window.location = "http://www.yoururl.com"; Partition of Indian and its Impact. || भारत विभाजन और उसके परिणाम

Partition of Indian and its Impact. || भारत विभाजन और उसके परिणाम

 


भारत विभाजन के परिणाम -

एक व्यक्ति जो कहीं भी स्वतंत्रता दिवस के हर्षोल्लास में शामिल नहीं हुआ था पर जिसकी अनुपस्थिति सबको खली थी वह थे महात्मा गांधी। थके-हारे राष्ट्रपिता इस दिन भी दिल में कितने ही संताप लिए राजधानी से दूर गांव-गांव पैदल चलकर सांप्रदायिक हिंसा की विभीषिका के सताए परिवारों के अवशेषों को सांत्वना और सहानुभूति बांट रहे थे। यदि किसी के सपने सबसे अधिक टूटे थे तो वह व्यक्ति भी गांधीजी ही थे क्योंकि गॉधीजी ने जीवन-भर प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया था तथा शांतिमय अहिंसात्मक उपायों से देश की एकता की रक्षा करने और उसे स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया था, पर आज जब स्वतंत्रता के साकार होने का क्षण आया तो देश में शांति, प्रेम और अहिंसा नहीं, अपितु, घृणा, हिंसा और आतंक का साम्राज्य था। सांप्रदायिकता और घृणा के दानव के विरुद्ध गांधीजी जीवन भर लडते रहे थे। औरों के लिए भले ही यह विजय का क्षण रहा हो पर महात्मा गांधी के लिए इससे अधिक दुःखदायी वातावरण और क्या हो सकता था जबकि उनकी आंखों के सामने उनके सभी आदर्शों का खून हो गया हो। 

वस्तुतः जो विभाजन का समर्थन करते हैं उनके पास यही तर्क है कि हिन्दुओं और मुसलमानों की जीवन पद्धतियाँ हर क्षेत्र में इतनी विरोधी थीं कि उनमें कोई सामंजस्य सम्भव ही नहीं था। बल्कि एक का अस्तित्व दूसरे के अस्तित्व को क्षति पहुँचाता था। ये तनाव, संघर्ष, पारस्परिक घृणा, असन्तुलन ही धीरे-धीरे बढ़ते हुए विभाजन के लिए जरूरी कारण बन गये। यह बात दूसरी है कि इस फोड़े ने पूरी तरह पकने में कुछ अधिक वर्षों का समय ले लिया। उनका कहना है कि हिन्दुओं का जातिवाद मुसलमानों को अपने से बिलकुल अलग करता था। उनका छुआ पानी न पीना, उनके हाथ का, यहाँ तक कि उनके बर्तनों का खाना भी उनके लिए पाप था। यह जहर इतने गहरे तक फैला था कि जाति व्यवस्था में निम्न वर्ग के दबे कुचले भी इससे ग्रसित थे। हिन्दू गाय की पूजा करते थे, मुसलमान उसको स्वादिष्ट मांस के लिए खाते थे। एक देव-मूर्ति की पूजा करता था तो दूसरा उसे तोड़ना अपने लिए सवाब समझता था। दोनों में विवाह असम्भव था। वस्त्र, भोजन, इतिहास, ईश्वर, उपासना-पद्धतियाँ, पारिवारिक बुनावट, भाषा सब भिन्न थे। 1857 के बाद मुसलमानों का सामन्त वर्ग यह कभी नहीं भूला कि उसने लगभग 600 साल तक हिन्दुओं पर शासन किया है। हिन्दू कभी नहीं भूले कि मुसलमानों ने जबर्दस्ती उनसे धर्म परिवर्तन कराया, उनके मन्दिरों को नष्ट किया, उसकी स्त्रियों को उठाया। विभाजन के समर्थकों के पास इसी तरह के तर्क हैं। कुछ राष्ट्रवादी मुसलमानों और कुछ काँग्रेसी नेताओं की सारी सद्भावनाओं के बाद भी, विभाजन के समर्थक और योद्धा अपने तर्कों पर अड़े थे। दोनों के साथ-साथ रहने के सैकड़ों सालों के लिए उनका कहना था कि वे रेल की पटरियों की तरह साथ-साथ थे, न कि किसी सामाजिक अन्तर्भुक्ति के कारण। उनका कहना था कि वे सिर्फ दो अलग ’धर्म’ नहीं थे, बल्कि हर तरह से दो अलग राष्ट्र थे जिनमें कोई आधारभूत समानता ही नहीं थी।

पर इतिहास इतना इकहरा और पारदर्शी नहीं होता। यदि हम इन तर्कों को मानें तो बहुत से दूसरे प्रश्न भी पैदा होते हैं। 600 सालों तक जो मिश्रित सभ्यता रही उसका आधार क्या था ? हर गाँव में हिन्दू, मुसलमान दोनों के परिवार थे। मन्दिर था, मस्जिद भी थी। उनके त्यौहार, रीति-रिवाज, परम्पराएँ, सामाजिक ढाँचा सब सुरक्षित थे। जो स्थितियाँ विभाजन के समर्थक बताते हैं, यदि वही एकमात्र वास्तविकता होतीं, तो देश में विभाजन या बड़े स्तर का कोई विघटन बहुत पहले हो जाना चाहिए था। सब जानते है कि 1857 की क्रान्ति में दोनो धर्मो के लोग साथ-साथ लडे थे। कितना आसान था विभाजन का रुक जाना, यदि जिन्ना और काँग्रेस किसी भी स्तर पर समझौते के लिए उस तरह तैयार हो जाते जिस तरह 1916 में तिलक और जिन्ना हो गये थे। हालॉंकि माउण्टबेटन के आने के बाद नेहरू और पटेल विभाजन के लिए जिन्ना से अधिक व्यग्र थे। विभाजन की माउण्टबेटन की योजना को काँग्रेस ने पहले स्वीकृति दी। माउण्टबेटन ने 2 जून को आधी रात को लगभग धमकाते हुए इसे जिन्ना पर थोप दिया और जिन्ना ने चुपचाप सर हिला दिया। बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि जिन्ना अन्त तक पाकिस्तान नहीं चाहते थे। ’पाकिस्तान’ उनके लिए सिर्फ एक मोहरा था जिसे वह राजनीति की शतरंज में बहुत सलीके से आगे बढ़ा रहे थे, इसलिए कि काँग्रेस को दबाव में लेकर मुसलमानों के लिए अधिक से अधिक शक्ति और अधिकार ले सकें। ’सच तो यह है कि हिन्दू और मुसलमानों की पृथक जीवन-पद्धति, उनके पृथक धर्म, पृथक परम्पराएँ विभाजन का कारण नहीं थीं बल्कि बिसात पर खेली जा रही एक बाजी थी जिसमें मोहरों की जगह करोड़ों व्यक्तियों के जीवन दाँव पर लगे और नष्ट हो गये। यह सिर्फ जिन्ना की जिद, आहत अहंकार और महत्त्वाकांक्षा थी जिसने इन तर्कों को बड़ा रूप देकर पाकिस्तान को जन्म दिया।

इस प्रकार विभाजन ने अन्ततः, एक वृहद सार्वभौम भारत की सम्भावना का अन्त कर दिया परन्तु कुछ आधारभूत प्रश्न उभर कर सामने आता है जैसे- विभाजन क्यों नही होना चाहिए था? विभाजन होने में क्या गलत हुआ ? क्या यह उचित था कि विभाजन को रोककर देश को गृहयुद्ध की तरफ ढकेल दिया जाता जिसकी शुरुआत दंगों की श्रृंखलाओं से हो चुकी थी ? क्या विभाजन को रोककर अँग्रेजों की गुलामी और कई वर्षों तक की जाती ?

वस्तुतः जिन्ना जिस आधार पर और जिस धर्म की लड़ाई लड़ने का छद्म कर रहे थे, उसके वह कभी थे ही नहीं। वह मुस्लिम लीग के नेता थे, देश के मुसलमानों के नहीं। इस्लामी जगत में जिन्ना सदैव एक आत्मनिर्वासित की तरह रहे। हिन्दू धर्म उनके लिए कभी न समस्या रहा, न किसी समस्या का कारण। बाद में जिस काँग्रेस पर सिर्फ ’हिन्दू’ पार्टी होने के तर्क के कारण उन्होंने राजनीति के सारे आरोपों, शंकाओं और विरोधों को जन्म दिया, उसी काँग्रेस के घोषित और उग्र हिन्दू तिलक से जिन्ना, 1916 में ’लखनऊ पैक्ट’ बड़ी सरलता से कर चुके थे। यह पैक्ट बताता है कि जिन्ना और काँग्रेस समझौता कर सकते थे, केन्द्रीय संघ बना सकते थे, अविभाजित भारत को चला सकते थे। पूरे जीवन में जिन्ना ने कभी हिन्दू धर्म के खिलाफ एक शब्द नही कहा। जिन्ना की श्रद्धा के पात्र तिलक और गोखले थे, कभी कोई मुस्लिम उनके सम्मान का पात्र नहीं रहा। अपने खोजा सम्प्रदाय के धार्मिक गुरु आगा खाँ को वह सख्त नापसन्द करते थे। तिलक का मुकदमा जिन्ना ने लड़ा था और उनके मन में तिलक के लिए गहरा सम्मान था । एम0सी0 छॉगला का मानना है कि गाँधी, नेहरू और दूसरे नेताओं के लिए वह कठोर और कटु बातें कहते थे, लेकिन जहाँ तक गोखले और तिलक का सवाल है, जिन्ना के मन में उनके और उनके विचारों के प्रति गहनतम सम्मान था।

1940 के बाद मुस्लिम लीग पर जिन्ना का हमेशा पूरा नियन्त्रण रहा। 1946 के चुनावों में मुस्लिम लीग की सफलता का पूरा श्रेय सिर्फ जिन्ना को जाता है। यदि विभाजन के समर्थकों के ये तर्क सही हैं कि दो विपरीत धर्मों की पृथक सत्ता और पृथक अस्तित्व की विवशता ने ही विभाजन को अपरिहार्य बनाया, तो फिर जिन्ना अकेले विभाजन को जन्म देने में कैसे सक्षम थे, या कैसे रोकने में समर्थ थे ? पर सत्य यही था। विश्व के इतिहास में यह अनोखी घटना है कि एक व्यक्ति ने सिर्फ अपने पूर्वाग्रहों के कारण, बिना किसी आधार और परम्परा के, एक राष्ट्र के अन्दर से दूसरे राष्ट्र को जन्म देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो।

पाकिस्तान की माँग सिद्धान्त रूप से ही अव्यावहारिक, दोषपूर्ण व गलत सूचनाओं पर आधारित थी। जिन क्षेत्रों को पाकिस्तान में माँगा जा रहा था, वहाँ की वास्तविक मुस्लिम आबादी, उनकी राजनीतिक स्थिति, उनके आर्थिक संसाधन, उद्योग धन्धे, उनकी सामाजिक स्थितियाँ व भारत में बचे मुसलमानों के भविष्य व उनके अल्पसंख्यक होने के बुनियादी सवाल के बारे में जिन्ना को या मुस्लिम लीग में अन्य किसी को कुछ भी स्पष्ट नहीं था। गणित, भूगोल, इतिहास, परम्पराएँ, अन्तर्राष्ट्रीयता, समाजशास्त्र ऐसे विषय जिन्ना के लिए पाकिस्तान के सामने नगण्य व अर्थहीन थे। लाहौर प्रस्ताव स्वयं में पाकिस्तान की आर्थिक, भौगोलिक अवधारणाओं को लेकर पूरी तरह अस्पष्ट था। उसके निहितार्थ राजनीति से प्रेरित थे न कि मुसलमानों की वास्तविक समस्याओं के प्रति। दोनों पाकिस्तानों को जोड़ने के लिए भारत के अन्दर 800 मील लम्बे गलियारे की जिन्ना की माँग इसका सबूत है। इस हास्यास्पद माँग के पीछे, जिन्ना ने तर्क दिया कि जब आज दोनों देशों के बीच रास्ता है तो विभाजन के बाद भी ’हिन्दू राज्य’ को रास्ता देना चाहिए। जिन्ना से जब पूछा गया कि हिन्दू बहुल होने के बाद असम पाकिस्तान का हिस्सा क्यों होना चाहिए? (जिन्ना यह चाहते थे) तो उनका उत्तर था कि ’असम’ इसके अलावा कहाँ फिट होगा ? जब पूछा गया कि हिन्दू बहुल मद्रास का अल्पसंख्यक मुसलमान क्या करेगा? तब जिन्ना का जवाब था कि उसके पास तीन विकल्प हैं। पहला यह है कि वह उस राष्ट्र की नागरिकता ग्रहण कर ले जहाँ वह है, दूसरा यह कि वह उस राष्ट्र में विदेशी की तरह रहे, तीसरा यह कि वह पाकिस्तान आ जाए, मैं उसका स्वागत करूँगा, वहाँ बहुत जगह है। (इण्डिया अनडिवाइडेड, पृ0 395) 7 अगस्त, 1947 को गाँधीजी नोआखाली के दंगा पीड़ित गाँवों के लिए पदयात्रा पर गये और जिन्ना पाकिस्तान के गर्वनर जनरल बनने के लिए करॉची की ओर उड़े। जहाज पर बैठने से पहले भारत में पीछे छूट गये लीग के नेताओं से जिन्ना ने कहा कि देश अब विभाजित हो गया है। उन्हें भारत का वफादार नागरिक होना चाहिए। भारत के लीगी नेताओं, राष्ट्रवादी मुसलमानों और छूटे हुए साढे़ चार करोड़ मुसलमानों की नियति एक नये देश में अल्पसंख्यक बन जाने के कारण बहुत संकटपूर्ण हो गयी थी। इस पाकिस्तान ने उन्हें क्या दिया ? विभाजन के समर्थकों के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। आज के दौर में तो यह सर्वाधिक प्रासंगिक सवाल है। 

1940 में लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान के प्रस्ताव से पहले भी और बाद में भी, पाकिस्तान या अलग मुस्लिम राज्य को लेकर कई योजनाएँ प्रकाशित हुई थीं। लीग ने 1940 में लाहौर के अपने प्रस्ताव में इनमें से किसी को न तो पूरी तरह स्वीकार किया था और न ही अपनी कोई सम्पूर्ण योजना प्रकाशित की थी। उसने सिर्फ सैद्धान्तिक रूप से अलग क्षेत्र की माँग की थी। ’पाकिस्तान’ शब्द प्रस्ताव में कहीं नहीं था। उस अलग क्षेत्र की पूरी रूपरेखा, भौगोलिक सीमाएँ आदि बाद में विचार करने के बाद प्रकाशित होनी थीं जो अन्तिम क्षणों तक नहीं हुईं। यदि कोई व्यक्ति लीग के प्रस्ताव पर आधारित पाकिस्तान को समझना चाहे तो वह असमर्थ है। लीग के पास अन्तिम बिन्दु तक पाकिस्तान की पूरी रूपरेखा क्यों नहीं थी ? मुसलमानों का भविष्य जिस देश में सुरक्षित किया जा रहा था वह कहाँ था ? कैसा था? क्या उसका ढाँचा था ? क्या आन्तरिक गठन था ? क्या सीमाएँ थीं, सेना थी, उद्योग थे, आर्थिक संसाधन थे ? कौन इस देश के बारे में जानता था ? जिन्ना, लियाकत अली या मुस्लिम लीग के दूसरे नेता ? विस्तार से कभी इसके पक्षों पर चर्चा क्यों नहीं हुई? क्यों नहीं मुस्लिम लीग के प्रस्ताव पर पूरे देश के मुसलमानों में बहस चलायी गयी? इस धुँधलके के बीच पाकिस्तान की एक साफ, मुकम्मल तस्वीर क्यों नहीं रखी गयी जो करोड़ों मनुष्यों का जीवन नष्ट होने से बचा सकती थी ? सेना की तरह या देश के 400 करोड़ नगद रुपयों की तरह आबादी का स्थानान्तरण क्या शान्ति और सहमति से नहीं हो सकता था ? अम्बेडकर ने इसका सुझाव भी दिया  था और इसकी योजना भी दी थी, परन्तु निश्चित रूप से यह एक कठिन और बहुत कठिन कार्य था। कोई भी अपनी धरती, अपने खेत, अपनी दुकानें, मित्र, परिवार छोड़कर दूसरे देश में निर्वासित नही होना चाहता था। इसके अलावा दूसरे देश की सीमाएँ व क्षेत्र अन्त तक अस्पष्ट और विवादित थे फिर ऐसी स्थिति में एक आशंकित भविष्य के लिए वे अपना सुखी वर्तमान नष्ट क्यों करते ? प्रश्न यही है कि विभाजन की नीति ऐसी क्यों नहीं बनी जिसमें आबादी का शान्तिपूर्ण स्थानान्तरण हो सकता था? माउण्टबेटन किस जल्दी में थे कि उन्होंने जून, 1948 की निर्धारित तिथि से लगभग 10 महीने पहले विभाजन कर दिया ? हमारे नेताओं को क्या जल्दी थी कि एक बार विभाजन पर सहमत हो जाने के बाद शान्तिपूर्ण प्रयासों से उन्होंने आबादी के स्थानान्तरण का मार्ग नहीं ढूँढ़ा। वे किस जल्दी में थे? क्या थक गये थे संघर्ष से, क्या देह साथ नहीं दे रही थी या सत्ता की अदम्य लालसा थी ? ध्यान दें कि उस समय जिन्ना की उमर लगभग 72 वर्ष, पटेल की लगभग 71 वर्ष, नेहरू की लगभग 60 वर्ष थी क्या इसीलिए देश का विभाजन हड़बड़ी में कर दिया गया? यह एक ऐसा ऑपरेशन था जिसके लिए औजारों को ‘स्टरलाइज‘ करने की भी प्रतीक्षा नहीं की गयी।

विभाजन ने भारत की एक दीर्घजीवी व विकसित मिश्रित सभ्यता को नष्ट कर दिया। यह इसका एक अन्य नकारात्मक परिणाम था। मिश्रित समाजों की इसी उपलब्धि और शक्ति ने इस देश को विभाजन के पहले के पाँच हजार साल का अबाधित, अखण्डित इतिहास दिया था। विभाजन का अन्य नकारात्मक परिणाम दो धार्मिक राष्ट्रों की सम्भावनाओं को जन्म देना था। धार्मिक राष्ट्र एक अनिवार्य बुराई है। इस्लाम के धार्मिक आधार पर बने पाकिस्तान के जन्म ने स्वयं भारत में एक ’हिन्दू राष्ट्र’ की अवधारणा और सम्भावना को, वैचारिक व भावनात्मक स्तर पर मजबूत आधार दे दिया। विभाजन के बाद ’हिन्दू राष्ट्र’ उसी तरह अपने आप स्वीकृति पाने लगा जिस तरह अँधेरा कहते ही रोशनी या पाप कहते ही पुण्य अपने आप अस्तित्व में आ जाते हैं। विभाजन के बाद भी गाँधीजी मुसलमानों की सुरक्षा और सम्मान के लिए लड़े, इस बात के लिए गाँधीजी की प्रशंसा की जानी चाहिए और यह बड़ी बात थी। विभाजन के बाद मुसलमानों के पक्ष में बोलने के लिए एक अविचलित नैतिक शक्ति और दुर्दम्य आत्मविश्वास चाहिए था। विभाजन गाँधीजी के सम्पूर्ण जीवनदर्शन का ’लिटमस टेस्ट’ था और गाँधीजी इस पर शत प्रतिशत खरे उतरे। विभाजन के बाद भारत एक हिन्दू राष्ट्र होने से बच गया, जबकि पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र होने से नहीं बच पाया। कुल मिलाकर वृहद सार्वभौम राष्ट्र की सम्भावना का अन्त विभाजन का अन्य दुखद पक्ष था ।

विभाजन क्यों हुआ यह प्रश्न हमेशा अनुत्तरित होगा पर यह प्रश्न जरूर पूछा जा सकता है कि विभाजन कौन चाहता था ? क्या काँग्रेस ? क्या जिन्ना? क्या अँग्रेज ? आदि-आदि । इनमें से सब कहते है कि नही, हम विभाजन नही चाहते थे लेकिन फिर भी सबकी सहमति से सांवैधानिक तरीके से प्रस्ताव स्वीकृत करके विभाजन हुआ। इसमें किसी तरह का बल प्रयोग नही था, विवशता नही थी। यह इतिहास की ही विडम्बना है कि हर पात्र कहे कि नहीं, मैं यह नहीं चाहता था, पर घटना हो जाए। 

शुरू में विभाजन कोई नहीं चाहता था। 1937 के चुनावों में देश के किसी भी महत्त्वपूर्ण राजनीतिक दल, नेता या संगठन के पास विभाजन का विचार नहीं था। रहमत अली को उपहास की दृष्टि से देखा जाता था ।1937 की सर्दियों के चुनाव में मुस्लिम लीग का घोषणा पत्र लगभग वैसा ही था, जैसा काँग्रेस का। देश को अँग्रेजों से मुक्त कराने का लक्ष्य था, हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रयास था। जिन्ना ने काँग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया था। डॉ0 राजेन्द्र प्रसाद से इस विषय पर उनकी कुछ बातें भी हुई पर यह बात आगे नहीं बढ़ी। 1947 की सर्दियों तक देश के नेता विभाजन को ही एकमात्र विकल्प मानने लगे थे। 10 वर्षों का यह वह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कालखण्ड था, जिसने इस देश की अखण्डता को नष्ट करके इसका इतिहास पूरी तरह बदल दिया। वस्तुतः यह सब उस खेल की तरह था जो निहायत लापरवाही, हल्केपन और गैरजिम्मेदारी के साथ शुरू हुआ पर धीरे-धीरे इसमें नये खिलाड़ी शामिल होते गये, नियम बनते गये, टोलियाँ बनती गयीं, रेफरी आ गये और अन्त में किसी भी तरह से जीतना इस खेल में खिलाड़ियों का एकमात्र और अन्तिम लक्ष्य रह गया।

सच यही है कि अन्त में सबने विभाजन चाहा था। जो गाँधीजी कहते थे कि ‘‘विभाजन मेरी लाश पर होगा‘‘, अन्ततः 14 जून, 1947 को कॉंग्रेस की महासमिति में विभिन्न कारणों से विभाजन के प्रस्ताव पक्ष में चालीस मिनट तक बोले थे। पर गाँधीजी ही अकेले व्यक्ति थे जो अँग्रेजों से कहते थे कि ‘तुम जाओ, हमें ईश्वर पर छोड़ दो, बर्बादी में छोड़ दो, हम आपस में तय कर लेंगे, पर तुम जाओ।‘ गाँधीजी अपने साथियों से कहते थे कि विभाजन मत करो, हम दस साल अँग्रेजों से और लड़ लेंगे। माउण्टबेटन को मालूम था कि यही अकेला व्यक्ति है जो अपनी आत्मा और दूरदृष्टि, दोनों से, विभाजन नहीं चाहता। गाँधीजी ने अपनी दूसरी मुलाकात में ही माउण्टबेटन को प्रस्ताव दे दिया था कि तुम मुस्लिम लीग को देश दे दो, जिन्ना को प्रधानमन्त्री बना दो। यदि लीग इसे अस्वीकार करे तब फिर यह अवसर ’काँग्रेस को दो, पर तुम जाओ। गाँधीजी का यह अचूक राजनीतिक दाँव था पर नेहरू और पटेल जैसे लोग इसे नहीं समझ पाये। गाँधीजी के इस एक प्रस्ताव ने एक तरह से पूरी राजनीतिक समस्या का समाधान कर दिया था। पर यह कोई नहीं चाहता था, यहॉ तक कि जिन्ना भी नहीं। उनकी पूरी साख दाँव पर लगती और नष्ट हो जाती। जिन्ना न तो ’लोक’ का अनुभव रखते थे न प्रशासन’ का, उनकी सारी राजनीति ड्राइंगरूम की थी। गाँधीजी का यह प्रस्ताव नकार दिया गया और नेहरू और माउण्टबेटन के स्टाफ के संयुक्त प्रयास से इसे तत्काल रद्द कर दिया गया। जिन्ना तक यह प्रस्ताव पहुँचा ही नहीं और यदि पहुँचता, तो सम्भव था जिन्ना की प्रतिक्रिया इस देश का इतिहास बदल देती।

14 जून, 1947 को काँग्रेस कार्यसमिति में विभाजन के प्रस्ताव की स्वीकृति पर बोलते हुए गाँधीजी ने फिर एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही थी जिसकी ओर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया और जिसे राम मनोहर लोहिया ने इंगित किया है। गाँधीजी ने कहा था कि विभाजन पर सहमत हो जाने के बाद लीग और काँग्रेस आपस में बैठकर इसके क्रियान्वन की प्रक्रिया तय करें। अँग्रेज सरकार को इससे बिलकुल बाहर रखें। यह सुझाव वस्तुतः विभाजन रोकने की गाँधीजी की अन्तिम कोशिश थी। गाँधीजी ने सोचा था कि विभाजन की प्रक्रिया इतनी जटिल और अव्यावहारिक है कि जब दोनों दल बैठें, तो सम्भव है कि उन्हें यह बात समझ में आए कि वे कितना गलत कर रहे हैं, और वे अन्य किसी विकल्प पर विचार करें। माउण्टबेटन ने ‘चाकू से केक काटने‘ की तरह भारत के टुकड़े करके बाँट दिये, जिससे लाखों जीवन नष्ट हुए, जो सम्भव है गाँधीजी के इस सुझाव से बच जाते।

गाँधीजी ने विभाजन का अन्तिम समय तक विरोध किया था। वह अकेले व्यक्ति थे जो अन्त तक हिम्मत नहीं हारे थे। गाँधीजी इस बात के लिए भी तैयार थे कि छोड़ो आजादी पर अभी विभाजन नहीं होने देंगे। लड़ना पड़ा तो अँग्रेजों से दस साल और लड़ लेंगे पर उनके दूसरे साथी थक चुके थे। सच तो यह है कि अन्तिम समय में गाँधीजी का साथ उनके सेनानायकों ने ही छोड़ दिया। गाँधीजी ने संघर्ष की यह ऊर्जा दंगों के पीड़ितों के बीच गाँव-गाँव भटकने में लगा दी। आजादी के दिन वह व्यक्ति दुखी, अकेला और बिलकुल विस्मृत था ।

शुरू-शुरू में पाकिस्तान के नायक मुहम्मद अली जिन्ना तो एक राष्ट्रवादी थे। 1905 में बंगाल विभाजन का विरोध करनेवाले, 1909 में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचक मण्डल का विरोध करनेवाले, काँग्रेस के राष्ट्रवादी व प्रगतिशील विचारों का विरोध करने की वजह से सैयद अहमद को नापसन्द करनेवाले व हिन्दू-मुस्लिम एकता के दूत समझे जानेवाले गोखले, फिरोजशाह मेहता और तिलक का साहचर्य और उनसे शक्ति पानेवाले जिन्ना, बाद में पाकिस्तान के ’भौतिक जनक’ बने। जिन्ना का बाद का यह वैचारिक व भावनात्मक रूपान्तरण बहुत से प्रश्नों को जन्म देता है। जब यह बात उठेगी कि जिन्ना ही विभाजन के जिम्मेदार थे तब ये प्रश्न भी उठेंगे कि उनके इस रूपान्तरण के लिए जिम्मेदार कौन था ? काँग्रेस क्यों अन्ततः उनके लिए सिर्फ एक हिन्दू पार्टी रह गयी और क्यों काँग्रेस का बहुमत उन्हें ’हिन्दू राज’ लगने लगा ? अपने इंग्लैण्ड के 5 साल के प्रवास के बाद जब जिन्ना वापस भारत लौटे तो 1937 के चुनावों में उन्होंने काँग्रेस और लीग के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की बात रखी। काँग्रेस को तो यह गुरूर था और यह मानती थी कि देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करनेवाला वह एकमात्र राजनीतिक दल है, ऐसे में काँग्रेस ने जिन्ना की माँग को ठुकरा दिया। काँग्रेस की इस ठोकर ने जिन्ना के मूल और आन्तरिक तन्तु ‘दर्प‘ को बुरी तरह आहत किया। कॉंग्रेस की इस ठोकर का जवाब जिन्ना ने बाद में जीवन भर दिया। जवाब में जिन्ना काँग्रेस को राष्ट्रीय दल से हिन्दू पार्टी में ’रिड््यूस’ करते चले गये। वह काँग्रेसी नेताओं को ’हिन्दू नेता’ और काँग्रेस को ’हिन्दुओं की पार्टी’ कहने लगे। जब भी काँग्रेस ने किसी बिन्दु पर पूरे भारत का प्रतिनिधि होने की बात कही, जिन्ना वहीं अड़ गये। जिन्ना का यह ’आहतदर्प’ ब्रिटिश सरकार के अनुकूल था। जैसे-जैसे जिन्ना काँग्रेस को सिर्फ हिन्दुओं का प्रतिनिधि बनाते गये, ब्रिटिश सरकार, जिन्ना और मुस्लिम लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि मानती गयी। जिन्ना का आहतदर्प था जिसने कुर्सी पर बैठकर कानून के लिए लड़नेवाले एक वकील को धधकते हुए भारत के बीच से पाकिस्तान को जन्म देनेवाला बना दिया।

जिन्ना के विरुद्ध जवाहर लाल नेहरू की भावनाएँ ऊब और कडुवाहट से इस हद तक भर चुकी थी कि ’सर दर्द से मुक्ति पाने के लिए वह सर कटवाने’ को भी तैयार थे। जिन्ना की ’सीधी कार्यवाही’ के बाद पटेल सार्वजनिक रूप से विभाजन की बात करने लगे थे। मुसलमानों को उनके अन्दर हमेशा एक छुपा ढका हुआ कट्टर हिन्दू दिखता था। मुस्लिम लीग का आक्षेप है कि विभाजन मुख्यतः पटेल की भावनाओं का ही परिणाम था। कुल मिलाकर अन्त में हम कह सकते है कि वास्तव में सब विभाजन चाहते थे। विभाजन का दायित्व अन्ततः सब पर था। शायद सबसे अधिक अविभाजित भारत की जनता पर था जो अपनी जड़ता, निरीहता और असहायता में ’हैमलिन के बाँसुरी वादक के पीछे चलनेवाले मन्त्रमुग्ध चूहों’ की तरह अपने नेताओं का अन्धानुगमन करती रही।

एक प्रकार से भारत विभाजन राष्ट्रीय आन्दोलन की अवांछित व विकृत परिणति थी। उस संघर्ष का न तो वह लक्ष्य था, न ही दिशा थी। देश स्वतः धीरे-धीरे उस तरफ चला गया जिधर उसे जाना ही नहीं था। वे लोग, वे शक्तियाँ, वे स्थितियाँ ही अन्तिम रूप से निर्णायक हो गयीं जो अविभाजित भारत में अलक्षित, अस्तित्वहीन पड़ी थीं। ऐसी स्वतन्त्रता किसी के स्वप्न में भी नहीं थी। स्वतन्त्र होने के नाम पर करोड़ों मनुष्य उन अधिकारों, सुविधाओं और स्वप्नों से भी वंचित हो गये जो स्वतन्त्रता से पहले उन्हें गरिमापूर्ण और विश्वसनीय तरीके से सहज उपलब्ध थीं।

भारत का विभाजन लाभदायक रहा या हानिकारक, इस विषय में बहुत मतभेद हैं। प्रो0 पर्सीवल स्पीयर का कहना है- “यदि विभाजन न हुआ होता तो आपस के झगड़ों के कारण देश की औद्योगिक प्रगति रुक जाती, भारत की पंचवर्षीय योजनाएँ सफल न होतीं, केन्द्रीय सरकार दुर्बल होती और नेहरू के आदर्शों का आधुनिक भारत न बन पाता।“ अन्त में, वह लिखते हैं - “ सैद्धान्तिक रूप से विभाजन के लिए कितना भी अफसोस क्यों न किया जाय परन्तु यह, सम्भवतः, आवश्यक था और इस आधार पर देश के बड़े हितों के पक्ष में भी। इसी प्रकार, डॉ. लालबहादुर वर्मा भी लिखते हैं- “यदि विभाजन न होता तो मुसलमान सर्वदा प्रधान स्थिति में रहते और अपने अधिकार से अधिक जीवन की सुविधाएँ प्राप्त करते, क्योंकि काँग्रेस के इतिहास को देखने से यही स्पष्ट होता है। देश की अखण्डता उसी समय लाभप्रद हो सकती थी जब मुसलमानों को सन्तुष्ट करने की नीति के स्थान पर सभी के साथ समान व्यवहार करने की नीति अपनायी जाती। काँग्रेस ऐसा नहीं कर सकती थी। इस कारण देश के विभाजन पर अधिक दुःख नहीं होना चाहिए।” उनके कथनानुसार, “सम्पूर्ण देश में मुस्लिम प्रभुता अथवा भारत माँ का विभाजन- हमें इन दो बुराइयों में से एक बुराई को चुनना था, और इस दूसरी स्थिति को चुनकर, सम्भवतः, हमने एक अपेक्षाकृत अच्छी बुराई को चुना। कुछ भी हो, भारत-विभाजन एक सत्य है और भारतवासियों की भूल और राजनीतिक विवशता का परिणाम है।

मूल्यांकन -

खैर जो भी हो, स्वतंत्रता के पश्चात देश के सामने अनेक गंभीर समस्याएँ थीं और देशवासियों में उन सबका सामना करने का अदम्य उत्साह और साहस भी था। जनता को आशा थी कि अब शीघ्र ही उसके दुःखों का अंत हो जाएगा। अतः स्वाभाविक था कि स्वतंत्रता का उत्सव, आजादी का जश्न देश के कोने-कोने में मनाया गया। उत्सवों का सबसे बड़ा केंद्र था राजधानी नई दिल्ली, जहां सत्ता का हस्तांतरण हुआ। किंतु, यह सब हर्षोल्लास अधिक समय तक न चल सका। अगले ही दिन सांप्रदायिक दंगों के फैलने के समाचार आने लगे और राजधानी में शोक छा गया। अपनी मृत्युशैय्या पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ठीक ही कहा था कि अंग्रेज अवश्य ही भारत को छोड़ेंगे “लेकिन कैसा भारत वे छोड़ेंगे, कितना दुःख भरा ? जब सदियों पुरानी उनकी शासन की धारा अंत में सूख जाएगी तो अपने पीछे वे कितनी दलदली और कितनी कीचड़ छोड़ जाएंगे।“

एक व्यक्ति जो कहीं भी स्वतंत्रता दिवस के हर्षोल्लास में शामिल नहीं हुआ था पर जिसकी अनुपस्थिति सबको खली थी वह थे गॉधी। थके-हारे राष्ट्रपिता इस दिन भी दिल में कितना ही संताप लिए राजधानी से दूर गांव-गांव पैदल चलकर सांप्रदायिक हिंसा की विभीषिका के सताए परिवारों के अवशेषों को सांत्वना और सहानुभूति बांट रहे थे। यदि किसी के सपने सबसे अधिक टूटे थे तो वह व्यक्ति भी गांधी थे क्योंकि उन्होने जीवन-भर प्रेम और अहिंसा का पाठ पढ़ाया था तथा शांतिमय अहिंसात्मक उपायों से देश की एकता की रक्षा करने और उसे स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष किया था, पर आज जब स्वतंत्रता के साकार होने का क्षण आया तो देश में शांति, प्रेम और अहिंसा नहीं, अपितु, घृणा, हिंसा और आतंक का साम्राज्य था। औरों के लिए भले ही यह विजय का क्षण रहा हो पर महात्मा गॉधी के लिए इससे अधिक दुःखदायी वातावरण और क्या हो सकता था जबकि उनकी आंखों के सामने उनके सभी आदर्शों का खून हो गया हो। जिस सांप्रदायिकता और घृणा के दानव के विरुद्ध गांधीजी जीवनभर लड़े थे, इसी के हाथों, स्वाधीनता के कुछ ही महीने बाद 30 जनवरी 1948 को उनके दैहिक जीवन का अन्त हो गया।

देश का विभाजन और सांप्रदायिक हिंसा भी स्वाधीनता संघर्ष की कहानी से अलग नहीं देखे जा सकते। यह भी मानना पड़ेगा कि स्वाधीनता के विहान का श्रेय किसी एक व्यक्ति को अथवा दल को नहीं दिया जा सकता। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि देश में स्वतंत्रता का विहान लाने का सबसे अधिक श्रेय महात्मा गॉधी को तथा उनके नेतृत्व में किए गए कांग्रेस के विभिन्न राष्ट्रीय आंदोलनों को मिलना चाहिए। यह भी सच है कि संसार के इतिहास में यह पहला अवसर था जब बिना हथियारों और लड़ाई के, अहिंसात्मक आंदोलनों के द्वारा, किसी परतंत्र देश ने इतने विशाल और शक्तिशाली साम्राज्य को सफलतापूर्वक चुनौती दी हो और सदियों की दासता के बंधनों से मुक्ति पाई हो। किंतु यह इतिहास के प्रति अन्याय होगा, यदि हम यह स्वीकार न करें कि जहॉ एक ओर स्वतंत्रता का श्रेय कांग्रेस को दिया जाता है, यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि जब स्वतंत्रता आई तो उनके पीछे अनेक कारण थे जैसे - अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का दबाव, रूस और अमरीका का ब्रिटिश सरकार पर जोर, महायुद्ध के बाद ब्रिटेन की क्षीण शक्ति, भारतीयों सेनाओं, पुलिस और अन्य राजकीय सेवाओं में असंतोष के आसार और उनकी अंग्रेजी शासन के प्रति वफादारी से उठता हुआ विश्वास जिसमें 1946 के नोसेना विद्रोह की प्रमुख भूमिका थी, आजाद हिंद फौज और नेताजी का शौर्य, वीरता और त्याग, 1942 का भारतीय जनता का “भारत छोड़ो’” आंदोलन तथा उससे पहले के कांग्रेस के आंदोलन, क्रांतिकारियों के त्याग तथा उदारवादियों के प्रयास। अंग्रेजी शासन के प्रारंभ से ही स्वतंत्रता के लिए जितने भी व्यक्तिगत तथा सामूहिक, शांतिमय अथवा क्रांतिकारी, हिंसात्मक अथवा अहिंसात्मक प्रयास किए गए, त्याग किए गए, उनमें से प्रत्येक को इस स्वतंत्रता का श्रेय है, उनमें से प्रत्येक का योगदान महत्त्वपूर्ण है और जो शहीद हो गए तथा स्वतंत्रता के फलों का उपभोग करने के लिए नहीं रहे, उनका त्याग और योगदान और भी अधिक वंदनीय है।

वस्तुतः स्वतंत्रता सतत सतर्कता मांगती है। देश की सुरक्षा के लिए आवश्यक लड़ाई तथा राष्ट्र निर्माण की लड़ाई कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए हम यह कह सकते है कि 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता-संघर्ष का इतिहास समाप्त नहीं हुआ। 


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