विषय-प्रवेश (Introduction)
ब्रिटिश शासन के अधीन भारत में प्रतिनिधि सरकार का विकास 1858 के बाद से ही प्रारंभ होता है। 1857 की भारतीय क्रांति के पश्चात् ब्रिटिश सरकार के स्तर पर ऐसा अनुभव किया जाने लगा था कि शासक और शासित वर्ग के संबंधों में गहरी खाई का होना इस विप्लव का एक प्रमुख कारण था। इस संपर्क के अभाव को दूर करने के लिए यह आवश्यक था कि भारतीयों को प्रशासकीय संस्थाओं के किसी अंग में, प्रमुख तौर से क़ानून निर्मात्री परिषद् में स्थान दिया जाए। 1861 का प्रथम परिषद् क़ानून भारत के संवैधानिक इतिहास की वह पहली कड़ी है जिसने भविष्य में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के लिए मार्ग तैयार किया। इस क़ानून ने भारत स्थित सरकार के संपूर्ण ढाँचे को निर्धारित किया था। यद्यपि भविष्य में, इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए थे, तथापि सरकार का जो मौलिक रूप इस क़ानून ने निर्धारित किया था वह ब्रिटिश शासन के अंत तक चला।
1861 का परिषद अधिनियम -
1861 के परिषद् क़ानून ने भारतीयों को केंद्रीय परिषद् में स्थान देकर सबसे पहले प्रतिनिधित्व प्रणाली की नींव डाली। वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् को क़ानून निर्माण के कार्य के लिए विस्तृत किए जाने की व्यवस्था की गई। इस कानून ने क़ानून निर्माण के क्षेत्र में शक्ति विभाजन के सिद्धांत की कल्पना की थी। सर चार्ल्स वुड ने, जिसने इस बिल को ब्रिटिश संसद के समक्ष प्रस्तुत किया था, यह स्पष्टीकरण दिया था कि केंद्रीय परिषद् को एक ऐसी सलाहकार संस्था के रूप में स्थापित किया जाए जिससे कि यह वायसराय को उसकी कार्यकारिणी परिषद् समेत क़ानून निर्माण के कार्य में सहायता प्रदान कर सके। इस उद्देश्य से केवल वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् का विस्तार किया गया था, एक पृथक् व्यवस्थापिका सभा की स्थापना नहीं की गई थी। चार्ल्स वुड इस विषय पर आश्वस्त थे कि भारत की परिस्थितियों तथा सामाजिक वर्गों के आधार पर प्रतिनिधि सरकार की अपेक्षा निरंकुश सरकार ही सर्वोत्तम राजनैतिक व्यवस्था है।
1861 के प्रथम परिषद् अधिनियम ने वायसराय की कार्यपालिका परिषद् में एक अन्य पाँचवें सदस्य को सम्मिलित किए जाने का प्रावधान रखा। इस सदस्य का क़ानूनी पेशे से संबंध होना अनिवार्य था अर्थात् यह कोई न्यायविद अथवा वकील हो। इस अधिनियम ने वायसराय को परिषद् का कार्य सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए नियमों ओर आदेशों के निर्माण का अधिकार दिया। कानून निर्माण के कार्य के लिए कम से कम 6 तथा अधिक से अधिक 12 अतिरिक्त सदस्यों को सम्मिलित किए जाने की व्यवस्था की गई। इनमें कम से कम आधे सदस्यों का ग़ैर-सरकारी होना नियत किया गया। इन आधे अतिरिक्त सदस्यों में से कुछ सदस्यों का भारतीय होना भी आवश्यक था। अतिरिक्त सदस्यों की कार्यावधि 2 वर्ष नियत की गई। भारतीय सदस्यों के चुनाव के लिए प्रारंभ में राजसी घरानों से संबधित केवल तीन व्यक्तियों को ही वायसराय की परिषद् का सदस्य बनाया गया। इन सदस्यों के अधिकारों को सीमित रखा गया। वायसराय की पूर्वानुमति के बिना सार्वजनिक ऋण, सार्वजनिक राजस्व, धर्म, थल और जल सेना से संबंधित प्रस्ताव प्रस्तुत नहीं किए जा सकते थे। परिषद् के द्वारा पास किए गए किसी भी क़ानून पर वायसराय अपने विशेषाधिकारों का प्रयोग करके इन्हें भी रद्द करवा सकता था। वह आपातकाल में अध्यादेश भी जारी कर सकता था। इनका प्रभाव एवं बल परिषद् के द्वारा पास किए गए क़ानूनों जैसा ही होता था। किसी अधिनियम को अमान्य घोषित कर देने का राजसत्ता का अधिकार सुरक्षित था। इस अधिनियम ने राजसत्ता, ब्रिटिश संसद के अधिकार तथा राज्य सचिव के नियंत्रण पर मुख्य रूप से बल दिया।
प्रांतों में, कानून निर्माण के लिए प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की फिर से स्थापना की गई। इनमें कम से कम 4 और अधिक-से-अधिक 8 अतिरिक्त सदस्यों को सम्मिलित किए जाने की व्यवस्था की गई। वायसराय को उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत तथा पंजाब में क़ानून निर्माण करने के लिए परिषदें स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया गया। 1861 में बंगाल के लिए, 1866 में उत्तर-पश्चिमी प्रांत तथा अवध के लिए और 1867 में पंजाब के लिए विधान परिषदों की स्थापना हुई। प्रांतीय परिषदों में पास किए गए विधेयक गवर्नर और वायसराय दोनों की ही स्वीकृति के बाद अधिनियम बन सकते थे। किन्हीं महत्त्वपूर्ण विषयों से संबंधित विधेयकों को परिषद् के समक्ष प्रस्तुत किए जाने से पूर्व गवर्नर इन पर वायसराय की अनुमति प्राप्त करता था। परिषदों के द्वारा पारित कानूनों को वायसराय अथवा भारत सचिव के मतानुसार रद्द भी किया जा सकता था। कानून निर्माण के क्षेत्र में अथवा नए प्रांत बनाने और इनकी सीमाओं में परिवर्तन करने के विषय में वायसराय को पूर्ण अधिकार सौंपा गया था ।
1861 के अधिनियम का उद्देश्य भारतीय जनता को विधान परिषदों में प्रतिनिधित्व प्रदान करने का नहीं था, अपितु ये परिषदें सामंत वर्गीय भारतीयों से ही क़ानून निर्माण के कार्य में सहयोग प्राप्त करना चाहती थीं। सांवैधानिक मामलों के लेखक कूपलैंड ने ठीक ही कहा है- “ये परिषदे उन दरबारों के समान थीं जिन्हें भारतीय राजा परंपरागत रूप में अपनी प्रजा का मत जानने के लिए लगाया करते थे।” केंद्रीय परिषद् के भारतीय सदस्य बैठकों में प्रायः अनिच्छा से आते थे तथा शीघ्रातिशीघ्र निवृत होने के लिए तैयार रहते थे। तथापि, परिषद् में भारतीयों को स्थान दिए जाने से एक नई प्रवृत्ति का प्रारंभ हुआ यह भविष्य के लिए प्रतिनिधि सरकार के शुभारंभ का पहला बीज था। प्रांतों में विधान परिषदों की स्थापना से वह प्रक्रिया शुरू हुई जिसके फलस्वरूप 1937 में प्रांतों में स्वायत्त सरकार की स्थापना की गई थी। उपर्युक्त अधिनियम ने राज्य प्रणाली को ऐसी रूपरेखा प्रदान की जो भविष्य में भी केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् का अभिन्न अंग बनी रही।
1892 का परिषद् क़ानून
अगला महत्त्वपूर्ण भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 में पास हुआ था। 1861 से 1862 तक विभिन्न क़ानूनों ने परिषदों के विषय में संवैधानिक परिवर्तन प्रस्तुत किए। 1869 में भारत सचिव को केंद्रीय परिषद् में रिक्त स्थानों की पूर्ति का अधिकार प्रदान किया गया। 1870 में कुछ विषयों पर केवल सपरिषद् वायसराय को ही विनियम बनाने का अधिकार दिया गया। वायसराय को यह अधिकार दिया गया कि यदि उसके मतानुसार भारत अथवा देश के किसी भी भाग के में शांति, सुरक्षा एवं ब्रिटिश हितों को कोई खतरा हो तो वह परिषद् के बहुमत विरुद्ध प्रस्ताव को रद्द कर सकता था। उक्त विषय को भारत सचिव के समक्ष विचार के लिए भी प्रस्तुत किया जा सकता था। 1874 ई0 में ब्रिटेन की महारानी को भारत परिषद् में सार्वजनिक निर्माण कार्य संबंधी छठा सदस्य नियुक्त करने का अधिकार दिया गया। आवश्यकतानुसार परिषद् में सदस्यों की संख्या घटाकर 5 की जा सकती थी।
1861 से 1892 तक का काल, जबकि द्वितीय परिषद् अधिनियम पास हुआ, भारतीय जनता के लिए परिवर्तन लाने वाला काल था। इस समय भारत स्थित ब्रिटिश शासन की अनुदारवादी तथा उदारवादी दोनों ही नीतियों ने भारतीय जनता की राष्ट्रीय भावना को जागृत करने में अपना महत्वपूर्ण योग दिया। वायसराय लॉर्ड लिटन (1776-1780) की अनुदारवादी नीतियों से जनता क्षुब्ध हो गई तथा ब्रिटिश न्यायप्रियता के प्रति उनके विश्वास को भारी धक्का लगा। लॉर्ड रिपन (1780-1784) के उदारवादी प्रशासन के अंतर्गत 1883 के इलबर्ट बिल ने भयंकर जाति-भेद विवाद को उकसाया। भारतीय इस विषय पर कटिबद्ध हो गए कि समान अधिकार की प्राप्ति के लिए उन्हें आंदोलन के द्वारा संघर्ष का मार्ग अपनाना पड़ेगा। इसी कारण 1885 ई0 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई, जिसने शांतिपूर्ण और संगठित तरीक़े से भारतीयों की मांगों को ब्रिटिश सरकार के समक्ष प्रस्तुत किया। ब्रिटिश सरकार की न्यायप्रियता तथा संवैधानिक विषयों में विश्वास के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कांग्रेस सदस्यों ने विभिन्न सुधारों की मांग की। राजनीतिक क्षेत्र में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के पहले ही अधिवेशन में भारतीय केंद्रीय परिषद् तथा प्रांतीय परिषदों का चुनाव के सिद्धांत के आधार पर सुधार और विस्तार को माँग की गई। परिषद् के सदस्यों को कार्यकारिणी से प्रशासन की किसी भी शाखा के बारे में प्रश्न पूछने के अधिकार की मांग की गई। 1886 ई0 के अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दूसरे अधिवेशन में, अन्य माँगें प्रस्तुत की गई, जैसे परिषद् में कम-से-कम 50 प्रतिशत सदस्यों का अप्रत्यक्ष तरीके से चुनाव किया जाए, वायसराय की कौंसिल के सदस्यों को कुछ प्रांतीय परिषदों के निर्वाचित सदस्य चुनें, प्रांतीय परिषदों के सदस्यों को म्युनिसिपल परिषदों, जिला बोर्डो, चेम्बर ऑफ़ कॉमर्स, यूनिवर्सिटी के सदस्य निर्वाचित करें, मताधिकार केवल शिक्षित और संपत्तिवान व्यक्तियों को ही दिया जाए। सांवैधानिक इतिहासकार गुरुमुख निहाल सिंह का कथन था कि यद्यपि इन वर्षों में राष्ट्रीय आंदोलन अपने शैशवकाल में या तथापि 1892 का परिषद् कानून राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रयत्नों का पहला परिणाम था।
परिषदों में निर्वाचन प्रणाली अपनाए जाने के विषय में कांग्रेस की मांगों को ध्यान में रखते हुए सर एन्थनी मैकडॉनल के नेतृत्त्व में एक जाँच समिति नियुक्त की गई थी, जिसकी रिपोर्ट 1887 ई0 में तैयार हुई। इसमें यह कहा गया था कि केवल स्थानीय सस्थाओं को छोड़कर अन्य क्षेत्र के लिए निर्वाचन-पद्धति एकदम नवीन थी। यहाँ तक कि बंबई निगम में भी निर्वाचन का सिद्धांत केवल 15 वर्ष ही पुराना था। इसके अतिरिक्त यह सब प्रयोगात्मक स्तर पर होने के कारण यह संदेहास्तर था कि स्थानीय बोर्ड, प्रांतीय परिषदों के लिए, निर्वाचित क्षेत्र के रूप में कार्य कर सकते थे। भारतीय समाज का केवल सूक्ष्म शिक्षित वर्ग ही प्रतिनिधि सरकार के बारे में उत्साही था। केवल धनी वर्ग ही प्रतिनिधित्व के सिद्धांत का समर्थन कर रहा था। ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उनमें प्रतिशोध की भावना थी क्योंकि भूमिकर तथा कारखाने-संबंधी अधिनियमों से उनके अधिकारों में कटौती हो गई थी।
समकालीन वायसराय लॉर्ड डफरिन कांग्रेस में सम्मिलित उग्र दल को, जो कि प्रतिनिधि सरकार की माँग कर रहा था, ब्रिटिश सरकार का वास्तविक शत्रु समझता था। वह इस बारे में आश्वस्त था कि प्रांतीय परिषदों में सुधार तथा विस्तार प्रस्तुत किया जाना अवश्यंभावी है, ताकि उग्र आंदोलनकारी भविष्य में, आयरलैंड के आंदोलनकारियों की भाँति, स्वशासन की माँग न कर बैठे। लाई डफरिन का यह मत था कि इन व्यवस्थापिका सभाओं का सुधार और विस्तार सर चार्ल्स वुड के द्वारा स्थापित नींव तथा परंपराओं के आधार पर ही किया जाना चाहिए। उसका यह मत था कि शिक्षित वर्ग से चुने हुए भारतीयों को ही परिषदों में सदस्यता प्रदान की जानी चाहिए। भारत सचिव लॉर्ड क्रौस को लिखे गए एक व्यक्तिगत पत्र में स्पष्ट कर दिया गया था कि चुने हुए वर्ग के प्रतिनिधित्व से नौकरशाही की निरंकुशता को किसी भी प्रकार की आँच नहीं आएगी। भारत में वैसे भी जनता का वास्तविक प्रतिनिधित्व प्राप्त करना संभव नहीं था। सामाजिक और धार्मिक मतभेदों के कारण भारत राष्ट्र न होकर केवल जातियों और विभिन्न वर्गों इत्यादि का एक सम्मिलित रूप है। लॉर्ड क्रौस ने प्रांतीय परिषदों के विस्तार के बारे में वायसराय के प्रस्ताव को रद्द करके उनकी शक्ति और कार्य-परिधि में विस्तार का समर्थन किया। उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत और अवध के लेफ्टिनेंट गवर्नर सर आकलैंड कोविन ने निर्वाचन सिद्धांत के प्रयोग के प्रति सचेत रहने पर बल दिया। उसका यह मत था कि कांग्रेस का उग्रवादी वर्ग चुनाव का प्रयोग करके भूस्वामी उच्च वर्ग को उखाड़ फेंकना चाहता है। यद्यपि भारत सरकार ने सर कोविन के तर्क को माना परंतु इसके साथ यह सिफ़ारिश की कि सपरिषद् गवर्नर जनरल को यह अधिकार होना चाहिए कि वह समय-समय पर किसी चुनाव तरीके से या मनोनयन करके परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति कर सके। 1890 ई0 में जब भारत परिषद् संबंधी विधेयक लॉर्ड सभा में प्रस्तुत किया गया तो अतिरिक्त सदस्यों को मनोनीत किए जाने की व्यवस्था को भी सम्मिलित किया गया था। इसके साथ भारत-सचिव की मंत्रणा से सपरिषद् गवर्नर जनरल तथा प्रांतों के गवर्नरों और लेफ्टिनेंट गवर्नरों द्वारा सदस्यों के मनोनीत किए जाने की शर्तों को निर्धारित एवं लागू किया जाए। इन शर्तों के आधार पर ही संकुचित निर्वाचन प्रणाली स्थापित करने का प्रयास किया गया।
1892 का भारतीय परिषद् कानून 1861 के अधिनियम के अनुरूप ही पास कर दिया गया था। यहाँ तक कि कानून निर्मात्री परिषद् अथवा व्यवस्थापिका सभा जैसे शब्दों का प्रयोग तक नहीं किया गया था। इस अधिनियम के अनुसार केंद्रीय परिषद् सहित गवर्नर जनरल (ळवअमतदवत ळमदमतंस पद ब्वनदबपस) को यह अधिकार दिया गया था कि वह जरूरत पड़ने पर अतिरिक्त सदस्यों को मनोनीत कर सकता है। अतिरिक्त सदस्यों की संख्या न्यूनतम 10 तथा अधिकतम 15 नियत की गई। प्रांतीय परिषदों में अपेक्षाकृत अधिक संख्या में अतिरिक्त सदस्यों की व्यवस्था की गई। बंबई तथा मद्रास की परिषदों के लिए न्यूनतम 8 तथा अधिकतम 20 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार गवर्नर को प्रदान किया गया। बंगाल तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत की परिषदों में ज्यादा-से-ज्यादा क्रमशः 10 और 15 अतिरिक्त सदस्य नियुक्त किए जा सकते थे। अतिरिक्त सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष नियत किया गया तथा इनमें से कम-से-कम आधे सदस्यों का ग़ैर-सरकारी होना आवश्यक था। निर्वाचन के संबंध में परोक्ष नीति को अपनाया गया। कुछ ग़ैर-सरकारी सदस्यों के मनोनयन की व्यवस्था की गई। शेष स्थानों की पूर्ति उन मनोनीत व्यक्तियों में से किए जाने का प्रावधान किया गया जिनकी सिफ़ारिश म्युनिसिपल कमेटी, जिला बोर्ड, निगम इत्यादि संस्थाएं करें। निर्वाचन के संबंध में वे वर्गों, जातियों, श्रेणियों इत्यादि के द्वारा प्रतिनिधित्व प्राप्त करना चाहते थे, क्योंकि पाश्चात्य निर्वाचन प्रणाली के लागू करने से तो ऐसे व्यक्तियों के चुनाव का खतरा था जिनका जनसाधारण से कोई भी संबंध न हो। वास्तव में, वर्गों के प्रतिनिधित्व प्राप्त करने की नीति को अपनाना ब्रिटिश सरकार की ’फूट डालो और राज्य करों’ की नीति का द्योतक है। 1892 के अधिनियम से स्थापित निर्वाचन प्रणाली के द्वारा भूस्वामी वर्ग तथा मुसलमानों को प्रायः प्रतिनिधित्व प्राप्त ही नहीं हुआ।
इस अधिनियम ने व्यवस्थापिका सभा के सदस्यों को कार्यकारिणी परिषद के बजट पर बहस का अधिकार प्रदान किया और वे प्रश्न भी पूछ सकते थे। ये अधिकार केंद्रीय और प्रांतीय दोनों ही प्रकार की विधान परिषदों को प्रदान किए गए। वायसराय और उसकी परिषद् तथा गवर्नर और उसकी परिषद् इन विषयों पर क़ानून बना सकते थे। प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं को नए कानून बनाने तथा पुराने क़ानूनों को आवश्यकतानुसार रद्द करने का अधिकार प्राप्त हुआ। परंतु इसके लिए वायसराय की पूर्व स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक था। विशेष आवश्यकता पड़ने पर वायसराय को यह अधिकार दिया गया कि वह व्यवस्थापिका सभा की सहायता से प्रांतों के लिए कानून बनवाए।
मौलिक रूप में 1892 के अधिनियम के अंतर्गत केंद्रीय परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या केवल 4 तक ही बढ़ाई गई थी जो कि जनसंख्या के अनुपात में अत्यंत अपर्याप्त थी। इसी प्रकार प्रांतों की परिषदों में भी अतिरिक्त सदस्यों की संख्या जनसंख्या के हिसाब से बहुत कम थी। निर्वाचन का आधार भी त्रुटिपूर्ण रखा गया। केंद्रीय परिषद् के भारतीय सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष पद्धति से नहीं किया जाता था। प्रांतीय परिषदों के अति रिक्त सदस्यों का चुनाव नगरपालिकाएँ, जिला बोर्ड इत्यादि संस्थाओं के द्वारा किया जाता था जबकि केंद्रीय परिषद् के निर्वाचित ग़ैर-सरकारी सदस्य प्रांतीय परिषदों के ग़ैर-सरकारी सदस्यों की सिफ़ारिश पर चुने जाते थे। अधिकार क्षेत्र की दृष्टि से भी सदस्यो का क्षेत्र सीमित था। वे पूरक प्रश्न अथवा तर्कपूर्ण प्रश्न नहीं पूछ सकते थे। बजट पर वाद-विवाद भी असंतोषजनक तथा अनियत प्रवृत्ति का होता था। अन्य प्रश्नों पर उत्तर प्राप्त करने के लिए अध्यक्ष पर निर्भर रहना होता था। यहाँ यह कहा जा सकता है कि व्यवस्थापिका सभाओं की वास्तविक स्थिति परामर्शदात्री परिषदों जैसी थी। उनमें आधुनिक प्रतिनिधि संस्थाओं की विशेषता न थी। इस दृष्टिकोण से इन्हें अपंग परिषदों की संज्ञा देना अनुचित न होगा।
तथापि, 1892 के भारत परिषद अधिनियम के द्वारा भारतीयों के शासन में भाग लेने के अवसरों में पहले की अपेक्षा सुधार हुआ। संकुचित रूप में ही सही, परोक्ष निर्वाचन पद्धति को अपनाया गया। भविष्य में निर्वाचन प्रणाली के अपनाए जाने के लिए परंपरा स्थापित हुई। समकालीन अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता सर सुरेंद्र नाथ बनर्जी ने तो इन सुधारों का पूर्ण लाभ उठाने की मंत्रणा दी। इसके फलस्वरूप गोपाल कृष्ण गोखले, रासबिहारी बोस तथा फ़ीरोजशाह मेहता इत्यादि प्रतिभाशाली तथा योग्य भारतीय केंद्रीय परिषद् के सदस्य बन गए। सरकारी बहुमत के कारण वे यद्यपि शासन के किसी भी क्षेत्र में सुधार नहीं ला सके, तथापि इन्होंने देश के लिए बनाए गए क़ानूनों पर अपनी प्रतिभा की गहरी छाप डाली। प्रश्न पूछकर तथा बजट की बहस में भाग लेकर इन्होंने कार्यकारिणी परिषद् के मत को सीमित मात्रा में तो अवश्य ही प्रभावित किया होगा। यद्यपि ‘चुनाव‘ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था तथापि इस विषय में अधिनियमों को बनाए जाने के विषय में जो निर्णय लिया गया था, उसके कारण भविष्य में प्रतिनिधि सरकार की स्थापना के लिए मार्ग खुल गया।