धन के बहिर्गमन
ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे घातक प्रभाव जो भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ा वह था भारतीय पूंजी और अन्य वस्तुओं का भारत से बाहर इंग्लैंड में जाना और उसके बदले में भारत को कुछ भी प्राप्त न होना। इसका अंदाजा हम इस बात से लगा सकते हैं कि अंग्रेजों से पहले जितने भी शासक भारत में रहे उन्होंने चाहे लोगों पर कितने ही अत्याचार किए हो, चाहे उनसे अधिक-से-अधिक राजस्व लेने की चेष्टा की हो, पर देश का धन अंततः देश में ही रहा परन्तु अंग्रेजों के भारत आते ही एक मौलिक परिवर्तन भारत में आया।
कंपनी ने जब से भारत में व्यापार करना शुरू किया एक समस्या हमेशा उसे उलझाती रही - वह यह कि भारत से इंग्लैंड में आयात होने वाले माल के बदले में वह भारत को क्या दे। 17वीं शताब्दी के आरंभ में विकास की जिस अवस्था पर इंग्लैंड पहुँचा हुआ था उसमें से कोई भी वस्तु ऐसी नहीं थी जिसकी तुलना उत्तमता और तकनीकी दृष्टि से भारतीय वस्तुओं से की जा सके। उनका ऊॅनी उद्योग काफ़ी विकसित था पर भारत में ऊॅनी कपड़े की मांग न थी। इसलिए ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में माल खरीदने के लिए इंग्लैंड से सोना-चांदी जैसी बहुमूल्य धातुएं भारत में लानी पड़ती थी।
प्लासी के युद्ध तक यूरोपीय व्यापारी सूती और रेशम के वस्त्रों, जिनकी पश्चिमी देशों में काफी माँग थी, के निर्यात के बदले में भारत में सोने-चाँदी का आयात करते थे लेकिन बंगाल की विजय के बाद स्थिति परिवर्तित हो गई। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने न केवल भारत में सोने-चाँदी का आयात बंद कर दिया अपितु बंगाल के राजस्व अधिशेष और कर-मुक्त अन्तर्देशीय व्यापार से प्राप्त आय से माल भी खरीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बंगाल की लूटमार शुरू हुई और अठारहवीं शताब्दी के अंत तक पूरा देश ही अंग्रेजों के लिए ’लूटमार का मैदान’ बन गया। भारत की बढ़ती हुई निर्धनता की कीमत पर अपने को समृद्ध बनाने के लिए ब्रिटेन द्वारा भारत के कच्चे माल, संसाधनों और धन की ’निरन्तर लूटमार’ को दादाभाई नौरोजी, एम0जी0 रानाडे जैसे राष्ट्रवादियों ने भारत से ’धन के बहिर्गमन‘ के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया।
लन्दन में ईस्ट इण्डिया एसोसिएशन की एक बैठक में 2 मई 1867 को पढ़े गए अपने इंगलैण्डस् डेब्ट टू इण्डिया ¼England’s Debt to India½ नामक लेख में दादाभाई नौरोजी ने अपना यह मत प्रकट किया कि ब्रिटेन भारत पर अपने शासन की कीमत के रूप में भारत से धन ऐंठ रहा है और भारत से अर्जित राजस्व में से लगभग एक चौथाई भाग बाहर चला जाता है और उसे इंगलैण्ड के संसाधनों में शामिल किया जाता है। भारत के धन एवं संसाधनों को चूसा जा रहा है। बाद में दादाभाई नौरोजी द्वारा लिखे गए अन्य लेखों - पॉवर्टी एण्ड अन-ब्रिटिश रूल इन इण्डिया (1867), द वॉन्ट्स एण्ड मीन्स ऑफ इण्डिया (1870) और ऑन द कॉमर्स ऑफ इण्डिया (1871) का विषय लगातार ही भारत से “नैतिक एवं भौतिक बहिर्गमन“ रहा।
1867 ई0 से दादाभाई नौरोजी ने अपना जीवन पूर्ण रूप से बहिर्गमन के सिद्धान्त के प्रचार और बहिर्गमन के विरुद्ध जोरदार मुहिम छेड़ने के लिए समर्पित कर दिया। 1880 ई0 में उन्होंने लिखा कि - आज का सर्वाधिक ज्वलन्त प्रश्न यह है कि भारत से धन का बहिर्गमन कैसे रोका जाए। 1886 ई0 में उन्होंने टिप्पणी की थी कि सारे प्रकरण का सार यह है कि वर्तमान अनिष्टकारी और अन्यायपूर्ण प्रशासनिक व्ययों के अन्तर्गत ब्रिटिश शासन की उपकारशीलता एक प्रणयोन्माद की कल्पना मात्र है, जबकि सच्चाई यह है कि ब्रिटिश शासन भारत का खून चूसे ले रहा है। उनके विचार से ब्रिटिश नीतियाँ “भारत की प्राणशक्ति और धन का दोहन कर रही हैं।
दादाभाई नौरोजी ’धन के बहिर्गमन’ के सिद्धान्त के सबसे पहले और सर्वाधिक प्रखर प्रतिपादक थे और उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान इसका काफी प्रचार-प्रसार किया। 1905 में उन्होंने कहा कि - ‘‘धन का बहिर्गमन समस्त बुराइयों की जड़ है” और भारतीय निर्धनता का मुख्य कारण है। उन्होंने कहा था कि - भारत का निर्यात बहुत दुखद है। उसकी हालत एक मालिक और दास जैसी है लेकिन सबसे बुरी बात यह है कि देश निरन्तर लूटमार करने वालों के हाथों लुट रहा है और लूटमार का माल बड़ी सफाई से देश से बाहर जा रहा है। ‘धन के बहिर्गमन‘ के रूप में यह लूटमार एक अनवरत आक्रमण है, जिसके द्वारा लगातार लूटमार की जाती रहती है।
दादाभाई नौरोजी के समकालीन दो अन्य भारतीय नेताओं ने ’धन के बहिर्गमन’ के दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया। 1872 ई0 में न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानाडे ने पुणे में भारतीय व्यापार और उद्योग पर एक व्याख्यान दिया, जिसमें उन्होंने भारत से पूँजी और संसाधनों के बहिर्गमन की आलोचना की और कहा कि राष्ट्रीय पूँजी का एक-तिहाई हिस्सा किसी न किसी रूप में ब्रिटिश शासन द्वारा भारत के बाहर ले जाया जाता है।
एक अन्य प्रख्यात भारतीय नेता रमेश चन्द्र दत्त थे जिन्होंने बहिर्गमन के सिद्धान्त पर बल दिया और अपने लेखन एवं अन्य क्रियाकलापों के माध्यम से इसका प्रचार किया। उन्होंने ‘इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ इण्डिया ‘(1901) के प्रथम खण्ड की प्रस्तावना में अपना यह मत प्रकट किया था कि सकल राजस्व का आधा भाग प्रतिवर्ष भारत से बाहर चला जाता है और उन्होंने बड़े दुखी मन से यह भी लिखा कि भारत की आद्रता निश्चित रूप से विदेशी भूमि को सम्पन्न और उपजाऊ बनाती है। उन्होंने इस बहिर्गमन के पापों के बारे में उल्लेख करते हुए कहा कि - भारत के आर्थिक संसाधनों का इतना अधिक दोहन किया गया है कि इससे विश्व का समृद्धतम देश भी गरीब हो जाएगा, इसने भारत को एक अकालग्रस्त देश बना दिया है। यह अकाल बहुत प्रायिक, कहीं अधिक व्यापक और इतने अधिक घातक हैं कि इससे पूर्व भारत अथवा विश्व के इतिहास में इससे अधिक विनाशकारी अकाल पहले कभी नहीं पड़े। उन्होंने अपनी पुस्तक के दूसरे खण्ड की प्रस्तावना में इंगलैण्ड की आलोचना करते हुए कहा कि - विश्व का समृद्धतम देश इतना नीचे गिर गया है कि वह सबसे गरीब देश से वार्षिक धनराशि की वसूली करता है। उन्होंने जोर देकर कहा कि धन के इस दोहन से भारत की प्राणशक्ति को ही अनवरत रूप से चूसा जा रहा है।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1896 में अपने कलकत्ता अधिवेशन में आधिकारिक तौर पर ’बहिर्गमन के सिद्धान्त’ को स्वीकार किया और उस समय कांग्रेस ने घोषणा की कि देश में पड़ने वाले अकालों और लोगों की निर्धनता का कारण वर्षों से लगातार चला आ रहा ’धन का बहिर्गमन’ है। रमेश चन्द्र दत्त ने “धन के बहिर्गमन के दुष्परिणामों को नादिरशाह जैसे विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा की गई लूटमार से अधिक घातक माना क्योंकि नादिरशाह यहाँ आया, देश को लूटा और उसके बाद शीघ्र ही वापस चला गया। इस प्रकार आर्थिक क्षति अस्थायी थी, विपत्ति आई और चली गई। इसके अतिरिक्त यह आघात कभी-कभी ही झेलने पड़ते थे लेकिन ब्रिटिश शासन के मामले में यह बहिर्गमन सरकार की मौजूदा शासन प्रणाली का ही हिस्सा है। यह प्रक्रिया अनवरत है और वर्ष दर वर्ष बढ़ती जाती है। इस प्रकार घावों को स्थायी रूप से खुला रखा जाता है। बहिर्गमन’ बहते हुए घाव की तरह है।
धन के बहिर्गमन का स्वरूप और स्रोत-
बहिर्गमन की राष्ट्रवादी परिभाषा का तात्पर्य भारत से धन-सम्पत्ति एवं माल का इंगलैण्ड में हस्तांतरण था, जिसके बदले में भारत को इसके समतुल्य कोई भी आर्थिक, वाणिज्यिक या भौतिक प्रतिलाभ प्राप्त नहीं होता था। इस प्रकार भारतीय दृष्टिकोण से ’बहिर्गमन’ का अर्थ था, आयात की तुलना में अधिक निर्यात का होना। अनेक भारतीयों ने बहिर्गमन के द्वारा देश से बाहर जाने वाली धनराशि का आकलन करने का प्रयास किया, पर विभिन्न व्यक्तियों द्वारा बहिर्गमन की वार्षिक धनराशि का आकलन भिन्न-भिन्न था, क्योंकि विभिन्न व्यक्तियों ने गणना के विभिन्न तरीके अपनाए और आयात एवं निर्यात के बीच का अन्तर निरन्तर बढ़ता रहा।
इस बहिर्गमन का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक ब्रिटिश प्रशासनिक, सैनिक और रेलवे अधिकारियों के वेतन, आय और बचत के एक भाग को भेजा जाना और भारत सरकार द्वारा अंग्रेज अधिकारियों की पेंशन तथा अवकाश भत्तों को इंग्लैण्ड में भुगतान करना था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लंदन स्थित कार्यालय की व्यवस्था तथा इसके शेयरधारकों के लाभांश का भार, 1858 के बाद भारत विषयक मंत्री के इण्डिया आफिस के व्ययों के लिए भारत से इंग्लैण्ड धन भेजा जाना भी इसमें शामिल था।
1813 के बाद धन के बहिर्गमन की सबसे बड़ी मद गृह प्रभार ¼Home Charges½ थे। 1833 में कम्पनी ने अपनी वाणिज्यिक गतिविधियों को पूर्णतः समाप्त कर दिया। अतः कम्पनी के शेयरधारकों को भारत के राजस्व में से साढ़े दस प्रतिशत वार्षिक लाभांश देना पड़ा। इसलिए कम्पनी को इन प्रभारों की अदायगी के लिए ऋण लेने पर बाध्य होना पड़ा। परिणामस्वरूप कम्पनी के ऋण में भारी वृद्धि होने लगी। कम्पनी का शासन समाप्त होने के समय यह 6 करोड़ 90 लाख पौण्ड था। चूँकि कम्पनी ने ऋण इंग्लैण्ड में लिए थे इसलिए इस ऋण का भुगतान, धन के बहिर्गमन का एक अन्य स्रोत बन गया।
गृह प्रभारों में भी अनेक मदें शामिल थीं जैसे- (1) सैन्य सामग्री की खरीद (2) लन्दन स्थित इण्डिया ऑफिस के व्यवस्थागत व्यय (3) ऋणों पर ब्याज (4) रेलवे पूँजी निवेश पर ब्याज (5) सेना के अस्थायी या प्रायिक खर्चे और (6) कम्पनी के सेवानिवृत्त प्रशासकीय कर्मचारियों को इंग्लैण्ड में देय पेंशन एवं उपदान अर्थात ग्रेच्युटी।
1857 के विद्रोह के बाद जब भारत का शासन ब्रिटिश शाही ताज़ के अन्तर्गत आ गया तब भारत के धन का बहिर्गमन, सेवाओं के यूरोपीयकरण, अपेक्षाकृत बड़ी सेना, अधिक पूँजी निवेश, रेलवे के विस्तार, साज-सामान एवं उपकरणों की अधिकाधिक खरीद, अधिक और ऊँचे वेतनों के भुगतान आदि के कारण, और अधिक बढ़ गया। कम्पनी के सम्पूर्ण ऋणों को शाही ताज या ब्रिटिश शासन ने अपने ऊपर ले लिया। विद्रोह को दबाने में हुए व्ययों के रूप में 47 करोड़ रुपए भारत के कर्ज में जुड़ गए। भारत को कई अनुचित प्रभार भी अदा करने पड़े। भारत को कम्पनी से ब्रिटिश शाही ताज़ को सत्ता के हस्तांतरण से सम्बन्धित व्यय, चीन के साथ हुए युद्धों का व्यय, लन्दन में इण्डिया ऑफिस के व्यवस्थागत व्यय, इंग्लैण्ड से जाने वाले उन जहाजों का व्यय जो युद्धों में हिस्सा नहीं लेते थे, भारतीय सेना की रेजीमेन्टों के भारत में भेजने से पूर्व इंग्लैण्ड में होने वाले उनके प्रशिक्षण पर व्यय, लंदन में तुर्की के सुल्तान के स्वागत-सत्कार का व्यय, इंग्लैण्ड में इअलिंग के पागलखाने की व्यवस्था से सम्बन्धित व्यय, जंजीवार मिशन को दिए गए उपहारों का मूल्य, चीन और फारस में इंग्लैण्ड के राजनयिक मिशनों का व्यय, भूमध्य सागरीय नौसैनिक बेड़े के स्थायी व्ययों का कुछ भाग, इंग्लैण्ड से भारत तक टेलीग्राफ लाइनें बिछाने पर आई सम्पूर्ण लागत का भुगतान करना पड़ा। परिणामस्वरूप भारत का ऋण जो 1858 में 700 लाख पौण्ड था, बढ़कर 1876 में 1,400 लाख पौण्ड, 1900 में 2,240 लाख पौण्ड, 1913 में 2,740 लाख पौण्ड और 1939 में 8,840 लाख पौण्ड हो गया। इस ऋण पर देय वार्षिक ब्याज भारत से धन के बहिर्गमन का एक बड़ा भाग होता था। लॉरेंस रॉसिंजर के अनुमान के अनुसार 1945 में भारत से 1,350 लाख पौण्ड का बहिर्गमन हुआ। इससे पहले भी दादाभाई नौरोजी और विलियम डिग्बी जैसे अनेक लेखकों ने ऐसे अनुमान लगाए थे। विलियम डिग्बी के अनुसार उन्नीसवीं शताब्दी और उसके बाद कुल 60,0800 लाख पौण्ड देश से बाहर गए। वास्तव में बहिर्गमन तथा इसके दुष्परिणामों के कारण बड़ी संख्या में अंग्रेज लोग भारत के साथ सहानुभूति रखते थे, इसलिए रमेश चन्द्र दत्त को यह कहना पड़ा - “एक कृतघ्न व्यक्ति भी यह कह सकता था कि जैसे-जैसे भारत से इंग्लैण्ड को जाने वाले धन के प्रवाह की मात्रा बढ़ी, वैसे ही उसके प्रतिदानस्वरूप इंग्लैण्ड ने इस ऋण का भुगतान प्रचुर सहानुभूति और पछतावे के रूप में किया।”
ईस्ट इंडिया कंपनी और उसके कर्मचारियों ने जो लूट आरंभ की उसने इंग्लैंड में जॉन स्ट्रेची के शब्दों में, औद्योगिक उत्पादन को आवश्यक शक्ति तथा प्रेरणा प्रदान की। ब्रुक एडोन्स के अनुसार - कदाचित सृष्टि के आरंभ से अन्य किसी निवेश से भारतीय लूट के बराबर मुनाफ़ा नहीं कमाया गया क्योंकि इसी मुनाफ़े की वजह से लगभग 50 वर्ष तक कोई प्रतियोगी इंग्लैंड के सामने टिक नहीं सका। आर०सी० दत्त ने एक काव्यात्मक उदाहरण से इस निकासी की प्रक्रिया को समझाने की चेष्टा की है - “भारतीय राजाओं द्वारा कर लेना तो सूर्य द्वारा मूमि से पानी लेने के समान था जो कि पुनः वर्षा के रूप में भूमि पर उर्वरता देने के लिए फिर वापस आता था, पर अँग्रेजों द्वारा लिया गया कर फिर भारत में वर्षा न करके इंग्लैंड में ही वर्षा करता था।“
इस प्रकार अँग्रेज़ जब पहले-पहल भारत में व्यापार के लिए आए तो उनका उद्देश्य था भारत द्वारा निर्मित वस्तुओं को उन देशों तक पहुँचाना जहाँ उनकी बहुत माँग थी परन्तु धीरे-धीरे ये व्यापारी इस व्यापार के स्वरूप में एक ऐसा मौलिक परिवर्तन लाए कि व्यापार की दिशा ही बदल गई। भारत जो कि किसी समय बाक़ी देशों को वस्तुएँ निर्यात करने वाला एक महान देश समझा जाता था, अब स्वयं एक कृषक उपनिवेश बनकर रह गया, जिसका काम था इंग्लैंड के उद्योगों के लिए कच्चा माल अंग्रेज़ों को देना और उस कच्चे माल से बनी वस्तुओं के लिए एक मंडी का काम करना।