window.location = "http://www.yoururl.com"; Development of Education during 1854-1913 | 1854-1913 के मध्य शिक्षा का विकास

Development of Education during 1854-1913 | 1854-1913 के मध्य शिक्षा का विकास

 


चार्ल्स वुड का घोषणापत्र, 1854 : 

भारत में आधुनिक शिक्षा के इतिहास का प्रथम चरण 1854 में ‘वुड डिस्पैच‘ के साथ समाप्त हो जाता है। 1853 तक शिक्षा के क्षेत्र में विशद सर्वेक्षण की आवश्यकता स्पष्ट हो गई थी। 1853 में चार्टर के नवीनीकरण के अवसर पर एक संसदीय समिति नियुक्त की गई। समिति के सुझावों के आधार पर 19 जुलाई 1854 को कंपनी के संचालकों ने अपनी शिक्षा नीति की घोषणा की। बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल के प्रधान चार्ल्स वुड के नाम पर यह आदेशपत्र ’वुड का घोषणापत्र’ कहा गया। यह 100 अनुच्छेदों का एक लम्बा अभिलेख था जिसमें शिक्षा के उद्देश्य, माध्यम, सुधारों आदि की योजनाओं पर विस्तारपूर्वक विचार किया गया था। इसे ‘‘भारतीय शिक्षा में मैग्नाकार्टा‘‘ के रूप में जाना जाता है क्योंकि इसने सरकार के लिए कुछ उच्चस्तरीय कार्य निर्धारित किये। हालॉंकि भारतीय आलोचकों ने बाद में इसके कार्यान्वयन को नाकाफी कहा।

इस डिस्पैच में शिक्षा के सम्बन्ध में तीन उद्देश्य बताये गये थे -

1. पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार।

2. जन प्रशासन के लिए सुप्रशिक्षित जनसेवक तैयार करना और

3. भारतीय राजा को प्रजा के प्रति अपना कर्तव्य निभाने की योग्यता प्रदान करना।

शिक्षा के माध्यम के बारे में डिस्पैच का निर्णय था कि -

1. कॉलेज स्तर पर शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग हो।

2. माध्यमिक शिक्षा अंग्रेजी और भारतीय दोनों भाषाओं के माध्यम से दी जानी चाहिए।

3. आधुनिक भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देना चाहिए जिससे कालान्तर में उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रयुक्त हो सके।

पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में लार्ड मैकाले के विचारों का समर्थन करते हुये इस घोषणापत्र में कहा गया कि- प्राच्य देशों की उच्च शिक्षा अर्थात विज्ञान एवं दर्शनशास्त्र की पद्धति में भारी त्रुटियॉं है और आधुनिक खोजों एवं सुधार का प्राच्य साहित्य में भारी अभाव है। हम भारत में ऐसी शिक्षा का विस्तार करना चाहते है जिसका लक्ष्य युरोप की कला, विज्ञान, दर्शनशास्त्र एवं साहित्य का प्रसार करना है। परन्तु देशी भाषाओं में पुस्तकों का अभाव होने के कारण अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाना आवश्यक बताया गया। अंग्रेजी द्वारा पाश्चात्य शिक्षा एवं विज्ञान की शिक्षा दी जाय और अन्य व्यक्तियों को भारतीय भाषाओं में शिक्षा दी जाय।

इन तीन पुराने मुद्दों पर विचार करने के बाद घोषणापत्र में वे नवीन योजनाएँ बताई गईं जिन्हें प्रारंभ करना था। प्रथम योजना में पाँच प्रांतों अर्थात् बंगाल, मद्रास, बंबई, उत्तर पश्चिम सीमाप्रांत और पंजाब में एक-एक लोक शिक्षा विभाग की स्थापना का प्रस्ताव था जिसका प्रधान लोक शिक्षा निदेशक ¼Director of Public Instruction½ होगा। वह प्रांत की शिक्षा-प्रगति के संबंध में वार्षिक प्रतिवेदन सरकार को भेजेगा।

दूसरी योजना विश्वविद्यालयों की स्थापना से संबंधित थी। सर्वप्रथम कलकत्ता एवं बंबई और आगे चलकर मद्रास तथा अन्य स्थानों में विश्वविद्यालयों की स्थापना का प्रस्ताव रखा गया। ये विश्वविद्यालय लंदन विश्वविद्यालय के नमूने, पर स्थापित किए जाने थे जिनका मुख्य कार्य परीक्षाएँ लेना और उपाधियां देना था। प्रत्येक विश्वविद्यालय में कुलपति, उपकुलपति तथा फ़ेलो होंगे जो सरकार द्वारा मनोनीत होंगे। इन सबको मिलाकर “सीनेट“ बनाई जाएगी जो विश्वविद्यालय के लिए नियमों का निर्माण और उसका प्रबंध करेगी।

इसके बाद घोषणापत्र में श्रेणीबद्ध विद्यालयों के जाल की व्याख्या की गई जो सम्पूर्ण भारत में बिछाया जाएगा। क्रमबद्ध विद्यालयों ¼graded schools½ जो संपूर्ण की योजना में सबसे नीचे प्राथमिक विद्यालय, उनसे ऊपर मिडिल स्कूल, हाईस्कूल, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय होंगे।

इस घोषणापत्र में ’अधोमुखी निस्यंदन सिद्धांत’ के अनुसरण पर असंतोष प्रकट किया गया क्योंकि उसके परिणामस्वरूप “सरकार के प्रयास पूर्ण रूप से उन बहुत थोड़े से मूलनिवासियों को अत्यंत ऊँची शिक्षा देने के साधन जुटाने तक ही सीमित जो अधिकांशतः उच्च वर्गों के होते थे।“ घोषणापत्र में कहा गया, “अब हमारा ध्यान इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर जाना चाहिए जिसकी अभी तक अवहेलना की गई है, अर्थात् जीवन के सभी अंगों के लिए लाभदायक और व्यावहारिक शिक्षा उस विशाल जन समूह को किस प्रकार दी जाए, जो किसी सहायता के बिना स्वयं लाभदायक शिक्षा पाने में पूर्णतः असमर्थ हैं।“ घोषणापत्र में कहा गया कि योग्य विद्यार्थियों को सभी स्तरों पर छात्रवृत्तियाँ दी जाएँ। देशी विद्यालयों को प्रोत्साहन देने के लिए थॉमसन योजना का विस्तार करने पर बल दिया गया।

कुल मिलाकर वुड घोषणापत्र में तीन बातों को महत्व दिया गया- (1) अधोमुखी निस्पंदन सिद्धांत को अस्वीकार करना; (2) माध्यमिक शिक्षा स्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाना; और (3) देशी विद्यालयों को राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति का आधार माना जाना। परंतु जनक्षिक्षा प्रसार की योजना के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता थी अतः घोषणापत्र में सहायता अनुदान ¼grant-in-aid½  का सुझाव दिया गया। प्रांतीय सरकारें, इंग्लैण्ड की सहायता अनुदान प्रणाली को अपनाएँ और शिक्षकों के वेतन, छात्रवृत्तियों, पुस्तकालयों, वाचनालयों, प्रयोगशालाओं, विज्ञान तथा कला कक्षाओं, भवन-निर्माण आदि के लिए अलग-अलग अनुदान की व्यवस्था करें। इस नीति से मिशनरियों के शिक्षा कार्य को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला।

अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए प्रत्येक प्रांत में प्रशिक्षण विद्यालयों के निर्माण का सुझाव रखा गया। छात्र-प्राध्यापकों को छात्रवृत्तियाँ तथा शिक्षकों को अधिक वेतन देकर शिक्षा-विभाग को समान रूप से आकर्षक बनाया जाए। स्त्री-शिक्षा के विद्यालयों को सहायता अनुदान देने की नीति पर बल दिया गया। यह सिफ़ारिश की गई कि व्यावसायिक शिक्षा के विस्तार के लिए स्कूल व कॉलेज खोले जाएँ, पाश्चात्य साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में कराया जाए और देशी भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत किया जाए। शिक्षित व्यक्तियों को सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता दी जाए जिससे शिक्षा का प्रसार होगा।

वुड के घोषणापत्र में भारतीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों की व्याख्या की गई और भविष्य के लिए शिक्षा-नीति निर्धारित की गई। फिर भी 1854 के घोषणा- पत्र को “भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा” (महाधिकारपत्र) कहना अनुचित है।

इसमें व्यापक साक्षरता के आदर्श को स्वीकार नहीं किया गया था। इसने विभिन्न वर्गों की शिक्षा में अंतर करने वाले परंपरागत “विक्टोरियाई आदर्श“ पर बल दिया। अतः शिक्षा प्राप्त करने के समान अवसर नहीं प्रदान किए गए। सर फिलिप हार्टोग के अनुसार वुड का घोषणापत्र “भारत के कल्याण के लिए ’बुद्धिमत्ता का विकास करने वाली नीति का निर्धारक था।“ इस मत का खंडन करते हुए परांजपे लिखते हैंः “घोषणापत्र का उद्देश्य ऐसी शिक्षा देना नहीं था जो नेतृत्व करना सिखाए, भारत का औद्योगिक विकास करे, मातृभूमि की रक्षा करना सिखाए अर्थात् जो किसी स्वतंत्र राष्ट्र के निवासियों के लिए अपेक्षित हो। 1884 ई0 में इस घोषणापत्र का जो भी महत्त्व रहा हो, 1941 ई0 में इसे एक शैक्षिक चार्टर कहना हास्यास्पद होगा।“

चार्ल्स वुड का घोषणापत्र भारत के कल्याण से प्रेरित नहीं था। इसने भारत को ब्रिटिश उद्योगों के लिए कच्चे माल का आपूर्तिकर्ता तथा इंग्लैंड के तैयार माल के उपभोक्ता के रूप में माना। अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त भारतीय ब्रिटिश माल के उपभोक्ता बनेंगे और सरकारी नौकरियाँ देकर उनकी स्वामिभक्ति प्राप्त हो जाएगी। बुड का घोषणापत्र इन्हीं उद्देश्यों से प्रेरित था।

1854 ई0 के बाद के काल में इस शिक्षा नीति का परिणाम स्पष्ट रूप में दृष्टिगोचर होने लगा। पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भारतीय, जिनसे आरंभ में ब्रिटिश सरकार समर्थन एवं सहयोग की आशा रखती थी, 19वीं शताब्दी में सरकार के लिए एक समस्या बन गए। शिक्षित भारतीयों ने ही समाचारपत्र शुरू किए और उनके माध्यम से सरकार की नीतियों की आलोचना की। राष्ट्रीय जागरण का कार्य भी इन्होंने अपने ऊपर लिया और राजनीति में सक्रिय भाग लिया। जनमत को प्रभावित करने, जनता का नेतृत्व करने तथा अंग्रेजों के साधन प्रेस को अंग्रेजों की ही भाँति इस्तेमाल करके उन्होंने राष्ट्रीय जागरण में महत्त्वपूर्ण योगदान किया।

1854 ई0 से शिक्षा के क्षेत्र में अगला चरण प्रारंभ होता है जो 1900 तक चलता है। इन वर्षों में शिक्षा-पद्धति का पाश्चात्यीकरण बड़ी तीव्र गति से हुआ, परंतु उसके अभिकरण भारतीय ही रहे। वुड के शिक्षा-घोषणापत्र के सुझावों को इस काल में व्यावहारिक रूप दिया गया। 1858 में लंदन विश्वविद्यालय के आधार पर तीनों प्रेसिडेंसियों - कलकत्ता, मद्रास तथा बंबई में विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। कलकत्ता विश्वविद्यालय के अधीन वर्मा समेत उत्तरी भारत के क्षेत्र आते थे। मद्रास तथा बंबई विश्वविद्यालयों का क्षेत्र अपने-अपने प्रांतों तक सीमित था। बाद में इलाहाबाद तथा लाहौर में भी विश्वविद्यालय खोले गये। प्रत्येक प्रांत में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई तथा काफ़ी शिक्षण संस्थाओं का संचालन शिक्षा विभाग के नियंत्रण में आ गया। 1854 से प्राइमरी शिक्षा के बजाय माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया। इसलिए माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में द्रुत गति से विकास हुआ। ग़ैर-सरकारी उद्यम (भारतीय) इस विकास के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी था। कुछ प्रांतों में धन की कमी के कारण शिक्षा-कर लगाए गए तथा निजी एवं ग़ैर-सरकारी प्रयत्नों को प्रोत्साहित किया गया जिससे धन की कमी को दूर किया जा सके परन्तु प्राइमरी शिक्षा के क्षेत्र में विकास नहीं हुआ और वह पिछड़ी रह गई। इस पिछड़ेपन के अनेक कारण थे। 1895 ई0 में भारत सचिव ने अनुदान केवल उच्च तथा माध्यमिक शिक्षा के लिए ही निर्धारित किया था। इसके अतिरिक्त छोटे शहरों तथा गाँवों में छोटी आयु से ही श्रमिक तथा कृषक अपने बच्चों को काम में लगा लेते थे। इसके अतिरिक्त अक्षरज्ञान को ही लोग पर्याप्त समझते थे।

1870 ई0 के बाद भारतीय सिविल सेवा (आई० सी० एस०) की परीक्षा में शिक्षित भारतीय भी उत्तीर्ण हुए थे। अंग्रेजी राज के हित में अँग्रेजों ने इसे खतरनाक माना। फलतः ब्रिटिश सरकार ने इस परीक्षा में बैठने की आयु घटा दी और अब उच्च शिक्षा की अपेक्षा प्राथमिक शिक्षा को अधिक महत्त्व देना आरंभ कर दिया था। इसमें संदेह नहीं कि प्राथमिक शिक्षा में विकास न होने पर उनकी चिंता वास्तविक मानी जा सकती थी, किंतु उच्च शिक्षा पर व्यय की जाने वाली राशि में कटौती से, उनके उद्देश्य पर संदेह भी होना स्वाभाविक था। लॉर्ड लिटन के काल में एंग्लो-इंडियन तथा यूरोपीय बच्चों की शिक्षा के लिए अधिक धन दिया गया था। 19वीं शताब्दी के आठवें दशक से शिक्षा के विकास की गति में वृद्धि हुई। कई भारतीयों का इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन्होंने अपनी व्यक्तिगत पूंजी लगाकर शिक्षा के विस्तार को संभव बनाया। आधुनिक शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए बाल गंगाधर तिलक तथा अगरकर ने बंबई प्रेसिडेंसी में ‘दक्कन एजूकेशन सोसाइटी’ की स्थापना की। बीजापुरकर ने 19वीं सदी के अंतिम वर्षों में तलेगाँव में एक राष्ट्रीय स्कूल खोला। विकसित भारतीय उद्योगों के लिए देशी टेकनीशियन तैयार करने के उद्देश्य से इस स्कूल की स्थापना की गई थी। इस काल के अंत तक आते-आते राज्य से आर्थिक सहायता के अभाव में तथा दूसरों की तुलना में नई शिक्षा प्राप्त भारतीयों को नौकरी प्राप्त करने में अधिक सुलभता के परिणामस्वरूप देशी स्कूल व्यवस्था समाप्त हो गई।

हण्टर शिक्षा आयोग, 1882 -

लॉर्ड रिपन ने शिक्षा के विकास के लिए 1882 ई0 में सर विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में एक 20 सदस्यीय जाँच आयोग का गठन किया जिसे ‘‘हण्टर कमीशन‘‘ के नाम से जाता है। इस आयोग का मुख्य कार्य 1854 के वुड के डिस्पैच के सिद्धांतों के क्रियान्वयन की जाँच करना और भविष्य के लिए शिक्षा की नीति को निर्धारित करना था। दूसरे शब्दों में इस आयोग को यह कार्य सौंपा गया था कि वह इस बात पर विचार करे कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली में क्या दोष है और भावी शिक्षा की क्या रूपरेखा होनी चाहिए। आयोग के बीस सदस्यों में 8 सदस्य भारतीय थे और इसके अध्यक्ष विलियम विल्सन हंटर सांख्यिकीविद्, एक संकलक और भारतीय सिविल सेवा के सदस्य थे, जो बाद में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के उपाध्यक्ष बने। इस कमीशन के सदस्यों ने विभिन्न भारतीय क्षेत्रों का दौरा करके अपने विस्तार से अपने सुझाव प्रस्तुत किए। ’हंटर शिक्षा आयोग 1882’ का कार्य तथा सुझाव-क्षेत्र केवल प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित था।

हंटर शिक्षा आयोग के प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे :

  1. हाई स्कूल में दो प्रकार की शिक्षा का आयोजन होना चाहिए। एक प्रकार में साहित्यिक शिक्षा दी जाए जो विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में सहायक हो तथा दूसरी प्रकार की शिक्षा व्यावसायिक और व्यापारिक होनी चाहिए।
  2. प्राथमिक शिक्षा के संबंध में सुधार तथा उसके विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  3. प्राथमिक शिक्षा उपयोगी विषयों में तथा स्थानीय भाषा में दी जानी चाहिए।
  4. इस शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयत्न का स्वागत किया जाना चाहिए परंतु यदि वह उपलब्ध न तो भी प्राथमिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
  5. प्राथमिक शिक्षा का नियंत्रण स्थानीय प्रशासन संस्थाओं, जिला तथा नगर बोर्डों को सौंप दिया जाए। ये स्थानीय संस्थाएँ शिक्षा के लिए उपकर भी लगा सकती थीं।
  6. निजी प्रयत्नों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिए। सहायता अनुदान में उदारता और इन सहायता प्राप्त स्कूलों को सरकारी स्कूलों के बराबर समझना चाहिए। उनको उनके बराबर ही मान्यता देनी चाहिए।
  7. उच्च शिक्षा के संबंध में सरकार को उच्च शिक्षण संस्थाओं के संचालन तथा प्रबंध से हट जाने का अनुरोध किया गया था।
  8. कॉलेज के लिए सामान्य वित्तीय सहायता तथा अनुदान निर्धारित करने की सरकार को छूट दी गई थी।
  9. आयोग का मत था कि विभिन्न कॉलेजों में एक ही प्रकार के पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं करने चाहिए, बल्कि कई प्रकार के पाठ्यक्रम विश्वविद्यालय को निर्धारित करने चाहिए।
  10. कॉलेज छात्रों से ली जाने वाली फ़ीस और विद्यार्थियों की उपस्थिति से संबंधित नियम हर जगह प्रायः समान बनाए जाने चाहिए।
  11. छात्रवृत्ति से संबंधित नियमों को नए सिरे से बनाना चाहिए।
  12. धर्म के आवश्यक एवं मौलिक सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए एक पुस्तक तैयार करवाने का सुझाव भी इस आयोग ने दिया था। इसका उद्देश्य छात्रों को नैतिक शिक्षा देना था। यह पुस्तक सभी सरकारी तथा गैर-सरकारी स्कूलों में अनिवार्य करने का सुझाव सरकार को दिया गया था।
  13. जहाँ तक महिलाओं की शिक्षा का संबंध है, हंटर आयोग ने महिला शिक्षा के पर्याप्त प्रबंध के अभाव पर खेद प्रकट किया। उसके मत में केवल प्रेसिडेंसी नगरों में ही इसका प्रबंध था। उसकी सलाह महिला शिक्षा को प्रोत्साहन देने की थी।
संक्षेप में, हंटर आयोग ने 1883 ई0 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें कहा गया था कि सरकार ने अभी तक उच्च शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया था और प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा की उपेक्षा की थी। आयोग ने सरकार के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के प्रसार और उन्नति के उत्तरदायित्व पर बल दिया। प्राथमिक शिक्षा के संबंध में आयोग का सुझाव था कि प्रांतीय सरकारों को अपनी आय का एक निश्चित प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पर व्यय करना चाहिए। प्रारंभिक शिक्षा का उत्तरदायित्व नवस्थापित नगरपालिकाओं एवं जिला परिषदों को सौंप दिया जाए और सरकारी अधिकारियों द्वारा ऐसे स्कूलों का निरीक्षण तथा पथ-प्रदर्शन किया जाए।
माध्यमिक शिक्षा के संबंध में आयोग ने सिफारिश की कि माध्यमिक शिक्षा के लिए दो प्रकार की पद्धतियाँ अपनाई जायें- एक तो साधारण साहित्यिक शिक्षा, जिसमें विद्यार्थियों को प्रवेशिका परीक्षा के लिए तैयार किया जाए और दूसरी व्यावहारिक व्यावसायिक शिक्षा, जिसमें विद्यार्थियों को वाणिज्यिक और रोजगारोन्मुखी शिक्षा दी जाए। आयोग सहायक अनुदान की प्रणाली से बहुत संतुष्ट था और उसने इस पद्धति को माध्यमिक तथा ऊँची शिक्षा के क्षेत्रों में प्रसार का प्रस्ताव किया। यह भी कहा गया कि सरकार को माध्यमिक पाठशालाओं से हट जाना चाहिए। आयोग का यह भी कहना था कि तीनों प्रेसीडेंसी नगरों के अलावा अन्य स्थानों में स्त्री शिक्षा के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, इसलिए उसे बढ़ाने का प्रयत्न करने चाहिए। एक प्रकार से इस रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि उच्च कोटि की शिक्षा का प्रबन्ध सीधे सरकार के हाथ में नही होना चाहिए। आयोग ने विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा के लिए कुछ नहीं कहा क्योंकि यह उसके विचाराधीन नहीं था।
रिपन की सरकार ने हंटर आयोग की सिफारशों को स्वीकार करते हुये प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा के विकास पर अधिक ध्यान दिया, जिससे उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में देश में पाठशालाओं की संख्या में असाधारण वृद्धि हुई। देश में बहुत से स्कूल खोले गये और उसपर नियंत्रण रखने की व्यवस्था की गई।

रिपन से कर्जन तक शिक्षा का विकास -

इस काल में शिक्षा का प्रचार बहुत तेजी से हुआ। हंटर आयोग के सुझावों के बीस वर्षों में ही अँग्रेज़ी प्रशासित 6 भारतीय प्रांतों में उच्च शिक्षा पाने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। निम्नलिखित आंकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है :
क्रमांक                                                                                     1881-82 1901-02
    1     उच्च शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों की संख्या                                 5403 23009
    2     माध्यमिक शिक्षा पाने वाले विद्यार्थियों की संख्या                     214077 590129
    3     माध्यमिक स्कूलों की संख्या                                                         3916 5124
    4     व्यवसायिक तथा प्राविधिक कॉलेजों की संख्या                                     72 191
    5     महाविद्यालय जिन्हे सरकारी अनुदान प्राप्त थी                                     11 53
    6     उपर्युक्त महाविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या                     716 5803

इस काल में निजी भारतीय प्रबंधकों की शिक्षण संस्थाएं मिशनरी शिक्षण संस्थाओं की तुलना में अधिक थीं। इस काल में प्राइमरी शिक्षा पर सरकारी खर्च में थोड़ी वृद्धि हुई थी। 1881-82 में 16.77 लाख रुपए खर्च किए गए थे जबकि 1901-02 में थोड़ा बढ़कर 16.92 लाख रुपए हो गया। शिक्षा के विकास से सबसे अधिक लाभ मध्य वर्ग को हुआ और उससे कम संपन्न वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा को अपनाया क्योंकि इसे सरकारी नौकरी प्राप्त करने का एक साधन समझा गया था। इस काल में व्यावसायिक शिक्षा तथा पिछड़े हुए वर्ग, जैसे मुसलमानों, हरिजनों, महिलाओं और आदिवासियों की शिक्षा में भी वृद्धि हुई थी।

इस समय आधुनिक शिक्षा के विकास के क्षेत्र में सरकार तथा मिशनरियों की अपेक्षा ग़ैर-सरकारी भारतीय उद्यमियों का योगदान अधिक महत्त्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय रहा। आधुनिक शिक्षा में हुई यह महान क्रांति इस काल की सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। सरकार का क्रिया-कलाप ग़ैर-सरकारी प्रयत्नों की धन से सहायता करना तथा उसका अधीक्षण करना ही था। इसका परिणाम यह निकला कि बहुत-सी ऐसी शिक्षण संस्थाएँ भी शिक्षा देती रहीं जो कि शिक्षा देने योग्य नहीं थी । यद्यपि इस काल में सरकार ने शिक्षा के क्षेत्र में पूर्ण उदासीनता की नीति त्याग दी थी तथा स्पष्ट रूप से शिक्षा का पूर्ण उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेने की ओर कदम उठाया था, तथापि इसकी गति अत्यंत धीमी थी। इसका कारण यह था कि सरकार ने अपना उत्तरदायित्व केवल उन्हीं शैक्षिक संस्थाओं की सहायता करना समझा जिनका आरंभ गैर-सरकारी संस्थाओं अथवा व्यक्तियों ने किया था। वास्तविकता तो यह है कि सरकार उस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी जब ये संस्थाएँ पूर्ण रूप से स्वावलंबी बन जाएँगी और सरकार को उनकी सहायता नहीं करनी पड़ेगी। सरकार ने जनता की शैक्षिक आवश्यकता के अनुसार संस्थाओं का प्रबंध नहीं किया। इस काल की यह भी विशेषता है कि सरकार भारतीय जनता के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाई थी। साहित्यिक शिक्षा पर खर्च कम होता है, इसीलिए महाविद्यालयों तथा माध्यमिक शिक्षा का विकास गैर-सरकारी प्रयत्नों के प्रयास से और केवल कुछ सरकारी सहायता से संभव हो सका था। इसके विपरीत व्यावसायिक शिक्षा तथा जनसाधारण की शिक्षा (प्राथमिक) पर व्यय माध्यमिक तथा महाविद्यालय की शिक्षा की तुलना में कहीं अधिक करना पड़ता था। कुछ शिक्षित भारतीयों ने यह अनुभव किया कि जिस प्रकार की पुस्तक अंग्रेज़ी भाषा में उपलब्ध थीं वैसी ही भारतीय भाषाओं में भी होनी चाहिए। अतः शिक्षित भारतीयों ने अब इस प्रकार का साहित्य प्रकाशित किया। दूसरे उन्होंने पाश्चात्य ज्ञान को फैलाने तथा समाज- सुधार करने के लिए समाचारपत्रों की स्थापना की। इन दोनों क्षेत्रों में माध्यमिक विद्यालयों की नई प्रणाली में शिक्षित, उत्साहित और राष्ट्रीय विचार रखने वाले भारतीय युवक थे। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ तक नया भारतीय साहित्य, आधुनिक भारतीय भाषाओं में तैयार होने लगा था और भारतीय प्रेस के क्षेत्र में भी विकास हो रहा था।

इस काल के अंतिम भाग में राजनीतिक क्षेत्र में घटनाएं तीव्र गति से घट रही थीं। एक राजनीतिक व्यग्रता, शासकों के विरुद्ध भारतीयों का बदलता हुआ दृष्टिकोण, उग्र एवं आतंकवादी राजनीति का उदय इत्यादि इस काल की विशेषता थी। प्रेस के माध्यम से विभिन्न सरकारी नीतियों एवं त्रुटियों को लेकर प्रेस जनमत तैयार कर रहा था। शिक्षा संस्थाओं में आकुलता बढ़ रही थी। अंग्रेज़ों के विरुद्ध उन्हीं साधनों को अपनाकर भारतीय, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एवं अपनी माँगों के पक्ष में जनमत तैयार करने का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे थे। कई ब्रिटिश प्रशासक आधुनिक शिक्षा प्रणाली को राजनीतिक असंतोष तथा आंदोलन के लिए उत्तरदायी ठहरा रहे थे। लॉर्ड डफरिन के समय में यह मत प्रचलित हुआ कि भारत में बढ़ते हुए राजनीतिक असंतोष का कारण उच्च शिक्षा ही थी। भारत में ब्रिटिश अधिकारी राष्ट्रीय भावना के उदय एवं विकास तथा उच्च शिक्षा के बीच एक प्रत्यक्ष तथा गहरा संबंध देख रहे थे। उनका विचार था कि निजी प्रबंध के अधीन स्थापित तथा विकसित हो रहे विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिर रहा है। उनके विचार में इन शिक्षण संस्थाओं में अनुशासन की भी कमी थी। ऐसा विश्वास किया जाता था कि ये शिक्षण संस्थाएँ क्रांतिकारियों को उत्पन्न कर रही हैं। अंग्रेज कांग्रेस को बहुत छोटे अल्प संख्यक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था मानते थे जिसे भारतीय विश्वविद्यालयों ने जन्म दिया था। उनके मत में कांग्रेस भारत की अधिकांश जनता से अलग कटी हुई संस्था थी।

कांग्रेस बार-बार अपने अधिवेशनों में अपनी मांगों से संबंधित प्रस्ताव पास कर रही थी। धीरे-धीरे देश में राजनीतिक असंतोष तथा बेचैनी बढ़ रही थी। लॉर्ड एलगिन का कार्यकाल संकटपूर्ण था क्योंकि उसके शासनकाल में राजनीतिक असंतोष के साथ-साथ प्लेग भी फैला हुआ था। सरकारी कर्मचारी इस बढ़ती हुई राजनीतिक अशांति को प्रचलित शिक्षा-पद्धति के कारण उत्पन्न मानते थे। अंग्रेज प्रशासकों के बीच यह धारणा बनती जा रही थी कि शिक्षा पर सरकार का कठोर नियंत्रण हो। लार्ड कर्जन के वायसराय बनते ही उसके उपर दबाव बढने लगा और एक बार फिर से शिक्षा पर महत्वपूर्ण फैसला लार्ड कर्जन के शासनकाल में लिया गया। 

भारतीय विश्वविद्यालय कानून, 1904

लार्ड कर्जन का मूल उद्देश्य शिक्षा संस्थाओं को सरकारी नियन्त्रण में लेकर भारतीयों की राजनीतिक क्रियाओं को दुर्बल करने का था, यद्यपि बहाना उसने यह लिया कि शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा था और उसमें सुधार की आवश्यकता थी। अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु उसने 1901 ई0 में शिमला में सरकारी शिक्षा अधिकारियों और विश्वविद्यालय के प्रतिनिधियों की एक सभा बुलायी। इस सभा ने शिक्षा के सम्बन्ध में 150 प्रस्ताव स्वीकार किये। कर्जन ने 1902 ई0 में सर थॉमस रैले की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की। जिसका मुख्य कार्य भारतीय विश्वविद्यालयों की शिक्षा के सम्बन्ध में सुझाव देना था। सैयद हुसैन बिलग्रामी और जस्टिस गुरुदास बनर्जी दो भारतीय इस आयोग के सदस्य बनाए गये थे। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 1904 ई0 का भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया जिससे विश्वविद्यालय प्रशासन के पुनर्गठन, महाविद्यालयों का विश्वविद्यालयों द्वारा अधिक कड़े तथा व्यवस्थित पर्यवेक्षण व सम्बद्धता की शर्तें निर्धारित करने और परीक्षा प्रणाली तथा पाठ्यचर्याओं में आवश्यक परिवर्तन से संबंधित विषयों पर अपनी सिफ़ारिशें दीं। ये सिफ़ारिशें निम्न प्रकार थीं -

        1. विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा और अनुसन्धान पर ध्यान दें। वे योग्य प्रोफेसरों और अध्यापकों की नियुक्ति करें तथा उचित पुस्तकालयों एवं प्रयोगशालाओं की स्थापना का प्रबन्ध करें।

        2. विश्वविद्यालयों की सीनेट के सदस्यों की संख्या कम से कम 50 और अधिक से अधिक 100 निश्चित की गयी। सीनेट की कार्यावधि 6 वर्ष निश्चित की गयी। सीनेट के अधिकांश सदस्यों की नियुक्ति सरकार करने लगी। कलकत्ता, मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों की सीनेट के सदस्यों में 20 निर्वाचित सदस्य रखे गये और अन्य विश्वविद्यालयों में केवल 15। अन्य सभी सदस्य सरकार के द्वारा नियुक्त किये जाने लगे। इसके अतिरिक्त, सरकार को सीनेट द्वारा बनाये गये नियमों में परिवर्तन करने अथवा उनको अस्वीकार करने का भी अधिकार दिया गया।

        3. विश्वविद्यालयों के अधिकार क्षेत्र को निश्चित करने, उनके अन्तर्गत कॉलेजों को स्वीकृति प्रदान करने आदि का अधिकार भी सरकार ने अपने हाथों में ले लिया।

        4. विश्वविद्यालयों का नियन्त्रण अपने अधीन कॉलेजों पर बढ़ा दिया गया।

इस प्रकार इस कानून के द्वारा सरकार ने विश्वविद्यालयों को पूर्णतः अपने अधीन कर लिया और उनके माध्यम से कॉलेजों को भी अपने अधीन कर लिया। महाविद्यालयों को विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होने की शर्तों या नियमों को पहले से अधिक कडा कर दिया गया। विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सभी महाविद्यालयों में प्राविधान किया गया कि विश्वविद्यालयों द्वारा यह देखने के लिए उनका निरीक्षण किया जाएगा कि उनकी कार्यकुशलता ठीक है या नहीं और उनमें शिक्षा तक का उचित स्तर कायम है या नहीं। कर्जन का उद्देश्य उच्च शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण में लाना था। इस कानून ने उसके इस उद्देश्य की पूर्ति कर दी परन्तु भारतीयों ने इसका तीव्र विरोध किया। इस कानून से शिक्षा पद्धति पर कोई लाभदायक प्रभाव नहीं पड़ा।

इस अधिनियम की भारतीयों ने कटु आलोचना की और मुख्य रूप में सरकार के विरुद्ध दो आरोप लगाए गए- पहला, सीनेट में इस अधिनियम के अनुसार परिवर्तन करने से सरकारी प्रभाव अब अधिक बढ़ जाएगा और विश्वविद्यालयों को जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मिली हुई है वह भी समाप्त हो जाएगी। दूसरा आरोप यह था कि सरकार ने जिस प्रकार से अधिनियम बनाया था उससे उच्च शिक्षा का विकास रुक जाएगा। नई नीति की सबसे तीव्र आलोचना विभिन्न समाचारपत्रों ने की। भारतीयों के उग्र विरोध का कारण यह था कि कर्जन सुधार की आड़ में सारी शक्ति अंततः सरकारी तथा मिशनरी महाविद्यालयों के यूरोपीय आचार्यों के हाथों में संगठित करना चाहता था। सबसे तीव्र विरोध इस अधिनियम में निहित उन उपबंधों को लेकर किया गया जिनके अनुसार विश्वविद्यालयों के प्रशासन में सरकारी नियंत्रण में वृद्धि होनी थी।

लॉर्ड कर्जन का अनुमान था कि उनका शिक्षा संबंधी सुधार एक नई शिक्षा नीति एवं प्रणाली की नींव रखेगा और इस नीति से भारत कुछ नहीं तो कम-से-कम 25 वर्षों तक संतुष्ट रहेगा। परंतु दस वर्षों के अंदर ही कलकत्ता विश्वविद्यालय में राजनीतिक विचारों की प्रधानता तथा प्रजातीय भावनाओं के उग्र रूप में बने रहने के कारण सुधार के लिए एक अन्य बिल बनाने की आवश्यकता पड़ गई। बटलर का विचार था कि कलकत्ता विश्वविद्यालय की शक्ति एवं प्रभाव को कम करने का एक ही उपाय था कि ढॉंका, पटना तथा रंगून में विश्वविद्यालयों की स्थापना करके कलकत्ता विश्वविद्यालय के क्षेत्र को सीमित कर दिया जाए। वह कलकत्ता विश्वविद्यालय को शिक्षण संस्था की अपेक्षा राजनीतिक समस्या समझता था परंतु वह अपने सुधार को प्रथम विश्वयुद्ध के कारण तुरंत आरंभ नहीं कर सका।

महाविद्यालयों में सुधार विश्वविद्यालयों में सुधार के परिणामस्वरूप आवश्यक हो गए थे। उच्च स्तर बनाने तथा उसे कायम रखने के लिए ग़ैर-सरकारी कॉलेजों को अधिक वित्तीय सहायता देनी पड़ी। प्रयोगशालाओं, पुस्तकालयों तथा छात्रावासों के लिए भी अधिक प्रबंध करना पड़ा। 1904-05 और 1908-09 के मध्य महाविद्यालयी शिक्षा के लिए 13.5 लाख रुपए की अतिरिक्त राशि निर्धारित कर दी गई। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में भी सुधार की आवश्यकता थी, क्योंकि इसकी कार्यकुशलता असंतोषजनक थी। लॉर्ड कर्जन की नीति प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में सुधार करने के अतिरिक्त उसके प्रसार की भी थी। उसने प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए भारी अनुदान स्वीकृत किया। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक सुधार लाने के विचार से कर्ज़न शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रशिक्षण संस्थाएं खोलने तथा पाठ्यक्रम में संशोधन करके उसे संबंधित करना चाहता था। लॉर्ड कर्जन ने कला-विद्यालयों के सुधार एवं कृषि विद्या की संवृद्धि के लिए उपाय किए और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारतीय छात्रों को विदेश भेजने के लिए छात्रवृत्तियाँ देना आरंभ किया। पुरातत्त्व विभाग की स्थापना तथा शिक्षा महानिदेशकों की नियुक्ति भी की गई। 
लॉर्ड कर्जन की शिक्षा नीति का विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसने उच्च शिक्षा की बजाय प्राथमिक शिक्षा पर, शहरों में शिक्षा प्रदान करने की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा-प्रसार पर और व्यावसायिक शिक्षा के स्थान पर कृषि शिक्षा पर अधिक बल दिया था। यद्यपि इसका मुख्य कारण नगरों के शिक्षित व्यक्तियों का अंग्रेजी प्रशासन विरुद्ध बढ़ता हुआ असन्तोष था जिसे कर्जन रोकना चाहता था परन्तु तब भी उसकी शिक्षा- नीति से स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई।

वास्तविकता तो यह थी कि छात्रों में ब्रिटिश राज के विरुद्ध प्रतिक्रियात्मक भावना बढ़ रही थी। लॉर्ड कर्जन के उत्तराधिकारियों के समय में स्कूलों पर नियंत्रण रखने की आवश्यकता अधिक बढ़ गई थी, क्योंकि बंगाल विभाजन के पश्चात् शिक्षकों तथा विद्यार्थियों ने विदेशी कपड़ों की दुकानों पर धरना देना आरंभ कर दिया था। ये स्वदेशी का प्रचार करते थे, राजनीतिक सभाओं में भाग लेते थे, जुलूस निकाल ‘वंदेमातरम’ का नारा लगाते थे। राजनीति में इस प्रकार से शिक्षकों तथा विद्यार्थियों द्वारा इतना अधिक भाग लिए जाने और ब्रिटिश राज के विरुद्ध प्रचार करने के कारण सरकार चितित थी। स्वदेशी आंदोलन का मुख्य आधार विद्यार्थी ही थे। 1905 ई0 में सरकार ने एक परिपत्र जारी किया जिसमें राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विद्यार्थियों के प्रयोग किए जाने की निंदा की गई। सरकार का मत था कि यह केवल अनुशासन के विरुद्ध ही नहीं था बल्कि विद्यार्थियों के हितों की भी इससे हानि होती थी परंतु इस परिपत्र का कोई प्रभाव स्कूलों, अध्यापकों एवं विद्यार्थियों पर नहीं पड़ा।

दूसरी ओर बढ़ते हुए पश्चिमी शिक्षा के विस्तार एवं प्रभाव को, जिनमें भारतीय संस्कृति एवं साहित्य का कोई स्थान नहीं था, रोकने के डी0ए0वी0 (दयानंद एंग्लो वैदिक) आंदोलन तथा उसके द्वारा एक विवेकपूर्ण राष्ट्रीय शिक्षा- प्रणाली स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा था । भारतीयों द्वारा किए गए शैक्षिक प्रयासों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के लिए एक नवीन शिक्षा प्रणाली को आवश्यक समझते हुए शासकीय शिक्षा प्रणाली के विपरीत लाहौर में ऐंग्लो-वैदिक कॉलेज की स्थापना की गई। इस कॉलेज की विचारधारा राष्ट्रवादी थी। लाहौर में स्थापित यह संस्था भविष्य के अत्यंत महत्त्वपूर्ण डी० ए० वी० आंदोलन की अग्रदूत सिद्ध हुई। इस आंदोलन की लपेट में संपूर्ण भारत - विशेषतः पंजाब तथा उत्तर पश्चिमी प्रांत आ गए। बड़ी संख्या में डी०ए०वी० स्कूल तथा कॉलेजों की स्थापना की गई। ये प्रथम राष्ट्रीय संस्थाएँ थी जिनका प्रभाव व्यापक पड़ा।

जैसा कि डी०ए०वी० नाम से विदित है, इन शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी साहित्य तथा पाश्चात्य विज्ञान को भी अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था परंतु ये संस्थाएँ इनको आवश्यकता से अधिक महत्त्व नहीं देती थीं इनका उद्देश्य भारतीय भाषाओं तथा साहित्य को विकसित करना था। भारतीय संस्कृति के संरक्षण की दृष्टि से पाश्चात्य डी०ए०वी० आंदोलन आधुनिक भारत के शिक्षण क्षेत्र में एक महत्त्पूर्ण प्रयोग सिद्ध हुआ। इस आंदोलन से शिक्षा के क्षेत्र में केवल स्वतंत्र विचारों का ही प्रारंभ नहीं हुआ, वरन् राष्ट्रीय भावना से पूर्ण भारतीयों के निजी प्रयासों को बराबर अपेक्षित प्रेरणा मिलती रही। इसी प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में रामकृष्ण मिशन के शैक्षिक कार्यों का भी अपना महत्त्व है। स्वामी विवेकानद ने शिक्षा का एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत किया जिसमें भारत के प्रति निष्ठा जाग्रत करने के साथ-साथ वह ज्ञान भी प्राप्त कर सकते थे जो भौतिक प्रगति के लिए आवश्यक था। इस प्रकार उन्होने आध्यात्मिक तथा भौतिक विचारधाराओं के प्रति एक सामंजस्यवादी नीति रामकृष्ण मिशन को दी। रामकृष्ण मिशन ने पूरे देश में शिक्षण संस्थाओं को फैलाने का प्रयत्न किया और ये शिक्षण संस्थाएँ केवल बौद्धिक शिक्षा ही नही देती थी अपितु यहॉं विभिन्न प्रकार के तकनीकी और व्यवसायिक प्रशिक्षण की सुविधा भी थी।



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