window.location = "http://www.yoururl.com"; Lord Curzon and its Reforms (1899-1905) | लार्ड कर्जन और उसके सुधार

Lord Curzon and its Reforms (1899-1905) | लार्ड कर्जन और उसके सुधार

 


विषय-प्रवेश (Introduction)

आधुनिक भारत के इतिहास में जॉर्ज नथानिएल कर्जन, जिसे आमतौर पर लॉर्ड कर्जन के नाम से जाना जाता है, को 1899 से 1905 तक भारत का सबसे महत्वपूर्ण वायसराय माना जाता है। 1899 ई0 में लॉर्ड एलगिन द्वितीय के बाद लॉर्ड कर्ज़न मात्र 39 वर्ष की आयु में भारत का सबसे कम उम्र का वायसराय बनकर आया था। भारत का वायसराय बनने के पूर्व भी कर्ज़न चार बार भारत आ चुका था और इसके साथ-साथ उसने सीलोन, अफगानिस्तान, चीन, पर्शिया, तुर्किस्तान, जापान और कोरिया का दौरा किया था। लॉर्ड कर्ज़न के अतिरिक्त भारत के किसी अन्य गवर्नर जनरल के पास पूर्वी देशों के बारे में इतना विस्तृत अनुभव और विचार नहीं था। लॉर्ड कर्ज़न एक निरंकुश और कट्टर नस्लवादी शासक था और यह भारत में ब्रिटेन के “सभ्यता मिशन“ के प्रति आश्वस्त था। उसने भारतीयों को “चरित्र, ईमानदारी और क्षमता में असाधारण हीनता या कमी“ के रूप में वर्णित किया।

भारत में वायसराय के रूप में उसका कार्यकाल काफ़ी उथल-पुथल का रहा है। लॉर्ड कर्ज़न के विषय में पी0 राबटर्स ने लिखा है कि- “भारत में किसी अन्य वाइसराय को अपना पद सम्भालने से पूर्व भारत की समस्याओं का इतना ठीक ज्ञान नहीं था, जितना कि लॉर्ड कर्ज़न को। कर्ज़न ने जनमानस की आकांक्षाओं की पूर्णरूप से अवहेलना करते हुए भारत में ब्रिटिश हुकूमत को पत्थर की चट्टान पर खड़ा करने का प्रयास किया“। लॉर्ड कर्ज़न ने भारत में शिक्षा और आर्थिक सुधारों के लिए मुख्य रूप से कार्य किये थे। भूमि पर लिये जाने वाले भूमिकर को और अधिक उदार बनाये जाने हेतु उसने ’भूमि प्रस्ताव’ भी पारित किया था। बंगाल को दो प्रांतों में विभाजित करने के अपने विवादास्पद निर्णय के लिए कर्जन को भारतीय इतिहास में याद किया जाता है।

लॉर्ड कर्जन की आन्तरिक नीति (Domestic Policy of Lord Curzon)

आन्तरिक नीति के क्षेत्र में लार्ड कर्जन का एकमात्र लक्ष्य शासन के सम्पूर्ण ढाँचे में बदलाव करके उसे शक्तिशाली बनाना था। वह भारतीयों की समस्याओं को समझ गया था और उन्हें सुलझाने के लिए वह उनकी सहायता नहीं लेना चाहता था, वरन उनकी उपेक्षा कर उनकी भावनाओं की परवाह किये बिना सुधार किया जो उसकी सबसे बड़ी भूल थी। अपने शासनकाल में उसने विभिन्न सुधार किये जिनमें से अनेक शासन के लिए उपयोगी साबित हुए और कई ऐसे भी साबित हुए जिन्होंने भारतीय जनता में तीव्र असन्तोष उत्पन्न किये।

लॉर्ड कर्जन के सुधारों से शासन का कोई अंग अछूता न रहा, परन्तु दुर्भाग्य की बात यह थी कि उसे भारत की स्थिति का व्यावहारिक ज्ञान अन्त तक नहीं हो सका। वह सर्वदा एक ऐसे अंगरेज अधिकारी की भाँति रहा जो एक विजेता राज्य द्वारा एक विजित राज्य को देखभाल के लिए भेजा गया था। उसने भारतीयों की भावना को समझने का कोई प्रयत्न नहीं किया। भारतीयों की योग्यता एवं क्षमता में उसका बिल्कुल विश्वास न था और उसके विचार में उनका नैतिक स्तर निम्न कोटि का था। वह उनपर अविश्वास के साथ-साथ घृणा करने लगा और उनकी भावनाओं पर कुठराघात करने लगा। उसकी सहानुभूति शासन की ओर थी न कि उन व्यक्तियों की तरफ जिनपर शासन करने के लिए वह भारत भेजा गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीयों में भी प्रतिक्रिया आरम्भ हो गयी और वे उसकी सद्भावना पर भी अविश्वास करने लगे तथा उसे घोर घृणा की दृष्टि से देखने लगे। प्रतिभाशून्य होते हुए भी लॉर्ड रिपन जितना अधिक लोकप्रिय हो गया था, प्रतिभासम्पन्न होते हुए भी लॉर्ड कर्जन उतना ही अलोकप्रिय हो गया था।

कर्जन ने अपनी सुधार-योजनाओं को बड़े ही व्यवस्थित रूप से लागू करना शुरू किया। जब वह शासन सम्बन्धी किसी समस्या को लेता था तब उसकी जाँच के लिए एक आयोग नियुक्त कर देता था। शासन के सम्बन्ध में उसकी यह धारणा थी कि प्रत्येक विभाग की एक निश्चित नीति होनी चाहिए और उस विभाग के सारे कार्य उसी नीति के अनुसार होना चाहिए। कर्जन का यह शासन सम्बन्धी सिद्धान्त उसकी विलक्षण प्रतिभा तथा उसकी मस्तिष्क की उर्वरता के परिचायक हैं। उसने निम्नलिखित क्षेत्रों में सुधार किये -

अकाल और महामारी की रोकथाम - 

लॉर्ड कर्जन जब वायसराय बनकर भारत आया था उस समय भारत अकाल तथा प्लेग की महामारी के संकट से पूर्ण रूप से मुक्त नहीं हो पाया था। 1899-1900 ई0 का अकाल भारत के दक्षिणी, मध्य, पश्चिमी क्षेत्र के लिये विनाशकारी हुआ था। कर्जन ने स्वयं अकालग्रस्त क्षेत्र का दौरा कर वहाँ राहत पहुँचाने के आदेश दिये। लार्ड कर्जन ने बडे धैर्य से इनका सामना किया। उसने क्षतिग्रस्त इलाकों का भ्रमण किया एवं वहाँ के लोगों को उचित आर्थिक सहायता देने का प्रबंध किया। लेकिन इसके बावजूद उसकी सरकार की आलोचना की गई कि अकाल सहायता के सम्बन्ध में अत्यधिक मितव्ययिता से कार्य लिया गया तथा करों तथा भूमि के लगान के सम्बन्ध में वह जनता को रियायते देने में असफल रहा। उसने मैकडोनाल्ड़ की अध्यक्षता में एक ’अकाल आयोग की नियुक्ति की जिसका कार्य अकाल सहायता की व्यवस्था को योग्यतापूर्वक चलाने के सम्बन्घ में सिफारिशें प्रदान करना था। इस आयोग ने 1901 ई0 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में इस बात पर बल दिया कि वास्तविक तैयारी की कमी रही है। आयोग ने अकाल के पुनः न होने देने तथा उसकी बुराईयों को दूर करने के सम्बन्ध में कुछ सुझाव प्रस्तुत किये। उसने अनैतिकता को रोकने की आवश्यकता पर भी बल दिया। सरकार को नैतिक युद्ध कौशल की नीति का अनुसरण करना था। उसे जनता में चारित्रिक पतन को रोकने के लिये शीघ्र कार्रवाई करने को कहा गया। आयोग ने गैरसरकारी सहायता के लाभों पर भी बल प्रदान किया। उसने रेलों, कृषि बैंकों तथा सिंचाई के कार्यों में नियुक्त कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि की सिफ़ारिश की। आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर अकाल संहिताओं में संशोधन किए गये।

1900 ई0 के बाद अकाल पर तो काबू पा लिया गया किन्तु महामारी का प्रकोप बना रहा। उसकी रोकथाम के सारे प्रयत्न निष्फल रहे। कर्जन के शासनान्त तक लगभग एक लाख लोग मौत के मुॅंह में चले गयें।

किसानों की सुरक्षा और कृषि सम्बन्धी सुधार -

लार्ड कर्जन के शासन काल में किसानों की सुरक्षा एवं कल्याण के लिए कई योजनायें बनायीं गयीं। उसने कृषि-बैंक खुलवाये तथा 1904 ई० में “दि को-ऑपरेटिव क्रेडिट सोसाइटीज ऐक्ट” पारित कराया जिसके द्वारा किसानों को ठीक ब्याज पर कर्ज देने की व्यवस्था की गयी। किसान साधारणतया महाजनों से भारी ब्याज पर कर्ज लिया करते थे। सहकारी समितियों की स्थापना से इस विषय में उनको सहायता देने का प्रयास किया गया। पंजाब के किसानों की स्थिति को सुधारने के लिए 1900 ई० में कर्जन ने “दि पंजाब लैंड एलियनेशन ऐक्ट” बनाया जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि कोई भी साहूकार कर्ज के बदले में बिना सरकार की अनुमति के किसी किसान की भूमि पर अधिकार नहीं कर सकता था। कर्जन ने सिचाई की योजना में वृद्धि की और 1901 ई0 में सिचाई की समस्या का अध्ययन करने के लिए सर वाल्विन स्टाक मोन्क्रिफ के नेतृत्व में एक आयोग की नियुक्ति हुयी। आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1903 ई0 में प्रस्तुत की और उसकी सिफारिशों के अनुरूप  सिंचाई के लिए 20 वर्षों में 44 करोड़ रुपये खर्च किये जाने की व्यवस्था की गई। सिचाई के क्षेत्र में 65 लाख एकड़ भूमि की वृद्धि की आशा की गई। इस योजना के परिणामस्वरूप पंजाब में चिनाब, झेलम, दोआब आदि नहरों का निर्माण कार्य प्रारम्भ कराया। 

लार्ड कर्ज़न ने भारत में कृषि के लिए वैज्ञानिक पद्धतियों को लागू करने का प्रयत्न किया। स्वयं उसके शब्दों में- “हमारा वास्तविक सुधार पहली बार यह प्रयत्न करना है कि भारतीय कृषि के अध्ययन तथा अभ्यास के लिए विज्ञान को भारी मात्रा में लागू किया जाए।” 1901 ई0 में लार्ड कर्जन नें कृषि के इन्सपेक्टर जनरल की नियुक्ति की। कृषि की उन्नति तथा कृषि के मौलिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता प्रदान करने के लिए कर्जन ने वैज्ञानिक ढंग से कृषि करने को प्रोत्साहित किया और इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए 1905 ई0 में मिस्टर हेनरी फिप्पस के प्रयास से बिहार पूसा नामक स्थान में एक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान खोला गया तथा प्रयोग के लिए 1 लाख 30 हजार पाउण्ड का वार्षिक अनुदान दिया। 

लगान-व्यवस्था के दोषों को समाप्त करने के लिए 1902 ई० में तीन सिद्धान्त निर्धारित किये गये. पहला, लगान में धीरे-धीरे वृद्धि की जाय। दूसरा, लगान को वसूल करते समय इस बात पर ध्यान रखा जाय कि कृषि को किसी प्रकार से हानि तो नहीं हुई थी और तीसरा, स्थानीय संकट के समय किसानों को तुरन्त सहायता दी जाय। इन सिद्धान्तों के अनुसार, 1905 ई० में उसने “सस्पेंशन एण्ड रेमिशन्स रिजोलूशन” बनाया जिसके अनुसार प्रान्तीय सरकारों के लिए यह नियम निर्धारित किया गया कि लगान की वसूली को समाप्त करने के लिए आधी फसल का खराब होना आवश्यक था।

रेलों में वृद्धि -

केन्द्रीय सरकार की आय में वृद्धि करने के लिए रेलों को आय का एक प्रमुख साधन बनाने का निश्चय किया गया। लार्ड कर्ज़न से पूर्व रेलवे व्यवस्था की दो पद्धतियाँ थीं - कुछ रेलें कम्पनियों की व्यवस्था में थीं तथा कुछ का प्रबन्ध भारत सरकार सार्वजनिक निर्माण विभाग के द्वारा करती थी। लार्ड कर्ज़न ने भारत में रेलों की पद्धति के सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिये सर थामस राबर्टसन को नियुक्त किया जिसने 1903 ई0 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। उसने सम्पूर्ण पद्धति के पूर्ण परिवर्तन की सिफ़ारिश की। उसका विचार था कि रेलों का कार्य पहले के समान न होकर व्यापारिक कार्यों के रूप में होना चाहिए। लार्ड कर्जन ने 1905 ई0 में सार्वजनिक निर्माण कार्य की रेलवे शाखा को तोड़ दिया। इसके लिए लोक सेवा विभाग को समाप्त कर रेलवे विभाग का सारा कार्य एक तीन सदस्यीय रेलवे बोर्ड को सौंप दिया गया। नई रेलवे लाइनें खोली गई। 28150 मील से अधिक रेलवे लाइनें पूर्ण की गई तथा लगभग 3167 मील रेलवे लाइनों का निर्माण कार्य चल रहा था।

आर्थिक सुधार -

लॉर्ड कर्जन ने आर्थिक क्षेत्र में अनेक सुधार किए। उसका सबसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक सुधार 1899 ई0 में भारत में ब्रिटिश स्वर्ण मुद्रा को भारत की कानूनी मुद्रा घोषित करना था और उसकी विनिमय की दर 15 रूपया प्रति पाउण्ड निश्चित कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि अब बाहर से सोना भारत आने लगा जिससे भारत की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ। इससे कर्जन को कर के भार में कमी करने का अवसर प्राप्त हो गया। भारत के व्यापार तथा उद्योग-धन्धों की उन्नति के लिए कर्जन ने एक नया विभाग ’इम्पीरियल डिपार्टमेण्ट ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री’ स्थापित किया। जिन प्रान्तों में अकाल के कारण लोगों को बड़ी क्षति पहुँची थी, उनमें करों में कमी कर दी गयी। व्यापार तथा व्यवसाय की उन्नति के लिए नया विभाग खोला गया। कर्जन ने भी आर्थिक विकेन्द्रीकरण की नीति का समर्थन किया और उसे आगे बढ़ाया। 

यहाँ लार्ड कर्ज़न के द्वारा किये गये कुछ और सुधारों का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। खानों का अधिनियम तथा असम का श्रमिक अधिनियम श्रमिकों को कुछ सुरक्षा प्रदान करने के लिये स्वीकृत किये गये। लार्ड कर्ज़न ने उपहारस्वरूप जर्मनी से प्राप्त होने वाली चीनी पर अनेक प्रकार की चुंगी आदि कर लगाये। लार्ड कर्जन ने खानों के लिये भी एक मुख्य निरीक्षक, स्वच्छता निरीक्षक, कृषि के मुख्य निरीक्षक, सिंचाई के मुख्य निरीक्षक आदि पदों की नियुक्ति की व्यवस्था की।

पुलिस विभाग में सुधार -

1861 ई0 में प्रारम्भ की गई पुलिस पद्धति जनता की आशाओं के अनुरूप नहीं थी तथा जब लार्ड कर्जन ने कार्यभार सँभाला, उस समय जनता में गहरा असन्तोष था। 1902 ई0 में लार्ड कर्जन ने पुलिस विभाग की कमियॉ और उनमें होने वाले संभावित सुधार की सिफारिश करने हेतु फ्रेजर आयोग की नियुक्ति की। इस विषय की पूर्ण जॉच करने के बाद इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। आयोग ने वर्तमान पुलिस पद्धति के कार्यों की कड़ी आलोचना करते हुये कहा कि- “पुलिस शक्ति असन्तोष जनक है। प्रशिक्षण तथा संगठन की दृष्टि से भी यह दोषपूर्ण है, इस पर निरीक्षण भी अपर्याप्त है तथा वह जनता के सहयोग तथा विश्वास को प्राप्त करने में पूर्ण रूप से असफल हुई है।“

फ्रेजर आयोग की सिफारिशों के द्वारा देशी स्थानीय संस्थानों का प्रयोग, सुधरी स्थिति तथा सुधरे भविष्य के साथ अच्छे प्रकार के लोगों को नौकरी पर लगाना, अफसरों तथा अन्य प्रकार के व्यक्तियों के प्रशिक्षण का अच्छा प्रबन्ध तथा पुलिस शक्ति में निचली श्रेणी के लोगों का अधिक समीपता से निरीक्षण आदि लक्ष्य निश्चित किये गये थे। संक्षेप में फ्रेजर आयोग की कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें निम्नलिखित है -

1. आयोग ने सिफ़ारिश की कि निचली श्रेणी से ऊपर की श्रेणी में पदोन्नति के स्थान पर सीधी नियुक्ति की जाए।

2. एक सिपाही का कम से कम वेतन इतना होना चाहिए जिससे उसको निर्वाह योग्य मजदूरी मिल सके तथा वह 8 रुपये मासिक से किसी प्रकार कम नही होना चाहिए।

3. आयोग ने प्रान्तीय पुलिस शक्ति में वृद्धि तथा पुलिस कार्य के लिये वर्तमान और प्राप्त ग्रामीण सूत्रों को नौकरी पर लगाने की सिफ़ारिश की। देहातों के गश्त की पद्धति उड़ा दी गई। पुलिस के सिपाहियों को देहातों की यात्राओं के लिए किसी विशेष सूचना प्राप्त करने के लिये ही अनुमति दी गई।

4. सिपाहियों तथा पुलिस के अफ़सरों के प्रशिक्षण के लिए प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना की सिफ़ारिश की गई।

5. आयोग ने सिफ़ारिश की कि अपराधों की छान-बीन घटना स्थल पर ही की जाए। बिना औपचारिक गिरफ्तारी के किन्हीं संदिग्ध व्यक्तियों को रोकना गैर-कानूनी घोषित किया गया। स्वीकारोक्ति पर विश्वास करने तथा उसके लिये कार्य करने के अभ्यास को निरुत्साहित किया गया। पुलिस कार्य का महत्त्व अकड़ों से नहीं, अपितु स्थानीय निरीक्षण तथा पूछ-ताछ से आँका जाना था। प्रत्येक प्रान्त में एक खुफिया विभाग की स्थापना होनी थी तथा इसे केन्द्रीय विभाग के अधीन कार्य करना था तथा इसका सर्वोच्च अधिकारी फौजदारी विभाग का निर्देशक होता था। 

आयोग की इन महत्वपूर्ण सिफारिशों को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया और इन सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए पुलिस विभाग के कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की गयी। उच्च अधिकारियों की नियुक्ति प्रत्यक्ष की जाने लगी तथा उनकी शिक्षा के लिए ट्रेनिंग स्कूल खोले गये। इन सिफ़ारिशों को कार्यान्वित करने से पुलिस का व्यय बहुत बढ़ गया। 1901-02 में जहॉ यह व्यय 2691344 पौण्ड था वही 1911 ई0 में यह व्यय 4602977 पौण्ड हो गया किन्तु यह भी सत्य है कि पुलिस विभाग की कार्यप्रणाली में उतना सुधार नहीं हुआ जितना अपेक्षित था।

सैनिक सुधार (Military Reforms) -

लार्ड कर्जन के शासनकाल में सेना के क्षेत्र में भी कुछ सुधार किए गये। 1902 तथा 1904 के मध्य मोपलों, गोरखों तथा पंजाबियों ने बड़ी संख्या में स्थानीय रंगरूटों के स्थान पर पैदल तथा घुड़सवार सेनाओं में प्रवेश किया। 1900 ई0 में स्थानीय पैदल सेना को पुनः संगठित किया गया तथा चार दुगुनी कम्पनियों के फ़ौजी दस्ते संगठित किये गये। देशी अफसर ही प्रत्येक दस्ते की आन्तरिक व्यवस्था के लिये उत्तरदायी थे तथा फ़ौजी परेड और युद्ध भूमि में ब्रिटिश अफसर ही उनका संचालन करते थे।

लार्ड किचनर के नेतृत्व में देशी फ़ौजों को पुनः शस्त्र बांटे गये और तोपखाने को अच्छी तोपें दी गईं। यातायात पद्धति को पूर्ण रूप से परिवर्तित किया गया। 1901 ई0 में राजाओं तथा प्रतिष्ठित परिवारों के युवकों के लिए सम्मिलित इम्पीरियल केडेट कोर (I.C.C.)आरम्भ की गई। भारतीय फौज की सेवाएँ विदेशों में भी प्रयुक्त की गईं। भारतीय सेना को चीन तथा सुमालीलैण्ड में राजद्रोहियों के विरुद्ध नियुक्त किया गया। भारतीय फौजों ने नटाल तथा लेडीस्मिथ की रक्षा करने में सहायता दी। 1871 ई0 में तटीय रक्षा के लिये एक समुद्री रक्षा फौज को जारी किया गया। 1903 ई0 में भारतीय रक्षा का भार राजकीय समुद्री सेना ने ले लिया तथा आन्तरिक सुरक्षा फौज को तोड़ दिया गया ।

किचनर ने सेना में उपयोगी सुधार किये किन्तु फौजी नियन्त्रण के सम्बन्ध में उसका प्रभाव घातक सिद्ध हुआ। वह फौजी मामलों पर अपने पूर्ण नियन्त्रण के लिये दृढनिश्चयी था, चाहे वे मामले व्यवस्था सम्बन्धी हों अथवा कार्यपालिका सम्बन्धी। वह वायसराय की कार्यकारिणी के फौजी सदस्य को अधिकारविहीन बना देना चाहता था। लार्ड किचनर ने विद्यमान दोहरी पद्धति की इन शब्दों में आलोचना की- “इसमें कोई भी सन्देह नहीं कि यदि हमें सीमान्त प्रदेश पर बड़े युद्ध का सामना करना पड़े तो भयंकर हानि होगी। एक ऐसी पद्धति, जिसके अधीन यातायात, पूर्ति, घुड़सवार तथा गोला-बारूद फौजी नियन्त्रण से पूर्ण रूप से अलग किये जाते हैं तथा उन्हें एक स्वतन्त्र शक्ति के अधीन रख दिया जाता है, पर सम्पूर्ण संगठन का व्यय शीघ्रातिशीघ्र पड़ सकता है, ज्योंहीं युद्ध आरम्भ हो जाए, भले ही वह देर से आरम्भ हो।“ किचनर ने इस वैध नियन्त्रण को समाप्त करने की तथा सम्पूर्ण फौजी व्यवस्था को एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में रखने की सिफारिश की। ऐसे मुख्य व्यक्ति को सेनापति अथवा वायसराय की कौंसिल का युद्ध-सदस्य कहा जा सकता है।

ब्रिटिश सरकार ने ठीक प्रकार से मतभेद के इस प्रश्न को समझने का प्रयत्न नहीं किया। लार्ड राबर्ट्स तथा लार्ड लेण्सडाउन ने समझौते की एक पद्धति का समर्थन किया, जिसके द्वारा फौजी सामान के लिए एक सदस्य की नियुक्ति का प्रस्ताव किया गया था। लार्ड कर्ज़न ने एक अलग फौजी विभाग की स्थापना का विरोध किया, जिसका अध्यक्ष मुख्य सेनापति हो तथा जिसे फौजी व्यवस्था का समस्त कार्य हस्तांतरित कर दिया जाए। इसके स्थान पर सरकार ने एक समझौते का प्रस्ताव रखा। मुख्य सेनापति के नियन्त्रण में समस्त शासन व्यवस्था के केवल फौजी विभाग रहने का सुझाव दिया गया तथा उसे ही वायसराय की कार्यकारिणी में फौजी मामलों का एक मात्र प्रतिनिधि मानकर बोलने का अधिकार दिये जाने का प्रस्ताव किया गया। अन्य सहायक विभाग, जो शुद्ध रूप से फौजी नहीं थे, एक अन्य फौजी पूर्ति सदस्य के अधीन करने का विचार प्रस्तुत किया गया। लार्ड कर्ज़न ने इस समझौते के फ़ार्मूले को स्वीकार नहीं किया तथा उसने त्याग पत्र दे दिया। उसकी यह निश्चित सम्मति थी कि नई व्यवस्था दोषपूर्ण है। उसके दृष्टिकोण से मैसोपोटामिया की रक्षा भारतीय सैनिकों तथा ब्रिटिश प्रतिष्ठा के मूल्य पर की गई। मुख्य सेनापति अपने नियन्त्रण के मुख्य कर्त्तव्य को पूर्ण करने में असफल रहा। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र में कोई सर्वमान्य निष्कर्ष नही निकल सका।

भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम, 1904 (Indian Universities Act)- 

लार्ड कर्ज़न ने देश की शिक्षा-पद्धति को सुधारने का प्रयत्न किया। उस समय राष्ट्रीय आन्दोलन की भावना तीव्र होती जा रही थी और कर्जन यह नही चाहता था कि कॉलेज और विश्वविद्यालय राजनीतिक आन्दोलन का केन्द्र स्थल बनें। उसने 1901 ई0 में शिमला में एक सम्मेलन बुलाया तथा इस सम्मेलन में सरकार के बड़े से बड़े शिक्षाधिकारी तथा मुख्य विश्वविद्यालयों के अधिकृत प्रतिनिधि निमन्त्रित किये गये। इस सम्मेलन के पश्चात् 1902 ई0 में सर थामस रैले की अध्यक्षता में, जो भारत सरकार के कानून सदस्य थे, एक विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग में भारतीय सदस्य भी नियुक्त किये गये। आयोग द्वारा प्रस्तुत की गई रिपोर्ट के आधार पर कर्जन ने 1904 ई0 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित करवाया। इस अधिनियम की मुख्य बातों की व्याख्या लार्ड कर्ज़न ने इन शब्दों में की - “ इसका मुख्य उद्देश्य शिक्षा के स्तर को प्रत्येक क्षेत्र में, विशेष रूप से उच्च शिक्षा के सम्बन्ध में, उन्नत करना है। हमारी इच्छा है कि वर्तमान परीक्षाओं के स्थान पर उत्तम तथा कम भ्रमपूर्ण परीक्षाओं को लागू किया जाए, कालेजों में ऐसी प्रत्येक वस्तु के बलिदान को रोकना, जिससे हमारी विश्वविद्यालय की परिपाटी बनती है। उत्तम रीति के अध्यापकों की सहायता से उचित अध्यापन की व्यवस्था, उन कालेजों तथा संस्थाओं के सूक्ष्म निरीक्षण का प्रबन्ध, जिन्हें आजकल व्यावहारिक रूप से जुदा छोड़ दिया जाता है, विश्वविद्यालयों की व्यवस्था की योग्य, निपुण तथा उत्साहपूर्ण हाथों में छोड़ना, सीनेट का पुनः संगठन, सिण्डीकेटों के अधिकारों का स्पष्टीकरण तथा उनके नियमित उपयोग की व्यवस्था, नियमित सदस्यों को पूर्णाधिकृत स्वीकृति देना, जो चुनाव क्षेत्रों से नियमित रूप से निर्वाचित हुए हों, यदि बातों को विधिवत् प्रारम्भ किया जाए। ऐसे मार्गों का प्रदर्शन करना जिससे हमारे विश्वविद्यालय, जो इस समय केवल परीक्षा संस्थाएॅं हैं, अन्त में जाकर शिक्षण संस्थाओं के रूप में परिवर्तित हो सकें तथा वास्तव में भारत में उच्च शिक्षा को पाखण्ड के स्थान पर वास्तविकता में परिवर्तित करना है।”

वास्तव में इस अधिनियम द्वारा यह निश्चय हुआ कि विश्वविद्यालय को केवल परीक्षा लेने का काम नहीं करना चाहिए, वरन योग्य अध्यापक नियुक्त करके अनुसंधान तथा अध्यापन कार्य को बढ़ावा देना चाहिए। सिफारिशों के अनुरूप प्रारम्भिक शिक्षा की उन्नति के लिए उसने 2 लाख 30 हजार पौण्ड वार्षिक स्थायी अनुदान की व्यवस्था की। स्कूलों तथा कालेजों में छात्रावास की व्यवस्था करने का आदेश दिया गया। प्रारंभिक कक्षाओं में देशी भाषा एवं उच्च कक्षाओं में अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा देने की व्यवस्था की गई। अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिये ट्रेनिंग कालेज खोले गये। कर्जन ने औद्योगिक एवं स्त्री शिक्षा में भी रुचि दिखलाई। 

वास्तविकता यह है कि इस अधिनियम ने विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ा दिया। महाविद्यालयों को मान्यता प्रदान करने के नियमों को और कठोर बना दिया गया। विश्वविद्यालय सीनेट में भारतीयों निर्वाचित सदस्यों की संख्या काफी कम कर दी गई। यही कारण है कि इस विश्वविद्यालय अधिनियम की भारतीय जनता ने कटु आलोचना की। एक प्रकार से इस अधिनियम ने भारतीय विश्वविद्यालयों को पूर्ण रूप में अधिकृत रूप दे दिया।

प्रशासनीक ढ़ॉचे में सुधार -

लार्ड कर्ज़न ने केन्द्रीकरण की अपनी नीति को चलाने में जिन बाधाओं का अनुभव किया, उनमें से एक नौकरशाही ढांचे की असन्तोषजनक अवस्था थी, जो अपने रूप में पुरानी हो चुकी थी तथा जिसकी जड़ें दृढ़ थीं। कागजी कार्यप्रणाली इतना सुस्त और व्याप्त था कि एक-एक मामले को निबटाने में बहुत समय लगता था। लार्ड कर्ज़न के शब्दों में- “यहाँ की कार्य-प्रणाली इतनी खराब है कि एक समय ऐसा आता है जबकि एक प्रश्न हाथ से लिखे तथा छपे हुए कागजों में इस प्रकार बाँध दिया जाता है कि वहाँ वास्तविक समस्याएँ सर्वथा अस्पष्ट हो जाती हैं।“ लार्ड कर्ज़न ने इस पद्धति की तुलना महान दलदल से की है जिसमें प्रत्येक समस्या, जो कहीं से प्रकट होती है उसमें डूब जाती है।“ जब तक आप एक पर्ची लगी निशानी उस स्थान पर न लगा दें जहाँ कोई चीज गुम हुई थी और समय-समय पर चारों ओर चक्कर न लगाते रहें और पुरानी चीजों को खोजकर न निकालते रहें तो आपको वे चीजें कभी दिखाई नहीं देंगी।“

लार्ड कर्जन को ऐसे भी बहुत से मामलों का पता चला, जिन्हें उस तक पहुँचने में वर्षों लग गये। एक ऐसा विषय भी था जो पूरे इकसठ वर्षों से खटाई में पड़ा था। लार्ड कर्जन की सिफ़ारिशों को उन नियमों में कार्यान्वित कर दिया गया, जिन्हें विभागीय सचिवों की एक समिति ने बनाया था तथा उसने उन्हें सम्पूर्ण केन्द्रीय सचिवालय में लागू कर दिया । उन नियमों की प्रतियाँ प्रान्तीय सरकारों को भी अपने सचिवालयों में लागू करने के लिए भेज दी गई। लार्ड कर्जन ने सभी विभागों को प्रेरित किया कि वे निजी परामर्श के द्वारा अपने कार्य को निपटा लिया करें, लम्बे मतभेदों से बचकर नोटादि लिखने की परिपाटी तथा निर्णयों तक पहुँचने में होने वाली देर से बचें।

लार्ड कर्जन ने प्रयत्न किया कि सरकारी रिपोर्टों तथा अ्रांकड़ों के प्रकाशन में उल्लेखनीय कमी की जाए। लेकिन फ्रेजर के अनुसार, यह कार्य बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं था क्योंकि रिपोर्टों के छोटा किये जाने के कारण सरकारी रिपोर्ट सूखी हड्डियों के ढाँचे के समान हो गई। सरकार जनता को आंकड़े देने के महत्त्व को समझने में सफल न हो सकी। 

कर्जन भारतीयों को उच्च तथा उत्तरदायीपूर्ण पदों के लिए सर्वथा अयोग्य समझता था। उसकी यह धारणा थी कि भारतीयों में शासन करने के उन सभी गुणों का अभाव होता है जो एक अंग्रेज में पाया जाता है। अतः उसने सभी उच्च पदों को अंग्रेजों के लिए सुरक्षित रखने का निश्चय किया और प्रतियोगिता परीक्षा द्वारा नियुक्त करने के स्थान पर उसने मनोनीत करने की व्यवस्था का अनुसरण किया। इस प्रकार लॉर्ड कर्जन का यह कार्य भारतीयों के लिए असन्तोष का बहुत बड़ा कारण बन गया।

कलकत्ता नगर निगम अधिनियम (Culcutta Corporation Act)- 

लार्ड कर्जन को भारत में स्थानीय सरकार के क्षेत्र में कमी करने का एक अवसर प्राप्त हो गया। बंगाल व्यवस्थापिका सभा के सम्मुख कलकत्ता कार्पोरेशन में संशोधन करने का एक बिल था। इसे रिपन-विरोधी संगठन के द्वारा चलाये गये आन्दोलन के परिणामस्वरूप लाया गया था। आलोचकों का विचार था कि तात्कालिक कलकत्ता कारपोरेशन सफाई की कठिन समस्या को सुलझाने में असमर्थ है। इस बिल का उद्देश्य कलकत्ता निगम के अधिकारों को कम करना तथा कार्यकारिणी को अधिक अधिकार देना था। निगम में निर्वाचित प्रतिनिधियों को तो रखा गया किन्तु “नगर के कार्यों का वास्तविक नियन्त्रण कार्यकारिणी समिति को हस्तांतरित कर दिया गया, जो कि निर्माण तथा शैली में अधिकांश ब्रिटिश थी। “

लार्ड कर्ज़न ने इस पद्धति को दोहरे शासन का भद्दा तथा शरारत से भरा रूप बताया। अन्त में लार्ड कर्जन की इच्छानुसार बिल में परिवर्तन कर दिया गया तथा यह 1900 ई0 में कानून बन गया। इस नये अ्रधिनियम के अनुसार कलकत्ता कार्पोरेशन के सदस्यों की संख्या 75 से 50 कर दो गई। निगम के 25 निर्वाचित सदस्यों को जो कर दाताओं के प्रतिनिधि थे, कम कर दिया गया। इस प्रकार इस व्यवस्था से कारपोरेशन में ब्रिटिश दल को निश्चित बहुमत प्राप्त हो गया। एक प्रकार से निगम आंग्ल-भारतीय सदन बन गया। सुरेन्द्र नाथ बनर्जी के अनुसार, 1900 के अधिनियम के द्वारा कलकत्ता में स्थानीय स्वराज्य का लोप हो गया। स्पष्ट है कि शासन की कार्यक्षमता के आधार पर लॉर्ड कर्जन ने लॉर्ड रिपन द्वारा स्थानीय स्वशासन की स्थापित प्रणाली पर आघात किया और उनके अधिकारों में कमी कर दी, जिससे वह भारतीय जनमानस में बड़ा अलोकप्रिय हो गया।

प्रेसीडेन्सी गवर्नरों का पद (Status of Presidency Governors) - 

लार्ड कर्ज़न प्रत्येक क्षेत्र में केन्द्रीकरण की नीति में विश्वास करता था। उसकी इच्छा थी कि सब प्रकार के महत्त्वपूर्ण अधिकार उसके अपने हाथों में रहें। वह चाहता था कि भारत के सब भागों में होने वाली प्रत्येक वस्तु की जानकारी उसे प्राप्त हो। वह अधिकारियों की तनिक सी स्वतन्त्रता को भी सहन नहीं कर सकता था, चाहे वे अधिकारी कितने ही ऊॅंचे तथा प्रतिष्ठित हों। यह बात इस प्रकार से भली प्रकार समझी जा सकती है कि उसने प्रेसीडेन्सी गवर्नर के अधिकारों तथा पदों को भी कम करने का असफल प्रयत्न किया।

लार्ड कर्जन बम्बई तथा मद्रास के राज्यपालों की उदासीन मनोवृत्ति को भी पसंद न करता था। 1899 ई0 में उसने भारत मन्त्री को इस प्रकार लिखा - “विकेन्द्रीकरण अच्छी वस्तु है, किन्तु बम्बई तथा मद्रास की स्थिति में मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह नीति इतनी आगे बढ़ गई है, जिसमें सर्वोच्च सरकार कहीं नहीं तथा जिसमें इन सरकारों के छोटे नवाब भी इस सम्बन्ध में सावधान हैं कि सारा उत्तरदायित्व उन पर ही है।“

लार्ड कर्जन ने मद्रास तथा बम्बई के राज्यपालों की चुप्पी की भी शिकायत की तथा उसने उन्हें कहा कि वे उसे घटनाओं से सूचित करते रहें। उसने सुझाव दिया कि प्रेसीडेन्सी गवर्नरों की पदवी भी उत्तर प्रदेश आदि के राज्यपालों के समान घटा दी जाये। उसका विचार यह था कि उसके सुझाव से भारतीय नागरिक सेवा की लोकप्रियता को फिर से प्रगति मिलेगी क्योंकि उस सेवा के लिए दो अधिक आकर्षक पदों की वृद्धि हो रही थी। तथापि ब्रिटिश मन्त्रिमण्डल ने उसके विचारों को स्वीकार न किया और इस प्रकार वह अपने उद्देश्य में सफल न हो सका।

प्राचीन स्मारक सुरक्षा अधिनियम, 1904- 

लॉर्ड कर्जन ने प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक इमारतों की सुरक्षा और जीर्णोद्धार के लिए सन् 1904 ई0 में ‘‘प्राचीन स्मारक सुरक्षा अधिनियम‘‘ पारित करवाया। इस अधिनियम के अनुसार प्राचीन इमारतों को नष्ट करना या हानि पहुँचाना कानूनन अपराध घोषित कर दिया गया। इस कार्य का उत्तरदायित्व संभालने के लिये 1904 ई0 में ’भारतीय पुरातत्व विभाग’ स्थापित किया गया और इसके सर्वोच्च अधिकारी के रूप में एक मुख्य निदेशक की नियुक्ति की गई। इस पुरातत्व विभाग का कार्य इतिहास से सम्बन्धित दस्तावेजों को एकत्रित करना और उत्खनन करना है जिससे कि ऐतिहासिक जानकारी को प्रकाश में लाने में मदद मिल सके। इस विभाग के प्रयासों के परिणामस्वरूप प्राचीन ऐतिहासिक स्थानों की सुरक्षा हो सकी तथा वे नष्ट होने से बच सके।


1 Comments


  1. *जब हम गिरने लगे तो हमे उठाया आपने*
    *मंजिल की ओर हमे बढ़ाया आपने,*
    *अंजान थे हम खुद की काबिलियत से*
    *हमे खुद से वाकिफ कराया आपने।*

    *****************
    औकात नही मेरी, जो लिखूँ मै आपके लिए,
    जिन्होंने मुझे ही लिखना सिखाया है!!!!

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