window.location = "http://www.yoururl.com"; British Afgan Policy : From Lawrence to Ripon | ब्रिटिश अफगान नीति: लारेन्स से रिपन तक

British Afgan Policy : From Lawrence to Ripon | ब्रिटिश अफगान नीति: लारेन्स से रिपन तक

 


19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में रूस द्वारा पूरब की दिशा में बढ़ना भारत स्थित अंग्रेजी साम्राज्य के लिए गंभीर चिंता का विषय था। उधर यूरोप में भी बाल्कन प्रदेशों को लेकर इन दोनों के संबंध अच्छे नहीं थे। यद्यपि भारत पर रूसी आक्रमण बहुत आसान नहीं था, लेकिन इंग्लैंड अपने भारत स्थित साम्राज्य की रूसी आक्रमण से सुरक्षा को लेकर बहुत चिंतित था। रूस के आक्रमण से भारत की सुरक्षा के लिए इंग्लैंड में मुख्यतः दो विचारधाराएँ थीं- एक, ’अग्रगामी नीति’ और दूसरी, कुशल अकर्मण्यता की नीतिः। अग्रगामी नीति के समर्थकों का विश्वास था कि भारत पर रूस का आक्रमण निश्चित है, अतः भारत की ब्रिटिश सरकार को उसका मुकाबला करने के लिए भारत के सीमावर्ती राज्यों फारस तथा अफगानिस्तान से संधियाँ करनी चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि अफगानिस्तान में ऐसा शासक हो, जो अंग्रेजों की इच्छानुसार कार्य करे अर्थात् अफगानिस्तान के आंतरिक एवं विदेशी मामलों पर पूर्णरूप से अंग्रेजों का अधिकार होना चाहिए। दूसरे शब्दों में, अफगानिस्तान के शासक को ब्रिटिश नियंत्रण में लाने के लिए आवश्यकतानुसार अफगानिस्तान से संघर्ष भी करना चाहिए। इसी नीति के कारण ही भारत स्थित ब्रिटिश सरकार को अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों को अफगानों से दो युद्ध करने पड़े, जिनमें धन और जन की हानि तो हुई ही, साथ ही अंग्रेजों का अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप अनैतिक एवं अनुचित माना गया।

प्रथम आंग्ल-अफगान युद्ध (1838-42) के विनाश और लॉर्ड आकलैंड की अग्रगामी नीति की विफलता (जिसका विवरण लार्ड आकलैण्ड़ के अध्याय में किया गया है।) का ब्रिटिश नीतिनिर्माताओं पर गहरा प्रभाव पड़ा। इसके बाद वायसरायों ने हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई, जिसे कुशल अकर्मण्यता’ की नीति (Masterly Inactivity) कहा जाता है। इस नीति के समर्थकों का मानना था कि भारत की ब्रिटिश सरकार को अफगानिस्तान के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए और अफगानिस्तान के अमीर को धन तथा शस्त्रों से सहायता देनी चाहिए जिससे वह अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर सके। इंग्लैंड को यूरोप में ही रूस के साथ कोई संधि कर लेना चाहिए जिससे अफगानिस्तान की समस्या उलझने न पाये। इस नीति को स्पष्ट रूप में सबसे पहले सर जान लॉरेंस (1864-1869 ई0) ने प्रतिपादित किया था, यद्यपि लॉर्ड केनिंग के पत्रों में भी इस नीति की उत्पत्ति के आधार मिलते हैं। इस कुशल अकर्मण्यता’ की नीति का पालन लॉर्ड लॉरेस के समय से लॉर्ड नॉर्थब्रुक के समय तक किया गया। लॉर्ड लिटन (1876-1880 ई0) ने पुनः अफगानिस्तान के विरूद्ध अग्रगामी नीति  अपनाई, जिसके कारण मूर्खतापूर्ण द्वितीय आंग्ल-अफगान युद्ध हुआ

दरअसल, अंग्रेजों को 18वीं सदी के आरंभ से ही भारत पर रूस के आक्रमण की आशंका थी, अतः अंग्रेजों ने अफगानिस्तान की ओर विशेष ध्यान दिया क्योंकि वह भारत की सीमा में स्थित था। भारत की ब्रिटिश सरकार ने समय-समय पर अफगानिस्तान के प्रति अग्रगामी और कुशल अकर्मयण्ता दोनों नीतियों का पालन किया। किंतु जब भी ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में परिवर्तन होते थे, तो अंग्रेज सरकार की नीति बदल जाती थी और भारत की ब्रिटिश सरकार की नीति में भी परिवर्तन हो जाता था क्योंकि भारत स्थित ब्रिटिश सरकार की नीति ब्रिटेन के मंत्रिमंडल द्वारा ही संचालित होती थी। अतएवं उपर्युक्त दोनों नीतियों का आधार तथा समय-समय पर नीति में परिवर्तन अंग्रेजों की स्वार्थ सिद्धि तथा ब्रिटेन के मंत्रिमंडल में परिवर्तन से जुड़ा था।

लार्ड़ केनिंग के उत्तराधिकारी लॉर्ड एलिगन का कार्यकाल अत्यंत छोटा रहा। उसने 1862 ई0 में गवर्नर-जनरल पद का कार्यभार संभाला था और नवंबर, 1863 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई। उसका कार्यकाल मात्र एक वर्ष रहा था। इस समय उत्तर-पश्चिम में अफगानिस्तान की समस्या गंभीर हो गई थी। अफगानिस्तान भारतीय विदेश नीति की समस्या बन गई थी क्योंकि पंजाब के अंग्रेजी साम्राज्य में विलय से ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा अफगानिस्तान से मिल गई थी। यद्यपि यह सीमा स्पष्ट नहीं थी, किंतु इस सीमा पर दक्षिण के बलूचिस्तान से लेकर उत्तर में चित्राल तक सीमा के क्षेत्र में अशांति फैली रहती थी। इसलिए सीमा को सुरक्षित करना एक बड़ी समस्या थी।

ब्रिटिश सुरक्षा नीति 

यद्यपि 1844 ई0 में इंग्लैंड और रूस में एक समझौता हुआ था, जिसके अनुसार बुखारा, खिवा और समरकंद के राज्यों की तटस्थता कायम कर दी गई थी, जिससे इंगलैंड और रूस का तनाव कुछ कम हुआ, लेकिन यह समझौता अधिक दिनों तक कायम रहनेवाला नहीं था। 1853 ई0 में यूरोप में क्रीमिया युद्ध छिड़ गया जिसमें इंगलैंड और रूस एक-दूसरे के विरोधी थे और 1844 ई0 के समझौते का अंत हो गया। क्रीमिया में रूस की हार हो गई, इसलिए रूस मध्य एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाने लगा और वह अफगानिस्तान की ओर बढ़ रहा था। इससे अंग्रेजों के भारतीय साम्राज्य के लिए संकट उत्पन्न हो गया। अब प्रश्न यह था कि रूस के भारत पर संभावित आक्रमण से निपटने के लिए किस प्रकार की नीति अपनाई जाये?

अग्रगामी विचारधारा के समर्थकों का विचार था कि अंग्रेजों को अफगानिस्तान पर अधिकार कर लेना चाहिए या ऑक्सस को सीमा-रेखा मान लिया जाये। उनका कहना था कि रूस से संघर्ष मध्य एशिया में किया जाये। दूसरी विचारधारा सीमित उत्तरदायित्व की थी, जिसे अकर्मण्यता की नीति कहा गया है। इस नीति के समर्थकों का कहना था कि अफगानिस्तान को रूसी साम्राज्य तथा भारत के ब्रिटिश साम्राज्य के मध्य बफर या तटस्थ राज्य के रूप में रखा जाए और साथ ही अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठे अमीर से मित्रतापूर्ण संबंध रखे जायें। उसे धन, अस्त्र-शस्त्र से सहायता प्रदान की जाये, जिससे वह रूस के प्रभाव में न आ सके। एक दूसरा विचार यह भी था कि भारत की सीमा को पीछे करके सिंधु नदी को सीमा बना लिया जाए, किंतु इस विचारधारा का प्रभाव बहुत कम था।

सर जान लॉरेंस की अफगान नीति 

दोस्त मुहम्मद की 1863 ई0 में मृत्यु के बाद उसके 16 पुत्रों में गद्दी के लिए संघर्ष शुरू हो गया। दोस्त मुहम्मद ने एक पुत्र शेरअली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था। 1864 ई0 में जब लॉरेंस भारत आया, उसके लिए आवश्यक था कि वह अफगानिस्तान के बारे में कोई नीति निर्धारित करे। गृहयुद्ध में शेरअली ने भारत सरकार से सहायता माँगी, लेकिन लॉरेंस ने निर्णय किया कि वह यथास्थिति को स्वीकार करेगा और उत्तराधिकार के संघर्ष में हस्तक्षेप नहीं करेगा। लॉरेंस की इस नीति को कुशल अकर्मण्यता की नीति’ कहते हैं।

अफगानिस्तान में सिंहासन को लेकर उत्तराधिकार का युद्ध 1863 ई0 से 1868 ई0 तक चला। दोस्त मुहम्मद की इच्छानुसार उसका पुत्र शेरअली 1863 ई0 में अफगानिस्तान का अमीर बन गया। वह बड़ी कठिनाई से तीन वर्ष तक अफगानिस्तान की गद्दी पर बना रहा। 1866 ई0 में दोस्त मुहम्मद के एक अन्य पुत्र अफजल ने शेरअली को काबुल से निकाल दिया और 1867 ई0 में उसे कांधार से भी बाहर कर दिया। अंततः शेरअली को हेरात में शरण लेनी पड़ी। 1867 ई0 में अफजल की मृत्यु हो गई, लेकिन अफजल के बड़े पुत्र अब्दुर्रहमान ने अमीर की गद्दी पर दावा नहीं किया और इसलिए उसका छोटा भाई आजम अफगानिस्तान की गद्दी पर बैठा। किंतु 1868 ई0 में शेरअली के ज्येष्ठ पुत्र याकूब खाँ ने कांधार पर पुनः अधिकार कर लिया और इसके बाद शेरअली ने काबुल पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार शेरअली ने गद्दी पुनः प्राप्त कर ली। 1869 ई0 में शेरअली ने अब्दुर्रहमान और आजम को युद्ध में पराजित कर दिया। आजम फारस भाग गया, जहाँ कुछ समय बाद उसकी मृत्यु हो गई। अब्दुर्रहमान ताशकंद भाग गया और वहाँ दस वर्षों तक रूस के पेंशनर के रूप में रहा। शेरअली के सफल होने पर लॉरेंस ने उसे अमीर स्वीकार कर 60,000 पाउण्ड़ की आर्थिक मदद और 3500 सैनिकों के लिए हथियार दिये, लेकिन शेरअली के साथ उसने रक्षात्मक संधि करना अस्वीकार कर दिया।

सर जान लॉरेंस की निष्क्रियताः 

उत्तराधिकार के युद्ध में शेरअली ने स्पष्ट रूप से दिखा दिया था कि वह एक योग्य शासक था और उसमें अफगानों को नियंत्रण में रखने की क्षमता थी, लेकिन इस युद्ध में जो उतार-चढ़ाव आये, उससे भारत की ब्रिटिश सरकार को कठिनाई का सामना करना पड़ा। लॉरेंस ने बुद्धिमानीपूर्वक इस उत्तराधिकार युद्ध में किसी का पक्ष नहीं लिया क्योंकि उसका विश्वास था कि भारत सरकार के लिए सर्वोत्तम नीति यही होगी कि वह इस युद्ध से पूर्णरूप से पृथक् रहे। इसका एक दूसरा कारण भी था। दोस्त मुहम्मद ने 1857 ई0 के विद्रोह के समय अंग्रेजों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण नीति अपनाई थी। इसलिए दोस्त मुहम्मद के प्रति अंग्रेजों में कृतज्ञता का भाव था। एक बार दोस्त मुहम्मद ने लॉरेंस से वार्ता के दौरान यह इच्छा प्रकट की थी कि उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्रों को उत्तराधिकार का निर्णय स्वयं करने दिया जाये क्योंकि वह नहीं चाहता था कि अंग्रेज उत्तराधिकार के मामले में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करें। सर जानलॉरेंस की नीति थी कि युद्ध में जो दावेदार सफल हो, उसे अमीर स्वीकार कर लिया जाये। लेकिन स्थिति इतनी जटिल थी कि लॉरेंस को बार-बार के परिवर्तनों को स्वीकार करना पड़ा और इससे अजीब स्थिति बन गई। इस प्रकार लॉरेंस की नीति वस्तुस्थिति के परिवर्तन के साथ बदलती रहती थी।

लारेन्स की नीति को ‘अकर्मण्यता की नीति‘ कहा गया है किन्तु उसकी नीति पूर्ण निष्क्रियता की नीति थी। उसका कहना था कि हम उसी व्यक्ति को काबुल का अमीर स्वीकार करेंगे जिसके हाथ में वास्तविक सŸा हो। वह अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में किसी प्रकार के हस्तक्षेप का कट्टर विरोधी था। उसकी दृष्टि में अफगानी स्वतंत्रता प्रेमी होते है इसलिए यदि हस्तक्षेप किया गया तो वे उस अमीर के विरूद्ध हो जायेंगे जिसको भारत सरकार सहायता देगी। लारेन्स सीमा बढ़ाने के भी विरुद्ध था क्योंकि उसका मानना था कि अफगान यह समझने लगेंगे कि अंग्रेज उनके देश पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे है, इसलिए वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो जायेंगे। इसलिए लारेन्स चाहता था कि ब्रिटिश सरकार रूस की सरकार से कूटनीतिक वार्ता के द्वारा अफगानिस्तान की उŸारी सीमा का निर्धारण कराये। इस प्रकार परिस्थितियों को देखते हुए लारेन्स ने अफगानिस्तान के उŸाराधिकार के युद्ध में हस्तक्षेप नहीं किया और जब अन्तिम रुप से शेर अली सफल हो गया तो उसने अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार करते हुये धन तथा अस्त्र-शस्त्र के उपहार भेंट किये।

रूसी विस्तार का प्रभाव : 

मध्य एशिया में रूस के विस्तार से लॉरेंस की अकर्मण्यता की नीति के लिए कठिनाइयाँ उत्पन्न हो गईं। रूस ने ऑक्सस नदी तक विस्तार कर लिया था। उसने 1865 ई0 में ताशकंद और 1866 ई0 में बोखारा पर अधिकार कर लिया था। 1867 ई0 में इनको मिलाकर तुर्कीस्तान के सूबे का निर्माण किया गया और जनरल काफमेन को उसका गवर्नर नियुक्त किया गया। 1868 ई0 में रूस ने समरकंद पर अधिकार कर लिया। इससे अफगानिस्तान के लिए संकट बढ़ गया और इंग्लैंड में अग्रगामी नीति के समर्थक लॉरेंस की निष्क्रियता की नीति की आलोचना करने लगे। दूसरी ओर लॉरेंस इस सुझाव का विरोधी था कि ऑक्सस नदी पर रूस को रोकने के लिए सैनिक हस्तक्षेप किया जाये। उसका कहना था कि रूस से युद्ध करने के लिए अफगानिस्तान का पहाड़ी और बंजर इलाका भी उपयुक्त नहीं था। उसकी दृष्टि में सर्वोत्तम नीति हस्तक्षेप न करना था। उसने यह भी कहा कि अफगानिस्तान में पहले आक्रमण करने वालों को शत्रु और दूसरी बार प्रवेश करने वाले को मित्र समझा जायेगा।

लॉरेंस पर यह आरोप लगता है कि उसने रूसी संकट की उपेक्षा की, जो कि सही नहीं है। वह चाहता था कि रूसी संकट को हल करने के लिए ब्रिटिश सरकार रूसी सरकार से बात करे। इस वार्ता से अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा निश्चित की जाये और रूस को चेतावनी दी जाये कि वह इस सीमा का उल्लंघन न करे। उसकी इस नीति का सबसे बड़ा लाभ यह था कि इससे रूसी सेनापतियों के संदेहों को दूर किया जा सका कि अंग्रेज अफगानिस्तान में षड्यंत्र कर रहे थे। इससे वातावरण में शांति और विश्वास की स्थापना में सहायता मिली।

लॉरेंस की अफगान नीति की समीक्षा

लॉरेंस को नीति के पक्ष तथा विपक्ष में विद्वानों ने मत व्यक्त किये हैं। इस नीति के समर्थकों का कहना है कि यह नीति अंग्रेजों के लिए लाभदायक सिद्ध हुई थी। हस्तक्षेप न करने से अंग्रेज़ों को अफगानों की मित्रता प्राप्त हुई। अगर हस्तक्षेप किया जाता तो अफगान लोग रूस और फारस की मित्रता प्राप्त कर लेते। इस स्थिति में अंग्रेजों का सैनिक व्यय बहुत बढ़ जाता। रूस को भी स्पष्ट रूप से बता दिया गया था कि अंग्रेज अफगानिस्तान में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और रूस भी हस्तक्षेप न करे।

जबकि इसके विपरित लॉरेंस की नीति के आलोचकों का कहना था कि निष्क्रियता को नीति से अफगानिस्तान में उत्तराधिकार युद्धों को बढ़ावा मिला और इससे कोई भी अफगान अमीर अंग्रेजों के साथ स्थायी मित्रता पर विश्वास नहीं कर सकता था। यह नीति अफगानिस्तान के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाने में भी असफल रही, जैसाकि शेरअली ने कहा था कि यह निर्मम और स्वार्थमय नीति थी और अंग्रेज केवल अपने स्वार्थों को देखते थे। इस नीति से मध्य एशिया में रूसी विस्तार को बढ़ावा मिला।

राबर्ट्स ने लिखा है कि- उसकी निष्क्रियता चाहे वह शानदार रही हो या नहीं, तर्कयुक्त और सुविचारित थी। केवल थोड़े से लोग ही उसके सही होने में संदेह करेंगे।’ लॉरेंस की नीति से रूसी जनरलों का अविश्वास दूर हुआ और अफगानिस्तान में षडयंत्र और प्रतिषड्यंत्र समाप्त हो गये। उसकी नीति को कुछ संशोधनों के साथ लॉर्ड मेयो और लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने तथा पाँच भारतमंत्रियों ने अपनाया। जब लॉर्ड सेलिसबरी और लॉर्ड लिटन ने उसकी नीति को बदल दिया, तब वे सभी दुर्भाग्य और विनाश उपस्थित हो गये, जिनकी भविष्यवाणी लॉरेंस ने की थी।

डॉडवेल लॉरेंस की नीति को दुर्बलता की नीति मानता है, जिससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई और अंततः द्वितीय अफगान युद्ध हुआ। डॉडवेल के अनुसार उसकी निष्क्रियता की नीति को शानदार नहीं कहा जा सकता है क्योंकि इस नीति का अर्थ घटनाओं की प्रतीक्षा करना था। सबसे पहले पाइली ने लॉरेंस की नीति को शानदार अकर्मण्यता की नीति’ कहा था। वह लॉरेंस की नीति का समर्थन करते हुए कहता है कि केवल मनोनयन के आधार पर ब्रिटिश सरकार किसी को अमीर स्वीकार नहीं कर सकती थी, जब तक कि उसको जनता का समर्थन प्राप्त नहीं हो जाता। लॉरेंस ने इसी आधार पर मनोनयन को अस्वीकार किया और गद्दी पर वास्तविक अधिकार को मान्यता दी। अंत में, डॉडवेल लिखता है कि, यह नीति पुराने अहस्तक्षेप के सिद्धांत का निलंबित परिणाम था, जिसने भारत में एक लघु, किंतु अनिश्चित और अप्रत्याशित युद्ध को उत्पन्न किया था। यहाँ तो वह भी बहाना नहीं था जो भारतीय रियासतों के मामले में था। वेलेजली के काल से और आगे तक भारतीय रियासतों पर कम्पनी की शक्ति का नियंत्रण रहा था और उनमें प्रतिद्वंद्वी दावेदार उस महान शक्ति से अलग नहीं हो सकते थे जो दूसरी किसी अन्य शक्ति को सहायता देने से इनकार कर देती थी। किंतु अफगान प्रतिद्वंद्वी ऐसा कर सकते थे और उन्होंने ऐसा किया भी। उन्होंने रूस या फारस से सहायता प्राप्त की, जिसका अनुमान पहले से लगाया जा सकता था। निष्क्रियता की नीति का शीघ्रता से अंत कर दिया गया और लॉरेंस ने परामर्श दिया कि इस विदेशी सहायता का सामना तुरंत करना चाहिए और उस पक्ष को धन और शस्त्रों को पूर्ति तुरंत को जाये जिसका रूस या फारस की ओर झुकाव नहीं था। दूसरे शब्दों में, डॉडवेल के अनुसार अहस्तक्षेप या निष्क्रियता की नीति पूर्णरूप से अव्यावहारिक थी क्योंकि अगर एक पक्ष को रूस से सहायता मिल रही थी, तो अंग्रेजों के लिए यह आवश्यक था कि वे दूसरे की सहायता करें। लॉरेंस को भी शेरअली को घन और शस्त्रों की सहायता देने के लिए बाध्य होना पड़ा था।

इसमें संदेह नहीं कि लॉरेंस की नीति विवेकपूर्ण थी और इससे अंग्रेज अनेक झंझटों से बच गये। यह नीति अग्रगामी नीति से अच्छी थी। इससे अफगानिस्तान में शांति बनी रही और अंग्रेजों के प्रभाव में भी वृद्धि हुई। यही कारण है कि मेयो और नॉर्थब्रुक ने इसे स्वीकार किया। इसमें जटिलता रूसी हस्तक्षेप के कारण थी, इसलिए लॉरेंस का कहना ठीक था कि यह यूरोपीय समस्या थी और इसे ब्रिटिश सरकार ही हल कर सकती थी।

लॉर्ड मेयो की अफगान नीति - 

मध्य एशिया में रूसी विस्तार तथा अफगानिस्तान में जनरल कॉफमेन के हस्तक्षेप से लॉरेन्स को जाने से पूर्व स्पष्ट हो गया था कि उसकी निष्क्रियता नीति पर्याप्त नहीं थी। इसलिए 1869 ई0 में इंग्लैंड जाने से पूर्व उसने गृह सरकार की स्वीकृति से शेरअली को धन तथा शस्त्रों की सहायता दी थी। उसने 1868 ई0 में शेरअली से भेंट करने का भी निश्चय किया था जिससे राजनीतिक स्थिति की समीक्षा की जा सके। यद्यपि लॉरेंस की भेंट शेरअली से नहीं हो सकी लेकिन यह भेंट उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड मेयो से हुई।

1868 ई0 में लॉर्ड मेयो भारत का गवर्नर-जनरल नियुक्त हुआ। उसने मार्च 1869 ई0 में शेरअली से अंबाला में मुलाकात की। इस भेंट से भारत सरकार की अफगान नीति में कोई अंतर नहीं आया क्योंकि लॉर्ड मेयो भी लॉरेंस की नीति का समर्थक था। मेयो से मुलाकात में शेरअली ने अंग्रेजों से संधि करने की उत्सुकता प्रदर्शित की, लेकिन वह भारत सरकार से एक निश्चयात्मक संधि चाहता था। उसने वायसराय के समक्ष माँग रखी कि भारत सरकार अफगानिस्तान की बाह्य आक्रमण से सुरक्षा और आर्थिक सहायता दे। भारत सरकार उसको तथा उसके उत्तराधिकारियों के अलावा किसी अन्य को काबुल का अमीर स्वीकार नहीं करेगी। भारत सरकार शेरअली के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र याकूब खाँ के बजाय उसके कनिष्ठ पुत्र अब्दुल्ला खाँ को काबुल का अमीर स्वीकार करने का वचन दे।

शेरअली की शर्ते ऐसी थी जिसे लॉर्ड मेयो या गृह सरकार के लिए स्वीकार करना कठिन था क्योंकि इन शर्तों को स्वीकार करने का अर्थ होता अफगानिस्तान में हस्तक्षेप। मेयो के लिए यह एक कठिन कार्य था, किंतु वह अपनी तटस्थता की नीति से डिगनेवाला नहीं था। उसने 31 मार्च 1869 ई0 को शेरअली को एक पत्र लिखा, जिसमें कहा गया था कि भारत सरकार उसके प्रतिद्वंद्वियों को उसकी गद्दी से हटाने के प्रयासों को क्रोधभरी दृष्टि से देखेगी और उसे धन तथा शस्त्रों से सहायता देती रहेगी। वायसराय ने अमीर को बता दिया कि अफगानों के विद्रोहों का दमन करने के लिए कोई भी ब्रिटिश सैनिक अफगानिस्तान नहीं आयेगा, लेकिन गद्दी पर उसे या उसके उत्तराधिकारियों को बनाये रखने के लिए भारत सरकार किसी प्रकार का संधि नहीं करेगी। उसने नैतिक समर्थन का वादा किया और धन तथा शस्त्रों की सहायता का लिखित आश्वासन दिया। इस भेंट से शेरअली कितना संतुष्ट हुआ था, यह पता नही है, किंतु इतना स्पष्ट है कि उस पर मेयो के व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा था और उसने काबुल लौटकर 13 सदस्यों की एक राज्य परिषद् का गठन किया था।

ब्रिटेन तथा रूस की वार्ता -

अफगानिस्तान पर रूसी आक्रमण की संभावना समाप्त करने के लिए लॉरेंस के समान मेयो भी रूस से सीधी बात करने के पक्ष में था, जिससे अफगानिस्तान की उत्तरी सीमा निश्चित की जा सके। इस संबंध में ब्रिटिश विदेश विभाग ने रूसी सरकार से वार्ता आरंभ की। इसमें ब्रिटिश राजदूत को परामर्श देने के लिए मेयो ने भारत से सर डगलस फोरसाइथ को भेजा। इस वार्ता के फलस्वरूप रूस और ब्रिटेन में 1873 ई0 में एक समझौता हो गया, जिसमें ऑक्सस नदी के उत्तर को रूस की सीमा मान लिया गया और रूस ने अफगानिस्तान में हस्तक्षेप न करने का आश्वासन दिया।

लॉर्ड नॉर्थब्रुक की अफगान नीति 

8 फरवरी, 1872 ई0 को लॉर्ड मेयो की अंडमान में हत्या के बाद लॉर्ड नॉर्थब्रुक को भारत का वायसराय नियुक्त किया गया जो 1873 ई0 में भारत आया।

1873 ई0 का संधि-प्रस्ताव : 

लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने भी मेयो के समान लॉरेंस की निष्क्रियता की नीति का पालन किया। इसी बीच रूस का प्रभाव और अधिक बढ़ने लगा और मध्य एशिया के छोटे-छोटे देश एक-एक करके रूस के अधिकार में चले जा रहे थे। रूसी आक्रमण की आशंका से अमीर शेरअली बहुत डरा हुआ था। उसने 1873 ई0 में अपने प्रतिनिधि नूरमुहम्मद को वायसराय के पास शिमला भेजा और रूसी आक्रमण के विरुद्ध स्पष्ट गारंटी की माँग की। नूरमुहम्मद ने वायसराय के सामने माँगें रखी कि यदि रूस अफगानिस्तान पर आक्रमण करता है या किसी प्रकार का हस्तक्षेप करता है, तब ब्रिटिश सरकार रूस को आक्रमणकारी समझेगी और अमीर की धन और शस्त्रों से सहायता करेगी। यदि अमीर रूसी आक्रमण का सामना करने में असमर्थ होगा तो ब्रिटिश सरकार उसकी सहायता के लिए सेना भेजेगी।

लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने दूत को समझाने की चेष्टा की कि रूस की सीमा निश्चित हो जाने के बाद उसके आक्रमण या हस्तक्षेप की संभावना नहीं थी लेकिन नूरमुहम्मद अपनी मॉंगों पर अड़ा रहा। अंत में वायसराय ने अमीर से संधि करने के लिए गृह सरकार से अनुमति माँगी लेकिन भारतमंत्री अर्गाइल ने नॉर्थब्रुक के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया। वास्तव में ग्लेड्स्टन की सरकार पर लॉरेंस की नीति का पूरा प्रभाव था और वह अफगानिस्तान से किसी प्रकार की संधि करने के विरुद्ध थी। शेरअली के दूत से कहा गया कि भारत सरकार की नीति यथावत् है। यदि अमीर हमारे परामर्श से विदेश नीति का संचालन करता है तो हम उसे धन, शस्त्र और आवश्यकता पड़ने पर सेना की सहायता देंगे किंतु इस सहायता के बारे में अन्तिम फैसला ब्रिटिश सरकार करेगी। इस प्रकार लॉर्ड नॉर्थब्रुक ने अमीर को उसी प्रकार के आश्वासन दिये जैसे लॉर्ड मेयो ने दिये थे। ब्रिटिश मंत्रिमंडल संधि करने को तैयार नहीं था। शेरअली ने वायसराय द्वारा भेजी गई 5000 राइफलों को स्वीकार कर लिया, लेकिन उसने दस लाख रुपये लेने से इनकार कर दिया।

वस्तुतः शेरअली का अंग्रेजों पर से विश्वास उठने लगा था। इसी समय सीस्तान को लेकर भी शेरअली अंग्रेजों से नाराज हो गया। सीस्तान के मामले में फारस और अफगानिस्तान के बीच विवाद था। अंग्रेजों ने इसमें पंच फैसला दिया और सीस्तान का दोनों देशों में बँटवारा कर दिया। शेरअली को विश्वास था कि अंग्रेज पूरा सीस्तान अफगानिस्तान को देंगे लेकिन ऐसा हुआ नही। शेरअली एक अन्य कारण से भी अंग्रेजों से नाराज हो गया। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र याकूब खाँ को कैद कर लिया था। नार्थबुक को आशंका थी कि इससे अफगानिस्तान में गृहयुद्ध छिड़ सकता। इसलिए उसने शेरअली से आग्रह किया कि वह याकूब खाँ को छोड़ दे। शेरअली ने इसे अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में तथा उसके पारिवारिक मामलों में अंग्रेजों का हस्तक्षेप माना।

नूरमुहम्मद ने 1873 ई0 में जो संधि-प्रस्ताव नॉर्थब्रुक के सामने रखा था, उसके महत्व को ब्रिटिश सरकार समझने में असफल रही। राबर्ट्स के अनुसार अफगानिस्तान जैसे अर्द्ध-सभ्य देश से रक्षात्मक आक्रमणात्मक संधि करने में अनेक हानियाँ थीं। फिर भी यह अफसोस की बात है कि इस समय शेरअली से अधिक बंधनकारी सम्बन्ध नहीं स्थापित किये गये। 1869 ई0 में शेरअली को गद्दी पर बैठे लंबा समय हो गया था और वह स्वयं एक योग्य और प्रबुद्ध शासक था। उसे स्पष्ट हो गया था कि अंततः उसे उन दोनों यूरोपीय शक्तियों में से किसी एक के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने पड़ेंगे और उसने इंग्लैंड को वरीयता दी। यदि इस समय उसके साथ बंधनकारी संधि कर ली जाती, तो यह लॉरेंस की नीति को त्यागना नहीं था, बल्कि उसका संशोधन मात्र होता।

नॉर्थब्रुक का पद-त्याग : 

1874 ई0 में इंग्लैंड में सरकार का परिवर्तन हो गया और उदारवादी दल के ग्लेड्स्टन के स्थान पर टोरी दल का डिजरायली प्रधानमंत्री बना। इंग्लैंड में सरकार बदलते ही ब्रिटिश अफगान नीति में आधारभूत परिवर्तन हो गया। टोरी अफगानिस्तान में अग्रगामी नीति के समर्थक थे और चाहते थे कि अफगानिस्तान पर ब्रिटिश प्रभुत्व स्थापित कर लिया जाये, जिससे भारत पर रूसी आक्रमण की आशंका ही समाप्त हो जाये। वे संधि के द्वारा शेरअली पर भी नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। डिजरायली ने लॉर्ड सेलिसबरी को भारतमंत्री नियुक्त किया। सेलिसबरी अफगानिस्तान में हस्तक्षेप की नीति का अनुसरण करने के लिए वायसराय पर दबाव डालना शुरू किया कि अफगानिस्तान में ब्रिटिश राजदूतों की नियुक्ति की जाए और अफगानिस्तान के निकटतम क्षेत्र क्वेटा में ब्रिटिश सेना तैनात की जाए।

लॉर्ड नॉर्थब्रुक अफगानिस्तान में हस्तक्षेप करने की नीति के विरुद्ध था। जब उसने देखा कि भारतमंत्री अमीर पर अंग्रेजी राजदूतों को थोपने पर तुला हुआ है, तो उसने त्यागपत्र दे दिया और चेतावनी दी कि इस नीति से युद्ध हो जायेगा। यदि नॉर्थब्रुक वायसराय के पद पर बना रहता तो संभव था कि अंग्रेजों से अमीर के संबंध सुधर जाते। अमीर को रूस से घृणा थी और वह रूसी विस्तार से बहुत आशंकित था। इसलिए स्वाभाविक था कि उसका झुकाव अंग्रेजों की ओर होता। लेकिन 1874 ई0 में ब्रिटिश सरकार के परिवर्तन से सारी स्थिति बदल गई।

लॉर्ड लिटन की अफगान नीति :

ब्रिटिश प्रधानमंत्री डिजरायली ने लॉर्ड लिटन को 1876 ई0 में भारत का वायसराय नियुक्त किया। उसे आदेश दिया गया था कि वह अफगानिस्तान में अंग्रेजों के लिए शक्तिशाली स्थिति प्राप्त करे। इस प्रकार टोरी दल ने लॉरेंस की निष्क्रियता की नीति’ को त्यागकर अग्रगामी नीति को अपनाया। इस नीति परिवर्तन के कारण कई कारण थे -

1. दोरी दल के नेता डिजरायली का विचार था कि ग्लेड्स्टन और उसके उदारवादी दल ने लॉरेंस की निष्क्रियता की नीति को अपना कर अंतर्राष्ट्रीय जगत में इंग्लैंड की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाया था। उसने मध्य एशिया के बारे में दुर्बलता का प्रदर्शन किया, जिससे रूस को प्रोत्साहन मिला और मध्य एशिया में उसका विस्तार संभव हो सका। 

2. टोरी दल अफगानिस्तान में अग्रगामी नीति का समर्थक था। इस नीति के प्रतिपादकों का कहना था कि यदि ब्रिटेन भारत पर रूस का संभावित आक्रमण रोकना चाहता है तो उसे अफगानिस्तान पर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए। इस नीति के कुछ उग्र समर्थक ऑक्सस नदी के दक्षिण तक ब्रिटिश प्रभाव और नियंत्रण को स्थापित करना चाहते थे। इस प्रकार लिटन का मुख्य उद्देश्य अफगानिस्तान को ब्रिटिश नियंत्रण में लाना था। 

3. टोरी दल रूसी विस्तार का कट्टर विरोधी था। रूस भ्रमपूर्ण वार्ता करता रहा तथा अपना विस्तार करता रहा। टोरियों का कहना था कि लिबरलों की दुर्बलता के कारण रूस मध्य एशिया में विस्तार कर सका था। 1864 ई0 के बाद से रूस मध्य एशिया में नियमित रूप से विस्तार कर रहा था। 

4. अफगानिस्तान के अमीर शेरअली के संधि के प्रस्ताव (1873 ई0) को लॉर्ड नॉर्थब्रुक और भारतमंत्री अर्गाइल ने अस्वीकार कर दिया था। इससे अमीर का झुकाव रूस की ओर होने लगा था और वह रूस से संबंध स्थापित करना चाहता था। नई ब्रिटिश सरकार अमीर के इस रूसी झुकाव से चिंतित थी और इसे ठीक करने के लिए तुरंत कार्यवाही करना चाहती थी।

अफगानिस्तान में भारतमंत्री लॉर्ड सेलिसबरी ने अग्रगामी नीति के पालन में दो तात्कालिक उद्देश्यों को निश्चित किया। प्रथम, उसने वायसराय को आदेश दिया कि अफगानिस्तान के प्रत्येक नगर में अंग्रेज राजदूतों की नियुक्ति के लिए अमीर शेरअली की स्वीकृति प्राप्त करे। दूसरे, अफगानिस्तान के निकट ब्रिटिश फौज को रखने के लिए क्वेटा को प्राप्त करे। वायसराय नॉर्थब्रुक ने पहले उद्देश्य पर कार्यवाही करने से इनकार कर दिया और त्यागपत्र दे दिया। लॉर्ड लिटन का कार्य इन दोनों उद्देश्यों को पूरा करना था। उसने दोनों दिशाओं में कार्य किया। 1876 ई0 में क्वेटा प्राप्त कर उसे एक सैनिक केंद्र बना लिया गया और इसके बाद अफगानिस्तान के अमीर से राजदूतों की नियुक्ति पर वार्ता आरंभ की गई। वार्ता आरंभ करने से पहले लिटन ने शेरअली के यहाँ एक शिष्टमंडल भेजने का प्रस्ताव रखा। वह चाहता था कि यह शिष्टमंडल अमीर को महारानी विक्टोरिया द्वारा कैसर-ए-हिंद की उपाधि धारण करने की सूचना दे। शेरअली जानता था कि यह शिष्टमंडल उससे राजनीतिक वार्ता करने के लिए आ रहा है, अतः वह पहले वायसराय के विचारों को जानना चाहता था। लिटन ने अपने मुस्लिम राजदूत को काबुल से बुलाया और उसने उससे चेतावनी भरी भाषा में बात की। उसने राजदूत से कहा कि वह शेरअली को बताये कि उसकी स्थिति, दो विशाल लौह बर्तनों के बीच छोटे से मिट्टी के बर्तन के समान थी जिनके मध्य वह पिस सकता था। अगर वह अंग्रेजों से मित्रता करेगा, तो अंग्रेजी शक्ति लोहे के घेरे के समान उसकी चारों ओर से रक्षा करेगी, नहीं वो उसे सरकंडे के समान तोड़ा जा सकता है।

शेरअली अंग्रेज शिष्टमंडल का स्वागत नहीं करना चाहता था क्योंकि वह शिष्टमंडल को अनावश्यक मानता था। वह अंग्रेज राजदूत को भी नहीं रख सकता था क्योंकि धर्मांध अफगानों से उस राजदूत की सुरक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती थी। शेरअली का यह भी कहना था कि यदि वह ब्रिटिश शिष्टमंडल को काबुल में प्रवेश करने की अनुमति देगा, तो फिर वह रूसी शिष्टमंडल को रखने से कैसे इनकार कर सकता है। किंतु लिटन ने इन तर्कों को अस्वीकार कर दिया।

रूसी राजदूत का काबुल-आगमनः 

1876-1878 ई0 के काल में यूरोप में पूर्वी समस्या के कारण युद्ध हुआ, जिसका प्रभाव लिटन की अफगान नीति पर पड़ा। 1876 ई0 में सर्बिया और मोंटीनिग्रों ने तुर्की के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रूस ने उनके समर्थन में तुर्की के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। युद्ध में रूस की विजय हुई और उसने तुर्की से सेन स्टीफेनो की संधि की, जिससे बाल्कन में रूसी विस्तार की संभावनाएँ उत्पन्न हो गईं। इग्लैंड ने इस संधि का विरोध किया और रूस के विरुद्ध कार्यवाही करते हुए भूमध्यसागर में ब्रिटिश जहाजी बेड़ा भेज दिया। ऐसी स्थिति में बर्लिन कांग्रेस हुई और इस कांग्रेस में ब्रिटेन पर दबाव डालने के लिए रूस ने ब्रिटिश आक्रमण के डर को दूर करने और अफगानिस्तान से संधि वार्ता करने के लिए जनरल स्टोलीटोफ को काबुल भेजा। रूस ने एक सेना अफगानिस्तान की ओर और दूसरी सेना पामीर की ओर भेजी।

अमीर शेरअली ने रूसी राजदूत के काबुल आने का विरोध किया। लेकिन इस विरोध की उपेक्षा करके रूसी राजदूत 1878 ई0 में काबुल पहुँच गया और शेरअली को उसका स्वागत करना पड़ा। ब्रिटेन रूस के इस कदम को अपने उपनिवेश भारत की तरफ रूस के बढ़ते क़दम की तरह देखने लगा। अब लिटन ने भी शेरअली से माँग की कि वह अफ़गानिस्तान में ब्रिटिश राजदूत भेज रहा है और उसका भी उसी प्रकार स्वागत किया जाये।

लिटन ने 1878 ई0 में जनरल चेंबरलेन को राजदूत बनाकर कुछ सैनिकों के साथ काबुल के लिए रवाना किया। ब्रिटिश शिष्टमंडल खैबर दर्रे से केवल एक चौकी आगे तक ही जा सका, क्योंकि अफगानों ने उसे रोक दिया। इस बीच बर्लिन कांग्रेस समाप्त हो गई थी और रूस ने अपना राजदूत काबुल से वापस बुला लिया था। इस समय लिटन भी ब्रिटिश राजदूत को वापस बुलाकर अमीर से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित कर सकता था। किंतु उसने ब्रिटिश राजदूत को रोके जाने की कार्यवाही को ब्रिटिश शक्ति का अपमान माना और आक्रमण करके अमीर से शर्ते स्वीकार कराने का निश्चय किया।

द्वितीय अफगान युद्ध (1878-1880 ई0) 

लिटन ने भारतमंत्री को सूचित किया कि शेरअली अंग्रेजों का शत्रु है। उसने सुझाव दिया कि युद्ध के द्वारा या शेरअली की मृत्यु हो जाने पर अफगानिस्तान के टुकड़े-टुकड़े कर दिये जाएं। अपनी आक्रामक नीति को क्रियान्वित करते हुए लिटन ने शेरअली को चेतावनी देकर माँग की कि वह ब्रिटिश राजदूत के प्रति दुर्व्यवहार के लिए क्षमा माँगे, काबुल में ब्रिटिश रेजीडेंट रखे और 20 नवंबर तक इसकी स्वीकृति दे, अन्यथा ब्रिटिश आक्रमण का सामना करने के लिए तैयार हो जाए। शेरअली का उत्तर 30 नवंबर को मिला, लेकिन इसके पहले 22 नवंबर, 1878 ई0 को ही लिटन ने अफगानिस्तान के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। यह द्वितीय अफगान युद्ध था। अंग्रेजी सेनाओं ने तीन ओर- खैबर दर्रे, खुर्रम दर्रे बोलन दर्रे- से अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया था।

द्वितीय अफगान युद्ध के दौरान अग्रेजी सेनाओं को कहीं भी अफगानों की ओर से कड़े प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ा। कांधार पर बिना किसी प्रतिरोध के अंग्रेजों का अधिकार हो गया और लगभग सारे अफ़गान क्षेत्रों में ब्रिटिश सेना फैल गई। शेरअली ने रूस से मदद की गुहार लगाई, किंतु कोई सहायता नहीं मिल सकी। वह निराश होकर काबुल से तुर्किस्तान की ओर मजार-ए-शरीफ भाग गया, जहाँ फरवरी, 1879 ई0 में उसकी मृत्यु हो गई। उसके मरते ही लॉर्ड लिटन ने उसके पुत्र याकूब खाँ को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया और उसके साथ 1879 ई0 में गंडमक की संधि कर ली।

गंडमक की संधि, 1879 ई0

गंडमक की संधि के द्वारा ब्रिटिश सरकार ने याकूब खाँ को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया और याकूब खाँ ने काबुल में स्थायी ब्रिटिश रेजीडेंट तथा हेरात व अन्य शहरों में ब्रिटिश एजेंट रखना स्वीकार कर लिया। अमीर ने स्वीकार किया कि वह अपनी वैदेशिक नीति अंग्रेजों के परामर्श से संचालित करेगा। संधि के अनुसार अमीर ने खुर्रम दर्रे पर अंग्रेजों का अधिकार मान लिया। अमीर ने बोलन दर्रे के निकट पिशीन और सिबी के दो जिले अंग्रेजों को दे दिये। इन लाभों के बदले में भारत सरकार ने अफगानिस्तान के अमीर याकूब खाँ को बाह्य आक्रमणों से सुरक्षा और 6 लाख रुपये वार्षिक देना स्वीकार किया। याकूब खाँ ने काबुल में एक अंग्रेज रक्षक-दल रखने की स्वीकृति भी प्रदान की। इस प्रकार गंडमक की संधि लिटन की अग्रगामी नीति की चरम सीमा थी। डिजरायली ने घोषणा की कि भारतीय साम्राज्य की वैज्ञानिक सीमा प्राप्त कर ली गई है।

अफगान प्रतिरोध -

अंग्रेजों के आक्रमण से अफगानों में भीषण रोष था। वे याकूब खाँ जैसे दुर्बल व्यक्ति को अमीर स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। एक अफ़गान विद्रोही दल ने 3 सितंबर, 1879 ई0 को ब्रिटिश राजदूत सर पियरे केवेग्नेरी को मार डाला। याकूब खाँ अंग्रेजों की शरण में भाग गया। उसे बंदी बनाकर कलकत्ता भेज दिया गया। जनरल राबर्ट्स ने काबुल पर अधिकार कर लिया। अंग्रेजों की नीति अब अफगानिस्तान को छोटे-छोटे टुकड़ों में बाँटने की थी। किंतु यह नीति सफल नहीं हुई।

दोस्त मुहम्मद का एक पौत्र, जो तुर्किस्तान में रह रहा था, काबुल आया और अमीर पद के लिए दावा प्रस्तुत किया। इस बीच इंग्लैंड में लिटन की नीति की बड़ी निंदा हुई। चुनावों में डिजरायली की सरकार पराजित हो गई और उदारवादी दल का नेता ग्लेड्स्टन प्रधानमंत्री बना, जो अग्रगामी नीति का विरोधी था। ग्लेड्स्टन की नई सरकार बनते ही लिटन को त्यागपत्र देना पड़ा। उसके उत्तराधिकारी लॉर्ड रिपन ने अब्दुर्रहमान को अमीर स्वीकार कर लिया और अंग्रेजी सेना को वापस बुला लिया।

नये अमीर अब्दुर्रहमान ने पिशीन और सीबी के जिलों को अंग्रेजों के पास रहने दिया। उसने स्वीकार किया कि वह अंग्रेजों के परामर्श के बिना किसी विदेशी शक्ति से संधि नहीं करेगा। अंग्रेजों ने उसे 12 लाख रुपया वार्षिक देना स्वीकार किया। इस प्रकार लिटन की नीति पूर्ण रूप से असफल हो चुकी थी और अग्रगामी नीति को त्याग दिया गया।

ऐसा माना जाता है कि लिटन ने सुविचारित ढंग से युद्ध को आरंभ किया था क्योंकि उसका उद्देश्य भारतीय साम्राज्य की वैज्ञानिक सीमा प्राप्त करना था। किंतु लिटन की नीति की राजनीतिक तथा नैतिक आधार पर निंदा की जाती है। द्वितीय अफगान युद्ध का कोई औचित्य नहीं था। रूसी राजदूत के वापस जाने के बाद लिटन को चेतावनी देने की कोई आवश्यकता नहीं थी। यह भी संदेहास्पद है कि शेरअली ने रूसी राजदूत का स्वागत किया था। शेरअली एक स्वतंत्र शासक था, इसलिए उस पर ब्रिटिश मिशन थोपना न्यायसंगत नहीं था।

द्वितीय अफगान युद्ध के लिए लिटन पूर्णरूप से उत्तरदायी था। लॉर्ड सेलिसबरी का कहना था कि लिटन प्रारंभ से कठोर और आक्रामक नीति पर था। लिटन केवल भारत के दृष्टिकोण से अफगान समस्या पर विचार करता था और उसी के लिए यूरोप और तुर्की के प्रति विदेश नीति को प्रभावित करता था। सेलिसबरी का कहना है कि दो बार लिटन ने आदेशों का पालन नहीं किया- एक बार खैबर दर्रे के मामले में, दूसरी बार काबुल मिशन भेजने के बारे में। डिजरायली ने भी लिटन पर आदेश न मानने का आरोप लगाया था। उसका कहना था कि लिटन से कहा गया था कि जब तक रूस को भेजे गये विरोध-पत्र का उत्तर न आ जाये, वह कोई कार्यवाही न करे, लेकिन उसने खैबर के दर्रे से मिशन भेज दिया। इससे स्पष्ट है कि लिटन ने अंतिम चरणों में अपनी व्यक्तिगत नीति को ब्रिटिश सरकार पर थोप दिया था।

वास्तव में लिटन की इस नीति का उद्देश्य वैज्ञानिक सीमा प्राप्त करना था, जिसके लिए ब्रिटिश राजनीतिज्ञों का एक वर्ग माँग कर रहा था। लिटन ने जानबूझकर शेरअली को उत्तेजित किया था। इंग्लैंड में इस नीति की इतनी निंदा हुई कि चुनाव में डिजरायली की पार्टी हार गई। इस प्रकार उसकी अग्रगामी नीति असफल हो गई और इंग्लैंड की जनता ने उसे अस्वीकार कर दिया।

डॉडवेल का विचार है कि, ’आगामी दस वर्षों की दृष्टि से, सेलिसबरी तथा लिटन द्वारा अपनाई नीति अपनी विस्तृत रूपरेखा में उचित थी। डॉडवेल का यह भी कहना है कि प्रथम और द्वितीय अफगान युद्धों की तुलना करना भी उचित नहीं है क्योंकि दोनों के स्वरूप और परिणामों में बड़ा अंतर है।

लॉर्ड रिपन की अफगान नीति 

लिटन की असफल अफगान नीति का ब्रिटिश चुनावों पर गहरा प्रभाव पड़ा। चुनाव में कंजरवेटिव पार्टी (टोरी पार्टी) को पराजय हुई और जनता के समर्थन से लिबरल पार्टी का ग्लेड्स्टन ब्रिटिश प्रधानमंत्री बना। लिटन ने त्यागपत्र दे दिया। उसके स्थान पर ग्लेड्स्टन ने उदारवादी रिपन को भारत का वायसराय नियुक्त किया। ब्रिटिश मंत्रिमंडल ने रिपन को आदेश दिया कि जहाँ तक संभव हो युद्ध के पहले की स्थिति पुनर्स्थापित की जाये और शांतिपूर्ण समझौता किया जाये।

भारत आने के बाद रिपन को पता चला कि लिटन की अग्रगामी नीति ने स्थिति को इतना परिवर्तन कर दिया था कि लॉरेंस की अहस्तक्षेप की नीति का पालन नहीं किया जा सकता था। अतः उसने अहस्तक्षेप तथा हस्तक्षेप दोनों नीतियों के बीच का मार्ग अपनाया क्योंकि तत्कालीन परिस्थितियों में मध्यम मार्ग ही व्यावहारिक था। उसने स्थिति सुधारने के लिए निम्नलिखित व्यवस्था की -

  1. उत्तराधिकार के मामले में रिपन ने अब्दुर्रहमान को अफगानिस्तान का अमीर स्वीकार कर लिया। 
  2. अमीर ने वचन दिया कि वह भारत सरकार के अतिरिक्त किसी अन्य शक्ति से संबंध नहीं रखेगा। 
  3. भारत सरकार ने उसे बाह्य आक्रमण से रक्षा करने तथा आर्थिक सहायता देने का वचन दिया। 
  4. काबुल में ब्रिटिश राजदूत रखने की व्यवस्था नहीं की गई क्योंकि रिपन ने इसे आवश्यक नहीं समझा। 
  5. इंग्लैंड में ग्लेड्स्टन सरकार ने वचन दिया था कि पिशीन और सीबी अमीर को वापस दिये जायेंगे। 

लेकिन रिपन का विचार था कि सैनिक दृष्टि से पीछे हटने से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होगी। इसलिए उसने पिशिन और सीबी पर ब्रिटिश अधिकार बनाये रखा। अब्दुर्रहमान ने इन दोनों स्थानों पर ब्रिटिश अधिकार को स्वीकार कर लिया। फलतः ब्रिटिश मंत्रिमंडल को रिपन की नीति को स्वीकार करना पड़ा।

अफगानिस्तान के एकीकरण की समस्या

काबुल पर अधिकार करने के बाद लिटन ने अफगानिस्तान को तीन हिस्सों- काबुल, कांधार और हेरात में विभाजित करने का निर्णय किया था। उसने याकूब खाँ को काबुल का, शेरअली खाँ को कांधार का अमीर स्वीकार किया था। लिटन हेरात के बारे में फारस के शाह से बात कर रहा था। इसके बाद अब्दुर्रहमान के आने से स्थिति बदल गई। लिटन के जाने के बाद रिपन की योजना थी कि अफगानिस्तान को एक शक्तिशाली बफर राज्य बनाया जाये। इसके लिए अफगानिस्तान का एकीकरण आवश्यक था। इसके लिए रिपन को उस समय मौका मिल गया जब अयूब खाँ ने कांधार पर आक्रमण किया। अंग्रेजी सेना की रक्षा के लिए जनरल राबर्ट्स काबुल से कांधार आया और अयूब खाँ को पराजित किया। अयूब खाँ हेरात भाग गया। रिपन ने कांधार अब्दुर्रहमान को दे दिया और शेरअली को 5,000 रुपये मासिक की पेंशन दे दी गई। काबुल से कांधार आने में राबर्ट्स को अमीर ने पूरा सहयोग दिया था। इससे स्पष्ट हो गया कि अमीर अंग्रेजों से मित्रता रखना चाहता था। कांधार वापस मिलने से अमीर को अंग्रेजों पर विश्वास और पक्का हो गया। इस प्रकार रिपन ने सभी समस्याओं को हल करने में सफलता प्राप्त की। बाद में, अब्दुर्रहमान ने अयूब खाँ को पराजित करके अपनी योग्यता भी प्रमाणित कर दी। उसकी सत्ता को दृढ़ करने के लिए रिपन ने उसे 12 लाख रुपया प्रतिवर्ष देना स्वीकार किया।

रिपन ने मध्यममार्ग का अनुसरण किया। अग्रगामी तथा पृष्ठगामी के मध्य में चलना ही व्यावहारिक राजनीति थी। उसने क्वेटा और गिलगिट से सेनाओं को नहीं हटाया और पिशिन तथा सीबी के जिलों को भी वापस नहीं किया। उसने अमीर की विदेश नीति पर नियंत्रण स्थापित कर लिया, लेकिन लॉरेंस की तरह उसने अमीर से कोई संधि नहीं की और न ही उत्तराधिकार के युद्ध में हस्तक्षेप किया। उसने अमीर को सैनिक तथा आर्थिक सहायता का वचन तो दिया, लेकिन लॉरेंस की तरह उसने काबुल में अंग्रेज राजदूत नहीं नियुक्त किया और केवल मुस्लिम राजदूत रखा।

इस प्रकार रिपन की अफगान नीति लॉरेंस से अधिक मिलती थी और उसका समझौता लॉरेंस की नीति के ढाँचे का अनुसरण करता था। 1884 ई0 में रिपन भारत से गया और उसके जाने के बाद भी यह अफगान समस्या समाप्त हो गई हो, ऐसा नही कहा जा सकता। अन्त में 1895 ई0 में और बाद में 1907 ई0 में ब्रिटेन और रूस के समझौतों द्वारा रूस और ब्रिटेन के झगडों का निर्णय कर लिया गया। इस प्रकार भारत पर रूस के आक्रमण की समस्या समाप्त हो गयी और अफगानिस्तान की ओर से अंग्रेजों के लिए कोई समस्या नही रही। 


1 Comments

  1. *ज्ञान से हमे बेहतर बनाते है आप*
    *जीवन भर कितना कुछ सिखाते है आप,*
    *इस कर्ज को मै कभी नहीं चुका पाऊँगी*
    *क्योंकि अनमोल खजाना लुटाते है आप*
    ________________________________________________
    आप ही के सानिध्य में
    मेरे बने हैं बिगड़े काम
    हे धरती के ईश्वर मेरे गुरूजी आपको
    है बारम्बार प्रणाम …!!🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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