window.location = "http://www.yoururl.com"; Factor for the Commercialization of Agriculture in India | भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण

Factor for the Commercialization of Agriculture in India | भारत में कृषि के वाणिज्यीकरण के कारण

 


विषय-प्रवेश :

प्राचीन काल से ही भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है तथा यहॉं के निवासियों की आजिविका का मुख्य आधार कृषि ही है। भारत के लगभग 71 प्रतिशत लोग अभी भी अपनी आजिविका के लिए कृषि पर ही निर्भर है। किन्तु यह बडे दुर्भाग्य की बात है कि कृषि और कृषक को सदैव ही शोषित होना पडा है। ब्रिटिश काल में भी किसानों को लाभ पहुॅंचाने के लिए कोई ठोस कदम नही उठाये गये। यही कारण है कि भारतीय कृषक निर्धनता, अकाल व ऋणग्रस्तता के दलदल में फॅसा रहा। इसी कारणवश बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि - ‘‘भारत की आत्मा रूपी किसान के उपर मॅडराते हुये जडता तथा उदासीनता के बादलों को हटाना होगा और उसके लिए हमें अपने आप को किसानों के साथ जोडना होगा और यह अनुभव करना होगा कि किसान हमारा है और हम किसान के लिए है।‘‘

18वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक भारतीय ग्रामीण समुदाय परम्परागत ढंग से चला आ रहा था। भारतीय किसानों की कृषि उनके निर्वाह के मुख्य साधन थे। इस समय तक भारतीय कृषक अपने कृषि उत्पादनों से अपना पेट भरते तथा उत्पादन के एक अंश को बेचकर अपनी अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे। कभी कभी जब अधिक उत्पादन हो जाता था तो कृषक संकटकालीन परिस्थितीयों के लिए कुछ अनाज भण्डार भी कर लेता था क्योंकि आवागमन के साधन अभी उतने विकसित नही थे। इसी कारण भारतीय कृषि उत्पादनों को अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कोई स्थान नही मिल सका।

इस प्रकार लगभग 1850 ई0 तक भारतीय कृषि का चरित्र गैर व्यवसायिक कृषि उत्पादन से सम्बन्धित था किन्तु 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में परिवर्तन के प्रारंभिक लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। गॉंवों की आत्मनिर्भरता टूटने लगी और भारतीय कृषि का चरित्र व्यवसायिक कृषि की ओर होने लगा। इस परिवर्तन के दो प्रमुख कारण थे -

1. ब्रिटिश प्रशासकों द्धारा भूराजस्व प्रणाली में नवीन प्रयोग तथा

2. भारत में यातायात के साधनों का तीव्र गति से विकास

यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरूप भारतीय कृषि उत्पादन के लिए देश के भीतर तथा बाहर बाजार सुलभ हो गए। भारतीय ग्रामीण व्यवस्था में हुये उपरोक्त परिवर्तनों के कारण भारत की परम्परागत कृषि में कतिपय नवीन प्रवृतियॉ विकसित हुई जिनमें मुख्य थी- भारतीय कृषि का आद्यौगीकीकरण अथवा व्यवसायिक कृषि का विकास।

कृषि का वाणिज्यिकीकरण -

19वीं शताब्दी के मध्य में भारतीय परम्परागत कृषि में दो परिवर्तन आए। इस पर टिप्पणी करते हुए D.R. Gadgil ने लिखा है कि - ‘‘जो परिवर्तन हो रहे थे उनमें पहला स्थान कृषि के वाणिज्यिकरण का है जो स्वतः एक लाभकर प्रक्रिया है। इसके चलते अनाज का पहले से अच्छा वितरण संभव हुआ और कृषिजन्य लाभ में वृद्धि हुई।‘‘

             इस परिवर्तन के फलस्वरूप ऐसी व्यवस्था कायम हुई जिसे कृषि के आद्यौगिकीकरण की संज्ञा दी गई। किसान अब खास किस्म की फसलें उगाने पर जोर देने लगे। अपनी विशिष्ट उपयोगिता के कारण अनेक गॉंवों में केवल एक ही फसल उगाई जाने लगी जैसे - रूई, जूट, ईख, तेलहन इत्यादि। तात्कालीन परिस्थितीयों पर प्रकाश डालते हुए ए0 आर0 देसाई (A.R.Desai) ने लिखा है कि -‘‘अपनी निजी तथा गॉंव की सामूहिक जरूरतों को पूरा करने के बदले अब भारतीय किसान सारे विश्व के लिए फसल उगाने लगा और कृषि उत्पादन की दिशा में परिवर्तन के फलस्वरूप न केवल फसलों का आद्यौगिकीकरण व विशिष्टीकरण हुआ बल्कि भारतीय गॉंवों की कृषि तथा उद्योग की प्राचीन एकता भी भंग हो गई।‘‘

इस प्रकार 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारतीय कृषि का आद्यौगिकीकरण हुआ। व्यवसायिक कृषि का अभिप्राय है कि कृषि को एक अर्थपरक व्यवसाय के रूप में अपनाया जाय जिससे किसान अधिक से अधिक लाभ प्राप्त कर सके। सामान्य रूप से कृषि के वाणिज्यिकरण का अर्थ है- कृषि का बाजारोन्मुख होना या किसानों की बाजार में भागीदारी। पर भारतीय सन्दर्भ में यह ब्रिटिश औपनिवेशिक शोषण की एक कडी थी जिसका मूल उद्देश्य भारत में ऐसी फसलों का उत्पादन करवाना था जो इंग्लैण्ड के उद्योगों के लिए कच्चे माल की पूर्ति कर सके। वास्तव में यह वाणिज्यिकरण एक स्वाभाविक प्रक्रिया न होकर एक थोपी गयी प्रक्रिया थी। इस प्रकार व्यवसायिक कृषि के द्धारा कृषि उत्पादन गॉंवों की जरूरतों के स्थान पर बाजार के लिए होने लगा। अतः खाद्यान्नों के उत्पादन में कुछ अंशो तक कमी कर किसानों ने अधिक लाभ देने वाली व्यवसायिक फसलों का उत्पादन करना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी फसलों को व्यवसायिक कृषि का नाम इसलिए दिया गया क्योंकि इनका उत्पादन ब्रिक्री के लिए होता था न कि परिवार का पेट भरने के लिए। इसी कारणवश इन फसलों को नकदी फसल भी कहा जाता है। इन विशेष फसलों का उत्पादन राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मण्डियों के लिए किया जाता था। इस प्रकार गन्ना, तेलहन, जूट, अफीम, कपास, नील, तम्बाकू आदि फसलों का उत्पादन अब भारतीय कृषकों ने करना प्रारम्भ कर दिया।

कृषि के वाणिज्यिकरण के कारण :

यद्यपि 18वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही व्यवसायिक कृषि की दिशा में कुछ प्रयास प्रारम्भ हो गये थे किन्तु इसे निश्चित गति 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही प्राप्त हुआ। इस समय व्यवसायिक कृषि के विकास के कुछ प्रमुख कारण निम्नलिखित है -

नवीन भूमि संबंध - नये भूमि संबंधों ने कृषकों को नकदी फसलों की खेती करने के लिए बाध्य किया। पहले भूमि और कृषक का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध था। भूमि कृषक की होती थी, वह उसका स्वामी होता था और उसपर उसका अक्षय अधिकार था। समस्त ग्रामीण गाँव के आस-पास की जोत या परती जमीन के मालिक थे। जोत भूमि में फसलें पैदा की जाती थीं और परती में पशुओं के लिए चारा पैदा किया जाता था। ग्राम पंचायतें भी थीं जो भूमि सम्बन्धी समस्याओं को देखती थीं। ग्रामीण कृषक या जनसमुदाय या पंचायतें भूमिकर को एक साथ जमा करके सरकार या अन्य धारक को देते थे।
भारत में ब्रिटिश शासन की स्थापना के बाद भूमि का यह स्वरूप बदल गया। भारी कर शोषक वर्ग, भूमि में टूटन, संयुक्त परिवार का बिखराव आदि से भूमि पर से किसानों का स्वामित्व समाप्त कर दिया, पंचायतों का महत्त्व समाप्त हो गया, कर की रकम कठोर हो गयी और बढ़ती निर्धनता से तंग आकर किसानों ने कृषि कार्य से मुख मोड़ लिया, भूमि को महाजनों के पास बंधक रखना प्रारम्भ किया और भूमि तथा खेती के मालिक कम्पनी के सेवक तथा जमींदार हो गये। ऐसी स्थिति में नकद फसलें पैदा कर नकद धन कमाने की बात सोची जाने लगी।
औपनिवेशिक सरकार का आगमन-  औपनिवेशिक सरकार ने राजस्व की राशि निश्चित कर दी जिसका भुगतान निश्चित समय पर करने की व्यवस्था की गई। राजस्व की दर निश्चित रही, भले ही उसमें कालान्तर में वृद्धि की जाती रही। कृषकों को वार्षिक भुगतान करने के लिए बाध्य किया गया, चाहे उनके पास पैसे हों या न हों। गाडगिल ने इस तथ्य को इस तथ्य को स्पष्ट करते हुये कहा है कि- सरकारी कर निर्धारण तथा महाजन के सूद की अदायगी आदि के कारण ऐसा हुआ। इन दो भुगतानों के लिए किसान को फसल काटने के तुरन्त बाद बाजार जाना पड़ता था और अपना कर और कर्ज चुकाने के लिए जो कुछ कीमत मिल जाए उस पर अपनी फसल का बहुत बड़ा अंश बेच देना पड़ता था। 
हालॉंकि औपनिवेशिक शासन से पहले की स्थिति और थी। सामुदायिक और सामूहिक ढंग से राजस्व का भुगतान किया जाता था और संकट तथा आपात काल में राजस्व भी माफ कर दिये जाते थे। जब भूमि से पेट भरना सम्भव नहीं रहा, तब कुछ नकद धन ही मिल जाय, यह सोचकर किसानों ने मण्डियों के लिये फसलों को उगाना प्रारम्भ किया और स्पष्ट शब्दों में, भूमि कर की राशि प्रायः बहुत हुआ करती थी और पहले तो लगान की अदायगी के लिए और फिर, कालक्रम से महाजन का कर्ज चुकाने के लिए किसान को अधिक से अधिक पैसा बनाने की जरूरत हुई। वह विभिन्न कारणों से सूदखोर महाजनों के चंगुल में अधिकाधिक जकड़ता गया और इस तरह उसे बाजार के लिए उत्पादन करने को बाध्य होना पड़ा। गाडगिल ने लिखा है कि- “नये भूमि सम्बन्धों और नियत धनराशि के रूप में भुगतान की प्रथा के फलस्वरूप ग्रामीण उपयोग के लिए उत्पादन के बदले बाजार में विक्रय के लिए उत्पादन शुरू हुआ। इस तरह उत्पादन के रूप और चरित्र में मूलभूत परिवर्तन हुए।

यातायात के साधनों का विकास - यातायात के साधनों का विकास भारतीय कृषि के स्वरूप में परिवर्तन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण था। सर्वप्रथम 1853 ई0 में बम्बई से थाणें के बीच पहली रेल लाइन बिछाई गई किन्तु इसके पश्चात रेलमार्ग का तीव्र गति से विकास हुआ। 1857 ई0 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय भारत में केवल 288 मील लम्बी रेल लाइन बिछ सकी थी जो 1861 ई0 में बढकर 20000 मील लम्बा हो गया था और 1908 ई0 तक यह लगभग 30000 मील लम्बी हो चुकी थी। इसके फलस्वरूप कृषि उत्पादनों को सरलता से एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाया जा सकता था। इसी प्रकार 1869 ई0 में स्वेज नहर आवागमन के लिए खुल गया था जिससे भारत और इंग्लैण्ड के बीच की दूरी कम हो गई थी जिससे भारत से अन्य देशों तक वस्तुएॅं भेजना सरल हो गया। इसके अतिरिक्त 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में सडकों का विकास भी तीव्र गति से हुआ जिससे किसानों को अपनी फसल मण्डियों तक पहुॅचाने में सुविधा होने लगी।

मुद्रा अर्थतंत्र का प्रचलन-  गांवों में मुद्रा अर्थतन्त्र का प्रचलन वाणिज्यीकरण की दिशा में पहला कदम है। मुद्रा अर्थतन्त्र ने प्रतियोगिता को जन्म दिया और अधिक-से-अधिक नकद धन कमाने का भूत सवार हो गया। नकदी फसलें धन उगलती थीं, इसलिए ऐसी ही फसलों की खेती प्रारम्भ की गई। आवागमन के बढ़ते साधनों ने अर्थतन्त्र को व्यापक बनाने में सहयोग किया। मुद्रा की नई प्रथा ने किसानों को शीघ्र फसल काटकर अन्न बेचने के लिए प्रलोभी बनाया।

कच्चे माल की आवश्यकता-  इंग्लैण्ड के लिए कच्चे माल की आवश्यकता ने वाणिज्यीकरण की नीति को और भी मजबूत बनाया। इंग्लैंड में आधुनिक उद्योग का विकास हो चुका था और नये कल-कारखानों को चलाने के लिए उसे कच्चे माल की जरूरत हुई। भारत की ब्रिटिश सरकार ने ऐसी नीतियों का अनुशीलन किया जिनके फलस्वरूप अधिक-से-अधिक क्षेत्रों में ब्रिटिश उद्योगों की जरूरत वाले कच्चे माल की खेती होने लगी। इसके चलते भारतीय कृषि वाणिज्यीकरण और विशिष्टीकरण की गति और अधिक तेज हुई। इस प्रकार कृषि का वाणिज्यीकरण करने में ब्रिटिश सरकार की नीति ने भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। ब्रिटेन के उद्योगों के बने रहने के लिए भारत द्वारा कच्चे माल की पूर्ति होना जरूरी था और सरकार इसी दृष्टि से भारत का विकास करना चाहती थी कि वह (भारत) ब्रिटेन को कच्चा माल देता रहे।

जहाजी शुल्क के दर में कमी - इसी काल में जहाजी यातायात का तीव्र विकास हुआ था तथा जहाजी भाडें में भारी कमी हुई थी। हवा की सहायता से चलने वाली छोटी नावों का स्थान अब भाप से चलने वाले बडे जहाजों ने ले लिया था। इससे विभिन्न वस्तुएॅं न केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक जल्दी पहुॅचने लगी वरन् उनपर खर्चा भी कम आने लगा। उदाहरण के तौर पर कलकत्ता से ब्रिटिश लिवरपुल बन्दरगाह तक जिस सामान को भेजने में पहले 55 स्टर्लिंग पाउण्ड लगते थे अब केवल 27 स्टर्लिंग पाउण्ड देने पडते थे। इस प्रकार जहाजी यातायात के विकास ने भी व्यवसायिक कृषि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सिचाई साधनों  का विकास - 1860 ई0 के बाद भारत में सिचाई के साधनों का विकास भी हुआ और अनेक महत्वपूर्ण नहरों का निर्माण भी किया गया। सरकार ने बंगाल, आगरा, पंजाब, बम्बई और दक्षिण भारत में अनेक नहरों की खुदाई करवाई। इससे भारत के सिंचित क्षेत्र में वृद्धि हुई जिसका सीधा प्रभाव आद्यौगिक कृषि पर पडा। भारत में 1880 ई0 में कुल सिंचित क्षेत्र 29 मिलियन एकड था जो 1903 ई0 में बढकर 44 मिलियन एकड हो गया। इसलिए सिंचाई की बेहतर सुविधा के कारण आद्यौगिक कृषि के विकास में महत्वपूर्ण सहायता मिली।

अमेंरिका का गृहयुद्ध - भारतीय कृषि के आद्यौगिकीकरण अथवा वाणिज्यिकरण का एक प्रमुख कारण अमेरिका का गृहयुद्ध था। अमेरिका में 1861 ई0 से 1865 ई0 तक उत्तरी तथा दक्षिणी राज्यों के बीच गृहयुद्ध चलता रहा। गृहयुद्ध से पूर्व इंग्लैण्ड अपने उद्योगों के लिए कपास अमेरिका से मगॉता था किन्तु अमेरिका में गृहयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण इंग्लैण्ड के लिए अमेरिका से कपास आयात करना संभव न रहा। इन परिस्थितीयों में भारत से कपास मगॉए जाने की मॉंग में दिन प्रतिदिन वृद्धि होने लगी। इसी कारणवश 1862 ई0 के बाद भारत से कपास के निर्यात में असाधारण वृद्धि हुई। 1861 ई0 में मात्र 5 करोड रू0 का कपास ब्रिटेन भेजा गया था जबकि 1864-65 में कपास का यह निर्यात बढकर लगभग 37 करोड रू0 हो गया। यद्यपि 1865 ई0 के बाद कपास के निर्यात में गिरावट आई किन्तु तबतक भारत में भी सूती मिलों की स्थापना होने लगी थी अतः कपास की मॉंग पूर्ववत बनी रही। इसी कारणवश भारतीय किसान अपनी भूमि पर अधिकाधिक कपास उगाने लगे क्योंकि कपास उगाने पर उन्हे अन्य फसलों की तुलना में अधिक लाभ होता था। इस प्रकार अमेरिका गृहयुद्ध ने भी अप्रत्यक्ष रूप से भारत को प्रभावित करते हुये कृषि के व्यवसायिकरण को प्रोत्साहित किया। निम्नलिखित सारिणी कपास की कीमत में हुई वृद्धि की ओर संकेत करती है -

वर्ष मूल्य (आना/पौण्ड)

              1859 2.7

              1860 3.7

              1861 4.2

              1862 6.4

              1863 10.5

             1864 11.5

             1865 7.1

             1866 6.2

निर्यात में वृद्धि - 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के निर्यात में असाधारण वृद्धि हुई। इसका कारण उस समय अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अफीम तथा नील की मॉंग होना था। 1859-60 में भारत से लगभग 29 करोड रू0 का निर्यात किया गया था। यह निर्यात 1906 ई0 तक आते आते 165 करोड रू0 तक पहॅंच गया। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अफीम तथा नील की मॉग को देखते हुए भारतीय किसानों ने इन दोनों ही बस्तुओं का अधिकाधिक खेती करना प्रारम्भ कर दिया तथा भारत इन दोनों प्रमुख बस्तुओं का प्रमुख निर्यातक बन गया। इस प्रकार इन वस्तुओं की अन्तर्राष्ट्रीय मॉंग ने भारत में कृषि के व्यवसायिकरण में काफी सहायता की।

सरकार की वाणिज्य नीति - 18वीं शताब्दी में इंग्लैण्ड में आद्यौगिक क्रान्ति हुई थी जिसके परिणामस्वरूप इंग्लैण्ड में बडी संख्या में कारखाने स्थापित हुये। इन कारखानों को विभिन्न वस्तुओं के निर्माण के लिए कच्चे माल की आवश्यकता होती थी। अतः भारत की अंग्रेजी सरकार ने इस प्रकार की नीतियॉं अपनाई जिनके फलस्वरूप अधिकाधिक क्षेत्रों में ब्रिटिश उद्योगों की जरूरत वाले कच्चे माल की खेती होने लगी। फलस्वरूप भारतीय कृषि के वाणिज्यिकरण तथा विशिष्टीकरण की गति और तेज हो गई। ब्रिटिश सरकार ऐसी फसल उगाने के लिए विशेष प्रोत्साहन देती थी जिससे कि ब्रिटिश लोगों को कच्चे माल की आपूर्ति हो सके। अतः भारतीय किसान इन प्रोत्साहन के लोभ में अधिक से अधिक इसी प्रकार की खेती करते थे।

कृषि के वाणिज्यीकरण के विभिन्न चरण :

1. प्रथम चरण ( 1857 से पूर्व )

प्रमुख फसल

अफीम-  चीन से होने वाले व्यापार की दृष्टि से यह काफी महत्वपूर्ण था। 

नील- ब्रिटेन के वस्त्र उद्योगों में रंगाई हेतु प्रयोग। उल्लेखनीय है कि पहले नील वेस्ट इंडीज आदि क्षेत्रों से मंगाया जाता था, पर जब बाद में ब्रिटेन का इस पर प्रभाव खत्म हुआ तब भारत से आयात किया गया। 

अन्य फसल- रेशम, गन्ना

2. द्वितीय चरण- ( 1857 के बाद )

इस चरण में कृषि के वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया तीव्र होती है।

प्रमुख फसल

कपास-  दक्कन क्षेत्र में व्यापक स्तर पर कपास की खेती करवायी गई। उल्लेखनीय है कि  पहले लंकाशायर , मैनचेस्टर आदि सूती वस्त्र केन्द्रों के लिए अमेरिका से कपास आता था लेकिन अमेरिका पर से ब्रिटिश नियंत्रण समाप्त होने के कारण इसकी आपूर्ति भारत से की जाने लगी। कृषि के वाणिज्यीकरण में कपास सर्वाधिक प्रमुख फसल थी

जूट - ब्रिटिश औपनिवेशिक आवश्यकताओं के अनुरूप बंगाल क्षेत्र में इसकी खेती आरंभ करवाई गई । जूट, पटसन की खेती में बड़े स्तर पर विदेशी पूंजी निवेश भी किया गया। 

कृषि के वाणिज्यिकरण का विस्तार :

भारत के अब कई क्षेत्रों में वाणिज्य की दृष्टि से खेती की जाने लगी। वाणिज्यीकरण की प्रक्रिया करीब 1850 ई0 के बाद ही प्रारम्भ हुई और 1870 ई0 तक सिंचाई परिवहन के साधन आदि के चलते कृषि का आंशिक वाणिज्यीकरण हो चुका था। 1880 ई0 के पश्चात् और विशेष कर 1900 ई0 के समय से भारतीय कृषि का अपेक्षाकृत अधिक सीमा तक वाणिज्यीकरण होने लगा। अब भारत के कई क्षेत्रों में ऐसी फसलें उगाई जाने लगी जिनका केवल निर्यात किया जा सकता था। ऐसा विशेषकर बर्मा के धान, पंजाब के गेहूँ, पूर्वी बंगाल के जूट तथा खानदेश, बरार और गुजरात के रुई वाले इलाकों में हुआ। बिहार तथा बंगाल में नील की खेती प्रारम्भ की गई जो तकरीबन 1925-30 ई0 तक की जाती रही। 19वीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थांश में कृषि में क्रान्तिकारी परिवर्तन होने लगे थे जो 1900-1914 के बीच और अधिक स्पष्ट हो गये। कृषि भूमि का बहुत अंश व्यापार के लिए आवश्यक कृषि वस्तुओं के उत्पादन में लगा दिया गया। पटसन, कपास, गेहूॅं, तेलहन आदि का उत्पादन केवल गृह-बाजार के लिए ही नहीं अपितु विदेशी व्यापार के लिए भी होने लगा था। 1850 ई0 के पश्चात् वाणिज्यीकरण का दौर प्रारंभ हुआ और नकदी फसलों की खेती में काफी वृद्धि हुई। 1880-95 के बीच ऐसी खेती में काफी वृद्धि हुई। निम्नलिखित सारणी से ब्रिटिश भारत में कुछ फसलों के अन्दर समस्त कृषित भूमि के प्रतिशत का अनुमान लगाया जा सकता है -

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1890&91 ls 1895&96

1895&96 ls 1899&1900

1900&01 ls 1904&05

1905&06 ls 1909&10

1912

[kk|kUu

81-3

81-0

80-2

79-3

78-2

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6-0

5-5

5-7

5-4

6-5

iVlu

1-5

1-0

1-1

1-4

1-4

dikl

4-6

4-4

5-1

5-7

6-0

       वाणिज्यिक वस्तुओं की बिक्री के लिए बाजारों का संगठन होने लगा। बाजारों में इन वस्तुओं की बिक्री की अधिक तथा शीघ्र सम्भावना थी। इन वाणिज्यिक फसलों के साथ-साथ ज्वार, बाजरा, कोदो आदि का बहुत बड़ा भाग भी कई कारणों से बाजार में आया, यद्यपि इन वस्तुओं का देशी व्यापार नहीं के बराबर होता था।

भारत के जिन भागों में वाणिज्यिक खेती प्रारम्भ हुई उनमें प्रमुख हैं बंगाल, पंजाब, महाराष्ट्र, दक्षिण भारत और संयुक्त प्रान्त। इस खेती की शुरुआत सर्वप्रथम बंगाल में हुई और प्रारम्भ में ही जूट, नील और पोस्ते की खेती महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। कुछ समय बाद बंगाल में चाय की खेती भी प्रारम्भ की गई। इन फसलों पर लोगों के व्यक्तिगत अधिकार नहीं थे। सरकार ने इनपर अपना प्रभुत्व और अधिकार जमाया। सरकार अपने खजाने के सरकार ने इनपर राजस्व की पूर्ति इन्हीं फसलों से करना चाहती थी। उसे अतिरिक्त आय की भी प्राप्ति हो सकती थी इसलिए सरकार ने इनपर अपना एकाधिपत्य कायम किया और बिचौलियों की मदद से इन फसलों पर अपना नियन्त्रण रखा। ब्रिटेन तथा यूरोप के बागान मालिक नील, चाय आदि पर अपना कठोर प्रभाव रखते थे और मजदूर दास की तरह इन बागानों में काम करते थे। फसल तैयार होने पर वे बाध्य होकर अंग्रेजों के ’हाथ बेच देते थे। कभी-कभी तो फसल पकने के पूर्व ही उसकी बिक्री हो जाती थी। सम्पन्न कृषक और जमींदार कटाई के बाद अपनी फसल की बिक्री करते थे और अधिक लाभ पाने की चेष्टा करते थे। फसल तैयार करनेवालों को भी कुछ लाभ हो जाता था, किन्तु उन्हें उसी दर पर फसल बेचनी पड़ती थी जिस दर का निर्धारण सरकार अथवा उसके अधिकारी करते थे।

पंजाब में भी लगभग यही व्यवस्था थी। जब इस प्रान्त में सिंचाई की व्यवस्था हो गई तो लगभग 40 लाख एकड़ भूमि में खेती की जाने लगी। इन भूमियों पर गेहूँ की विशेष किस्में और अमरीकी कपास की खेती की जाती थी। इन फसलों का अधिकांश भाग करॉची बन्दरगाह से विदेशों के लिए निर्यात किया जाता था। एक तरफ अन्न का व्यापार विदेशों के लिए किया गया, लेकिन दूसरी तरफ भारत पर उसका बुरा प्रभाव पड़ा। ग्रामीण क्षेत्र ऋण में डूबते गये, बटाईदारी की प्रथा जोरों पर चल निकली और भूमि के अधिकांश हिस्सों के स्वामी जमींदार बन गये।

दक्षिण भारत में मद्रास और महाराष्ट्र भी वाणिज्यिक फसल उगाने को बाध्य किये गये। मद्रास महाप्रांत में पहले से ही रैयतवारी प्रणाली प्रचलित थी। कालान्तर में जब यहाँ कृषि का वाणिज्यीकरण किया गया तब किसानों की गरीबी और भी बढ़ने लगी। इस राज्य को सम्पन्न और ब्राह्मण लोग विशेष रूप से प्रभावित करते थे। इनके राजस्व में सरकार कटौती करती थी और उन्हें खुद राजस्व के निर्धारण का अधिकार प्राप्त था। किन्तु अन्य सभी जाति के लोग वाणिज्यिक खेती से परेशान थे।

महाराष्ट्र में प्रचारित वाणिज्यिक खेती ने सामाजिक विषमता की वृद्धि में सहयोग किया और अछूतों की स्थिति और भी दयनीय हो गई। कमजोर वर्ग के लोगों की भूमि लेकर नकदी फसल उगाई जाती थी और कभी-कभी उनकी जमीन बंधक भी रख ली जाती थी। इस प्रभाव से वहॉ उत्पन्न हुई सामाजिक विषमता के विरुद्ध वहाँ के लोगों ने 1875 ई० में विद्रोह भी किया था।

संयुक्त प्रांत में इन्हीं नीतियों और पद्धतियों के आधार पर व्यवसायिक खेती प्रारम्भ की गई। यहाँ राजस्व का निर्धारण भी काफी ऊॅंची दर पर किया जाने लगा जिसका संग्रह करने में काफी कठिनाई होती थी। इस प्रान्त में गन्ना और गेंहॅू जैसी फसलें ही अधिक पैदा की जाती थीं। इन फसलों से प्राप्त सारी आय सरकार, महाजन और सम्पन्न किसान के पास चली जाती थी और खेतिहर कर्ज में डूबते जाते थे।



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