकार जैसा कठोर नहीं। केंद्रीय सरकार के पास क़ानून निर्माण की वे बची हुई शक्तियाँ थीं जो प्रांतीय विधान सभा से संबंधित थीं। केंद्रीय सरकार को नाविक, सेना, बाह्य संबंध तथा भारतीय शासकों से संबंध, व्यापार व वाणिज्य के अंतर्गत रेलवे, डाक तथा तार, मुद्रा, ऋण, आय के साधन इत्यादि, फ़ौजदारी और दीवानी क़ानून, धार्मिक प्रशासन तथा अखिल भारतीय सेवाएँ जैसे विषय सौंप दिए गए। प्रांतीय स्तर पर स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशासन, सफ़ाई तथा जन स्वास्थ्य, सार्वजनिक निर्माण, जैसे सड़कें इमारतें इत्यादि, कृषि, उद्योग, बिक्री कर, सहकारी समितियाँ, अकाल राहत, भूमिकर प्रशासन, सिंचाई, न्याय, पुलिस, जेल, कारखाना निरीक्षण जैसे विषयों को सौंपा गया। केंद्रीय तथा प्रांतीय विधानसभाओं के द्वारा पास किए हुए क़ानूनों को न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। चूंकि राष्ट्र-निर्माण सेवाएँ प्रांतीय सरकार के अधीन थीं इस कारण यह आवश्यक था कि उन्हें पर्याप्त तथा स्वतंत्र आय के साधन प्रदान किए जाएँ। केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के बीच आय के साधनों को स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया गया था। इन विषयों पर मतभेद होने के कारण यदि प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच झगड़ा हो जाता तो केंद्रीय सरकार का मत मान्य होने की व्यवस्था की गई। किसी भी विभाग के विषय में झगड़े का निर्णय गवर्नर-जनरल के द्वारा ही किए जाने की व्यवस्था की गई। शक्तियों के विभाजन तथा व्यवस्था के अनुसार 1919 के अधिनियम ने भारत के संविधान का एक संघीय स्वरूप रखा जिसका झुकाव संघात्मक सरकार की ओर था।

प्रान्तों में आंशिक उत्तरदायित्व -

इस अधिनियम द्वारा प्रांतों में कार्यकारिणी परिषद् की शक्तियों का विभाजन दो भागों में किया गया था - रक्षित विषय तथा हस्तांतरित विषय’। रक्षित विषयों का प्रशासन गवर्नर अपने चार सदस्यीय कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों के साथ चलाया करता था। व्यावहारिक तौर पर इन चार सदस्यों में से दो सदस्य भारतीय हुआ करते थे। कार्यकारिणी परिषद् के दूसरे हिस्से के लिए गवर्नर प्रांतीय विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों में से मंत्रिपद के लिए मनोनयन करता था। संक्षेप में प्रांतों में कार्यकारिणी शक्तियाँ (1) गवर्नर और उसकी परिषद् तथा (2) गवर्नर और मंत्रि परिषद् के बीच विभाजित की गई थीं। गवर्नर मंत्रिपरिषद् की सलाह से भी कार्य करता था तथा मंत्रिगण प्रांतीय विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होते थे। द्वैध शासन प्रणाली के अंतर्गत रक्षित विषय गवर्नर और उसकी परिषद् के सदस्यों के अधीन रखे गए थे। ये सदस्य गवर्नर-जनरल और गवर्नर के माध्यम से भारत-सचिव के प्रति उत्तरदायी थे। ऐसे विषय जिनमें स्थानीय स्वशासन, जन और समाज सेवा अथवा जनरुचि अपेक्षित हो और जिन विषयों में गलतियाँ क्षम्य हो तथा विकास की बहुत आवश्यकता हो, हस्तांतरित सूची में रखा गया था। जहाँ प्रांतों में शांति और ब्यवस्था बनाए रखने का प्रश्न हो अर्थात जिससे देश की एकता और अखंडता सुरक्षित रहे और वर्गों, श्रेणियों तथा जातियों के हितों की सुरक्षा की आवश्यकता हो अर्थात जिससे प्रांतीय विधान सभा में उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त हो, ऐसे विषयों को आरक्षित सूची में सम्मिलित किया गया। भूमिकर, अकाल राहत, कानून, शांति और व्यवस्था, पुलिस, रेल, जन सेवाएँ, अर्थ व समाचारपत्र, गवर्नर तथा सरकार के प्रति उत्तरदायी परिषद् के सदस्यों को सौंप दिए गए। हस्तांतरित विषयों के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन, जनस्वास्थ्य, सफ़ाई, शिक्षा, चिकित्सा, प्रशासन, जनकार्य, सहकारिता, बिक्री कर, उद्योग, विकास इत्यादि सम्मिलित किए गए थे। उपर्युक्त विषयों में भ्रम होने पर स्पष्टीकरण के विषय में गवर्नर का मत एवं निर्णय अंतिम था। चूंकि अर्थ विभाग आरक्षित विषयों के अधीन था, अतः कार्यकारिणी के दोनों भागों के बीच बँटवारा आवश्यक था जो कि वार्षिक समझौते (Annual agreement) के अनुसार किया जाता था। यदि प्रांतीय कार्यकारिणी के दोनों भागों के बीच कोई मनमुटाव अथवा झगड़ा हो जाता तो इस विषय में निर्णय लेने की शक्ति और अधिकार केवल गवर्नर के ही हाथ में था।

प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली -

इस अधिनियम ने प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के अंतर्गत द्वैध शासन की व्यवस्था की। द्वैध शासन प्रणाली (Dyarchy) का जन्मदाता सर लायोनिल कर्टिस था जिसने सर भूपेंद्रनाथ बसु को लिखे एक पत्र में इस व्यवस्था का स्पष्टीकरण किया था। द्वैध शासन की योजना को लॉर्ड मोंटेग्यू तथा चेम्सफोर्ड ने अपनाकर उसे प्रांतीय सरकार के संदर्भ में पूर्ण रूप से लागू किया। इस प्रणाली के आधार पर प्रांतीय कार्यकारिणी परिषद् को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। पहले भाग में गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य थे तथा दूसरे भाग में गवर्नर तथा उसके मंत्री थे। दोनों भागों में सदस्यों की नियुक्ति का तरीका, उनके वेतन तथा कार्यकाल के विषय आपस में बहुत ही भिन्न थे। प्रांतीय विधानसभा से कार्यकारिणी परिषद् के इन दोनों हिस्सों के संबंध बहुत ही भिन्न थे। गवर्नर के संबंध कार्यकारिणी के दोनों भागों के साथ अलग-अलग क़िस्म के थे। इस विषय में गवर्नर की स्थिति पहले की अपेक्षा अजीबो-गरीब थी। भारत-सचिव तथा गवर्नर-जनरल का प्रांतीय प्रशासन के ऊपर नियंत्रण पहले की अपेक्षा कुछ ढीला हो गया था। मांटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट ने द्वैध शासन प्रणाली को एक ’प्रयोगात्मक तथा परिवर्तनशील प्रणाली’ बतलाया था। इसमें सरकार के दो भिन्न-भिन्न सिद्धांतों के आपस में सहयोग एवं समन्वय की आवश्यकता थी। कार्यकारिणी परिषद् के एक क्षेत्र में कुछ उत्तरदायित्व का सिद्धांत था तथा दूसरे क्षेत्र में पूर्ण उत्तरदायित्व के सिद्धांत का समावेश था।

द्वैध शासन की यह प्रणाली भारत में गवर्नर के अधीन नौ प्रांतों में लागू हुई। इस प्रणाली के अधीन गवर्नर की दुहरी भूमिका (Dual role) थी। हस्तांतरित विषयों के संदर्भ में गवर्नर मंत्रियों की आम सलाह से शासन करता था। वह अपने मतानुसार सलाह को मानने से इनकार भी कर सकता था। आरक्षित विषय कार्यपालिका परिषद् के चार सदस्यों के अधीन थे तथा गवर्नर इसकी बैठकों का सभापतित्व करता था। विषयों पर निर्णय बहुमत के आधार पर होता था जबकि गवर्नर के पास एक अतिरिक्त मत भी था जिसके अनुसार विषयों का निर्णय लिया जाना सरल हो गया था। इसके अतिरिक्त, बहुमत से लिए निर्णयों को रद्द करने के लिए असाधारण शक्ति भी गवर्नर को मिली हुई थी।

निरंकुश सरकार तथा उत्तरदायी सरकार के बीच द्वैध शासन एक अधूरा तथा अपर्याप्त प्रयोग था। उत्तरदायी सरकार की स्थापना इस समय एक असंभव सी बात थी। इस कारण 20 अगस्त 1917 की घोषणा के आधार पर यह पहला प्रयास किया गया था कि कुछ विषयों के क्षेत्र में जनता के प्रतिनिधियों का नियंत्रण स्थापित हो सके। इस व्यवस्था ने भविष्य में ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए मार्ग तैयार कर दिया।

द्वैध शासन-प्रणाली एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें नियंत्रण तथा संतुलन दोनों को ही महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया था। निरंकुश सरकार के प्रतीक ’आरक्षित हिस्से’ पर सपरिषद् गवर्नर-जनरल तथा भारत-सचिव का नियंत्रण था तथा उत्तरदायी सरकार के प्रतीक ’हस्तांतरित क्षेत्र’ के मंत्रिगण प्रांतीय विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थे। यद्यपि ये मंत्रिगण विधान सभा के प्रति उत्तरदायी थे, पर उन्हें गवर्नर के सहयोग की भी बहुत आवश्यकता थी। मंत्रियों को आरक्षित विषयों पर नियंत्रण रखने वालों तथा अर्थ विभाग के सहयोग की पूर्ण आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त विधान सभा के निर्वाचित सदस्य होने के नाते अपने निर्वाचन क्षेत्र की जनता को प्रसन्न बनाए रखना भी एक महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य था। यद्यपि प्रांतों के गवर्नरों की शक्तियाँ विस्तृत थीं तो भी कार्यकारिणी के दो भिन्न-भिन्न भागों के बीच समन्वय बनाए रखना अपने आप में एक चुनौती थी और एक सुचारु प्रशासक का ही गुण माना जा सकता है।

द्वैध शासन-प्रणाली में असंख्य अवगुण तथा दोष थे। टकराव और मनमुटाव के कारण तो जैसे इसमें पूर्ण रूप से विद्यमान थे। गवर्नर के द्वारा कार्यकारिणी तथा मंत्रिमंडल की संयुक्त बैठकों में जिन विषयों पर चर्चा तथा निर्णय लिए जाते थे उनके विषय में अधिनियम निर्धारित किए गए थे। आर्थिक विषयों पर निर्णय लेने के लिए संयुक्त बैठकें बुलाई जाती थीं। इस प्रकार कई प्रांतों में प्रांतीय कार्यकारिणी में संयुक्त बैठकों की परिपाटी स्थापित हो गई थी। द्वैध शासन के दोषों का वास्तविक अध्ययन तभी संभव है जब इसकी कार्य-पद्धति का अध्ययन किया जाए।

प्रान्तों में एकसदनीय विधान सभा की स्थापना -

मान्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार ने प्रांतीय विधान सभा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन प्रस्तुत किए। इस अधिनियम ने प्रांतों में एकसदनीय विधान सभा को स्थापित किया। पहले की भांति अब यह कार्यकारिणी परिषद् का विस्तृत अंग न होकर एक निर्वाचित संस्था थी। सरकारी, प्रशासनिक ढाँचे में, विधानसभा का एक विशेष तथा स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित हुआ। प्रांतीय विधान सभाओं की संख्या और कार्य - परिधि में पहले की अपेक्षा विस्तार और सुधार किया गया। इनमें निर्वाचित ग़ैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत स्थापित किया गया। प्रांतीय विधान सभाओं के लिए प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली की व्यवस्था की गई। चुनाव निर्वाचन समिति की सिफ़ारिशों के आधार पर अब पहली बार वास्तविक विधान सभा को स्थापित किया गया। इस अधिनियम के अंतर्गत प्रांतीय परिषदों की सदस्य संख्या इस प्रकार से निर्धारित की गई - बंगाल 140, बंबई 144, मद्रास 132, उत्तर प्रदेश (संगठित प्रांत) 123, पंजाब 94, बिहार और उड़ीसा 103, मध्य प्रांत 73, आसाम 53, बर्मा 103. 

मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने यह सिफ़ारिश की थी कि 20 प्रतिशत से अधिक सदस्य सरकारी न हों तथा चुने हुए सदस्यों की संख्या 70 प्रतिशत से कम न हो। अधिकतर मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य जातियों, श्रेणियों अथवा विभिन्न सामुदायिक हितों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे।

साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली का विस्तार -

जिस निर्वाचन प्रणाली की सिफ़ारिश मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट ने की थी वह विस्तृत तथा प्रत्यक्ष थी। यह विचार प्रस्तुत किया गया था कि सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्र उत्तरदायी सरकार के विकास में एक बहुत बड़ी बाधा थी परंतु माँटेग्यू तथा चैम्सफ़ोर्ड दोनों ने ही सांप्रदायिक निर्वाचन क्षेत्रों को बनाए रखने के लिए निश्चय किया क्योंकि इनके हटा लेने से तो मुसलमानों के प्रति विश्वासघात होता। अन्य वर्ग, जैसे सिक्ख, भारतीय ईसाई, एंग्लो इंडियन तथा मद्रास के ग़ैर ब्राह्मणों ने भी सांप्रदायिक चुनाव क्षेत्रों की माँग की। 1919 के अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में मुसलमानों, सिक्खों, भारतीय ईसाई, यूरोपीय तथा एंग्लो इंडियनों के लिए पृथक् निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गई। ग़ैर-ब्राह्मणों तथा मराठों के लिए एक से अधिक सदस्यों वाले निर्वाचन क्षेत्रों में सीटों का आरक्षण किया गया। इसके अतिरिक्त विशेष चुनाव क्षेत्रों का गठन किया गया ताकि भूस्वामी, वाणिज्य एवं व्यापार, खदान हितों तथा विश्वविद्यालय वर्ग का प्रतिनिधित्व हो सके। दलित वर्ग, मज़दूर इत्यादि के प्रतिनिधित्व को स्थान देने के लिए मनोनयन के तरीक़े का प्रयोग करने की व्यवस्था की गई। स्त्रियों के प्रतिनिधित्व का कोई भी प्रावधान नहीं किया गया।

चुनाव मतदान की अलग-अलग शर्ते -

प्रांतीय विधान सभा के चुनाव के लिए मतदान की शर्तें अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग थीं। चुनाव क्षेत्रों के अनुसार मतदान की शर्तें नियत की गई थीं। जो लोग 2,000 रुपए वार्षिक आमदनी पर आयकर देते थे अथवा जो कम-से-कम 36 रुपए प्रति वर्ष मकान का किराया देते थे अथवा जो 3 रुपए प्रति वर्ष से अधिक म्युनिसिपल कर चुकाते थे, केवल ऐसे व्यक्ति ही शहरी चुनाव क्षेत्र से मतदान के अधिकारी थे। गाँव के चुनाव क्षेत्रों में 10 से 50 रुपए भूमिकर चुकाने वाले किसान, भूस्वामियों के चुनाव क्षेत्रों में पंजाब के संदर्भ में जो लोग 500 रुपए, और उत्तर प्रदेश के संदर्भ में जो लोग 5,000 रुपए भूमिकर चुकाते ने उन्हें मताधिकार प्राप्त था। विश्वविद्यालय के चुनाव क्षेत्रों से स्नातक की डिग्री प्राप्त करने के 7 वर्ष बाद तथा एम०ए० के 5 वर्ष बाद विश्वविद्यालय के सदस्यों की ही मताधिकार प्राप्त था। इस प्रकार मतदान की शर्तों की पहले की अपेक्षा सरल बनाया गया ताकि प्रतिनिधित्व का सिद्धांत अधिक व्यापक रूप से स्थापित हो सके। सांप्रदायिक आधार पर चुनाव क्षेत्रों का विभाजन प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन गया। गणना के अनुसार 1920 में 24.17 करोड़ जनसंख्या में से केवल 2 प्रतिशत को ही मताधिकार मिल सका।

प्रान्तीय विधान सभा की शक्तियॉं सीमित-

इस अधिनियम के अधीन प्रांतों में विधानमंडलों को प्रांतीय विषयों पर भी प्रांतीय कानून बनाने का अधिकार था। किसी भी न्यायालय में कानूनों की वैधता को चुनौती नहीं दी जा सकती थी। जो भी कानून पास किए जाते थे उन्हें कानूनी मान्यता प्राप्त करने के लिए न केवल गवर्नर अपितु गवर्नर-जनरल की स्वीकृति भी प्राप्त करना आवश्यक था। बहुत से ऐसे क़ानून थे जो कि गवर्नर-जनरल के विचार के लिए आरक्षित कर दिए जाते थे। खासतौर से ये बिल, धर्म अथवा भूमिकर से संबंधित हुआ करते थे। गवर्नर को यह भी अधिकार प्राप्त था कि वह रक्षित विषयों के किसी भी बिल को पास करवाने के लिए यह प्रमाणित कर सके कि इसका पास किया जाना उस विषय के प्रति उसका उत्तरदायित्व है। यदि प्रांतीय विधानमंडल ऐसे किसी बिल पर विचार करने अथवा गवर्नर की सिफ़ारिश के अनुरूप पास करने से इनकार कर देता तो गवर्नर को यह पूर्ण अधिकार था कि वह अपने हस्ताक्षर करके यह निर्देश दे कि इस बिल का पास किया जाना बहुत जरूरी है। संकटकालीन स्थिति में ऐसे क़ानूनों के संदर्भ में ब्रिटेन का महारानी या सम्राट की स्वीकृति प्राप्त करना अत्यावश्यक था। गवर्नर किसी भी समय, किसी भी बिल अथवा इसके किसी भाग पर विधान सभा में चर्चा को रोक सकता था। इसके लिए यह आधार बनाया जा सकता था कि प्रांत अथवा किसी भी भाग की सुरक्षा और शांति को खतरा हो सकता है। वित्तीय क्षेत्र में भी प्रतिवर्ष विधान मंडल के समक्ष बजट का प्रस्तुत किया जाना अनिवार्य कर दिया गया था। इस क्षेत्र में भी गवर्नर को यह अधिकार था कि वह अनुदान के विषय को अपने हस्ताक्षर द्वारा प्रमाणित कर सके। व्यय से संबंधित विषयों पर प्रस्ताव केवल गवर्नर की सिफारिश पर ही प्रस्तुत किए जा सकते थे। यद्यपि प्रांतीय विधान सभा 3 वर्षों के लिए निर्वाचित की जाती थी, तथापि गवर्नर इन्हें समय से पूर्व भी स्थगित कर सकता था। वही अधिवेशन को बुलाता, स्थगित करता अथवा भंग कर सकता था। वह इसके कार्यकाल को बढ़ा भी सकता था। उपर्युक्त तथ्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रांतीय विधान सभा की शक्तियां वास्तविक तौर पर बहुत ही सीमित थीं।

भारत सचिव और ब्रिटिश संसद के नियंत्रण में कमी -

मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार में भारतीय शासन में प्रस्तावित परिवर्तनों को कार्य रूप देने के लिए गृह सरकार के नियंत्रण में कमी करने की सिफारिश की गयी थी। सिद्धान्ततः भारत सचिव को निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार पूर्ववत बना रहा लेकिन व्यवहार में भारत सचिव और ब्रिटिश संसद भारतीय प्रशासन में कम से कम हस्तक्षेप करने लगे। विशेषकर हस्तांतरित विषयों में उनका हस्तक्षेप लगभग बन्द हो गया। संरक्षित विषयों पर उनका वैधानिक नियंत्रण पूर्ववत बना रहा लेकिन यह परम्परा बन गई कि यदि किसी विषय पर केन्द्रीय व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका एकमत है तो गृह सरकार हस्तक्षेप नही करेगी।

द्वैध शासन की कार्य-प्रणाली : 

गवर्नरों के अधीन 9 प्रांतों में द्वैध शासन व्यवस्था लागू की गई थी। बंगाल तथा मध्य प्रांत के अतिरिक्त अन्य प्रांतों में 1937 तक द्वैधशासन ने बिना किसी रुकावट के कार्य किया। 1924 से 1927 तक बंगाल में तथा 1924 से 1926 तक तथा इसके कुछ मास बाद तक द्वैधशासन ने मध्य प्रांत में कार्य नहीं किया। 1927 के साइमन कमीशन ने मद्रास, बंगाल तथा पंजाब में द्वैघशासन की पद्धति का अध्ययन किया। मद्रास में गैर-ब्राह्मण जस्टिस दल को विधान सभा में बहुमत प्राप्त हुआ था और वहॉ मंत्रिगण बहुमत दल से ही मनोनीत किए गए थे तथा संयुक्त उत्तरदायित्व पर बल दिया गया। परंतु 1923 में कांग्रेस के अंतर्गत स्वराज्य दल द्वारा परिषदों की सदस्यता स्वीकार कर लेने से स्थिति में परिवर्तन हो गया। 1926 में विधानमंडल में स्वराज्य दल को बहुमत मिला परंतु मंत्रिमंडल की स्थापना न हो सकी। स्वतंत्र सदस्यों से बने मंत्रिमंडल में स्थायित्व का अभाव रहा। बंगाल प्रांत में 1920 के असहयोग आंदोलन के कारण चुनावों में किसी भी दल को बहुमत प्राप्त न हुआ। इस कारण किसी भी एकदलीय तथा संगठित मंत्रिमंडल की स्थापना न हो सकी। 1922 से 1927 तक जब भी मंत्रिमंडल बना तो गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् तथा मंत्रिमंडल की संयुक्त बैठकें होती थीं परंतु 1927 के पश्चात् कार्यपालिका के दोनों भागों की अलग-अलग बैठकों का एक नियम सा बन गया। 1923 से 1925 तक चितरंजन दास के नेतृत्व में स्वराज्य दल ने परिषदों की सदस्यता हासिल की। इसका राजनैतिक उद्देश्य नकारात्मक अर्थात् 1919 के संविधान को भीतर से ही तोड़ फेंकने का था। 1925 में स्वराज्य दल के सदस्यों ने परिषद् की सदस्यता को त्याग दिया क्योंकि वे आश्वस्त थे कि उन्होंने द्वैध शासन को बरबाद कर दिया। 1927 से 1929 तक कई मंत्रियों को नियुक्त किया गया पर वे अधिक समय तक कार्य नहीं कर सके क्योंकि उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिए जाते थे। मध्य प्रांतों में 1924 में स्वराज्य दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ था परंतु मंत्रिगण अधिक समय तक सत्ता में न रह सके क्योंकि उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिए गए थे। उनके बजट को भी पूर्ण रूप से अस्वीकृत कर दिया गया था। 1925 से 1926 तक मंत्रालयों की स्थापना का प्रयास असफल रहा। इसके पश्चात् स्वराज्य दल ने अपनी सामान्य नीति के आधार पर अपने को प्रांतीय परिषद् से अलग कर लिया। पंजाब में भी गैर-कांग्रेस दल को, जिसका नाम यूनियनिस्ट दल था, पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ। यह दल मुसलमान वर्ग तथा ग्रामीण इलाक़ो के हिंदू-सिक्ख हितों का प्रतिनिधित्व कर रहा था। अफसरशाही के सहयोग के कारण इस प्रांत में द्वैध शासन प्रणाली ने संतोषजनक तरीके से काम किया।

द्वैध शासन प्रणाली के दोष :

द्वैध शासन वाले प्रांतो में द्वैध शासन की सफलता के लिए बहुत-सी बातों की आवश्यकता थी। 

द्वैध शासन के सुचारू रूप से संचालन के लिए कार्यकारिणी के दोनों अंगों के बीच सहयोग अत्यावश्यक था। जिस प्रकार से विभागों का विभाजन किया गया था उसी के फलस्वरूप दोनों अंगों के बीच मनमुटाव एवं झगड़ा  अवश्यंभावी था। जैसा कि के० वी० रेड्डी ने इस समस्या के विषय में कहा था - “मैं बिना जंगलों के विकास मंत्री था, मैं कृषि मंत्री था हालांकि सिंचाई, अकाल राहत, या भूमि-विकास ऋण से मेरा कोई संबंध नहीं था। मैं उद्योग मंत्री था हालांकि कारखानों, बिजली तथा वाष्प शक्ति, खदान या श्रम से, जो कि आरक्षित विषय थे, मेरा कोई संबंध नहीं था।“ विषयों के स्पष्ट विभाजन के अभाव में अकसर कार्यकारिणी के दोनों अंगों के बीच मतभेद हो जाना स्वाभाविक था। ऐसे विषयों में मंत्रियों को कार्यकारिणी परिषद् (आरक्षित विषयों) के समक्ष झुकना पड़ता था।यद्यपि संबंधित विषयों पर निर्णय करने के लिए कार्यकारिणी के दोनों भागों के बीच मंत्रणा एवं सहयोग आवश्यक था तथापि इस विषय में स्वस्थ सिद्धांत स्थापित न हो सके। मौंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट ने कार्यकारिणी के दोनों भागों के बीच संयुक्त मंत्रणा की कल्पना की थी परंतु 1919 के कानून ने दो भागों के संयुक्त निर्णय अथवा मंत्रिमंडलीय निर्णयों की व्यवस्था के विषय में कुछ नहीं किया। दोनों भागों के बीच गवर्नर का होना आवश्यक था। परंतु इससे निर्णयों को संयुक्त निर्णय अथवा मंत्रिमंडलीय निर्णय का स्थान प्राप्त नहीं हो सकता था। कई प्रांतों में संयुक्त बैठकों के कारण कार्यकारी परिषद् तथा मंत्रिमंडल दोनों के बीच संबंध गहरे हो गए थे। ऐसे मामलों में निर्णयों का दर्जा एक हद तक मंत्रिमंडल के संयुक्त निर्णयों के समान माना जा सकता है परंतु यह द्वैधशासन के सिद्धांत का बिना सोचे-समझे अनुगमन करके नहीं बल्कि आपसी सहयोग एवं समझदारी के कारण संभव हो सका था।

व्यावहारिक तौर पर मंत्रिमंडल के सदस्य अफ़सरशाही वर्ग पर अधिक से अधिक निर्भर होते चले गए। चूंकि मंत्रियों के विभाग अधिकतर विकास-संबंधी थे, इस कारण उन्हें अर्थ विभाग तथा गवर्नर पर अधिक से अधिक निर्भर रहना पड़ता था। अकसर मंत्रियों से ये शिकायतें सुनने को मिलती थीं कि उन्हें कम धन का अनुदान मिलता था जिसकी वजह से राष्ट्रीय विकास-संबंधी विभागों के कार्य की भली-भांति देखभाल नहीं की जा सकती थी। कार्यकारिणी की बैठकों में अफ़सर वर्ग के सदस्य भी मत देते थे। 1919 के सरकारी क़ानून में एक व्यवस्था यह थी कि मंत्री गवर्नर की इच्छा के अनुसार ही अपने पद पर रह सकेगा जिसके कारण मंत्रियों का अधिकतर ध्यान गवर्नर को ही प्रसन्न रखने में लगा रहता था। चूंकि उस समय यह परिपाटी नहीं थी कि विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव पास होने पर अथवा विरोधी मत बहुमत में होने पर मंत्रियों को त्यागपत्र देना होता है, इस कारण मंत्रिगण अपने पदों पर केवल तब तक ही रह सकते थे जब तक गवर्नर की इच्छा होती थी। इन परिस्थितियों में यह स्वाभाविक ही था कि मंत्रियों को सरकारी अफसरों की भांति ही समझा जाता था। इस प्रकार मंत्रियों तथा कार्यपालिका सदस्यों के बीच बहुत ही कम भेद रह गया था।

इन परिस्थितियों में मंत्रिमंडल प्रणाली की उस महत्त्वपूर्ण विशेषता का विकास न हो सका जिसे संयुक्त या सामूहिक उत्तरदायित्व का नाम दिया जाता है। संयुक्त चयन समिति (Joint Select Committee) का यह विचार था कि मंत्रियों के संयुक्त उत्तरदायित्व के सिद्धांत को स्थापित किया जाए परंतु क़ानून की जिस घारा ने मंत्रियों की कार्य अवधि गवर्नर की इच्छा के अधीन रखी थी उसने सामूहिक उत्तरदायित्त्व के सिद्धांत को विकसित ही नहीं होने दिया। बहुत से गवर्नरों ने इस सिद्धांत के स्थापित होने में बाधाएँ खड़ी कीं। केवल मद्रास प्रांत में ही कुछ सीमा तक इस सिद्धांत को स्वयं मंत्रियों ने विकसित किया।

द्वैध शासन की संवैधानिक प्रकृति को बनाए रखने के लिए एक ऐसे गवर्नर की आवश्यकता थी जो मंत्रियों की मंत्रणा से शासन करे  परन्तु 1919 के अधिनियम में इस प्रकार की व्यवस्था नहीं की गई थी। क़ानून ने उसे यह शक्ति प्रदान की थी कि जब “पर्याप्त कारण“ हो तभी वह मंत्रियों की मंत्रणा स्वीकार करे। कार्यपालिका परिषद् तथा मंत्रिमंडल के बीच झगड़े में केवल गवर्नर का मत ही मान्य होता था। आर्थिक विषयों में गवर्नर को यह अधिकार था कि वह अनुदान की राशि में कटौती करे अथवा इसे बढ़ाए। यहाँ तक कि रोज़मर्रा के छोटे-छोटे प्रशासकीय विषयों में भी गवर्नर हस्तक्षेप करता रहता था। मंत्रियों तथा जनसेवा से संबंधित अफ़सरों के बीच यदि कोई विवाद हो जाता था तो गवर्नर का ही निर्णय अंतिम होता था। ऐसे विषयों में गवर्नर अधिकतर विभागीय सचिवों का ही पक्षपात करता था। इस प्रकार भारतीय सेवा आयोग के अफ़सर भी मंत्रिमंडल के सदस्यों से स्वतंत्र होते थे। इससे गवर्नर की स्थिति और भी शक्तिशाली होती थी। ’विशेष उत्तरदायित्व’ की शक्तियों के अधीन बहुत से विषय केवल गवर्नर-जनरल अथवा भारत सचिव के विचार के लिए ही रखे जा सकते थे।

1919 के अधिनियम ने गवर्नर को क़ानून निर्माण की व्यापक शक्तियाँ प्रदान की थीं। कोई भी विधेयक गवर्नर की स्वीकृति के बिना क़ानून नहीं बन सकता था। कई विषय गवर्नर की पूर्व अनुमति के बिना विधानसभा में क़ानून निर्माण के लिए प्रस्तुत नहीं किए जा सकते थे। कई बिल जो कि विधान सभा के द्वारा अस्वीकृत कर दिए जाते थे, गवर्नर के द्वारा प्रमाणित कर दिए जाने पर क़ानून बन जाया करते थे। गवर्नर-जनरल की अनुमति से गवर्नर अध्यादेश भी लागू कर सकता था। विस्तृत आर्थिक शक्तियों के आधार पर विधानसभा के द्वारा अस्वीकृत अथवा कटौती की गई अनुदान राशि को गवर्नर पुनःस्थापित कर सकता था, बशर्ते कि वह ऐसा समझे कि प्रांत की सुरक्षा तथा किसी विभाग के उचित संचालन के लिए यह आवश्यक है। इन विस्तृत शक्तियों के कारण मंत्रियों को संवैधानिक ढाँचे में उचित और पर्याप्त स्थान नहीं मिला। सी०वाई० चितामणि के शब्दों में -  “एक प्रांत में कोई पद्धति किस प्रकार कार्य करती है, यह इस पर निर्भर करता है कि उसको गवर्नर उसे किस प्रकार से चलाता है।“

द्वैध शासन के अधीन किसी भी ऐसे सिद्धांत का विकास न हो सका जिसके आधार पर सुसंगठित राजनीतिक दलों का निर्माण हो सके। प्रारंभ में जो भी दल थे वे स्थानीय, जाति तथा धर्म के आधार पर गठित थे। उनमें राजनैतिक सिद्धांतों अथवा तथाकथित दल अनुशासन का अभाव था। स्वराजिस्ट दल प्रथम आधुनिक पद्धति से संगठित राजनीतिक दल था जिसने परिषद् की सदस्यता के लिए चुनाव लड़े (1923) तथा जीते भी। परंतु इस दल ने चुनाव कानून को तोड़ फेंकने के लिए लड़े थे, इसे बनाए रखने के लिए नहीं। द्वैध शासन की सफलता के लिए यह आवश्यक था कि जनता के नेताओं से सरकार चलाने के लिए पूर्ण सहयोग प्राप्त किया जाए। क़ानून की अपर्याप्त व अस्पष्ट व्यवस्थाओं ने जनता के बीच ऐसी विरोधी भावना पैदा की जिससे द्वैध शासन का सफलतापूर्वक कार्य करना लगभग असंभव हो गया। 

संवैधानिक व्यवस्था के लिए यह आवश्यक होता है कि प्रांतीय विधानसभा की क़ानून निर्माण संबंधी शक्तियाँ विस्तृत हों परंतु क़ानून की व्यवस्थाओं ने इन्हें अत्यंत सीमित कर दिया था। चूंकि यह काल राष्ट्रीय आंदोलन की गतिविधियों का समय था, इस कारण प्रांतीय विधानसभा का अधिक समय “आरक्षित विषयों“ से संबंधित नीतियों की आलोचना पर चर्चा करने में व्यतीत हो जाता था। राष्ट्रीय विकास के विषयों पर जो चर्चा होनी चाहिए वह नहीं होती थी। इस कारण मंत्रियों के कार्य एवं गतिविधियों पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता था जितना कि वास्तव में दिया जाना चाहिए था। यह द्वैध शासन की सफलता के लिए एक स्वस्थ तरीक़ा नहीं था।

संक्षेप में, हम यह कह सकते है कि द्वैघ शासन की पद्धति व्यावहारिक तौर पर असफल रही। इस प्रयोग का असफल हो जाना स्वाभाविक ही था क्योंकि यह भारतीय राजनीतिज्ञों के प्रति अविश्वास के सिद्धांत पर आधारित था। सरकार के कार्यों को दो अलग-अलग विभागों में विभाजित करके उत्तरदायित्व को भी दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। किसी भी मंत्री को उसकी त्रुटियों के लिए उत्तरदायी ठहराना अत्यंत कठिन था। इस प्रणाली ने अकुशलता को बढ़ावा देने के साथ-साथ टकराव की असंख्य स्थितियों को जन्म दिया। इसकी सफलता तो व्यक्तियों पर निर्भर करती थी, संस्थाओं पर नहीं तथा जो व्यक्ति इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण थे उन्होंने ठीक भावना से इसे नहीं चलाया। द्वैघ शासन प्रणाली ने इस व्यवस्था के जन्मदाताओं के उद्देश्य की पूर्ति नहीं की। जैसा कि कूपलैंड ने कहा है - ’इसके द्वारा उत्तरदायी सरकार के क्षेत्र में वास्तविक प्रशिक्षण नहीं मिला। यद्यपि पहले की अपेक्षा मतदाताओं की संख्या में वृद्धि हुई थी तथापि एक व्यवस्थित दल प्रणाली की अनुपस्थिति में मतदाताओं तथा उनके प्रतिनिधियों के बीच वास्तविक और अटूट संबंध स्थापित न हो सका। विधानसभा के सदस्य, जो कि सांप्रदायिक, स्थानीय अथवा धर्म-संबंधी विषयों के आधार पर बँटे हुए थे, सरकार के सहयोगी अथवा आलोचक के रूप में स्वस्थ परंपरा स्थापित न कर सके। हस्तांतरित विषयों के विभागों में वे परिपाटियाँ विकसित न हो सकीं जो ब्रिटिश प्रणाली की संवैधानिक प्रगति के आधार पर विकसित हुई थीं। इस प्रकार मतदातागण, क़ानून निर्माता तथा मंत्रिगण सभी सफलतापूर्वक प्रशिक्षण के उस चरण से न गुज़र सके जो भविष्य में उन्हें बड़े राजनीतिक उत्तरदायित्वों के लिए तैयार कर सकता। इस प्रकार द्वैघ शासन की असफलता मूलतः 1919 के भारत शासन अधिनियम की असफलता का कारण बन गई।

मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के अन्तर्गत केन्द्रीय सरकार :

केंद्रीय स्तर पर कार्यपालिका सरकार, गवर्नर-जनरल तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् से मिलकर बनती थी। 1919 के क़ानून ने कार्यपालिका सरकार के विषय में बहुत कम तथा महत्त्वहीन परिवर्तन किए। कार्यकारिणी परिषद् में क़ानूनी तौर पर सदस्यों की संख्या में नियंत्रण अब हटा दिया गया। इस प्रकार गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में आवश्यकतानुसार एवं समयानुसार विस्तार किया जा सकता था। गैर-सरकारी भारतीय सदस्यों की संख्या में भी इसी प्रकार वृद्धि की जा सकती थी। इस प्रकार सिक्खों, दलित वर्ग, गैर-सरकारी यूरोपीयों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जा सकता था। व्यावहारिक तौर पर गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में छह सामान्य सदस्य थे जिनमें से तीन भारतीय थे। परंतु इसके सदस्य केंद्रीय विधानसभा के प्रति उत्तरदायी न थे, बल्कि वे गवर्नर-जनरल एवं भारत-सचिव के प्रति उत्तरदायी थे। गवर्नर-जनरल की विस्तृत शक्तियों के कारण कार्यकारिणी परिषद् कभी भी उसके विरुद्ध एकजुट नहीं हो सकती थी। सत्य तो यह है कि 1919 के अधिनियम के अनुसार केंद्रीय सरकार का स्थापित रूप भारत के स्वतंत्र होने तक, केवल थोड़े-बहुत हेरफेर के साथ, ज्यों-का-त्यों लागू रहा।

1919 के अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय विधान सभा में भारतीयों के प्रतिनिधित्व में पहले की अपेक्षा वृद्धि की गई। केंद्र में प्रथम बार द्विसदनीय विधान सभा स्थापित की गई - काउंसिल ऑफ़ स्टेट (द्वितीय सदन) तथा लेजिस्लेटिव एसेंबली (प्रथम सदन)। ये क्रमशः राज्य सभा तथा विधान सभा भी कहला सकती थीं। काउंसिल ऑफ़ स्टेट जो कि पहली बार इस कानून के द्वारा स्थापित की गई थी, अधिक-से-अधिक 60 सदस्यों की प्रतिनिधि संस्था बनाई गई। इनमें से 34 सदस्य चुनकर आने थे तथा 26 को मनोनीत किया जाना था। मनोनीत सदस्यों में अफसरशाही में से अधिक-से-अधिक 20 सदस्य हो सकते थे। निर्वाचित सदस्यों में से 19 सदस्य सामान्य चुनाव क्षेत्रों से तथा अन्य सदस्य सांप्रदायिक तथा विशेष चुनाव क्षेत्रों से चुने जाने की व्यवस्था की गई। इनमें से 11 मुसलिम, 1 सिक्ख तथा 3 यूरोपीय वाणिज्य हितों का प्रतिनिधित्व करते थे। इस सदन की कार्य अवधि 5 वर्ष की निश्चित की गई। यद्यपि सदस्यों के चुनाव के लिए प्रत्यक्ष चुनाव-पद्धति अपनाई गई, किंतु मताधिकार केवल सीमित मात्रा में उच्च संपत्ति के अधिकारियों को ही दिया गया था अर्थात् जो लोग 10,000 से 20,000 रुपए वार्षिक आयकर चुकाते थे अथवा 750 से 5,000 रुपए तक भूमिकर देते थे। इसके अतिरिक्त, विश्वविद्यालय सीनेट के सदस्यों को, म्यूनिसिपल कमेटियों और जिला बोर्ड के प्रधानों अथवा उपप्रधानों को तथा विशेष प्रकार की उपाधियों से विभूषित व्यक्तियों को मताधिकार प्रदान किया गया। स्त्रियां न तो मतदान कर सकती थीं और न ही सदन की सदस्यता प्राप्त कर सकती थीं।

निम्न सदन, लेजिस्लेटिव एसेंबली के सदस्यों की संख्या कुल 145 नियत की गई थी। इनमें 26 सरकारी, 14 मनोनीत ग़ैर-सरकारी तथा 105 निर्वाचित सदस्य सम्मिलित थे। निर्वाचित सदस्य विभिन्न वर्गों, श्रेणियों और हितों में इस प्रकार बँटे हुए थे - सामान्य 53, मुसलमान 30, सिक्ख 2, यूरोपीय 9, भूस्वामी 7, और भारतीय वाणिज्य 4। इस प्रकार विशेष चुनाव क्षेत्र को तथा अन्य श्रेणियों एवं अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व मिला हुआ था । प्रांतों के बीच सीटों (स्थानों) का विभाजन जनसंख्या के आधार पर नहीं अपितु उसके महत्त्व के अनुसार किया गया था जैसे व्यापारिक एवं व्यावसायिक महत्त्व के कारण बंबई को मद्रास के समान ही प्रतिनिधित्व के स्थान मिले हुए थे यद्यपि बंबई की जनसंख्या मद्रास की जनसंख्या से आधी थी। चुनाव के लिए प्रत्यक्ष प्रणाली अपनाई गई थी तथा मतदान की शर्तें इस प्रकार से थीं- (1) 2,000 से 5,000 रुपए वार्षिक आमदनी पर कर चुकाने वालों को मताधिकार दिया गया। यह शर्त प्रत्येक प्रांत में भिन्न थी जिसमें 50 रुपए से 150 रुपए तक भूमि कर चुकाने वाले शामिल थे। यह शर्त भी प्रांतों में भिन्न-भिन्न प्रकार से लागू थी। (2) ऐसे किराएदारों को जो वार्षिक 180 रुपए मकान का किराया चुकाते हों, मताधिकार प्राप्त था। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस सदन में मतदान की शर्तें इतनी कड़ी न थीं। दोनों सदनों की चुनाव प्रणाली में कुछ घातक परिपाटियाँ भी थीं। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण मुसलमानों का पृथक् प्रतिनिधित्व तथा अन्य वर्गों का विशेष प्रतिनिधित्व (जैसे सिक्ख, आदि विभिन्न हित-समूहों के प्रतिनिधित्व) से भी विधान सभा की व्यवस्था में स्वस्थ परंपराएँ स्थापित नहीं हुई। केवलं विधान सभा के चुनाव में मतदान की शर्ते कुछ नर्म थीं परंतु करोड़ों की भारतीय जनसंख्या के लिए प्रतिनिधित्व अब मी थोड़ा ही था। चुनाव क्षेत्र अत्यंत ही व्यापक और असमान थे। द्वितीय सदन इस प्रकार से एक अनुदारवादी तथा प्रतिक्रियावादी सदन के रूप में स्थापित किया गया था। राज्य सभा, विधानसभा के मार्ग में बाधा और सरकार के हितों को सुरक्षित करने का एक साधन थी ।

दोनों सदनों की शक्तियों पर भी अंकुश लगाए गए थे। कोई भी बिल तब. तक कानून का रूप धारण नहीं कर सकता था जब तक दोनों सदन इसे पास न कर दें और गवर्नर-जनरल की स्वीकृति प्राप्त न हो जाए। प्रांतीय विषयों से संबंधित किसी भी विषय पर विचार करने से पूर्व गवर्नर-जनरल की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक था। इसी प्रकार की शर्त प्रांतीय विधान सभा के द्वारा पास किए गए क़ानून को परिवर्तित, रद्द अथवा संशोधित करने के विषय में भी लागू थी। 

केंद्रीय विधानसभा की शक्तियों पर अंकुश लगाने के लिए गवर्नर-जनरल को अध्यादेश जारी करने के अधिकार भी प्राप्त थे। इन अध्यादेशों को लागू करने की अवधि 10 मास तक नियत की गई थी। आर्थिक क्षेत्र में भी विधानसभा की शक्तियाँ अत्यंत ही संकुचित थीं। कर वृद्धि के विषय में जितने भी प्रस्ताव अथवा बिल होते थे उनका विधान सभा में प्रस्तुत किया जाना अनिवार्य था। इसे ’आर्थिक बिल’ का नाम दिया जाता था। ऋण अथवा सिकिंग ( डूबता हुआ ऋण) फंड, ब्रिटिश सम्राट (सम्राज्ञी) के द्वारा नियुक्त भारत परिषद् के अफ़सरों की तनख्वाह अथवा पेंशन, मुख्य कमिश्नर तथा आर्थिक कमिश्नर आयुक्त की तनख्वाह अथवा धार्मिक, राजनैतिक या रक्षा के लिए खर्च की राशि के विषय में विधान सभा क़ानून नहीं पास कर सकती थी। इस प्रकार निम्न सदन को विश्व की संसदीय परिपाटी के अनुसार आर्थिक नियंत्रण के अधिकार से बिलकुल ही वंचित कर दिया गया था ।

इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि 1919 के अधिनियम के अंतर्गत गवर्नर जनरल की बिशेष शक्तियाँ कार्यपालिका एवं विधान सभा के क्षेत्रों में अत्यंत विस्तृत तथा शक्तिशाली थीं। वह न तो केंद्रीय कार्यपालिका परिषद् के प्रति उत्तरदायी था और न उसकी परिषद् के सदस्य केंद्रीय विधान सभा के समक्ष उत्तरदायी थे।  दोनों सदनों में राजनैतिक चर्चा जनता के आकर्षण का केंद्र बन गई थी जिससे जनता और सरकार दोनों ही कुछ-न-कुछ सीख सकते थे। जन-कल्याण से जुड़े हुए तथा कुछ खास तरह के विषयों को प्रस्तुत करके सरकार का ध्यान जन असंतोष के कारणों के प्रति केंद्रित किया जाने लगा। सरकार कभी-कभी इन आलोचनाओं के प्रति जागरूक हो जाती थी। इस प्रकार, यदि यह कहा जाए कि 1919 के क़ानून से उत्तरदायी सरकार के बजाय जवाब देने वाली सरकार की स्थापना की गई थी तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

मान्टेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार के अन्तर्गत भारत परिषद -

ग्रेट ब्रिटेन स्थित भारत सचिव तथा उसकी परिषद् के विषय में भी महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। 1919 के अधिनियम के अंतर्गत भारत सचिव की शक्तियाँ पहले की ही भाँति भारत सरकार से संबंधित सब विषयों पर नियंत्रण, निरीक्षण तथा निर्देश करने की थीं परंतु मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट का यह विचार था कि यदि भारत - सचित्र की शक्तियाँ प्रांतीय कार्यपालिका से संबंधित हस्तांतरित क्षेत्र में विस्तृत एवं निरंकुश रहीं तो द्वैधशासन का अर्थ निरर्थक हो जाएगा। 1919 के क़ानून के अंतर्गत ’रक्षित विषयों’ से संबंधित विषयों में भारत सचिव के नियंत्रण में किसी प्रकार की भी कटौती न की गई। गवर्नर-जनरल और उसकी सरकार पर भारत सचिव का पूर्ण नियंत्रण रहा। 1919 के क़ानून ने भारत सचिव की परिषद् के विषय में कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए। 1909 के क़ानून से इसकी सदस्य संख्या ’कम से कम 10 और अधिक से अधिक 15’ नियत की गई थी। 1919 में यह संख्या घटाकर ’कम से कम 8 और अधिक से अधिक 12’ नियत कर दी गई। पहले का वेतन 1,000 पौंड वार्षिक से बढ़ाकर 1,200 पौंड तथा अतिरिक्त वेतन 600 पौंड वार्षिक कर दिया गया। भारतीय परिषद् में पहले के 2 भारतीय सदस्यों की अपेक्षा यह संख्या बढ़ाकर तीन कर दी गई। इस अधिनियम से इंग्लैंड में भारत के लिए एक हाई कमिश्नर (उच्च आयुक्त) की नियुक्ति की व्यवस्था की गई। इस पदाधिकारों की नियुक्ति सपरिषद् गवर्नर-जनरल के हाथ में थी यद्यपि स्वीकृति प्रदान करना भारत सचिव का कार्य था। इसका वेतन भी भारत से होने वाली आय से ही चुकाया जाता था। इस उच्च आयुक्त के कार्य थे- भारतीय व्यापार की देखभाल, इंग्लैंड में भारतीय विद्यार्थियों की सुविधाओं एवं आवश्यकताओं का ध्यान रखना, भारत में अपेक्षित सरकारी सामग्री को खरीदारी इत्यादि। इससे पूर्व भारत सचिव ही उपर्युक्त कार्य किया करता था। इस नए पद की व्यवस्था से भारतीयों के बीच किसी भी जोश का संचार नहीं हुआ क्योंकि वे समझ गए थे कि उच्च आयुक्त उनके किसी भी प्रकार के असंतोष के प्रति कोई ध्यान नहीं देगा। 1919 के अधिनियम से यद्यपि प्रांतीय प्रशासन के क्षेत्र में भारत सचिव की शक्तियों में कुछ ढील दी गई थी परंतु इससे मुग़ल काल से चले आ रहे भारतीय प्रशासन के मूल स्वरूप में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ।

आलोचनात्मक समीक्षा -

यह वास्तविक सत्य है कि इस क़ानून ने भारत में संसदीय सरकार की स्थापना नहीं की। 1917 की अगस्त घोषणा के अंतर्गत यह अधिनियम एक ऐसा प्रयास था जिसने भारत को प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र में अधिक स्थान देने का वचन दिया था। उत्तरदायी सरकार की स्थापना के क्षेत्र में द्वैधशासन-प्रणाली (जो कि प्रांतों में लागू की गई थी) ने इसके जन्मदाताओं के विचारों की प्रतीक उनकी उच्च आकांक्षाओं को तोड़ दिया। तथापि इस व्यवस्था को लागू करने के कुछ महत्त्वपूर्ण परिणाम भी हुए। अपने नवीन तथा संकुचित रूप के बावजूद इस व्यवस्था से भारतीयों को अपनी प्रशासनिक योग्यता प्रदर्शित करने का अवसर प्राप्त हुआ। विधान सभा के लिए निर्वाचित तथा गवर्नर के द्वारा नियुक्त कई मंत्रियों ने जनता के प्रति कर्त्तव्य, राजनैतिक दूरदर्शिता तथा जनता के उद्धार जैसी गतिविधियों में अपनी उच्च प्रतिभा दर्शाई थी। इसके अतिरिक्त, द्वैधशासन ने अंग्रेजों के इस मिथ्या भ्रम को तोड़ दिया कि भारतीय स्वशासन के लिए सर्वथा अयोग्य हैं और वे अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, इसीलिए असीमित समय तक उन्हें ब्रिटिश नियंत्रण की आवश्यकता है। द्वैध शासन प्रणाली की व्यवस्था तथा कार्यविधि में यद्यपि अनेक अवगुण थे और प्रशासनिक क्षेत्र में यह पूर्ण रूप से असफल रही तथापि इससे भारतीयों को अपने राजनैतिक उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक होने का अवसर प्राप्त हुआ। वे उत्तरदायित्व सँभालने के क्षेत्र में उत्पन्न कठिनाइयों एवं समस्याओं को सुलझाने के प्रति अत्यंत ही चौकन्ने थे। भारतीयों के लिए यह राजनीतिक प्रयोग अत्यंत रोमांचक तथा जोश पैदा करने वाला था। ब्रिटेन में स्थित बहुत से भारत पक्षीय राजनीतिज्ञ भी इस विषय पर आश्वस्त हो गए थे कि भारतीयों को सत्ता का हस्तांतरण अत्यंत ही मंद गति से तथा अल्प मात्रा में हुआ है। उनकी दृष्टि में इसी के परिणामस्वरूप उग्रवादी दल का उदय हुआ है जिसकी वजह से ब्रिटिश शासन के लिए खतरा पैदा हो गया है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि भारत के संवैधानिक विकास की गति को अधिक तीव्र बनाया जाए। द्वैघ शासन की योजना ने यह सिद्ध कर दिया था कि उत्तरदायित्व का सह-अस्तित्व सत्ता प्राप्ति के बिना असंभव है। इस प्रकार द्वैध शासन एक ऐसा अस्थायी प्रयोग था जिसे समाप्त करके बाद में पूर्ण स्वायत्तता स्थापित किया जाना स्वाभाविक तथा राजनैतिक बुद्धिमत्ता का कार्य था। द्वैध शासन का समाप्त किया जाना अधिक समय तक नहीं रोका जा सकता था। इस दृष्टिकोण से 1919 के अधिनियम ने पूर्ण स्वशासित भारत की स्थापना के क्षेत्र में “एक नींव के पत्थर“ का कार्य किया था।

1919 के अधिनियम का केवल कांग्रेस के मध्यमार्गियों ने ही स्वागत किया। उन्होंने मौंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट को स्वशासन की दिशा में एक बड़ा क़दम बताया तथा कांग्रेस की विशेष सभा का, जिसने अधिनियम की भर्त्सना की थी, बहिष्कार किया। इस गुट ने 1919 में कांग्रेस से अलग होकर एक नए दल का निर्माण किया जिसे ’राष्ट्रीय उदारवादी भारत संघ’ का नाम दिया गया। इस दल के सदस्य तेज बहादुर सप्रू, एम० आर० आयकर, एस० एन० बनर्जी जैसे दिग्गज राजनैतिक नेतागण थे । परंतु यह स्पष्ट है कि जनसाधारण ने उग्रवादी वर्ग का ही साथ दिया था। इन वर्षों में राष्ट्रीय आंदोलन के क्षितिज पर महात्मा गाँधी जैसे महान् व्यक्तित्व के नेतृत्व के लिए पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। कांग्रेस के इस बड़े गुट के सदस्यों ने बंबई में 1918 में कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान इन सुधारों को “अपर्याप्त, असंतोष- जनक एवं निराशाप्रद“ बतलाया था। 1919 अधिवेशन में शांतिपूर्ण तथा क़ानूनी तरीक़े से ‘स्वराज्य‘ की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया गया। यह स्पष्ट है कि मध्यम दर्ग के बीच इन सुधारों के प्रति तीव्र प्रतिक्रिया व्याप्त थी क्योंकि इन सुधारों का दायरा अत्यंत संकुचित था और ये शक्ति की छाया मात्र ही समझे गए थे।

1923 में जब राष्ट्रीय आंदोलन में कुछ ठहराव सा आ गया था, असहयोग आंदोलन को एक नई दिशा प्रदान करने के लिए स्वराज्य दल की स्थापना हुई। इस दल के सदस्य एवं नेता चितरंजन दास ने पं० मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में 1919 के क़ानूनों को अपर्याप्त सिद्ध करने के लिए यह योजना बनाई कि विधान सभा के चुनाव लड़कर सदस्यता प्राप्त करके इन परिषदों के कार्य में बाधा डाली जाए तथा राष्ट्रीय एवं संवैधानिक विकास के क्षेत्र में व्यापक जनरुचि पैदा की जाए। कांग्रेस के अंतर्गत एक गुट के रूप में इन्होंने चुनाव लड़ने की अनुमति प्राप्त कर ली। 1923 के चुनावों में ही स्वराज्य दल को बड़ी संख्या में स्थान प्राप्त हुए। 145 में से 45 सीटें प्राप्त करके इन्होंने स्वतंत्र दल के साथ नाता जोड़ लिया। संविधान को अंदर से भंग करने के लिए 1924 में आर्थिक बिल तथा 1925 में बंगाल फ़ौजदारी कानून संशोधन अधिनियम को रद्द कर दिया। इस विषय पर बल दिया गया कि जब तक जनता के प्रतिनिधियों को आय के व्यय के विषय में विचार प्रकट करने का अधिकार न दिया जाए तब तक वे किसी कार्यक्रम को लागू करने की नीति को स्वीकृति प्रदान नहीं कर सकते। 1925 में चितरंजन दास की मृत्यु के पश्चात् स्वराज्य दल में पहले जैसी शक्ति तथा अटूट साहस न रह सका और 1926 के पश्चात् इस दल ने उत्तरदायी सहयोग की नीति को अपनाया । इस दल के हिंदू-मुसलिम एकता के स्वप्न भी आंशिक रूप से ही पूरे हो सके। 1924 से मुसलिम लीग ने एक अलग पहचान बना रखी थी। हिंदू-मुसलिम एकता के स्वप्न अब टूट चुके थे और देश में सांप्रदायिक अराजकता फैल रही थी।

राजनैतिक दबाव के कारण 1919 के अधिनियम की जाँच के लिए 1924 में बारह सदस्यीय मुडीमैन समिति का गठन किया गया। इस समिति ने यह सिफ़ारिश की कि द्वैध शासन प्रणाली को बना रहने दिया जाए। साथ ही यह संकेत किया कि संबंधित नियमों में सुधार करके इसके प्रमुख दोषों को दूर किया जा सकता है। गैर-सरकारी सदस्यों का यह मत था कि शासन प्रणाली इतनी अधिक दोपपूर्ण है कि थोड़े से परिवर्तन से विशेष लाभ नहीं होगा। अतः सरकार को संविधान में ठोस सुधार प्रस्तुत करके इसे स्थायी आधार प्रदान करना चाहिए। 1925 में सरकार ने जब मुडीमैन समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय विधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया तो पं० मोतीलाल नेहरू ने द्वैध शासन को अमली जामा पहनाने के अयोग्य सिद्ध करके समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट की कटु आलोचना की। केंद्रीय विधान सभा में इस रिपोर्ट के विरुद्ध प्रस्ताव पास करवाया गया। इस प्रस्ताव को प्रभावहीन बनाने के लिए उस समय तो ब्रिटिश सरकार ने कोई क़दम नहीं उठाया, परतु शीघ्र ही उसे भारत की भावी सवैधानिक स्थिति के विषय में जाँच करने के लिए एक समिति नियुक्त करने की घोषणा करनी पड़ी जिसके आधार पर साइमन कमीशन का गठन हुआ और कालान्तर में इस कमीशन की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुये एक नये सुधार अधिनियम की आवश्यकता महसूस की जाने लगी।


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