विषय-प्रवेश (Introduction)
संस्कृति को लक्षणों से तो हम जान सकते हैं, किन्तु उसकी परिभाषा नहीं दे सकते। कुछ अंशों में वह सभ्यता से एक भिन्न गुण है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है, संस्कृति वह गुण है जो हममें व्याप्त है। मोटर, महल, सड़क, हवाई जहाज, पोशाक और अच्छा भोजन-ये तथा इनके समान सारी अन्य स्थूल वस्तुए, संस्कृति नहीं, सभ्यता के सामान है। पर पोशाक पहनने व भोजन करने में जो कला है, वह संस्कृति की चीज है। इसी प्रकार मोटर बनाने और उसका उपयोग करने, महलों के निर्माण में रुचि का परिचय देने और सड़कों तथा हवाई जहाजों की रचना में जो ज्ञान लगता है, उसे अर्जित करने में संस्कृति अपने को व्यक्त करती है।
हर सभ्य आदमी सुसंस्कृत ही होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अच्छी पोशाक पहनने वाला आदमी भी तबीयत से गंदा हो सकता है और तबीयत से गंदा होना संस्कृति के खिलाफ बात है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि हर सुसंस्कृत आदमी सभ्य भी होता है, क्योंकि सभ्यता की पहचान सुख-सुविधा और ठाठबाट हैं। मगर बहुत से ऐसे लोग हैं जो सड़े-गले झोंपड़ों में रहते हैं, जिनके पास काफी कपड़े भी नहीं होते और न कपड़े पहनने के अच्छे ढंग ही उन्हें मालूम होते हैं, लेकिन फिर भी उनमें विनय और सदाचार होता है, वे दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं तथा दूसरों का दुःख दूर करने के लिए वे खुद मुसीबत उठाने को भी तैयार रहते हैं।
आदिवासी जनता पूर्ण रूप से सभ्य तो नहीं कही जा सकती, क्योंकि सभ्यता के बड़े-बड़े उपकरण उसके पास नहीं हैं, लेकिन दया-माया, सच्चाई और सदाचार उसमें कम नहीं हैं। प्राचीन भारत में ऋषिगण जंगलों में रहते थे और जंगलों में वे कोठे और महल बनाकर नहीं रहते थे। फूस की झोपड़ियों में वास करना, जंगल के जीवों से दोस्ती और प्यार करना, किसी भी मोटे काम को अपने हाथ से करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाना, पत्तों पर खाना और मिट्टी के बर्तनों में रसोई पकाना यही उनकी जिन्दगी थी। फिर भी वे ऋषिगण सुसंस्कृत ही नहीं थे, बल्कि वे हमारी जाति की संस्कृति का निर्माण करते थे।
सभ्यता और संस्कृति में यह एक मौलिक भेद है जिसे समझे बिना हमें कहीं कहीं कठिनाई का सामना करना पड़ सकता है। मगर यह कठिनाई कहीं-कहीं ही आती है। साधारण नियम यही है कि संस्कृति और सभ्यता की प्रगति अधिकतर एक साथ होती है और दोनों का एक-दूसरे पर प्रभाव भी पड़ता रहता है। उदाहरण के लिए, हम जब कोई घर बनाने लगते हैं, तब स्थूल रूप से यह सभ्यता का कार्य होता है। मगर हम घर का कौन-सा नक्शा पसन्द करते हैं, इसका निर्णय हमारी सांस्कृतिक रुचि करती है। और संस्कृति की प्रेरणा से हम जैसा घर बनाते हैं, वह फिर हमारी सभ्यता का अंग बन जाता है। इस प्रकार सभ्यता का संस्कृति पर और संस्कृति का सभ्यता पर पड़नेवाले प्रभाव का क्रम निरन्तर चलता ही रहता है।
यहीं एक यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि संस्कृति और प्रकृति में भी भेद है। गुस्सा करना मनुष्य की प्रकृति है, लोभ में पड़ना उसका स्वभाव है; ईर्ष्या, मोह, राग, द्वेष और कामवासना-ये सब के सब प्रकृति के गुण हैं। मगर प्रकृति के ये गुण अगर बेरोक छोड़ दिये जाएँ तो आदमी और जानवर में कोई भेद नहीं रह जाए। इसलिए मनुष्य प्रकृति के इन आवेगों पर रोक लगाता है और कोशिश करता है कि वह गुस्से के बस में नहीं, बल्कि गुस्सा ही उसके बस में रहे, वह लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष और कामवासना का गुलाम नहीं रहे, बल्कि ये दुर्गुण ही उसके गुलाम रहें और इन दुर्गुणों पर आदमी जितना विजयी होता है, उसकी संस्कृति भी उतनी ही ऊँची समझी जाती है। निष्कर्ष यह कि संस्कृति सभ्यता की अपेक्षा महीन चीज होती है। यह सभ्यता के भीतर उसी तरह व्याप्त रहती है, जैसे दूध में मक्खन या फूलों में सुगंध और सभ्यता की अपेक्षा यह टिकाऊ भी अधिक है, क्योंकि सभ्यता की सामग्रियों टूट-फूटकर विनष्ट हो जा सकती हैं, लेकिन संस्कृति का विनाश उतनी आसानी से नहीं किया जा सकता।
एक बात और है कि सभ्यता के उपकरण जल्दी से बटोरे भी जा सकते हैं, मगर उनके उपयोग के लिए जो उपयुक्त संस्कृति चाहिए, वह तुरन्त नहीं आ सकती।संस्कृति ऐसी चीज नहीं कि जिसकी रचना दस-बीस या सौ पचास वर्षों में की जा सकती हो। अनेक शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते-समझते और राजकाज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति उत्पन्न होती है। हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमारी संस्कृति की झलक होती है; यहाँ तक कि हमारे उठने-बैठने, पहनने ओढ़ने, घूमने-फिरने और रोने-हँसने में भी हमारी संस्कृति की पहचान होती है, यद्यपि हमारा कोई भी एक काम हमारी संस्कृति का पर्याय नहीं बन सकता। असल में, संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। इसलिए जिस समाज में हम पैदा हुए हैं अथवा जिस समाज से मिलकर हम जी रहे हैं, उसकी संस्कृति हमारी संस्कृति है, यद्यपि अपने जीवन में हम जो संस्कार जमा करते हैं, वह भी हमारी संस्कृति का अंग बन जाता है और मरने के बाद हम अन्य वस्तुओं के साथ अपनी संस्कृति की विरासत भी अपनी सन्तानों के लिए छोड़ जाते हैं। इसलिए संस्कृति वह चीज़ मानी जाती है, जो हमारे सारे जीवन को व्यापेहए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। यही नहीं, बल्कि संस्कृति हमारा पीछा जन्म-जन्मान्तर तक करती है।
अपने यहाँ एक साधारण कहावत है कि जिसका जैसा संस्कार है, उसका वैसा ही पुनर्जन्म भी होता है। जब हम किसी बालक या बालिका को बहुत तेज पाते हैं तब हम अचानक कह उठते हैं कि यह पूर्वजन्म का संस्कार है। संस्कार या संस्कृति असल में, शरीर का नहीं, आत्मा का गुण है और जबकि सभ्यता की सामग्रियों से हमारा सम्बन्ध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मान्तर तक चलता रहता है।आदिकाल से हमारे लिए जो लोग काव्य और दर्शन रचते आए हैं, चित्र और मूर्ति बनाते आए हैं, वे हमारी संस्कृति के रचयिता हैं।
आदिकाल से हम जिस-जिस रूप में शासन चलाते आए हैं. पूजा करते आए हैं, मन्दिर और मकान बनाते आए हैं, नाटक और अभिनय करते आए हैं, बरतन और घर के दूसरे सामान बनाते आए हैं, कपड़े और जेवर पहनते आए हैं, शादी और श्राद्ध करते आए हैं, पर्व और त्योहार मनाते आए हैं अथवा परिवार, पड़ोसी और संसार से दोस्ती या दुश्मनी का जो भी सलूक करते आए हैं वह सब-का-सब हमारी संस्कृति का ही अंश है। संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय और संग्रहालय (म्यूजियम), नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन भी होते हैं, क्योंकि उन पर भी हमारी रूचि और चरित्र की छाप लगी होती है।
संस्कृति का स्वभाव है कि वह आदान-प्रदान से बढ़ती है। जब भी दो देश वाणिज्य व्यापार अथवा शत्रुता या मित्रता के कारण आपस में मिलते हैं, तब उनकी संस्कृतियों एक-दूसरे को प्रभावित करने लगती हैं, ठीक उसी प्रकार, जैसे दो व्यक्तियों की संगति का प्रभाव दोनों पर पड़ता है। संसार में शायद ही ऐसा कोई देश हो जो यह दावा कर सके कि उस पर किसी अन्य देश की संस्कृति का प्रभाव नहीं पड़ा है। इस प्रकार कोई जाति भी यह नहीं कह सकती कि उस पर किसी दूसरी जाति का प्रभाव नहीं है। जो जाति केवल देना ही जानती है, लेना कुछ नहीं, उसकी संस्कृति का एक-न-एक दिन पतन हो जाता है। इसके विपरीत जिस जलाशय के पानी लानेवाले दरवाजे बराबर खुले रहते हैं, उसकी संस्कृति कभी नहीं सूखती। उसमें सदा ही स्वच्छ जल लहराता रहता है और कमल के फूल खिलते रहते हैं। कूपमंडूकता और दुनिया से रूठकर अलग बैठने का भाव संस्कृति को ले डूबता है। अक्सर देखा जाता है कि जब हम एक भाषा में किसी अद्भुत कला को विकसित होते देखते हैं, तब तुरन्त पास-पड़ोस या सम्पर्कवाली दूसरी भाषा में हम उसकी खोज करने लगते हैं।
पहले एक भाषा में ‘शेली’ और ‘कीट्स’ पैदा होते हैं, तब दूसरी भाषा में रवीन्द्र’ उत्पन्न होते हैं। पहले एक देश में ‘बुद्ध’ पैदा होते हैं, तब दूसरे देश में ईसा मसीह का जन्म होता है। अगर यूरोप से भारत का सम्पर्क नहीं हुआ होता तो राममोहन राव, दयानन्द रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द और गांधी में से कोई भी सुधारक उस समय जन्म नहीं लेते जिस समय उनका जन्म हुआ। जब भी दो जातियाँ मिलती हैं, उनके सम्पर्क या संघर्ष से जिन्दगी की एक नई धारा फूट निकलती है जिसका प्रभाव दोनों पर पड़ता है। आदान-प्रदान की प्रक्रिया संस्कृति की जान है और इसी के सहारे वह अपने को जिन्दा रखती है। केवल चित्र, कविता, मूर्ति, मकान और पोशाक पर ही नहीं, सांस्कृतिक सम्पर्क का प्रभाव दर्शन और विचार पर भी पड़ता है। एक देश में जो दार्शनिक और महात्मा उत्पन्न होते हैं, उनकी आवाज दूसरे देशों में भी मिलते-जुलते दार्शनिकों और महात्माओं को जन्म देती है। एक देश में जो धर्म खड़ा होता है, वह दूसरे देशों के धर्मों को भी बहुत कुछ बदल देता है। यही नहीं, बल्कि प्राचीन जगत में तो बहुत से ऐसे देवी-देवता भी मिलते हैं, जो कई जातियों के संस्कारों से निकलकर एक जगह जमा हुए हैं। एक जाति का धार्मिक रिवाज दूसरी जाति का रिवाज बन जाता है और एक देश की आदत दूसरे देश के लोगों की आदत में समा जाती है। अतएव सांस्कृतिक दृष्टि से वह देश और वह जाति अधिक शक्तिशालिनी और महान समझी जानी चाहिए जिसने विश्व के अधिक-से-अधिक देशों, अधिक-से-अधिक जातियों की संस्कृतियों को अपने भीतर जव करके, उन्हें पचा करके, बड़े-से-बड़े समन्वय को उत्पन्न किया है। भारत देश और भारतीय जाति इस दृष्टि से संसार में सबसे महान है क्योंकि यहाँ की सामासिक संस्कृति में अधिक-से-अधिक जातियों की संस्कृतियों पची हुई हैं।
मानवीय जीवन अत्यन्त वैविध्यपूर्ण है। इस विविधता का आधार समाज एवं संस्कृति है। मानव जिस समाज में रहता है, उसकी संस्कृति का अमिट प्रभाव उस पर पड़ता है। भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी संस्कृति है जिसमें मानवीय चेतना की सर्वोच्च गति के दर्शन होते हैं । भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें स्वार्थसिद्धि की अपेक्षा परसेवा, समाजसेवा और विशेषकर परमार्थ पर विशेष जोर दिया गया है। इसने व्यक्ति को समाज या समष्टि में लीन होने का उपदेश दिया।
मानव जाति का निवास सभ्यता के मूल में रहता है। संस्कारवान् मानव को ही जीवन यापन के सभ्य स्थिति की आवश्यकता का अनुभव होता है। यदि सभ्यता शब्द के इतिहास की ओर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि यह शब्द सभा एवं सभ्य शब्दों के बाद बना है, जिसका अर्थ है सभा में बैठने को योग्यता। सभ्यता सामाजिक विधि अर्थात् पालन एवं निषेध अर्थात् प्रतिबन्ध पर जोर देती है। सभा में शिष्टाचार के नियमों का पालन करना पड़ता है जिससे सामाजिक भावना का अनुभव होता है।
संस्कृति (सम्-कृ-क्तिन) सम् उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से बना है जो परिष्कृत या परिमार्जित करने के भाव का द्योतक है। इसमें शिष्टता एवं सौजन्य के भाव भी सम्मिलित है। संस्कृति के प्रभाव से ही समाज अथवा उसका घटक ऐसे कार्यों में प्रवृत्त होता है जिनमें सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक, राजनैतिक और वैज्ञानिक क्षेत्रों में उन्नति हो पाना संभव हुआ।’ भारत में सर्वजन सुखाय की भावना प्रबल है। वस्तुतः आचार-विचार का ही दूसरा नाम संस्कृति है, जो बुद्धि तथा अनुभवजन्य ज्ञान पर आश्रित है। दूसरे शब्दों में संस्कृति परम्परागत अनुस्यूत संस्कार है जो परम्परा की तरह चलती चली आ रही है। यह बौद्धिक विकास को अवस्थाओं को सूचित करता है। भारतीय संस्कृति सदा से ही आध्यात्मिकता पर आधारित रही है। ऐसी आध्यात्मिकता जहाँ सब मिलकर एक हो जाते हैं। भारतवर्ष एक ऐसी भावभूमि है जहाँ पहुँच कर मानव सब प्रणियों में एक प्राण, एक चेतना की अनुभूति करता है। इस तरह भारतीय संस्कृति के मूल में सदैव से ही मानव कल्याण की भावना समायी हुई है।
सभ्यता और संस्कृति दोनों ही एक सिक्के के दो पहलू हैं। प्रयोग में दोनों शब्दों में कोई भेद नहीं किया जाता हैं। कुछ दोनों को समानार्थक समझते हैं किन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं है। सभ्यता से शारीरिक एवं भौतिक विकास तथा संस्कृति से बौद्धिक विकास की दशा सूचित होती है। दोनों का सम्बन्ध क्रमशः शरीर के कार्यकलापों और आत्मा से है, इसलिए सभ्यता और संस्कृति के संबंध में पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था ‘समृद्ध सभ्यता में संस्कृति का विकास होता है और उससे दर्शन साहित्य, नाटक, कला, विज्ञान और गणित विकसित होते हैं।’
धर्म और संस्कृति का भी गहरा सम्बन्ध हैं। धर्म से जिन मान्यताओं और स्थापनाओं का बोध होता है उनके अनुसार ही मनुष्य कर्म में प्रवृत्त होता है और उससे संस्कृति का स्वरूप बनता है। इसी प्रकार संस्कृति जिस सृजनात्मक कार्य-कलाप की सूचक है उससे धर्म की परिकल्पना बनती है, बदलती और सुधरती भी है। वैदिक युग से ही भारत की सभ्यता और संस्कृति उन्नत रही है। वर्ण संस्था, आश्रम संस्था, विवाह संस्था आदि अनेक सामाजिक संस्थाओं का उद्भव ही नहीं, अपितु उत्थान भी वैदिक युग के परवर्ती काल से ही प्रारम्भ हो गया था। यह वह काल था जबकि विश्व के अनेक देश अनेक दृष्टियों से पिछड़े और असभ्य थे। यहाँ भारत जैसी व्यवस्थित और सुगठिठत सामाजिक संस्थाएं न थी। यहाँ की संस्थाएं सुचारू रूप से जीवन में क्रियाशील थीं।
अतः सामाजिक संस्थाओं की प्राचीनता उनकी अपनी विशेषता है। इसी कारण भारतीय संस्कृति वेद मूलक भी मानी जाती है। इसके अतिरिक्त स्थायित्व, सहिष्णुता, धार्मिकता भी भारतीय संस्कृति का मूल रही है।’ यहाँ सभी प्राणियों में ईश्वर का निवास माना जाता है। भारतीय संस्कृति ही एक ऐसी संस्कृति है जिसमें मनुष्य के संकुचित और सीमित विचार का अंत धर्ममूलक प्रवृत्तियों से होता है। धार्मिक प्रवृत्ति मनुष्य को व्यक्तिगत लाभ से हटाकर सामूहिक लाभ की ओर अग्रसर करती है। भारतीय संस्कृति ही वह संस्कृति है जिसमें सभी कुछ आत्मसात करने की प्रवृत्ति है। इसके अतिरिक्त समन्वय की प्रवृत्ति, व्यापकता, आत्मा की महत्ता एवं कर्मवाद भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की अन्य महत्वपूर्ण कड़ियों है। उपनिषदों में आत्मा की महत्ता प्रचुर रूप से प्रतिपादित की गयी है। षड्दर्शनों में भी इसी तत्व का विशद् वर्णन मिलता है।’
भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताएं हमें सैन्धव, वैदिक, उत्तर वैदिक, महाकाव्य, मौर्य, मौर्योत्तर एवं गुप्त, कुषाण कालीन समाज में भी दृष्टिगत होती है। आज भी हम पंच ऋणों (देवऋण, ऋषित्रण, पितृऋण, भूतऋण एवं अतिथि ऋण), पंचमहायज्ञों (देवयज्ञ, ऋषियज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, एवं भूतयज्ञ), पुरुषार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष), आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास), कर्मवाद पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। ये भी हमारी सभ्यता एवं संस्कृति के ही अंग हैं। इस प्रकार भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की उपयुक्त विशेषताओं के कारण आज भी हम संस्कृति की एक अविच्छिन्न परम्परा प्राप्त करते हैं जो देश और काल के प्रभाव से होने वाली परिवर्तनों एवं जीवनमूल्यों को आत्मसात् करने की अद्भुत शक्ति से संवलित है और जीवन्तता तथा स्फुरण के वातावरण का निर्माण करने में सक्षम है।
परम्परा—
(Traditions) भारतीय ज्ञान का मूल आधार वेद है जिसकी उत्पत्ति विद् धातु से हुई है जिसका अर्थ है ज्ञान की प्राप्ति। वेद विविध विधाओं का ज्ञान है जहाँ से हमारी संस्कृति उद्भूत हुई है। यहीं से भारतीय संस्कृति की परम्परा की शुरूआत मानी जा सकती है।’ वस्तुतः परम्परा निरन्तर चलने वाली वह श्रृंखला होती है जो अविच्छिन है। आज के मानवीय समाज में वही आदर्श एवं नैतिकता की भावना है जो पुरातन समय में थी क्योंकि हम उन्हीं ऋषियों, मुनियों के वंशज हैं जो एक से बढ़कर एक महान आत्मा थे। आज चाहे भले ही हम आधुनिकता के परिवेश में अपना वास्तविक आदर्श एवं मूल्य खो चुके हों, परन्तु हमारी अन्तर्रात्मा कहीं न कहीं हमे ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है जहाँ कि हम यह सोचने पर मजबूर हो जाते है कि हम कहाँ सही हैं कहां गलत। यह हमारी परम्परा की ही असर है जो हमें ऐसा करने को अग्रसर करती है। परम्परा किसी भी देश, समाज, जाति एवं कुल को ऐसी मजबूत कड़ी में जकड़ लेती है जिसे तोड़ना बहुत कठिन होता है। भारत एक विशाल देश है यहाँ अनेक भाषाओं, धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों, रीति रिवाजों एवं क्षेत्रीय विभिन्नताओं के बावजूद इसकी सांस्कृतिक एकता ने इसे एक विशिष्ट रूप प्रदान किया है। वैदिक काल से ही जिस संस्कृति का जन्म हमारे समाज में हुआ उसकी पारम्परिक छाप आज भी दृष्टिगोचर होती है। प्राचीन आदर्श, विचार, रहन-सहन, व्यवहार आदि परम्परा के ही विभिन्न रूप हैं जो हमारे अतीत एवं वर्तमान को एक दूसरे से जोड़े हुए हैं जिनके आधार पर हम अपने भविष्य निर्माण की कल्पना करते हैं।
वर्तमान एवं अतीत के आधार पर ही सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास का जन्म होता है। इनमें संस्कृति तो अतीत के पारस्परिक मूल्यों की निधि है जो व्यक्ति को सभ्य समाज के लिए परिमार्जित कर उसे सुन्दर एवं संस्कारवान बनाती है जबकि इतिहास अतीत की घटनाओं को प्रामाणिक लेखा जोखा है जो साक्ष्यों पर आधारित ऐतिहासिक घटनाओं को प्रस्तुत करता है। इतिहास किसी सत्ताधारी वर्ग की कहानी तक सीमित न रहकर सामान्य जन की स्थितियों के अध्ययन का विषय भी बन गया है। हमारे बाह्य स्वरूप एवं बाह्य क्रियाओं का आज भी वहीं स्थान है जो पुरातन में था।
संस्कृति सभ्यता से भिन्न सत्यम् शिवम् सुन्दरम (रूचिरम् ) परंपरा का नाम है। यहाँ परंपरा किसी महत्वपूर्ण घटना का आख्यान है एवं इतिहास उस आख्यान का सही साक्ष्यों पर आधारित सत्य एवं निष्पक्ष विवेचन है, वहीं संस्कृति इन सबकी अन्तश्चेतना एवं परंपराओं का परिमार्जित रूप है। संस्कृति जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य है तो सभ्यता इसके बाहा साधनों की सुविधा है। संस्कृति मानव कल्याण के लिए अन्तश्चेतना, सौन्दर्यानुभूति, आनन्द एवं उल्लास, आभ्यान्तरिक तत्वों का परिष्कृत एवं परिमार्जित रूप है जबकि सभ्यता मानव जीवन के स्थूल एवं भौतिक सुख-सुविधा के संयोजन का आवश्यक संगठित प्रयत्न है। इस प्रकार सभ्यता साध्य है तो संस्कृति साधन। अतः संस्कृति रूपी साधन से सभ्यता रूपी साध्य की प्राप्ति संभव है। हमारे सम्पूर्ण आदर्श, विश्वास, परम्पराएं और यहाँ तक कि ऐतिहासिक आख्यान भी मानव जीवन के लक्ष्य अथवा साध्य बन जाते हैं जबकि संस्कृति एवं सभ्यता मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए साधन एवं साध्य बनाकर एक दूसरे के पूरक हो जाते हैं। अतः एक के बिना दूसरे के अस्तित्व एवं उसके प्रगति की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस प्रकार किसी व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की प्रगति एवं कल्याण के लिए परंपरा, इतिहास, संस्कृति एवं सभ्यता को अति आवश्यक माना जा सकता है। अतः परंपरा, इतिहास एवं संस्कृति एक दूसरे के पूरक होकर मानव कल्याण के आधार स्तम्भ बन जाते है।
कुछ विद्वान ‘सामाजिक विरासत’ को ही परम्परा कहते हैं। परन्तु वास्तव में परम्परा के काम करने का ढंग जैविक वंशानुक्रमण या प्राणिशास्त्रीय विरासत के तरीके से मिलता-जुलता है, और वह भी जैविक वंशानुसंक्रमण की तरह कार्य को दालती व व्यवहार को निर्धारित करती है। उसी तरह (अर्थात् जैविक वंशानुसंक्रमण की तरह ही) परम्परा का भी स्वभाव बगैर टूटे खुद जारी रहने पर भूतकाल की उपलब्धियों को आगे आने वाले युगों में से जाने या उन्हें हस्तान्तरित करने का है। यह सब सच होने पर भी सामाजिक विरासत और परम्परा समान नहीं है। सामाजिक विरासत की अवधारणा परंपरा से अधिक व्यापक है। भोजन कपड़ा, मकान कुर्सी, मेज, पुस्तक, खिलौने, घड़ी, बिस्तर, जूते, बर्तन, उपकरण, मशीन, प्रविधि नियम, कानून, रीति-रिवाज, ज्ञान, विज्ञान, विचार, प्रथा, आदत, मनोवृत्ति आदि जो कुछ भी व्यक्ति को समाज से मिलता है, उस सबके योग को या संयुक्त रूप को हम सामाजिक विरासत कहते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सामाजिक विरासत के अन्तर्गत भौतिक तथा अभौतिक दोनों ही प्रकार की चीजें आती हैं, जबकि ‘परम्परा’ के अन्तर्गत पदार्थों का नहीं, बल्कि विचार, आदत, प्रथा, रीति-रिवाज, धर्म आदि अभौतिक पदार्थों का समावेश होता है। अतः स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत नहीं, ‘सामाजिक विरासत’ का एक अंग मात्र है।
‘परम्परा’ सामाजिक विरासत का अभौतिक अंग है। मशीन, मकान, फर्नीचर, बर्तन, मूर्ति, घड़ी, बिस्तर, जूते आदि असंख्य भौतिक पदार्थों की सामाजिक विरासत को हम परम्परा के अन्तर्गत सम्मिलित नहीं करते। परम्परा हमारे व्यवहार के तरीकों की द्योतक है, न कि भौतिक उपलब्धियों की। जिन्सबर्ग के शब्दों में, “परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।” जेम्स डीयर ने लिखा है, “परम्परा कानून, प्रथा, कहानी तथा किंवदन्ती का वह संग्रह है, जो मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।”
स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत का वह अभौतिक अंग है जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीकों का द्योतक है, और जिसकी निरन्तरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है ।वस्तृतः संस्कृति जीवन का आन्तरिक सौन्दर्य है तो सभ्यता इसके वाह्य साधनों की सुविधा है। सभ्यता साध्य है तो संस्कृति साधन है। अतः संस्कृति रूपी साधन से सभ्यता रूपी साध्य की प्राप्ति संभव है। हमारे सम्पूर्ण आदर्श, विश्वास, परम्पराएँ और ऐतिहासिक आख्यान भी मानव जीवन के लक्ष्य प्राप्ति के मुख्य साधन बन जाते हैं। किसी व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र की प्रगति एवं कल्याण के लिए सभ्यता, संस्कृति, परम्परा एवं इतिहास का अध्ययन अति आवश्यक हो जाता है। इस तरह सभी एक-दूसरे के पूरक बनकर मानव कल्याण के साधन बन जाते हैं। इस तरह संस्कृति एवं सभ्यता मानव जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए साधन एवं साध्य बनकर एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं।
हर रास्ता बंद होने पर,
ReplyDeleteनया रास्ता दिखाया आपने,
किताबी ज्ञान नहीं,
जीवन जीना सिखाया आपने,
अंधकार में था जीवन मेरा,
रोशनी का दीपक जलाया आपने,
बेमतलब थी जिंदगी मेरी,
इसे एक लक्ष्य दिलाया आपने।
आपने मुझे मेरे भविष्य को सुनहरा बनाने के लिए जितनी प्रेरणा दी है, वह मुझे ताउम्र याद रहेगी गुरुजी🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
अगर बेस्ट टीचर का अवॉर्ड देने का अधिकार मुझे होता, तो मैं हर बार यह अवॉर्ड आपको ही देती।
मैं जिंदगी में चाहे कितनी भी उन्नति क्यों न कर लूं, मैं हमेशा आपकी शिष्या कहलाना पसंद करूंगी गुरुजी। 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
ईश्वर करे हर पल आपका आशीर्वाद हमारे सिर पर बना रहे।आप दीर्घायु हों गुरुजी 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏