window.location = "http://www.yoururl.com"; Development of Education during 1913 - 47 | 1913 -47 के दौरान शिक्षा का विकास

Development of Education during 1913 - 47 | 1913 -47 के दौरान शिक्षा का विकास

 


1913 ई0 का शिक्षा-प्रस्ताव :

इंग्लैंड में शिक्षा-संबंधी सुधारों का भारत में अँग्रेजों द्वारा अपनाई गई नीति पर भी प्रभाव पड़ता था। इंग्लैंड में संघीय स्वरूप वाले विश्वविद्यालयों को असंतोषजनक पाया गया था इसलिए उसे त्याग देने के पक्ष में मत बन रहा था। इसका प्रभाव भारत सरकार की शिक्षा नीति पर पड़ना स्वाभाविक था। 1913 के आस-पास इस संघीय स्वरूप को त्यागकर विश्वविद्यालयों को एकात्मक और आवासीय अध्यापन संस्थाओं के रूप में पुनर्गठित किया गया। 21 फरवरी 1913 को शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव में घोषणा की गई कि प्रत्येक प्रान्त में विश्वविद्यालय की स्थापना की जाएगी। क़स्बों में जो महाविद्यालय थे उन्हें समय आने पर अध्यापन विश्वविद्यालय बना देने का सुझाव था। सरकार इस पर कार्यवाही विशेषज्ञों की जाँच के पश्चात् ही करना चाहती थी। गोखले उधर अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की माँग कर रहे थे। उनका तथा अन्य राष्ट्रवादियों का मत था कि यदि बड़ौदा जैसी रियासत 1906 ई0 में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा लागू कर सकती हैं तो भारत सरकार को भी समस्त ब्रिटिश भारत में ऐसा करना चाहिए। 1915 के सरकारी प्रस्ताव ने इस सिद्धांत को स्वीकृति नहीं दी। केवल प्रान्तीय सरकारों को प्रोत्साहन दिया गया कि वे समाज के पिछड़े तथा गरीब वर्ग को निःशुल्क शिक्षा देने का प्रबंध करें। माध्यमिक स्कूलों को उत्तम बनाने का सुझाव भी दिया गया। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में विकास के लिए निजी प्रयत्नों को प्रोत्साहन देने पर भी जोर दिया गया।

सैंडलर आयोग, 1917

1917 इ्र्र0 में भारत सरकार ने विश्वविद्यालयीय शिक्षा में सुधार हेतु सुझाव देने के लिए सर माइकेल सैंडलर की अध्यक्षता में एक आयोग की नियुक्ति की। इस आयोग में डॉ० आशुतोष मुखर्जी तथा डॉ० जियाउद्दीन अहमद दो भारतीय भी सदस्य थे। इस आयोग ने विश्वविद्यालयीय शिक्षा के साथ-साथ माध्यमिक शिक्षा पर भी विचार किया तथा अपने सुझाव दिए। आयोग ने विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 की आलोचना करते हुये कहा कि महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय का सही समन्वय नहीं हुआ था। इसके मुख्य सुझाव निम्नलिखित थे -

1. सैंडलर का सुझाव था कि इंटर परीक्षा को माध्यमिक तथा विश्वविद्यालयी शिक्षा के बीच की विभाजन रेखा मानना चाहिए। हाईस्कूल की परीक्षा के बाद विद्यार्थी दो वर्ष इण्टरमीडिएट में शिक्षा प्राप्त करे और इसके बाद उसे विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त हो। सरकार को अब नई प्रकार की शिक्षण संस्थाओं को स्थापित करना था जो इंटरमीडिएट महाविद्यालय कहलाएॅगी। ये स्वतंत्र संस्था के रूप में रहती अथवा हाईस्कूल से संबंधित हो सकती थीं। इंटरमीडिएट महाविद्यालयों के प्रशासन के लिए माध्यमिक अथवा उत्तर माध्यमिक बोर्डो के निर्माण का मुझाव दिया गया। इस बोर्ड में सरकार, विश्वविद्यालय, उच्च विद्यालयों तथा इंटरमीडिएट महाविद्यालयों के प्रतिनिधि होने थे।

2. तीन वर्ष की शिक्षा अवधि स्नातक की उपाधि के लिए निश्चित की गई। ’पास’ तथा ’ऑनर्स’ पाठ्यक्रम प्रारंभ करने का भी सुझाव था। आयोग का यह भी सुझाव था कि विश्वविद्यालय अपने कार्य को नियमित करने वाले नियमों को कम सख्त बनाएँ। इसके अतिरिक्त पुराने संबंधन विश्वविद्यालयों के स्थान पर स्वायत्ततापूर्ण आवासीय एवं एकात्मक स्वरूप के शिक्षा प्रदायी विश्वविद्यालयों की स्थापना करना आवश्यक समझा गया।

3. धीरे-धीरे विश्वविद्यालय ऐसे बनाये जाय जहॉं शिक्षकों और विद्यार्थियों को रहने की भी व्यवस्था हो।

4. स्त्री शिक्षा को बढावा दिया जाय।

5. अध्यापकों की शिक्षा के लिए शिक्षक प्रशिक्षण संस्थान खोले जॉय।

6. वैज्ञानिक तथा तकनीकी शिक्षा का विस्तार किया जाय।

सरकार ने सैंडलर आयोग के सभी सुझावों को स्वीकार कर लिया। कलकत्ता विश्वविद्यालय के अधीन महाविद्यालयों तथा विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या थी। इसका भार कम करने के उद्देश्य से, सैडलर आयोग ने ढाका में एक एकात्मक विश्वविद्यालय खोलने का सुझाव दिया था। शारीरिक विकास के लिए व्यायाम प्रशिक्षण निर्देशक की नियुक्ति का भी सुझाव दिया गया। साथ ही आयोग ने ढाका तथा कलकत्ता विश्वविद्यालय में अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए शिक्षा विभाग खोलने, व्यवहारिक विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने पाठ्यक्रमों का प्रबंध करने, डिप्लोमा और स्नातक की उपाधि के लिए अध्ययन एव अभ्यास के लिए प्रबंध करने, शिक्षा के क्षेत्र में मुसलमानों के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए उन्हें प्रोत्साहन देने तथा उनके हितों की सुरक्षा के लिए उपयुक्त उपाय करने का सुझाव भी दिया। 1913 के शिक्षा संबंधी प्रस्ताव तथा 1917 के सैंडलर कमीशन के सिफारिशों के अनुरूप कुछ और विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। 1887 ई0 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद 1916 तक किसी नए विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की गई थी1916-22 के बीच में 7 नये विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई जिनमें मैसूर, पटना, बनारस, ढॉंका, लखनऊॅ, अलीगढ और उस्मानिया का नाम उल्लेखनीय है। 1919 के भारत सरकार अधिनियम के अन्तर्गत शिक्षा को प्रान्तीय विषय बनाकर भारतीय मन्त्रियों की देखरेख में दे दिया गया परन्तु धन के अभाव में कोई महत्वपूर्ण सुधार संभव नही हुआ, केवल स्कूल और कॉलेज की संख्या बढती गई जिसका श्रेय भी सार्वजनिक संस्थाओं और व्यक्तिगत प्रयत्नों को जाता है। 1921 से 1937 के मध्य पॉच अन्य विश्वविद्यालय- दिल्ली, नागपुर, आन्ध्र, आगरा और चिदम्बरम विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। पुराने विश्वविद्यालयों के नियमों में कुछ सुधार किया गया जिससे ये उच्च शिक्षा और शोध कार्यो में प्रगति कर सके।

नई शिक्षा पद्धति की उपलब्धियाँ गुणात्मक ही थीं, परिमाणात्मक नहीं। देशी संस्थाओं के स्थान पर स्थापित की गई नई शिक्षा पद्धति अपेक्षाकृत अधिक कार्यकुशल शिक्षा पद्धति थी। नई पद्धति के अंतर्गत रचित प्राथमिक शिक्षा कें पाठ्यक्रम अधिक व्यापक एवं उदार थे। अध्ययन प्रणालियाँ आधुनिक युग के लिए अधिक उपयुक्त थीं। इनके अध्यापक मी देशी विद्यालयों के अध्यापकों से अधिक योग्य थे। टोलों, पाठशालाओं एवं मदरसों की अपेक्षा आधुनिक माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में भारी अंतर था। देशी शिक्षा-पद्धति में धर्म की प्रमुखता थी और इस पद्धति का विज्ञान से तो कोई संबंध था ही नहीं नई शिक्षा- पद्धति इससे बहुत भिन्न थी। इसका उद्देश्य पाश्चात्य ज्ञान तथा विज्ञान का प्रसार करना था। यद्यपि यह सत्य है कि प्रारंभ में इस पद्धति का झुकाव प्राच्य शिक्षा को घृणा की दृष्टि से देखना तथा उसकी निंदा करना और पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति का अनुचित गुणगान करना था, तथापि नई शिक्षा-पद्धति के परिणाम भारत के लिए लाभप्रद ही निकले। भारतीय विचारधारा को उद्दीप्त करने, समाज की प्रगति में बाधक बंधनों को खत्म करने तथा राष्ट्र के सभी क्षेत्रों में पुनर्जागरण लाने में प्रारंभ में इसी नई शिक्षापद्धति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।

परंतु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि इस प्रणाली में कोई कमियाँ थीं ही नहीं। नई शिक्षा-प्रणाली के अंतर्गत दी जाने वाली शिक्षा अत्यधिक पुस्तकीय एवं साहित्यिक थी। व्यावसायिक शिक्षा का विकास नहीं किया गया था। इस कारण यह शिक्षा-पद्धति छात्रों को केवल लिपि तथा अध्यापन व्यवसायों के लिए ही योग्य बनाती थी। शिक्षण माध्यम का अंग्रेजी भाषा होना तथा परीक्षाओं को अत्यधिक महत्त्व दिया जाना इसकी कुछ और त्रुटियां थीं।

हार्टोग शिक्षा समिति, 1929 -

1929 ई0 में सर फिलिप हार्टोग की अध्यक्षता में शिक्षा सम्बन्धी सुझाव देने के लिए एक समिति की स्थापना की गई जिसके प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे -

1. प्राथमिक शिक्षा का विस्तार किया जाय परन्तु इसमें जल्दबाजी न की जाय। शिक्षा के स्तर का ध्यान रखा जाय।

2. 8वीं कक्षा के बाद विद्यार्थियों को उनकी रूचि तथा योग्यता के अनुकूल व्यवसायिक शिक्षा संस्थानों में भेजा जाय। हाईस्कूल तथा उसके आगे की शिक्षा केवल योग्य और चुने हुये विद्यार्थियों को ही दी जाय।

3. विश्वविद्यालयीय शिक्षा भी योग्य व्यक्तियों तक सीमित की जाय।

इस आयोग का मत था कि विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तर विवेकहीन प्रवेशों के कारण ही गिर रहा था जिसे ऊँचा उठाने की आवश्यकता थी। माध्यमिक शिक्षा के विषय में हार्टोग आयोग का मत था कि मैट्रिक की परीक्षा पर अधिक जोर दिया जाता था तथा बढ़ी संख्या में विद्यार्थी इसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का माध्यम समझते थे। आयोग का सुझाव था कि ग्रामीण प्रवृत्ति के विद्यार्थियों को महाविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने से रोकना चाहिए। इसके स्थान पर उन्हें व्यावहारिक (व्यावसायिक) शिक्षा या औद्योगिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका अभिप्राय है कि ऐसे छात्रों को मिडिल तक की ही शिक्षा देनी चाहिए थी, उससे अधिक नहीं।

1922-1927 के काल में प्राथमिक शिक्षा का विस्तार तेज गति से हुआ। 1921-22 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 1,55,017 थी जो 1926-27 में बढ़कर 1,84,829 तक पहुँच गई। इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या 1922-27 में 61,09,752 थी और 1926-27 में 80,17,923 हो गई। लेकिन 1922 से 1927 के काल की तुलना में इसके बाद के काल में इस क्षेत्र में विकास की गति धीमी थी। यह आर्थिक मंदी तथा हार्टोग आयोग की रिपोर्ट एवं सुझाव के कारण हुई क्योंकि आयोग ने सुधार एवं सुदृढीकरण पर जोर दिया था, द्रुत विकास पर नहीं।

विभिन्न विश्वविद्यालयों में विभागों एवं संबद्ध महाविद्यालयों की संख्या जहॉं 1921-22 में 207 थी वहीं यह 1936-37 में 446 तक पहुँच गई। छात्रों की संख्या 66,258 से बढ़कर 1,26,228 हो गई। अनेक नए पाठ्यक्रम भी शुरू किए गए। इन 16 वर्षो में अंतविश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय खेलकूद तथा प्रतियोगिताओं के क्षेत्र में भी विकास हुआ। इंटरमीडिएट महाविद्यालयों की भी स्थापना की गई। ये नई शिक्षण संस्थाएॅं विशिष्ट उच्च विद्यालयों में दो कक्षाएँ जोड़कर बनाई गई थीं। विश्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में पांच और विश्वविद्यालय इस काल में खोले गए और पुराने विश्वविद्यालयों का लोकतंत्रीकरण किया गया। महाविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में भी भारी वृद्धि हुई। अध्ययन तथा शोध संबंधी नए-नए पाठ्यक्रमों की व्यवस्था, अन्तरमहाविद्यालयी तथा अन्तरविश्वविद्यालयी कार्यकलापों का विकास तथा छात्रों की शारीरिक शिक्षा, आवास तथा स्वास्थ्य की ओर अधिक ध्यान देने की ओर कदम उठाए गए। व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में भी इस काल में विकास हुआ। 1924 में भारतीय शिक्षा सेवा के लिए नियुक्तियाँ बंद कर दी गई और उसके स्थान पर प्रथम श्रेणी की नई प्रांतीय शिक्षा सेवा आरंभ की गई। एक प्रकार से संपूर्ण शिक्षा विभाग का भारतीयकरण कर दिया गया। 1936-37 तक एक प्रकार से मुसलमानों की शिक्षा तथा स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में भी इस काल में प्रगति हुई। गॉंधीजी के अस्पृश्यता निवारण के अभियान के कारण हरिजनों के बीच भी शिक्षा का प्रसार हुआ।

असहयोग आंदोलन,1920 के परिणामस्वरूप अनेक राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं को स्थापना हुई थी जिनका उल्लेख किए बिना शिक्षा का इतिहास अधूरा ही रह जाएगा। 1920-21 में अस्तित्व में आए विश्वविद्यालयों का उद्देश्य बहुमुखी था। गुजरात, काशी और बिहार के विद्यापीठों का उल्लेख इस संदर्भ में किया जा सकता है। 1912 ई0 में रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित ‘विश्व-भारती‘ अत्यंत विख्यात शिक्षण संस्था बन गई। सरकारी पद्धति से पृथक रहकर प्राचीन हिंदू अथवा मुसलिम शिक्षा के आदर्शों को पुनः जीवित करने वाली संस्थाओं में ‘गुरुकुल विश्वविद्यालय‘ का नाम लिया जा सकता है जिसकी स्थापना 1902 ई0 में हुई थी। इसने सरकारी अनुदान अस्वीकृत कर दिया था। 

भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अंतर्गत प्रान्तों में द्वैध शासन का अंत हो गया और संपूर्ण प्रान्तीय प्रशासन को एक मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इस प्रकार प्रान्तीय स्वशासन की स्थापना के कारण शिक्षा विभाग मंत्रियों के हाथों में पूर्ण रूप से आ गया। भारत सरकार के शैक्षिक क्रियाकलाप का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि 1937 से 1947 तक के काल में विश्वविद्यालयों की शिक्षा में भारी वृद्धि हुई। छात्रों की संख्या दस वर्षों में अत्यधिक बढ़ गई। यह प्रसार जनता में सामान्य रूप से जागृति के फैलने, माध्यमिक शिक्षा के प्रसार, पिछड़े हुए वर्गों व स्त्रियों द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा, समाज द्वारा शिक्षा के लिए उदार अनुदान, युद्ध के कारण प्रशिक्षित कर्मचारियों की अधिक आवश्यकता और सरकार द्वारा शिक्षा के लिए अधिक अनुदान देने के कारण हुआ।

सार्जेण्ट शिक्षा योजना, 1944-

1944 ई0 में भारतीय शिक्षा विभाग के सचिव सर जॉन सार्जेण्ट के नेतृत्व में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल ने एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार की जिसे सार्जेण्ट योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना के अन्तर्गत दो मुख्य सुझाव दिये गये -

1. स्कूल की दो श्रेणियॉं हो। 6 से 11 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए जूनियर स्कूल हो। इस आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दी जाय। 11 से 17 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए साहित्यिक शिक्षा और व्यवसायिक शिक्षा हेतु अलग-अलग सीनियर स्कूल हो।

2. इण्टरमीडिएट शिक्षा समाप्त की जाय। सीनियर स्कूल की शिक्षा में एक वर्ष की वृद्धि की जाय और एक वर्ष की वृद्धि कॉलेज की शिक्षा में की जाय।

इसके अनुसार विश्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में अभी और विस्तार किए जाने की आवश्यकता थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण बहुत से प्रतिभाशाली लड़के विश्वविद्यालय में शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते थे। छात्रवृत्तियॉं भी अपर्याप्त थीं। इसके अतिरिक्त जो छात्र फीस दे सकते थे वे अयोग्य होने पर भी कला महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लेते थे। यद्यपि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई, तथापि वैज्ञानिक, तकनीकी, कृषि अथवा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई। विश्वविद्यालयी शिक्षा का यह एक गंभीर दोष था। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में यद्यपि छात्रों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई थी, फिर भी इसके पहले के काल की तुलना में इस क्षेत्र में विशेष वृद्धि नहीं हुई। विश्वविद्यालयों के छात्रों को संख्या इन दस वर्षों में दुगुनी हो गई थी परंतु ऐसा माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में नहीं हुआ। इस काल में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में मातृभाषा शिक्षा का माध्यम बन चुकी थी। बहुत से विषय जिन्हें पहले मातृभाषा में नहीं पढ़ाया जा सका था, अब मातृभाषा में पढ़ाए जा रहे थे। 1937 से 1947 के मध्य माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की ओर भी कदम उठाए गए। 

गॉंधीजी की बुनियादी शिक्षा -

प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में इस काल की सबसे महत्वपूर्ण योजना महात्मा गॉंधी की ‘बुनियादी शिक्षा‘ की योजना थी। गॉंधीजी ने इस संबंध में अपने विचारों को ‘हरिजन‘ समाचारपत्र के माध्यम से जनता तक पहुँचाया और वर्धा में शिक्षा से संबंधित एक सम्मेलन भी बुलाया। डॉ० जाकिर हुसैन समिति ने इस योजना का ब्यौरा तैयार किया तथा कई शिल्पों के लिए पाठ्यक्रम भी तैयार किए गए। इस योजना का मूलभूत सिद्धांत बालकों को उपयुक्त ढंग के उत्पादक कार्यों के माध्यम से शिक्षित करने का था। इस योजना के अंतर्गत छात्रों के ‘संपूर्ण व्यक्तित्व की साक्षरता‘ का ध्येय था । इसमें शिक्षकों के वेतन का भी प्रबंध था। इस योजना के अंतर्गत विद्यार्थियों को 7 वर्ष तक के बाद  विद्याध्ययन करना था। शारीरिक काम के प्रति आदर की भावना भी इस प्रणाली में निहित थी ।

महात्मा गॉंधी का विश्वास था कि बुनियादी शिक्षा प्रणाली प्रचलित शिक्षा प्रणाली के दोषों को ही मात्र दूर करने में सफल नहीं होगी बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्ति लाने के साथ-साथ सामाजिक क्रांति का भी मार्ग प्रशस्त करेगी। यह आशा की गई थी कि बुनियादी शिक्षा ग्राम तथा शहर के मध्य स्वस्थ संबंध आधार तैयार करेगी और विभिन्न वर्गों के बीच जो भेद-भाव थे या जो तनाव थे, उन्हें भी सुधारने में सहायता मिलेगी। इसी प्रणाली के माध्यम से संभवतः गाँवों की व्यावसायिक अवनति को रोकना संभव हो सकेगा। इससे कालान्तर में ऐसी सामाजिक व्यवस्था कायम होगी जिसमें निर्धनों तथा घनिकों के बीच में कोई अप्राकृतिक विभाजन नहीं होगा और साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए पर्याप्त मजदूरी प्राप्त हो सकेगी।

इस वर्धा बुनियादी शिक्षा योजना को उन प्रांतों में लागू किया गया जहाँ पर कांग्रेस मंत्रिमंडल सत्तारूढ़ थी। बुनियादी स्कूलों के अध्यापकों के लिए स्कूल खोले गए। विशेष अधिकारियों और बुनियादी शिक्षा बोर्डों की नियुक्ति भी की गई। प्रथम दो वर्षो में बड़ी गति से काम हुआ। अक्टूबर, 1938 तक 247 बेसिक स्कूलों तथा 18 प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना हो चुकी थी। ये काश्मीर, दिल्ली, यू०पी०, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रांत, बंबई, और मैसूर राज्य में कार्य कर रहे थे परंतु द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभ होने तथा कांग्रेस मंत्रिमण्डलों के त्यागपत्र देने के कारण इस योजना पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। 1942 के ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन के आरंभ होने से इन स्कूलों का कार्य लगभग ठप्प हो गया। राष्ट्रीय नेताओं के जेल में होने के कारण बुनियादी संस्थाओं को बंद कर देना पड़ा। गॉंधीजी की रिहाई के बाद बुनियादी शिक्षा का कार्य फिर से आरंभ हो गया। गॉंधीजी ने इस विषय पर जेल में विचार किया था और उनके समक्ष इस योजना का एक नया रूप आया जिससे बुनियादी शिक्षा के क्षेत्र में एक नए अध्याय का आरंभ हुआ।

1945 ई0 में सेवाग्राम में ‘अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में बुनियादी शिक्षा के नए पहलू पर विचार-विमर्श हुआ। 1945 ई0 में विश्व युद्ध के समाप्त होने तथा 1946 में कांग्रेस मंत्रिमण्डलों के पुनः सत्तारूढ़ होने पर बुनियादी शिक्षा को फिर से प्रोत्साहन मिला। उन सभी प्रान्तों में जहॉं कांग्रेस मंत्रिमण्डल थे, बुनियादी शिक्षा योजना को सरकारी संरक्षण प्राप्त हुआ। श्री बी० जी० खेर ने बुनियादी शिक्षा के भविष्य पर विचार करने के लिए एक सम्मेलन बुलाया। सम्मेलन में यह विचार किया गया कि बुनियादी शिक्षा प्रयोगात्मक चरण पूरा कर चुकी है। अतः प्रान्तीय सरकारों से निवेदन किया गया कि वे इस प्रणाली को प्रान्तीय स्तर पर कार्यान्वित करें। बुनियादी शिक्षा की योजना को अब शैक्षणिक पुनर्निर्माण का एक अभिन्न अंग मानकर कांग्रेस की विभिन्न प्रान्तीय सरकारों ने कार्यान्वित करना आरंभ कर दिया।

कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने भारतीय भाषाओं को महत्व दिया। उन्होंने भारतीय भाषाओं में अच्छी पाठ्यपुस्तकों के प्रकाशन, परिभाषिक शब्दों की वृद्धि और इन भाषाओं के माध्यम से अध्यापकों के प्रशिक्षण का कार्य भी आरंभ किया। 1948 ई0 तक लगभग संपूर्ण भारत में भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप अपना लिया गया। कांग्रेस ने राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के विकास के लिए दीर्घकालीन योजना भी बनाई। इन योजनाओं की विशेषता यह थी कि ये मातृभाषा के माध्यम तथा तकनीकी प्रशिक्षण और शारीरिक शिक्षण को आवश्यक महत्व देती थीं। तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा को महत्त्व देकर कांग्रेस ने ब्रिटिश शिक्षा-पद्धति की मुख्य त्रुटि (उसका मुख्यतः पुस्तकीय होना) को दूर करने का प्रयास किया।

राधाकृष्णन आयोग, 1948-49 :

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार ने डॉ0 राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा सम्बन्धी सुझाव देने के लिए एक कमीशन की नियुक्ति की। 1949 ई0 में इस कमीशन ने अपने निम्नलिखित सुझाव दिये-

1. माध्यमिक शिक्षा 12 वर्ष की हो।

2. परीक्षा के दिनों को पृथक करके विश्वविद्यालयों में कम से कम 180 दिन शिक्षा के लिए होने चाहिए। ये 180 दिन तीन सत्रों में विभक्त हों और प्रत्येक सत्र (ज्मतउ) 11 सप्ताह का हो।

3. उच्च शिक्षा की तीन श्रेणियाँ हों - सामान्य शिक्षा (General Education), उदार शिक्षा (Liberal Education) और व्यावसायिक शिक्षा (Occupational Education)। कृषि, इंजीनियरिंग, चिकित्सा, कानून, कॉमर्स (Commerce) आदि की शिक्षा को अधिक महत्व दिया जाना चाहिए।

4. प्रशासकीय सेवाओं के लिए स्नातक डिग्री अनिवार्य न मानी जाय।

5. स्नातक डिग्री की शिक्षा तीन वर्ष की हो। उसकी परीक्षा अन्तिम में ही न हो बल्कि उसे प्रत्येक वर्ष की परीक्षा में विभाजित कर देना चाहिए।

6. शिक्षा के स्तर में वृद्धि की जानी चाहिए और उसे समवर्ती सूची में सम्मिलित कर लेना चाहिए।

7. अध्यापकों के वेतन में वृद्धि की जानी चाहिए।

8. शिक्षा-व्यवस्था की देखभाल के लिए एक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission) की स्थापना की जानी चाहिए।

इस रिपोर्ट के आधार पर 1953 ई0 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की स्थापना की गयी और 1953 ई0 में पार्लियामेण्ट के एक कानून के द्वारा उसे एक स्वतन्त्र संस्था का रूप प्रदान किया गया। विश्वविद्यालयीय शिक्षा अब इसी आयोग की देखरेख में है।

अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव -

औपनिवेशिक काल में भारत में शिक्षा के विकास के इतिहास की विवेचना करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत के सभी प्रांतों में शिक्षा के क्षेत्र में एक जैसी प्रगति नहीं हुई। अन्य प्रांतों की तुलना में बंबई, बंगाल तथा मद्रास प्रेसिडेंसियों में अधिक प्रगति हुई परंतु इन तीनों प्रेसिडेंसियों में भी सभी जिलों, वर्गों एवं जातियों में शिक्षा का विकास एक जैसा नहीं हुआ। कायस्थों तथा ब्राह्मणों में शिक्षा की परंपरा प्रारंभ से ही थी और उन्होंने ही नई शिक्षा को सबसे पहले अपनाया था। उच्च शिक्षा प्राप्त पुरुषों की संख्या महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक थी। गाँव की अपेक्षा शहर के मध्य वर्ग में प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा अधिक लोकप्रिय थी। अमीर वर्ग एवं गरीब वर्ग इसके प्रति निरपेक्ष भाव रखते थे। गरीबी के कारण वे शिक्षा के प्रति उदासीन थे। गरीब वर्ग के लोग छोटी आयु से ही अपने बच्चों को काम में लगा देते थे। न तो वे स्कूल की फीस दे सकते थे और न अपने बच्चों को स्कूल भेज कर अपने काम और आय का नुकसान ही करा सकते थे। इस वर्ग का शिक्षा में पिछड़े रहने का यही महत्त्वपूर्ण कारण था।

अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा का प्रभाव भारत पर लाभ और हानि दोनों ही रूपों में पड़ा। लाभ की दृष्टि से इसने भारतीयों के ज्ञान में वृद्धि की, विदेशों में उपलब्ध सभी प्रकार के ज्ञान से भारतीयों को परिचित कराया, भारतीयों में अपने समाज और धर्म में सुधार करने की भावना उत्पन्न की जिसका प्रमाण 19वीं सदी में हुए सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन थे, मध्यम-वर्ग और उसी में से एक ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग का जन्म हुआ जिसने राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक आदि जीवन के सभी क्षेत्रों में भारतीयों को नेतृत्व प्रदान किया तथा भारत के आधुनिकीकरण में सहायता प्रदान की। परन्तु इसके हानिकारक परिणाम भी हुए हैं। प्रारम्भ में और अब स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत में ऐसी पीढ़ियों का निर्माण हुआ जो पश्चिमी सभ्यता से गम्भीरता से प्रभावित होकर अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं को भुला बैठीं। आरम्भिक काल में तो पाश्चात्यीकरण की लहर को रोकने में भारतीय समर्थ हुए थे परन्तु स्वतन्त्रता के पश्चात् आरम्भ हुई इस पाश्चात्यीकरण की ओर हुई घुड़दौड़ को रोके जाने की न तो भारतीयों में इच्छा है और न क्षमता जिसके कारण भारतीय पाश्चात्य सभ्यता के गुलाम होते जा रहे हैं और उनमें से अनेक ऐसे हैं जो भारत की अक्षमता को समझकर विदेशों में जाकर बस रहे हैं। इससे भारत की बौद्धिक क्षमता नष्ट हो रही है। अन्धे होकर पाश्चात्य सभ्यता की नकल करने से भारतीयों का सांस्कृतिक पतन हो रहा है। इसने भारत में एक ऐसे वर्ग को भी जन्म दिया है जो जनसाधारण से अपने को पृथक मानता है और जिसका न भारतीय जन-मानस से कोई सम्पर्क है और न बौद्धिक और भावनात्मक एकता से। इससे एक बड़ी हानि यह भी हुई कि इसने स्वतन्त्रता से पूर्व ही हिन्दू और मुसलमानों में साम्प्रदायिकता की भावना को बढ़ावा दिया। वस्तुतः भारत-विभाजन का एक मुख्य कारण हिन्दू और मुसलमानों के शिक्षित मध्यम वर्ग के पारस्परिक स्वार्थों की टकराहट भी था।

परंतु यह बात भी उल्लेखनीय है कि जैसे-जैसे पश्चिमीकरण पर जोर कम होता गया और पाश्चात्य व भारतीय संस्कृति का संश्लेषण होने लगा, नई शिक्षा पद्धति के ये दोषपूर्ण परिणाम व सांस्कृतिक अव्यवस्थाएँ कम होने लगीं। भारतीय अच्छे बुरे का भेद समझने लगे और पश्चिम के नवीन विचारों को ग्रहण करते हुए पूर्व के अच्छे तत्त्वों को सुरक्षित रखने का प्रयास करने लगे। ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, स्वामी विवेकानंद, जस्टिस एम०जी० रानाडे, मदन मोहन मालवीय, दादाभाई नौरोजी, सर सैयद अहमद खाँ जैसे व्यक्तियों ने इन दोनों संस्कृतियों के संश्लेषण को स्पष्ट किया और भारतीय राष्ट्रीय जीवन को नवीन नेतृत्व प्रदान किया। इस प्रकार आँख मूंदकर पश्चिम की नकल करने की अंघ प्रतिक्रिया चिरस्थायी नहीं थी।

आधुनिक शिक्षा और राष्ट्रवाद-

इस सम्बन्ध में एक अन्य प्रश्न यह भी है कि क्या अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य शिक्षा के अभाव में भारत में राष्ट्रीय भावना का निर्माण और राष्ट्रीय आन्दोलन सम्भव था ? विभिन्न विद्वानों और मुख्यतः यूरोपियनों ने यह विचार प्रस्तुत किया है कि अंग्रेजी शिक्षा ने ही भारतीयों को पाश्चात्य विचारों, यथा राष्ट्र, राष्ट्रीयता, जनतन्त्र, स्वतन्त्रता, समानता आदि विचारों से परिचित कराया, विदेशों से सम्पर्क कराया, विभिन्न प्रान्तों के शिक्षित भारतीयों को विचारों के आदान-प्रदान की सुविधा प्रदान की, संगठन का मार्ग बताया तथा राजनीतिक संगठन बनाने की प्रेरणा दी। इसी कारण भारत में राष्ट्रीयता की भावना की उत्पत्ति और राष्ट्रीय आन्दोलन सम्भव हुआ। परन्तु यह विचार आंशिक रूप से ही सत्य है। आरंभिक राजनीतिक व आर्थिक राष्ट्रवाद पर विदेशी शिक्षा का प्रभाव काफी हद तक दिखाई देता है। गैर-राजनीतिक राष्ट्रवादी सिद्धांतों पर भी विदेशी प्रभाव था। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक सांस्कृतिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हुई क्योंकि भारतीय संस्थाएँ, रीतिरिवाज और आचार व्यवहार पश्चिमी यूरोप की परिस्थितियों, संस्थाओं, जीवन-मानदंडों से पूर्णतः भिन्न थे। हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद इस संघर्ष के परिणामस्वरूप उदित हुआ। यूरोपीय ढंग से शिक्षित भारतीयों ने ब्रिटिश राज्य से संघर्ष करने का पुराना ढंग त्याग दिया। उन्होंने समाचारपत्र चलाए, सार्वजनिक सभाएँ की, दबाव गुटों को संगठित किया और पश्चिमी ढंग पर राष्ट्रीय संस्थाओं तथा राजनीतिक संगठनों की स्थापना की। शिक्षण संस्थाओं, समाचारपत्रों आदि पर उनका ही नियंत्रण एवं प्रभाव था। निस्सन्देह, भारतीयों ने अंग्रेजी शिक्षा से उपर्युक्त सभी कुछ प्राप्त किया परन्तु यदि अंग्रेजी शिक्षा भारत में न भी दी गयी होती तब भी भारत में राष्ट्रीय आन्दोलन होता। अनेक अन्य राज्यों जैसे चीन, ईरान आदि देशों के राष्ट्रीय आन्दोलन इसके प्रमाण हैं। गोपाल कृष्ण गोखले के अनुसार- ‘‘जनशिक्षा की उपेक्षा से यह स्पष्ट है कि भारत के नए शासक इस देश के सामाजिक उत्थान के लिए यहाँ नहीं आए थे। अँग्रेजी को इतना अधिक महत्त्व देने का कारण यह था कि वे स्वभावतः यह चाहते थे कि शासन में कम खर्च हो। हर क्लर्क और छोटे सरकारी अफसर को इंग्लैंड से बुलाना पड़े इससे तो यह आसान और बेहतर होगा कि यहीं निम्न श्रेणी के अफसरों का वर्ग तैयार किया जाए।... इस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य था मध्यवर्गीय भारतीय नौजवानों पर ब्रिटेन के गौरव व समृद्धि की छाप डालना और उन्हें विदेशी अफसरशाही के सुयोग्य नौकर बनाना ।‘‘ शिक्षित भारतीय नवयुवक स्वयं को अधिक महत्त्वाकांक्षी, योग्य व उच्च समझता था और वह अपने विचारों को व्यक्त करने की क्षमता रखता था। इसलिए वह अन्य अशिक्षित देशवासियों से स्वयं को भिन्न समझता था।

आधुनिक शिक्षा का अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण प्रभाव यह हुआ कि इससे हिंदू व मुसलमानों के बीच वैमनस्य बढ़ा। मुस्लिम वर्ग के बहुत सीमित अंश ने आधुनिक अँग्रेजी शिक्षा प्राप्त की और वह राजनीति के प्रति उदासीन रहा। उदार राष्ट्रवाद से बहुत कम मुसलमान प्रेरित हुए। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण था उनमें शिक्षा का अभाव। अतः प्रारंभिक मुसलिम नेताओं ने अपने सहधर्मियों के पिछड़ेपन को समाप्त करने की समस्या पर ही अधिक ध्यान दिया। राष्ट्रीय हित के संबंध में प्रारंभिक मुसलिम नेता इतने सचेत नहीं थे जितने अपने सहधर्मियों की प्रगति के प्रति। हिंदुओं की बड़ी संख्या ने आधुनिक शिक्षा प्राप्त की और सरकारी सेवाओं या अन्य व्यवसायों को बड़ी संख्या में प्राप्त किया जिससे मुसलिम वर्ग में असंतोष बढ़ा। इस प्रकार का वातावरण राष्ट्रीय आंदोलन के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ।

अँग्रेजी भाषा ने हिंदुओं व मुसलमानों के बीच दरार तो बढ़ाई परंतु दूसरी तरफ विभिन्न हिंदू जातियों में समानता व एकता लाने में मदद भी की। वह एक ऐसा माध्यम बन गई जिससे विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले, भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोग एक-दूसरे के निकट आ गए। इस समय किसी एक ऐसे तत्त्व की आवश्यकता थी जिसके द्वारा विभिन्न प्रांतों और क्षेत्रों के व्यक्ति, जो भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते थे, जिनमें सामूहिक राजनीतिक उद्देश्य नहीं थे, एक-दूसरे के निकट आकर एकताबद्ध हो सकें। अंग्रेजी भाषा ने देश भर में शिक्षित भारतीयों के बीच संचारण-संप्रेषण और राष्ट्रीय स्तर पर, विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम के रूप में कार्य किया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक अधिवेशनों और सम्मेलनों ने अंग्रेजी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीयता के प्रचार में बहुमूल्य योगदान दिया परन्तु केवल अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त व्यक्ति ही इसका लाभ उठा सकते थे जिनकी सख्या अत्यंत सीमित थी।

वस्तुतः भारतीय राष्ट्रवाद के जन्म का कारण अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत उत्पन्न हुई विभिन्न सामाजिक एवं भौतिक परिस्थितियाँ थीं। भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म उस विशेष परिस्थितियों के कारण हुआ जिसका वातावरण ब्रिटिश शासनकाल में पनपा था। भारतीयों को अपने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पिछडेपन का आभास हुआ और उन्होने ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध आवाज उठाई। यदि भारत में शिक्षा का विस्तार न भी किया जाता तो भी भारतीय जनता अपने शोषण को समझने और उसके विरूद्ध आवाज उठाने में सफल होती। जब हम देखते हैं कि 1930 तक भारत की केवल 2 प्रतिशत जनता ही अंगेजी भाषा की शिक्षा प्राप्त कर सकी थी। क्या राष्ट्रवाद की सफलता इन सीमित लोगों की ही देन थी ? यह स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं होगा। 
देश के राजनीतिक जीवन को नवीन शिक्षा ने प्रभावित किया था, इसमें संदेह नहीं है परन्तु यह शिक्षित वर्ग अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए भी तत्पर था। वह अंग्रेजी शासन के वरदानों को और उनके अच्छे कार्यों को तो स्वीकार करता था, परंतु देश की बढ़ती हुई निर्धनता और आर्थिक शोषण के कारण भी जानता था। अतः उसने अंग्रेजों के दुर्व्यवहार, अहंकार और रूखेपन, सभी उच्च पदों पर उनके एकाधिकार, देश की संपत्ति को देश से बाहर ले जाने, लोगों की बढ़ती हुई निर्धनता, राष्ट्र के औद्योगिक साधनों के पिछड़ेपन एवं प्राथमिक व उच्च शिक्षा की धीमी गति के विरुद्ध आवाज उठाई। बिपिनचंद्र पाल के अनुसार - ‘‘भारत का राष्ट्रीय आंदोलन साम्राज्यवाद और इसके शोषण व्यवस्था से पैदा हुआ है। शिक्षा व्यवस्था चाहे जो भी रहती, भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग का उदय और ब्रिटिश प्रभुत्व के खिलाफ इसकी बढ़ती हुई प्रतिद्वंद्विता अवश्यंभावी थी। अगर भारतीय शिक्षित मध्यम वर्ग को दूसरी सारी विचारधाराओं से अलग संस्कृत में लिखे गए वेदों की ही शिक्षा मिलती रहती तो उन्हें वहीं अपने संघर्षं के सिद्धांत और नारे मिल जाते।‘‘
यदि राष्ट्रीय आन्दोलन केवल अँग्रेजी शिक्षित व्यक्तियों तक सीमित रहता तो वह कभी जन आंदोलन नहीं बन सकता था। अंग्रेजी शिक्षा का योगदान केवल परोक्ष रूप में था, क्योंकि इसने भारतीयों को पाश्चात्य राजनीतिक जीवन का ज्ञान दिया और संघर्ष का मार्ग दिखाया। अंग्रेजों द्वारा भारत का आर्थिक शोषण, भारतीयों की बढ़ती हुई निर्धनता, नवीन सामाजिक वर्गों का उदय और भारतीयों का यह विश्वास कि अंग्रेजी शासन के अन्तर्गत उनका विकास जीवन के किसी भी क्षेत्र में सम्भव नहीं है, भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय आन्दोलन के मूल कारण थे। 

1 Comments

  1. Thank you so much my guruji 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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