लार्ड कर्जन के शासनकाल की सर्वाधिक विवादास्पद और निन्दनीय घटना बंगाल का विभाजन था। यूॅं तो बंगाल विभाजन का निर्णय प्रशासनीक आधार पर किया गया था परन्तु वास्तव में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड कर्जन द्वारा तेजी से उभरते भारतीय राष्ट्रवाद को कमजोर करके ब्रिटिश विरोध शिथिल करने के उद्देश्य से 1905 ई0 में बंगाल का विभाजन किया गया। उनके इस कार्य का सम्पूर्ण भारत में विरोध हुआ। उसके इस कार्य ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को एक मध्यवर्गीय दबाव समूह से एक राष्ट्रव्यापी जन आंदोलन में बदलने का मौका दिया।
1765 के बाद से अंग्रेजों ने बंगाल, बिहार और उड़ीसा को ब्रिटिश भारत का एक ही प्रांत बना लिया था। 1900 तक यह प्रांत इतना बड़ा हो गया था कि एक ही प्रशासन के तहत इसे संभालना संभव नहीं था। हालाँकि कर्जन ने बंगाल के विभाजन को प्रशासनिक दृष्टिकोण से आवश्यक बताया था लेकिन वास्तविकता यह थी कि बंगाल विभाजन उसकी प्रतिक्रियावादी नीति का ही परिणाम था। लॉर्ड कर्जन का तर्क था कि आकार की विशालता और कार्यभार की अधिकता के कारण बंगाल प्रांत का शासन एक गवर्नर के लिए संभव नहीं है। अतः उसने पूर्वी बंगाल और असम को मिलाकर एक अलग प्रांत बनाया जिसकी राजधानी ढाका रखी गयी। वस्तुतः बंगाल विभाजन का यह तर्क कर्जन का एक बहाना था। उसका वास्तविक उद्देश्य तो बंगाल की राष्ट्रीय एकता को नष्ट कर हिन्दुओं और मुसलामानों के बीच फूट डालना था। उसकी स्पष्ट नीति थी - ‘‘फूट डालो और शासन करो‘‘। उसने खुद कहा भी था कि “यह बंगाल विभाजन केवल शासन की सुविधा के लिए नहीं की गई है बल्कि इसके द्वारा एक मुस्लिम प्रांत बनाया जा रहा है, जिसमें इस्लाम और उसके अनुयायियों की प्रधानता होगी.” इस प्रकार बंगाल का विभाजन लॉर्ड कर्जन का धूर्तता और कूटनीति से भरा कार्य था।
तात्कालीन बंगाल लगभग 8 करोड़ की जनसंख्या के साथ भारत का सबसे अधिक आबादी वाला प्रांत था। इसमें वर्तमान भारतीय राज्यों में पश्चिम बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्से, ओडिशा और असम तथा वर्तमान बांग्लादेश शामिल थे। 1905 ई0 में लार्ड कर्जन ने ‘‘प्रशासनीक सीमाओं के पुनर्व्यवस्थापन‘‘ का हवाला देते हुए पूर्वी बंगाल तथा असम को एक प्रान्त बनाया जिसमें राजशाही ढ़ॉंका तथा चटगॉंव के तीन डिविजन शामिल थे। इसका क्षेत्रफल 106540 वर्ग कि0मी0 तथा इसकी जनसंख्या 3 करोड़ 10 लाख थी जिसमें 1 करोड 20 लाख हिन्दू थे। इसका मुख्यालय ढ़ॉंका बनाया गया। दूसरी ओर पश्चिम बंगाल, बिहार और उड़ीसा का मिलाकर एक अलग प्रान्त बनाया गया जिसका क्षेत्रफल 141580 वर्ग कि0मी0 तथा जनसंख्या 5 करोड़ 40 लाख थी जिसमें 4 करोड़ 20 लाख हिन्दू थे तथा 90 लाख मुसलमान थे।
प्रारंभ में तो 1905 ई0 तक भारतीयों को इस भ्रम में रखा गया कि बंगाल विभाजन की घोषणा त्याग दी गई है परन्तु लार्ड कर्जन द्वारा 20 जुलाई 1905 ई0 को विभाजन की विधिवत घोषणा की गई जिसे 16 अक्टूबर 1905 से प्रभावी होना था। भारतीय इतिहास में इसे बंग-भंग के नाम से भी जाना जाता है।
इस विभाजन के द्वारा बंगाल को दो भागों में बाँटा गया-पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल। बंगाल-विभाजन का भारत में तीव्र विरोध हुआ, क्योंकि भारतीयों ने अनुभव किया कि सरकार बंगाल की राष्ट्रीय भावना को तोड़कर मुख्यतया हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालना चाहती है। बंगाल के शिक्षित वर्गों के घोर विरोध के बावजूद कर्जन ने अपने निश्चय में कोई परिवर्त्तन नहीं किया और इसी कारण वह भारतीयों की घृणा का पात्र हो गया। भारतीयों ने राष्ट्रीय आन्दोलन दिया जन-आन्दोलन में परिवर्तित कर दिया और अन्त में 1911 ई० में इस विभाजन को समाप्त कर दिया गया.
वास्तव में बंगाल विभाजन का एक राजनीतिक उद्देश्य भी था। बंगाल तब भारतीय राष्ट्रवाद का केंद्र माना जाता था और इस कदम के द्वारा अधिकारीगण बंगाल में राष्ट्रवाद के प्रसार को रोकना चाहते थे। भारत सरकार के गृहसचिव रिसले ने 06 दिसंबर 1904 को एक आधिकारिक टिप्पणी में लिखा था - एकजुट बंगाल अपने आप में एक शक्ति है। बंगाल अगर विभाजित हो तो सभी भागों की दिशाएँ अलग अलग होंगी। यही बात कागें्रस के नेता महसूस करते हैं; उनकी आशंकाएं पूरी तरह सही हैं और इस योजना का महत्व इसी में है। हमारा एक उद्देश्य हमारे शासन के विरोधियों को तोड़ना और इस प्रकार उन्हें कमजोर करना है।
भारतीय राष्ट्रीय काग्रेंस और बंगाल के राष्ट्रवादियों ने विभाजन का जमकर विरोध किया। बंगाल के भीतर भी जमींदार, व्यापारी, वकील, छात्र, नगरों के गरीब लोग और स्त्रियाँ तक, समाज के विभिन्न वर्ग अपने प्रांत के विभाजन के विरोध में स्वतः स्फूर्त ढंग से उठ खड़े हुए। राष्ट्रवादियों ने बंगाल के विभाजन को एक प्रशासकीय उपाय ही नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक चुनौती समझा। उन्होंने इसे बंगाल को क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर बॉंटने का प्रयास माना। धार्मिक आधार पर इसलिए कि पूर्वी भाग में मुसलमानों और पश्चिमी भाग में हिंदुओं का बहुमत था। उन्होंने समझा कि इस प्रकार बंगाल में राष्ट्रवाद को कमजोर और नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है। इससे बंगाली भाषा और संस्कृति को जबर्दस्त धक्का लगता। उनका तर्क था कि प्रशासन में कुशलता लाने के लिए हिंदी भाषी बिहार और उड़िया भाषी उड़ीसा को प्रांत के बंगाली भाषी क्षेत्र से अलग किया जा सकता है। इसके लिए सरकार ने यह कदम जनमत की पूरी तरह से अनदेखी करके उठाया था। विभाजन के खिलाफ बंगाल के विरोध की तीव्रता का कारण यह कि इसने एक बहुत संवेदनशील व साहसी जनता की भावनाओं को चोट पहुंचाई थी।
बंग भंग विरोधी आंदोलन :
बंग भंग विरोधी आंदोलन या स्वेदशी व बहिष्कार आंदोलन बंगाल के पूरे राष्ट्रीय नेतृत्व के प्रयासों के कारण था, न कि आंदोलन के किसी एक भाग के। शुरुआत में इसके प्रमुख नेता सुरेंद्रनाथ बनर्जी और कृष्ण कुमार मित्र जैसे नरमपंथी नेता थे, लेकिन बाद में इसका नेतृत्व कुछ और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों ने संभाल लिया। इस विभाजन पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने लिखा है - “यह घोषणा बम के गोले के समान गिरी। हमने ऐसा अनुभव किया कि हमें अपमानित किया गया है और हमारे साथ धोखा हुआ है।“ वास्तव में आंदोलन के दौरान नरमपंथी और उग्र राष्ट्रवादियों, दोनों ने एक दूसरे से सहयोग किया। विभाजन विरोधी आंदोलन 7 अगस्त 1905 का आरंभ हुआ। उस दिन कलकत्ता के टाउनहाल में विभाजन के खिलाफ एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ। विभाजन 16 नवंबर 1905 को लागू किया गया और इस दिन को आंदोलन के नेताओं ने पूरे बंगाल में शोक दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। उस दिन लोगों ने उपवास रखा। कलकत्ता में हड़ताल हुई।
लोग बहुत तड़के ही नंगे पैर चलकर गंगा में स्नान करने पहुंचे। इस अवसर के लिए रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपना प्रसिद्ध गीत “आमार सोनार बंगला“ लिखा था, जिसे सड़कों पर चलने वाली भीड़ गाती थी। बाद में इस गीत को बंगलादेश ने 1971 में अपनी मुक्ति के बाद अपने राष्ट्रीय गीत के रूप में अपनाया। कलकत्ता की सड़कें “बदे मातरम“ की आवाज से गूॅंज उठी और यह गीत रातों रात बंगाल का राष्ट्रीय गान बन गया, बाद में यह पूरे राष्ट्रीय आंदोलन का राष्ट्रगान बन गया। रक्षाबंधन के उत्सव का एक नया ढ़ंग से उपयोग किया गया। बंगालियों और बंगाल के दो टुकडों की अटूट एकता के प्रतीक के रूप में हिंदू-मुसलमानों ने एक दूसरे की कलाइयों पर राखी बॉंधे। दोपहर को एक बहुत बड़ा प्रदर्शन किया गया और वयोवृद्ध नेता आनंदमोहन बोस ने बंगाल की अटूट एकता जतलाने के लिए फेडरेसशन हाल की बुनियाद रखी। इस अवसर पर उन्होंने 50,000 लोगों की सभा को संबोधित किया।
इस प्रकार एक लम्बे संघर्ष के पश्चात अन्ततः ब्रिटिश सरकार को बंगाल विभाजन का यह फैसला वापस लेना पडा। 1911 ई0 में जब ब्रिटिश सम्राट चार्ल्स पंचम का भारत आगमन हुआ तो 12 दिसम्बर 1911 ई0 को दिल्ली में एक दरबार का आयोजन किया गया। पूरे भारत में हो रहे बडे पैमाने पर विरोध के कारण यहॉ तात्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग ने ‘बंगाल विभाजन‘ को रद्द करने की घोषणा की।
लार्ड कर्जन की वैदेशिक नीति -
लॉर्ड कर्जन की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य था ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हितों की सुरक्षा करना। वह एशियाई प्रदेशों पर अपना नियंत्रण बनाए रखना चाहता था, जिससे अन्य कोई शक्ति इनपर अपना प्रभाव कायम नहीं कर सके। एशियाई देशों के प्रति अपनी नीति स्पष्ट करते हुए उसने कहा, “हम इन्हें अपने अधीन नहीं चाहते; परंतु हम यह भी नहीं देख सकते कि कोई अन्य शत्रु इन्हें अपने अधीन कर ले।” फलतः उसने अग्रगामी विदेश नीति अपनाई। उसकी विदेश नीति का संबंध मुख्यतः कबायली क्षेत्र, अफगानिस्तान, फारस तथा तिब्बत से है।
कर्जन की उत्तर-पश्चिम सीमा नीति
सर्वप्रथम कर्जन ने उत्तर-पश्चिम सीमा पर स्थित कबायलियों के प्रति अपनी नीति निश्चित की। कबायली सीमांत प्रदेश में बसे हुए थे। ये सदैव अंग्रेजी क्षेत्रों पर आक्रमण कर सरकार को क्षति पहुँचाया करते थे। लॉर्ड एल्गिन द्वितीय के काल में ही कबायलियों ने वहाँ उत्पात मचाकर संकटपूर्ण स्थिति उत्पन्न कर दी थी। परिणामस्वरूप 1899 ई० में ही करीब दस हजार सैनिकों को इस क्षेत्र में कबायलियों पर काबू पाने के लिए भेजा गया था। जब कर्जन भारत आया, तब उसने सीमांत क्षेत्रों की सुरक्षा की तरफ समुचित ध्यान दिया। उसने “सैनिक तथा आर्थिक सहायता की मिश्रित नीति का अनुसरण किया और “सिंधु की ओर लौटो” नीति का परित्याग किया। अपनी नीति के अनुसार कर्जन ने अंग्रेजी सेना को कबायली क्षेत्र से हटाकर अंग्रेजी क्षेत्र में नियुक्त किया। फलतः खैबरदर्रा, कुर्रमवादी, वजीरिस्तान इत्यादि क्षेत्रों से अंग्रेजी सेना हटाकर कबायली सेना नियुक्त की गई। समूचे सीमांत प्रांत में रेल एवं सड़कों का निर्माण एवं विस्तार किया गया। उसने कबायलियों को यह आश्वासन दिया कि जब तक कबायली शांतिपूर्ण तरीके से रहेंगे भारत सरकार उनके आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी। प्रशासनिक सुविधा के लिए कर्जन ने सिंधु नदी के पश्चिमी क्षेत्र को पंजाब से अलग कर दिया और इसका नाम उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत रखा गया। इसका प्रशासन चीफ कमिश्नर को सौंपा गया। पुराने उत्तर-पश्चिमी प्रांत से अवध एवं आगरा को अलग कर संयुक्त प्रांत कायम किया गया। कबायली क्षेत्र में युद्ध के सामानों के निर्यात को नियंत्रित किया गया। इस क्षेत्र के आस-पास कबायलियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए अंग्रेजी सेना भी अच्छी संख्या में रखी गई। कबायली नेताओं को अपने पक्ष में करने के लिए आर्थिक सहायता भी कर्जन ने दी। उसके इन कार्यों के परिणामस्वरूप कबायली क्षेत्र में शांति स्थापित हो गई। कर्जन की नीति का अनुकरण उसके पश्चात् भी किया गया।
अफगानिस्तान से संबंध -
कर्जन अफगानिस्तान के साथ भी मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहता था। लॉर्ड एल्गिन के शासनकाल में अफगानिस्तान के शासक अब्दुर्रहमान पर अंग्रेजों ने अपने विरुद्ध अफगानों को भड़काने का आरोप लगाया था, परंतु कर्जन ने मित्रवत् संबंध ही बनाए रखे। 1901 ई० में अब्दुर्रहमान की मृत्यु के पश्चात् हबीबुल्ला राजा बना। कर्जन चाहता था कि नया शासक अफगानिस्तान ओर अंग्रेजी सरकार के मध्य हुई पुरानी संधि की पुष्टि करे। हबीबुल्ला ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया फलतः दोनों के बीच मनमुटाव बढ़ा। कर्जन ने अफगानिस्तान को दी जानेवाली आर्थिक सहायता बंद कर दी। 1904 ई0 में कर्जन की अनुपस्थिति में लॉर्ड एम्टहिल ने हबीबुल्लाह से पुनः संबंध सुधारकर उसे आर्थिक सहायता देना प्रारंभ कर दिया।
खाड़ी-क्षेत्र की नीति -
लॉर्ड कर्जन ने फारस की खाड़ी में भी अंग्रेजी हितों की सुरक्षा की। इस क्षेत्र में अंग्रेजी दिलचस्पी 17वीं शताब्दी से ही थी जिसके फलस्वरूप उसने अनेक इलाकों पर अपना अधिकार कायम कर लिया, समुद्री डाकुओं का आतंक समाप्त किया, अरब सरदारों के झगड़ों में मध्यस्थता की भूमिका निभाई और बलुचिस्तान तक के क्षेत्र में शांति एवं सुव्यवस्था कायम की। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से रूस, फ्रांस, जर्मनी एवं तुर्की की भी दिलचस्पी इस प्रदेश में बढ़ गई जिससे अंग्रेजी हितों को खतरा पैदा हो गया। कर्जन ने अंग्रेजी स्वार्थों की रक्षा का उपाय किया। इसी बीच 1898 ई० में मस्कट के फ्रांसीसी कौंसिल ने ओमन के सुल्तान से जिस्साह नामक स्थान एक कोयला स्टेशन के रूप में हासिल कर लिया। कर्जन ने ओमन की सरकार को धमकी दी कि वह फ्रांसीसियों को दी गई सुविधाएँ वापस ले ले अन्यथा सैनिक कार्यवाही की जाएगी। उसने कर्नल मीड के अधीन एक अंग्रेजी युद्धपोत भी भेज दिया। बाध्य होकर सुल्तान को फ्रांस को दी गई रियायतें वापस लेनी पड़ीं। इसी प्रकार कर्जन ने रूस, तुर्की और जर्मनी को भी खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने से रोक दिया। इस प्रकार, कर्जन की नीतियों के फलस्वरूप फारस की खाड़ी-क्षेत्र में अंग्रेजी प्रभाव अक्षुण्ण रूप से बना रहा।
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति -
लॉर्ड कर्जन की तिब्बत सम्बन्धी नीति उसके वायसराय काल की महत्त्वपूर्ण घटना है। गवर्नर-जनरल लॉर्ड वारेन हैस्टिंग्स के समय में ब्रिटिश सरकार तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयत्न कर रही थी और इस उद्देश्य की पूर्त्ति के लिए उसने अनेक मिशन भी वहाँ भेजे थे, परन्तु उसे कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई थी और 1885- 86 ई० तक कोई सन्तोषजनक सम्बन्ध स्थापित न किया जा सका। 1886 ई० में चीन की सरकार ने ब्रिटिश व्यापार मण्डल को तिब्बत आने की आज्ञा दी और कुछ समय के बाद उसे यातुंग में भी व्यापार करने की आज्ञा दे दी गई परन्तु तिब्बत के लोग सामान्य रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध थे और इसलिए चीन की सरकार से आज्ञा मिल जाने पर भी ब्रिटिश सरकार को कोई विशेष लाभ नहीं हुआ।
जब लॉर्ड कर्जन भारत पहुँचा तो उस समय तिब्बत में कुछ नये राजनीतिक परिवर्तन हो रहे थे जिन्होंने वायसराय के ध्यान को भी आकृष्ट किया। तिब्बत के लोगों में चीन से स्वतंत्र होने की दृढ़ भावना उत्पन्न हो गई थी और उसके नेता दलाई लामा ने डोरजीफ के प्रभाव से, जो जन्म से रूसी प्रजाजन था, रूसी प्रभाव का स्वागत करना आरम्भ कर दिया। दलाई लामा ने अपने-आपको शक्तिशाली स्वतंत्र शासक के रूप में प्रमाणित किया। उसने वयस्क होते ही रीजेन्सी सरकार का तख्ता उलट दिया और उसपर शक्तिपूर्ण अधिकार करके दृढ़ धारणा तथा योग्यता से शासन-भार को सम्भाल लिया। उसने 1898 ई० में डोरजीफ को रूस में रहने वाले बौद्धों से धार्मिक कार्यों के लिए धन इकट्ठा करने को ल्हासा से रूस भेजा। डोरजीफ ने अगले कुछ वर्षो में अनेक बार रूस की यात्रा की और 1900 ई० तथा 1901 ई० में वह रूसी सम्राट से भी मिला। रूसी समाचारपत्रों ने डोरजीफ की यात्राओं को बहुत महत्व दिया और तिब्बत में बढ़ते हुए रूसी प्रभाव का स्वागत किया। भारत-सरकार इन सूचनाओं से चिन्तित हो उठी और उसने समझा कि रूसी सरकार डोरजीफ के द्वारा उसके पड़ोसी प्रदेश तिब्बत में राजनीतिक प्रभाव बढ़ा रही है। लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में रूसियों के मामले को गम्भीरतापूर्वक लिया क्योंकि इससे एशिया में अंग्रेजोंं के सम्मान को धक्का लगने की सम्भावना थी।
लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत में एक मिशन भेजने के लिए इंगलैण्ड की सरकार पर जोर डाला। उसने तिब्बत के साथ व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए भी जोर दिया, परन्तु इंगलैण्ड की सरकार मिशन भेजने के पक्ष में नहीं थी। इसपर लॉर्ड कर्जन ने यह सुझाव रखा कि सिक्किम की सीमा से पन्द्रह मील उत्तर में खाम्बाजोंग नामक स्थान पर तिब्बत और चीन से बातचीत की जाये और दोनों सरकारों पर सन्धि-दायित्वों को पूरा करने की आवश्यकता पर जोर डाला जाये। यदि दूत वहाँ न पहुँचे तो ब्रिटिश कमिश्नर ही शिगांत से वहाँ पहुँचे। इंग्लैण्ड की सरकार ने अनिच्छा से इस सुझाव को स्वीकार कर लिया और कर्नल एफ० ई० यंग हसबैंड के नेतृत्व में एक मिशन खाम्बाजोंग भेज दिया।
कर्नल यंग हसबैंड जुलाई, 1903 ई० खाम्बाजोंग पहुँचा, परन्तु तिब्बतियों ने तब तक सम्मेलन में आने से इनकार कर दिया जब तक कि मिशन सीमा तक वापस न लौट जाए। इससे बातचीत में गत्यावरोध उत्पन्न हो गया। इसी बीच तिब्बतियों ने खाम्बाजोंग के निकट अपनी सेनाओं को एकत्रित करना शुरू कर दिया। लॉर्ड कर्जन इस बात को सहन न कर सका और उसने इंगलैंड की सरकार से ग्यान्त्से तक सेनाओं को भेजने की स्वीकृति मांगी। विदेश मंत्री लॉर्ड लैंसडाउन ने इस शर्त पर स्वीकृति दे दी कि क्षतिपूर्ति हो जाने पर सेनायें वापस लौट आएँगी। एक तरफ चीनी प्रभुसत्ता को तिब्बत स्वीकार नहीं करता था दूसरी ओर तिब्बत पर रूस का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। लॉर्ड कर्जन ने तिब्बत पर रूसी प्रभाव को समाप्त करने के लिए सितम्बर, 1904 में तिब्बत को अपने प्रभुत्व में ले लिया। इस पराजय के बाद तिब्बत को युद्ध क्षति के रूप में एक लाख रुपये वार्षिक की दर से 75 लाख रुपये देने थे। इसकी जमानत के रूप में अंग्रेजों ने सिक्किम और भूटान के मध्य स्थित चुम्बीघाटी को अपने अधिकार में ले लिया। इसके अलावा यह भी निश्चय हुआ कि तिब्बत इंग्लैंड के अलावा किसी अन्य विदेशी शक्ति को रेलवे, सड़के और तार इत्यादि की स्थापना में रियायतें नहीं देगा। भारत सचिव के भारी दबाव के कारण 1908 में चुम्बीघाटी पर से ब्रिटिश नियंत्रण उठा लिया गया।
मूल्यांकन -
इस प्रकार आन्तरिक और वैदेशिक नीति का अवलोकन करने से यह स्पष्ट है कि कर्जन ब्रिटिश साम्राज्य का भक्त था। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीयों में जो असन्तोष फैला उसके लिए लॉर्ड कर्जन बहुत अंशों में उत्तरदायी था। वह भारतीयों को घोर घृणा की दृष्टि से देखता था। उसके शासन सम्बन्धी आदर्श बड़े उच्च थे और उनको वह विध्न-बाधाओं की चिन्ता न करके सम्पन्न करने का प्रयत्न करता था। उसने जो कुछ किया, अत्यन्त द्रुतगती से और लोकमत की उपेक्षा करके किया। सीतलवाड के कथनानुसार, “लार्ड कर्जन एक अत्यन्त प्रतिभाशाली, योग्य तथा परिश्रमी वायसराय था तथा उसने सम्पूर्ण प्रशासनिक ढाँचे को योग्यता के साँचे में ढाला, किन्तु वह एक महान् साम्राज्यवादी था तथा वह सदैव प्रयत्नशील रहता था कि किसी प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य की सीमा तथा प्रभाव को फैलाया जाए। उसे भारतवर्ष से महान आशाएँ थीं, क्योंकि वह इस देश को पृथ्वी के विस्तृत भागों पर फैले हुए ब्रिटेन के उपनिवेशों के विस्तार तथा संरक्षण के सम्बन्ध में एक महान पूँजी समझता था।“
लार्ड कर्ज़न में कार्य को प्रारम्भ करने की महान् शक्ति थी और वह अपने कर्त्तव्य के प्रति अत्यधिक जागरूक था। उसका विश्वास था कि भारत में अंग्रेजों का औचित्य इस बात में है कि वे भारतीयों को “कुछ अधिक न्याय अथवा प्रसन्नता अथवा सुख-सम्पत्ति, मनुष्यता की भावना, चारित्रिक प्रतिष्ठा, देश-प्रेम का झरना, बौद्धिक प्रकाश की उषा तथा कर्त्तव्य निष्ठा की भावना प्रदान करें, जहाँ वह पहले नहीं थी।“ मिस्टर माण्टेग्यू के अनुसार, “लार्ड कर्ज़न एक मोटर ड्राइवर के समान था, जिसने अपनी सारी शक्ति तथा समय यंत्र के विभिन्न पुर्जों को रंग करने में लगा दिया किन्तु उसने लक्ष्य का ध्यान रखे बिना उसे चलाया।‘‘ डलहौजी के समान उसने वायु की दिशा दिखा दी तथा उसका परिणाम भोगने का कार्य अपने उत्तराधिकारी पर छोड़ दिया। रासबिहारी घोष के शब्दों में, “लार्ड कर्जन ने वह प्रत्येक कार्य अधूरा छोड़ दिया, जिसे वह करना चाहता था, तथा जिस कार्य को उसे नहीं करना चाहिए था, उसे वह पूर्ण कर गया।“ हम पी० ई० राबर्टस के इन शब्दों के करते हैं- “जो भी भूलें तथा जो भी असफलताएँ उसने की तथा उसके आलोचकों ने उसके छः वर्ष के कार्यकाल में जो भी कमियॉ दिखाई हों, तथापि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जब तत्कालीन विरोध की बाढ़ का प्रवाह रुक जाएगा, तब लार्ड कर्ज़न का नाम उस व्यक्तियों में सब से आगे होगा, जिन्होंने भारत में गवर्नर-जनरलों के उच्च पद की प्रतिष्ठित परम्परा को बनाया है।
यद्यपि वह एक महान् व्यवस्थापक था, तथापि राजनीतिज्ञ के रूप में वह असफल रहा क्योंकि वह समय की गति को नहीं पहचान सका। कांग्रेस के सम्बन्ध में उसने जो शब्द कहे थे, वे उसकी अदूरदर्शिता को प्रदर्शित करते हैं। उसने कहा था- “कांग्रेस पतन की ओर उन्मुख है और भारत में रहते हुए मेरी यह सबसे बड़ी आकांक्षा है कि मैं इसकी शान्तिपूर्वक मृत्यु में सहायक बनूँ।“ .
गोपालकृष्ण गोखले के अनुसार - “कर्जन अत्यन्त प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति था, परन्तु देवताओं ने उसे सहानुभूतिपूर्ण कल्पना से वंचित रखा था, जिसके परिणामस्वरूप उसका भारतीय कार्यकाल इतना विफलतापूर्ण बना।“