window.location = "http://www.yoururl.com"; Mahajanpada period and Rise of Magadh Empire (महाजनपद काल और मगध साम्राज्यका उत्कर्ष).

Mahajanpada period and Rise of Magadh Empire (महाजनपद काल और मगध साम्राज्यका उत्कर्ष).

विषय-प्रवेश (Introduction)

ई० पू० छठी शताब्दी में भारतीय राजनीति में एक नया परिवर्तन दृष्टिगत होता है और वह है-अनेक शक्तिशाली राज्यों का उदय और विकास। अधिशेष उत्पादन, नियमित कर व्यवस्था ने राज्य संस्था को मजबूत बनाने में योगदान दिया और सामरिक रूप से शक्तिशाली तत्वों को इस अधिशेष एवं लौह तकनीक पर आधारित उच्च श्रेणी के हथियारों से जन से जनपद एवं साम्राज्य बनने में काफी योगदान मिला।
महाजनपद सोलह राज्यों का एक समूह था जो प्राचीन भारत में मौजूद थे। यह सब तब शुरू हुआ जब उत्तर वैदिक काल के जनों ने स्वयं के प्रादेशिक समुदायों के गठन का फैसला किया, जिसने अंततः ‘राज्यों’ या ‘जनपदों’ नामक बस्तियों के नए और स्थायी क्षेत्रों को जन्म दिया। वैदिक काल में राजनीतिक संगठन का मुख्य आधार ‘जन‘ था। प्रारम्भ में इनका कोई सर्वथा निश्चित स्थान नही होता था और अपनी आवश्यकताओं के अनुसार ये एक स्थान से दूसरे स्थान में निवास करते थे। पर जल्द ही ये निश्चित स्थानों पर बस गये। अब इनका भौगोलिक आधार बना जिसके कारण उन्हे ‘‘जनपद‘‘ कहा जाने लगा। जनपद का अर्थ है – जन द्वारा अधिकृत क्षेत्र। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में वर्तमान बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश राजनीतिक गतिविधियों के केंद्र बन गए क्योंकि यह क्षेत्र न केवल उपजाऊ था, बल्कि लौह उत्पादन केंद्रों के भी करीब था। लोहे के उत्पादन ने क्षेत्र के क्षेत्रीय राज्यों के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई भारतीय क्षेत्र में नगरों के विकास का द्वितीय दौर प्रारम्भ हुआ। जनपद के पूर्व में लगे ‘महा‘ शब्द से स्पष्ट है कि ये राज्य अपेक्षाकृत बडे भू-विस्तार वाले राज्य थे। महाजनपद काल में इनका आपस में संघर्ष होना स्वाभाविक था जिसके कारण निर्बल राज्य समाप्त होते गये और शाक्तिशाली राज्यों में विलिन हो गये। इन 16 महाजनपदों में कुछ में राजतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था थी जबकि कुछ महाजनपदों में गणतन्त्रात्मक शासन व्यवस्था का प्रचलन था। राजतन्त्र में सत्ता एक व्यक्ति राजा के हॉथों में केन्द्रित था जबकि गणतंत्रात्मक शासन में राज्यों का प्रशासन जनसामान्य की सहभागिता से होता था। इनमें से वज्जि और मल्ल गणतंत्रात्मक महाजनपद थे और अधिकांश महाजनपदों में राजतन्त्र का प्रचलन था।
जनों के बसने के प्रारंभिक चरण बुद्ध के समय से पहले हुए थे, इसलिए इन ‘महाजनपदों’ के ऐतिहासिक संदर्भ प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में पाए जा सकते हैं। बौद्ध ग्रन्थ ‘अंगुत्त्तर निकाय‘ तथा ‘ जैन ग्रन्थ ‘भगवती सूत्र‘ में इस समय 16 महाजनपद की सूची मिलती है। इन्हे इतिहास में ‘‘षोडस महाजनपद‘‘ के नाम से जाना जाता है।

सोलह महाजनपद –

बुद्ध के समय हमें सोलह महाजनपदों की सूचि प्राप्त होती है जिसका विवरण निम्न है –

क्रम महाजनपद राज्धानी शासक
1 अंग चम्पा ब्रह्मदत्त
2गांधार तक्षशिला चंरदवर्मन , सुदक्षिण
3कम्बोज हाटक
4अश्मक पोतन/पोटली
5वत्स कौशाम्बी उदयन
6अवन्ति उज्जयिनी, महिष्मति चंद्रप्रद्योत
7शूरसेन मथुरा अवन्तीपुत्र
8चेदी शुक्तिमती उपचार
9मल्ल कुशीनारा गणतंत्र
10कुरु इन्द्रप्रस्ठ कोराव्य
11पांचाल काम्पिल्य
12मत्स्य विराट नगर विराट
13वज्जि विदेह, मिथिला गणतंत्र
14काशी वाराणसी, बानर, अश्वसेन
15कोशल श्रावस्ती, अयोध्या प्रसेनजीत
16मगध गिरिव्रज, राजगृह बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग

षोडस महाजनपद -

अधिकतर राज्य विन्ध्य के उत्तर में, उत्तरी और पूर्वी भारत में और उत्तर पश्चिमी सीमा से बिहार तक फैले हुए थे।
(1) अंग- यह सबसे पूर्व में स्थित जनपद था। इसके अन्तर्गत आधुनिक मुंगेर और भागलपुर जनपद सम्मिलित थे और यह एक समृद्ध राज्य था। इसकी राजधानी चम्पा थी। चम्पा नदी अंग को मगध से अलग करती थी। अन्ततोगत्वा मगध ने इसे अपने राज्य में मिला लिया था।
(2) मगध – इसमें आधुनिक पटना तथा गया व शाहाबाद जिले के हिस्सों का समावेश होता था। मगध अंग और वत्स राज्यों के बीच स्थित था। राज्य उत्तर में गंगा, पूर्व में चंपा नदी और पश्चिम में सोन नदी से घिरा था। इसकी प्राचीनतम राजधानी गिरिव्रज थी लेकिन बाद में राजगृह को राजधानी बनाया गया। राजगृह पॉच पहाडियों से घिरा अभेद्य शहर था। राजगृह की दीवारें भारत के इतिहास में किलेबन्दी का प्राचीनतम उदाहरण है। प्रारम्भ में यह एक छोटा राज्य था पर इसकी शक्ति में निरन्तर विकास होता गया। उपजाउॅ खेतीहर जमीन, दक्षिण बिहार के कच्चे लोहे के भण्डार और गंगा,गण्डक और सोन नदियों के व्यापार मार्गो पर इसके नियंत्रण के कारण इसे काफी राजस्व प्राप्त हो जाता था। प्राचीन ग्रंथों महाभारत और पुराणों के अनुसार, बृहद्रथ मगध के सबसे पहले ज्ञात शासक थे और जरासंघ अत्यन्त प्रतापी शासक था। कालान्तर में राजा बिंबिसार द्वारा भी राज्य का शासन किया गया जिसके तहत मगध का विस्तार और विकास हुआ।
(3)काशी- प्राचीन काशी उत्तर में वरुणा नदी और दक्षिण में असि नदी से बंधी थी। काशी का साम्राज्य जिसकी राजधानी वाराणसी में थी, बुद्ध के समय से पहले ‘महाजनपदों’ में सबसे शक्तिशाली था। कई प्राचीन ग्रंथ काशी के बारे में बहुत कुछ बोलते हैं, जो अपने उत्तराधिकार के दौरान सबसे समृद्ध राज्यों में से एक था। इसलिए काशी सदैव कौशल, मगध और अंग के राज्यों के साथ लगातार संघर्ष में था, जो काशी को घेरने की कोशिश कर रहे थे। अन्ततः इसने कोसल की शक्ति के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और कालान्तर में काशी को अजातशत्रु ने मगध में मिला लिया।
(4)कोसल – इसकी राजधानी श्रावस्ती थी। इस राज्य का विस्तार आधुनिक उत्तर-प्रदेश के अवध क्षेत्र में था। कोसल की एक महत्वपूर्ण नगरी अयोध्या थी जिसका सम्बन्ध राम के जीवन से जुडा हुआ है। कोसल को सरयू नदी दो भागों में बाँटती थी- उत्तरी कोसल जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी और दक्षिणी कोसल जिसकी राजधानी कुशावती थी। यहाँ का राजा बुद्ध का समकालीन प्रसेनजित था। रामायण में इसकी राजधानी अयोध्या बताई गई है जबकि बौद्ध ग्रन्थों में इसकी राजधानी श्रावस्ती बताया गया है। बौद्ध ग्रन्थों में इस राज्य के एक अन्य प्रसिद्ध नगर साकेत का उल्लेख मिलता है।
(5) वज्जि – महाजनपद काल में मगध और गंगा नदी के उत्तर में नेपाल की पहाडियों तक विस्तृत यह राज्य आठ कुलों के संयोग से बना था और इनमें तीन कुल प्रमुख थे – विदेह, वज्जि एवं लिल्छवि। इसकी राजधानी वैशाली थी। पश्चिम में गण्डक नदी इसकी सीमा बनाती थी और पूर्व में इसका विस्तार कोसी और महानंदा नदियों के तटवर्ती जंगलों तक था। लिच्छवियों को विश्व का पहला गणतन्त्र होने का गौरव प्राप्त है। बुद्ध और महाबीर के समय यह राज्य बहुत शक्तिशाली था।
(6) मल्ल – वर्तमान समय में पूर्वी उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और देवरिया के जिले इसके अन्तर्गत शामिल थे। इसके दो भाग थे। एक की राजधानी कुशीनारा थी और दूसरे की पावा थी। कुशीनारा में ही गौतमबुद्ध की मृत्यु हुई थी जिसे आज कुशीनगर के नाम से जाना जाता है। कुशीनारा की पहचान देवरिया जिले के कसया नामक स्थान से की गयी है। अन्ततः मल्ल राज्य को भी मगध साम्राज्य में विलिन कर लिया गया।
(7) चेदि – इसके अन्तर्गत यमुना और नर्मदा के बीच का क्षेत्र शामिल था। सामान्यतया यह क्षेत्र यमुना नदी के किनारे स्थित था। यह कुरु महाजनपद ही आधुनिक बुन्देलखण्ड का इलाका था। चेदि जन भारत की एक प्राचीन जाति थी जिसकी एक शाखा कलिंग में बसी जिसमें सुप्रसिद्ध नरेश खारवेल उत्पन्न हुआ था। कृष्ण का शत्रु शिशुपाल चेदियों का ही शासक था।
(8) वत्स- इसके अन्तर्गत इलाहाबाद और उसके आसपास के क्षेत्र शामिल थे और इसकी राजधानी कौशाम्बी थी। संस्कृत साहित्य में प्रसिद्ध उदयन जो बुद्ध का समकालीन माना जाता है, इसी जनपद से संबन्धित था। वत्स लोग वही कुरुजन थे जो हस्तिनापुर के उत्तरवैदिक काल के अन्त में बाढ़ से बह जाने पर उसे छोड़कर प्रयाग के समीप कौशाम्बी में आकर बसे थे। भास द्वारा रचित नाटक स्वप्नवासवदत्ता उदयन और अवन्ति की राजकुमारी वासवदत्ता के बीच प्रेम सम्बन्ध की कहानी पर आधारित है। हर्ष रचित ‘‘प्रियदर्शिका‘‘ नाटिका में अंग के राजा दृढवर्मा की पुत्री से उदयन के विवाह का उल्लेख है।
(9) कुरु – इस महाजनपद के अन्तर्गत थानेश्वर, दिल्ली और मेरठ के जिले शामिल थे और इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ थी, जिसकी स्मृति दिल्ली के निकट इन्द्रपत गॉव में सुरक्षित मिलती है। हस्तिनापुर इस राज्य का एक अन्य प्रसिद्ध नगर था। बुद्ध के समय तक कुरू राज्य का प्राचीन गौरव अस्त हो चुका था।
(10) पांचाल – आधुनिक बरेली, बदायूँ और फर्रुखाबाद के जिले पांचाल जनपद का निर्माण करते थे। इसके दो भाग थे – उत्तरी पांचाल तथा दक्षिणी पांचाल। उत्तरी पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र और दक्षिणी पांचाल की राजधानी काम्पिल्य थी। उत्तरवैदिक काल की तरह कुरु एवं पांचाल प्रदेशों का अब महत्व नहीं रह गया था। उपनिषद् काल में इसके राजा प्रवाहण जैवलि का एक दार्शनिक राजा के रूप में उल्लेख हुआ है।
(11) मत्स्य – इस राज्य का विस्तार आधुनिक राजस्थान के अलवर जिला से चम्बल नदी तक था और इसकी राजधानी विराट नगर थी और विराट नगर की स्थापना विराट नामक व्यक्ति ने की थी। महाभारत के अनुसार, पाण्डवों ने यहॉ अपना अज्ञातवास का समय बिताया था।
(12) शूरसेन – मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों में शूरसेन जनपद का उदय और विकास हुआ। मथुरा शूरसेन राज्य की राजधानी थी। यहाँ का शासक अवंतिपुत्र महात्मा बुद्ध का अनुयायी था। महाभारत और पुराणों में यहॉ के राजवंशों को यदु अथवा यादव कहा गया है।
(13)अश्मक – यह राज्य गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित था जिसकी राजधानी पोतना थी। यहाँ के शासक इक्ष्वाकुवंश के थे। 16 महाजनपदों में अश्मक एकमात्र दक्षिण भारत के क्षेत्र में अवस्थित राज्य था।
(14) अवन्ति – आधुनिक मालवा व मध्य प्रदेश के कुछ भाग मिलकर अवंति जनपद का निर्माण करते थे। प्राचीन काल में अवंति के दो भाग थे (1) उत्तरी अवंति- जिसकी राजधानी उज्जयिनी अर्थात उज्जैन थी तथा दक्षिणी अवन्ति जिसकी राजधानी महिष्मती थी। चण्ड प्रद्योत यहाँ का एक शक्तिशाली राजा था जिसने वत्सराज उदयन को बन्दी बनाया था। यह बौद्ध धर्म का एक प्रसिद्ध केन्द्र भी था। बुद्धकालीन 04 शक्तिशाली राजतंत्रों में से एक अवन्ति का राज्य भी था। मगध सम्राट शिशुनाग ने अवंति को जीतकर अपने राज्य में मिला दिया।
(15) गांधार – इस जनपद के अन्तर्गत अफगानिस्तान का पूर्वी भाग, काश्मीर घाटी का क्षेत्र, तक्षशिला सहित पंजाब का पश्चिमोत्तर प्रदेश सम्मिलित था। सीमान्त प्रदेश में अवस्थित होने के कारण यह व्यापान का प्रमुख केन्द्र था।इसकी राजधानी तक्षशिला थी जो प्राचीन काल में विद्या एवं व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र थी। छठी शताब्दी ई० पू० में गंधार में पुष्कर सारिन राज्य करता था। इसने मगध नरेश बिम्बिसार को अपना एक राजदूत तथा एक पत्र भेजा था।
(16) कंबोज – बौद्ध ग्रन्थों से विदित होता है कि कम्बोज गान्धार जनपद का पडोसी राज्य था। इसकी राजधानी राजपुर थी और इसकी दूसरी मुख्य नगरी द्वरारका थी। यह आधुनिक काल के राजौरी एवं हजारा जिलों में स्थित था। यह राज्य अपने शानदार घोडों के लिए प्रसिद्ध था।

मगध साम्राज्य का उत्कर्ष और विस्तार –

छठी शताब्दी ई० पू० के उत्तरार्द्ध में चार राज्य अत्यधिक शक्तिशाली थे – काशी, कोसल, मगध और वज्जि संघ। लगभग सौ साल तक ये अपने राजनीतिक प्रभुत्व के लिए लड़ते रहे। इस संघर्ष ने साम्राज्यवाद की उस प्रक्रिया को जन्म दिया जिसमें निर्बल और छोटे जनपद धीरे-धीरे शक्तिशाली जनपदों में विलिन हो गये और अन्ततः इन चार राज्यों में ही साम्राज्य की स्थापना की होड प्रारम्भ हो गयी। इस प्रतिस्पर्घा और प्रतिद्वन्दिता में अन्ततोगत्वा मगध को विजय मिली एवं यह उत्तर भारत में राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्रिय स्थल हो गया।
छठी शताब्दी ई0पू0 में मगध एक छोटा सा राज्य था लेकिन वहॉ की प्राकृतिक दशा, भौगोलिक कारण तथा योग्य व महत्वाकांक्षी शासकों ने मगध को एक साम्राज्य के रूप में परिवर्तित कर दिया। मुख्यतः साम्राज्य की सफलता या असफलता मुख्यतः राजतंत्रात्मक शासन में बहुत कुछ पर निर्भर करती है। सौभाग्य से मगध को बिम्बिसार, अजातशत्रु एवं शिशुनाग जैसे कुशल, शक्तिशाली और कूटनीतिक शासकों का सानिध्य प्राप्त हुआ जिन्होने मगघ को सही अर्थो में एक साम्राज्य के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन इसके साथ-साथ अन्य कारकों ने भी इस कार्य में योगदान दिया।
भौगोलिक दृष्टिकोण से मगध की स्थिती अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। मगध की राजधानी उस स्थल के निकट थी, जहॉ लोहे के पर्याप्त भण्डार थे। परिणामस्वरूप शस्त्र निर्माण की दृष्टि से मगध की स्थिती अपने प्रतिद्वन्दी राज्यों की तुलना में महत्वपूर्ण बन गई। अन्य परिस्थितीयों की दृष्टि से भी मगध की स्थिती महत्वपूर्ण थी। मगध की राजधानियॉ राजगृह और पाटलिपुत्र सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों पर स्थित थी। राजगृह पॉच पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ था जहॉ शत्रु के लिए पहुॅचना दुष्कर कार्य था तो पाटलिपुत्र गंगा, गण्डक और सोन नदियों से आवृत था। इसके अतिरिक्त मगध के राजाओं को वेतनभोगी सैनिकों को भर्ती करने में कोई कठिनाई नही थी क्योंकि मगध के समीप ही महाकान्तार था जहॉ वन्य जातियॉ बसती थी। यह सुविधा किसी अन्य पडोसी राज्यों को प्राप्त नही था। यह भी महत्वपूर्ण है कि दक्षिण बिहार के घने जंगलों में हाथियों की प्रचुरता थी जिनका प्रयोग युद्ध कार्यो में मुख्यतः शत्रुओं के दुर्ग को ध्वस्त करने में किया गया।
यह भी कहा जाता है कि इस क्षेत्र में ब्राह्मण प्रतिक्रियावादी विचार श्रेष्ठता प्राप्त न कर सका और यहॉ उदारता व समन्वय का माहौल बना रहा जिससे मगध में विस्तृत दृष्टिकोण का विकास हुआ जो विशाल साम्राज्य के निर्माण में सहायक बना।
महाभारत और पुराणों से पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में बृहद्रथ ने गिरिव्रज को राजधानी बनाकर मगघ में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित किया था। इस प्रकार वृहद्रथ को ही मगध साम्राज्य का संस्थापक माना जाता है। इस वंश का सबसे प्रतापी राजा जरासंघ था जो वृहद्रथ का पुत्र था। ऐतिहासिक रूप मगध साम्राज्य का साक्ष्य हमें हर्यक वंश से प्राप्त होने लगते है।

हर्यक वंश और बिम्बिसार –

मगध साम्राज्य के साम्राज्यवादी और ऐतिहासिक स्वरूप का प्रवर्तक अथवा संस्थापक हर्यक राजवंश का शासक बिम्बिसार था जिसका शासनकाल 545 ई0पू0 से 493 ई0पू0 माना जाता है।। वह दक्षिणी बिहार के एक छोटे से सामन्त का पुत्र था। डी0 आर0 भण्डारकर का अनुमान है कि बिम्बिसार शुरू में लिच्छवियों का सेनापति था जो उस समय मगध पर शासन कर रहे थे। ‘‘महावंश‘‘ में कहा गया है कि बिम्बिसार जब 15 वर्ष का था तब उसके पिता ने उसका राजतिलक किया था। बिम्बिसार हर्यक वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो बुद्ध का समकालीन था। इसका उपनाम ‘श्रेणिक‘ था जिसने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाया। एक कुशल और महत्वाकांक्षी कूटनीतिज्ञ शासक की भॉति बिम्बिसार ने तात्कालीन राजनीतिक परिस्थितीयों का सही आकलन किया और अपनी दूरदर्शिता पूर्ण नीति से मगध साम्राज्य की सीमा और प्रभुत्व को फैलाने का प्रयास किया। एक कुशल राजनीतिक खिलाडी की भॉति उसने यह महसूस किया कि समकालीन राजनीतिक शक्तियों को युद्ध क्षेत्र में एक साथ परास्त कर पाना मगध के लिए संभव नही है, इसलिए उसने कुछ राजवंशों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जो उसके राज्य की समवर्ती सीमाओं को सुरक्षित रखने में सहायक बने तथा अन्य दिशाओं में उसकी विस्तारवादी नीति के समर्थक।
उसने कोशल देश के राजा प्रसेनजित की बहन कौशलया देवी के साथ विवाह किया जिसमें दहेज स्वरूप एक लाख के वार्षिक राजस्व वाला काशी ग्राम मिला। उल्लेखनीय है कि काशी ग्राम मगध को कौशलया देवी के ‘स्नान व श्रृंगार‘ के खर्च को पूरा करने के लिए दिया गया था। लिच्छवी राज चेटक की पुत्री चेल्लना से बिम्बिसार ने दूसरा विवाह किया जिसके कारण वज्जि संघ से उसके सम्बन्ध सुधरे थे। इस वैवाहिक सम्बन्ध से न केवल उसने अपने साम्राज्य की सीमा को सुरक्षित कर लिया अपितु व्यापारिक लाभ भी प्राप्त करने में सफल रहा। पंजाब के मद्र नरेश की पुत्री से उसने अपना तीसरा विवाह किया। उसकी चौथी पत्नी वासवी थी जो विदेह के राजा की पुत्री थी। इससे विवाह कर अपने शत्रु अंग देश को उत्तर पश्चिम की ओर से उसने मित्रविहिन कर दिया। वैवाहिक सम्बन्धों के अतिरिक्त बिम्बिसार ने कुछ अन्य राज्यों के साथ राजनीतिक सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर मगध की स्थिती को और अधिक सुदृढ बनाने में सफल रहा। एक बार अवन्ति के राजा प्रद्योत जब पाण्डुरोग अर्थात पीलिया से ग्रसित हो गया था तो बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को उनके उपचार के लिए भेजा। इस प्रकार अवन्ति के साथ भी उसने सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिए। इस प्रकार बिम्बिसार ने अपने शत्रु राज्यों के विरूद्ध आक्रमण नीति का अनुसरण करते हुए अंग राजा ब्रह्मदत्त को मार दिया और कूटनीति के बल पर उसने अंग तथा काशी राज्य के एक बडे भाग को मगध में मिला लिया। अंग ही एकमात्र ऐसा महाजनपद था जो बिम्बिसार के आक्रमण का शिकार हुआ। इस प्रकार मगध निरन्तर विस्तार की ओर बढता गया और तब तक बढता गया जबतक महान अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद अपनी तलवार नहीं रख दी। बिम्बिसार के समय मगध की राजधानी गिरिव्रज थी जो पाँच पहाड़ियों से घिरी थी। अनुश्रुति के अनुसार बिम्बिसार की उसके पुत्र अजातशत्रु द्वारा हत्या कर दी गयी।

अजातशत्रु : (492-460 ई० पू०)

यह बिम्बिसार के पश्चात मगध की गद्दी पर बैठा। इसका एक नाम कूणिक भी था। उसने अपनी आक्रामक नीति से मगध साम्राज्य का विस्तार किया तथा उसकी प्रभुता और शक्ति सम्पन्नता को ऊॅचाईयों के नये आयाम प्रदान किये। अजातशत्रु का शासनकाल हर्यक राजवंश का चरमोत्कर्ष माना जाता था। बिम्बिसार की मृत्यु के शोक में उसकी रानी, जो कोसलराज प्रसेनजित की बहन थी, के मर जाने पर नाराज होकर प्रसेनजित ने काशी प्रान्त पुनः वापस ले लिया। काशी के प्रश्न पर अजातशत्रु एवं प्रसेनजित में युद्ध छिड़ गया जिसमें कोसल की हार हुई परन्तु दोनों में सन्धि हो गयी। काशी पर पुनः मगध का अधिकार हो गया एवं कोसल की राजकुमारी वजिरा की शादी अजातशत्रु के साथ हो गयी।
अजातशत्रु का वज्जिसंघ के साथ भी युद्ध हुआ। अजातशत्रु ने अपने एक ब्राह्मण मन्त्री वस्सकारको वज्जिसंघ में फूट डालने के लिए भेजा। वस्सकार सफल हुआ और अजातशत्रु ने वज्जिसंघ को पराजित कर दिया। उसने वैशाली के युद्ध में ही रथमूसल और महाशिलाकंटक नामक नये हथियारों का उपयोग किया। रथमूसल एक प्रकार का रथ होता था जिसमें गदा लगी होती थी और महाशिलाकंटक एक प्रकार का इंजन होता था।
अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह की सुरक्षा हेतु एक मजबूत दुर्ग का निर्माण करवाया। उसके शासनकाल के ऑठवे वर्ष में बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ था और बुद्ध के कुछ अवशेषों को लेकर राजगृह में उसने एक स्तूप का निर्माण करवाया। अजातशत्रु के समय राजगृह के सप्तपर्णि गुफा में लगभग 483 ई० पू० में बौद्धों की प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ जहॉ पर बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्तपिटक एवं विनयपिटक में विभाजित किया गया।

उदयिन (460-444 ई० पू०)

अजातशत्रु के पश्चात उदयिन मगध के सिंहासन पर बैठा। अपने पिता के राज्यकाल में उदयिन चम्पा का उपराजा था। इसके शासनकाल की सबसे महत्वपूर्ण घटना गंगा एवं सोन नदी के संगम पर पाटलिपुत्र (या कुसुमपुर) नामक नये नगर की स्थापना थी जिसे उसने मगध साम्राज्य की नवीन राजधानी बनाया। उदयिन जैन धर्म का अनुयायी था और अपनी राजधानी के मध्य में उसने एक जैन चैत्यगृह का निर्माण करवाया था।
बौद्ध साहित्य के अनुसार उदयिन के पश्चात क्रमशः अनिरुद्ध, मुण्ड तथा दर्शक(नागदाशक) सिंहासन पर बैठे और इन तीनों ने मिलकर लगभग 412 ई0पू0 तक शासन किया। इन तीनों को पितृहन्ता कहा गया है। इस वंश के अन्तिम शासक दर्शक को शिशुनाग नाम के एक योग्य अमात्य ने अपदस्थ कर दिया। इस प्रकार मगध से हर्यक राजवंश का अन्त हुआ और उसके स्थान पर एक नवीन राजवंश ‘‘शिशुनाग राजवंश‘‘ का आरम्भ हुआ।

शिशुनाग वंश(412 ई0पू0 – 344 ई0पू0) –

शिशुनाग (412 ई0पू0 – 394 ई0पू0)

शिशुनाग ने अपने नाम से इस वंश की स्थापना की। यह प्रारम्भ में हर्यक वंश के अन्तिम नरेश नागदासक का मंत्री था। नागदासक के नागरिकों द्वारा निर्वासित कर दिए जाने के पश्चात यह मगध का राजा अभिषिक्त हुआ। शिशुनाग ने मगध साम्राज्य में अवन्ति एवं वत्सराज को जीत कर मिलाया था जिससे मगध साम्राज्य का विस्तार उत्तरी भारत में मालवा से बंगाल तक हो गया और मगध उत्तर भारत की सबसे बडी शक्ति बन गई। पुराणों के अनुसार शिशुनाग ने बनारस में अपने पुत्र को नियुक्त किया और स्वयं गिरिव्रज में रहने लगा। इस प्रकार उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र से हटाकर गिरिव्रज में स्थापित की। उसने अपने साम्राज्य की दूसरी राजधानी वैशाली नगर को बनाया।
शिशुनाग ने कोसल राज्य के शासक को भी परास्त किया।

कालाशोक (394 ई0पू0 – 366 ई0पू0)

यह शिशुनाग का उत्तराधिकारी था। पुराण एवं दिव्यावदान में कालाशोक का नाम काकवर्ण मिलता है। इसने वैशाली के स्थान पर पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। सिंहली महाकाव्यों के अनुसार महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के करीब सौ वर्ष कालाशोक के शासनकाल के दसवें वर्ष वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति का आयोजन हुआ। 383 ई0पू0 में आयोजित इस बौद्ध संगीति में बौद्ध संध स्थविर और महासंघिक के रूप में बॅट गया था। दीपवंश एवं महावंश के अनुसार कालाशोक ने करीब 28 वर्ष तक शासन किया।
महावंश के अनुसार कालाशोक के दस पुत्र थे जिन्होने सम्मिलित रूप से 22 वर्ष शासन किया। इसके पश्चात मगध में शिशुनाग वंश का अन्त हुआ और नन्द वंश के शासन की शुरूआत हुई।

नंद वंश (344 ई0पू0 – 322 ई0पू0)

कालाशोक के कमजोर उत्तराधिकारियों को हराकर शासन सत्ता नंद वंश ने हथिया ली। यह वंश निम्नकुलोत्पन्न था। नन्द वंश के कुल 9 राजाओं के नाम मिलते है जिसे समवेत रूप से ‘नवनन्द‘ कहा जाता है। नंद वंश की स्थापना महानंदिन ने की जबकि पुराणों के अनुसार इस वंश का संस्थापक महापद्मनंद उग्रसेन था। महापद्मनंद ने शीघ्र ही महानंदिन का वध कर दिया। पुराणों में महापद्मनंद को सर्वक्षत्रांतक कहा गया है। अपनी विजयों के फलास्वरूप महापद्मनंद ने मगध को विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया।इसने कलिंग को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। कलिंग के हाथीगुम्फा अभिलेख से उसकी कलिंग विजय सूचित होती है जिसके अनुसार नन्द राजा जिनसेन की एक प्रतिमा वह उठा ले गया और उसने कलिंग में एक नहर का निर्माण कराया। एक बड़ा राज्य स्थापित करके इसने एकच्छत्र एवं एकराट का पद धारण किया था। महापद्मनंद के आठ पुत्र थे। धनानंद नंदवंश का अन्तिम राजा था जिसके शासनकाल में सिकन्दर ने पश्चिमोत्तर भारत पर आक्रमण कर दिया परन्तु मगध की सीमा इस आक्रमण से अछूती रही। इसी धनानंद को मारकर चन्द्रगुप्त मौर्य ने मगध का राजसिंहासन हस्तगत कर लिया था ।
राजनीतिक दृष्टिकोण से नन्दों का महत्व अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन्होने ही विभिन्न छोटे-छोटे टुकडों में विभक्त भारत को राजनीतिक एकता के पथ पर अग्रसर किया जिससे भावी सम्राटों को एक विस्तृत साम्राज्य स्थापित करने में पर्याप्त सहायता मिली। नन्दों के सामरिक महत्व की भी उपेक्षा नही की जा सकती, यद्यपि उनकी आर्थिक नीतियॉ आर्थिक शोषण पर आधारित थी।

राजतंत्रों का प्रशासन-

राजा को सर्वोच्च राजकीय पद प्राप्त था तथा उसे शारीरिक एवं संपत्ति सम्बन्धी विशेष सुरक्षा प्राप्त थी। वह सर्वशक्तिशाली होता था।
राजपद प्रायः वंशानुगत होता था। परन्तु चुने हुए राजाओं के उल्लेख भी अपवाद स्वरूप प्राप्त होते हैं।
राजपद निरंकुश था परन्तु अनियंत्रित नहीं था। जातक कथाओं से पता चलता है कि अत्याचारी राजाओं और मुख्य पुरोहितों को जनता निष्कासित कर देती थी।
राजा मन्त्रियों की सहायता भी लेते थे। मगध के राजा अजातशत्रु के मन्त्री वस्सकार तथा कोसल में दीर्घाचार्य सफल मंत्री थे। मन्त्री अधिकतर ब्राह्मणों से चुने जाते थे। सभा और समिति जैसी जनसंस्था लुप्त हो गयी थी। उनका स्थान वर्ण और जाति समूहों ने ले लिया। सभाएँ इस काल में अभी गणतन्त्रों में जीवित थीं।
राजतन्त्रों में इस काल में हम ‘परिषद‘ नाम की एक छोटी संस्था के बारे में सुनते हैं। इस परिषद में केवल ब्राह्मण होते थे।
महामात्र नामक उच्च अधिकारियों के एक वर्ग का उदय इस काल में प्रशासन सम्बन्धी विकास की सबसे मुख्य विशेषता है।
अमात्यों में से कई प्रकार के कर्मचारी नियुक्त होते थे-यथा-सर्वार्थक, न्यायकर्ता (व्यावहारिक), रज्जुग्राहक (भूमि सम्बन्धी माप करने वाले), द्रोणमापक (उपज में हिस्से की माप करने वाले) आदि।
ग्राम का प्रशासन ग्रामिणी के हाथों में था जिसे अब ग्राम प्रधान, ग्राम भोजक, ग्रामिणी या ग्रामिका इत्यादि नामों से जाना जाता था।
ग्राम प्रधानों का अत्यधिक महत्व था एवं उनका राजाओं के साथ सीधा सम्बन्ध था। ग्राम में कानून व्यवस्था बनाये रखना एवं अपने ग्राम से कर वसूलना उनका मुख्य कार्य था।
राजा स्थायी सेना रखते थे। सेना साधारणतया चार भागों में विभाजित होती थी-पदाति, अश्वारोही, रथ और हाथी।
कर सम्बन्धी व्यवस्था सुदृढ़ आधार पर स्थापित थी। योद्धा और पुरोहित करों के भुगतान से मुक्त थे।
करों का बोझ मुख्यतः किसानों पर था।
वैदिक काल में स्वैच्छिक रूप से प्राप्त होने वाला बलि इस काल में अनिवार्य कर बन गया।
कर संग्रह करने वाले अधिकारियों में सबसे प्रधान ग्राम भोजक था। उपज का छठां भाग कर के रूप में लिया जाता था। इसके अतिरिक्त राजकीय करों में दुग्ध धन’ जो राजा के पुत्र के जन्म के अवसर पर दिया जाता था तथा व्यापारियों से प्राप्त किये गए चुंगी का भी उल्लेख किया जा सकता है।
करों के अतिरिक्त लोगों को बेगार करने के लिए भी बाध्य किया जाता था।

गणतन्त्रों का प्रशासन-

षोडस महाजनपदों के अतिरिक्त हमें इस काल के गणराज्यों का भी उल्लेख प्राप्त होता है। प्रमुख गणराज्य थे-शाक्य (जिनकी राजधानी कपिलवस्तु थी), लिच्छवि संघ, मल्ल आदि।
गणराज्यों में सरदार या राजा को दैवी अधिकार नहीं होते थे तथा उनका चुनाव होता था।
गणतन्त्रों में वंशगत राजा नहीं बल्कि सभाओं के प्रति उत्तरदायी अनेक व्यक्ति कार्य करते थे।
प्रत्येक गणराज्य की अपनी परिषद या सभा होती थी। राजधानी में केन्द्रीय परिषद के अलावा राज्य में प्रमुख स्थानों पर स्थानीय परिषदें भी होती थीं।
शासन का कार्य एक या कई सरदारों के हाथों में दिया जाता था। उन्हें राजन् ‘गणराजन्’, या ‘संघमुख्य’ कहते थे। राजन् उपाधि का कभी-कभी राज्य के सभी प्रधान व्यक्तियों के लिए प्रयोग होता था।
लिच्छवियों में हम 7707 राजाओं के होने की बात सुनते हैं। एक बौद्ध ग्रन्थ के साक्ष्य के अनुसार लोग बारी-बारी से राज्य करते थे।
राजन् के अतिरिक्त अन्य दूसरे अधिकारी भी थे जिन्हें उपराजन्, सेनापति भाण्डागारिक आदि नामों से जाना जाता था।
“राजतंत्र एवं गणतन्त्र के प्रशासन में मुख्य अन्तर यह था कि राजतन्त्र में एक ही व्यक्ति का नेतृत्व रहता था जबकि गणराज्यों में स्वल्पजन संत्तात्मक सभाओं के नेतृत्व में प्रशासनिक कार्य होते थे।”

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