विषय-प्रवेश (Introduction) -
औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रमुख उद्देश्य भारत का शोषण करके अधिक से अधिक मुनाफा कमाना था जिसके कारण उन्होने लम्बे समय तक भारत की परम्परागत सांस्कृतिक और सामाजिक पद्धतियों में हस्तक्षेप नही किया। युरोपियनों के आगमन के समय शिक्षा की दृष्टि से अनेक औपनिवेशिक देशों से आगे था परन्तु शिक्षा व्यवस्था में निश्चित रुप से पिछड़ा हुआ था। कुछ साहसी और परोपकारी अंग्रेज अधिकारियों ने शिक्षा के क्षेत्र में सुधार हेतु प्रयत्न किये और कुछ भारतीय समाज सेवकों के सहयोग से अनेक स्कूल और कॉलेज खोले गये जिनके कारण वर्ण व्यवस्था पर आधारित परम्परागत शिक्षा प्रणाली ने धीरे-धीरे आधुनिक शिक्षा व्यवस्था का रुप ले लिया परन्तु शिक्षा का वास्तविक विकास तो भारत की स्वतंत्रता के बाद ही हुआ।
18वीं शताब्दी के अन्त में भारतीय समाज वस्तुतः सामंतवादी था जिसमें अनेक वर्ग और जातियॉं निवास करती थी। ब्रिटिश शासकों ने शिक्षा की कोई जिम्मेदारी नही ली थी और न जनता की शिक्षा के लिए कोई व्यापक प्रयत्न ही किये थे। वे केवल उच्च शिक्षण संस्थानों को मुख्यतः धार्मिक आधारों पर कुछ विŸाय सहायता प्रदान करते थे। शिक्षा की औपचारिक संस्थाएॅ अर्थात विद्यालय स्थापित किये जाते थे जिनमें वे ही लोग प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करते थे जिन्हे पढ़ने व हिसाब-किताब की जरूरत पड़ती थी। अंग्रेजों के आने से पहले भारत का आर्थिक व वैज्ञानिक विकास भी बहुत कम हुआ था। विश्व के बहुत सारे राष्ट्र जब सभ्य जीवन के पथ पर अग्रसर हुये उनके सदियों पहले भारतीयों ने गणित, औषधिविज्ञान में पथ प्रदर्शक का काम किया लेकिन संभवतः इसलिए भारतीय समाज लगभग उसी पुराने आर्थिक और सांस्कृतिक स्तर पर बहुत दिनों तक स्थिर रहा और भारतीय जनजीवन का समुचित विकास नही हो सका। भारतीयों ने इस लम्बी अवधि में उपनिषद के आदर्शवादी दर्शन के अनेकानेक भाष्य तो पेश किये लेकिन प्रकृति विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में इनकी देन कुछ विशेष नही रही। आधुनिक शिक्षा का प्रारंभ कर अंग्रेज बैज्ञानिक और समाजशास्त्रीय ज्ञान के क्षेत्र में भारत को आधुनिक पाश्चात्य उपलब्धियों के सम्पर्क में ले आये।
औपनिवेशिक काल से पूर्व भारत में शिक्षा का स्वरूप -
हिंदू समाज विभिन्न जातियों में बंटा था और इस जाति व्यवस्था में जहां प्रत्येक जाति का अपना विशिष्ट सामाजिक कर्म था, ब्राह्मणों को ही धार्मिक सूत्रों के प्रवचन, पूजा- पाठ करवाने और शिक्षा देने का एकमात्र अधिकार था। अन्य जातियों के लिए उच्च शिक्षा धार्मिक सूत्रों द्वारा निषिद्ध थी। ब्राह्मण टोल, विद्यालय और चतुष्पाठी जैसे विशेष शिक्षालयों में पढ़ा करते थे। हिंदुओं की पवित्र भाषा संस्कृत ही शिक्षा का माध्यम थी और सारा धार्मिक और उच्च धर्मनिरपेक्ष ज्ञान संस्कृत में ही निहित था।
जनसाधारण के लिए हर गांव और शहर में स्थानीय स्कूल थे जहां खास तौर पर लिखना पढ़ना और जोड़-घटाना सिखाया जाता था। इन विद्यालयों में लड़कों को धार्मिक शिक्षा भी दी जाती थी। इन स्कूलों में खासकर बनिया महाजन के लड़के पढ़ते थे। औरतें, निम्न जातियों एवं किसानों के लिए शायद ही कोई शिक्षा व्यवस्था थी। इस तरह औपनिवेशिक काल के प्रारंभिक चरण तक ब्रिटिश भारत में शिक्षा का क्षेत्र बहुत ही संकुचित था और ब्राह्मणों के अतिरिक्त अन्य लोगों के लिए शिक्षा लगभग तत्वहीन और सारशून्य थी। उच्च शिक्षा पर ब्राह्मणों का एकाधिकार था।
यह शिक्षा ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित और प्रशासित हिंदू समाज की समस्त संस्कृति का विशिष्ट अंग थी। लेकिन इसका उपयोग मूलतः जाति व्यवस्था को सार्वजनीन मान्यता और स्वीकृति प्रदान करने और वेदों की सत्यता एवं उनकी व्याख्या परिभाषित करने में ब्राह्मणों की दक्षता में आस्था जमाने के लिए साधन के रूप में किया गया। इस शिक्षा के माध्यम से मां बाप एवं गुरुजन, शिक्षक और राजा की आज्ञा को बिना शर्त मानने की भी सीख दी गई। वस्तुतः इस शिक्षापद्धति का उद्देश्य यह था कि व्यक्ति समाज की श्रेणीबद्ध संरचना को स्वीकार कर ले और अपने व्यक्तित्व को उसके अधीन रखे।
प्रारंभिक ब्रिटिश काल में मुसलमानों के बीच शिक्षा पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं था। मदरसे में कोई भी मुसलमान पढ़ सकता था लेकिन, चूंकि कुरान अरबी भाषा में लिखा गया था, इसलिए यह विदेशी भाषा मुसलमानों के बीच सारी उच्च शिक्षा का माध्यम थी, कुछ ऐसे स्कूल भी थे जहॉ कुरान के अलावा, दूसरे विषयों की भी पढ़ाई होती, जैसे फारसी की, जो इस्लामी संस्कृति और प्रशासन की भाषा थी।
हिंदू और मुस्लिम शिक्षा व्यवस्थाओं में काफी मेल था। दोनों व्यवस्थाओं में ऐसी भाषाएॅं शिक्षा का माध्यम थीं जो जनसाधारण के लिए पराई थीं, दोनों को अपनी धर्मोन्मुख प्रकृति से इन्हे बल मिलता था, और अपरिवर्तनीय प्रभुत्व पर आधारित होने के कारण ये शिक्षा पद्धतियॉं स्वतंत्र अन्वेषण की भावना के प्रतिकूल थीं। लेकिन एक दृष्टि से दोनों पद्धतियां काफी भिन्न थीं। हिंदू स्कूल समाज के एक विशिष्ट अधिकारसंपन्न वर्ग के लिए थे, लेकिन मुस्लिम स्कूलों में वे सब लोग जा सकते थे सकते थे जिनकी यह आस्था थी कि भगवान एक हैं और मुहम्मद उनके पैगंबर है। प्राक् ब्रिटिश भारत के इन स्कूलों में छात्रों में न तो व्यक्तित्व का विकास हो सकता था और न बुद्धिवाद का ही। इस शिक्षा का उद्देश्य था छात्रों को कट्टर हिंदू या मुसलमान बनाना, अपने विभिन्न धर्मों और इन धर्मों द्वारा समर्थित सामाजिक संरचना का अविवेकी अनुयायी बनाना। आधुनिक शिक्षा की शुरुआत का भारत के लिए ऐतिहासिक महत्व है। इसके द्वारा ब्रिटिश शासन ने निश्चय ही एक प्रगतिशील कार्य किया।
प्राक् ब्रिटिश भारतीय संस्कृति के बारे में दो गलत धारणाएॅं -
अंग्रेजों के आने के पूर्व की भारतीय संस्कृति के बारे में दो गलत धारणाएं प्रचलित थीं। अंध देशभक्त और अतिराष्ट्रीयतावादी आर्य समाज ने भारत के अतीत को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने यह भी दावा किया कि आर्यों ने संपूर्ण समाजिक, वैज्ञानिक आध्यात्मिक ज्ञान बहुत पहले प्राप्त कर लिया था, और वह ज्ञान चिरजीवी वेदों में सदा के लिए एकत्र है। आवश्यकता केवल इस बात की है कि लोग वेदों को ठीक तरह से समझें और उनकी समुचित व्याख्या करें। आर्य समाजियों ने ऐसे अतिराष्ट्रीयतावादी दावे इसलिए किए कि उन्हें यह समझदारी नहीं थी कि ज्ञान सदा वर्धनशील तो है लेकिन इतिहास के किसी क्षण विशेष में वह परिमित और सीमाबद्ध है और इसकी व्यापकता और गहराई लोगों के सामाजिक विकास के स्तर पर निर्भर है। प्राक् ब्रिटिश भारतीय समाज, अपने दीर्घकालीन अस्तित्व की लंबी अवधि में सदा सामाजिक और आर्थिक विकास के निम्न स्तर पर रुका रहा, और इसलिए इसका ज्ञान भंडार आधुनिक ज्ञान भंडार से निश्चय ही छोटा था।
दूसरी तरफ लार्ड मैकाले जैसे अन्य लोग एक अन्य प्रकार की गलत धारणा के शिकार थे। उन्होंने सारी भारतीय संस्कृति की घोर अवहेलना की और उसे अंधविश्वासों का पुंज मात्र माना। उन्होंने कहा कि भारतीय औषधि विज्ञान में जिस तरह के सिद्धांत हैं उन पर इंग्लैंड के एक देहाती वैद्य को भी शर्म आएगी और जिस तरह का खगोलशास्त्र भारत में प्रचलित है, उस पर इंग्लैंड में स्कूली लड़कियां हॅंसेगी। यहॉं का इतिहास लेखन तीस फुट लंबे राजाओं की कहानी है जिनका शासनकाल तीस-तीस हजार बरस तक चला, यहां भूगोल का अर्थ है चाशनी और मक्खन के समुद्र। मैकाले ऐसी शिक्षा पर सरकारी पैसा खर्च करना गलत समझते थे।
यह भारत की प्राचीन संस्कृति का एकांगी रूप है। यह सही है कि हर पिछड़े हुए देश में अंधविश्वास का व्यापक प्रचलन होता है, लेकिन अंधविश्वास के साथ ही हर समाज में वैज्ञानिक ज्ञान के भी कुछ तत्व रहते हैं। जैसे पहले कहा जा चुका है, अपने अस्तित्व के लिए उसे बीजों का उत्पादन करना ही होता है, और जिस किसी मात्रा में हो, प्रौद्योगिकी और विज्ञान के बिना उत्पादन संभव नहीं। कोई भी समाज इनके बिना जीवित नहीं रह सकता। प्राक् ब्रिटिश भारत के दीर्घकालीन अस्तित्व और इतिहास से यह स्वतः सिद्ध है कि भारत में वैज्ञानिक ज्ञान था। हर समाज का यह कार्य है कि वह अतीत की संस्कृति के वैज्ञानिक तत्वों को आत्मसात करे। मैकाले ने जो बिना सोचे-समझे भारत की समस्त प्राचीन संस्कृति को नकारा, वह उतना ही अनैतिहासिक था जितना आर्य समाज द्वारा उस संस्कृति का आदर्श रूप में प्रस्तुत करना।
आधुनिक शिक्षा का जन्म -
भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार का श्रेय विदेशी ईसाई मिशनरियों, ब्रिटिश सरकार और प्रगतिशील भारतायों को है। ईसाई मिशनरियों ने भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रसार के लिए बहुत सारे कार्य किए लेकिन इनकी मूल प्रेरणा थी भारतीय जनता में ईसाई धर्म का प्रचार। उनका यह सच्चा विश्वास था कि भारतीयों के धर्म परिवर्तन का उनका लक्ष्य वस्तुतः सभ्यता के प्रसार-प्रचार का लक्ष्य है। उन्होंने हिंदुओं के अनेकेश्वरवाद और उनकी विषमताओं पर प्रहार किया, क्योंकि मूलतः ईसाई धर्म ऐकेश्वरवाद और सामाजिक समानता में विश्वास करता है। वस्तुतः ये मिशनरी भारत में आधुनिक शिक्षा के प्रथम प्रचारक थे। इन्होंने अपने स्कूलों में आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शिक्षा तो दी ही, उसके साथ ही ईसाई धर्म की भी शिक्षा दी। मूलतः धर्मनिरपेक्ष इन शिक्षण संस्थाओं में भारतीयों को एक साथ लाकर उनके बीच ईसाई धर्म का प्रचार किया जा सकता था। लेकिन ऐसा हुआ कि जो लड़के इन संस्थाओं में आए उनमें अधिकांश ने आधुनिक शिक्षा तो प्राप्त की पर बहुत ही कम लोग ईसाई हुए। इन मिशनरी संस्थाओं का लक्ष्य तो धार्मिक था, लेकिन भारतीयों के बीच आघनिक शिक्षा के प्रचार में उन्होंने बहुत बड़ी भूमिका अदा की।
फिर भी भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रसार सबसे अधिक ब्रिटिश सरकार ने किया। इसने सारे देश में स्कूलों और कालेजों की स्थापना की जिनमें हजारों की तादाद में भारतीय शिक्षित हुए। इस शिक्षा की सीमाओं और विकृतियों के बावजूद, भारतीय राष्ट्रवादियों ने आलोचना भी की, भारत में अपनी जरूरतों के लिए ही सही। उदारवादी और तकनीकी शिक्षा का प्रसार कर अंग्रेजों ने वस्तुनिष्ठ तौर पर प्रगतिशील भूमिका अदा की। भारत में अंग्रेजों की राजनीतिक प्रशासनिक एवं आर्थिक आवश्यकताएं थीं, मूलतः उन्हीं के कारण भारत में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई।
यह महज संयोग की बात नहीं कि उन्नीसवीं सदी के मध्य तक आते-आते भारत में आधुनिक शिक्षा बड़े पैमाने पर प्रारंभ हुआ। तब तक भारत का बहुत बड़ा अंश अंग्रेजी शासन के अधीन हो चुका था। ब्रिटिश सरकार ने विजित भू-भाग के लिए व्यापक प्रशासन तंत्र की व्यवस्था की। इस बृहद राजनीतिक प्रशासकीय यंत्र के संचालन के लिए शिक्षित व्यक्तियों की बहुत बड़ी मात्रा में जरूरत थी। इतने सारे शिक्षित लोग सीधे ब्रिटेन से तो आ नहीं सकते थे। नए प्रशासन के लिए सुयोग्य व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने के लिए भारत में स्कूल और कॉलेज खोलना आवश्यक हो गया। भारत के साथ बढ़ते हुए व्यापार और जो थोड़े बहुत उद्योग अंग्रेज धीरे-धीरे भारत में खोलने लगे, उसके लिए भी अंग्रेजी जानने वाले किरानियों, मैनेजरों और एजेंटों की की जरूरत थी।
इन राजनीतिक, प्रशासनिक और आर्थिक आवश्यकताओं ने खास तौर पर ब्रिटिश सरकार को इसके लिए प्रेरित किया कि वह भारत में स्कूल और कालेज खोले, जहाँ आधुनिक शिक्षा दी जा सके, क्योंकि ऐसी शिक्षा ही किसी आधुनिक राष्ट्र की आवश्यकताओं को पूरा कर सकती थी। इन शैक्षणिक संस्थाओं ने सरकारी और व्यावसायिक कार्यालयों को किरानी दिए, नई विधिव्यवस्था में पारंगत वकील दिए, आधुनिक विज्ञान में प्रशिक्षित डाक्टर दिए, टेकनीशियन दिए, शिक्षक दिए। इसके अतिरिक्त कुछ और कारण थे जिनके चलते ब्रिटिश राजनीतिज्ञों और अग्रणी विचारकों ने भारत में आधुनिक शिक्षा को प्रश्रय दिया। प्रबुद्ध अंग्रेजों का यह विश्वास या कि ब्रिटिश संस्कृति संसार में सर्वश्रेष्ठ और सबसे अधिक उदार थी और अगर भारत, दक्षिणी अफ्रीका और फिर सारा संसार सांस्कृतिक तौर पर अंग्रेज हो जाए, तो सारे संसार के सामाजिक और राजनीतिक एकीकरण का रास्ता प्रशस्त होगा।
1813 का चार्टर अधिनियम और मैकाले का घोषणा-पत्र :
1813 ई0 से पहले भी यदा-कदा मिशनरी दलों और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने नई शिक्षा प्रणाली लागू करने के लिए प्रयास किए थे। लेकिन इनके प्रयास की सम्मिलित उपलब्धि कुछ खास नहीं थी और उसका महत्व महज पथप्रदर्शन के रूप में ही है। 1813 के चार्टर ऐक्ट के बाद अपनी भारतीय प्रजा की शिक्षा की दिशा में ईस्ट इंडिया कंपनी ने नए कदम उठाए। इसके अनुसार कंपनी ने पहली बार शिक्षा के प्रति राजकीय उत्तरदायित्व निभाने की कोशिश की और हर साल शिक्षा के मद में कम से कम एक लाख रुपया खर्च करने की व्यवस्था की गई।
1813 ई0 के कम्पनी के चार्टर की धारा-43 द्वारा यह निश्चित किया गया था कि कम्पनी प्रति वर्ष एक लाख रुपया भारतीयों की शिक्षा के लिए व्यय करेगी। परन्तु उस समय तक इस धन को व्यय करने के लिए कोई उपयुक्त कार्य नहीं किया गया था। बेन्टिक ने भारतीयों की शिक्षा के लिए कदम उठाने का निश्चय किया। प्रारम्भ में ही बेन्टिक के सम्मुख एक बड़ा प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि इस धन को किस प्रकार की शिक्षा पर व्यय किया जाय? भारतीयों के प्राचीन ग्रन्थों और भारतीय विद्याओं तथा प्राचीन हिन्दू पाठशालाओं, विद्यालयों एवं मकतबों पर यह धन व्यय किया जाय अथवा ब्रिटेन की शिक्षा प्रणाली के आधार पर नवीन स्कूल और कॉलेज खोले जायें तथा भारत में पाश्चात्य शिक्षा को आरम्भ किया जाय? इसी से सम्बन्धित प्रश्न यह भी था कि शिक्षा का माध्यम संस्कृत, फारसी आदि में से कोई भाषा हो अथवा अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जाय?
प्राच्य-पाश्चात्य विवाद :
इस विषय पर भारत में शिक्षा की व्यवस्था के लिए जो समिति नियुक्त की गयी थी उसमें गम्भीर मतभेद थे। एक वर्ग भारतीय शिक्षा के पक्ष का था, जिसे प्राच्यवादी (Orientalist) कहा गया है और जिसका नेतृत्व एच0 एच0 विल्सन, विलियम जोन्स, चार्ल्स विल्किंस और जेम्स प्रिन्सेप कर रहे थे। दूसरा वर्ग अंग्रेजी भाषा के पक्ष (Occidentalists or Anglicists) का था जिसे पाश्चात्यवादी कहा गया है और जिसका नेतृत्व मैकाले, जेम्स मिल, चार्ल्स ग्राण्ट, ट्रेवेलियन के साथ-साथ राजा राममोहन राय और ईश्वरचन्द्र विद्यासागर सदृश कुछ उदार भारतीय कर रहे थे। प्रथम विचारधारा को मानने वालों में कंपनी के पुराने बंगाली कर्मचारी थे । इनका सामान्यतः यह विश्वास था कि शिक्षा के संबंध में वारेन हेस्टिग्ज़ और मिन्टो की नीतियाँ निर्णायक थीं अर्थात् संस्कृत और अरबी के अध्ययन को प्रोत्साहन दिया जाए और भारत में पाश्चात्य विज्ञान और ज्ञान का प्रसार इन्हीं भाषाओं के माध्यम से किया जाए। दूसरा दल बंबई में प्रभावशाली था जिसके नेता मुनरो और एलफिन्स्टन थे। इनके अनुसार पाश्चात्य शिक्षा स्थानीय देशी भाषाओं के माध्यम से दी जानी चाहिए। भारत के अति-राष्ट्रीयतावादी विचारक प्राचीन भारतीय संस्कृति व वेदों की उच्चता पर बल देते थे और प्राचीन साहित्य के अध्ययन को आवश्यक समझते थे। 1813 के चार्टर अधिनियम में कहा गया था, “साहित्य का पुनरुत्थान एवं सुधार करने, भारत के निवासियों को प्रोत्साहन देने तथा भारत के ब्रिटिश राज्यक्षेत्र के निवासियों के बीच विज्ञान की शिक्षा का संवर्धन करने के लिए प्रतिवर्ष कम-से-कम एक लाख रुपए व्यय किए जाएँगे।“ इससे प्राच्य दल को प्रेरणा मिली और उन्होंने हिंदू व गुसलमानों के प्राचीन साहित्य के पुनरुत्थान पर बल दिया ।
प्राच्य दल विज्ञान की शिक्षा और विकास का विरोधी नहीं था परंतु उसने यह युक्ति प्रस्तुत की कि यूरोपीय ज्ञान-विज्ञान को ऐसी भाषा के माध्यम से पढ़ाया जिससे भारतीय परिचित थे। उपयोगी पुस्तकों का अंग्रेजी से अरबी और संस्कृत भाषाओं में अनुवाद किया जाए। प्राच्य दल देशी उच्च शिक्षण-संस्थाओं के संरक्षण का समर्थन कर रहा था। प्राच्य दल के प्रमुख सदस्य प्रिंसेप, कलकत्ता मदरसे को सुरक्षित रखने के इच्छुक थे। वारेन हेस्टिग्ज़ ने कलकत्ता मदरसा की स्थापना की और डंकन ने ’बनारस संस्कृत कॉलेज’ स्थापित किया। बंगाल की ’लोक-शिक्षा समिति’ में प्राच्यवादियों का बहुमत था । शिक्षा सचिव एच० टी० प्रिंसेप स्वयं प्राच्यवादी दल का नेता था और समिति का मंत्री एच० एच० विल्सन भी इसी दल का था। समिति में प्राच्यवादी नीति के समर्थकों के बहुमत के कारण प्राच्य शिक्षा एवं साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए कॉलेजों का निर्माण किया गया, विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति दी गई एवं प्राच्य भाषाओं के ग्रंथ प्रकाशित किए गए।
प्राच्य दल के संबंध में डेविड काफ़ लिखते हैं - यह वर्ग यद्यपि भारतीय संस्कृति के पाश्चात्यीकरण का विरोधी था, किंतु उसके आधुनिकीकरण का विरोधी नहीं था। प्राच्यवादी एक ऐसी कड़ी थे जिन्होंने स्थानीय उच्चवर्ग को समकालीन यरोप की उत्साहपूर्ण सभ्यता से परिचित कराया। उन्होंने एक नवीन मध्यवर्ग की संरचना में योगदान दिया और बंगाल के शिक्षित वर्ग को व्यावसायिक बनाया।
प्राच्यवादियों ने स्कूलों की स्थापना की, भाषाओं को नियोजित किया, भारत में छापाखाना व प्रकाशन-कार्य आरंभ किया, पुस्तकों, पत्रिकाओं, समाचार- पत्रों और संपर्क के अन्य साधनों को विकसित किया। उन्होंने भारत में प्रथम वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं का निर्माण किया और यूरोपीय चिकित्सा का अध्ययन आरंभ किया। वे न तो स्थिर शास्त्रीयतावादी थे और न ही विकास के विचार के विरोधी। उन्होंने भारत के भूतकाल की ओर ध्यान आकृष्ट किया और भारतीय बुद्धिजीवियों में ऐतिहासिक जागरूकता का विकास किया। उनका प्रभाव नगरीकरण को प्रोत्साहन देने वाला और धर्मनिरपेक्ष था। अतः पाश्चात्यीकरण के विरोधी होते हुए भी ब्रिटिश प्राच्यवादी भारतीय संस्कृति के आधुनिकीकरण में सहयोगी हुए। प्राच्यवादी ऐसी रचनात्मक योजनाओं का प्रस्ताव कर रहे थे जिनसे विदेशी व भारतीय तत्त्वों के सार्थक सम्मिश्रण द्वारा परिवर्तन लाया जाए। प्राच्यवादियों की परिवर्तन-संबंधी विचारधारा बांग्लवादियों से इसलिए भिन्न थी क्योंकि वे परिवर्तन की ऐसी प्रक्रिया अपनाना चाहते थे जिसमें भारतीय अपने जीवन-मूल्यों के आधार पर स्वयं को परिवर्तित कर सकें। इसलिए परिवर्तन के लिए प्रेरणा केवल पश्चिम के देशों से ही नहीं वरन् भारत की प्राचीन संस्थाओं का फिर से अध्ययन करके भी ली जा सकती थी। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह था कि यह परिवर्तन जिन व्यक्तियों के लिए किया जाए उनके लिए सार्थक हो चाहे उसकी प्रेरणा प्राचीन भारतीय मूल्यों से ली गई हो या समकालीन यूरोपीय विचारों से। इस प्रकार का आधुनिकीकरण रचनात्मक और विकासशील होगा, केवल अनुकरण या सम्मिश्रण पर आधारित नहीं। अतः उसमें नवीन एवं प्राचीन, विदेशी एवं भारतीय तत्त्वों का समन्वय होगा।
प्राच्यवादियों ने हिंदू रिवाजों के विद्वतापूर्ण पुनर्गठन को और शिक्षित भारतीयों ने अपनी प्राचीन संस्कृति के पुननिर्माण को प्राथमिकता दी। भारत के इस पुनर्जागरण का कोई एक निर्माता नहीं था। अनेक व्यक्तियों ने इसमें योग दिया और इन व्यक्तियों को संस्थाओं का सहयोग व समर्थन प्राप्त था। जोन्स और कोलक को एशियाटिक सोसाइटी का, राममोहन राय को ब्रह्म समाज का, मृत्युंजय को फ़ोर्ट विलियम कॉलेज, डेरोज़ियो (Derozio) को हिंदू कॉलेज और विलियम केरे (Carey) को फोर्ट विलियम कॉलेज तथा सीरामपुर मिशन का समर्थन एवं आधार उपलब्ध था। अपने प्राचीन स्वर्ण युग के पुनर्जागरण के विचारों से भारतीयों में आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जागृत हुआ। अनेक इतिहासकार इस कारण प्राच्यवादियों को भारत की आधुनिकता का विरोधी मानते हैं क्योंकि उन्होंने भारतीय स्वर्ण की शास्त्रीयता को प्रधानता दी। परंतु महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्राच्यवादियों ने इस स्वर्णयुग की कल्पना भूतकाल के लिए न करके भविष्य के लिए की थी। प्लासी के युद्ध (1757) से लेकर स्थायी बंदोबस्त (1793) तक अंग्रेजों के हस्तक्षेप ने बंगाल के परंपरागत उच्चवर्ग की सामाजिक व्यवस्था को इतना अस्त-व्यस्त कर दिया था कि जब प्राच्यवादियों ने स्वर्णयुग और अंधयुग के अंतर का विचार प्रस्तुत किया तो अनेक बंगालियों ने इसे तत्परता से स्वीकार किया। भारतीय जनता का एक वर्ग यूरोपीय संपर्क एवं शिक्षा प्राप्त करके एक शिक्षित उच्च वर्ग का स्थान ग्रहण कर चुका था। अपनी इस नवीन सामाजिक स्थिति और प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए इस वर्ग ने प्राच्यवादियों की स्वर्ण युग वाली विचारधारा को स्वीकार किया।
वस्तुतः कुछ प्राच्यवादी कूटनीतिक कारणों से भी इस नीति का प्रतिपादन कर रहे थे। प्रिन्सेप अंग्रेज़ी भाषा की उत्कृष्टता पर बल देता था और मानता था कि भारतीय अँग्रेजी भाषा पर अधिकार प्राप्त नहीं कर सकते हैं। विल्सन नहीं चाहता था कि भारतीय अंग्रेजी पढ़कर अँग्रेज़ों के साथ समानता के धरातल पर खड़े हो सकें। कुछ प्राच्यवादियों का मत था कि पाश्चात्य ज्ञान एवं विचारों के संपर्क में आने से भारतीय संस्कृति का विनाश हो जाएगा। अति- राष्ट्रवादी या रूढ़िवादी भारतीय यह मानते थे कि भारतीय ज्ञान की निधि अपार और पर्याप्त है। उन्होंने कहा कि आधुनिक युग की सभी उपलब्धियां और आविष्कार, आधुनिक भौतिकी, रसायन, प्राणिशास्त्र के सिद्धांत और निष्कर्ष वेदों में उल्लिखित हैं। उन्हें ठीक तरह से समझने और व्याख्या करने की आवश्यकता है।
दूसरी ओर आंग्लवादी, भारत पर पश्चिमी मानदंडों को पूर्णतः आरोपित करना चाहते थे और पूर्वी सभ्यता के प्रति कोई सहानुभूति नहीं रखते थे। मैकाले का विश्वास था कि यदि अंग्रेज़ी शिक्षा की योजनाओं को कार्यान्वित किया जाए तो तीस वर्षों में बंगाल के सभ्य वर्गों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा, और यह कार्य बिना किसी धर्मप्रचार या धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किए, केवल ज्ञान और चिंतन की स्वाभाविक प्रक्रिया से किया जा सकेगा। औद्योगिक क्रांति के काल में यह स्वाभाविक था कि मैकाले-जैसे विक्टोरियाकालीन देशभक्तों ने उद्योगीकरण को अत्यंत महत्त्वपूर्ण समझा और ब्रिटिश सभ्यता को उच्च माना। इसी भावना ने आंग्लवादी विचारधारा को प्रभावित किया।
पाश्चात्यवादी दल में कंपनी के नवयुवक अधिकारी व मिशनरी प्रमुख थे। उनका विचार था कि प्राच्य शिक्षा-पद्धति मरणासन्न है और उसको पुनर्जीवित करना असंभव है। वे कहते थे कि अरबी-फारसी और संस्कृत साहित्य में रूढ़िवादी एवं संकुचित विचारों के अतिरिक्त कोई लाभप्रद ज्ञान नहीं है। वे अंग्रेजी शिक्षा द्वारा भारत में पाश्चात्य विचारों का प्रचार करना और औद्योगिक क्रांति के लाभ से भारतीयों को परिचित कराना चाहते थे। अपने व्यापारिक तथा प्रशासनिक कार्यों के लिए अँग्रेज़ों को जिसे बाबू वर्ग की आवश्यकता थी उसके लिए भारतीयों को शिक्षित करके तैयार करना उचित समझा गया। मैकाले ने भारतीय संस्कृति के स्थान पर पाश्चात्य संस्कृति की स्थापना पर बल दिया। वह भारतीयों के एक ऐसे वर्ग का निर्माण करना चाहता था जो रंग और खून में तो भारतीय हो परंतु रुचि, विचार, नैतिकता और बुद्धि से अंग्रेज़ हो । राममोहन राय जैसे प्रगतिशील भारतीय और उनके दल वाले मैकाले के घोर समर्थक थे। 1823 ई0 में राजा राममोहन राय ने गवर्नर-जनरल को एक स्मरण-पत्र भेजा। इसमें निवेदन किया गया कि “गणित, प्राकृतिक दर्शन, रसायन, शरीररचनाविज्ञान और अन्य उपयोगी विज्ञानों को समाविष्ट करने वाली अधिक उदार और प्रबुद्ध शिक्षा प्रणाली को प्रश्रय दिया। राजा राममोहन राय भारतीय राजनीति के उदार पंथ के अग्रदूत माने जाते हैं । इस उदार पंथ ने पाश्चात्य शिक्षा को आदर्श माना और अँग्रेज़ी भाषा की उच्चता पर बल दिया। लार्ड विलियम बेन्टिक के बाद यह विवाद लगभग पॉंच वर्ष तक चलता रहा और लार्ड आकलैंण्ड़ ने 24 नवम्बर 1839 के एक विवरण द्वारा इसे समाप्त कर दिया।
मैकाले घोषणापत्र, 1835 -
बेन्टिक ने अपनी कार्यकारिणी के नवीन कानूनी सदस्य मैकॉले ¼Macaulay½ को इस समिति का सभापति नियुक्त किया जिसने 2 फरवरी, 1835 ई0 को अपने विचारों एवं निष्कर्षों को एक विशेष विवरण ¼Minutes½ के रूप में प्रस्तुत किया जिसमें उसने भारतीय शिक्षा एवं ज्ञान को बहुत हीन बताते हुये भारत के आयुर्वेद विज्ञान, गणित, ज्योतिष, इतिहास आदि की खिल्ली उड़ाई तथा अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने का समर्थन किया। उसका तर्क था कि भारतीय भाषाओं में न तो कोई वैज्ञानिक जानकारी है और न ही कोई साहित्यिक तत्व। उसने एक स्थान पर लिखा- “क्या हम झूठा इतिहास, झूठा नक्षत्र-विज्ञान और झूठा चिकित्सा-शास्त्र पढ़ायें क्योंकि ये सब एक झूठे धर्म के साथ सम्बद्ध हैं।“ उसने कहा कि भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है और ज्ञान की दृष्टि से बहुत निम्न श्रेणी की है। उसने कहा- ‘‘युरोप के अच्छे पुस्तकालय की आलमारी का केवल एक भाग ही भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है।‘‘ वास्तव में मैकाले की योजना थी कि भारत में एक ऐसा वर्ग बनाया जाय जो रंग और रक्त से तो भारतीय हो लेकिन प्रवृति, विचार, नैतिकता तथा बुद्धि से अंग्रेज हो। उसने अपने पिता को एक पत्र में यह आशा भी व्यक्त की थी कि- यदि हमारी शिक्षा योजनाओं का अनुसरण किया गया तो बंगाल के प्रतिष्ठित वर्ग में आने वाले तीस वर्षो में कोई मूर्ति-पूजक नही रहेगा।
लार्ड विलियम बेन्टिक ने मैकाले के विचार को 7 मार्च 1835 ई0 के एक प्रस्ताव अंग्रेजी शिक्षा अधिनियम द्वारा अनुमोदित कर दिया। इस प्रकार मैकाले के समर्थन के कारण अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम और पाश्चात्य शिक्षा को भारत की शिक्षा प्रणाली का आधार स्वीकार कर लिया गया।
इस स्मरण-पत्र में पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन करते हुए यह प्रावधान किया गया कि -
1. सरकार के सीमित संसाधनों का प्रयोग पश्चिमी विज्ञान तथा साहित्य के अंग्रेजी में अध्यापन हेतु किया जाए।
2. सरकार स्कूल तथा कॉलेज स्तर पर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी करे तथा इसके विकास के लिये कई प्राथमिक विद्यालयों के स्थान पर कुछ स्कूल तथा कॉलेज खोले जाएं।
3. प्राच्य शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो कुछ भी किया गया है उसको समाप्त न करके उसको वैसा ही बना रहने दिया जाय। उसके अध्यापकों तथा छात्रों को पूर्व के समान अनुदान मिलता रहेगा।
4. प्राच्य विद्या सम्बन्धी साहित्य का प्रकाशन भविष्य में नही किया जायेगा।
5. इस घोषणापत्र द्वारा यह निश्चित किया गया कि उच्चस्तरीय प्रशासन की भाषा अंग्रेजी होनी चाहिए। इस निर्णय के पीछे अंग्रेजों का यह मत था कि इससे न केवल कम्पनी को सस्ते क्लर्क मिलेंगे अपितु अंग्रेजी माल की मॉंग भी अधिक होगी।
भारतीय शिक्षा के इतिहास में मैकाले का योगदान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। मैकाले की कटु आलोचना भी की गई है और प्रशंसा भी। उसके आलोचकों ने भारत में बाद में फैलने वाले असंतोष व राजनीतिक अशांति का कारण उनकी अंग्रेजी शिक्षा प्रचार की नीति को बताया है। उसपर भारतीय भाषाओं के अपमान व आलोचना का दोषारोपण किया गया है परंतु मैकाले भी भारतीय भाषाओं के महत्व को समझते थे। उसने कहा था- “देशी भाषाओं के प्रोत्साहन एवं विकास में हमारी अत्यधिक रुचि है। हम समझते हैं कि देशी भाषाओं में साहित्य का विकास हमारा अंतिम उद्देश्य है और हमारे सब प्रयास इस दिशा में लग जाने चाहिए। परन्तु उसने भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना संभव नहीं समझा। अतः अपने पक्ष को बल देने के लिए उसने प्राच्य साहित्य व धर्म की निंदा की। उसके विवरणपत्र का यही सर्वप्रमुख दोष है। भारत में उत्पन्न होने वाली राजनीतिक अशांति के लिए भी मैकाले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा नीति ही उत्तरदायी नहीं थी। इस नीति की अनुपस्थिति में भी यह अशांति उत्पन्न हो सकती थी। मैकाले की आलोचना में यह भी कहा गया है कि भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के उपासक वर्ग का निर्माण कर उसने भारतीयों में फूट का बीजारोपण करने का प्रयत्न किया।
मैकाले के प्रशंसकों के विचार भी अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। उसे प्रगति पथ का प्रदर्शक’ कहना उचित नहीं है। वह प्रथम व्यक्ति नहीं था जिसने भारत में अंग्रेजी शिक्षा की ओर कदम उठाया था। मैकाले आंग्लवादी दल का संगठनकर्ता भी नहीं था। जब वह भारत आया, आंग्लवादी और प्राच्यवादी विवाद उग्र रूप से चल रहा था। मैकाले ने केवल इस विवाद का शीघ्र निर्णय किया। उसने शिक्षा की आधुनिक संरचना का शिलान्यास अवश्य किया परंतु उसे भारतीय शिक्षा का पथप्रदर्शक नहीं माना जा सकता। उसके प्रशंसकों ने उसे बहुत ऊँचा स्थान देने का प्रयत्न किया है। उसे भारतीयों में राजनीतिक जागरण, वैधानिक चेतना एवं आर्थिक विचारधाराओं के उत्कर्ष के लिए उत्तरदायी बताया गया है जो अतिशयोक्तिपूर्ण है।
हालॉंकि इस निर्णय का भारत पर बहुत घातक प्रभाव पड़ा जिसका दुष्परिणाम हम आज तक महसूस कर रहे है लेकिन इसका एक पक्ष लाभ का भी था। इससे न केवल भारतीयों को एक सर्वदेशीय भाषा मिली अपितु इसके द्वारा भारत में राष्ट्रीयता की भावना का तीव्र गति से विकास होने लगा। मैकाले ने माना कि अरबी और संस्कृत की तुलना में अंग्रेजी अधिक उपयोगी और व्यवहारिक है। जिस प्रकार लैटिन एवं यूनानी भाषाओं से इंग्लैंड में और पश्चिम यूरोप की भाषाओं के रूप में पुनरुत्थान हुआ, उसी प्रकार अंग्रेजी से भारत में पुनरूत्थान होना चाहिए। इसी आज्ञापत्र के बाद से लार्ड मैकाले को भारत में अंग्रेजी शिक्षा का जन्मदाता कहा जाता है।
इन सिफारिशों के अनुरूप 1835 ई0 में लार्ड़ विलियम बेन्टिक ने कलकत्ता में एक मेड़िकल कॉलेज की स्थापना की, रूड़की में थॉमसन इंजीनियरिंग कॉलेज खोला गया और कालान्तर में मद्रास में 1852 ई0 में मद्रास विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। सरकारी स्कूलों में कतिपय छात्रवृतियाँ देने की व्यवस्था की गयी और देशी भाषाओं की प्रगति में भी कुछ धन व्यय किया गया।