window.location = "http://www.yoururl.com"; An Introduction of Ancient Indian History (प्राचीन भारतीय इतिहास का परिचय).

An Introduction of Ancient Indian History (प्राचीन भारतीय इतिहास का परिचय).

विषय-प्रवेश (Introduction)

इतिहास का आधार अतीत होता है, वह अतीत बहुत दूर का भी हो सकता है और अभी हाल का भी संभव है। प्राचीन भारतीय इतिहास का अध्ययम बहुत ही रोचक है। यह अध्ययन अनेक दृष्टिओं से बहुत महत्वपूर्ण है, इसके द्वारा हमें ज्ञात होता है कि मानव समुदायों ने सभ्यता की उत्पत्ति और विकास कब, कैसे और कहाँ किया। हमारे देश में मानव समुदायों द्वारा प्राचीन संस्कृतियों के विश्वास का क्रम क्या रहा है, इसका अध्ययन भी हम प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन से ही प्राप्त करते हैं। अलगअलग समय में कीन सौ संस्कृतियाँ प्रचलित रही, अनेकानेक साम्राज्य का उत्थान और परम कैसे हुआ, सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था कैसे विकसित हुई. उनकी विशेषताएँ क्या क्या थी, उस समय धर्म का स्वरूप और प्रभाव क्या था, साहित्या, विज्ञान और कला के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियाँ कौन कौन सी थीं, और वह कौन से ऐसे कारक थे जिन्होंने प्राचीन भारत के गौरवपूर्ण इतिहास के क्रम में अवरोध उत्पत्र किया।

यह अध्ययन हमें यह बताता है की प्राचीन मानव समुदायों ने कृषि की शुरुआत कैसे की, जिस पर मानव जीवन सुरक्षित और स्थिर हुआ। यह अध्ययन हमें यह भी बताता है कि भारत के लोगों ने प्राकृतिक संपदाओं की खोज के लिए कैसे अथक प्रयास किया और उसका उपयोग किस प्रकार किया। आदिम युग से किस प्रकार उन्होंने अपनी जैविका के साधन जुटाए, इसका ज्ञान भी हमें प्राचीन भारत के इतिहास के अध्ययन से ही प्राप्त होता है। इसका अध्ययन हमें यह भी बताता है कि प्राचीन निवासियों ने कृषि के साथ शिल्प अर्थात बताई. बुनाई. धातु कर्म आदि की शुरुआत कैसे की, कैसे जंगलों की सफाई की और ग्रामों, नगरों, शहरों , महाजनपदों और अंतर राज्यों की स्थापना कैसे हुई।

भारत विभाजन की जो धारणाएं अतीत, वर्तमान तथा भविष्य के रूप में है, उनके वर्तमान हमारे समक्ष निसंदेह स्पष्ट है, भविष्य हमारे लिए अज्ञात है, अतीत की जानकारी अधिक से अधिक आंशिक ही है। किंतु वर्तमान पढ़ने से ठीक-ठीक क्या समझ में आता है, इसकी व्याख्या कठिन है। पहली बात यह कि जो घट चुका है वह अतीत है और जो नहीं घटा है वह भविष्य के गर्भ में है। इन दोनों छोरों के बीच की परिस्थिति वर्तमान के रूप में प्रतीत होती है। वर्तमान स्थिति में मानव किस प्रकार पहुंचा, इसे जिस कारण से इतिहास की सहायता से खोजना संभव है ठीक उसी कारण से इतिहास मानव जीवन में परिवर्तन की श्रृंखलाओं का परिचय भी दे देता है। आज का मानव जिस वस्तु के व्यवहार में अभ्यस्त हो गया है, वह कितने दिनों की घटना है? उस वस्तु के व्यवहार के पूर्व मानव का जीवन तवा जीवन यात्रा किस प्रकार की थी? पहले के व्यवहार हमारे जीवन में व्याप्त रहे हैं किंतु मानव कितने दिनों से उस पूर्व व्यवहार में लगा हुआ था? उसका आरंभ कैसे हुआ? पूर्व व्यवहार जब अज्ञात था तव मानव की जीवन यात्रा कैसी थी? इन प्रश्नों की उपेक्षा करना उचित नहीं। इन प्रश्नों के उठते ही अतीत की चर्चा करनी ही होगी। उसी समय इतिहास नामक विद्या की उपयोगिता का अनुभव होता है।

भारत-भूमि-

भारतीय उपमहाद्वीप के नाम से जो विशाल -भाग जाना जाता है वह तीन प्रधान भौगोलिक अंचलों में विभक्त है: (क) उत्तर का पर्वतीय क्षेत्र (स) सिंधु-नदी और गंगानदी की व्यवस्था के भीतर की विशाल भूमि, एवं (ग) विध्य पर्वत के दक्षिण में अवस्थित त्रिकोणाकार प्रायद्वीप । उपमहाद्वीप के इन तीनों क्षेत्रों में मानव समाज और संस्कृति में वो दीर्घकालीन विचित्रता दिखती है, उसके कारण की खोज करने पर अनेक प्रदेशों में भौगोलिक उपादानों को खोज पाना संभव है।

भारतवर्ष में देशत्व -बोधक धारणा अति प्राचीन व्यवहार में ढृढ़ थी। इस विषय पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। भारतवर्ष नाम में ‘भारत के रूप में पूर्वांश है उसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- भरत के वंशधर। एक जनसमुदाय या कौम (tribe जनजाति) की दृष्टि से ‘भरत’ नाम ऋग्वेद में मिलता है। एक भू-भाग के रूप में ‘भारतवर्ष’ नाम का संभवता प्रथम प्रयोग ई.पू. प्रथम शताब्दी के अंतिम भाग में उत्कीर्ण खारवेल की हाथीगुम्फा प्रशस्ति में हुआ है। इसकी प्राकृत भाषा में ‘भरधवस’ कहा गया है। किंतु इस प्रशस्ति में भू-भाग की दृष्टि से खारवेल ने भारतवर्ष को मगध और मथुरा से अलग रखा है अर्थात् कलिंगराज की दृष्टि में भयवस’ (भारतवर्ष) समस्त उपमहादीप नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि मगध और मथुरा के बीच गंगा की घाटी का क्षेत्र भारतवर्ष था। अंततः चतुर्थ-पंचम शतक से समुद्र से हिमालय तक के विशाल भूभाग का नाम भारतवर्ष चलने लगा। विष्णुपुराण में इसका श्रेष्ठ प्रमाण मिलता है। समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण जो प्रदेश या वर्ष है उसी का नाम भारतवर्ष है (वर्ष तद् भारत नाम)। कारण यह है कि वहां भरत के उत्तराधिकारी लोग निवास करते हैं (भारती यत्र संतति-)। एक स्पष्ट भौगोलिक नाम और परिचय यहाँ स्पष्ट प्रतीत होता है।

‘इंडिया’ नाम का प्रथम प्रयोग छठी-पांचवीं शताब्दी ई.पू. में हेरोडोटस ने किया था। वह उपमहाद्वीप में कभी नहीं आया था किंतु पारसी सूत्रों से इसके संबंध में सामग्री ली थी। उसी समय इसका नामकरण का आधार सुलभ था। हखामनी के दरायबोस ने जब निचले सिन्धु क्षेत्र तथा डेल्टा क्षेत्र के साथ उत्तर-पश्चिम भारत के कुछ भाग पर विजय की थी तब निम्न-सिन्धु और डेल्टा क्षेत्र पारसी साम्राज्य का एक प्रदेश सत्रपि (satrapy) के रूप में बस गया। उसका नाम ‘हिंदुस’ था। ईरानी भाषा में ‘स’ का उच्चारण नहीं हैअतः उसके स्थान पर ‘ह’ हो जाता है इसलिए जो अंचल सिन्धु नदी के आसपास था वह सिन्धु’ नाम से प्रसिद्ध था। इसलिए ईरानी लेखों में हिंदुश’ नाम चल पड़ा है। यूनानी भाषा में ‘ह’ ध्वनि नहीं होने के कारण ‘इंडिया’ नाम यूनानी विवरणों में चलने लगा। इस प्रकार ‘सिन्धु हिंदुश इंडिया’ का विकास हुआ। मेगस्थनीज़ , डियोडोरस, स्ट्राबो , एरियन इत्यादि के विवरणों को पढ़ने से संदेह नहीं रह जाता कि परवर्ती काल में इंडिया’ कहने से पूरे उपमहाहीप का बोध होता था।

विदेशी सूत्रों में इस उपमहाहीप का एक दूसरा नाम ‘हिन्दुस्तान’ है। बहुप्रचलित धारणा है कि हिंदुस्तान नाम मुसलमान लेखकों ने दिया जो वह समझते थे कि यह भू-भाग मूलतः बंदुओंहिन्दुओं का देश था। यह मत भ्रामक है। अरबी-फारसी पुस्तकों में हिंदुस्तान नामक देश के प्रसंग में अनेक बार आने पर भी इस नामकरण के पीछे धर्म की कोई भूमिका नहीं है। इस नाम का प्राचीनतम प्रयोग 262 ई. में उत्तीर्ण सासानीय शासक प्रथम शाहपुर के ‘नक्श-इ-रुस्तम’ लेख में मिलता है। हिंदुस्तान के समानार्थक यूनानी में ‘इंडिया’ तथा पहलवी में ‘हेन्दि’ शब्द आए हैं। तीसरा विदेशी नाम ‘शेन-दु’ चीन के स्रोतों से आया है। हानवंशीय प्रमाण के आधार पर कहा जा सकता है कि इस नाम का उल्लेख झांन कियान (Zhang Qian) अथवा चाकियेन ने किया था।

इतिहास(HISTORY)-

वस्तुतः इतिहास का प्रारम्भ उसी समय से होता है जबसे मानव पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। परन्तु मानव के कार्यों और विचारों को हेरोडोटस (Herodotus) ने 500 ई0 पू0 में क्रमबद्ध रूप दिया है। इसीलिए उसको इतिहास का जनक कहा जाता है। उसने जो घटनाएं विश्व में घटी, उनके विषय में अन्वेषण किया और अन्वेषणों के आधार पर उन घटनाओं का वर्णन किया। इन वर्णनात्मक घटनाओं को उसने ‘इतिहास’ (History) का नाम दिया। वह पहला व्यक्ति था जिसने घटनाओं को कथा के रूप में लिखा और इसीलिए उसको कथात्मक इतिहास (Storytelling History) का जन्मदाता माना जाता है। इतिहास का शाब्दिक अर्थ : ‘History’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन तथा ग्रीक शब्द ‘Historia’ से मानी जाती है जिसका अर्थ है जानना (Knowing) . भारतीय परम्परा के अनुसार ‘इतिहास’ शब्द का अर्थ है- (इति+ह+आस) ऐसा ही हुआ। इस शाब्दिक अर्थ द्वारा अतीत की घटनाओं की ओर संकेत दिया जाता है। ‘इतिहास’ शब्द के अतिरिक्त हमारे देश में ‘तवारीख’ शब्द और प्रचलित है। परन्तु वह शब्द इतिहास के वास्तविक अर्थ का बोध कराने में असफल है क्योंकि ‘तवारीख’ शब्द तारीख का बहुवचन है। इतिहास केवल तिथियों या तारीखों का ही संग्रह मात्र नहीं है वरन् इनसे अधिक है।

इतिहास की परिभाषा-

इतिहास की विभिन्न परिभाषाएँ उनकी व्याख्याओं सहित नीचे दी जा रही है–

‘इतिहास’ शब्द का दो अवों में प्रयोग होता है – एक घटनाओं का संकलन तथा दूसरा स्वयं एक घटना के रूप में प्रयोग किया गया है। इतिहास के निर्माण के लिए घटना का होना आवश्यक है। जब इतिहास स्वयं एक घटना है, तो प्रश्न यह उठता है कि वह घटना कब, कहाँ, कैसे और क्यों घटी? इतिहास इन प्रश्नों का ही उत्तर है। हेनरी जॉनसन का विचार है कि- ‘इतिहास विस्तृत रूप में प्रत्येक घटना है जो कि कभी घटित हुई।” इस प्रकार वह स्वयं अतीत काल से सम्बन्धित है, अर्थात भूतकालीन घटनाओं का उल्लेख ही इतिहास है। इसका अर्थ यह है कि उसमें प्राचीनकाल से लेकर एक क्षण पहले समाप्त हुए समय तक की घटनाओं का वर्णन आ जाना चाहिए। परन्तु इसका आशय नहीं है कि इसमें अतीत काल में सब जीवों अथवा विश्व में हुई सभी उथल-पुथल का विचार होना भी आवश्यक हो। इतिहास में केवल मानव जीवन पर प्रभाव डालने वाली घटनाओं का ही उल्लेख होता है।

डॉ० राधाकृष्णन ने इतिहास को राष्ट्र की स्मरणशक्ति कहा है। जिस प्रकार वैयक्तिक ऐक्य में स्मरण शक्ति का बहुत महत्व है, उसी प्रकार राष्ट्र की जातियों के लिए यह आवश्यक है और जातियों की स्मरण शक्ति ही इतिहास है। उनके इस कथन में पर्याप्त सत्यता है। इतिहास वेवल तिथि ही नहीं बताता, बल्कि, कैसे ‘,’कहाँ और क्यों जैसे प्रश्नों का भी उत्तर देता है। कुछ विद्वानों का विचार है कि इतिहास केवल युद्धों का ही विवेचन करती है, लेकिन उन्होंने इतिहास के दूसरे पक्ष को नहीं देखा जबकि इतिहास मानव समाज के प्रत्येक पहलू का वर्णन करता है।

इतिहास की सबसे उपयुक्त परिभाषा रेपसन महोदय ने दिया है, जो कि सत्य है – ‘इतिहास घटनाओं या विचारों की उन्नति का एक सुसम्बद्ध विवरण है। इसमें इतिहास की वैज्ञानिकता को भी स्पष्ट किया गया है। विज्ञान सुसंगठित एवं क्रमबद्ध ज्ञान होता है। इस परिभाषा में घटनायें एक-दूसरे से सम्बन्धित है वो इतिहास का निर्माण करती हैं। घटनाओं के तारतम्य को आधार बनाकर उनके क्रमबद्ध वर्णन करने से इतिहास की रचना होती है। प्रो० घाटे के अनुसार- ‘इतिहास हमारे सम्पूर्ण भूतकाल का वैज्ञानिक अध्ययन तथा लेखा-जोता है। घाटे ने आगे लिखा है कि – इतिहास को काल और देश की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता है क्योंकि इतिहास उस काल से मानव का अध्ययन करता है, जब से वह पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। इस प्रकार पृथ्वी पर मानव जीवन के विश्वास का अध्ययन ही इतिहास है।

एक अन्य इतिहासकार के अनुसार ‘इतिहास वह बौद्धिक स्वरूप है जिसमें सभ्यता अपने अतीत को चित्रित करती है।’

हेनरी जॉनसन का मत है कि ‘इतिहास स्वयं विकास का रूप है और इसीलिए यह पूर्णतया नवीन कभी नहीं रहा। इतिहास, अन्वेषण के रूप में प्रारम्भ हुआ और अब भी अन्वेषण है। इतिहास ने लेखा जोखा का रूप धारण कर लिया था, और अब भी वह एक लेखा है। इतिहास वह था जो वास्तविक रूप में घटित हआ और अब भी उसका वहीं रूप है। इतिहास वही रहा है जो मानव ने अतीत के प्रति सोचा और अब भी वहीं है जो हम सब अतीत के विषय में सोचते हैं। इस प्रकार इतिहास सदैव से अतीत की कृति रहा है।’ मेटलेण्ड का विचार है — ‘मानव ने जो कुछ किया और कहा है, यहाँ तक कि जो कुछ उसने सोचा है, वह इतिहास है।’

उक्त परिभाषाओं से स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास मानव जीवन के विकास की कहानी है। इसमें अतीत के मानव जीवन का ऐसे ढंग से विवेचन किया जाता है जिससे वर्तमान के मानव जीवन को सरलता से समझा जा सके। इतिहास मानव द्वारा निर्मित संस्थाओं के उद्गम, उनके विकास एवं उनके अतीतकालीन भेद तथा उनके वर्तमान स्वरूप आदि पर प्रकाश डालकर मानव को मानव से परिचित कराता है। अतः इस विश्व में हुई मानव की समस्त गतिविधियों का वर्णन इतिहास में किया जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व मानव का निवास स्थान है और इतिहास उसके विचारों, कार्यों, आन्दोलनों आदि का वर्णन करता है।

इतिहास की आधुनिक अवधारणा–

19वीं शताब्दी के अन्तिम चरण तथा 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब विज्ञान का बोलवाला हो गया था, तब इतिहास को समाज के सच्चे विज्ञान के रूप में देखा जाने लगा था। केवल इतिहासकारों ने ही नहीं, वरन् राजनीतिशास्त्रियों तथा दार्शनिकों ने भी इस विज्ञानों के विज्ञान (Science of Sciences) का अध्ययन करना प्रारम्भ कर दिया था। फिर भी इतिहास की प्रकृति के विषय में विवाद बना रहा। कुछ विद्वानों ने इतिहास को ‘कारण (Cause) तथा कार्य-कारण भाव (Causality) का सूचक माना। इसके विपरीत दूसरे विद्वानों ने इतिहास को समाज के सच्चे विधान या विज्ञानों के विज्ञान के रूप में देखा। आज कोई भी इस बात से सहमत नहीं होता कि इतिहास अलौकिक शक्तियों के हस्तक्षेप से प्रभावित होता है। इसी कारण आज इतिहास को उस अध्ययन क्षेत्र के रूप में देखा जाता है जो वास्तविकता का वर्णन करता है। इस अध्ययन क्षेत्र में वैज्ञानिक विधि का प्रयोग करके ही वास्तविकता की खोज की जाती है।

आज इतिहासकार इतिहास का निर्माण करने के लिए सर्वप्रथम तथ्यों (Facts) का संग्रह करता है। इसके उपरान्त वह उन तथ्यों का सत्यापन (Verification) करता है। तथ्यों का सत्यापन उसके समक्ष एक गम्भीर समस्या उत्पत्र कर देता है। समस्या यह है कि अतीत के अवशेष उसके समक्ष परिवर्तित तथा विकृत रूप में आते हैं। परन्तु आधुनिक युग ने ऐसे साधन उपलब्ध करा दिये हैं कि इनके परिवर्तित एवं विकृत रूप के होते हुए भी इतिहासकार वास्तविकता को खोजने में सफल हो जाता है। परन्तु जब वह अतीत के लिखित अभिलेखों, प्रतिवेदनों आदि के द्वारा इतिहास का निर्माण करता है तब उसे तथ्यों के सत्यापन में कठिनाई की अनुभूति करनी पड़ती है। उन अभिलेखों, प्रतिवेदनों आदि की विषय-वस्तु अविश्वसनीय हो सकती है। उस समय इतिहासकार को दूसरी लिखित सामग्री तथा अन्य प्रमाणों का प्रयोग करना पड़ता है। तभी वह वास्तविकता को प्रस्तुत करने में समर्थ हो सकता है। परन्तु ऐसा करना सभी क्षेत्रों में सम्भव नहीं है क्योंकि उनसे सम्बन्धित दूसरी अन्य सामग्री एवं प्रमाण प्राप्त नहीं होते हैं।

जब इतिहासकार तथ्यों की विश्वसनीयता का निर्धारण कर लेता है तब उसके बाद वह तथ्यों को उनके महत्त्व के अनुसार वर्गीकृत करता है। इसके उपरान्त वह वर्गीकरण की शुद्धता का सत्यापन करता है। ऐसा करने में वह कल्पना तथा पूर्वधारणाओं का प्रयोग करता है। इनका प्रयोग करना उसके लिए अनिवार्य है। यहाँ इतिहासकार का काल्पनिक होने का अर्थ यह नहीं है कि वह तथ्यों का आविष्कार करे। परन्तु उसकी कल्पना उसके स्रोतों द्वारा प्रदान की जाने वाली सूचनाओं से बंधी रहती है। अतः वह घटनाओं का आविष्कार नहीं कर सकता। कल्पना तथा पूर्वधारणाओं के प्रयोग के कारण ही गेटे (उदाप) ने कहा था कि इतिहास की समय-समय पर पुनः रचना की जानी चाहिए, क्योंकि प्रत्येक सन्तति नवीन रुचियों तथा वस्तुओं को नवीन ढंग से देखने तथा उनके प्रति नवीन दृष्टिकाण लेकर आगे बढ़ती हैं। ये नवीन दृष्टिकोण एवं रुचियाँ ही पूर्वधारणाएँ कहलाती हैं। अतः इन पूर्वधारणाओं से प्रभावित इतिहास को वास्तविकता पर पहुँचाने के लिए समय-समय पर उसकी पुनः रचना करना अनिवार्य है। अन्त में. इतिहासकार वर्गीकृत (Classified) तथ्यों का विश्लेषण करके एक सामान्य सिद्धान्त का निर्धारण करता है। अतः उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक धारणा के अनुसार इतिहास समाज का एक सच्चा विज्ञान है जो मानव समाज की विवेचना वैज्ञानिक विधि से करता है।

इतिहास की भारतीय अवधारणा–

प्राचीन भारतीय इतिहासकारों की संकल्पना आधुनिक इतिहासकारों की संकल्पना से पूर्णतया भिन्न थी। आधुनिक इतिहासकार ऐतिहासिक घटनाओं में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने का प्रयत्न करता है, किन्तु प्राचीन इतिहासकार केवल उन घटनाओं का वर्णन करता था जिनसे जनसाधारण को कुछ शिक्षा मिल सके। महाभारत में प्रस्तुत इतिहास की परिभाषा भारतीयों की इतिहास विषयक संकल्पना पर पर्याप्त प्रकाश डालती है, जिसमें उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि ऐसी प्राचीन रुचिकर कथा, जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की शिक्षा मिल सके, ‘इतिहास’ कहलाती है। इन पुरुषार्थों को करने की प्रेरणा देने में इतिहास भी एक साधन था, इसलिए प्राचीन भारतीय इतिहासकार उन घटनाओं को कोई महत्व नहीं देते थे, जिसे इन चारों पुरुषार्थो की शिक्षा न मिल सके। इसलिए प्राचीन भारत का इतिहास राजनीतिक कम, सांस्कृतिक अधिक है। भिन्न दृष्टिकोण से रचित होने के कारण अधिकांश भारतीय ग्रंथ आधुनिक परिभाषा के अंतर्गत यद्यपि इतिहास ग्रंथ नहीं हैं, तथापि उनमें बहुमूल्य ऐतिहासिक सामग्री अंतरित है।

‘इतिहास’ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हमें ‘अथर्ववेद’ में प्राप्त होता है। ‘अथर्ववेद में उल्लिखित है कि सृष्टि के आरंभ में जो परम पुरुष उत्पन्न हुआ, उसका अनुगमन इतिहास, पुराण, गाथाओं और नाराशंसियों ने किया। इस तथ्य को समझने वाले व्यक्तित्व में यह चारों (इतिहास, पुराण, गाथायें और नाराशंसियां) निहित होते हैं। इन चारों का इतिहास के आधुनिक अर्थ तथा इतिहास चेतना से गर्हित साम्य प्रतीत होता है। इतिहास का अर्थ इतिवृत है अर्थात् जो पहले होता आया है. पुराण उसकी पुनर्व्याख्या है। गाथा उससे निकला हुआ निष्कर्ष है, यह गाथा लोक-विश्वास में संचित और सुरक्षित रहती हैं। नाराशंसी उन मनुष्यों की प्रशंसा है, जो इतिहास, पुराण, गाथा में नायक के रूप में प्रतिष्ठापित हुए है। इस प्रकार इतिहास, पुराण, गाथा तथा नाराशंसी इन चारों को मिलाकर भारतीय परम्परा में ऐतिहासिकता की अवधारणा स्वीकार की जाती हैं। इस पराम्परा में इतिहास पुराण को वेदों की तरह जातीय विरासत स्वीकार किया गया है।
‘अथर्ववेद’ में ही इतिहास, पुराण को महाभूत (परम पुरुष) से ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद के साथ ही निकला हुआ अभिव्यक्त हैं। इसलिए इतिहास और पुराण को मिलाकर चार वेदों के साथ पाँचवों वेद मानने की परम्परा स्थापित हुई।

इतिहास, पुराण का सम्बन्ध मनुष्य समाज और हमारे विश्व के विवरण से हैं, परन्तु उसे वेद की श्रेणी में मानने का अर्थ है कि वेद की भाँति वह भी अनादि है तो उनमें वर्णित मनुष्य का चरित्र भी अनादि हैं। संक्षेप में इस परम्परा में निरवधि, निरवयव तथा अखण्ड के परिप्रेक्ष्य में ही सावधि सावयव इतिहास खण्ड की पहचान निहित हैं। इतिहास, पुराण आख्यान, इन तीनों की विभाजक रेखायें इस परम्परा में बड़ी क्षीण हैं, इन्हें एक-दूसरे के पर्याय के रूप में भी स्वीकार किया गया है। वात्स्यायन ने न्याय भाष्य में व्यक्त किया है कि इतिहास तथा पुराण दोनों का विषय लोकवृत्त हैं। इतिहास और पुराण दोनों को मिलाकर पाँचवाँ वेद भी वैदिक काल से स्वीकार किया जाता हैं। छन्दोग्य उपनिषद में इतिहास पुराण को पंचम वेद कहा गया है। इसके साथ ही आख्यान को भी पंचम वेद मानकर इतिहास पुराण से आख्यान की समाकारिता स्वीकार की गई है। इस पंचम वेद का अध्ययन अध्यापन उतना ही अनिवार्य था, जितना चारों वेद का अध्ययन अध्यापन करना। रामायण और महाभारत दोनों ग्रन्थों के लिए भी इतिहास के साथ साथ आख्यान’ की संज्ञा का प्रयोग अनेक बार हुआ है। बाल्मीकीय रामायण के रचयिता महर्षि बाल्मीकि ने श्रीराम के आख्यान को इतिहास कहा है।

भारत की मौलिक एकता–

प्राचीन भारतीय संस्कृति की विलक्षणता यह रही है कि इसमें उत्तर और दक्षिण के, तथा पूर्व और पश्चिम के सांस्कृतिक उपादान समेकित हो गए हैं। भारत प्राचीन काल से ही विविध धर्मों का प्रांगण रहा है। प्राचीन भारत में हिंदू, जैन और बौद्ध धर्मों का उदय हुआ, परंतु इन सभी धर्मों और संस्कृतियों का पारस्परिक सम्मिश्रण और प्रभाव- प्रति प्रभाव इस प्रकार हुआ कि लोग भले ही भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलते, भिन्न-भिन्न धर्मों को मानते और भिन्न-भिन्न सामाजिक रीति-रिवाजों पर चले हों, पर सारे देश में सभी की एक सामान्य जीवन पद्धति है। हमारे देश में विविधताओं के बावजूद भीतर से गहरी एकता झलकती है।

प्राचीन भारत के लोग एकता के लिए प्रयत्नशील रहे। उन्होंने इस विशाल उपमहाद्वीप को एक अखंड देश समझा। सारे देश को भरत नामक एक प्राचीन वंश के नाम पर भारतवर्ष (अर्थात् भरतों का देश) नाम दिया गया और इसके निवासियों को भरत संतति कहा गया। हमारे प्राचीन कवियों, दार्शनिकों और शास्त्रकारों ने इस देश को अखंड इकाई के रूप में देखा। हिमालय से समुद्र तक फैली इस भूमि की उन्होंने सार्वभौम (सकल देशव्यापी) राजा के द्वारा शासित क्षेत्र के रूप में कल्पना की है। हिमालय से कन्याकुमारी तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र की घाटी से पश्चिम में सिंधु-पार तक अपना राज्य फैलाने वाले राजाओं का व्यापक रूप से यशोगान किया गया है। ऐसे राजा चक्रवर्तिन कहलाते थे। देश में इस प्रकार की राजनीतिक एकता कम से कम दो बार प्राप्त हुई थी। ईसा पूर्व तीसरी सदी में अशोक ने अपना साम्राज्य सुदूर दक्षिण तक सारे देश में फैलाया। फिर ईसा की चौथी सदी में समुद्रगुप्त की विजय पताका गंगा की घाटी से तमिल देश के छोर तक पहुंची। सातवीं सदी में चालुक्य राजा पुलकेशिन ने हर्षवर्धन को हराया जो संपूर्ण उत्तर भारत का अधिपति माना जाता था। राजनीतिक एकता के अभाव की स्थिति में भी, सारे देश में राजनीतिक ढाँचा कमोवेश एक जैसा रहा। विजेताओं और सांस्कृतिक नेताओं के मन में भारत का भान अखंड भूमि के रूप में ही हुआ है। भारत की इस एकता को विदेशियों ने भी स्वीकारा है। वे सर्वप्रथम सिंधु तटवासियों के संपर्क में आए और इसलिए उन्होंने पूरे देश को ही सिंधु या ”इंडस” नाम दे दिया। ईरानी भाषा में हिंद शब्द संस्कृत के सिंधु से निकला है। इस शब्द का प्रयोग छठी सदी ई0 पू0 के ईरानी अभिलेखों में सिंधु क्षेत्र के लिए किया गया है। कालक्रमेण हमारा देश इंडिया के नाम से मशहूर हुआ जो इसके यूनानी पर्याय के बहुत निकट है; यह फारसी और अरबी भाषाओं में हिंद नाम से विदित हुआ। हिंदुस्तान शब्द पहले-पहल तीसरी सदी में ईरान के सासानी शासकों के अभिलेखों में मिलता है। इसका प्रयोग भी सिंधु क्षेत्र के लिए हुआ था।

देश में भाषात्मक और सांस्कृतिक एकता स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयास होते रहे हैं। ईसा पूर्व तीसरी सदी में प्राकृत देश भर की संपर्क भाषा (लिंगुआ फ्रका) का काम करती थी। सारे देश के प्रमुख भागों में अशोक के शिलालेख प्राकृत भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखे गए थे। बाद में वह स्थान संस्कृत ने लिया और देश के कोने-कोने में राजभाषा के रूप में प्रचलित हुई। यह सिलसिला ईसा की चौथी सदी में आकर गुप्तकाल में और भी मजबूत हुआ। यद्यपि गुप्तकाल के बाद देश अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बँट गया, फिर भी राजकीय दस्तावेज संस्कृत में ही लिखे जाते रहे। यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन महाकाव्य रामायण और महाभारत तमिलों के प्रदेश में भी वैसे ही आह्लाद और भक्ति भाव से पड़े जाते थे जैसे काशी और तक्षशिला की पंडित मंडलियों में। इन दोनों महाकाव्यों की रचना मूलतः संस्कृत में हुई थी। बाद में इन्हें विभिन्न स्थानीय भाषाओं में भी प्रस्तुत किया गया। परंतु भारत के सांस्कृतिक मूल्य और चिंतन चाहे जिस किसी भी रूप में प्रस्तुत किए जाएँ, उनका सारतत्त्व सारे देश में एक-सा रहा है।

भारतीय इतिहास की यह विशेषता है कि यहाँ एक विचित्र प्रकार की सामाजिक व्यवस्था उदित हुई है। उत्तर भारत में वर्ण व्यवस्था या जाति प्रथा का जन्म हुआ जो सारे देश में व्याप्त हो गई। प्राचीन काल में जो लोग बाहर से आए वे भी किसी-न-किसी वर्ण या जाति में मिल गए। वर्णव्यवस्था ने ईसाइयों और मुसलमानों को भी प्रभावित किया। धर्म परिवर्तन करने वाले लोग किसी-न-किसी जाति के थे और वे हिंदू धर्म को छोड़ नए धर्म में दीक्षित हो जाने पर भी पूर्ववत् चलते रहे।

इतिहास की प्रासंगिकता–

आधुनिक काल में हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं उनके संदर्भ में भारत के अतीत का अध्ययन का विशेष महत्व है। प्रकृतिमूलक और मानवमूलक कठिनाइयों पर विजय पाने में हमारे पूर्वजों को जो सफलता मिली है, उससे हमें भविष्य के लिए प्रेरणा मिलती है। इसलिए सही ढंग से अतीत का मर्म समझना आवश्यक है।

प्राचीन भारत का इतिहास केवल उन्हीं लोगों के लिए प्रासंगिक नहीं है जो जानना चाहते हैं कि अतीत का वह उज्ज्चल स्वरूप क्या है जिसे लोग फिर से लौटाना चाहते हैं, बल्कि उन लोगों के लिए भी है जो देश की प्रगति में बाधा डालने वाले तत्वों को पहचानना चाहते हैं।

1 Comments

  1. मेरे जीवन में बहुत योगदान है आपका गुरुजी,
    जो कुछ भी है मुझ में वों ज्ञान है आपका गुरुजी,
    ब्रह्मा विष्णु महेश सभी रूप है आप में,
    इसलिए मेरे लिए बहुत मान है गुरुजी आपका।


    गुरु ही सींचे बुद्धि को, उत्तम करे विचार,
    जिससे जीवन शिष्य का, बने स्वयं उपहार।
    Thanks a lot Teacher🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
    ALL TIME MY SUPPORTIVE TEACHER...

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