भारत विभाजन :
भारत-विभाजन भारतीय इतिहास की एक विराट, त्रासद और अभूतपूर्व घटना है और जिन परिस्थितियों में यह घटना घटी वह अत्यन्त दुःखदायी हैं। त्रासद इसलिए कि आश्चर्यजनक रूप से, इस विभाजन का कारण न तो कोई बाहरी आक्रमण था, न गृहयुद्ध, न उत्पादन या पूँजी या बाज़ार की आर्थिक विवशताएँ और न ही कोई प्राकृतिक प्रकोप या स्थायी भौगोलिक अवरोध। प्रत्यक्ष रूप से यह करोड़ों मनुष्यों का, सांवैधानिक रूप से अपना प्रतिनिधित्व करनेवाले नेताओं के माध्यम से, स्वेच्छा से चुना हुआ निर्णय था। यह निर्णय देश के इतिहास और सभ्यता के सन्दर्भ में लगभग उतना ही महत्त्वपूर्ण और काल को खण्डित करनेवाला निर्णय था, जहाँ से सभ्यताएँ और समाज या तो तत्काल आत्महत्या की ओर मुड़ जाते हैं या धीरे-धीरे आत्मविनाश की ओर या फिर अविश्वसनीय तरीके से अपनी जड़ता को तोड़कर उन्नति कर जाते हैं। अपने प्राचीन इतिहास, मिश्रित परम्पराओं और सीमाओं को अक्षुण्ण रखनेवाला देश अन्ततः 1947 में दो हिस्सों में बाँट दिया गया। विवेक, जनस्वीकृति और समस्त अपरिहार्यताओं की विवशता को ध्यान में रखने का दावा करते हुए, संवैधानिक तरीके से एक देश को फाड़कर उसके अन्दर से ही, उसके दूसरे प्रतिद्वन्द्वी देश को जन्म दे दिया गया। हिन्दुओं और मुसलमानों के साथ न रह सकने की विवशता इस विभाजन का नैतिक व अपरिहार्य आधार बनायी गयी।
वास्तव में भारत में साम्प्रदायिकता का उदय और विस्तार की चरम परिणति ही भारत विभाजन था। इसका प्रमुख कारण मुसलमानों की धार्मिक कट्टरता और उनकी साम्प्रदायिक भावना थी। ऐसा क्यों हुआ कि 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद ही हिन्दू व मुसलमानों की दो अलग दिशाएँ तय होने लगीं जबकि लगभग पिछले छह सौ सालों से दोनों समाज व दोनों सभ्यताएँ साथ-साथ रह रहीं थीं। स्थायी रूप से विकसित हो चुकी इस अन्तर्भुक्ति को नष्ट करने के पीछे अवश्य ही कुछ प्रभावी व शक्तिशाली शक्तियाँ रही होंगी। बाहरी हस्तक्षेप के रूप में ब्रिटिश सरकार की नीतियाँ थीं जो कि एक शासक के लिए स्वयं को सत्ता में बनाये रखने के लिए अनिवार्य होती हैं। 1857 की हिन्दू-मुस्लिम एकता ने उन्हें बुरी तरह हिला दिया था। यह गठजोड़ ब्रिटिश सत्ता के लिए खतरनाक था। उनकी सारी प्रशासनिक चेष्टाएँ व राजनीतिक कौशल बाद में इसी में जुट गया कि भविष्य में ये दोनों धर्म संयुक्त रूप से उनके विरुद्ध न हो कर एक दूसरे के विरुद्ध हो जाएँ। ब्रिटिश सरकार अंततः इसमें सफल रही। मुख्य रूप से 1857 से लेकर 1947 ई0 तक निरन्तर ऐसे कारक पैदा होते रहे जो हिन्दू और मुसलमान दोनों के बीच विघटन और अलगाव को बढाते रहे। सदियों तक साथ-साथ रहने के बावजूद भी हिन्दू और मुसलमान अपने धार्मिक मतभेदों को भुला नहीं सके थे। शिक्षा और आधुनिक विचारों की कमी तथा अंग्रेजों की दासता के कारण धर्म से अधिक श्रेष्ठ और उपयोगी आदर्श उनके सम्मुख नहीं बन सका। ऐसी स्थिति में सर सैयद अहमदखाँ के नेतृत्व में आरम्भ हुए अलीगढ़-आन्दोलन ने साम्प्रदायिक रूप धारण कर लिया। धीरे-धीरे भारतीय मुसलमान यह विश्वास करने लगे कि उनका हित न केवल बहुसंख्यक हिन्दुओं से भिन्न है अपितु उनके विरोध में भी है। सर मुहम्मद इकबाल ने साम्प्रदायिकता की इस भावना का पोषण किया और उनके साथ अन्य बहुत से मुसलमान नेता सम्मिलित हो गये। मुस्लिम लीग और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना का इसमें सबसे बड़ा योगदान था। मुस्लिम लीग ने अपने पूरे राजनीतिक संघर्ष में अँग्रेजों के विरुद्ध कोई प्रत्यक्ष आन्दोलन नहीं छेड़ा। इसी तरह 1923 में हिन्दू महासभा के पुनर्गठन और शक्तिशाली होने के बाद व 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गठन के बाद हिन्दुओं के एक बड़े वर्ग का मुख्य शत्रु अँग्रेजी सरकार न होकर मुसलमान हो गया। यही अँग्रेज सरकार चाहती थी। मिस्टर जिन्ना के नेतृत्व में लीग की नीति दृढ़ और स्पष्ट हो गयी तथा वह मुसलमानों को प्रभावित करने में सफल हुई जिसका अन्तिम परिणाम भारत का विभाजन और पाकिस्तान का निर्माण था।
अंग्रेज शासकों ने इस साम्प्रदायिकता की भावना को निरन्तर प्रोत्साहन दिया। 1870 ई0 से अंग्रेजों ने मुसलमानों की सहानुभूति प्राप्त करने की नीति अपनायी, हिन्दू और मुसलमानों में अन्तर करना आरम्भ किया, मुसलमानों को सुरक्षा प्रदान की, हिन्दुओं की राष्ट्रीयता की भावना के विरुद्ध उन्हें प्रयोग में लाने का प्रयत्न किया और ’फूट डालो व शासन करों की नीति को अपने शासन का अंग बनाया। अंग्रेजों के सहयोग और प्रोत्साहन से मुस्लिम साम्प्रदायिकता की भावना सफल हुई। 1909 ई0 के चुनावों में साम्प्रदायिक निर्वाचन प्रणाली को इसी आधार पर अपनाया गया और उसके पश्चात् अंग्रेज निरन्तर मुसलमानों की माँगों का समर्थन करते रहे। यह कहना अनुचित न होगा कि मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग से बहुत पहले ही अंग्रेज सरकार भारत में दो राष्ट्रों के अस्तित्व को स्वीकार कर चुकी थी और उसका प्रत्येक कार्य इसी आधार पर होता था। अंग्रेजों ने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन के विरुद्ध एक प्रमुख हथियार के रूप में प्रयोग किया जिसके कारण मुसलमानों में यह भावना दृढ़ हुई तथा पाकिस्तान का निर्माण सम्भव हो सका।
भारत-विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण में काँग्रेस की मुसलमानों के प्रति सन्तुष्टीकरण की दुर्बल नीति भी उत्तरदायी थी। समय-समय पर कॉंग्रेस ने लीग की अनुचित माँगों को स्वीकार करके उसे बढ़ावा दिया। अनेक अवसरों पर काँग्रेस ने अपने सिद्धान्तों तक को त्याग दिया। ऐसी एक गम्भीर भूल 1916 ई0 के ’लखनऊ-समझौते में की गयी थी जिसके अन्तर्गत काँग्रेस ने मुसलमानों के पृथक प्रतिनिधित्व और उनको उनकी जनसंख्या से अधिक अनुपात में व्यवस्थापिका-सभाओं में सदस्य भेजने के अधिकार को स्वीकार कर लिया। 1932 ई0 में साम्प्रदायिक निर्णय के विषय में काँग्रेस ने अस्पृश्य जातियों के अलग हो जाने के भय से जिस दुर्बलता का परिचय दिया, उससे भी मुस्लिम साम्प्रदायिकता को प्रोत्साहन मिला। समय-समय पर लीग से समझौता करने के प्रयत्न और मिस्टर जिन्ना से भेंट आदि भी मिस्टर जित्रा और लीग के मनोबल को बढ़ावा देने वाले सिद्ध हुए। काँग्रेस ने अपने राष्ट्रीय स्वरूप को सिद्ध करने के प्रयत्न में हिन्दुओं से निरन्तर त्याग की माँग की लेकिन मुसलमानों से हठ करके कुछ नहीं माँगा। काँग्रेस ने मुसलमानों के उग्र और वैयक्तिक चरित्र को समझने का प्रयत्न नहीं किया और न उनके व्यवहार को सत्यता की कसौटी पर परखा। धर्म पर आधारित कट्टर और दृढ़ अल्पसंख्यकों से व्यवहार करने का सफल मार्ग सन्तुष्टीकरण का नहीं हो सकता था, इस सत्य को काँग्रेस न समझ सकी। काँग्रेस की इस सन्तुष्टीकरण की नीति से न केवल मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला अपितु इसकी प्रतिक्रियास्वरूप हिन्दू साम्प्रदायिकता भी पनपी। काँग्रेस की सबसे बड़ी असफलता यह रही कि वह एक ऐसा नारा, एक ऐसा आदर्श और एक ऐसा लक्ष्य प्रस्तुत न कर सकी जिसके सम्मुख हिन्दू और मुसलमानों को अपने धार्मिक मतभेदों का ध्यान ही न रहता और वह उस एक नारे, आदर्श और लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक हो जाते। धार्मिक मतभेदों को भुलाने के चक्कर में वह धार्मिक मतभेदों पर बल देती गयी। काँग्रेस इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् भारतीय मुसलमानों का भविष्य क्या होगा? मिस्टर जिन्ना ने मुसलमानों के सम्मुख यह प्रश्न रखा और उसका उत्तर भी दे दिया- वह था मुसलमानों के लिए हिन्दुओं की गुलामी। काँग्रेस इसका प्रत्युत्तर न दे सकी। ऐसी स्थिति में मुसलमानों की पाकिस्तान की माँग दृढ़ हो गयी। समय निकल जाने के पश्चात् मूर्ख भी समझदार हो जाता है, यह ठीक है, परन्तु फिर भी विवश होकर यह कहना पड़ता है कि काँग्रेस धर्म निरपेक्षता, समाजवाद और आर्थिक व सामाजिक न्याय पर आधारित भारत के निर्माण का लक्ष्य अपने देशवासियों के सम्मुख रखने में असमर्थ और असफल हो गयी थी। ऐसी स्थिति में भारत में साम्प्रदायिकता का पनपना स्वाभाविक था।
अन्तरिम सरकार में लीग के सदस्यों का सम्मिलित किया जाना, मुस्लिम लीग की ’प्रत्यक्ष कार्रवाई, लीग और कॉंग्रेस के मन्त्रियों के परस्पर मतभेद के कारण अन्तरिम सरकार की दुर्बलता, अंग्रेज सरकार की घोषणा कि वह जून 1948 ई0 से पहले ही भारत छोड़ देगी तथा हिन्दू-मुस्लिम दंगों की भयंकरता आदि भी भारत-विभाजन के कारण बने, इसमें सन्देह नहीं है। 3 जून, 1947 ई0 को पं0 जवाहरलाल नेहरू ने कहा थाः “देश के विभिन्न भागों में लज्जाजनक, पूर्णित और असहनीय हिंसा हुई है। यह समाप्त होनी चाहिए।“ सरदार पटेल ने कहा था - “मैंने यही अनुभव किया कि यदि हम विभाजन स्वीकार नहीं करते हैं तो भारत कई टुकड़ों में बँटकर बिल्कुल बरबाद हो जायेगा।“ द्वितीय महायुद्ध के पश्चात् ब्रिटेन की दुर्बलता, भारत का उसके लिए आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद न होना और अमेरिका की सरकार का ब्रिटेन पर भारत को स्वतन्त्रता प्रदान करने का दबाव ऐसे कारण थे जिनसे भारत को शीघ्र स्वतन्त्रता देना आवश्यक हो गया। ऐसी स्थिति में लीग की हठ और हिन्दू-मुस्लिम दंगे भारत-विभाजन के कारण बन गये।
विभाजन की अनिवार्यता -
इसमें कोई सन्देह नही है कि भारतवासियों का विशाल बहुमत विभाजन का कट्टर विरोधी था। हिंदू और सिक्ख तो उसके विरुद्ध थे ही, मुसलमानों का भी एक वर्ग विभाजन के खिलाफ था। फिर भी, इस बारे में विभिन्न मत हो सकते हैं कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं-विशेषकर नेहरू और पटेल-ने उस समय, सांप्रदायिक आधार पर, देश के विभाजन और पाकिस्तान के निर्माण को स्वीकार कर उचित किया या अनुचित। किंतु, इतिहास पर कोई भी कठोर निर्णय डालने से और तत्कालीन नेताओं ने जो कुछ किया उसके लिए आज उनकी भर्त्सना करने से पहले, यह उचित होगा कि हम अपने आपको उस समय में ले जाकर रखें तथा तब की परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही नेताओं द्वारा देश का विभाजन स्वीकार करने के औचित्य पर विचार-विमर्श करें। मार्च, 1947 में लार्ड मांडटबेटेन भारत आए और उन्होंने भारतीय नेताओं से बातचीत करनी शुरू की। पाकिस्तान की मांग के प्रति कांग्रेस के रुख में मार्च और जून, 1947 के बीच परिवर्तन आया। देखना होगा कि इन दिनों देश की स्थिति क्या थी और कांग्रेस के नेताओं के सामने विकल्प क्या थे :
1. कांग्रेस और लीग में किसी तरह भी कोई समझौता नहीं हो पाया था क्योंकि लीग पाकिस्तान की मांग से टस से मस होने को तैयार नहीं थी।
2. देश सांप्रदायिक दंगों की विभीषिका में जल रहा था; हिंदू-मुसलमान एक-दूसरे के रक्त से होली खेल रहे थे; संपत्ति, महिलाओं का सम्मान, मासूम बच्चों की जान, कुछ भी सुरक्षित न था; अराजकता का साम्राज्य था। नेताओं को लगा कि निर्दोष देशवासियों की हत्याएँ होती रहें इससे तो पाकिस्तान बन जाना अच्छा था।
3. अंग्रेज अफसरों और ब्रिटिश सरकार की सहानुभूति लीग के साथ थी। सांप्रदायिक दंगों में भी अंग्रेज अफसरों ने लीग का साथ दिया। यदि अंग्रेज न चाहते तो दंगे इस व्यापक पैमाने पर होते ही नहीं और होते भी तो उन्हें पुलिस और फौज के समुचित प्रयोग से दबाया जा सकता था। किंतु अंग्रेज कूटनीतिज्ञ संभवतः, सोचते थे कि संयुक्त भारत बहुत शक्तिशाली हो जाएगा और संभवतः तब भारत में ब्रिटेन के आर्थिक और औद्योगिक स्वार्थों की रक्षा न की जा सके। पाकिस्तान बन जाने से दोनों आपस में लड़ते रहेंगे, कमजोर रहेंगे तथा पश्चिमी राष्ट्रों पर आश्रित रहेंगे। विशेषकर उन्हें विश्वास था कि पाकिस्तान अधिक मैत्रीपूर्ण रहेगा और उसकी भूमि में ब्रिटिश हितों को एक स्थायी प्रभाव-क्षेत्र मिल जाएगा। गैर-कानूनी ढंग से अंग्रेज फौजी अफसरों की मदद से हथियारों में तस्कर व्यापार चल रहा था तथा कुछ देशी नरेशों के सहयोग से भारत की एकता को नष्ट करने का षड्यंत्र रचा जा रहा था।
4. संविधान-सभा में बोलते हुए, सरदार पटेल ने और भी साफ-साफ शब्दों में बताया था कि किस प्रकार अंग्रेज अफसर जिलों में अपना कब्जा कायम रखे हुए थे तथा किस प्रकार उनकी साजिश से दंगे हो रहे थे। जैसा कि हम देख चुके हैं, अंतरिम सरकार में शामिल होने के बाद मुस्लिम लीग ने सरकार का कोई भी काम ठीक से चला सकना असंभव कर दिया था। कांग्रेस के नेताओं का सिरदर्द लीग ने इतना बढ़ा दिया था कि अंत में तंग आकर, पंडित नेहरू के शब्दों में - इस “सिरदर्द से छुटकारा पाने के लिए वे सिर ही कटवा डालने को तैयार हो गए।“। पटेल ने कहा यदि शरीर के अंग में जहर फैल गया हो तो उसे शीघ्र ही अलग कर देना चाहिए ताकि शेष सारे शरीर में जहर न फैले।
5. कांग्रेस को दो बुराइयों में से एक को चुनना था- देश का विभाजन अथवा गृह-युद्ध। कांग्रेस ने विभाजन को कम बड़ी बुराई समझा क्योंकि नेताओं को यह स्पष्ट हो गया था कि यदि देश का विभाजन न हुआ तो केंद्र दुर्बल रहेगा, कांग्रेस और लीग की मिली-जुली सरकार चल नही पाएगी और देश प्रगति नही कर सकेगा। नेहरू के शब्दों में - “उन्होंने घटनाओं से विवश होकर ही विभाजन को स्वीकार किया।” कहते हैं पंडित नेहरू पहले विभाजन के विरोधी थे किंतु वे मांउटबेटेन से बहुत प्रभावित थे। आचार्य कृपलानी और मौलाना आजाद आदि का मत है कि पंडित नेहरू मांउटबेटेन के सम्मोहन के ही शिकार हो गए। कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की 12 जून को तथा कांग्रेस महासमिति की 14 और 15 जून, 1947 को दिल्ली में बैठक हुई जिनमें विभाजन की मांउबेटेन योजना पर विचार-विमर्श हुआ। मौलाना आज़ाद, अन्य राष्ट्रवादी मुसलमान, पाकिस्तान में शामिल किए जाने वाले प्रदेशों के हिंदू-सदस्य तथा उत्तर प्रदेश के पुरुषोत्तम दास टंडन आदि ने योजना का विरोध किया। मौलाना आज़ाद ने कहा कि यदि कांग्रेस नेताओं ने विभाजन मान लिया तो इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा किंतु नेहरू, पंत, कृपलानी, पटेल और अंत में गांधी ने भी इसे स्वीकार करने की राय दी। गोविन्द बल्लभ पंत ने स्वीकृति का प्रस्ताव पेश करते हुए कहा- ‘‘3 जून की योजना की स्वीकृति ही देश के लिए स्वराज और स्वाधीनता पाने का एकमात्र मार्ग है। इसके अंतर्गत हम एक शक्तिशाली केंद्र वाला ऐसा भारतीय संघ बना सकते हैं जो राष्ट्र को प्रगति के पथ पर ले जा सके....आज हमारे सामने दो विकल्प हैं-3 जून की योजना की स्वीकृति या फिर आत्महत्या।‘‘
भारत विभाजन और कांग्रेस -
भारत का विभाजन मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की माँग को लेकर हुआ। पृथक राष्ट्र की माँग 1940 के बाद तेज़ी से उभरी और मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में लीग ने सांवैधानिक तरीकों से और प्रत्यक्ष कार्रवाई करके राजनीतिक गतिरोध की ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी जिससे विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। लेकिन हमें यह भी नही भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के निर्माण में अंग्रेजों का बहुत बड़ा हाथ था। अंग्रेज शासकों ने बढ़ते हुए राष्ट्रीय आंदोलन में गतिरोध उत्पन्न करने के लिए साम्प्रदायिक शक्तियों का इस्तेमाल किया। लीग को मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था के रूप में स्वीकार किया और उसे वीटो की शक्ति दी। अंत में जब अंग्रेजों की नज़र में अखंड भारत सुविधाजनक प्रतीत होने लगा, तब उन्होंने इसे एक रखने का थोड़ा प्रयत्न किया, पर जिन्ना की कारगर धमकियों के सामने उनकी एक न चली। साम्प्रदायिक दंगों को अधिकारीगण रोक नहीं पाए और विभाजन अवश्यम्भावी हो गया। कांग्रेस अपनी सम्पूर्ण प्रतिबद्धता के बावजूद भारत की अखंडता की रक्षा नहीं कर सकी। इसके दो कारण थे। यह राष्ट्रीय आन्दोलन में मुस्लिम जनता को शामिल करने में असफल रही और साम्प्रदायिकता से लड़ने की सही नीति नहीं अपना सकी। ब्रिटिश शासक वर्ग द्वारा राष्ट्रीय जन आन्दोलन के विरूद्ध ‘फूट डालो और शासन करो‘ की नीति से प्रोत्साहित मुस्लिम लीग ने जब उपमहाद्वीप के विभाजन की मॉंग की तो उनका उद्देश्य आम मुसलमानों की स्थिति सुधारना कदापि नही था। उनका स्पष्ट उद्देश्य भौगोलिक दृष्टि से महाद्वीप में एक ऐसा क्षेत्र स्थापित करना था कि मुस्लिम व्यवसायी-व्यापारी वर्ग तथा नवोदित बौद्धिक वर्ग हिन्दू प्रतिस्पर्धा से बच सके।
सवाल तो यह है कि कांग्रेस ने आखिर विभाजन क्यों मंजूर कर लिया? वस्तुतः मुस्लिम लीग किसी भी कीमत पर अपना हक़ लेने के लिए अड़ गई और ब्रिटिश सरकार को अपने ही बनाए जाल से न निकल पाने के कारण उनकी माँग को मंजूर करना पड़ गया, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन भारत की एकता और अखंडता में विश्वास रखनेवाली कांग्रेस ने विभाजन क्यों स्वीकार किया, यह अब भी एक मुश्किल सवाल है। आखिर बात क्या थी कि नेहरू और पटेल ने 3 जून योजना की वकालत की और कांग्रेस कार्यसमिति तथा (अखिल भारतीय) कांग्रेस समिति ने उसके पक्ष में प्रस्ताव पारित कर दिया? सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि गाँधीजी तक ने अपनी मूक स्वीकृति दे दी, क्यों? गाँधी के समर्थकों का यह मानना है कि नेहरू और पटेल ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि सत्ता का इंतज़ार उनके लिए असहनीय हो रहा था और इसीलिए उन्होंने गाँधीजी की सलाह की उपेक्षा कर दी, जिससे गाँधीजी काफी मर्माहत हुए लेकिन फिर भी उन्होंने सांप्रदायिक घृणा का अकेले ही मुक़ाबला किया, जिस प्रयास की प्रशंसा में माउंटबेटन ने उन्हें एक “वनमैन बाउंडरी फोर्स“ कहा।
इस संदर्भ में यह याद रखना चाहिए कि 1947 में नेहरू, पटेल और गाँधी के सामने विभाजन को स्वीकार करने के सिवाय कोई और रास्ता नहीं रह गया था। चूँकि कांग्रेस मुसलिम जनसमूह को राष्ट्रीय आंदोलन में नहीं खींच सकी थी और मुसलिम सांप्रदायिकता के ज्वार को रोक पाने में अक्षम साबित हुई थी, इसलिए अब उसके पास विकल्प ही नही था। कांग्रेस की विफलता 1946 के चुनावों में एकदम साफ़ हो चुकी थी। इन चुनावों में लीग को 90 प्रतिशत मुसलिम सीटें मिली थीं। वैसे तो कांग्रेस जिन्ना के विरूद्ध़ अपनी लड़ाई 1946 में ही हार चुकी थी, लेकिन जब कलकत्ता और रावलपिंडी की सड़कों पर तथा नोआखाली और बिहार के गाँवों में सांप्रदायिक दंगे फूट पड़े, तो उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। जून 1947 तक कांग्रेस के नेता महसूस करने लगे थे कि सत्ता के तुरंत हस्तांतरण से ही यह सांप्रदायिक पागलपन रोका जा सकता है। अंतरिम सरकार की अपंगता ने भी पाकिस्तान को एक अपरिहार्य वास्तविकता बना दिया। अंतरिम सरकार के मंत्री लोग आपस में तू-तू मैं-मैं करते, और अलग-अलग बैठकों में निर्णय करते। इसलिए बैठकों से बचते रहते और लियाकत अली खाँ, जिनके पास वित्त विभाग था, दूसरे विभागों के काम में रुकावट डालते। गवर्नर लीग का साथ दे रहे थे और दंगों में लोग मारे जा रहे थे। नेहरू को लग रहा था कि अगर इन चीज़ों को अंतरिम सरकार रोक नहीं पा रही है, तो फिर उसमें हमारे बने रहने का औचित्य क्या है? सत्ता के हस्तांतरण से कम-से-कम इतना तो होगा कि एक ऐसी सरकार बनेगी जो सचमुच नियंत्रण कर सके।
दो औपनिवेशिक राज्यों को तात्कालिक सत्ता हस्तांतरण की योजना स्वीकार करने का एक और कारण था। इससे भारत के विखंडीकरण की आशंका नष्ट हो जाती, क्योंकि इस योजना में प्रांतों और रियासतों को अलग से स्वतंत्रता देने की बात नहीं थी। अन्त में अपनी तमाम अनिच्छा के बावजूद रियासतों को इस या उस देश में शामिल होना पड़ा जो एक बडी उपलब्धि थी। रियासतें अगर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखतीं, तो भारत की एकता के लिए वे पाकिस्ताने से भी बड़ा खतरा साबित होतीं।
इस तरह 1947 में कांग्रेस द्वारा विभाजन को स्वीकार करना मुसलिम लीग की एक संप्रभु मुसलिम राज्य की दलील को स्वीकार करने की प्रक्रिया का ही आखिरी चरण था। वस्तुतः लीग के सम्मुख जून 1947 में ही पूर्ण समर्पण किया जा चुका था, जब कांग्रेस ने यह इच्छा जाहिर की थी कि यदि तत्कालीन अंतरिम सरकार को सत्ता का हस्तांतरण कर दिया जाए, तो वह डोमिनियन का दर्जा स्वीकार कर लेगी। लेकिन अन्ततः उसने विभाजन और डोमिनियन का दर्जा, दोनों स्वीकार कर लिए।
भारत विभाजन और गॉंधीजी -
भारत विभाजन की इस प्रक्रिया में गॉंधीजी की क्या मनःस्थिति थी। सामान्यतया इस काल में उनकी अप्रसन्नता और असहाय स्थिति का अक्सर उललेख होता है और यह भी कहा जाता है कि कांग्रेस की फ़ैसला लेनेवाली समितियों में उनकी कोई आवाज नहीं रह गई थी तथा वे अपने ही प्रिय नेहरू और पटेल द्वारा छले गये थे। हमारी दृष्टि में गाँधीजी की असहाय स्थिति का कारण न तो जिन्ना का दुराग्रह था और न नेहरू और सरदार पटेल की तथाकथित सत्ता-लोलुपता। वास्तव में वे अपने ही लोगों के सांप्रदायिक हो जाने से असहाय थे। उनके अपने लोगों में ही सांप्रदायिकता घुस गई थी। अपनी 4 जून 1947 की प्रार्थना सभा में उन्होंने कहा कि कांग्रेस ने विभाजन को इसलिए स्वीकार किया, क्योंकि लोग ऐसा ही चाहते थे। यह माँग मंजूर की गई, क्योंकि आप लोगों ने ऐसा चाहा। कांग्रेस ने यह माँग कभी नहीं की, लेकिन कांग्रेस में जनता की नब्ज़ समझने की क्षमता है, उसने महसूस किया कि खालसा और हिंदू, दोनों की इच्छा यही है। तो यह विभाजन के लिए सिखों और हिंदुओं की आतुरता थी, जिसने गाँधीजी को व्यर्थ, दिशाहीन और अक्षम बना दिया था, गाँधीजी जन नेता थे और जन नेता की उस वक्त अहमियत ही क्या रह जाती है, जब उसका जन ही उसका अनुसरण करने से इनकार कर दे। गाँधीजी कांग्रेस के नेताओं की अवहेलना तो कर सकते थे, जैसा कि उन्होंने 1942 में किया था, जब उन्होंने देखा कि समय संघर्ष के लिए सही है। लेकिन अब वे बड़े पैमाने पर कुछ नहीं कर पाते। 1947 में ’अच्छाई की ताक़तें’ थी ही नहीं, जिनके आधार पर वे कोई कार्यक्रम बनाकर निर्णय ले पाते। गॉंधीजी ने स्वयं कहा था कि मुझे इस प्रकार की स्वस्थ भावना का कहीं कोई चिह्न दिखाई नहीं देता। अतएव उपयुक्त समय आने तक मुझे इंतज़ार करना पड़ेगा।
लेकिन एक दृष्टिहीन व्यक्ति अँधेरे में निहायत अकेले टटोलते हुए प्रकाश की किसी किरण तक पहुँचता, तब तक राजनीति इंतज़ार नहीं कर सकती थी। माउंटबेटन योजना उनका पीछा कर रही थी और गाँधीजी समझ रहे थे कि दंगों तथा अंतरिम सरकार की अक्षमता के कारण विभाजन अपरिहार्य हो गया है। अतः 14 जून 1947 की अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक में दृढ़ क़दमों से गए और कांग्रेसजनों से विभाजन को एक तात्कालिक अनिवार्यता रूप में स्वीकार करने को कहा, लेकिन उन्हें यह सलाह भी दी कि वे इसे हृदय से न स्वीकार करें तथा इसे निरस्त करने का दीर्घकालीन कार्यक्रम बनाएँ। गाँधीजी ने स्वयं भी विभाजन हृदय से स्वीकार नहीं किया और नेहरू की तरह भारतीय जनता में उनकी आस्था बनी रही। यह बात अवश्य है कि अब उन्होंने अकेले चलने का फैसला किया, वे नोआखाली के गाँवों में पैदल घूमते रहे, बिहार के मुसलमानों को आश्वस्त करते रहे और कलकत्ता में दंगा रोकने के लिए न केवल लोगों को समझाते रहे, बल्कि उपवास की धमकी भी देते रहे। वैसे भी ’जदि तोर डाक शुने केउ न आशे, तबे एकला चलो रे’ (यदि तुम्हारे आह्वान पर कोई नहीं आता, तो अकेले चलो) अरसे से उनका प्रिय गीत था, वही उन्होंने किया।
15 अगस्त 1947 की सुबह जब जनमानस आज़ादी और विभाजन की वास्तविकता से रूबरू हो रहे थे, हमेशा की तरह, गाँधी और नेहरू दोनों ही भारतीय जनता की भावनाओं को प्रतिबिंबित कर रहे थे, गाँधीजी अपनी प्रार्थना के ज़रिए अँधेरे में हो रही हलचल, हत्याओं, अपहरणों और बलात्कारों का प्रतिकार कर रहे थे, तो नेहरू की आँखें क्षितिज पर उभर रहे प्रकाश पर टिकी थीं, जहाँ स्वतंत्र भारत का उदय हो रहा था। जवाहर लाल नेेहरू के इन कवित्वपूर्ण शब्दों ने कि - “बरसों पहले हमने नियति के साथ एक करार किया था’ लोगों को याद दिलाया कि उनकी किकर्तव्यविमूढ़ता ही एकमात्र सत्य नहीं है, उससे भी बड़ा सत्य है वह गौरवपूर्ण संघर्ष जो जद्दोजहद से भरा था, जिसके दौरान बहुत-से लोग शहीद हुए और असंख्य लोगों ने करबानियाँ दीं, उस दिन का स्वप्न देखते हुए, जब भारत आज़ाद होगा, वह दिन आ गया था।