window.location = "http://www.yoururl.com"; Indian Counsel Act, 1909 | भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909

Indian Counsel Act, 1909 | भारतीय परिषद् अधिनियम, 1909

 


मार्ले-मिण्टो सुधार, 1909 की पृष्ठभूमि

1892 से 1909 तक का काल एक ओर जहॉ राजनैतिक जागरण तथा विकास का काल था वहीं दूसरी ओर राजनैतिक उथल-पुथल का भी समय था। कांग्रेस आंदोलन में उग्रदल का प्रभाव निरंतर बढ़ रहा था। प्रसिद्ध गरमपंथीय नेताओं - ’लाल, बाल और पाल’ - के नेतृत्व में भारतीयों ने ब्रिटिश शासन की न्यायप्रियता के प्रति विश्वास खो दिया था। वे ’स्वराज्य’ की प्राप्ति के लिए स्वदेशी तथा वहिष्कार (वायकाट) के तरीके अपना रहे थे। उन्हें जनता के स्वाभिमान, आत्मसमर्पण तथा शक्ति पर विश्वास था। गोपालकृष्ण गोखले के नेतृत्व में नरम दल ने 1892 के अधिनियम की आलोचना की और उसके प्रति असंतोष प्रकट किया परंतु इस दल के समर्थकों का यह विश्वास था कि भविष्य में भारत को अन्य उपनिवेशों की भाँति ’स्वशासन’ अवश्य ही प्राप्त होगा। भारतीयों के बीच ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं को और भी अधिक तीव्रता से जागृत करने में वायसराय लॉर्ड कर्ज़न का महत्त्वपूर्ण हाथ रहा। प्रशासन में केंद्रीकरण तथा नौकरशाही की प्रवृत्ति को स्थापित करने वाले सुधारों ने रहे-सहे प्रतिनिधित्व के तत्त्व को भी समाप्त कर दिया। 1905 के बंगाल विभाजन (बंग-भंग ) की घटना ऐसी सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी जिसने ब्रिटिश-विरोधी घृणा की भावनाओं को और अधिक भड़काया । यद्यपि ब्रिटिश सरकार ने इस बात पर जोर दिया था कि बंगाल विभाजन के पीछे प्रशासनिक कारण हैं, तथापि इसका प्रमुख कारण व्यवस्थित राष्ट्रीय आंदोलन को कुचल डालना था । उग्र दल और नरम दल के बीच बढ़ते हुए मनमुटाव को देखते हुए लॉर्ड कर्जन ने 18 नवंबर 1900 को हैमिल्टन को लिखे एक पत्र में कहा था- “मेरा अपना विश्वास है कि कांग्रेस चरमराकर गिर रही है तथा भारत में रहते हुए मेरी एक सबसे बड़ी महत्त्वाकाक्ष इसे शांतिपूर्ण मरणद्वार तक पहुँचाने में सहायता करना है।’ बंगाल के विभाजन ने शिक्षित भारतीयों के लिए रोज़गार के साधनों में कटौती करके शिक्षित बेरोज़गारों को उग्रवादी आंदोलन की ओर प्रेरित किया। वास्तव में, बंगाल के विभाजन ने पहले बंगाल प्रांत (हिंदू प्रधान हिस्से) में तथा बाद में देशव्यापी उग्रवादी आंदोलन को भड़काया। यह आंदोलन इतना अधिक व्यवस्थित तथा क्रांतिकारी था कि भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने तत्कालीन वायसराय लॉर्ड मिंटो को 8 जुलाई 1909 में लिखा था- “जैसे-जैसे समय बीतता है, भारतीय असंतोष या शत्रुता या हम इसे जो भी नाम दें, यहाँ उन्हीं हिंसात्मक धाराओं में बहेगी जैसे इतालवी, रूसी, आयरिश असंतोष।” इसी बढ़ते हुए जनता के असंतोष ने ’हिंसात्मक क्रान्तिकारी दल“ को जन्म दिया। बंगाल से प्रारंभ होकर इस दल के अनुयायी देश भर में फैल गए।

लॉर्ड कर्ज़न के पश्चात् 1905 में लॉर्ड मिंटो अगला वायसराय नियुक्त हुआ था। भारत के बदले हुए राजनैतिक वातावरण के प्रति वह सजग था। 8 जून 1907 को लॉर्ड मिंटो ने ए० एच० एल० फ्रेजर को लिखा था - “हम निरंतर बढ़ती शिक्षा और स्वाभाविक महत्त्वाकांक्षा के प्रति उदासीन नहीं हो सकते। इनके प्रति उदासीन होने में सबसे बड़ा खतरा यह है कि इस प्रकार वफ़ादार और मध्यवर्गीय लोग शत्रु दल में शामिल हो जाएँगे। मातृदेश में लगभग सभी लोग भारत में हो रहे राजनैतिक सिद्धांत में उत्तरोत्तर बढ़ते हुए परिवर्तन के प्रति जान-बूझकर अनजान बने रहना चाहते हैं।” लॉर्ड मिंटो की नियुक्ति के कुछ मास पश्चात् ही सत्तारूढ़ लिवरल पार्टी ने लॉर्ड मार्ले को भारत सचिव नियुक्त किया। इन दोनों के पत्र व्यवहार के अध्ययन से इतिहास के शोधकर्त्ता इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि लॉर्ड मिंटो की अपेक्षा लॉर्ड मार्ले मध्यमार्गियों को संतुष्ट रखने के प्रति अधिक जागरूक था। आधुनिक इतिहासकार आर० जे० मूर का कथन है कि यदि किसी उदारवादी ने लॉर्ड मार्ले के विचारों को सुधार प्रस्तुत करने की दिशा में गहराई से प्रभावित किया था तो वह थे- श्री गोपालकृष्ण गोखले। वास्तव में इंग्लैंड में उदारवादी दल के सत्तारूढ़ हो जाने से मध्यमार्गियों को यह पूर्ण आशा बंध गई थी कि संवैधानिक सुधार शीघ्र ही प्रस्तुत किए जाएँगे। राष्ट्रीय नेता गोखले तो निरंतर भारत-सचिव से पत्र व्यवहार तथा समय-समय पर साक्षात्कार भी करते रहे। जब सुधारों के प्रस्तुतीकरण में देर होने लगी तो लॉर्ड मार्ले ने अपने विचार इस प्रकार से व्यक्त किए - “देर के कारण हमारे मध्यमार्गीय मित्र अत्यंत ही निराश हो जाएँगे तथा खेल पूर्ण रूप से उग्रवादियों के हाथों में सौंप दिया जाएगा इससे अधिक भयंकर और खतरनाक स्थिति तो मैं सोच ही नहीं सकता।“ गोखले के लिए राष्ट्रीय आंदोलन में मध्यमार्गियों की प्रतिष्ठा की पुनःस्थापना के लिए इससे अच्छा कोई अन्य तरीक़ा नहीं था। ब्रिटेन की संसद में भारत की राजनैतिक समस्या के प्रति सहानुभूति रखने वाले सदस्य बारंबार संवैधानिक सुधार प्रस्तुत किए जाने के लिए सरकार पर दबाव डाल रहे थे। 

मार्ले-मिण्टो सुधार, 1909

1909 का परिषद् अधिनियम, जिसे मार्ले-मिंटो  सुधार’ भी कहा जाता है, केंद्रीय तथा प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं की व्यवस्था तथा शक्तियों के विस्तार का अधिनियम था। यद्यपि राजनैतिक सुधार के संबंध में सिफारिशों का प्रारंभ 1906 ई0 में ही हो गया था परंतु इसे 1910 ई0 तक ही पूर्णतया लागू किया जा सका। लॉर्ड मिण्टो ने सर ए० टी० अरंडेल के नेतृत्व में एक समिति नियुक्त की जिसने सुधारों की प्रकृति तथा प्रतिनिधित्व के विस्तार के संबंध में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इसके अनुसार वर्गों, जातियों तथा अन्य हितों के आधार पर प्रतिनिधित्व की व्यवस्था पर विशेष बल दिया गया। प्रतिनिधित्व के प्रश्न को ही लेकर लॉर्ड मिंटो ने मुसलमान जनता को सुरक्षा, सहयोग तथा बल प्रदान कर देश में सांप्रदायिकता को राजनीति का अंग बना दिया। वहु मुसलमानों को कृपा-दृष्टि प्रदान करके हिंदुओं के द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन में नेतृत्व को नीचा दिखलाना चाहता था। हिंदू व मुसलिम जनता के बीच फूट डलवाकर परंपरागत ’फूट डालो और राज्य करो“ नामक नीति को चरितार्थ किया। वंगभंग विरोधी आंदोलन से लड़ने के लिए उसे मुसलमानों का सहयोग अवश्य ही चाहिए था।

मुसलमानों से निकटतम संबंध स्थापित किए जाने के विषय में उसें पूर्वी बंगाल के गवर्नर बी० फुल्लर का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। प्रांत की सरकार में निम्न से उच्च स्तर तक मुसलमानों की नियुक्ति करके उसने हिंदू जनता के हृदय में रोष उत्पन्न किया था। तथापि लॉर्ड मोर्ले  की मंत्रणा के वावजूद लार्ड मिण्टो ने गवर्नर फुल्लर को पदच्युत नहीं किया। अगले लेफ्टिनेंट गवर्नर हैयर ने भी हिंदु-मुसलमान सांप्रदायिक भेदभाव को और अधिक भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस कारण स्थान-स्थान पर विभाजन के पक्ष में सभाएँ हुईं जो मुसलमानों ने आयोजित की थीं। लॉर्ड मिंटो के निजी सचिव डनलप स्मिथ ने मुसलमानों से संपर्क स्थापित करके उन्हें अपना दृष्टिकोण और माँगें प्रस्तुत करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलीगढ़ मुसलिम महाविद्यालय के सचिव नवाब मोहसिन-उल- मुल्क तथा प्रधानाध्यापक आर्चबोल्ड के साथ विचार-विमर्श करके लार्ड मिंटो के समक्ष मुसलमानों का एक प्रतिनिधिमंडल ले जाने के लिए पूर्व स्वीकृति प्राप्त कर ली। मुसलमानों का प्रतिनिधिमंडल 1 अक्टूबर 1906 ई0 को लॉर्ड मिंटो से मिला। जैसा कि लेडी मिंटो ने अपनी डायरी में अंकित किया है - “भारत के इतिहास की यह महान घटना थी जिसने 6 करोड़ 20 लाख मुसलमानों को शत्रु दल में शामिल होने से रोक लिया। यह एक ऐसा बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य था जो कि भारत एवं इसके इतिहास को आने वाले वर्षों में प्रभावित करता रहेगा।“ अपने प्रस्ताव में मुसलमानों ने सरकार में प्रतिनिधित्व प्राप्त करने के लिए अप्रत्यक्ष अथवा प्रत्यक्ष तरीके अपनाए जाने की याचना की थी जो कि न केवल उनकी संख्या अपितु राजनैतिक महत्ता के अनुरूप हो। लॉर्ड मिंटो का अति शीघ्र ही मुसलमानों की मांगों के प्रति सहमति प्रकट करना तथा वचनवद्ध हो जाना यह सिद्ध करता है कि वह प्रारंभ से ही मुसलमानों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व प्रणाली स्थापित करना चाहता था। इस प्रकार का प्रोत्साहन मिलने से 30 दिसंबर 1906 को मुसलिम लीग का प्रथम अधिवेशन बुलाया गया।

मार्ले-मिण्टों के प्रस्तुतीकरण में अधिक समय लगने का एक कारण निर्वाचन पद्धति के विषय में नियम निर्धारित करना था। भारत सचिव लॉर्ड मार्ले ने 27 नवंबर 1908 के अपने पत्र में निर्वाचन में मिश्रित निर्वाचक मंडल (mixed electoral college) की सिफ़ारिश की थी। इसके अंतर्गत हिंदू तथा मुसलमान दोनों ही मतदान कर सकते थे ताकि ठीक अनुपात से उम्मीदवारों को चुना जा सके। इसका उद्देश्य हिंदू व मुसलमानों के हितों की भी रक्षा करना था। निर्वाचक मंडल विभिन्न वर्गों तथा संप्रदायों के उन चुने हुए व्यक्तियों से मिलकर बना था जो कि अपनी जाति और वर्ग के अनुपात में थे। उदाहरण के लिए 3 हिंदुओं और 1 मुसलमान का चुनाव करने के लिए चुने हुए 75 हिंदुओं तथा 25 मुसलमानों की आवश्यकता थी। उपर्युक्त व्यवस्था का राष्ट्रीय कांग्रेस ने स्वागत किया परंतु लॉर्ड मिंटो ने इसका जोरदार विरोध किया। 7 जनवरी 1909 को लीग के एक नेता मोहम्मद अली ने डनलप स्मिथ को लिखे पत्र में यह लिखा था कि भारत सरकार के मिश्रित चुनाव-प्रणाली के खिलाफ़ रुख ने ही मुसलमानों को प्रर्दशन करने के लिए प्रोत्साहित किया था। लीग का एक प्रतिनिधिमंडल भारत सचिव से मिला तथा इसी बीच भारत सरकार तथा अगुआ मुसलमान नेताओं में अत्यंत गोपनीय पत्र-व्यवहार हुआ। लॉर्ड मोर्ले ने प्रतिनिधिमंडल को यह आश्वासन दिया कि निर्वाचन के नियमों के निर्धारण का कार्य भारत सरकार पर छोड़ दिया जाएगा। लॉर्ड मिंटो ने मुसलमानों को पृथक् चुनाव क्षेत्र (मुसलमान सदस्यों का चुनाव मुसलमान मतदाता ही करें) प्रदान करने के अतिरिक्त उन्हें मनोनयन प्रणाली तथा सामान्य निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़कर अधिक-से-अधिक स्थान प्राप्त करने की सुविधा प्रदान क । लॉर्ड मिंटो यह चाहता था कि मुसलमान वर्ग उसकी योजनाओं का वास्तविक अर्थ तथा महत्ता समझें।

मार्ले-मिण्टो सुधार, 1909 के प्रमुख व्यवस्थाओं अथवा विशेषताओं को निम्न शीर्षकों के अनुरूप स्पष्ट किया जा सकता है -

केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के स्वरूप में परिवर्तन -

भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 जिसे हम मार्ले-मिण्टो सुधार के नाम से जानते है, जनवरी 1910 में लागू हुआ। जैसा कि इसके नाम से ही विदित है, इस अधिनियम के अंतर्गत कानून निर्मात्री परिषद का नाम पहली बार “व्यवस्थापिका सभा“ रखा गया। वायसराय की केंद्रीय परिषद में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 60 तक बढ़ा दी गई। इस प्रकार, वायसराय की कौंसिल में कुल सदस्य संख्या 69 तक पहुँच गई। इनमें 37 सरकारी तथा 32 गैर-सरकारी सदस्य थे। 60 अतिरिक्त सदस्यों में 28 गैर-सरकारी सदस्य 3 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य थे जो कि खास हितों का प्रतिनिधित्त्व करते थे। 2 अन्य नामित सदस्य थे तथा अन्य 27 निर्वाचित सदस्य थे। निर्वाचित सदस्यों को वर्गों, हितों तथा श्रेणियों के आधार पर चुना जाता था। विधान परिषद में ग़ैर-सरकारी सदस्यों का संकुचित बहुमत इस कारण रखा गया था कि सरकार में विपरीत मत के बावजूद किसी भी प्रकार परिवर्तन न लाया जा सके। नामित ग़ैर-सरकारी सदस्यों के विषय में कोई विशेष योग्यताएँ नहीं रखी गई थीं। नामित करने का अर्थ उन हितों को प्रतिनिधित्त्व प्रदान करना था, जिनका प्रतिनिधित्व ही न हुआ हो।

प्रान्तीय विधान परिषद के आकार का विस्तार -

इस सुधार अधिनियम द्वारा प्रत्येक प्रांतीय विधान परिषदों में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ा दी गई। वहाँ ग़ैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत स्थापित कर दिया गया। मद्रास, बंबई, बंगाल, उत्तरप्रदेश तथा पूर्वी बंगाल में सदस्यों की अधिकतम संख्या 50 तक नियत की गई जबकि पंजाब, बर्मा व अन्य राज्यों जैसे आसाम आदि में अधिकतम संख्या 30 तक ही रखी गई। इसे मुख्यतः निम्न तालिका से समझा जा सकता है -

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 ये सदस्य भी केंद्रीय परिषद की भाँति सरकारी, गैर-सरकारी, मनोनीत तथा निर्वाचित हुआ करते थे। निर्वाचित सदस्यों को विविध वर्गों एवं हितों के आधार पर लिए जाने की व्यवस्था थी। प्रांतीय परिषदों में यद्यपि बहुमत गैर-सरकारी सदस्यों का रखा गया था तथापि ये सदस्य अधिकतर निर्वाचित नहीं होते थे। मनोनीत गैर-सरकारी तथा निर्वाचित सदस्यों की संख्या मिलाकर कुल सरकारी सदस्यों की संख्या से अधिक रखी गई थी।

निर्वाचन के तरीकों में बदलाव -

मार्ले-मिण्टों सुधार, 1909 के अंतर्गत यह व्यवस्था थी कि केंद्रीय तथा प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं में सदस्यों के विषय में जो भी अधिनियम बनाए जाएँगे उनके विषय में सपरिषद् भारत सचिव की स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य था। बनाए गए निर्वाचन संबंधी अधिनियमों में गवर्नर-जनरल की व्यवस्थापिका सभा किसी भी प्रकार का संशोधन अथवा परिवर्तन नहीं कर सकेगी। निर्मित नियमों के अनुसार सदस्यों के निर्वाचन का तरीका इतना विस्तृत एवं जटिल था कि लॉर्ड मिंटो ने स्वयं इसे ““भ्रामक’ कहकर वर्णन किया है। 

इस प्रकार दो प्रकार के निर्वाचन क्षेत्रों का निर्माण किया गया -  

1. सामान्य निर्वाचन-क्षेत्र जिसमें प्रांतीय विधान परिषदों या म्युनिसिपल और जिला बोर्डों के ग़ैर-सरकारी सदस्यों को सम्मिलित किया गया और 

2. विशेष निर्वाचन क्षेत्र जिसकी तीन श्रेणियाँ थीं- (क) वर्ग पर आधारित, जैसे ज़मींदारों को पृथक् प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाना, (ख) सांप्रदायिक आधार जिसके अनुसार मुसलमानों को पृथक रूप से सदस्य चुनने का अधिकार दिया जाना और (ग) विशेष हित, जैसे विश्वविद्यालय, चेम्बर ऑफ़ कॉमर्स को भी पृथक् रूप से सदस्य चुनने का अधिकार दिया जाना। 

बहुत-सी सीटों को विशेष निर्वाचन क्षेत्रों तथा शेष को “सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों“ के आधार पर बाँटा गया। इस प्रकार मद्रास कौंसिल के 21 निर्वाचित सदस्यों में से 2 मुसलमानों, 2 ज़मीदारों और 3 ताल्लुकेदारों द्वारा चुने जाते थे। इसके अतिरिक्त मद्रास की सभा, मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास के चेम्बर ऑफ़ कॉमर्स, मद्रास व्यापारी सभा और प्लांटिंग कम्यूनिटी को भी 1-1 सदस्य चुनने का अधिकार दिया गया। शेष 6 सदस्यों को कमेटियाँ, जिले और ताल्लुका बोर्ड निर्वाचित करते थे। इसी प्रकार केंद्रीय विधान परिषद् के 27 निर्वाचित सदस्यों के मामले में ये सीटें 5 जमीदारों, 5 मुसलमानों, 1 बंगाल तथा 1 बंबई के चेम्बर ऑफ़ कॉमर्स को बाँट दी गई। शेष 15 सीटों की पूर्ति 6 प्रांतीय परिषदों के गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा की गई।

केन्द्रीय व प्रान्तीय विधान परिषद के कार्य-क्षेत्र का विस्तार -

इस अधिनियम द्वारा विधान परिषदों की शक्ति में वृद्धि की गयी। पहले विधान परिषद के सदस्यों को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार नही था। इस अधिनियम द्वारा मूल प्रश्न करने वाले सदस्य को पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। इसके अतिरिक्त सदस्यों को सार्वजनिक हित सम्बन्धी प्रस्ताव प्रस्तुत करने तथा उसपर मत देने का अधिकार मिला। ऐसा प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए 15 दिनों की सूचना आवश्यक थी। वाद-विवाद के समय इनमें संशोधन लाया जा सकता था। परिषद के प्रस्ताव स्वीकृति रूप में सरकार के पास भेजे जाने होते थे जिसे स्वीकार या अस्वीकार करना सरकार पर निर्भर करता था। इस अधिनियम द्वारा विŸाय मामलों में परिषदों की शक्ति में वृद्धि की गई और बजट पर गैर-सरकारी प्रभाव बढा दिया गया। सदस्यों को बजट पर विचार करने, बजट सम्बन्धी प्रस्ताव पेश करने तथा राजस्व और व्यय के मूल विषयों पर मत देने का अधिकार दिया गया लेकिन व्यय की कुछ मदों पर मतदान नही हो सकता था जिसका निश्चय सरकार करती थी। सैनिक मामले, विदेश नीति, राजस्व के अधीन टिकट, आगम शुल्क, अदालतें और व्यय के अंतर्गत प्रतिभाजन और क्षतिपूर्ति, कर्ज पर व्याज, धार्मिक व्यय तथा राज्य की रेलों जैसे विषयों पर केंद्रीय व्यवस्थापिका सभा में वाद-विवाद नहीं किया जा सकता था। विधायी परिषदों में सार्वजनिक हितों के विषयों पर प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया था, परंतु यह अधिकार इस कारण नाममात्र का था कि परिष्दों के अध्यक्ष सार्वजनिक महत्त्व से संबंधित किसी भी प्रस्ताव अथवा इसके किसी भी भाग के प्रस्तुतीकरण के लिए अनुमति नहीं दे सकते थे। प्रस्तावों से संबंधित अंतिम निर्णय का अधिकार सरकार के हाथ में था। 

साम्प्रदायिक और पृथक निर्वाचन प्रणाली -

1909 के मार्ले-मिण्टो सुधार की एक मुख्य विशेषता वर्गों, जातियों तथा हितों के आधार पर प्रतिनिधित्व था, क्षेत्रीय आधार पर नहीं। जमींदारों का निर्वाचन विशेष निर्वाचन प्रणाली के आधार पर प्रत्यक्ष तरीके से किया जाता था। मुसलमानों के प्रतिनिधित्व के लिए खास व्यवस्थाएँ की गई थीं। उनका चुनाव विशेष चुनाव- क्षेत्रों के आधार पर प्रत्यक्ष तरीके से किया जाता था। मुसलमानों के लिए गवर्नर-जनरल की परिषद् में सीटें आरक्षित थीं। सामान्य रूप से तथा ज़मींदारों के निर्वाचन के लिए चुनाव के द्वारा भी मुसलमान वर्ग केंद्रीय तथा प्रांतीय परिषदों में स्थान प्राप्त कर सकते थे। यदि फिर भी मुसलमान वर्ग का प्रतिनिधित्व कम प्रतीत होता था तो अन्य स्थानों पर भी इस वर्ग से स्थानों पर मनोनयन किया जा सकता था। अनुमान के अनुसार केंद्रीय परिषद् में मुसलमानों की संख्या 32 तथा इनमें गैर-सरकारी मुसलमान सदस्यों की संख्या 11 थी। नवम्बर 1909 को लॉर्ड मिण्टो ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि जो भी स्थान अब उन्हें प्रदान किए जाएँगे वे इन्हें प्राप्त करने के कतई भागी नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की विधायी परिषद् में मुसलमानों के 26 गैर-सरकारी सदस्य थे। कुल जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या 1/6 भाग थी। इस प्रकार साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व तथा पृथक प्रतिनिधित्व को मार्ले-मिण्टो सुधार अधिनियम के द्वारा औपचारिक मान्यता प्रदान की गयी जो भविष्य में भारत के लिए बहुत घातक सिद्ध हुआ।

मतदान की कठोर शर्ते और सदस्यों की अर्हताएॅं -

इस अधिनियम ने हिंदू व्यवसायी वर्ग पर खास प्रतिबंध लगाया हुआ था। मतदान के लिए शर्तें कठोर एवं विस्तृत संपत्ति का स्वामी होने पर आधारित थीं। केन्द्रीय विधायी परिषद् के लिए ज़मींदारों के निर्वाचन क्षेत्र से केवल वे ही ज़मींदार मतदान कर सकते थे जिनकी आय सामान्यतः 10 हजार रुपए वार्षिक थी। उदाहरण के तौर पर मद्रास में वार्षिक आय की यह सीमा 15,000 रुपए वार्षिक थी। निर्वाचित सदस्यों की अर्हताओं के विषय में विस्तृत नियम बनाये गये जबकि नामांकित गैर-सरकारी सदस्यों की अर्हताएॅं अधिनियम द्वारा निर्धारित नही की गयी थी। पश्चिमी बंगाल में, जहाँ हिंदुओं का बहुमत था, केवल वे ही व्यक्ति परिषद् में स्थान प्राप्त करने के भागीदार थे जिन्होंने स्थानीय संस्थाओं में कोई पद हासिल किया हो। मध्यम वर्ग की एक बड़ी संख्या निर्वाचन में भाग नहीं ले सकती थी। मुसलमानों के लिए बहुत ही थोड़ी सीमा तक संपत्ति के अधिकार पर मताधिकार दिया गया था। 3,000 रुपए की वार्षिक आय होने पर वे मतदान कर सकते थे। प्रत्येक मुसलमान, जिसे स्नातक डिग्री (बी०ए०) प्राप्त किए हुए 5 वर्ष बीत गए हों, मतदान कर सकता था जबकि अन्य जातियों के व्यक्ति 30 वर्ष बीत जाने के बाद भी मताधिकारी नहीं बन सकते थे। केन्द्रीय सरकार को यह पूर्ण अधिकार था कि परिषद् के किसी भी निर्वाचित सदस्य की सदस्यता को रद्द कर दे। इस व्यवस्था का उद्देश्य पड्यंत्र में फँसे हुए संदिग्ध व्यक्तियों को परिषद् की सदस्यता से निष्कासित करना था। इसके अतिरिक्त गैर-ब्रिटिश प्रजा, सरकारी अधिकारी, स्त्री या महिलाएॅं, पागल, दिवालिया, बर्खास्त सरकारी कर्मचारी और 23 साल से कम उम्र के लोग निर्वाचन में भाग नही ले सकते थे। वास्तव में ब्रिटिश भारत की सरकार निर्वाचन में संसदीय प्रणाली के तहत स्वतंत्र चुनाव प्रणाली की परिपाटी को स्थापित नहीं होने देना चाहती थी।

वायसराय की कार्यकारिणी परिषद का विस्तार -

1909 के अधिनियम की एक अन्य विशेषता गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् में एक अन्य अतिरिक्त सदस्य की नियुक्ति थी। एक विधि सदस्य सर एस० पी० सिन्हा को नियुक्त (मनोनीत) किया गया। इस प्रश्न पर भी मुसलमानों ने एक और मुसलिम सदस्य को केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् में स्थान दिए जाने की माँग प्रस्तुत की। प्रिंस ऑफ वेल्स स्वयं उपयुक्त व्यवस्था के विरुद्ध थे। 20 मई 1909 में उन्होने लिखा था- “एक खतरनाक प्रयोग प्रारंभ कर दिया गया है।“

प्रान्तीय कार्यकारिणी परिषदों से सम्बन्धित प्राविधान-

गवर्नर जनरल और उसकी परिषद भारत सचिव की स्वीकृति से बंगाल में कार्यकारिणी परिषद का निर्माण कर सकता था जिसकी अधिकतम संख्या 4 निर्धारित की गई थी। अन्य प्रान्तों में भी कार्यकारिणी परिषदों का निर्माण किया जा सकता था लेकिन ब्रिटिश संसद ऐसा करने से रोक सकती थी। मद्रास और बम्बई की कार्यकारिणी परिषदों की अधिकतम सदस्य संख्या बढाकर 4 कर दी गई जिनमें से कम से कम आधे सदस्य वे हों जो 12 वर्ष तक सम्राट की सेवा में भारत में रह चुके हों।

कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों की नियुक्ति -

1909 के मार्ले-मिण्टो सुधार अधिनियम में कार्यकारिणी परिषदों में भारतीयों की नियुक्ति की इच्छा व्यक्त की गई थी। परिषदों तथा ब्रिटिश नौकरशाही के विरोध के बावजूद ब्रिटिश मंत्रिमण्डल के इस सम्बन्ध में अपनी स्वीकृति दे दी। परिणामस्वरूप दो भारतीयों को भारत-सचिव की कौंसिल का सदस्य मनोनीत किया गया। यद्यपि व्यवहारिक धरातल पर इसका कोई लाभ नही मिला परन्तु फिर भी निःसन्देह यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कदम था।

आलोचनात्मक मूल्यांकन -

यह तो निर्विवाद है कि 1861 से 1909 तक पास हुए अधिनियमों में से किसी का भी उद्देश्य भारत में औपनिवेशिक स्तर का संविधान स्थापित करना नहीं था। यद्यपि क़ानून- निर्माण का कार्य गवर्नर-जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के एक महत्त्वपूर्ण अंग का कार्य था तथापि 1909 तक ये व्यवस्थापिका सभाएँ केवल क़ानून-निर्मात्री संस्थाओं (परिषदों) तक ही सीमित नहीं रह गई थीं। अपनी विस्तृत शक्तियों के आधार पर अब वे कार्यकारिणी परिषदों से प्रश्न पूछकर उनके कार्यों की आलोचना कर सकती थीं। 1909 के परिषद अधिनियम ने पहले की ही भाँति व्यवस्थापिका सभाओं को कार्यकारिणी परिषद् का अंग रहने दिया था। व्यवस्थापिका सभाओं की व्यवस्था एवं कार्य परिधि में विस्तार को देखते हुए, 1907 से अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने “स्वराज्य“ की माँग प्रारंभ कर दी थी। इतिहासकार डॉ० बी० बी० मिश्रा के मतानुसार कांग्रेस में प्रभुत्व स्थापित करने वाले, मध्यम वर्ग की माँगों के प्रति पूर्ण रूप से अनभिज्ञता नहीं दिखला सकते थे। 1909 के अधिनियम ने इस माँग को किंचित रूप में स्वीकार किया था यद्यपि इन क़ानूनों का उद्देश्य भारत में स्वशासन स्थापित करना नहीं था। भारत- सचिव लॉर्ड मार्ले ने तो दिसंबर 1908 में लॉर्ड सभा के समक्ष अपने भाषण में स्पष्ट करते हुये कहा था कि - “यदि यह समझा जाए कि मैं भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना चाहता हूँ अथवा इन सुधारों का लक्ष्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से भारत को अवश्य ही उत्तरदायी शासन की ओर ले जाना है तो ऐसे सुधारों से मेरा संबंध नहीं होगा।“ 13 मई, 1909 को उसने फिर यह घोषणा की कि - “हमारे जीवन काल में, और आगामी कई पीढ़ियों तक, भारत के लिए स्वराज्य प्राप्ति असंभव है।‘‘

वस्तुतः अँग्रेज़ों ने भारतीयों को जो भी राजनीतिक अधिकार प्रदान किए थे उनमें चुनाव व्यवस्था के द्वारा भारतीयों के धार्मिक और सामाजिक मतभेदों को क़ानूनी स्वीकृति प्रदान कर इन मतभेदों को और भी अधिक बढ़ाए जाने का प्रयास किया गया था। सुधारों के पीछे कोई निश्चित उद्देश्य नही था तथा उनमें निर्देशन की कमी थी। कालान्तर में आने वाले मॉन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के अनुसार मार्ले-मिण्टो सुधार, 1909 पुराने विचार का ही अंतिम परिणाम था जिसने भारत सरकार को उदारवादी निरंकुश शासक बना दिया। इसने भारत के राजनीतिक उद्देश्य के मामले में गड़बड़ी पैदा कर दी तथा उन भारतीयों को निराश कर दिया जो अँग्रेजों की न्याय तथा प्रेम की भावना के प्रति विश्वास रखते थे।

चूॅकि भारतीय देश में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की मॉग के लिए आन्दोलन कर रहे थे लेकिन इस अधिनियम ने उनकी आशाओं पर पानी फेर दिया। इस अधिनियम में औपनिवेशिक स्वशासन और उŸारदायी सरकार की मॉग को स्पष्ट शब्दों में अस्वीकार कर दिया। डा0 जकारिया के शब्दों में - ‘‘इसमें पदार्थ की अपेक्षा छाया अधिक थी।‘‘ इस अधिनियम द्वारा अंग्रेजों ने शक्ति संतुलन के सिद्धान्त के अपनाते हुये भारत के कुलीन तत्वों तथा विशेष वर्गो को अपनी ओर मिलाकर राष्ट्रवादी तत्वों के विरूद्ध एक नयी शक्ति का सृजन करना चाहा। इस अधिनियम द्वारा अपनाई गई निर्वाचन प्रणाली में मूलतः दो दोष थे - एक तो मताधिकार का क्षेत्र बहुत ही सीमित था तथा दूसरा निर्वाचन की पद्धति अप्रत्यक्ष थी। इन कारणों से केन्द्रीय और प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाएॅं सच्ची प्रतिनिधियात्मक संस्थाएॅं नही बन सकी। इसके अतिरिक्त केन्द्रीय व्यवस्थापिका में सरकारी सदस्यों का बहुसंख्यक गुट था जो एक प्रकार से रूकावट के समान थे। सभी सम्प्रदायों के मतदाताओं को समान अधिकार प्रदान नहीं किया गया था। हिन्दू मतदाताओं के लिए बहुत ऊॅची योग्यता रखी गयी थी जबकि मुस्लिम मतदाताओं के लिए बहुत निम्न योग्यता। केवल मुस्लिम संप्रदाय को ही नही, बल्कि समाज के विशेष वर्गों तथा निहित स्वार्थों को भी प्रोत्साहन किया गया। सबसे बढकर इस अधिनियम ने भारतीय प्रशासन को पहले से भी अधिक केन्द्रीकृत कर दिया और प्रान्तीय सरकारों पर केन्द्र का नियंत्रण घटा नही। इस प्रकार केन्द्रीकरण की यह प्रवृति भविष्य में स्थानीय संस्थाओं तथा स्वशासन के विकास में बहुत बाधक सिद्ध हुई।

मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव प्रणाली की स्थापना से भारत की राजनीति में एक घातक परिपाटी का प्रारंभ हुआ। शीघ्र ही आंग्ल भारतीयों, सिक्खों तथा मद्रास में ग़ैर-ब्राह्मणों ने जाति तथा धर्म की पृथकता के आधार पर पृथक चुनाव क्षेत्रों की माँग की और इससे भारत में सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिला। एक प्रकार से राष्ट्रीय एकता में दरारें पड़ गईं तथा भारत के विभाजन का बीजारोपण हुआ। आग़ा खाँ ने स्वयं इस सत्य को स्वीकार करते हुए यह कहा था कि - “लॉर्ड मिंटो ने हमारी माँगों को स्वीकार करके एक ऐसी व्यवस्था का सूत्रपात किया जो कि ब्रिटिश सरकार की भारत-संबंधी संवैधानिक मॉंगों का आधार बनी रही और उसके अनिवार्य परिणामों के रूप में भारत का विभाजन और पाकिस्तान का जन्म हुआ।“ मतदान का अघिकार भी अत्यंत ही संकुचित था और प्रतिनिधित्व का तरीक़ा अप्रत्यक्ष था। सबसे बड़े निर्वाचन क्षेत्र में, जो केंद्रीय विधान सभा के लिए एक सदस्य भेजता था, 650 से अधिक व्यक्ति न थे। कई निर्वाचन क्षेत्र निश्चित रूप से छोटे होते थे।

मॉन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के अनुसार इस अधिनियम ने भारतीयों की किसी मी राजनीतिक आकांक्षा का उत्तर नहीं दिया। 1909 के परिषद् अधिनियम ने भारत की जनसंख्या के किसी भी वर्ग को संतुष्ट नहीं किया। अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के मध्यमार्गी तथा गरमपंथी दोनों ही वर्गों ने इन सुधारों को असंतोषपूर्ण बतलाया। जैसे-जैसे मध्यमार्गियों को सुधारों के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती गई वैसे-वैसे उनमें निराशा की भावना बढती गई। प्रतिक्रिया के कारण उग्रवादी दल का प्रभाव विस्तृत होता जा रहा था। युवक उग्रवादी हिंसा के आधार पर स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे तथा इस दल की गतिविधियों में खूब वृद्धि हो रही थी। यद्यपि मुसलमानों को अपनी जनसंख्या के अनुपात में बहुत अधिक प्रतिनिधित्व मिला हुआ था, तो भी वे लॉर्ड मिण्टो की योजनाओं का वास्तविक अर्थ नहीं समझ सके और वे इस अधिनियम से संतुष्ट न थे । 23 मई 1909 को अखिल भारतीय मुसलिम लीग ने यह प्रस्ताव पास करते हुये कहा कि - “मौजूदा सुधार योजना से मुसलमान संतुष्ट नहीं हैं। वे विधायी परिषदों तथा म्यूनिसिपैलिटी जैसी निम्न संस्थाओं में पृथक तथा पर्याप्त प्रतिनिधित्व के लिए प्रार्थना करते हैं।“

उपयुक्त कमियों और दोषों के कारण भारतीय जनमानस ने इसे नकार दिया लेकिन इन सबके बावजूद मॉले-मिण्टों सुधारों को एकदम निरर्थक नहीं कहा जा सकता है। यह योजना कई प्रकार से उपयोगी सिद्ध हुई। इससे भारतीयों को संसदीय शासन व्यवस्था का महत्वपूर्ण प्रशिक्षण मिला जिससे भविष्य में विकसित व्यवस्थापिका सभाओं का उन्होंने पूर्ण उपभोग किया। व्यवस्थापिका सभाओं के आकार तथा शक्ति में वृद्धि की गयी जो बाद में विकसित होकर पूर्ण संसद बन गयी। सांवैधानिक विकास के वृहत दृष्टिकोण से भारतीय स्वशासन की दिशा में यह आवश्यक तथा उपयोगी कदम था। इस अधिनियम ने भारतीय संविधान को उस स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया जिसके बाद उत्तरदायी सरकार की स्थापना स्वाभाविक कदम था। 1892 और 1919 के बीच इस अधिनियम ने एक संक्रमणकालीन व्यवस्था की स्थापना की जिसने भारतीय संविधान को विकासवादी स्वरूप प्रदान किया। 1892 के बाद 1919 का अधिनियम क्रांतिकारी कदम हो जाता, लेकिन 1909 के बाद 1919 का अधिनियम एक स्वाभाविक विकास था। लार्ड मार्ले के अनुसार इन सुधारों ने ग्रेट ब्रिटेन और भारत के सम्बन्ध के इतिहास में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण अध्याय शुरू किया और भारत के प्रति ब्रिटिश उत्तरदायित्व को नया रूप प्रदान किया। 

अपने समस्त पूर्ववर्ती अधिनियमों की तुलना में कई अर्थों में यह अधिनियम अधिक विकसित था। पहली बार अप्रत्यक्ष निर्वाचन के सिद्धांत की औपचारिकता प्रदान की गयी। प्रान्तीय विधान सभा में गैर-सरकारी सदस्यों का बहुमत रखा गया और विधान परिषदों का विस्तार किया गया। सदस्यों को बहस करने, प्रश्न पूछने और बजट पर प्रस्ताव पेश करने तथा सार्वजनकि हित के प्रस्ताव प्रस्तुत करने का अधिकार मिला। कार्यकारिणी परिषदों में प्रथम बार भारतीयों को स्थान दिया गया। निस्सन्देह ये परिवर्तन प्रगतिशील थे। लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि ये परिवर्तन केवल मात्रा में थे प्रकार में नहीं। 



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