विषय-प्रवेश :
यद्यपि कृषि के वाणिज्यिकरण ने भारतीय किसानों को कुछ लाभ पहुॅचाया और कृषि का विशिष्टीकरण भी हुआ किन्तु इसके दूरगामी परिणाम और प्रभाव किसानों के लिए अभिशाप सिद्ध हुआ। यह भी सही है कि कृषि में राष्ट्रीय स्वरूप आया किन्तु किसानों की सम्पन्नता और अन्नों की प्रचुरता का युग समाप्त हो गया। 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में कृषि का जो वाणिज्यिकरण हुआ उसका भारतीय जनजीवन पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों में गहरा प्रभाव पडा। जहां तक सकारात्मक प्रभाव का प्रश्न है - भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ना गयी, अर्थव्यवस्था में पूंजीवादी परिवर्तन हुआ, भारत के कुछ क्षेत्रों का विशेष कृषि क्षेत्रों के रूप में विकसित होना एक महत्वपूर्ण बात थी, कुछ नई फसलों का आगमन हुआ तथा कुछ का उत्पादन बढ़ने लगा और सीमित स्तर पर कृषि क्षेत्र में नवीन प्रौद्योगिकी का आगमन हुआ। दूसरी तरफ कृषि के इस वाणिज्यिकरण का नकारात्मक प्रभाव ज्यादा देखने को मिला जिसका उल्लेख निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है -
ग्रामीण आत्मनिर्भरता की समाप्ति - व्यवसायिक कृषि के प्रारम्भ होने से पूर्व ग्रामीण समुदाय आत्मनिर्भर माना जाता था जहॉ आवश्यकता की सभी वस्तुएॅ उपलब्ध हो जाती थी किन्तु कृषि के व्यवसायिकरण के बाद यह आवश्यक नही रह गया था कि प्रत्येक गॉव अपनी आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन करें क्योंकि कृषकों ने ऐसी फसलों का उत्पादन शुरू कर दिया था जिसे बेचकर वे लाभ कमा सके। किसान अब उत्पादन के कुछ अंशों को सुरक्षित भी नही रखते थे जिससे कि विषम परिस्थितीयों में वे इस सुरक्षित अनाज का उपयोग कर सके क्योंकि कृषकों ने अनाज के स्थान पर अन्य वस्तुओं का उत्पादन करना प्रारम्भ कर दिया था। एक ऐसी उत्पन्न हो गयी जिसमें विश्व को रोटी देने वाला किसान स्वयं भूखा रहने लगा। ऐसी स्थिती में अकाल, बाढ जैसी प्राकृतिक आपदा आने पर किसानों की स्थिती अत्यन्त दयनीय हो जाती थी और इसका मुख्य कारण ग्रामीण आत्मनिर्भरता की कमी हो जाना था।
ए0 आर0 देसाई लिखते है कि - युगों की चट्टानशिला सी देखने में अभेद्य इस प्राचीन परम्परागत संस्था भारतीय ग्राम समुदाय की जैसे अब जीवन संध्या समीप आ गई थी। भारतीय ग्राम समुदाय पुरानी राजनीतिक उथल-पुथल, युद्ध और आक्रमण का आघात सफलतापूर्वक सॅंभाल सका था लेकिन भारतीय इतिहास में अभूतपूर्व नये प्रकार के राजनीतिक शासनतंत्र और आधुनिक पूॅजीवाद के वाणिज्यिक और आद्यौगिक शक्तियों से परास्त हो गया। आत्मनिर्भर गॉंवों का विनाश ऐतिहासिक दृष्टि से अप्रगतिशील कार्य था।
ग्रामीण उद्योग और नगरीय दस्तकारियों का पतन -
भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व ग्रामीण उद्योग संतुलित और आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के अभिन्न अंग थे। भारतीय ग्राम अपनी आद्यौगिक आवश्यकताओं को स्थानीय रूप से पूरा करने में सक्षम थे। ग्रामीण आर्थिक सम्बन्धों की सबसे विचित्र विशेषता यह थी कि ग्रामीण कारीगरों (सम्भवतः बुनकरों के अतिरिक्त) की स्थिति ग्रामीण समुदाय के नौकरों की भाँति थी। ग्रामीण समुदाय उन्हें गाँव की जमीन का एक हिस्सा तथा वार्षिक कृषि उत्पादन का एक भाग देता था। इस प्रकार ग्रामीण समुदाय एवं ग्रामीण कारीगरों तथा दस्तकारों के मध्य मुक्त उत्पादकों जैसे सम्बन्ध थे, जो अपने उत्पादों एवं सेवाओं का आपस में विनिमय या आदान-प्रदान करते रहते थे। चूँकि ग्राम लगभग आत्मनिर्भर आर्थिक इकाई थे, इसलिए किसी भी प्रकार की बाहरी प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी। चूँकि खेती अलाभकारी हो गई थी और कृषि अधिशेष बहुत कम अथवा बिल्कुल ही नहीं होता था, अतः कृषक वर्ग ग्रामीण कारीगरों की कोई सहायता नहीं कर सकता था। गरीबी तथा बाजारों में औद्योगिक उत्पादित आयातित माल की बाढ़ आ जाने के कारण ग्रामीण दस्तकारों एवं कारीगरों द्वारा उत्पादित माल की माँग में गिरावट आई। अकाल से भी ग्रामीण दस्तकारी उद्योग का पतन हुआ। अकाल के दौरान गरीब कारीगर, विशेषकर बुनकर, दूसरे कार्य करके जीविकोपार्जन करने के लिए बाध्य हो जाते थे।
कारीगरों की स्थिति में परिवर्तन आने का दूसरा कारण यह था कि अब उनकी स्थिति कामगारों जैसी हो गई। उदाहरण के तौर पर पहले ग्रामीण बुनकर ग्रामीण लोगों की आवश्यकताएँ पूरी करते थे। वे बाजार के लिए उत्पादन नहीं करते थे। नई परिस्थितियों में बुनकर स्थानीय अथवा सुदूर बाजारों में अपने उत्पादों की बिक्री के लिए व्यापारियों पर अधिकाधिक निर्भर गए। इसके अतिरिक्त, बाजारों में प्रतिस्पर्द्धा के लिए उसे अपने पास उपलब्ध धन की अपेक्षा अधिक पूँजी की जरूरत होती थी। इसके फलस्वरूप बुनकर तेजी से व्यापारियों के चंगुल में फँस गए। अनेक ग्रामीण कारीगरों ने अपने परम्परागत व्यवसाय छोड़ दिए और वे शहरों की ओर चले गए। ये कारीगर नगरों या कस्बों में या तो मजदूर बन गए अथवा मामूली मजदूरी पर भूमिहीन मजदूर बन गए।
ब्रिटिश शासन में ग्रामीण उद्योगों का धीरे-धीरे पतन हुआ जबकि भारत में नगरीय दस्तकारियाँ “अचानक और पूरी तरह से नष्ट“ हुईं। अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारतीय माल का इंगलैण्ड में पर्याप्त निर्यात होता था और यह देखकर ब्रिटिश सरकार क्षुब्ध हुई तथा उसने ऐसे कानून बनाए जिनसे इंगलैण्ड में भारतीय माल की बिक्री कठिन हो गई।
कार्ल मार्क्स ने ठीक ही कहा है - “ब्रिटिश घुसपैठियों ने भारतीय हथकरघा उद्योग को नष्ट कर दिया तथा हथकरघों का विनाश कर दिया और सूती वस्त्रों के जन्मदाता देश में ही (मिल उत्पादित) सूती वस्त्रों की भरमार कर दी।“ भारत में स्थिति इस कारण से और भी दयनीय हो गई क्योंकि, यूरोपीय देशों के विपरीत भारत में स्वदेशी दस्तकारियों के पतन और विनाश की क्षतिपूर्ति के लिए आधुनिक मशीनी उद्योगों की स्थापना नहीं हुई। दस्तकारियों के नष्ट हो जाने से बड़े पैमाने पर बेरोजगारी फैल गई, उद्योग और कृषि के बीच सन्तुलन समाप्त हो गया और भारत की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई।
औपनिवेशिक शासन कई कारणों से भारत में दस्तकारी उद्योग के लिए घातक सिद्ध हुआ। सर्वप्रथम इसने देश के देशी राज्यों को नष्ट कर दिया, जो इस उद्योग के सबसे बड़े ग्राहक और पोषक थे। इस प्रकार भारतीय दस्तकारों की स्थिति कम्पनी के गुलामों की भाँति हो गई। देशी शासकों के स्थान पर आए नए शासकों ने दस्तकारों को गुलामी की स्थिति में पहुँचा दिया और उद्योग के स्वतंत्र अस्तित्व में रुकावटें खड़ी कर दीं। इसके फलस्वरूप, भारतीय उद्योगों के विस्तार और क्षमता दोनों दृष्टियों से क्षति पहुँची और नगरीय दस्तकारों के अनेक परिवारों ने अपने व्यवसाय छोड़ना आरम्भ कर दिया।
इस प्रकार भारतीय दस्तकारियों के लिए विदेशी बाजारों के द्वार बन्द कर दिए गए। दूसरी ओर देशी रियासतों के अस्तित्वहीन हो जाने, समाज के नव-अभिजात एवं धनाढ्य वर्ग के दृष्टिकोण एवं जीवन शैली तथा ब्रिटिश सरकार की नीतियों के परिणामस्वरूप दस्तकारियों के मार्ग में बाधाएँ पहुँचीं और घरेलू बाजारों से दस्तकारी उत्पादों की माँग कम होने लगी। नव-अभिजात और धनाढ्य वर्ग ने दस्तकारियों को निरुत्साहित और तिरस्कृत किया, जिसके परिणामस्वरूप दस्तकारी उद्योगों का पतन हो गया और अन्ततः वे लगभग धराशायी हो गए। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भारतीय दस्तकारी उद्योग लगभग पूर्णतः विनष्ट हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में रेलवे व्यवस्था के विकास के परिणामस्वरूप ब्रिटिश उत्पादित माल देश के कोने-कोने में पहुँचने लगा जिसके द्वारा भारतीय बाजारों में ब्रिटिश माल का स्थायी आधिपत्य स्थापित हो गया।
सदियों से विद्यमान तथा समृद्ध सुसंगठित दस्तकारी उद्योगों, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व में भारत की ख्याति फैलाई और जो प्राचीन काल से अन्य देशों की प्रशंसा और ईर्ष्या का पात्र रहे, ऐसा करुण अन्त हुआ कि दस्तकारी की वस्तुएँ अतीत का अवशेष बनकर रह गईं, जिनके बारे में अधिकांश संग्रहालयों में रखी वस्तुओं की भाँति कौतूहल मात्र शेष रह गया। वृद्ध दस्तकारों की सन्तानें रोजगार और कोई साधन न मिलने के कारण अपने पुराने व्यवसायों में लग गईं और छोटे पूँजीपतियों के कारखानों में सामान्यतः भयंकर स्थिति में कार्य करते हुए अपना जीवन-यापन करने लगीं। 1880 ई0 तक हस्तकला उद्योग लगभग पूरी तरह समाप्त हो गया था। डी0 आर0 गाडगिल के शब्दों में - “अस्सी के दशक में भारत जैसे विशाल देश की यह दयनीय स्थिति थी कि दस्तकारियों का पतन हो रहा था तथा दूसरे अन्य कोई संगठित उद्योग अस्तित्व में नहीं थे।
ब्रिटिश शासन के अधीन भारतीय हस्तकला के पतन और विनाश का यही इतिहास है। वे हस्तकलाएँ जो कभी भारत का गौरव और ख्याति थीं, राजनीतिक दबाव और इससे भी अधिक ऐतिहासिक-आर्थिक ताकतों का सामना नहीं कर सकीं और उस दबाव के आगे धराशायी हो गईं।
अनौद्योगीकरण ¼De-industrialisation½ - भारत के औपनिवेशिक शासकों ने जानबूझकर भारत को औद्योगिक क्रान्ति के लाभों से वंचित रखा और भारत को कृषि- प्रधान देश बनाए रखने का प्रयास किया ताकि वे ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारत से कृषि सम्बन्धी कच्चा माल सस्ते मूल्य पर प्राप्त कर सकें और ब्रिटेन में उत्पादित माल के लिए भारत में तैयार बाजार प्राप्त कर सकें। इस प्रकार भारत को “ब्रिटेन का औपनिवेशिक कृषि उपांग बना दिया गया।“
भारत में स्वदेशी दस्तकारी के पतन और विनाश के साथ-साथ आधुनिक स्वदेशी मशीनी उद्योगों का उदय नहीं हुआ। विदेशी सरकार के राजनीतिक दबाव तथा विदेशी मशीन उद्योग द्वारा उत्पादित सस्ते माल की भारतीय बाजारों में भरमार, भारतीय उद्योगों के पतन और विनाश के लिए मुख्यतः उत्तरदायी थे ।
रमेश चन्द्र दत्त ने विदेशी उत्पादों द्वारा भारतीय उत्पादों का स्थान लेने को ‘‘ब्रिटिश-भारत के इतिहास के सर्वाधिक दुखद अध्याय‘‘ की संज्ञा दी है, क्योंकि यह स्थिति स्पष्टतः इस तथ्य की द्योतक है कि भारत में धनोपार्जन के स्रोत सीमित रह गए और लोगों की जीविकोपार्जन की स्थिति बड़ी दयनीय हो गई।
परम्परागत उद्योगों के तीव्र विनाश और नए उद्योगों द्वारा उनका स्थान न लिए जाने का सर्वाधिक दुष्प्रभाव यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था अधिकाधिक विदेशी अर्थव्यवस्था के आधिपत्य के अधीन हो गई और अंग्रेज शासक भारत को कच्चे माल का उत्पादक उपनिवेश समझने लगे, जहाँ से ब्रिटिश एजेण्ट ब्रिटिश जहाजों से कच्चे माल का ब्रिटिश फर्मों को निर्यात करते थे और यही फर्में ब्रिटिश औद्योगिक माल का भारत एवं अन्य देशों में पुनर्निर्यात करती थीं। हस्तकला और उद्योगों के पतन तथा उद्योगीकरण के विनाश से भारी निर्धनता और बेरोजगारी फैली। इसलिए उन्नीसवीं सदी के अन्त तक आधुनिक आधार पर औद्योगिकीकरण की आवश्यकता राष्ट्रीय जरूरत बन गई।
भारत की व्यापारिक संरचना में परिवर्तन -
भारत में ब्रिटिश व्यापार का विस्तार न केवल भारतीय व्यापार और उद्योगों के लिए विनाशकारी साबित हुआ अपितु उसने भारतीय व्यापार के स्वरूप में भी आमूल परिवर्तन कर दिया। भारत को कर-मुक्त अथवा कर की मामूली दर पर ब्रिटिश आयातित माल को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया जबकि भारतीय माल पर इंगलैण्ड में भारी आयात कर लगाया जाता रहा। भारत जो अठारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में दुनिया का प्रमुख वस्त्र निर्माता और निर्यातक था, अगली ही शताब्दी में विदेशी माल के सबसे बड़े उपभोक्ताओं की श्रेणी में आ गया। सूती वस्त्र आयात की प्रमुख मद थी। रेशमी और ऊनी वस्त्र, मशीनरी तथा धातु उत्पाद भारत में आयात की कुछ अन्य मदें थीं। आयातित वस्तुओं के साथ प्रतिस्पर्द्धा के परिणामस्वरूप भारतीय उद्योग विनष्ट हो गए, कारीगरों को उनकी आय से वंचित कर दिया गया तथा श्रमिकों के लिए रोजगार के अवसर कम हो गए। दूसरी ओर कपास, कच्चे रेशम, खाद्यान्न, अफीम, नील और जूट के निर्यात से देश कृषि अधिशेष से विहीन हो गया और कच्चे माल की कीमतें बढ़ गईं। वाणिज्यिक फसलों के अधिकाधिक उत्पादन और निर्यात ने भावी कृषि उत्पादों या अनाज के अभाव एवं प्रायिक अकालों की आधार-भूमि तैयार की। अगले सौ वर्षों से अधिक अवधि तक देश अभाव एवं अकालों के चंगुल में फँसा रहा। इस प्रकार, भारत के व्यापारिक स्वरूप में परिवर्तन, भारतीय संसाधनों के दोहन और उसकी आर्थिक दासता का साधन बन गया। इस परिवर्तन के कारण, विश्व बाजार में भारतीय उत्पादों के मूल्यों में इतनी अधिक मंदी आई कि व्यापारिक परिस्थितियाँ भारत के अत्यधिक प्रतिकूल हो गईं।
कृषि का विशिष्टिकरण अथवा स्थानीयकरण- कृषि के स्थानीयकरण का अभिप्राय यह है कतिपय क्षेत्र किसी विशिष्ट उत्पादन के क्षेत्र बन गए और दूसरा क्षेत्र दूसरे किस्म की कृषि के विशिष्ट क्षेत्र बने। उदाहरणस्वरूप - दक्षिण भारत और बंगाल प्रेसीडेन्सी में कपास की खेती बडे पैमाने पर की जाने लगी। इसके अतिरिक्त बंगाल जूट उत्पादन का केन्द्र बन गया जबकि बिहार में अफीम की खेती, आसाम में चाय, पंजाब में गेहॅू, उत्तरप्रदेश में गन्ना की खेती प्रमुखतः की जाने लगी। कृषि के व्यवसायिकरण से पूर्व इस प्रकार का विशिष्टिकरण देखने में नहीं मिलता तथा प्रत्येक क्षेत्र के किसान थोडी - थोडी मात्रा में सभी चीजों की खेती करते थे जिससे स्थानीय जरूरतें पूरी हो सके लेकिन कृषि के वाणिज्यिकरण ने लम्बे समय से चली आ रही परम्परागत कृषि व्यवस्था को पूर्णतः परिवर्तित कर दिया।
किसानों की दरिद्रता में वृद्धि - ब्रिटिश काल में कृषि का जो वाणिज्यिकरण हुआ, उसका किसान के जीवन पर कुप्रभाव पडा। अब उसे भारतीय तथा विश्व की मण्डियों के लिए फसल उगाना पडता था और इसलिए वह व्यापार की निरन्तर बदलती हुई गतिविधियों का शिकार हो जाता था। भारतीय किसानों को अमेरिका व यूरोप जैसे विशाल कृषि व्यापार संघों तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगियों से होड लेने पडी। भारतीय किसान पुरानी पद्धति से खेती करते थे तथा उसके पास वही हल व दुबले-पतले बैलों की जोडी होती थी जबकि उनके प्रतिद्वन्दी आधुनिकतम तकनीक से तथा नवीनतम कृषियन्त्रों की सहायता से तथा उच्च श्रेणी के बीजों से कृषि करते थे जिससे भारतीय कृषकों की तुलना में वे कही बेहतर फसल उगाने में सफल होते थे। अतः ऐसे प्रतिद्वन्दियों से भारतीय किसानों को प्रतिद्वन्दिता करना अत्यन्त कठिन होता था। इसी कारणवश किसानों की स्थिती खराब होती जाती थी। विशेषकर ऐसी परिस्थितीयों में जब किसी कारणवश उनकी फसल नही बिक पाती थी तो वे कंगाल होने की स्थिती में आ जाते थे। उदाहरणस्वरूप - अमेरिकी गृहयुद्ध की समाप्ति के बाद कपास की निर्यात की मॉग में भारी गिरावट आई। अनेक भारतीय किसान जिन्होने बडी मात्रा में कपास की खेती की थी उनके लिए अपनी फसलों को बेचना कठिन हो गया तथा वे भूखमरी के कगार पर पहॅुच गये। इसी कारणवश इस व्यवस्था की आलोचना करते हुए डा0 ए0 आर0 देसाई ने लिखा है कि -- ‘‘किसानों की दरिद्रता और ऋणग्रस्तता बढती गई, उनके भू-स्वामित्व का अपहरण होता रहा और अनेक खेतीहर सर्वहारा की हैसियत में आ गए।‘‘
मध्यस्थ व्यापारियों का उदय - वाणिज्यिकरण के कारण किसान धीरे-धीरे मध्यस्थ व्यापारियों पर निर्भर होता गया और इन मध्यस्थ व्यापारियों ने किसानों की गरीबी का पूरा लाभ उठाया। गरीब किसान के पास कभी कोई संचित निधि नही रही थी। अब सरकारी लगान तथा महाजन के सूद का भुगतान करने के लिए फसल के कटते वक्त ही उसे अपनी उपज का अधिकांश भाग मध्यस्थ व्यापारी को मनमाने दामों पर बेचना पडता था। ये मध्यस्थ व्यापारी जानते थे कि इन गरीब किसानों को सिवाय अपनी फसल के वास्तविक मूल्य से बहुत कम धनराशी किसानों को उनके फसल के लिए देते थे। दूसरी ओर ये मध्यस्थ व्यापारी जो कि समस्त साधन सम्पन्न थे इस खरीदी हुई फसल को राष्ट्रीय- अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में अत्यन्त उच्च कीमत पर बेचते थे। इस प्रकार फसल को पैदा करने वाला गरीब किसान तो गरीब ही रहता था तथा फसलों का असली फायदा ये मध्यस्थ व्यापारी उठाते थे। दुर्भाग्यवश ब्रिटिश सरकार ने किसानों की इस शोषण की ओर कभी कोई ध्यान ही नही दिया। यदि ब्रिटिश सरकार ने किसानों के हित में थोडा भी सोचा होता तो इस वाणिज्यिक कृषि से निश्चित रूप से किसानों की आर्थिक स्थिती में सुधार हुआ होता।
खाद्यान्न उत्पादन में कमी - व्यवसायिक कृषि के तहत् किसानों ने व्यवसायिक फसलों अर्थात नील, कपास अफीम, चाय आदि का उत्पादन बडे पैमाने पर प्रारम्भ कर दिया था जिससे खाद्य-पदार्थो के उत्पादन में भारी गिरावट आई। इसका कटु प्रभाव भारतीयों को तब झेलना पडा जब 19वी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत के विभिन्न भूभाग में भीषण अकाल पडे। 1886 ई0 में उडीसा तथा बंगाल में भीषण अकाल पडा था। इस अकाल के कारणों के विषय में जो जॉंच की गई थी उसके आधार पर उडीसा के ही जमींदार शिवप्रकाश ने बताया कि जिले की सर्वोत्तम भूमि में नील की खेती की जाने लगी थी और पिछले पॉंच वर्षो में कृषि के क्षेत्र में भारी कमी आई थी। इसी प्रकार ब्रिटिश अधिकारी क्रेकरे, जिसने बिहार और उडीसा के भू-भाग में अकाल राहत का कार्य किया था, उसने भी इसी आशय का विवरण प्रस्तुत किया। उसने लिखा है कि खाद्यान्नों की कमी के कारणों में से एक मुख्य कारण नील की कृषि में प्रतिवर्ष होने वाली वृद्धि है जिसने उन क्षेत्रों को अपने में समेट लिया है जिनमें पहले खाद्यान्नों का उत्पादन होता था।
अकालों का बढता प्रकोप- वाणिज्यिकरण खेती ने महामारी के रूप में अकाल को जन्म दिया। इस खेती के तहत खाद्यान्न की जगह व्यवसायिक अन्न पैदा किये गये जिसके परिणामस्वरूप अकाल का प्रकोप बढने लगा। 1800-1900 के बीच अकाल से मरनेवालों की संख्या रजनी पाम दत्त द्वारा दिये गये तालिका से समझा जा सकता है जो निम्न है -
o’kZ |
e`rdksa dh la[;k |
1800&1825 |
1000000 |
1825&1850 |
400000 |
1850&1875 |
5000000 |
1875&1900 |
15000000 |
सामाजिक संरचना में तनाव - वाणिज्यिक कृषि ने गॉंव की सामाजिक संरचना को प्रभावित किया। जहॉ यह व्यवस्था किसी भी उत्पादक उर्जा को जन्म देने में असफल रही वहीं यह कृषि अर्थव्यवस्था के अन्तर्विरोधों को हल करने में भी असफल रही। एक प्रकार से इसने सामाजिक तनाव और राजनीतिक असन्तोष को उभारने में मदद की। इसकी अभिव्यक्ति अक्सर फूट पडने वाले किसान विद्रोहों तथा जनान्दोलनों के रूप में हुई। दृष्टान्त के तौर पर 1873 के पावना दंगे, 1875 के दक्कन कृषक विद्रोह, 1878-79 के दौरान भडके विद्रोह तथा 1894 के असम खेतिहर विद्रोह को हम देख सकते है। इन तनावों और विद्रोहों को रोकने के लिए सरकार ने काश्तकारी अधिकारों को कानून बनाकर बदल डाला। ऐसे कई कानून मध्यप्रान्त, बंगाल, पंजाब, मद्रास आदि में बने। जो भी हो, इसका यह प्रतिफल हुआ कि सामाजिक संरचना में गडबडी आ गई। किसान और साहूकार, किसान और बडे काश्तकार के पारस्परिक सम्बन्ध बिगड गये।
मूल्यांकन -
संक्षेप में, कृषि का वाणिज्यिकरण किसानों के लिए मृगतृष्णा साबित हुई। इससे किसानों को थोडी सी नकद आय अवश्य हुई किन्तु अन्ततोगत्वा इससे नुकसान ही हुआ। कृषि की उपेक्षा होने लगी, देश में निर्धनता बढी, किसान ऋणग्रस्त होते गये और अकालों के प्रकोपों ने आम जनजीवन को तहस-नहस कर दिया।
इस बात को लेकर कोई दो राय नहीं है कि वणिज्यिकरण के कारण भारतीय कृषि में तेजी से महाजन पूंजी का प्रसार होता है। मार्क्सवादी लेखकों विशेषकर रजनी पाम दत्त की “इंडिया टुडे“ और एस0 जे0 पटेल की “एग्रीकल्चरल लेबर इन मॉडर्न इंडिया एंड पाकिस्तान“ में ग्रामीण वर्ग संरचना पर इसका एक ख़ास प्रभाव दिखाने की कोशिश की है। इन विद्वानों का मानना है कि वाणिज्यीकरण के कारण साहूकार महाजनों ने बड़े पैमाने पर किसानों की जमीनों पर कब्ज़ा ज़माना शुरू कर दिया जिससे वे बड़ी संख्या में भूमिहीन होते चले गए खेतिहर मजदूरों की श्रेणी का संख्यात्मक विस्तार किया। इसके बिपरीत विपरीत जॉन ब्रेमान तथा धर्मा कुमार जैसे विद्वान का मानना है कि मार्क्सवादी लेखक खेतिहर मजदूरों की संख्या को बढ़ा चढ़ा कर दिखाते रहे है और भारत में परम्परागत जाती विन्यास की वजह से पूर्व-औपनिवेशिक काल में भी खेतिहर भूमिहीन मजदूरों की काफी बड़ी तादाद मौजूद थी। इसे केवल वाणिज्यीकरण का प्रभाव नहीं माना जा सकता। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि वाणिज्यीकरण के कारण नगदी फसले उगाकर छोटे-छोटे किसान भी उसका लाभ उठा रहे थे। भले ही यह लाभ समृद्ध किसानो को ज्यादा मिल रहा हो। धनी समृद्ध किसानों के पास भू-सम्पत्तियाँ काफी थी और मजदूरों का उपयोग करके वे बड़े पैमाने पर मंडियों के लिए उत्पादन कर रहे थे। वे आसानी से साख की सुविधा जुटा सकते थे और अनेक जगहों पर स्वयं उधार पर पैसा देते थे। अधिकाँश छोटे किसानों ने वाणिज्यीकरण के कारण जो लाभ कमाया वह उन्हें 19वी शताब्दी के बीच में आये भयंकर अकालों में गंवाना पड़ा जबकि खेतिहर मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में अकालों दे समय में काफी गिरावट दिखाई पड़ती है। उत्तरी पश्चिमी प्रान्त के राजस्व परिषद ने भी ऐसा ही अभिमत व्यक्त किया है। इसके अनुसार उत्तरी पश्चिमी प्रान्त में जहॉं पहले ज्वार, बाजरा, तिलहन, और गेहूॅ की खेती होती थी वहॉ पर अब कपास की खेती की जाने लगी। इसी प्रकार राजस्थान के विषय में भी उल्लेख मिलता है। राजस्थान के विषय में Dr. Maickale ने लिखा है कि - ‘‘ राजपूताना में अनाज की कमी का एक मुख्य कारण मालवा से खाद्यान्नों की आपूर्ति का बन्द हो जाना है क्योंकि वहॉ पर अब अफीम और नील की खेती होने लगी है। इस सन्दर्भ में George Bleen का एक लेख ÞThe Agriculture crops in India from 1834 to 1946ß अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इस लेख में उन्होने लिखा है कि - 50 वर्षों में (1895 -1945) जहॉं व्यवसायिक कृषि में 85% की वृद्धि हुई है वही पर इसी काल में खाद्यान्न उत्पादन में 7% की कमी हुई है। अतः अकाल के वर्षो में खाद्यान्नों की कमी का एक मुख्य कारण यह भी था कि कृषि क्षेत्र व्यवसायिक फसलों के उत्पादन में आ गये थे किन्तु यह स्वीकार करना भी गलत होगा कि जिस अनुपात में व्यवसायिक कृषि की वृद्धि हुई उसी अनुपात में खाद्यान्न उत्पादन में कमी आई। वास्तविकता यह भी है कि इस काल में कृषकों ने अपनी उस भूमि पर भी आद्यौगिक उत्पादन किया था जो सामान्यतया खाद्यान्न उत्पादन के लिए अनुपयुक्त थी। यह स्थिती लगभग द्वितीय विश्व युद्ध तक बनी रही। उदाहरण के तौर पर - सम्पूर्ण भारताय क्षेत्र में 1901 में जहॉ 85% क्षेत्रों में खाद्यान्न लगभग 5% क्षेत्र में तिलहन तथा लगभग 5% क्षेत्र में जूट और कपास का उत्पादन होता था वही 1940 में 80% क्षेत्रों में खाद्यान्न, 7% क्षेत्रों में तिलहन और लगभग 7% क्षेत्रों में जूट और कपास का उत्पादन होने लगा था।
संक्षेप में हम यह कह सकते है कि अंग्रेजों की भारत विजय और नई प्रशासनिक व्यवस्था के फलस्वरूप भारतीय कृषितंत्र नये रास्तों से विकसित हुआ, लेकिन भारत की औपनिवेशिक स्थिति के कारण न तो यह विकास ही उन्मुक्त था और न यहॉ की कृषि और कृषक आबादी ही समृद्ध और उन्नतशील हो सकी। फिर भी यह तो मानना ही पडेगा कि ब्रिटिश शासनकाल में गॉव की फसल देश और दुनिया के बाजार में आयी और खेती सारे देश के अर्थतंत्र के तात्विक अंग के रूप में प्रतिष्ठापित हुयी। कृषि के वाणिज्यीकरण के प्रभाव वर्ग, क्षेत्र, आदि पर निर्भर करते थे और एक सामान नहीं थे। आद्यौगिक कृषि किसी भी देश के विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है तथा सामान्य परिस्थितीयों में इससे किसान और देश दोनों को ही लाभ होता है परन्तु दुर्भाग्यवश गलत ब्रिटिश नीतियों के कारण तथा किसानों की अत्यधिक जर्जर आर्थिक स्थिती व मध्यस्थ व्यापारियों के व्यक्तिगत लोभ के कारण भारत में ऐसा न हो सका तथा भारतीय किसानों की स्थिती पूर्ववत कमजोर ही बनी रही।