लार्ड रिपन के वायसराय के पद से त्यागपत्र देने के बाद वायसराय के रूप में लार्ड डफरिन की नियुक्ति हुई। वह तुर्की तथा रूस में ब्रिटिश राजदूत रह चुका था। वह 1872 से 1878 तक कनाड़ा का गवर्नर-जनरल भी था। वह एक प्रभावशाली वक्ता था तथा उसके महान् व्यक्तित्व में आकर्षण था। वृद्ध होने के कारण उसने कोई नया सुधार नहीं किया, अपितु पुराने सुधारों को ही जारी रखा।
पंजदेह का मामला, 1884 (Punjdeh Affair) -
यहाँ प्रसिद्ध पंजदेह घटना का उल्लेख करना अभीष्ट है, जिसके कारण रूस तथा इंग्लैंड युद्ध के समीप आ पहुँचे। 1884 ई0 में रूसियों ने मेर्व को अपने राज्य में मिला लिया। इससे भारत तथा इंग्लैंड की सरकारों में महान चिन्ता उत्पन्न हुई। एक आयोग नियुक्त किया गया, जिसका कार्य अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा निश्चित करना था। पंजदेह की स्थिति के सम्बन्ध में एक बाधा प्रस्तुत हुई। पंजदेह अफगान शासन के अधीन था। रूसी सेनापति ने अफगानों को पंजदेह से चले जाने की आज्ञा दे दी तथा जब इस आज्ञा का पालन नहीं किया गया, तब उसने जबरदस्ती अफगानों की फौजों को बाहर धकेल दिया। स्थिति को गम्भीर देखते हुए भारतीय फौजें कोयटा में तथा रूसी फौजें हैरात में इकट्ठी हो गईं तथापि “कूटनीतिज्ञों के परिश्रम, लार्ड डफरिन की निपुणता, तथा सबसे बढ़कर अब्दुर्रहमान के व्यवहारिक ज्ञान से युद्ध का भयानक प्रश्न टल गया। अफगानिस्तान के अमीर अब्दुर्रहमान ने घोषणा की कि उसे इस बात का पूर्ण निश्चय नहीं है कि पंजदेह उसके अधिकार में है अथवा नहीं तथा वह इस बात के लिए भी बहुत इच्छुक नहीं कि वह उसे अपने अधिकार में रखे। उसने इस सम्बन्ध में अपनी स्वीकृति की घोषणा की कि वह पंजदेह पर अपना दावा छोड़ देगा यदि उसे किसी अन्य स्थान पर क्षतिपूर्ति कर दी जायेगी। अमीर इस बात के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ था कि वह इंग्लैंड तथा रूस के मध्य संघर्ष से बचेगा। वह यह बात अच्छी प्रकार जानता था कि यदि दोनो देशों में युद्ध हुआ, तब उसके देश को कष्ट भोगना पड़ेगा, क्योंकि उसे युद्ध की भूमि बनना पड़ेगा। अब्दुर्रहमान के ही शब्दों में - “मेरा देश एक उस बेचारी बकरी के समान है, जिस पर सिंह तथा रीछ दोनों ने अपनी दृष्टि टिका रखी है। उस सर्वशक्तिमान मुक्तिदाता की सहायता तथा रक्षा के बिना यह शिकार बहुत देर तक नहीं बच सकता।“
अन्त में रूस, इंग्लैंड, भारत तथा अफगानिस्तान के मध्य लम्बी बातचीत हुई तथा अन्त में जुलाई 1887 ई0 में सीमान्त रेखा के सम्बन्ध में समझौता हो गया। अब्दुर्रहमान को किसी प्रकार से कोई हानि नहीं हुई। उसे न तो रुपये की हानि हुई और न किसी इलाके की हानि हुई। लार्ड डफरिन ने अब्दुर्रहमान को रावलपिण्डी में एक दरबार में एक भोज दिया तथा उसे आश्वासन दिया कि ब्रिटिश आक्रमण के समय अंग्रेज उसकी सहायता करेंगे।
तृतीय बर्मा- युद्ध (Third Burmese War)-
बर्मा के तृतीय युद्ध का वास्तविक कारण यह था कि बर्मा के नरेश थीबा ने अंग्रेजों के विरुद्ध फ्राँसीसियों को कुछ विशेष सुविधाएँ तथा रियायतें देकर उनसे सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। बर्मा के प्रतिनिधि मण्डल ने 1883 ई0 में पेरिस की यात्रा की तथा 1885 ई0 में एक फाँसीसी राजदूत को मॉण्डले भेजा गया। नरेश थीबा एक बर्बर तथा अत्याचारी राजा था तथा उसने बम्बई तथा बर्मा व्यापार कम्पनी पर भारी जुर्माना कर दिया तथा उसके अधिकारियों को बन्दी किये जाने की आज्ञा दे दी। लार्ड डफरिन ने इस सम्बन्ध में एक जाँच के लिए अनुरोध किया लेकिन नरेश थीवा ने इस प्रश्न को पुनः प्रारम्भ करने से इनकार कर दिया। लार्ड डफरिन ने चुनौती दी, जिसमें इस बात की मॉंग की कि नरेश थीबा एक ब्रिटिश राजदूत को माण्डले में रहने की अनुमति दे, कम्पनी के विरुद्ध कार्यवाई को तब तक स्थगित कर दे जब तक कि राजदूत वहाँ नहीं पहुॅंचता, विदेशियों के साथ भारत सरकार की अनुमति के बिना किसी प्रकार के बाहरी सम्बन्ध न रखे तथा अंग्रेजों को इस बात का अधिकार दे कि वे इसके उपनिवेशों के द्वारा चीनियों के साथ व्यापार कर सकें। नरेश थीवा ने चुनौती की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया, परिणामस्वरूप युद्ध की घोषणा कर दी गई। बर्मा के लोग अंग्रेजों के सम्मुख न ठहर, सके तथा उन्होंने घुटने टेक दिये। नरेश थीबा को भारत भेज दिया गया तथा 1886 ई0 में बर्मा के उत्तरी भाग को भारत में मिला लिया गया।
उपरी बर्मा के सम्बन्ध में ब्रिटिश हस्तक्षेप अनेक ओर से आलोचना का विषय रहा है। यह कहा जाता है कि यह ब्रिटिश सरकार का कार्य नहीं था कि वह उपरी बर्मा के कार्यों में हस्तक्षेप करे, चाहे उसका शासक अत्याचारी तथा बर्बर व्यक्ति था। ब्रिटिश सरकार को ऐसे पड़ोसी राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करने को समुचित नहीं कहा जा सकता, जिसका शासक अपनी इच्छानुसार नीति-निर्धारण में पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। यदि बर्मा नरेश थीबा फ्रांस के साथ मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखना चाहता था, तो अंग्रेज उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रिटिश सरकार इस बात के लिए कृतसंकल्प थी कि वह उपरी बर्मा में फ्रांस को बढ़ने से रोके। लार्ड डफरिन के शब्दों में- “यदि फ्रांसीसी कार्रवाई के कारण ऊपरी बर्मा में हमें किसी प्रकार से प्रविष्ट होने का अवसर मिलता है, तब मुझे बर्मा को अंग्रेजी राज्य में मिलाने में कुछ भी संकोच नहीं करना चाहिए।
लार्ड डफरिन के समय की अन्य घटनाओं के सम्बन्ध में उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है। 1885 ई0 में राष्ट्रीय महासभा का प्रथम अधिवेशन बम्बई में हुआ। 16 फरवरी, 1887 को महारानी विक्टोरिया की रजत जयन्ती मनाई गई। जून, 1887 ई0 में बहुत से भारतीय नरेश इस उत्सव को देखने के लिए लन्दन गये। लार्ड डफरिन के समय में स्वीकृति की आयु वाला अधिनियम भी स्वीकृत हुप्रा। इस अधिनियम के द्वारा नवयुवती लड़कियों की आयु की सीमा जिसमें उन्हें सुरक्षा दी जा सकती थी, 10 वर्ष से 12 वर्ष बढ़ा दी गई। इसका उद्देश्य देश की महिलाओं की दशा में सुधार करना था। 1886 ई0 में लार्ड डफरिन ने महाराजा सिन्धिया को ग्वालियर का दुर्ग दे दिया।
लार्ड कर्जन के कथनानुसार- “अपने कार्यों के करने में वायसराय ने एक अनोखी उदासीनता तथा कार्यशीलता के मिश्रण का परिचय दिया। उसने प्रशासन सम्बन्धी सभी आवश्यक गुणों को प्राप्त करने के लिए कड़ा परिश्रम किया तथा उसने लम्बे-लम्बे तथा प्रभावपूर्ण विवरण लिखे। उसने सार्वजनिक भाषणों के सम्बन्ध में काफी परिश्रम किया। वे भाषण उसके अन्य भाषणों तथा व्याख्यानों के समान ध्यानपूर्वक तैयार किये गए होते थे। उसने फ़ारसी का अध्ययन करने के लिए काफ़ी समय लगाया तथा परिश्रम किया। उसके मन में यह मिथ्या भावना अंकित थी कि फ़ारसी शिक्षित लोगों तथा भारतीय नरेशों की भाषा है, जिनके साथ वह उनकी ही भाषा में बातचीत करने की आशा रखता था। किन्तु वह विस्तार के सम्बन्ध में लापरवाह था, विभागीय कार्यों में बहुत कम हस्तक्षेप करता था तथा सभी छोटे मामलों के निबटाने का कार्य यह अपने निजी सचिव तथा अफसरों पर छोड़ देता था।
लार्ड लैन्सडाउन, 1888-93 (Lord Lansdowne) -
लार्ड लैन्सडाउन प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति था। उसने सीमान्त सुरक्षा के प्रश्न की ओर विशेष ध्यान दिया। अफ़ग़ानिस्तान तथा ब्रिटिश भारत के इलाकों में एक ऐसा क्षेत्र है जिसे कबायली क्षेत्र कहा जाता है। अंग्रेज इसे जीतना चाहते थे, यद्यपि यह कार्य कठिन था। इसे अफ़ग़ानों ने पसंद नहीं किया। कुछ घटनाओं के कारण अफ़ग़ानिस्तान तथा भारत सरकार युद्ध के समीप पहुँच गई। अफ़ग़ानों ने ब्रिटिश रेल के दर्रा बोलान तक बढ़ाये जाने के कार्य की पूर्णता को सन्देह की दृष्टि से देखा। 1890 ई0 में एक राजदूत चितराल गया और प्रसन्नतापूर्वक दोनों देशों का झगड़ा शान्त हो गया तथा एक सन्तोषजनक समझौता हो गया। सर मोर्टीमर डूरण्ड ने स्वयं बिना किसी सुरक्षा के काबुल की यात्रा की तथा प्रकट किया कि उसे अफगानों पर पूर्ण विश्वास है। भारत तथा अफ़गानिस्तान की सीमान्त रेखाओं को अलग-अलग करने के लिए प्रबन्ध किये गये और यह रेखा डूरण्ड रेखा कहलाती है।
काबुल के अमीर ने कबायली क्षेत्र में हस्तक्षेप न करना स्वीकार कर लिया। सीमान्त रेखा के अलग कर लेने से अमीर को कुछ जिले प्राप्त हो गये तथा उसने वचन दे दिया कि वह स्वात, दीर, चितराल तथा बाजौर के सम्बन्ध में हस्तक्षेप नहीं करेगा। अमीर ने चमन के सम्बन्ध में अपना दावा छोड़ दिया। उसे प्राप्त होने वाली रकम 12 लाख से 18 लाख वार्षिक कर दी गई। उसे इस बात की अनुमति प्राप्त हो गई कि वह युद्ध के हथियार आदि खरीद सकता है तथा उनका आयात कर सकता है। इस सम्बन्ध में भारत सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करेगी।
मणिपुर के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का प्रश्न विवादास्पद था। असम के कमिश्नर से कहा गया कि वह इस विषय का निबटारा कर दे, किन्तु मणिपुर के मुख्य सेनापति की धोखे से हत्या कर दी गई। इसका परिणाम यह हुआ कि भारत सरकार ने मणिपुर को अपनी फौजें भेज दीं। मुख्य सेनापति तथा उसके साथी बन्दी बना लिये गये तथा उन्हें फाँसी पर लटका दिया गया। राजगद्दी पर एक बालक नरेश को बिठा दिया गया तथा उसकी अल्पवयस्कता की अवस्था में उसे राजनैतिक रैजीडेंट के संरक्षण में कर दिया गया।
कश्मीर के सम्बन्ध में वहॉं के महाराज पर बहुत से अस्पष्ट और काल्पनिक दोष लगाए गये और उन्हे गद्दी छोड़ने को कहा गया। प्रशासन व्यवस्था का कार्य एक रीजेंसी कौंसिल के सुपूर्द किया गया। कश्मीर को उसके शासक को 16 वर्षों के पश्चात् पुनः दे दिया गया। 1892 ई0 में प्रसिद्ध कौंसिलों का प्रधिनियम स्वीकार हुआ। कारखानों का नया कानून स्वीकृत हुआ। यह 1881 ई0 के कारखाना अधिनियम में किए गए बहुत से संशोधनों पर आधारित था। इस नये अधिनियम के अनुसार स्त्रियों के लिए नौकरी के घण्टे दिन में 11 सीमित कर दिए गयें। बच्चों की कम से कम आयु 7 वर्ष से 8 वर्ष कर दी गई तथा उनके कार्य के घण्टे भी 7 निश्चित’ कर दिये गये। बच्चों के लिए रात्रि में कार्य करना पूर्ण रूप से बन्द कर दिया गया, कारखानों में काम करने वालों के लिए एक साप्ताहिक अवकाश की व्यवस्था कर दी गई। चॉंदी के मूल्य घट जाने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था में कुछ अ्रस्त-व्यस्तता सी हो गई। भारत सरकार ने चाँदी की निर्बाध सिक्केबन्दी के विरुद्ध टकसालों को बन्द कर दिया तथा सोने को अधिकृत मान लिया। विनिमय का भाव गिनती के लिये 15 रुपये निश्चित किया गया। भारतीय रियासतों की सेनाओं को संगठित किया गया तथा उन्हें “साम्राज्य सेवा सेना“ का नाम दिया गया।
लार्ड एलगिन, द्वितीय, 1894-99 (Lord Elgin, II) -
लार्ड एलगिन द्वितीय एक गम्भीर तथा सावधान शासक था, किन्तु उसके कार्य-काल में अकाल, प्लेग तथा सीमान्त युद्धों के कारण बहुत से कष्टों का सामना करना पड़ा। सबसे पहले चितराल के मामलों का उल्लेख करना अभीष्ट है। यह कश्मीर के उत्तर-पूर्व में स्थित है। 1895 ई0 में चितराल के शासक, जिसे मेहतर भी कहा जाता है, की हत्या कर दी गई। उसके उत्तराधिकार का प्रश्न विवादास्पद था। ब्रिटिश राजनैतिक एजेण्ट को घेर लिया गया। भारत सरकार ने 1500 सैनिक भेजे। इस बीच में इंग्लैण्ड में नया मंत्रिमण्डल बना, जिसने इस प्रदेश को खाली कर देने का आदेश दिया, किन्तु इससे पूर्व कि उस आदेश को कार्यान्वित किया जाय, एक नये मंत्रिमण्डल ने पद ग्रहण किया तथा उसने प्रदेश खाली कर देने वाली आज्ञा के विरुद्ध आज्ञा दे दी।
1899 ई0 में बम्बई में गिल्टी वाली भयंकर प्लेग फूटी। धीरे-धीरे वह देश के विभिन्न भागों में फैल गई तथा इसका परिणाम यह हुआ कि अत्यधिक जन-हानि हुई। सरकार ने उसको नियंत्रित करने के लिए जो कार्रवाई की, उससे जनता में बहुत-सी गलतफहमी तथा कटुता फैली। पूना में दो अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी गई। 1896 ई0 तथा 1898 के मध्य उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार तथा पंजाब के हिसार जिले में भयंकर अकाल पड़ा। 1898 ई0 में अकालों के सम्बन्ध में जाँच करने के लिये पुनः एक आयोग नियुक्त किया गया। इस समय भारत सरकार को अफीम की उत्पत्ति की समस्या के सम्बन्ध में भी कार्रवाई करनी पड़ी। 1893 ई0 में एक अफीम आयोग नियुक्त किया गया था, जिसका काम अफीम के प्रयोग के जनता के स्वास्थ्य पर प्रभाव के सम्बन्ध में जॉच करना तथा रिपोर्ट करना था। अफ़ीम की उपज पर सरकार के एक मात्र अधिकार होने के कारण सरकार उसे चीन को निर्यात करने के द्वारा बहुत-सा लाभ उठा रही थी। इस प्रथा का विरोध किया गया। आयोग की रिपोर्ट यह थी कि अफीम के बुरे प्रभावों को बढ़ा-चढ़ा कर वर्णित किया गया है। सरकार अफ़ीम की उपज से प्राप्त होने वाली आय को छोड़ने में असमर्थ थी। यह भी कहा गया कि यदि अफ़ीम का भारत से चीन में निर्यात न किया गया, तो चीन के लोग घटिया ढंग की किसी अन्य ऐसी वस्तु का प्रयोग करेंगे तथा उसका और भी बुरा प्रभाव पड़ेगा। अ्रन्त में यह निश्चय किया गया कि चीन को भेजी जाने वाली अफ़ीम की मात्रा में कमी की जाए।
Your many gratitude guruji 🙏🙏🙏🙏
ReplyDelete