window.location = "http://www.yoururl.com"; Development of Railway in India | भारत में रेलवे का विकास

Development of Railway in India | भारत में रेलवे का विकास

 


विषय-प्रवेश (Introduction)

रेलवे किसी भी देश की आर्थिक और आद्यौगिक प्रगति का महत्वपूर्ण साधन होता है। निश्चित रूप से भारत के इतिहास में रेलों का निर्माण, विकास और उसका संचालन एक महत्वपूर्ण कदम है जिसने जीवन के सभी पहलुओं को, विशेष कर आर्थिक पहलू को गहरे रूप से प्रभावित किया। वस्तुतः औपनिवेशिक शासकों ने इंग्लैण्ड के व्यापारियों, उद्योगपतियों और पूॅजीपतियों को ध्यान में रखकर रेल विकास करने का निश्चय किया ताकि भारतवर्ष के कोने-कोने से कच्चा माल और अन्य चीजें बन्दरगाहों तक पहुॅचाया जा सके और ब्रिटिश उत्पाद सम्पूर्ण भारत में पहुॅच सके। अतः भारत में रेलवे का विकास भारतीयों के आर्थिक शोषण और धन बर्हिगमन से जुडा है। 

19वीं शताब्दी के मध्य तक भारत में परिवहन के साधन बहुत पिछड़े हुये थे। सामान्यतया बैलगाड़ी, ऊंट तथा घोड़ें के द्वारा ही यात्रा सम्पन्न की जाती थी। भारत में ब्रिटिश ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी की स्थापना के साथ ही ब्रिटिश प्रशासकों ने शीध्र ही यह अनुभव किया कि ब्रिटिश बस्तुओं को बड़े पैमाने पर भारत में वितरित करने  तथा ब्रिटिश उद्योगों के लिए भारतीय कच्चा माल उपलब्ध कराने के लिए भारत में सस्ती तथा आसान परिवहन व्यवस्था करना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से अंग्रेजों ने सड़कों की मरम्मत का कार्य प्रारंभ किया तथा नये थल मार्ग का निर्माण भी किया किन्तु फिर भी अंग्रेजों को व्यापारिक दृष्टि से अत्यधिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था क्योंकि तीव्र आवागमन के साधनों के अभाव में वे न तो कच्चा माल बन्दरगाहों तक पहुॅंचा पाते थे और न ही ब्रिटेन से आया हुआ माल ही भारतीय बाजारों तक पहुॅंचाने में सक्षम हो पाते थे इसलिए अंग्रेज निरन्तर इस प्रयास में थे कि भारत में रेलों का आवागमन प्रारंभ किया जाय। वास्तव में परिवहन साधनों में क्रान्तिकारी परिवर्तन भी रेल पटरियों के निर्माण के साथ ही प्रारंभ हुआ। इस सन्दर्भ में बिपिन चन्द्रा ने लिखा है कि - ‘‘वस्तुतः देश के विदेशी शासकों ने समय बीतते-बीतते रेल के निर्माण को देश के सभी आर्थिक रोगों की रामबाण औषधि के रुप में प्रयोग किया और अन्य सभी परियोजनाओं से इसे प्राथमिकता देते हुये उसके विकास पर विशिष्ट ध्यान दिया।‘‘

भारत में रेलवे के विकास के कारण -

भारतीय रेलों के निर्माण और विकास में लार्ड डलहौजी ने सर्वप्रथम पहल किया। लेकिन ऐसा नही है कि वह भारत का कल्याण चाहता था, सच तो यह है कि भारत में रेलों के चालू हो जाने से सर्वाधिक लाभ ब्रिटेन और भारत में शासन करने वाले अंग्रेजों को था। भारत में रेल और रेल-पथों के निर्माण के लिए कई तत्वों ने काम किया जो इस प्रकार बताए जा सकते है :-

1. भारत में अंग्रेजों का शासन कम्पनी के नेतृत्व में लगभग 100 वर्ष पूरा होने को था। इन वर्षों के अन्तराल में अंग्रेजों ने यह अनुभव किया कि भारत में उनके शासन को सुदृढ़ बनाने की आवश्यकता है और सुदृढ़ता के लिए सैन्य टुकड़ियों का कम समय में भारत में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाना आवश्यक है ताकि जरूरत होने पर वे आन्तरिक विद्रोहों का दमन कर सकें और बाह्य आक्रमणकारियों को भी रोक सकें। अतः सुरक्षा के साधनों के विकास के लिए लम्बी दूर तक तेज गति से चलने वाले परिवहन के साधन की आवश्यकता थी। विदेशी शासन की सुरक्षा की इसी भावना ने भारत में रेल और रेल पथ के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। आर० सी० दत्त ने लिखा है कि इंग्लैंड की पार्लियामेंट में भारत में प्रशासनिक सुविधा के लिए रेलों के निर्माण कार्य प्रारम्भ करने के लिए निरंतर दबाव पड़ रहा था, अतः भारत पर शासन की पकड़ सुदृढ़ करने के लिए शीघ्रगामी रेल की आवश्यकता महसूस की गई।

2. औपनिवेशिक शासनकाल में ब्रिटिश कम्पनी की शासन नीति का मूलाधार भारत का आर्थिक शोषण करना था। अंग्रेज ब्रिटेन को औद्योगिक क्रांति के विकास के लिए भारत से अधिक- से-अधिक कच्चा माल ढ़ो कर इंगलैंड ले जाना चाहते थे। वह यह भी चाहते थे कि इंग्लैंड में जिन औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन हो उन्हें तेजी से कम समय में भारत लाकर उसके बाजारों को भर दिया जाय। संक्षेप में कच्चे माल को ढोने तथा आयात-निर्यात को सुविधाजनक बनाने के लिए शीघ्रगामी परिवहन के मुख्य साधन रेल की आवश्यकता हुई। भारत का शोषण करने के लिए रेल को ही अधिक उपयुक्त साधन माना गया।

3. भारत में रेल परिवहन को प्रारम्भ करने के लिए इंग्लैंड के पूँजीपतियों ने भी अपनी सरकार पर दबाव डाला। भारतीय रेल पथ परिवहन इंग्लैंड के पूँजीपतियों की अतिरिक्त पूँजी के विनियोग के लिए अच्छा अवसर था। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए ए० आर० देसाई लिखते हैं कि “ब्रिटिश पूँजीवाद के सामने यह समस्या भी थी कि ब्रिटेन में अधिक पूँजी एकत्र होती जा रही थी और उसका वहाँ लाभदायक इस्तेमाल संभव नहीं था। इस पूँजी के लिए विकास की जरूरत थी। रेलवे निर्माण का कार्यक्रम शुरू करने पर भारत सरकार को पूँजी की जरूरत होती थी। ब्रिटेन में एकत्र पूँजी के अतिरेक का एक अंश भारतीय सरकार को कर्ज रूप में दिया जा सका और इस तरह उसका विकास संभव हुआ।‘‘

4. भारत में रेलवे की स्थापना के प्रशासनिक कारण भी थे जिसमें सामरिक नीति भी शामिल थी। अंग्रेजों ने राजस्व प्रशासन की व्यवस्था की थी। उनकी सरकार ने गाँवों के अन्तर्जीवन पर आघात किया, उनके न्यायिक और पुलिस सम्बन्धी स्वातंत्र्य को समाप्त किया, उसकी जगह पर सारे देश को एक जैसी विधि व्यवस्था प्रदान की और उसके कार्यान्वयन के लिए गाँवों में अपने प्रतिनिधि भेजे। वस्तुतः उन्होंने पहले के स्वशासित गाँवों से वे सारे कार्य हथिया लिये जो राज्य द्वारा संचालित होते थे......... । इस तरह अंग्रेजों ने भारत में एक विशाल प्रशासनिक यंत्र की स्थापना की और इसके लिए रेलवे की स्थापना अनिवार्य थी। 

5. इंग्लैंड का उद्योगपति वर्ग भारत में रेलों के निर्माण और विकास के लिए अपनी सरकार पर दबाव डाल रहा था। वे उद्योगपति अपने कारखानों में अधिक से अधिक वस्तुओं का उत्पादन कर उन्हें भारत में बेचने के लिए लालायित थे। उन्हें भारत एक विशाल बाजार के रूप में दिखलाई पड़ रहा था। यह वर्ग भारत के बन्दरगाहों को देश के प्रमुख नगरों से जोड़ देने के लिए रेलों के निर्माण पर जोर दे रहा था।

6. भारत में रेल परिवहन के विकास का श्रेय लॉर्ड डलहौजी को प्राप्त है। जिन दिनों वह गवर्नर जनरल बनकर आया था उन दिनों भारत की राजनीतिक स्थिति अच्छी नहीं थी। कम्पनी की शोषण नीति और डलहौजी की हडप नीति से भारतीयों में असन्तोष तीव्र गति से बढ़ रहा था और भारतीय विद्रोह करने पर उतारू थे। इस स्थिति में डलहौजी ने अनुभव किया कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को सुदृढ़ और सुरक्षित करने के लिए सैनिक छावनियों की अधिक आवश्यकता होनी चाहिए और उन समस्त छावनियों को रेल मार्गों द्वारा एक दूसरे के साथ जोड़ देना चाहिए। अतः उसने भारत में रेल परिवहन के निर्माण और विकास की सारी व्यवस्था कर डाली।

रेलवे के विकास का प्रारंभ -

वस्तुतः जार्ज स्टीफेन्सन ने जिस भाप के इन्जन की रुपरेखा बनाई थी वह इन्जन ब्रिटेन में तो 1814 ई0 में ही पटरियों पर दौड़ने लगा था। 19वीं शताब्दी के चौथे तथा पॉंचवे दशक के दौरान ब्रिटेन में भी रेलवे का तीव्र विकास हुआ था। भारत में भी रेलवे का निर्माण अब किया जाना चाहिए- इस बात का अनुभव अंग्रेजी शासकों तथा प्रशासकों ने किया तथा भारतीय ब्रिटिश सरकार पर रेलवे व्यवस्था प्रारंभ करने के लिए अत्यधिक दबाव ड़ाला गया। सर्वप्रथम 1831 ई0 में यह सुझाव दिया गया कि भारत में रेलवे का निर्माण मद्रास में प्रारंभ किया जाना चाहिए परन्तु यहॉं यह उल्लेखनीय है कि इस काल में जिस रेलवे व्यवस्था को प्रारंभ किया जाना था, उसे भाप के इन्जन से नही वरन् उसे घोड़ों द्वारा खीचा जाना था। भारत में भी भाप के इन्जन वाली रेल व्यवस्था की स्थापना का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1834 ई0 में ब्रिटेन में रखा गया था। इस प्रस्ताव को प्रस्तुत करने वालों में ब्रिटिश कारखानों के मालिक तथा भारत के साथ्ज्ञ व्यापार करने वाले व्यापारिक प्रतिष्ठान आदि प्रमुख रुप से जिम्मेदार थे। किन्तु अनेक विभिन्न कारणों से यह योजना कार्यान्वित नहीं हो सकी। 1848 ई0 में जब लार्ड़ ड़लहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर आया तो उसने इस दिशा में विशेष प्रयत्न प्रारंभ किये। 

लार्ड़ ड़लहौजी भारत में रेल निर्माण का पक्का समर्थक था। 1853 ई0 में उसने रेलवे के विकास का विस्तृत कार्यक्रम प्रस्तुत किया। उसके द्वारा रेलवे को प्रारंभ किये जाने की पृष्ठभूमि में ब्रिटिश साम्राज्यवादित तथा ब्रिटिश व्यापार का मार्ग प्रशस्त करना था। वह अंग्रेजी शासन के प्रति भारतीयों में बढते हुये असन्तोष से चिन्तित था तथा वह चाहता था कि सैनिकों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक भेजने के लिए रेलवे का विकास किया जाना अत्यन्त आवश्यक था। अतः इस उद्देश्य से उसने भारत में रेल प्रशासन प्रारंभ करने के लिए ब्रिटिश सरकार पर निरन्तर दबाव ड़ाला और अन्ततः वह अपने उद्देश्य में पूर्णतः सफल रहा।

रेलवे के विकास के विभिन्न चरण :

भारत में रेलवे निर्माण और विकास को निम्नलिखित चरणों में स्पष्ट किया जा सकता है-
1. पुरानी गारण्टी पद्धति जो 1849 से 1869 ई0 तक चलती रही और जिसके अन्तर्गत तीन प्रमुख सामुद्रिक बन्दरगाहों- कलकŸा, बम्बई और मद्रास को भारत के आंतरिक भागों से रेल मार्गो द्वारा जोडने का निश्चय किया गया।
2. नई गारण्टी प्रणाली जिसके अन्तर्गत 1869 से सरकार द्वारा रेल निर्माण और प्रबन्धन करने का निश्चय किया गया।
3. प्रथम विश्वयु़द्ध से देश की स्वतंत्रता प्राप्ति तक।
4. स्वतंत्र भारत और रेलवे।

पुरानी गारण्टी पद्धति (Old Guarantee System)

इंग्लैण्ड के व्यापारियों और क्राउन के दबाव के कारण 1845 ई0 में निजी क्षेत्र से ईस्ट इण्डिया रेलवे कम्पनी और ग्रेट इण्डियन पेनिन्सुला रेलवे कम्पनी का निर्माण लंदन में किया गया लेकिन शीध्र ही दोनों कम्पनियों ने यह महसूस किया कि बिना सरकार की आर्थिक मदद के वे इतनी बडी योजना के लिए आवश्यक पूॅंजी एकत्रित नही कर सकते। सरकार का यह सोचना था कि निःशुल्क जमीन ही देना पर्याप्त होगा। अन्ततः ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने पूॅजी विनियोग पर गारण्टी देना स्वीकार किया। इस प्रकार कम्पनी की सरकार ने लंदन में पंजीकृत रेल निर्माण कंपनियों से जो समझौता किया उसे ‘‘पुरानी गारण्टी पद्धति‘‘ कहते है। यह पद्धति 1849 से 1869 तक बनी रही। 1849 ई0 में कम्पनी की सरकार ने ‘ईस्ट इण्डिया रेलवे कम्पनी‘ और ‘द ग्रेट इण्डिया पेनिन्सुला रेलवे कम्पनी के साथ एक समझौता किया जिसके अनुसार -

1. रेलवे कम्पनियों को सरकार ने 99 वर्षो के लिए निःशुल्क भूमि प्रदान करेगी जिसपर रेल पथ का निर्माण करना था। 99 वर्षो के बाद भूमि सरकार के पास चली जानी थी, जो इंजन और डिब्बों को तात्कालीन मूल्य पर खरीद लेगी।

2. सरकार ने इन कम्पनियों द्वारा विनियोजित पूॅजी पर 4.5 से 5 प्रतिशत तक ब्याज की गारण्टी प्रदान की।

3. यदि रेलों से शुद्ध आया विनियोजित पूॅजी से 5 प्रतिशत से कम होगी तो ऐसी स्थिति में कम्पनी सरकार हानि को भारतीय राजस्व से पूरा करेगी और यदि शुद्ध आय विनियोजित पूॅजी से 5 प्रतिशत से ज्यादा होगी तो शुद्ध आय का आधा रेल निर्माण कम्पनी की और आधा ब्रिटिश भारत सरकार को होगा।

4. निर्मित रेलवे का प्रबन्धन रेल निर्माता कम्पनी के पास रहेगा।

5. प्रथम 25 अथवा द्वितीय 50 वर्षों की अवधि के बाद भारत सरकार तात्कालीन बाजार मूल्य के अनुसार रेलवे कम्पनी के हिस्सों या कम्पनी की पूॅंजी का भुगतान करके रेलवे खरीद सकती थी।

6. रेल निर्माता कम्पनी 6 महीनों की नोटिस पर काम बन्द कर सकती थी। ऐसी दशा में रेल कम्पनी द्वारा पूरी विनियोजित पूॅंजी भारत सरकार द्वारा देय होगी।

इस प्रकार इस योजना के तहत सर्वप्रथम लार्ड़ ड़लहौजी के शासनकाल में बम्बई तथा थाणें के बीच लगभग 21 मील की दूरी वाली रेल पटरी का निर्माण द ग्रेट इण्डियन पेनिन्सुला रेलवे कम्पनी द्वारा किया गया और 16 अप्रैल 1853 ई0 को पहली बार भारत में रेल इस मार्ग पर चली। इस रेलगाड़ी में कुल 20 ड़िब्बे थे जिसमें लगभग 400 मेहमानों को सवार कराया गया था तथा यह 21 तोपों की सलामी के पश्चात चली थी। इस अवसर पर लार्ड डलहौजी ने रेलवे निर्माण के निम्नलिखित उद्देश्य बताये -

1. भारतीय साम्राज्य के प्रत्येक क्षेत्र में सैनिक आक्रामक शक्ति में वृद्धि करना।

2. ब्रिटिश पूॅंजी को भारत में लाना।

3. भारत को व्यापारिक सुविधा प्रदान करना।

4. बन्दरगाहों में भारतीय उत्पादन को लाना।

इन उद्देश्यों का सीधा अर्थ था- ब्रिटिश हितों की रक्षा करना न कि भारतीयों को सुविधा प्रदान करना। ईस्ट इण्डियन रेलवे के हावड़ा से हुगली तक के 23 मील लम्बे तक के प्रथम खण्ड का उद्घाटन 15 अगस्त 1854 को किया गया जिससे पूर्वी भारत में रेल परिवहन का प्रारम्भ हुआ। 1854 से 1856 तक तीन महत्त्वर्ण रेलपथों का निर्माण किया गया - बम्बई से कल्याण रेलपथ, जो 37 मील लम्बा था, कलकत्ता से रानीगंज रेलपथ, जो 121 मील लंबा था, और मद्रास से आर्काट रेलपथ, जो 65 मील लम्बा था। 1854 ई0 तक बम्बई कल्याण रेल पथ पर 54 मील रेल मार्ग और जोड़ दिया गया। 1855 ई0 में ईस्ट इण्डिया रेलवे कम्पनी को कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन के निर्माण का समझौता किया गया परन्तु काम करने से पूर्व ही 1857 की क्रान्ति की ज्वाला फूट पडी और 1858 ई0 में ब्रिटिश इस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ही समाप्त हो गयी। इससे पूर्व इस कम्पनी ने कलकत्ता से रानीगंज तक 121 मील लम्बे रेलवे मार्ग का निर्माण किया था जो 1855 ई0 में सार्वजनिक उपयोग के लिए खोली गई। द ग्रेट इण्डियन पेनिन्सुला रेलवे कम्पनी ने विद्रोह से पूर्व कुल 91 मील लम्बी रेल लाइन का निर्माण किया था और मद्रास रेलवे कम्पनी ने मद्रास से अर्काट तक 85 मील लम्बी रेल लाइन बिछाई जो सार्वजनिक उपयोग के लिए 1856 ई0 में खोली गई। 1858 ई0 से पूर्व इससे ज्यादा और कुछ भी निर्मित नही किया गया और सभी रेलवे लाइन घाटे का सौदा साबित हुई। क्राउन द्वारा सत्ता हस्तांतरण के साथ ही ब्रिटिश उद्योगपतियों और व्यापारियों के दबाव में पुनः रेलवे लाइनों के निर्माण कार्य प्रारंभ हुये। इस प्रकार पुरानी गारन्टी पद्धति के अन्तर्गत 4265 मील लम्बा रेल पथ तैयार हो गया और 1869 ई0 तक भारत में 11 बड़े रेलमार्ग बनकर तैयार हो गये थे।

पुरानी गारण्टी प्रणाली के दोष -

पुरानी गारन्टी पद्धति दोषपूर्ण सिद्ध हुई क्योंकि इस पद्धति ने फजूल खर्ची को बढ़ावा दिया। यद्यपि कम्पनियों को अच्छा लाभ प्राप्त हुआ, किन्तु मितव्ययिता नहीं बरती गई। विनियोग और ब्याज की गारन्टी के कारण मितव्ययिता को भुला दिया गया। इस पद्धति का एक दोष यह था कि सुविधायुक्त होने पर भी कम्पनी अपेक्षित दूरी तक रेलमार्गों का निर्माण नहीं कर सकी। इस योजना के अन्तर्गत रेल-पथों के विकास का वार्षिक औसत लगभग 342 किलोमीटर ही रहा। योजना से सरकार को अधिक घाटा रहा। पाँच प्रतिशत ब्याज की गारन्टी मिल जाने से रेलवे कम्पनियों ने अन्धाधुन्ध रुपया लगाना शुरू कर दिया। लागत की तुलना में आमदनी कम हुई और सरकार को करोड़ों रुपये की हानि उठानी पड़ी। भारत के एक भूतपूर्व वित्त सदस्य डब्लू० एन० मेयसी ने 1872 में अपने साक्ष्य में कहा : “रेल-पथों पर व्यय की जाने वाली सारी धनराशि अंग्रेज पूँजीपतियों से आती थी और जब तक उसे भारत के राजस्व में से 5 प्रतिशत ब्याज की प्रतिभूति प्राप्त थी, तब तक उसकी बला से, चाहे उधार दी गई धन राशि हुगली में फेंकी जाय अथवा ईट-गारा बनाने के काम में ली जाय।‘‘ अतः आमदनी की जगह अधिक घाटा ही होने लगा और सरकार को स्वयं यह घाटा पूरा करना पड़ा। जनवरी 1869 में अपने एक निबंध में गवर्नर जनरल जॉन लॉरेन्स ने भी कम्पनियों के लाभ और सरकार के घाटे का उल्लेख किया। उसने इस पद्धति को समाप्त कर देने की सिफारिश की। भारत सचिव ने 1870-80 की अवधि में इस पद्धति को समाप्त कर दिया और सरकार ने खुद अपने व्यय से रेलों का निर्माण करना प्रारम्भ किया।

इसके अतिरिक्त इस पद्धति के अन्तर्गत रेलवे कम्पनियों का प्रबन्ध अच्छा नहीं कहा जा सकता। अपनी आय के सम्बन्ध में निश्चित रहने के कारण कम्पनी काम करने में उपेक्षा की नीति बरतती थी। कम्पनियों का हिसाब-किताब भी ठीक ढंग से नहीं रखा जाता था। एक तरफ इंजीनियरों को अच्छे वेतन दिये जाते थे और दूसरी तरफ उनके कार्यों का निरीक्षण नहीं किया जाता था। इस प्रणाली के अन्तर्गत केवल सुरक्षा और सैनिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर रेल और रेल-पथ बनाये गये जिसके फलस्वरूप व्यापार के विकास पर ध्यान नहीं दिया गया। इस पद्धति ने आम जनता पर अधिक आर्थिक भार लाद दिया क्योंकि प्रतिवर्ष ब्याज के रूप में सरकारी कोष से काफी रुपया चुकाना पड़ता था। इस पद्धति ने कम्पनी की कार्यक्षमता को नियंत्रित रखा। रेलवे को रेलवे कम्पनी और सरकार दोनों क्रियान्वित करते थे। इस दोहरे नियंत्रण के कारण रेलवे की कार्यक्षमता पर बुरा असर पड़ा। इस प्रणाली के सम्बन्ध में टी० राबर्टसन ने अपने प्रतिवेदन में लिखा कि- “जिन रेलवे कम्पनियों ने अतिरिक्त लाभ अर्जित करने की आशा नहीं देखी उनके लिए मितव्ययिता के लिए कोई प्रलोभन नहीं था.....जिन रेल कम्पनियों ने वर्ष के एक आधे भाग में अधिक व्यवसाय किया और दूसरे आधे भाग में नहीं, उन्हें वर्ष के अपेक्षाकृत बुरे आधे भाग में अधिक-से-अधिक व्यय करने के लिए प्रोत्साहन मिला क्योंकि वर्ष के अच्छे आधे भाग में अपेक्षाकृत कम व्यय उनके लाभ को बढ़ाता था जबकि बुरे अर्द्धभाग में परिवद्धित व्यय सरकार द्वारा प्रत्याभूत न्यूनतम लाभ को प्रभावित नहीं करता था।‘‘ 

यद्यपि 1869 में सरकार ने रेल निर्माण का काम अपने हाथों में ले लिया और 1869 से 1881 के बीच 13 करोड़ रुपया व्यय करके लगभग 9875 मील लम्बे रेल-पथ का निर्माण किया किन्तु सरकार अधिक समय तक इस काम को अच्छी तरह न कर सकी और उसने पुनः पुरानी कम्पनियों का सहयोग लेने का निर्णय लिया। इन दिनों 1869 से 1872 तक पंजाब, राजपुताना, बंगाल, बम्बई, मद्रास आदि अकाल से आक्रांत हुए थे और 1880 ई0 के अकाल आयोग ने सरकार को यह सुझाव दिया था कि यदि अकालों के आक्रमण से भारतीयों की रक्षा करनी है तो 20 हजार मील लम्बी रेल लाइन बनाना आवश्यक है। अतः विवश होकर सरकार ने पुरानी कम्पनियों से सहायता ली और एक नई पद्धति निकाली। 

नवीन गारण्टी पद्धति (New Guarantee System)

नवीन गारन्टी पद्धति पुरानी गारन्टी पद्धति को संशोधित कर 1882 में बनाई गई थी। नवीन गारण्टी पद्धति के अन्तर्गत कम्पनियों से समझौते करते समय निम्न शर्ते निर्धारित की गई -

1. गारण्टी व्याज की दर घटाकर 5 प्रतिशत से घटाकर 3.5 प्रतिशत कर दी गई।

2. सरकार का हिस्सा अतिरिक्त शुद्ध आय में 50 प्रतिशत से बढाकर 60 प्रतिशत कर दिया गया।

3. 25 और 50 वर्ष के स्थान पर 25 वर्ष और 10 वर्ष के बाद सरकार को कम्पनियों का प्रबन्ध लेने का अधिकार प्राप्त हुआ।

4. रेलें सरकार की संपत्ति समझी गई।

5. रक्षात्मक रेलों का निर्माण सरकार का उŸारदायित्व समझा गया और अन्य का निर्माण नई गारण्टी प्रणाली के तहत कम्पनियों द्वारा किया जाना था।

6. हर कम्पनी के साथ समझौते की शर्ते भी अलग-अलग थी।

इस प्रणाली की यह विशेषता यह थी कि सरकारी नियंत्रण के अन्तर्गत रेलवे कम्पनियॉ रेलों का निर्माण और प्रबन्धन करती थी। इस प्रणाली के सुफल भी प्राप्त होने लगे और रेल निर्माण में तेजी आई। 1900 तक आते-आते रेलवे मार्गो की लम्बाई 25000 मील तक पहुॅच गई और जो रेलें सरकार के लिए बोझ थी, अब लाभ भी दिलाने लगी। अब सरकार के लिए रेलें एक उत्पादक व्यवसाय बन गई जिसमें और प्रगति का सुझाव देने के लिए 1901 ई0 में राबर्टसन समिति का गठन किया गया। इस समिति ने गारंटी पद्धति को स्वीकार करते हुए कहा कि सरकार के नियन्त्रण को कारगर ढंग से लागू करने के लिए एक रेलवे बोर्ड का गठन किया जाना चाहिये। इस समिति की सिफारिशों को मानते हुए 1905 ई0 में वाणिज्य और उद्योग विभाग के अन्तर्गत एक तीन सदस्यीय रेलवे बोर्ड का गठन किया गया जिसमेंएक अध्यक्ष और दो सदस्य होते थे।

प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व के 14 वर्ष रेलवे के तीव्र विस्तार के वर्षं थे। रेलवे लाइन 25,000 मील से बढ़कर 35,300 मील हो गई तथा विनियोजित पूंजी पर शुद्ध लाभ 0.38 प्रतिशत से बढ़कर 0.62 प्रतिशत हो गया। परन्तु इस बात को नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय पूंजी का बहिर्गमन भी इसी के साथ बढ़ता गया क्योंकि इंगलैंड का लाभ 2 प्रतिशत से बढ़कर 3 प्रतिशत हो गया। अतः यह विस्तार भारतीयों के दृष्टिकोण से, जिनमें अब राष्ट्रीय भावना जागृत हो चुकी थी, भारतवर्ष का आर्थिक शोषण ही था। साथ-ही-साथ राष्ट्रीय हित की ओर कम्पनियों का दृष्टिकोण हमेशा असहिष्णु था। इस काल में रेलवे विकास में रेलवे बोर्ड ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। साथ-ही-साथ 1907 में नियुक्त मैके समिति की सिफारिशों के अनुकूल सहायक रेल मार्गों का निर्माण कम्पनियों को दिया गया। उन्हें आवश्यक पूंजी एकत्रित करने के लिए ऋण की सुविधा प्रदान की गई और उदार शर्तें भी प्रदान की गईं।

प्रथम विश्वयुद्ध से स्वतन्त्रता प्राप्ति तक रेलवे का विकास -

युद्ध के दबाव और वार्षिक व्यय में कमी के कारण 1914-21 तक का समय रेल विकास में बाधक रहा। इन वर्षों में रेल व्यवस्था लगभग विघटन के कगार पर पहुँच गई। 1919 के सुधारों के लागू होने के साथ ही 1920 में रेल विशेषज्ञ विलियम आकवर्थ की अध्यक्षता में एक समिति का गठन हुआ, जिसे रेल की कार्य प्रणाली पर तथा रेलवे विकास पर उचित नीति के निर्धारण पर रिपोर्ट देनी थी। इस समिति की रिपोर्ट में निम्न सुझाव दिये गये -

(1) रेलवे विकास के लिए प्रति पाँच वर्ष में 150 करोड़ रुपया व्यय किया जाय।

(2) रेल प्रबन्धन और निर्माण निश्चित ही सरकार द्वारा किया जाय। गारंटी पद्धति की अवधि समाप्त हो जाने पर सभी कम्पनियों के उपक्रमों को सरकार के प्रत्यक्ष प्रबन्ध में दिया जाय। समिति ने कहा कि परिवहन विकास और समन्वय राज्य के प्रबन्ध के अन्तर्गत ही संभव है, अतः एक परिवहन विभाग अलग से स्थापित किया जाय।

(3) रेलवे वित्त को सामान्य वित्त से अलग किया जाय। रेल अपना अलग बजट रखे, अपनी आय और व्यय के लिये स्वयं उत्तरदायी रहे और ऐसी शुद्ध आय की व्यवस्था करे, जो ऋणों पर ब्याज देने में पर्याप्त हो अथवा सरकारी दायित्वों के लिये पर्याप्त हो तथा रेलवे बजट विधान सभा में रेलवे सदस्य द्वारा रखा जाय न कि वित्त सदस्य द्वारा।

(4) रेल नाड़ों के सम्बन्ध में जनता की शिकायतों को सुनने और विवादों को निपटाने के लिए रेल भाड़ा ट्रिब्यूनल ¼Railway Rates Tribunal½ स्थापित किया जाय।

सरकार ने कम्पनी प्रबन्धन की सिफारिश का पूर्णतया पालन नहीं किया परन्तु भारतीयों के दबाव के कारण 1922 में रेलवे बोर्ड का पुनर्गठन किया गया। अब इसमें चीफ कमिश्नर, अध्यक्ष और वित्तीय सदस्य तथा तीन अन्य सदस्य होने थे। भाड़ा सलाहकार समिति का गठन 1926 में हुआ तथा केन्द्रीय रेल प्रसार ब्यूरो ¼Central publicity bureau of the Railways½ ने 1927 में काम करना प्रारम्भ किया। रेल वित्त को 1924 में सामान्य वित्त से अलग कर दिया गया। यह एक क्रांतिकारी परिवर्तन था क्योंकि इसने वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की, जिससे भविष्य में रेल विकास के लिए ठोस नीति का सृजन होना संभव हो सका। इस स्वायत्तता  के ही कारण अलग से रेलवे संचित कोष ¼Railway Reserve fund½  और रेलवे ह्रास कोष (Railway Depreciation fund½ स्थापित हो सका। जनवरी 1925 में ईस्ट इण्डिया रेलवे कम्पनी और जून 1925 में द ग्रेट इंडिया पेनिन्सुला रेलवे कंपनी का सरकार द्वारा अधिग्रहण हुआ। इसी प्रकार बर्मा रेलवे और दक्षिण पंजाब रेलवे कम्पनियों का अधिग्रहण क्रमशः 1929 और 1930 में हुआ। इन प्रयत्नों ने अभूतपूर्व प्रगति प्रदान की और 1939 आते-आते रेल मार्गों की लम्बाई 41,700 मील हो गयी तथा जो शुद्ध आय 1919 में 89 करोड़ रुपये थी, वह बढ़कर 1930 में 116 करोड़ रुपये हो गई। 1929-30 की आर्थिक मन्दी ने भारतीय रेलों को भी प्रभावित किया और मितव्ययिता लाने के लिए रेलवे रीट्रेन्च सबकमिटि (Railway Retrench Subcommittee) 1931, पोप कमिटि (Pope Committee) 1932, पब्लिक एकाउण्ट कमिटि (Public Accounts Committee) 1935 और वेज़्वूड कमिटि (Wedge wood Committee) 1936 का गठन किया गया। सामान्य रूप से इनके निम्न सुझाव थे, जिन्हें सरकार ने मान लिया -

(1) रेलों द्वारा सामान्य बजट में अंशदान रोक दिया जाय तथा रिजर्व  कोषों को और मजबूत बनाया जाय।

(2) रेल व सड़क परिवहन में समन्वय स्थापित किया जाय तथा छोटी दूरी की शटल गाड़ियां चलाई जायें।

(3) रेलों की चाल में वृद्धि की जाय तथा अधिक यात्री आकर्षित करने के लिए वापसी टिकट दिया जाय।

(4) लागत को कम करने के लिए एक निर्भीक नीति अपनाई जाय। 

सिद्धांततः इन रिपोर्टों को स्वीकार लेने के बाद भी सरकार कुछ करने की स्थिति में नहीं थी क्योंकि इस समय राष्ट्रीय आंदोलन तेजी पकड़ता जा रहा था और विश्व युद्ध के बादल छा रहे थे। 1937 ई0 में बर्मा भारत से अलग कर दिया गया और वह अपने साथ 2000 मील लम्बा रेल पथ भी लेता गया। फिर भी 1925 ई0 में रेलवे का विद्युतीकरण होना प्रारम्भ हो गया, जो क्रमशः बम्बई, बंगाल और मद्रास से प्रारम्भ हुआ। विश्व युद्ध में भारी मात्रा में रेल इंजन, डिब्बे और रेल पथ सामान मध्य पूर्व में भेजा गया, जिसके लिए कम-से-कम 26 शाखा रेल पथों को उखाड़ लिया गया। रेलवे वर्कशाप अस्त्र-शस्त्र के निर्माण का काम करने लगी। युद्ध के पश्चात पूरा रेल प्रशासन अपंग था। इसी बीच 1947 में भारत वर्ष को स्वतंत्रता प्राप्त हुई और स्वतन्त्रता के साथ ही तो भारतवर्ष का विभाजन हुआ, जिसके कारण रेल पथों और रेल सामग्री का भी भारत और पाकिस्तान में विभाजन हुआ। इसके परिणामस्वरूप भारतीय रेल प्रशासन को 150 करोड़ रुपया पाकिस्तान को देना पड़ा। कुल मिलाकर पहले से ही ग्रसित रेलवे प्रशासन ने विभाजन की नई विपत्तियों के साथ नये युग में प्रवेश किया।

स्वतंत्र भारत और रेल विकास -

स्वतंत्रता के पश्चात भारतवर्ष में 42 कम्पनी रेल यूनिटें मौजूद थीं। इनमें 15 प्रथम श्रेणी की, 10 द्वितीय श्रेणी की और 19 तृतीय श्रेणी की थीं। इसमें 32 रेलवे लाइनें देशी रियासतों की थीं जिनमें सबसे छोटी सांगली राज्य की 5 मील और सबसे बड़ी निजाम की 1396 मील थी। भारत सरकार ने सभी रेलों का अधिग्रहण कर लिया और उन्हें 1951-52 में छः जोनों में विभाजित कर दिया -  साउदर्न रेलवे, सेन्ट्रल रेलवे, वेस्टर्न रेलवे, नादर्न रेलवे, नार्थ ईस्टर्न रेलवे और ईस्टर्न रेलवे। बाद में इन्हें 9 जोनों में बॉट दिया गया। तीन नये जोड़े गये जोन क्रमशः साउथ ईस्टर्न रेलवे, नार्थ ईस्ट फ्रंटियर रेलवे और साउथ सेन्ट्रल रेलवे थे।

भारतवर्ष में रेलवे विकास के सबसे बड़े आलोचक तथा कावेरी व गोदावरी नहरों के निर्माता सर आर्थर काटन ने संसदीय समिति के समक्ष 1872 में कहा था कि भारत के हर स्थान को नहरों से जोड़ा जा सकता है। भारतवर्ष की प्रमुख आवश्यकता पानी है। रेलों के निर्माण पर प्रतिवर्ष 30 लाख खर्च किया जाता है जब कि स्टीम बोट नहरों का निर्माण इसके आठवे भाग के खर्च से ही हो जाता, जिसमें चाहे जितना सामान कम खर्च पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुॅचाया जा सकता है और राजकोष पर कोई भार भी नही होता। कृषि उत्पादन दस गुना बढ़ जाता और ऐसी भूमि भी उत्पादन करने लगती जहाँ पानी की कमी के कारण कुछ भी पैदा नहीं होता। परन्तु इंगलैंड के पूंजीपतियों, उत्पादकों और व्यापारियों को ध्यान में रखकर रेल लाइनों का निर्माण कराया गया। परिणामतः जो पूंजी भारत से निकलकर इंगलैंड चली गई वह वापस नहीं आई और भारत गरीबी रेखा से भी नीचे गिरता चला गया। तत्कालीन राष्ट्रीय विचारकों- दादाभाई नौरोजी, जी० बी० जोशी, डी० ई० वाचा, आर० सी० दत्त आदि ने यह प्रमाणित कर दिया है कि तत्कालीन रेल विकास वरदान के स्थान पर अभिशाप ही सिद्ध हुआ क्योंकि इसने कुटीर उद्योग धन्धों को नष्ट कर दिया और इंगलैंड में निर्मित सामानों से भारत का कोना-कोना भर गया। इसी से इंगलैंड का कोयला और इस्पात उद्योग विकसित हुआ। चाय उद्योग के विकास में रेलें सहायक रहीं परन्तु पूँजी निर्गमन तो इंगलैंड को ही हुआ। इस प्रकार आज भले ही भारतीय रेलें एशिया में प्रथम और विश्व में द्वितीय हैं परन्तु इनका प्रारम्भिक उद्देश्य तो भारतीयों का आर्थिक शोषण ही था।


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